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निले पता
कोमल काया का उपभोग करने के लिए उत्तेजित होता है, लिप्त हो जाता है । फिर भले ही उसे शब्द, रुप, रस, गन्ध, स्पर्श प्रादि के सुख के पीछे दर-दर भटकते समय यह भान न हो कि वह कर्म - काजल से पुता जा रहा है । लेकिन यह निर्विवाद है की वह पुता अवश्य जाता है और यह प्रक्रिया ज्ञानी - पुरुषों से अज्ञात नहीं है । वे सब जानते हैं । जीव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय, नाम, गोत्र और वेदनीय, इन सात कर्मों से लिप्त बनता रहता है । यह काजल - लेप चर्मचक्षु देख नहीं पाते। इसे देखने के लिये जरुरत है - ज्ञानदृष्टि की, केवलज्ञान की दृष्टि की ।
तब क्या चतुर्गतिमय संसार में रहेंगे तब तक कर्म-काजल से लिप्त ही रहना होगा ? ऐसा कोई उपाय नहीं है कि संसार में रहते हुए भी इससे अलिप्त रह सकें ? क्यों नहीं ? इसका भी उपाय है । पूज्य उपाध्यायजी महाराज फरमाते हैं : 'ज्ञानसिद्धो न लिप्यते', ज्ञानसिद्ध आत्मा, कज्जल-गृह समान इस संसार में रहते हुए भी निरन्तर अलिप्त रहती है । यदि आत्मा के अंग-प्रत्यंग को ज्ञान रसायन के लेप से पुत दिया जाय, तो फिर कर्म रुपी काजल उसे स्पर्श करने में पूर्णतया असमर्थ हैं । ऐसी आत्मा कर्म-काजल से पुती नहीं जा सकती । जिस तरह कमल-दल पर जल-बिन्दु टिक नहीं सकते, जल-बिन्दुओं से कमल-पत्र लीपा नहीं जाता, ठीक उसी तरह कर्म - काजल से आत्मा भी लिप्त नहीं होती । लेकिन यह अत्यन्त आवश्यक है कि ऐसी स्थिति में आत्मा को ज्ञान - रसायन से भावित कर देना चाहिये । ज्ञान रसायन से आत्मा में ऐसा अद्भूत परिवर्तन आ जाता है कि कर्म काजल लाख चाहने पर भी उसे लेप नहीं सकता ।
ज्ञान-रसायन सिद्ध करना परमावश्यक है और इसके लिये एकाध वैज्ञानिक की तरह अनुसन्धान में लग जाना चाहिये । भले इसके अन्वेषण में, प्रयोग में कुछ वर्ष क्यों न लग जाएँ ! क्यों कि भयंकर संसार में ज्ञान - रसायन के आधार की अत्यन्त आवश्यकता है । इसे सिद्ध करने के लिये इस ग्रंथ में विविध प्रयोग सुझाये गये हैं । हमें उन प्रयोगों को प्राजमाना है और आजमा कर प्रयोग सिद्ध करना है । फिर भय नाम की वस्तु नहीं रहेगी । ज्ञान रसायन सिद्ध होते ही
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