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इन्द्रिय-जय
शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्शजन्य सुखों का उपभोग करने की, उनके माध्यम से प्रामोद-प्रमोद प्राप्त करने की वर्षों पुरानी आदत का उच्चाटन करने की निश्चित योजना बनाकर तप-त्याग-ज्ञान-भक्ति आदि के पुरुषार्थ में लग जाओ । नये सिरे से अपने जीवन में उसका आरंभ कर दो।
संसार-त्याग और मोक्ष-प्राप्ति के लिये इन्द्रिय-विजय का अभियान सर्वथा अनिवार्य है।
वृद्धास्तृष्णाजलापूर्णैरालवाले: किलेन्द्रियैः ।
मुमितुच्छां यच्छन्ति, विकारविषपादपाः ॥२॥५०॥ अर्थ : लालसा रुपी जल से लबालब भरी इन्द्रय रुपी क्यारियों से फले-फूले
विषय-विकार रुपी विषवृक्ष, जीवात्मा को तीव मोह-मूर्छा देते हैं। विवेचन : इन्द्रियाँ खेत की क्यारियों जैसी हैं । उनमें लालसा और विषय-स्पृहा का जल लबालब भरा जाता है । साथ ही इन क्यारियों में बीज-स्वरूप पड़े विषय-विकार पनपते रहते हैं और कालान्तर से वटवृक्ष का रूप धारण कर लेते हैं। विकार-विकल्प के इन विषवक्षों की घटाओं की लपेट में जो जीव आ जाता है, वह विबश बन उसके अभेद्य बन्धनों में फंस जाता है और मोहवश अपने होश खो बैठता है ।
जब कि क्यारी में बीज भले ही पडा हो, लेकिन अगर उसे सींचा न जाए अथवा पानी न दिया जाय, तो वह फलता-फूलता नहीं, अंकुरित नहीं होता । फिर वृक्षरूप में प्रकट होने का सवाल ही नहीं रहता । जीवात्मा पाँच इन्द्रिय और मन लेकर जन्म धारण करता है । तब से ही उसकी इन्द्रियरूपी क्यारियों में मनघट से विषय-स्पृहा का जल-सिंचन अविरत रूप से होता ही रहता है । फलतः जैसे-जैसे वह बडा होता जाता है, वैसे-वैसे इन्द्रियों की क्यारियों में विषय-वासना का पौधा अंकुरित होता रहता है और जब तक वह यौवनावस्था को पहुँचता है, तब विषय-पौधा भी घटादार वृक्ष का रूप धारण कर लेता है । जीव इसी विषय-विकार के घटादार वृक्ष की घनी छाया में सुस्ताता रहता है । मोह का गाढा जादू उस पर सवार हो जाता है । उसका चित्त भ्रमित होता जाता है और मन मायाजाल में उलझकर मूच्छित बन जाता है । अपने होश गँवा बैठता है, अट-शंट बकता रहता है ।
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