Book Title: Sahitya Ratna Manjusha
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandiram
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यरत्नमञ्जूषा .. . . .. . 0. 0 . 0 - 0 - 0 . . . . . . . . . . . . . . . . . . . । : nn P Mरररररररररर MOOR.DOD.COM R.PHHIM ...... CODKAD .... . ARB0SBE LatetneKE KKRA KKAKKAREAKKKA ( IKC . . . . . . . . . . . . 0. . . . ..... . . . . 0 . .. ... .. . . U . . . . . . .0 . 0 . ...........OOO .. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . O D BODY शांतिलालदोशी णेताः- आचार्य श्रीमविजयसुशील सूरिः Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नेमि-लावण्य-दक्ष-सुशील ग्रन्थमाला रत्न ७८ वा . 身}%%%%%%%%%%%%$身步助步步步步步步步步步好玩 * श्रीसाहित्यरत्न-मञ्जूषा । sssssssssssssssssssssss$$%%%% _ प्रणेता ' शासनसम्राट्-सूरिचक्रचक्रवत्ति-तपोगच्छाधिपति-महान् प्रभावशाली-परमपूज्याचार्यमहाराजाधिराज - श्रीमद् विजयनेमिसूरीश्वराणां दिव्यपट्टालङ्कार-साहित्यसम्राट - व्याकरणवाचस्पति-शास्त्रविशारद-कविरत्न-परमपूज्या चार्यप्रवर - श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वराणां प्रधानपट्टधर-धर्मप्रभावक-शास्त्रविशारद -कविदिवाकर-व्या करणरत्न - परमपूज्याचार्यवर्य श्रीमद्विजयदक्षसूरी* श्वराणां पट्टधर - जैनधर्मदिवाकर - शास्त्रविशारद- साहित्यरत्न-कविभूषण-आचार्यश्रीमद्विजयसुशीलसूरिः । hi W ___ प्रकाशकम् ॥ प्राचार्यश्रीसुशीलसूरिजनज्ञानमन्दिरम् शान्तिनगर, सिरोही (राजस्थान) yasarowaldiliwanvidiyo Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 पम्पादक । * संशोधकः * १ अस्य ग्रन्थस्य प्रणेता पण्डितः श्रीहीरालालशास्त्री साहित्यरत्न-परमपूज्याचार्य- | (एम.ए.) जालोरनगरस्थः * श्रीमद् विजयसुशीलसूरिः । प्रस्तावना-लेखकः * 卐ा प्राचार्यश्रीशम्भुदयाल | पाण्डेयः [व्याकरणाचार्यपE | साहित्यरत्न-शिक्षाशास्त्री] जोधपुरनगरस्थः श्रीवीर सं. २५१५ विक्रम सं. २०४५ नेमि सं. ४० प्रतियाँ ५०० (प्रथमावृत्तिः) ... मूल्य २१) रुपये * सत्प्रेरकः 8 स्वर्गीय - शासनसम्राट - परमपूज्याचार्यमहाराजाधिराज श्रीमद् विजयनेमिसूरीश्वराणां दिव्यपट्टालंकार-साहित्यसम्राट्-स्वर्गीयपरमपूज्याचार्यप्रवर - श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वराणां पट्टधरशास्त्रविशारद-स्वर्गीयपरमपूज्याचार्य श्रीमद्विजयविकासचन्द्रसूरिस्तथा राजस्थानकेसरी-स्वर्गीय-परमपूज्याचार्य - श्रीमद्विजयमनोहरसूरिः।* प्राप्ति-स्थानम् * . * मुद्रकः & प्राचार्यश्रीसुशीलसूरि- ताज प्रिण्टर्स जैनज्ञानमन्दिरम् जोधपुर शान्तिनगर-सिरोही ) राजस्थान राजस्थान 卐. 卐卐 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HMMMMMMMMMMMMMMK momomommy स...म......ण...