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क्रिया
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हर क्रिया में अप्रमत्त बन दुष्ट आचार-विचारों को दुबारा धुसने न । दूंगा । मुझे अपने संकल्प में पराजित होकर पीछे नहीं हटना है ।
ऐसे समय में पूज्य उपाध्यायजी महाराज विश्वास दिलाते हैं कि अगर इस तरह दृढ़ संकल्प से वह साधुजीवन की साधना में लग जाए, तो अल्पावधि में ही पुन: व्रत के पवित्र भाव से प्लावित होते देर नहीं लगेगी।
शुभ क्रिया तो शुभ भाव की बाड़ है, कंटीली और मजबूत । यदि उसमें कोई छेद कर दे, तो अशुभ भाव रुपी पशुओं को घुसते देर नहीं लगेगी । और शुभभाव की हरी-भरी फसल को पल भर में चट कर जायेंगे | गँवार किसान भी यह भली-भाँति जानता है कि बाड़ के बिना फसल की रक्षा नहीं हो सकती । तब भला बुद्धिमान साधक इस तथ्य
और सत्य को क्या नहीं समझ सकता ? वह जरूर समझता है । लेकिन क्या करे, राह जो भटक गया है । महाव्रत/अणुव्रतादि के भाव और दर्शन-ज्ञान-चारित्र के भावों की सुरक्षा तथा संरक्षण के लिये ही अनंतज्ञानी परमात्मा जिनेश्वरदेव ने तप-संयमादि अनेकविध क्रियाओं का निरुपण किया है । अतः क्रियाओं का परित्याग कर शुभ-भाव में वृद्धि और रक्षा की बात करना सरासर मूर्खता है। यह शाश्वत् सत्य है कि अशुभ भावों की जन्मदात्री अशुभ क्रियायें ही हैं, जिसे कोई झूठला नहीं सकता । अत: इसका सदन्तर त्याग ही मोक्ष-मार्ग का सुनहरा सोपान है, जिसका आरोहण करना हर साधक का परम कर्तव्य है ।
गुरणवद्धय ततः कुर्यात् क्रियामस्खलनाय वा ।
एकं तु संयमस्थानं, जिनानामवतिष्ठते ॥७॥७॥ अर्थ : अतः गुण की वृद्धि हेतु अथवा उसमें से स्खलन न हो जायें इसलिये
क्रिया करना आवश्यक है । एक संयम-स्थानक तो केवलज्ञानी को
ही होता है । विवेचन : जीवात्मा का साधना के समय केवल एक ही लक्ष्य, एक ही ध्येय और एक ही आदर्श रहना चाहिये और वह है, 'गुणवृद्धि' । प्रत्येक शुभ/शुद्ध क्रिया का लक्ष्य / ध्येय और आदर्श एक मात्र आत्मगुरणों की अभिवृद्धि ही होना चाहिये । व्यापारी दुकान के जरिये सिर्फ एक
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