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না अपेक्षा तंतुओं का विच्छेद-करता है। मतलब, बाह्य पदाथ की उसे कभी अपेक्षा नहीं रहती। क्योंकि बाह्य पदार्थ की अपेक्षा ही बन्धन का मूल कारण है।
अनिच्छन् कमवैषम्ब, ब्रह्मांशेन सनं जगत् ।
आत्मामेवेन यः पश्येबसौ मोक्षंगमी शमी ॥२॥४२॥ अर्थ : कर्मकृत विविध भेदों को नहीं चाहता हा और ब्रह्मांश के द्वारा
एक स्वरूप वाले जगत को प्रात्मा से प्रभिन देखता हुआ, ऐसा
उपसम वाला जीवात्मा मोक्षगामी होता है। विवेचन : 'यह ब्राह्मण है,....यह शुद्र है,....यह जैन है,....यह विद्वान है,....यह प्रशिक्षित है,....यह बदसूरत है'....आदि भेद शमरस में प्रोतप्रोत योगी अनुभव नहीं करता । वह तो निखिल ब्रह्मांड को ब्रह्मस्वरुप मानता है । चित् स्वरुप आत्मा में अभेद माव से देखता है ।
शमरस में लीन योगी चर्मचक्ष से संसार का अवलोकन नहीं करता । उसे उसका (संसार का) अवलोकन करने की आवश्यकता भी नहीं होती। वह तो दर्शन प्रात्मा के शुद्ध स्वरुप का ही करता है। आत्मा के अलावा विश्व को वह जानता ही नहीं ।
ब्रह्म के दो अंश माने जाते हैं : द्रव्य और पर्याय । योगी ब्रह्म के द्रव्यांश को परिलक्षित कर तत्त्वस्वरुप समस्त जगत का अवलोकन करता है। प्रात्मा की विभिन्न सांसारिक अवस्थायें पर्यायांश हैं। मानवता, पशुता, देवत्व, नरक, स्वर्ग, धनाढयता, गरीबी आदि सब प्रात्मा के पर्याय हैं। पर्यायांश में भेद है, जब कि द्रव्यांश में प्रभेद है। इस तरह द्रव्यास्तिक नय से किये गये दर्शन में राग का कोई स्थान नहीं हैं, ना ही द्वेष, ईर्ष्या-मत्सरादि वृत्तियों का/राग-द्वेष की कंटीली परिधियों से उपर उठकर शमरस-सरोवर में गोते लगाता योगी, अल्पावधि में ही मोक्ष पाता है।
श्री 'भगवद् गीता' में कहा है कि :
. विद्याविवेकसंपन्ने, ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । .... शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समशिनः ।।प्र.५. श्लोक १८।।
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