म् श्रीमतां जगद्गुरुवराणां शासनसम्राटपदभाजां * सूरिचक्रचक्रवत्तिनां तपोगच्छाधिपतीनां भारतीयभव्य*विभूतीनां प्रभूतभूपप्रतिबोधकानां सर्वतन्त्रस्वतन्त्राणां सुप्रसिद्धश्रीकदम्बगिरिप्रमुखानेकप्राचीनतोर्थोद्धारकाणां पञ्चप्रस्थानमयसूरिमन्त्रसमाराधकानां चिरन्तनयुग* प्रधानकल्पानां महाप्रभावशालिनां बालब्रह्मचारिणां * न्याय-व्याकरणाद्यनेकग्रन्थसर्जकानां सिंहगर्जनासमान-* निरुपमसमर्थप्रवचनकारकानां परमपूज्यानां परमकृपालूनां परमोपकारिणां परमगुरुदेवानां श्रीमद् विजयनेमिसूरीश्वराणां - करकमलयोः सादरं सप्रश्रयञ्च 'श्रीसाहित्यरत्न-मञ्जूषा' नामकग्रन्थोऽयं समर्प्यते श्रीमतामेवप्रशिष्य शिष्येण विजयसुशीलसूरिणा। VO . . Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे प्रकाशकीय निवेदन है creaseeeeeeeees श्रीसाहित्यरत्न-मञ्जूषा' इस नाम से समलंकृत साहित्यविषयक यह ग्रन्थ 'प्राचार्यश्री सुशीलसूरि जैनज्ञानमन्दिर' की ओर से प्रकाशित करते हुए हमें अति आनंद हो रहा है। - इस ग्रन्थ के प्रणेता परम पूज्य शासनसम्राट् समुदाय के सुप्रसिद्ध जैनधर्मदिवाकर-शासनरत्न-तीर्थप्रभावक-राजस्थानदीपक-मरुधरदेशोद्धारक-शास्त्रविशारद-साहित्यरत्न - कविभूषण-बालब्रह्मचारी पूज्यपाद आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशीलसूरीश्वरजी म. सा. हैं । - आप पर आज भी आपके स्वर्गीय परम पूज्य परम गुरुदेव श्रीमद् विजय नेमिसूरीश्वरजी म. सा. और स्वर्गीय परम पूज्य प्रगुरुदेव श्रीमद् विजय लावण्यसूरीश्वरजी म. सा. अदृश्य रूपे आशीर्वाद बरसा रहे हैं । ऐसे नित्यपंच Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्थानमयसूरिमन्त्र के साधक और विशुद्ध संयम के आराधक परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशीलसूरीश्वरजी म. सा. नूतन साहित्यादि सर्जन कार्य में अहर्निश मग्न रहते हैं तथा जैनशासन की सर्वत्र अनुपम प्रभावना करते हैं । आपने इस सुप्रसिद्ध साहित्यविषयक 'श्रीसाहित्यरत्न - मञ्जूषा' ग्रन्थ का प्रतिपरिश्रमपूर्वक अनेक साहित्यग्रन्थों के अवलोकन तथा चिन्तन-मनन के बाद सरल संस्कृत भाषा में सुन्दर सर्जन किया है। तथा इसका प्राक्कथन भी संस्कृत भाषा में संक्षिप्त लिखा है । तदुपरान्त इस ग्रन्थ का सम्पादन कार्य भी आपने सुन्दर किया है । आपको इस ग्रन्थ- सर्जन की सत्प्रेरणा करने वाले साहित्यसम्राट्-व्याकरणवाचस्पति शास्त्रविशारद कविरत्न - परमपूज्याचार्यप्रवर श्रीमद् विजयलावण्यसूरीश्वरजी म. सा. के पट्टधर शास्त्रविशारद - परमपूज्याचार्य श्रीमद् विजय - विकासचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. एवं राजस्थानकेसरी आचार्य श्रीमद् विजयमनोहरसूरीश्वरजी परम पूज्य म. सा. थे । इस ग्रन्थ का शुद्ध एवं सुन्दर संशोधन पण्डित श्री हीरालाल शास्त्री, जालोर ने किया है तथा इस ( ५ ). Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ की विशद प्रस्तावना आचार्य श्री शम्भुदयाल पाण्डेय, जोधपुर ने सुन्दर लिखी है । इस ग्रन्थ के स्वच्छ, शुद्ध एवं निर्दोष प्रकाशन का कार्य डॉ. चेतनप्रकाश पाटनी की देख-रेख में सम्पन्न हुया है। पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. की आज्ञानुसार हमारे प्रेस सम्बन्धी प्रकाशन-कार्य में पूर्ण सहकार देने वाले जोधपुरनिवासी श्री सुखपालजी भंडारी, संघवी श्री गुरदयालचन्दजी भंडारी, श्री मंगल चन्दजी गोलिया, श्री मोतीलालजी पारेख तथा श्रीप्रकाशचन्दजी बाफरणा आदि सभी धन्यवाद के पात्र हैं। सिरोहीनिवासी श्री नैनमलजी सुराणा तथा नवयुवक विधिकारक श्री मनोजकुमार बाबूमलजी हरण, एम. कॉम इत्यादि ने भी इस विशिष्ट ग्रन्थ को शीघ्र प्रकाशित करने की प्रेरणा की है। इन सभी का हम हार्दिक आभार मानते हैं । