________________
ज्ञानसार
भी आलस्य, वेठ, अविधि अथवा उदासीनता न हो, बल्कि सदैव अदम्य उत्साह और असीम उल्लास होना चाहिये । ज्ञान, दर्शन, तप, चारित्रादि के आचारों का यथाविधि परिपालन होना चाहिये। हालांकि भवसागर ने पार उतरने वाली भव्यात्माओं में यह स्वाभाविक रूप से होता है ।
३. शान्त : शान्ति....समता...उपशम की तो प्रात्यन्त आवश्यकता है । भले ही ज्ञान हो, क्रिया हो, परंतु उपशम का पूर्ण रूप से अभाव है, तो पार लगना असंभव है। क्योंकि क्रोध और रोष की भावना जगते ही ज्ञान एवं क्रिया निष्प्राण और निर्जीव हो जाती है । भवसागर में भ्रमरण करती नौका वहीं रुक जाती है, ठिठक जाती है। अगला प्रवास अवरोधों के कारण भंग हो जाता है । यदि हमने क्रोध, रोष, ईर्ष्या रुपी भयंकर जलचरों को दूर नहीं किया तो वे नौका में छेद कर देगेउसे जल-समाधि देने का हर संभव प्रयत्न करेंगे । नौका में छेद होने भर की देर है कि समुद्र-जल उस में भर आएगा और परिणाम यह होगा कि वह सदा के लिये समुद्र के गर्भ में अन्तर्धान हो जायेगी। इसी तथ्य को परिलक्षित कर उपाध्यायजी महाराज ने बताया है कि भवसागर पार लगने की इच्छुक आत्मा शान्त-प्रशान्त, क्षमाशील और परम उपशमयुक्त होनी चाहिये ।
४. भावितात्मा : ज्ञान, दर्शन और चारित्र से प्रात्मा भावित बननी चाहिये । जिस तरह कस्तूरी से वासित बने वस्त्र में से उसकी मादक सुगन्ध वातावरण को प्रसन्न और आह्लादक बनाती है, ठीक उसी तरह ज्ञान-दर्शन-चारित्र से सुरभित बनी आत्मा में से ज्ञान-दर्शनचारित्र की सौरभ निरन्तर प्रसारित होती रहती है । उसमें से मोहअज्ञान की दुर्गन्ध निकलने का सवाल ही पैदा नहीं होता।
५. जितेन्द्रिय : भवसागर से पार लगने के इच्छक जीवात्मा को अपनी इन्द्रियाँ वश में रखनी चाहिये । अनियंत्रित बनी इन्द्रियाँ जीव को नौका में से समुद्र में फेंकते विलंब नहीं करती हैं ।
इन पाँच बातों को जिसने अपने जीवन में पूरी निष्ठा के साथ कार्यान्वित किया है, उसे भवसागर से पार लगते देर नहीं लगेगी। अन्य बोवों को पार लगाने की योग्यता भी तभी संभव है, जब उक्त पाँच बातों को साध लिया हो और जिसने इस की कतइ परवाह नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org