________________
१३२
ज्ञानसार
संसारे निवसन स्वायसज्जः कज्जलवेश्मनि ।
लिप्यते निखिलो लोक: ज्ञानसिद्धो न लिप्यते ॥१॥१॥ अर्थ : कज्जलग्रह समान संसार में रहता, स्वार्थ में तत्पर (जीव) समस्त
लोक, कर्म से लिप्त रहता है, जब कि ज्ञान से परिपूर्ण जीव कभी
भी लिप्त नहीं होता है । विवेचन :-संसार यानी कज्जल गह। उसकी दीवारें काजल से पती हई हैं; छत काजल से सनी हुई है और उसका भू-भाग भी काजल से लिप्त है। जहाँ स्पर्श करो, वहाँ काजल । पाँव भी काजल से सन जाते हैं और हाथ भी। सीना भी काजल से काला और पीठ भी काली हो जाती है। जहाँ देखो, वहाँ काजल ही काजल! मतलब, जब तक उसमें रहोगे, तब तक काले बनकर ही रहना होगा।
संभवत : तुम यह कहोगे कि यदि उसमें सावधानी से सतर्क बनकर रहा जाए तो काला बनने का सवाल ही कहाँ उठता है ? लेकिन कैसी सावधानी का आधार लोगे ? जब कि कज्जल - गृह में वास करने वाला हर जीव अपने स्वार्थ के प्रति ही जागरूक है, सावधान है। क्योंकि स्वार्थ-सिद्धि के नशे में धुत्त उन्हें कहां पता है कि वे पहले से ही भूत जैसे काले बन गये हैं ! उन्हें तभी ज्ञान होगा, जब वे दर्पण में अपना रूप निहारेंगे । और तब तो वे अनायास चीख उठेंगे : 'अरे, यह मैं नहीं हैं, कोई दूसरा है !' लेकिन दर्पण में अपना रूप देखने तक के लिये भी उन्हें समय कहाँ है ? वे तो निरन्तर दूसरों का रूप-रंग
और सौन्दर्य देखने के लिये पागल कुत्ते की तरह घिघिया रहे हैं और वह भी स्वार्थान्ध बन कर। यदि परमार्थ-दृष्टि से किसी का सौन्दर्य, रूपरग देखेंगे तो तत्क्षण घबरा उठेगे । उनकी संगत छोड़ देंगे और कज्जल-गृह के दरवाजे तोड़ कर बाहर निकल पायेंगे।
__ संसार में ऐसा कौनसा क्षेत्र है, जहां जीवात्मा कर्म-काजल से लिप्त नहीं होता ? जहां मृदु- मधुर स्वरों का पान करने जाता है, .... लिप्त हो जाता है । मनोहर रुप - रंग और कमनीय सौन्दर्य का अवलोकन करने के लिये प्राकर्षित होता है.... लिप्त हो जाता है। गंध -सुगन्ध का सुख लूटने के लिये आगे बढ़ता है .... लिप्त हो जाता है । स्वादिष्ट भोजन की तृप्ति हेतु ललक उठती है ... लिप्त हो जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org