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है प्राक्कथनम् सुविदितचरमेतत् समेषां सुशेमुषीमतां यद् विश्वस्मिन् साहित्यशास्त्राणामनुपमं स्थानं विराजत इति । साहित्यञ्च सहितस्य भावः । सुधासरित्प्रवाह इवानवरतं स्यन्दमाना साहित्यसरिता, अशेषाणां सहृदयानां मनांसि मोहयन्तीव सद्भावान् भावयन्तीव, सुतरां विभाति । प्राचीनकालादेव काव्यतत्त्वानां ज्ञानाय छन्दसां शब्दशक्तीनां, अलङ्काराणां, गुणानां, दोषारणां, रीतीनां, काव्यविधानाञ्च बोधः सततमपेक्षते । यावता समस्तानामपि काव्यतत्त्वानां बोधो न प्रतिपद्येत तावता काव्यमवगन्तु रचयितु वोभयमपि असम्भवात् । स्वनामधन्यैर्विद्वन्मूर्धन्यैलक्ष्यमेतत् सुलक्षीकृत्यानेकेषां लक्षणग्रन्थानां रचना कृताः । तेषु सुप्रसिद्ध - कलिकालसर्वज्ञजैनाचार्य - श्रीमद्हेमचन्द्रसूरीश्वरस्य 'काव्यानुशासनम्', श्रीमम्मटाभिधपण्डितस्य 'काव्यप्रकाशः', श्रीविश्वनाथविबुधस्य 'साहित्यदर्पणम्', श्री Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगन्नाथपण्डितस्य 'रसगङ्गाधरः', श्रीमानन्दवर्धनस्य 'ध्वन्यालोकः', श्रीजयदेवविबुधस्य 'चन्द्रालोकः', श्रीधनञ्जयनामककवेः 'दशरूपकम्', श्रीभरतसाक्षरस्य 'नाट्यशास्त्रम्', अन्यच्च श्रीलङ्कारचिन्तामरिणः, सरस्वतीकण्ठाभरणमित्यादि-महान्तोऽपि ग्रन्थाः काव्यतत्त्वानां समुचितज्ञानाय विरचिता विलसन्तितराम् । प्राचीनाः विद्वान्सः छन्दसां पक्षधरा आसन् । ते कथञ्चिद् व्याकरणशुद्धिमुपेक्षितवन्तः किन्तु छन्दसां भङ्गन । अस्मिन् सन्दर्भे उक्तिरियं प्रसिद्धा-'अपि माषं मषं कुर्यात् छन्दोभङ्ग न कारयेत्' । कविः शब्दानां विक्रियां कत्तमर्हति न तु छन्दसां भङ्गम् । यतो हि काव्याधारः छन्द एव । कालक्रमेण काव्यक्षेत्रऽपि परिवर्तनानि प्रारब्धानि । शनैः शनैः छन्दसां नियन्त्रणानि शिथिलानि सजातानि । हिन्दीभाषायां तु शिथिलतेयं समग्र क्रान्तिरिव परिलक्ष्यते । परिणामतो मुक्तकछन्दसां प्रवर्त्तनमभूत् । तथापि छन्दसामुपादेयता अतिरोहिता । लोकप्रियता प्रामाणिकता च यादृशी पारम्परिकछन्दसामस्ति न तथा मुक्तकछन्दसाम् । निश्चप्रचत्वेन छन्दसां प्रियता कालत्रितयेऽपि योग्यतां विति । अलङ्कारशास्त्रस्याध्ययनमपि काव्यशास्त्रार्थमावश्यक Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मास्ते । अलङ्काराणां पर्याप्तज्ञानमन्तरा काव्यशास्त्र प्रवेशो दुष्करः । शास्त्रषु वर्णितमस्ति यत् अलङ्काररहितं काव्यं विधवाङ्गनावन्न शोभते । कलिकालसर्वज्ञ - श्रीमद्हेमचन्द्राचार्यादिभिरनेकैविद्वत्तल्लजैरलङ्कारः काव्यशोभाकरत्वेन स्वीकृतः। काव्यरसिकोऽलङ्कारज्ञानं विना काव्यमर्म ज्ञातु नैव शक्नोति । एवमेव काव्ये गुणीभूतव्यङ्गयानां, गुणदोषविवेचनानामपि