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साधक आत्मा का फज़ है कि वह अपना प्रात्म-निरीक्षण करते समय सदैव यह प्रश्न उठाये कि "मैं ज्ञानी हूँ अथवा अज्ञानी ?" और इसका निराकरण भी अपने पाप अन्तर्मन की गहराईयों में जाकर करें। सत्य किसीसे छिपा नहीं रहेगा । यदि उसे अपनी स्थिति अज्ञानता से परिपूर्ण लगे, तो फौरन उसे ज्ञानक्षेत्र को विस्तृत और विकसित करने में जुट जाना चाहिए । यह प्रक्रिया जब तक केवलज्ञान की प्राप्ति न हो, तब तक अबाध रूप से, निरन्तर चलनी चाहिए ।
निर्वाणपदमप्येकं, भाव्यते यन्मुहुमुहुः ।
तदेव ज्ञानमुत्कृष्टं, निर्बन्धो नास्ति भूयसा ॥२॥३४॥ अथ : एक भी निर्वाणसाधक पद जो कि बार-बार आत्मा के साथ भावित
किया जाता है, वही श्रेष्ठ ज्ञान है । ज्यादा ज्ञान-प्राप्ति यानी ज्यादा
पढ़ाई का प्राग्रह नहीं है। विवेचन : हमारा यह कतई आग्रह नहीं है कि तुम अनेकविध ग्रंथों को पढ़ो, उनका पठन-पाठन और अवगाहन करो । ना ही यह आग्रह है कि विस्तृत जानकारी का अच्छा-खासा भंडार खड़ा कर दो। बल्कि हमारा सिर्फ इतना ही आग्रह है कि निर्वारगसाधक पद, ग्रंथ अथवा श्लोक का सूक्ष्म अभ्यास कर लें। उसमें एकरूप हो जायें, सतत उसका ही रटन और चिन्तन-मनन करते रहें, तो बेडा पार लगते देर नहीं लगेगी। मोक्ष की मंजिल की तरफ गतिशील करने वाला एकाध चिन्तन भी तुम्हें आलोडित, प्लावित कर गया, तो वह सच्चा ज्ञान है। ज्ञान को उत्कृष्ट बनाने के लिये निम्नांकित चार सूत्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं :* हाथ में रहा ग्रंथ बन्द कर देने के बाद भी ग्रंयोक्त विचारों
का चिन्तन-परिशीलन सतत चलते रहना चाहिये । जैसे-जैसे ग्रंथोक्त विचारों के परिशीलन में वृद्धि होती जाए, वैसे-वैसे तत्त्वोपदेशक परम कृपालु वीतराग भगवंत के प्रति प्रीति-भावना और गुरुजनों के प्रति श्रद्धा-भावना, कृतज्ञ-भाव, तत्वमार्ग के प्रति उत्कट आकर्षण आदि हमारे हृदयप्रदेश
में पैदा होने चाहिए। ॐ तत्त्व का विवेचन हमेशा शास्त्रोक्त पद्धति और युक्तियों के
माध्यम से करना चाहिए। आगमोक्त शैली के अनुसार होना
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