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ज्ञानसार
योग के त्याग से प्रकटित शैलेशी अवस्था में 'प्रयोग' नामक सर्वसंन्यासस्वरुप सर्वोत्तम योग की प्राप्ति होती है ।
इस तरह 'निर्गुण ब्रह्म' घटित होता है। औपाधिक धर्मयोग का अभाव ही 'निगुणता' कहलाती है। अनादिकाल से प्रात्मा में अवस्थित स्वाभाविक-क्षायिक गृरणों का कभी निर्मूलन नहीं होता । यदि उनका निर्मूलन हो जाए तो, गुणाभाव में गुणीजनों का भी अभाव हो हो जाए । लेकिन 'न भूतो न भविष्यति'। संसार में ऐसा होना सर्वथा असभव है । प्रौदयिक और क्षायोपशमिक गुणों का जब अभाव हो जाए, नाश हो जाए, तब जीवात्मा उन गुणों से रहित बन जाती है । उसी का नाम 'निर्गुण' है । इस तरह अन्यान्य दर्शनकारों की निर्गुण ब्रह्म' की कल्पना यथार्थ बनती है। लेकिन उनमें क्षायिक गुण होने से 'सगुण' भी है । । अत: हमें इसी सर्वत्याग को परिलक्षित कर निरन्तर प्रोदयिक भावों के परित्याग के पुरूषार्थ में लग जाना चाहिये ।
वस्तुतस्तु गुण : पूर्णमनन्तैर्भासते स्वत:। रुपं त्यक्तात्मन : साधोनि रस्य विधोरिव ॥८॥६४।।
अर्थ :- बादल हित चन्द्र की तरह परम त्यागी साधु/योगी का स्वरूप परमार्थ
समृद्ध और अनंत गुणों से देदीप्यमान होता है। विवेचन : कहीं बादल का नामो-निशान नहीं। स्वच्छ, निरभ्र आकाश ! पूर्णिमा की धवल रजनी और सोलह कलाओं से पूर्ण-विकसित चन्द्र ! कैसा मनोहारी दृश्य ! मानव-मन को पुलकित कर दे ! चराचर सृष्टि में ननचेतन का संचार कर दे ! निनिमेष दृष्टि टिकी ही रह जाए। ऐसे अपूर्व सौन्दर्य-क्षणों का कभी अनुभव किया है ? सांभव है, जाने-अनजाने कभी कर लिया हो ! फिर भी तन और मन अतृप्त ही रहा होगा ? पुन: पुनः उसी दृश्य का अवलोकन करने की तीव्र लालसा जगी होगी? लेकिन प्रयत्नों की पराकाष्ठा के बावजूद निराशा ही हाथ लगी होगी । तो लीजिये, परम आदरणीय उपाध्यायजी यशोविजयजी महाराज हमें इसी तरह के एक अलौकिक चन्द्र का अभिनव अवलोकन कराते हैं ।
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