महत्त्वम् । गुणानामभावे काव्यानुभूतिः श्रेष्ठरचना च असम्भवा प्रतीयते । कस्यापि काव्यग्रन्थस्यालोचनायां विशेषतया विषयोऽयं विचार्यते । यदस्मिन् काव्ये गुणानां निर्वाहः कीदृग् वर्त्तते, रीतीनां समायोजनं विषयानुसारेण स्तरीणं विद्यते न वा ? महाकाव्यस्य श्रेष्ठता सफलता च तस्य रसपरिपाके ध्वन्यात्मके गुणात्मके सालङ्कारत्वे च स्वरूपेऽवलम्बते । काव्यानन्दमनुभवद्भिः सहृदयैः ब्रह्मानन्दसहोदरेण साधं काव्यतत्त्वानामपि गवेषणं कृतम् । अतः साम्प्रदायिकभेदेन लाक्षणिकग्रन्थानां बाहुल्यं सजातम् । मतानां विभिन्नत्वात् सत्स्वपि विभिन्न षु लाक्षणिकग्रन्थेषु विषमेऽनेहसि काठिन्यमनुभवन्ति छात्राः । इति तु स्वीकरोमि यत् प्रौढज्ञानं तु तेषां लाक्षणिकग्रन्थानामध्ययनेनैव सम्भाव्यते ( ६ ) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथापि मत् प्रयासेन अनधीतेऽपि प्रौढग्रन्थे काव्यशास्त्रसर्वाङ्गीणः चञ्चुप्रवेशो ज्ञानञ्च सम्भवः सुकुमाराणाम् । संस्कृतसाहित्यार्णवोऽपारोऽगम्यो रचना - वैचित्र्यश्चित्रितश्च सर्वत्र शोभामुत्पादयति । अनेके रससिद्धाः कवीश्वराः काव्यकलापटीयान्सः कविताकामिनीविलासाय सुहासाय च नवरसरुचिराणि महाकाव्यानि रचितवन्तः । सुप्रसिद्धपण्डितेषु श्रीकालिदासस्य श्रीभारवेः श्रीदण्डिनः श्रीमाघस्य च काव्यानन्दमनुभवद्भिः विशेषतः प्रतिपादितं यत् - उपमा कालिदासस्य, भारवेरर्थगौरवम् । दण्डिनः पदलालित्यं, माघे सन्ति त्रयो गुरणाः ॥१॥ अन्ये नैषधे पदलालित्यमित्यपि सङ्गिरन्ति । 'नैषधं विद्वदौषधं वेति ।' प्रस्तुतस्य 'श्रीसाहित्यरत्नमञ्जूषा' नामकस्य नूतनग्रन्थस्य रचनाया उद्देश्यं तावत् एतदेव यत् पिपठिषूणां सुकुमारमतीनां कृते साहित्यशास्त्रस्य सारल्येन सर्वाङ्गपूर्ण झटिति बोधः स्यादिति । लाक्षणिकानां लोकविश्रुतानां काव्यानुशासन-काव्यप्रकाशादीनामध्ययनं विशिष्टपरिश्रमापेक्षित्वात् समयाभावाद् वा कदाचित् न भवेत् तदापि ( १० ) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वल्पेनैव कालेन सरलेन च वाक्यजालेन काव्यशास्त्रीयलक्षणज्ञानं निर्णयात्मकस्तरगतं ग्रन्थस्यास्य पठनेन सुतरां सम्भवः सुकुमारमतीनाम् । अस्य साहित्यविषयकग्रन्थस्य सर्जने साहित्यशास्त्रस्य मौलिकानां ग्रन्थानामवलोकनं साहाय्यञ्च गृहीतमेव । तेषु 'काव्यानुशासन-काव्यप्रकाशसाहित्यदर्पण - रसगंगाधर – वृत्तरत्नाकर-छन्दोनुशासनछन्दोमञ्जरी-छन्दोरत्नमाला-अलङ्कारचिन्तामणि-साहित्यशिक्षामञ्जरीत्यादीनां' मुख्यता। ___ग्रन्थोऽयं विशेषतः स्वर्गीय-परमपूज्य-प्रातःस्मरणीयपरमगुरुदेव - शासनसम्राट् - आचार्यमहाराजाधिराजश्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वराणां पट्टधर-शास्त्रविशारद-कविरत्नस्वर्गीय - परमपूज्याचार्यप्रवरश्रीमद्विजयामृतसूरीश्वराणां प्रशिष्यरत्न - स्वर्गीय - पण्डितप्रवराचार्य - श्रीमद्विजयधर्मधुरन्धरसूरिणा विरचितं 'साहित्यशिक्षामञ्जरीम्' अनुसृत्य रचितस्तथापि स्वकीयानुभवैः परिष्कृतः परिवद्धितः नवीनकलेवरः सैद्धान्तिकदृष्टया पदे पदे मौलिकग्रन्थान् स्मारं स्मारं प्रायः सर्वमपि