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ज्ञानसार
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ही मकसद पूरा करने में हमेंशा जुटा रहता है और वह मकसद है धनवृद्धि | धन बटोरने के लिये, संपत्ति इकट्ठी करने के लिये वह हर संभव मार्ग अपनाता है, उपाय और योजनाओंों को कार्यान्वित करता रहता है । भले ही उसका प्रयास, अपनाया हुआ मार्ग अपार कष्ट और अथक परिश्रम वाला क्यों न हो ? लेकिन वह लक्ष्य-पूर्ति के लिये सदा-सर्वदा सचेत, सजग और सन्नद्ध रहता है । और जैसे-जैसे धन-वृद्धि होती जाती है, उसके पुरुषार्थ में बढ़ोतरी होती जाती है । उसका पुरुषार्थ दीर्घकालीन होता जाता है और यह सब करते हुए उसके उत्साह का ठिकाना नहीं रहता ।
ठीक उसी तरह धार्मिक क्रियात्मक साधना, गुरणवृद्धि हेतु खोली गयी दुकान ही है । और क्रियात्मक व्यापारी की प्रत्येक क्रिया का लक्ष्य ! ध्येय गुरणों की वृद्धि ही होना चाहिए । जिन-जिन क्रियाओं के माध्यम से गुरणवृद्धि होने की संभावना है, भले ही वे क्रियायें कष्टप्रद और परिश्रम से परिपूर्ण क्यों न हों, गुणवृद्धि के अभिलाषी को हँसते-हँसते करनी चाहिये । और जैसे-जैसे गुणवृद्धि होती जायेगी, वैसे-वैसे उसके पुरुषार्थ में एक प्रकार की स्थिरता और दीर्घकालीनता का आविर्भाव होता जाएगा । फलतः उक्त क्रिया का आनन्द ब्रह्मानन्द - चिदानन्द में परिवर्तित होते विलंब नहीं होगा ।
यहाँ हम कुछ महत्वपूर्ण क्रियाओं पर विचार करते हैं ।
सामायिक : इसका ध्येय / लक्ष्य समतागुरण की वृद्धि होना चाहिये । जैसे-जैसे सामायिक की क्रिया कार्यान्वित होती जाये, वैसे-वैसे ग्रात्म- कोष में समतागुण की वृद्धि होनी चाहिये और सुख-दुःख के प्रसंग पर उन्मादशोक की वृत्तियाँ मंद होनी चाहिये । साथ ही प्रतिदिन, प्रतिमाह और प्रतिवर्ष हमें आत्मनिरीक्षण करना चाहिये कि सामायिकक्रिया के माध्यम से हमने क्या पाया ? राग-द्वेष कम हुए हैं या नहीं ? क्रोध-वृत्ति में कमी हुई है अथवा नहीं ? वैसे सामायिक की क्रिया निरन्तर गुणवृद्धि करने वाली और समतागुरण की एकमेव संरक्षरण शक्ति है ।
प्रतिक्रमण : पापजुगुप्सा, पापनिन्दा, पाप-त्याग के गुरण की वृद्धि के लिये क्रिया की जाती है । इस के माध्यम से गुरणवृद्धि के साथ-साथ जीवात्मा पाप-स्खलन से बच जाता है ।
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