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१.१८
न यत्र दुःखं न सुखं न चिन्ता, न राग-द्वेषो न च काचिविच्छा | रसः स शांतः कथितो मुनीन्द्रः, सर्वेषु भावेषु समप्रमाण: ।।
- साहित्यदर्पण
ऐसे शांतरस का जन्म 'शम' के स्थायी भाव से होता है । और यह भी सत्य है कि बिना पुरुषार्थ किये अपने आप ही शांत रस पैदा नहीं होता । उसके लिये अनित्य, अशररण, एकत्व, अन्यत्व, संसारादि भावनाओं का सतत चिन्तन-मनन करते हुए विश्व के पदार्थों की निःसारता, निर्गुणता का ख्याल मन में दृढ़-सुदृढ़ बनाना पड़ता है । साथ ही परमात्म-स्वरूप के संग प्रीति-भाव प्रगट करना आवश्यक है । क्योंकि शांतरस का यही एकमेव ' आलंबन-विभाव' है ।
ज्ञानसकर
यह सब करने के बावजूद भी 'रस' का उद्दीपन तभी और उस स्थान पर संभव है, जहां योगी पुरुषों का पुण्य - सान्निध्य हो । एकाध पवित्र, शांत और सादा श्राश्रम हो । कोई रम्य और पवित्र तीर्थस्थान हो । वह हरी-भरी दूब और चारों ओर हरियाली हो । जहाँ कल कल नाद की मधुर ध्वनि के साथ शीतल झरने निरन्तर प्रवाहित हो । संत - श्रमरणश्रेष्ठों की शास्त्रपाठ और स्वाध्याय की धूनी रमी हो । निकटस्थ पर्वतमाला पर स्थित मनोरम मंदिरों पर देदीप्यमान कलश हो और धर्मध्वज पूरी शान से इठलाता हुआ गगन में फहराता हो । साथ ही मधुर घंटनाद से आसपास का वातावरण आनंद की लहरियों से भरा हो । क्योंकि शांत रस के ये सब उद्दिपन विभाव जो हैं ।
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ऐसे मनोहारी वातावरण में 'शांतरस' का प्रादुर्भाव होता है और तभी इसका जी भरकर ग्रास्वादन करनेवाले मुनिराज परम सुख का / पूर्णानन्द का अनुभव करते हैं । ऐसे आह्लादक सुख की परम तृप्ति की अनुभूति तो क्या, बल्कि इसकी शतांश अनुभूति भी बेचारी इन्द्रियों को नहीं होती । षड्स भोजन का रस भी शांत रस की तुलना में नीरस और स्वादहीन होता है । तब भला जिह्वेन्द्रिय को ऐसे शांतरस की अद्वितीय अनुभूति कैसे और कहां से संभव है ? मतलब, सर्वथा असंभव है ।
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