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त्याग .
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आदत को जडमूल से उखाड़ फेंकना है | आत्मरति/ज्ञानरति जैसी महामाता को तज कर पुद्गलरति-वेश्या के आलिंगन में आबद्ध होने की कुवृत्ति को छोडे बिना छुटकारा नहीं है ।
युष्माकं संगमोऽनादिर्बन्धवोऽनियतात्मनाम् ।
ध्र वैकरुपान् शीलादिबन्धूनित्यधुना श्रये ॥२॥५८॥ अर्थ : हे बन्धुगण ! अनिश्चित आत्मपर्याय से युक्त ऐसा तुम्हारा संगम
प्रवाह से अनादि है । अत: निश्चित एक स्वरुप से युक्त ऐसे शील,
सत्य, शम-दमादि वन्धुओं का अव मैं आश्रय लेता हूं । विवेचन : जिस तरह अभिनव माता-पिता बनाये, ठीक इसी तरह नये बन्धु भी बनाने ही होंगे । बाह्य स्थूल भूमिका पर आधारित बंधुजन से नाता तोडने हेतु प्रान्तर सूक्ष्म भूमिका पर रहे हुए बन्धुओं के साथ संबन्ध-संपर्क बनाना ही होगा ।
तुमने देखा होगा और अनुभव किया होगा कि बाह्य जगत में बन्धुत्व का सम्बन्ध कैसा अस्थिर है ! जो आज हमारे बन्धु हैं, वे ही कल शत्रु बन जाते हैं और जो शत्रु हैं, वे बन्धु बन जाते हैं । इस संसार में किसी संबंध की कोई स्थिरता नहीं है। ऐसे संबंधों से घिरे रहकर जीवात्मा ने न जाने कैसे गाढ राग-द्वेष के बीज बोये/पाप-बन्धन किये और दुर्गति की चपेट में फंस गये? लेकिन अब तो सावधान बन प्राप्त मानवभव में ज्ञान के उज्जवल प्रकाश की प्रखर ज्योति में आन्तर-बन्धुओं के साथ अट संबंध बाँधना जरूरी है। ठीक उसी तरह अनादिकाल से चले पा रहे संबंधों का विच्छेद करना भी आवश्यक है । ___ "हे बन्धुगण ! अनादिकाल से मैंने तुम्हारे साथ स्नेह-संबंध रखे। लेकिन उसमें नि:स्वार्थ भावना का प्रायःअभाव ही था, ना ही उसमें पवित्र दृष्टि थी । केवल भौतिक स्वार्थ के वशीभूत होकर बार-बार उसे दोहराता रहा । लेकिन जैसे ही स्वार्थ का प्रश्न आया, तुम्हें अपना शत्रु ही माना और शत्रु की तरह ही व्यवहार करता रहा । स्वार्थ लोलुपता में अन्धा बन, तुम्हारी हत्या की, तुम्हारे घर-बार लूटे । यहाँ तक कि अपने स्वार्थवश तुम्हें रसातल में पहुँचाते, तनिक भी न हिचकिचाय ।। सचमुच इस जगत में मनुष्य अपने स्वार्थ के खातिर
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