काव्यशास्त्रीयसिद्धान्तजालं ग्रन्थेऽस्मिन् प्रामाणिकरूपेण प्रस्तौतु समर्थोऽभवन् । अस्य ग्रन्थस्य प्रथमपरिच्छेदे कथं कवित्वसम्प्राप्तिः? ( ११ ) -- Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपरिच्छेदे च कवेः शिक्षा च कीदृशी ?' अत्र छन्दसां ज्ञानाय प्रचलितवृत्तानां विषमवृत्तानां दण्डकवृत्तानाञ्च सोदाहरणं लक्षणं गणनिर्देशपूर्वकं सुतरां सरलीकृत्य प्रदर्शितम् । तृतीयपरिच्छेदे 'कश्च काव्ये चमत्कारः ?' नवरसाणां रसाभास-भावाभासयोवर्णनं सोदाहरणं स्फुटीकृतम् पश्चात् तु समासेन ध्वनिकाव्यस्यापि वर्णनं प्रस्तुतम् । चतुर्थपरिच्छेदे-'काव्यस्य गुण-दोषादयश्च के ?' अस्मिन् काव्यगुणानां दोषाणां रीतीनां अलङ्काराणाञ्च वर्णनं विशदीकृतम् । पञ्चमपरिच्छेदे-'कवेः कः सम्प्रदायः ?' अत्र कवीनां मान्यतानुरोधेन – सजातानां षण्णामपि कविसम्प्रदायानां प्रामाणिकं वर्णनं कृतम् । अन्यच्च कविसम्प्रदाये प्रसिद्धानां समयवर्णनानां, अङ्कादिलेखनपद्धतीनां समावेशोऽपि कृतः । 'निरङ्कुशाः कवयः' इत्युक्ति स्फुटीक कविसम्प्रदाये प्रसिद्धानामुक्तीनामपि प्रदर्शनमिहैव प्रत्यपादि। एवञ्चायं 'श्रीसाहित्यरत्नमञ्जूषा' नामको ग्रन्थः पञ्चभिरेव परिच्छेदैः सम्पूर्णतामाप्नोति । जिज्ञासवः जनाः पिपठिषवोऽस्य परिशीलनेन ( १२ ) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायोऽवश्यमेव साहित्यतत्त्वमखिलं समासेन सौकर्येण प्रामाणिकरूपेण च ज्ञातु समर्था भविष्यन्तीति मे विश्वासः । जिज्ञासवो जनाः सुसाहित्यसमुपासकाः भवेयुरिति भावनया भावितो विरमतीति । श्रीवीरनिर्वाण सं. २५१५ विक्रम सं. २०४५ नेमि सं. ४० पासो सुद १५ शनिवार दिनांक १४-१०-८६ लिखितविजयसुशीलसूरिः स्थलम्पोरवाल श्रीजैनभवनम् देसूरी-राजस्थानम् [ मरुधरस्थम् ] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यशास्त्र : एक अनुशीलन गीर्वाण गिरा की गरिमा लोकविश्रुत है । सफल साहित्य की रचना के सम्बन्ध में किञ्चिन्मात्र भी वक्तव्य प्रस्तुत करना सहज कार्य नहीं है । सफल समालोचक एवं यशस्वी कविराज आचार्य मङ्खक ने कहा है-'किसी कवि के काव्यमर्म को जानने की योग्यता आलोचक में होती है। कविताकामिनीविलासी सफल साहित्यकार ही कवि-कर्ममर्म की कमनीयता को जान सकता है।' काव्य की परिभाषा संस्कृत साहित्य के लाक्षणिक ग्रन्थों में काव्य की परिभाषा के सन्दर्भ में पर्याप्त मतभेद हैं। इस विभिन्नता का एक मात्र कारण यह है कि सभी प्राचार्यों ने काव्य की आत्मा के गवेषण में भेद किया है। फलस्वरूप काव्य के लक्षण में भी विभिन्नता दिखाई पड़ती है । अनुसन्धान एवं प्रतिपादन की विभिन्नता होने पर भी कोई क्षति नहीं हुई है अपितु कोटिपूरकता होने के कारण संस्कृत-काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों को अनुपम सम्बल प्राप्त हुआ है । ( १४ ) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य एक कला है जिसमें अनुभूति और अभिव्यक्ति नामक दो मूल तत्त्व होते हैं। काव्य में बुद्धि तथा तर्क का कार्कश्य नहीं होता अपितु हृदय की स्वाभाविक सरस अनुभूति तथा अभिव्यक्तिमयी गङ्गा-यमुना