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ज्ञानसार
- तब क्या इस संसार में कोई सुखी नहीं है ? नहीं भाई, यह भी गलत है। इस ससार में सुखी भी हैं और वे हैं- मुनि । 'भिक्षुरेक: सखो लोके" एकमात्र भिक्षक/अरणगार/मुनि संसार में सर्वाधिक सुखी
और संपन्न व्यक्ति हैं । लेकिन जानते हो उनके सुख का रहस्य क्या है ? क्या उन्हें द्रव्यार्जन करना नहीं पड़ता, अतः सुखी हैं ? नहीं, यह बात नहीं है । जिस विषय-तृष्णा के पोषण हेतु तुम्हें द्रव्यार्जन करना पड़ता है, वह (विषय-तृष्णा) उनमें नहीं है । अतः वे परम सुखी हैं ।
श्री उमास्वातिजी ने उन्हें 'नित्य सुखी' संज्ञा से संबोधित किया है । निजितमदमदनानां, वाक्कायमनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् ॥२३८॥ स्वशरोरेऽपि न रज्यति शत्रावपि न प्रदोषमुपयाति । रोगजरामरणभयैरव्यथितो यः स नित्यसुखी ॥२४०।।
ऐसे महात्माओं के लिये यहीं इसी धरती पर साक्षात् मोक्ष है, जिन्होंने प्रचंड मद और कामदेवता-मदन को पराजित किया है । जिनके मन-वचन-काया में से विकारों का विष नष्ट हो गया है । जिनकी परपूदगल-विषयक आशा और अपेक्षायें नामशेष हो गयी हैं और जो स्वयं परम त्यागी व संयमी हैं । ऐसे महापुरुष शब्दादि विषयों के दारुण परिणाम को सोच, उसकी अनित्यता एवं दुःखद फल का अन्तर की गहराई से समझ और सांसारिक राग-द्वेषमय भयंकर विनाशलीला का खयाल कर, अपने शरीर के प्रति राग नहीं करते, शत्रु पर रोष नहीं करते, असाध्य रोगों से व्यथित नहीं होते, वृद्धावस्था की दुर्दशा से उद्विग्न नहीं बनते और मृत्यु से भयभीत नहीं होते । वे सदा-सर्वदा 'नित्य सुखी' हैं, परम तृप्त हैं ।
__परमाराध्य उपाध्यायजी ने इन सब बातों का समावेश केवल दो शर्तों में कर दिया है । ज्ञानतृप्त और निरंजन महात्मा सदा सुखी हैं। महा सुखी बनने के लिये उपाध्यायजी द्वारा अनिवार्य शर्ते बतायी गयी हैं । इन दो शर्तों को जीवन में क्रियात्मक स्वरूप प्रदान करने के लिये श्री उमास्वातिजी भगवत का मार्गदर्शन शत-प्रतिशत वास्तविक है।
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