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इन्द्रिय-जय
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ही अन्त समय तक होगा । क्योंकि तृप्त होना उसका मूल स्वभाव ही नहीं है । ठीक इसी तरह पाँचों इन्द्रियों के स्वभाव में भी संतुष्ट होने जैसी वात नहीं है ।
इन्द्रियों का उदर भी सागर की गहराई जैसा प्रतल और गहरा है । अनंतकाल से, जीव अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये पौद्गलिक विषयों का भोग देता आया है, लेकिन उन्होंने उसे ग्रहण करने से कभी इन्कार नहीं किया । जरा वर्तमान जीवन की तरफ तो दृष्टिपात करो | अभी पिछले महीने ही उसे तृप्त करने के लिये क्या तुमने मनोहर शब्द, अनुपम रूप, स्वादिष्ट भोजन ( रस ) लुभावनी महक ( गंध ) और मृदु / कोमल स्पर्श का भोग नहीं चढ़ाया ? फिर भी वह तो सदा-सर्वदा के लिये भूखी जो ठहरी ! उसका उस पर कोई असर न हुआ । इस माह दुबारा क्षुधा शान्ति के लिये उसकी वही मांग, वही भूख और वही अतृप्ति । पिछले दिन पिछले माह और पिछले वर्ष जैसी अतृप्ति थी, भूख थी, वैसी ही ग्राज भी है । उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ, बल्कि विगत की तरह आज भी उनकी वही अवस्था है । इसका कारण उनका मूल स्वभाव है । तृप्त होना तो उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सीखा । जैसे-जैसे उनको अनुकूल वातावरण मिलता जाता है, वैसे-वैसे वे अनुकूल विषयों की अधिकाधिक स्पृहा करती रहती हैं । क्षणिक तृप्ति की टेकरी / टीले में अतृप्ति का खदबदाता लावा - रस भरा हुआ रहता है ।
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वाकई क्या तृप्त होना है ? ऐसी तृप्ति की गरज है कि दुबारा गरम लावारस का भोग न बनना पडे ? तब तुम दृढ़ निश्चयी बन अपनी इन्द्रियों को विषय खाद्य की पूर्ति कर तृप्त करने के बजाय, ग्रन्तरात्मा द्वारा तृप्त करने का प्रयोग कर देखो । सम्यग् विवेक के माध्यम से अप्रशस्त विषयों से इन्द्रियों को अलग कर उन्हें देव - गुरु-धर्म की आराधना में संलग्न कर दो । देव गुरु के दर्शन, सम्यक् ग्रंथों का श्रवण, परमात्मपूजन और महापुरुषों के गुणानुवाद में अपनी इन्द्रियों को लगा दो, तन्मय कर दो । दीर्घकाल तक सत् कार्यों में जुड़े रहने से उनमें परिवर्तन आते देर नहीं लगेगी और तब एक क्षण ऐसा आएगा कि वे परम तृप्ति का अनुभव अवश्य करेंगी ।
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