का सङ्गम होता है । महाकवि भवभूति की मानस-वीणा से भी काव्य को कला की स्वीकृति प्रदान करती हुई सहसा ही यह रागिनी झंकृत हुई है "मैं उस विमल वाणी को वन्दना करता हूँ जिसमें आत्मा की दिव्य कला अमृत के रूप में विद्यमान है।" प्राचार्य भर्तृहरि ने तो साहित्य-संगीत कलाओं से विमुख व्यक्ति को पशु की संज्ञा दी है। जैनागम ग्रन्थों में कला के संदर्भ में पर्याप्त चर्चा प्राप्त होती है, जिनमें समवायांग, ज्ञाताधर्मकथा, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति प्रमुखतया उल्लेखनीय हैं। कलाओं के विभिन्न भेदों में 'काव्यकला' भी संगहीत है । आचार्य भामह ने 'काव्यालङ्कार' में काव्यकला के सन्दर्भ में कहा हैन स शब्दो न तद्वाक्यं न स न्यासो न सा कला । जायते यन्न काव्याङ्गमहो भारो महान् कवेः ॥१ १. काव्यालङ्कार (५।३) । ( १५ ) , Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ऐसा कोई शब्द नहीं, ऐसा कोई वाक्य नहीं, ऐसी कोई कला नहीं जो काव्य का अंग बनकर न आती हो ।' 'काव्य' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ऋग्वेद में इस प्रकार आता हैप्रात्मा यज्ञस्य रह्या सुष्वाणः पवते सुतः । प्रत्नं निपाति काव्यम् ।१. परियत्काव्या कविन॒म्ण वसानो अषति । ___ स्वर्वाजी सिखासति ।२ अमरकोश में 'काव्य' के सन्दर्भ में इस प्रकार उल्लेख प्राप्त होता है-काव्यं ग्रन्थे पुमान् शके। शुक्रो दैत्यगुरुः काव्या उशना भार्गवः कविः । कालक्रम से काव्य के लिए साहित्य शब्द का प्रयोग भी 'प्रचलित' हुआ। "एकार्थचर्या साहित्यं संसर्ग च विवर्जयेत्"३ "तत्राभिधाविवक्षातात्पर्यप्रविभागव्यपेक्षासामर्थ्यान्वय २. ऋक्०६६।१। १. ऋक्० ६७।८। ३. कामन्दकीयनीतिसार। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्थीभाव-दोषाहानगुणोपादानालंकारयोगरूपाः शब्दार्थयोर्द्वादशधर्माः समर्थाः साहित्यमुच्यते । १ शारदातनय २ ने इस प्रतिपत्ति को स्वीकार किया है और इन द्वादश सम्बन्धों का प्राञ्जल एवं प्रामाणिक विवेचन भी प्रस्तुत किया है । भोज से प्रायः एक शताब्दी पूर्व राजशेखर ने 'काव्यमीमांसा' में साहित्य का प्रयोग 'काव्य' के लिये किया है “शब्दार्थयोः यथावत्सहभावेन - विद्या साहित्यविद्या | पञ्चमी साहित्यविद्येति यायावरीयः । सा हि चतसृणामपि विद्यानां निस्यन्दः । " कवि श्री विल्हरण ने 'विक्रमाङ्कदेवचरितम्' में इस प्रकार कहा हैकुण्ठत्वमायाति गुणः कवीनां साहित्यविद्याश्रमर्वाजतेषु । कवि नीलकण्ठ दीक्षित ने 'शिवलीलार्णव' में साहित्यशब्द का प्रयोग भी इसी प्रकार प्रस्तुत किया है १. शृंगारप्रकाश (भोज) । २. भावप्रकाश, गायकवाड़ सिरीज न. ४५ (१९३०) पृ. १४५ - ५२ । ( १७ ) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यविद्याजयघण्टयैव संवेदयन्ते कवयो यशांसि । काव्यविमर्श नामक ग्रन्थ में इस प्रकार का उल्लेख भी मुझे प्राप्त हुआ “साहित्यशास्त्र (काव्यशास्त्र) का प्राचीन नाम क्रियाशिल्प है और यह क्रियाशिल्प काव्य-रचना की विधि का द्योतक है ।" (प्रथम उद्योत) __प्राचार्य कुन्तक ने 'वक्रोक्तिजीवितम्' में