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उन पटलों का रूप व अवस्थान है। ये पटल एक के पश्चात् एक करके गणनातीति योजनों के अन्तराल से ऊपर-ऊपर अवस्थित हैं । ७. नरक में उन इन्द्रक आदि भूखण्डों की बिल संज्ञा और स्वर्ग में उन्हीं को विमान संज्ञा देने का कारण यही है कि पहले के निवासी वहाँ अत्यन्त ग्रन्धकार पूर्ण अत्यन्त शीत या अत्यन्त उष्ण अनेकों प्रकार के विषैले व तीक्ष्क्ष दाँत वाले क्षुद्र जीवों से पूर्ण दलदल वाली गुफाओं में रहते हैं और दूसरे के निवासी यहां अत्यन्त सुखमय भवनों में रहते हैं म उपरोक्त पटलों की भाँति मध्य लोक भी एक पटल है। मन्तर इतना ही है कि उपरोक्त पटलों में सारकी देवों की निवासभूत पृथ्वियां हैं और यहाँ मनुष्य व तिचों की निवासभूत हैं। वहाँ वे पृथ्वियां श्रेणीबद्ध व प्रकोशकों के रूप में अवस्थित रहती हुई घूमती हैं और यहां सभी पृथ्वियां एक श्रेणी में अवस्थित रहती हुई घूमती हैं। एक के पश्चात् एक करके उत्तरोत्तर दूने प्रमाण को लिये उनका अवस्थान तथा उनके प्रसंख्यात विरोध को प्राप्त नहीं होती। १. विवाद पड़ता है उनके शाकार के विषय में भारतीय दर्शनकार उन्हें वलयाकार मानते हैं। जबकि वैज्ञानिक नारंगीवत गोल । सो इसका भी समन्वय इस प्रकार किया जाता है कि द्वीप रूप से निर्दिष्ट उन्हें भूखण्ड न मानकर भूखण्डों का संचार क्षेत्र मान लिया जाये। जम्बू द्वीप सुमेरु के गिर्द, पातकी खण्ड जम्बूद्वीप के गिर्द और इसी प्रकार आगे-आगे के द्वीप पूर्व-पूर्व के द्वीप के गिर्द घूम रहे हैं। सुमेरु के गिर्द लट्टू की भांति घूमने से जम्बूद्वीप का संचार क्षेत्र जम्बुद्वीप प्रमाण ही है, परन्तु अगले द्वीपों का संचारक्षेत्र पूर्व-पूर्व द्वीप के गिर्द वलयाकार रूप बनता हैं । इन संचार क्षेत्रों का विष्कम्भ या विस्तृत अपनी-अपनी पृथ्वी के बराबर होना स्वाभाविक है। सुमेरु पर्वत व उस उस पृथ्वी के बीच जो अन्तराल है वही इन बसों की सूची का प्रमाण है। यद्यपि यह अनुमान प्रमाण भूल नहीं कहा जा सकता है, पर प्रत्यक्षदृष्ट याधुनिक भूगोल के साथ जैन भूगोल की संगति बैठाने के लिये इसमें कुछ विरोध भी नहीं है । १०. द्वीपों के मध्यवर्ती सागरों का निर्देशा वास्तव में जलपूर्ण सागर रूप प्रतीत नहीं होता, बल्कि उन द्वीपों के मध्यवर्ती अन्तरालों में स्थित पन वनोदधि वातरल रूप प्रतीत होता है। बलवाकार संचार क्षेत्रों के मध्य रहने वाले उस अन्तराल का भी वलयाकार होना
श्रेणी में उनंचास का भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे कम से भाऊ जगह रखकर व्यास के निमित्त गुणा करने के लिये आदि में गुणकार सात है। पुनः इसके आगे कम से यह यह गुणाकार की वृद्धि होती गई है
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सात के घन अर्थात् तीन सौ तेतालीस से भाजित लोक को क्रम से सात जगह रख कर अघोलोक के सात क्षेत्रों में से प्रत्येक क्षेत्र के घनफल को निकालने के लिये आदि में गुणकार दश और फिर इसके आगे कम से छह-छह की वृद्धि होती गई है | ॥१७६॥
लो. प्र. ३४३, ३४३७११, ११०, ११६, १८२२ १४२६ १३४, १x४०, १५४६ ।
विशेषार्थ मुख
और भूमि को जोड़कर उसे आधा करने पर प्राप्त हुये प्रमाण को विवक्षित क्षेत्र की ऊँचाई और मोटाई से गुणा करने पर विषम क्षेत्र का धनफल निकलता है । इस नियम के अनुसार उपर्युक्त सात पृथ्वियों का घन फल निम्न प्रकार है ।
मु. +भू, ३२१७६
१० रा,
प्र. पृथ्वी क्षेत्र का घ. फ. द्वितीय पृथ्वी क्षेत्रका तृतीय पृथ्वी क्षेत्र का घ.फ. पृथ्वी क्षेत्रका
पं. पृथ्वी का प. फ.
पृथ्वी क्षेत्रका
स. पृथ्वी क्षेत्रका
१६
T
६ - २२४१४७२२ रा ११७-२० २१२४ रा ११x४ रा. ११० ४६,
६४४
पूर्व और पश्चिम से लोक के अन्त के दोनों पार्श्व भागों में तीन, दो मोर एक राजु वेदा करने पर ऊँचाई क्रम से एक जग श्रेणी, श्रेणी के तीन भागों में से दो भाग, और श्रेणी के तीन भागों में से एक भाग मात्र हैं ।। १८०||
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