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का दृष्टा बन । तेरे त्रैकालिक पर्याय विशुद्ध हैं । अतः उन विशुद्ध पर्यायों में परिणति कर ले । क्योंकि यही परिणति सर्वश्रेष्ठ है ।'
'हे श्रात्मन्, परद्रव्य-गुण- पर्याय के प्रति आसक्ति रखना मिथ्या है, गलत है । अत: उसका तन-मन से त्याग कर दो । फलत: अपने शरीर, भवन, धन-धान्यादि संपदा, रस-रूप, गंध, स्पर्श, शब्द आदि का मोह न कर, ना ही शरीर, संपत्ति, रूप- रसादि पर-पदार्थों की परिवर्तनशील अवस्थाओं में भी राग-द्वेष को जीवन में स्थान दे ।
इस तरह प्रत्येक मुनि का कर्तव्य होता है कि वह अपने आप को, अपनी आत्मा को संतुष्ट करे.... करते रहना चाहिए और यही उसका रहस्यज्ञान है । अर्थात् यह मान कर कि मुनि का दर्शन - ज्ञान - चारित्र से भिन्न अस्तित्व ही नहीं । उसे सदैव ज्ञान, - दर्शन चारित्रमय आत्मा में खो जाना चाहिए और यही उसका परम कर्तव्य है | अतः इसके लिये उपयुक्त भावना का सदा-सर्वदा अपने मन में चिन्तन-मनन करते रहना अत्यन्त आवश्यक है । साथ ही, जहाँ कहीं उसके चित्त की परपुद्गल के प्रति आसक्त होने की संभावना पैदा हो, उसे इस संक्षिप्त रहस्यज्ञान का आधार ले, खुश कर, तुरन्त रोक लेना चाहिए । मोह को उखाड़ फेंकने के लिये 'रहस्यज्ञान' एक अमोघ शस्त्र है ।
अथ
ज्ञानसार
प्रस्ति चेद् ग्रंथिभिज्ज्ञान, किं चित्रैस्तंत्रयंत्रणः । प्रदीपाः क्वोपयुज्यन्ते, तमोघ्नी दृष्टिरेव चेत् || ६ || ३ ||
: ग्रन्थिभेद से मिला ज्ञान जब तुम्हारे पास है, तब भला, अनेकविध शास्त्रों के बन्धनों की आवश्यकता ही क्या है ? यदि ग्रन्थकार का उच्छेदन करनेवाली आँख तुम्हारे पास है, तो दीपमाला तुम्हारे किस उपयोग में श्रायेगी ?
विवेचन: जिस मनुष्य की आँखों में ही इतनी तेजस्विता है कि जो घने अंधेरे को छिन्न-भिन्न करने में शक्तिमान है, तब उसे दीपशिखा की क्या गरज ? ठीक उसी तरह जिस श्रात्मा ने मोह-माया की ग्रंथियों को विदीर्ण कर लिया है और आत्मस्वरूप का साक्षात्कार हो गया है, उसके लिये भला अनेकविध शास्त्रों का ज्ञान किस काम का ?
प्रबल राग-द्वेष की परिणतिमय ग्रंथि के भेदने से श्रात्मा में सम्यक्त्व का प्रादुर्भाव होता है, उसका प्रखर प्रकाश श्रात्मा में फैल जाता है ।
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