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भगवती सूत्र-श. १८ उ. ३ पृथिव्यादि से मनुष्य हो, मुक्त हो सकते हैं
एवं काउलेस्से वि, जहा पुढविकाइए एवं आउकाइए वि, एवं वणस्सइकाइए वि, सच्चे णं एसमठे ।
प्रश्न-'हे भगवन् ! माकन्दीपुत्र अनगार ने हमसे कहा यावत् प्ररूपित किया कि कापोतलेशी पृथ्वीकायिक, कापोतलेशी अपकायिक और कापोतलेशी वनस्पतिकायिक जीव यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है । हे भगवन् ! यह कथन सत्य कैसे हो सकता है ?' ..
उत्तर-'हे आर्यों !' इस प्रकार सम्बोधित कर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने उन श्रमण-निर्ग्रन्थों से कहा-'माकन्दिक पुत्र अनगार ने तुमसे जो इस प्रकार कहा यावत् प्ररूपित किया कि कापोतलेशी पृथ्वीकायिक, कापोतलेशी अपकायिक और कापोतलेशी वनस्पतिकायिक यावत सभी दुःखों का अन्त करता है-यह सत्य है । हे आर्यो ! मैं भी इसी प्रकार कहता हूं यावत् प्ररूपित करता हूं कि कृष्णलेशी पृथ्वीकायिक, कृष्णलेशी पृथ्वीकायिकों में से मर कर यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है। इसी प्रकार हे आर्थो ! नीललेशी और कापोतलेशी पृथ्वीकायिक भी यावत् समस्त दुःखों का अन्त करता है । इसी प्रकार अप्कायिक और वनस्पतिकायिक भी अन्त करता है-यह सत्य है।'
_ 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति समणा णिग्गंथा समणं भगवं महा. वीरं वंदति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव मागंदियपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छंति,उवागच्छित्ता मागंदियपुत्तं अणगारं वंदंति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता एयमझें सम्मं विणएणं भुजो भुजो खामेति ।
कठिन शब्दार्थ-मुज्जो भुज्जो-बारंबार, खाति-खमाते हैं। - 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर उन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना
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