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इन्द्रिय-जय
को इन्द्रिय की यह सलाह सहज ही पसन्द आ जाती है और वह विषयों की स्पृहा में तन्मय बन जाता है ।
इस तरह जीवात्मा मोह के बन्धनों में जकड़ जाता है । फलतः बाह्य-रूप से धर्म-क्रिया में सदा तत्पर हो, लेकिन आन्तरिक रूप से मोह-माया के जंगल में भटक जाता है । अतः संसार से मुक्ति चाहने बाली आत्मा को हमेशा इन्द्रियों के विषय-पाश से काफी सचेत रहना चाहिये ।
गिरिमत्स्नां धनं पश्यन, धावतीन्द्रियमोहितः ।
अनादिनिधनं ज्ञानं धनं पार्वे न पश्यति ॥५॥५३॥ अर्थ :- इन्द्रिय के विषयों में निमग्न मूर्ख जोव पर्वत की मिट्टी को भी सोना
चांदी वगैरह समझ, अतुल सपदा स्वरुप मानता है, उसे पाने के लिये बावरा बन चारों तरफ भागता है, परन्तु अपने पास रही
अनादि-अनन्त ज्ञानसंपदा को देखता नहीं है । विवेचन : इन्द्रियों के विषयों में ग्रासक्त जीव न जाने कैसा मूर्ख है, पागल ! जो धन नहीं है, उसके पीछे निरन्तर भागता रहता है और वास्तव में जो धन है, उससे बिल्कुल अनजान, देखबर है । उसे पाने की तनिक भी चेष्टा नहीं करता । वह उसके बिल्कुल पास में होते हुए भी इसका उसे जरा भी ध्यान नहीं ।
सोना-चांदी अथवा धन-धान्यादि जो केवल पर्वत की मिट्टी के समान हैं, उसे वह संपत्ति मान बैठा है और उसे पाने के लिए दिनरात अथक प्रयत्न करता रहता है। कहते हैं न- 'दूर के ढोल सुहावने ।' दूर से जो संपत्ति दिखायी देती है, वाकई वह मृग-मरीचिका है। उसे पाने के लिये वह अपने चित्त की शान्ति और स्वास्थ्य को गँवा बैठता है और मिट्टी जैसी बदतर वस्तु को हथियाने के लिये, उसके संरक्षण और संवर्धन के लिये नित्य प्रति अशान्त, उद्विग्न बना रहता है ।
इस से बेहतर तो यह है कि तुम अपना रूख ज्ञान-धन जोड़ने की मोर मोड दो। इसे पाने के लिये तुम्हें कहीं बाहर नहीं जाना होगा; बल्कि वह तो अनादिकाल से तुम्हारे पास में ही है । तुम्हारी आत्मा की गहराईयों में दवा हुआ पडा है और उस पर कर्मों की अनगिनत
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