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ज्ञानसार
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तत्राष्टमे गुणस्थाने, शुक्लसद्धयानमादिमम् । ध्यातुं प्रक्रमते साधु राधसंहननान्वित : ॥५१॥
- गुणस्थान क्रमारोहे आठवें गुणस्थानक पर प्रथम वज्रऋषभ-नाराच संघयण वाला साधु प्रथम शुक्लध्यान करना प्रारंभ करता है। तात्पर्य यह है कि उसे ध्यान करने की क्रिया करनी ही पडती है ।
घाती कर्मों का क्षय कर जो आत्मा पूर्णज्ञानी बन गयी, उसे भी सर्वसंवर और पूर्णानन्दप्राप्ति के अवसर पर योगनिरोध की क्रिया करनी पड़ती है, समुद्घात की क्रिया करनी पड़ती है ।
पूर्णता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने के लिये हर भूमिका पर प्रावश्यक क्रिया करनी पड़ती है। इस तथ्य का वही इन्कार कर सकता है, जिसे जैनदर्शनप्रणीत मोक्ष-मार्ग का ज्ञान न हो, जानकारी न हो।
तर्क से भी क्रिया का महत्व समझा जा सकता है । अनादिकाल से जीवात्मा पाप-क्रिया में आकंठ डूबी रहकर निरन्तर संसार-परिभ्रमण करती रही है । हमारी पाप-क्रियायें ही भव-भ्रमण की मूल कारण हैं। यदि भव-भ्रमण की क्रिया को रोकना है, तो पहले उसके कारणों का संशोधन कर उसे रोकना होगा, नष्ट करना पड़ेगा। पाप-क्रियाओं की प्रतिपक्षी धार्मिक क्रियाओं के द्वारा पाप-क्रियाओं का निवारण होता है।
जहाँ तक जीव संसार-भ्रमण करता है, उसे कुछ न कुछ कर्म अथवा कोई न कोई क्रिया करनी ही पड़ती है, फिर भले ही वह पापक्रिया हो या धार्मिक क्रिया । जिसकी दृष्टि सत-चित्-आनन्द स्वरुप पूर्णता की चरम चोटी तक पहुँच गयी हो, जो आत्मा उस मंजिल तक पहँचने के लिये प्रयत्नों की पराकाष्ठा कर रही हो, वह आत्मा उन पवित्र क्रियाओं को करने के लिये सदैव तत्पर रहती है ।
घी अथवा तेल से भरा दीपक स्वयं ज्योति स्वरुप होते हुए भी यदि उसमें समय पर घी या तेल न पूरा जाय, तो क्या होगा? मतलब वहां घी-तेल परने की क्रिया सर्वथा अपेक्षित है। बिजली खुद ही प्रकाश-स्वरुप होते हुए भी 'स्विच ऑन' करने की और पावर-हाउस
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