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तृप्ति
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पांच इन्द्रियों के भोग्य विषयों का ऐश्वर्य प्राप्त करने और विलासिता में स्वच्छन्दतापूर्वक केलि-क्रीडा करने के लिये जीवात्मा न जाने कैसा पामर.... दीन.... निःसत्त्व और दुर्बल बन जाता है कि पूछो मत ! स पर शांत चित्त से विचार करना परमावश्यक है । उद्दीप्त वासनाओं के नग्न नृत्य में ही परमानंद की कल्पना कर आकंठ डूबे मानव को काल और कर्म के क्रूर थपेड़ों में फँसकर कैसा करूरण रूदन, श्राक्रन्दन करना पड़ता है ! उसकी कल्पना मात्र से रोम-रोम सिहर उठता है ! इसको वास्तविकता और संदर्भ को जानना हर जीव के लिये जरूरी है !
तभो भ्रम का जाल फटेगा ओर भ्रांति दूर होगी, तभी वास्तविक तृप्ति का मार्ग सुखद बनेगा । मिथ्या तृप्ति के अनादि आकर्षण का वेग कम होता जाएगा ।
इस तरह आत्मा के निर्भ्रान्त होते ही समकित को दिव्य दृष्टि प्राप्त होगी । इससे ग्रात्मा, महात्मा और परमात्मा के मनोरम स्वरूप का दर्शन होगा, वास्तविक दर्शन होगा । और तब स्वाभिमुख बनी आत्मा को सही आत्मगुणों का अनुभव होता है । इसी अनुभव की परम तृप्ति आत्मा के अनन्त वीर्य को पुष्ट करती है । इस प्रकार जब वीर्य पुष्टि होने लगे, तब समझ लेना चाहिये कि परम तृप्ति की मंजिल मिल गयो है । क्योंकि परम तृप्ति का लक्षण ही वीर्य पुष्टि है ।
अध्यात्ममार्ग के योगी श्रीमद् देवचन्द्रजी ने निर्भ्रान्त बन, आत्मानुभव की परम तृप्ति करने के लिये आवश्यक तीन उपाय बताये हैं :
गुरु-चररण का शरण, जिन-वचन का
श्रवण, सम्यक् तत्त्व का ग्रहरण
उतना
इन शरण, श्रवरण और ग्रहरण में जितना पुरुषार्थ होता है, ही जीवात्मा अनादि भ्रांति से मुक्त होता है । आत्मतत्त्व के प्रति प्रीति भाव उत्पन्न होता है । अनुत्तर धर्म-श्रद्धा जागृत होती है । अनंतानुबंधी कषायादि विकारों का क्षयोपशम होता है, गाढ कर्म-वंधन कम होते हैं । देवा एवं सांसारिक काम-लिप्सा और भागोपभोग के प्रति
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