साहित्य का विशद, प्रौढ़ एवम् प्रामाणिक निरूपण किया है। उनके कथनानुसार शब्द, अर्थ का परस्पर शोभाशाली सन्तुलित उपन्यास साहित्य है साहित्यमनयोः शोभाशालितां प्रति काप्यसौ। अन्यूनातिरिक्तत्वमनोहारिण्यवस्थितिः प्राचार्य कुन्तक ने साहित्य के विषय में इस प्रकार और भी कहा है "यदिदं साहित्यं नाम तद् एतावति निस्सीमनि समयाध्वनि-साहित्यशब्दमात्रेण प्रसिद्धम् । न पुनरेतस्य कविकर्मकौशलकाष्ठाधिरूढिरमणीयस्य, अद्यापि कश्चिदपि विपश्चित् 'अयमस्य परमार्थः' इति मनाङ्नाममात्रमपि विचारपदमवतीर्णः। तदद्य सरस्वतीहृदयारविन्दमकरन्द ( १८ ) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिन्दुसन्दोहसुन्दराणां सत्कविम् अन्तरामोदमनोहरत्वेन परिस्फुरद् एतत् सहृदयषट्पदचरगोचरतां नीयते ।" : रससिद्ध कवि विल्हरण ने 'विक्रमांकदेवचरितम्' (प्रथम सर्ग) में काव्य और साहित्य की एकात्मकता इस प्रकार प्रदर्शित की हैसाहित्यपाथोदधिमन्थनोत्थं काव्यामृतं रक्षत हे कवीन्द्राः । यत्तस्य दैत्या इव लुण्ठनाय काव्यार्थचौराः प्रगुणी भवन्ति । हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध समालोचक डा. नगेन्द्र उक्तिवैचित्र्य तथा वर्णसंगीत के साथ-साथ रमणीय अनुभूति को काव्य के लिए आवश्यक मानते हैं । भारतीय वाङ्मय में कवि को उत्कृष्ट स्थान प्राप्त है। ऋगवेद में 'कवि' शब्द का प्रयोग 'आत्मा' तथा गीता में आत्मा के सूक्ष्मतम एवम् अमूर्त अर्थ में 'कवि' का प्रयोग हुआ है D "कविं केतु धासि भानुमगे''१ 9 "कविकवित्वा दिविरूपमास'२ १. ऋग्वेद ७।६।२ । २. वही १०।१२४।७।। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 कवि पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः । सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ॥१ शुक्ल यजुर्वेद में परमात्मा के लिए 'कवि' शब्द का प्रयोग इस प्रकार दृग्गोचर होता है0 कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूः२ । __श्रीमद् भागवत् में वेदों के प्रकाशक ब्रह्माजी को आदिकवि कहा गया है0 तेनेब्रह्महदाय आदिकवये३ कविकुलगुरु कालिदास ने रघुवंशमहाकाव्य में भगवान् विष्णु को प्राचीन कवि कहा है पुराणस्य कवेस्तस्य वर्णस्थानसमीरिता । बभूव कृतसंस्कारा चरितार्थैव भारती ॥४ 'काव्यमीमांसा' में 'बाल्मीकि' को आदि कवि के रूप में स्वीकार कर इस प्रकार लिखा है १. गीता ८६। ३. भागवत १।१।१। २. शु० यजुर्वेद. ४०।८। ४. रघुवंश १०॥३६ । ( २० ) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाल्मीकजन्मा स कविः पुराणः , कवीश्वरः सत्यवती सुतश्च । यस्य प्रणेता तदिहानवद्यं , सारस्वतं वर्त्म न कस्य वन्द्यम् ॥ सम्प्रति कविता करने वाले सहृदय महानुभाव 'कवि' पदवाच्यता की पंक्ति में आते हैं। 'कवि' पद अनेक अर्थों में अवश्य स्वीकृत है परन्तु सामान्यतः प्रसिद्धि के कारण काव्य के प्रणेता को ही 'कवि' कहा तथा समझा जाता है। 'कवेः कर्म काव्यम्' इससे स्पष्ट होता है कि कवि के द्वारा रचित रचना को काव्य कहते हैं। काव्य के सन्दर्भ में मात्र इतना कहना ही पर्याप्त नहीं है क्योंकि काव्यतत्त्वमनीषियों ने काव्य के लक्षण पर विशेष रूप से वैचारिक मन्थन द्वारा हमें नये-नये लक्षण रूपी नवनीत का आस्वादन कराया है। अतः उन पर संक्षिप्त चर्चा करना भी यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा । किं नाम काव्यम् ? यह प्रश्न देखने में जितना सरल प्रतीत होता है, विवेचना की दृष्टि से उतना ही पेचीदा भी है । इसी कारण काव्य की सर्वसम्मत परिभाषा आज तक निश्चित नहीं हो सकी। ( २१ ) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य के विषय में प्रसिद्ध संस्कृत-काव्यशास्त्रों की कुछ परिभाषायें इस प्रकार हैं प्राचार्य भामह ने शब्द और अर्थ को काव्य की संज्ञा देते हुए कहा है-शब्दाथों सहितौ काव्यम् । । प्राचार्य दण्डी ने शब्दार्थ रूपी शरीर को अलंकृत करने वाले अलंकारों को महत्त्व देते हुए काव्य का लक्षण यों प्रस्तुत किया है तैः शरीरं च काव्यानामलंकाराश्च दशिताः । शरीरं तावदिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली ॥ प्राचार्य कुन्तक ने काव्य में शब्द और अर्थ का शोभाशाली सम्मेलन स्वीकार किया है। कवि अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा से उपयुक्त स्थान पर उपयुक्त शब्द योजित कर रचना बनाता है, वह काव्य है । सौन्दर्ययुक्त अभिव्यञ्जना काव्य का प्राण है-वक्रोक्तिः काव्यस्य जीवितम् । प्रानन्दवर्धनाचार्य के अनुसार काव्य वह है जिसमें वाच्यार्थ की अपेक्षा व्यंग्यार्थ की प्रधानता हो काव्यस्यात्मा ध्वनिः। प्राचार्य वामन ने रीति को काव्य की आत्मा के रूप में स्वीकार किया है-रीतिरात्मा काव्यस्य । ( २२ ) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वामन के काव्य-स्वरूप पर अपना मत प्रस्तुत करते हुए डॉ. नगेन्द्र ने चार तथ्य उपस्थित किये हैं १. वामन शब्द और अर्थ दोनों को समान महत्त्व देते हैं। सहित शब्द का प्रयोग न करते हुए भी वे दोनों को ही काव्य का मूल अङ्ग मानते हैं । १ २. गुण को काव्य का नित्यधर्म मानते हैं अर्थात् उसकी स्थिति, काव्य के लिये अनिवार्य है। ३. दोष को वे काव्य के लिए असह्य मानते हैं, इसीलिए सौन्दर्य का समावेश करने के लिए दोष का परिहार पहला प्रतिबन्ध है । ४. अलंकार काव्य का अनित्यधर्म है, उसकी उपस्थिति वाञ्छनीय है, अनिवार्य नहीं । डॉ. नगेन्द्र ने कहा है-वामन का काव्यलक्षण उपर्युक्त लक्षणों की अपेक्षा स्थूल है। गुण और अलंकार से युक्त तथा दोषों से रहित शब्दावली तत्त्व को शब्दबद्ध नहीं १. काव्यं ग्राह्यमलंकारात् । सौन्दर्यमलंकारः। काव्यशब्दोऽयौं गुणालङ्कारसंस्कृतयोः शब्दार्थयोः वर्तते । भक्त्या तु शब्दार्थमात्रवचनोऽत्र गृह्यते । –अलंकारसूत्र ( २३ )... Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करती, केवल गुणों का वर्णन करती है । वैसे यह लक्षण अशुद्ध नहीं है क्योंकि गुण और अलंकार के अन्तर्गत वामन ने काव्यगतसौन्दर्य के विभिन्न रूपों को अन्तर्भूत कर उन्हें एक प्रकार से सौन्दर्य के पर्याय के रूप में ही प्रयुक्त किया है - सौन्दर्यमलंकारः । अतएव वामन के लक्षण का संक्षिप्त रूप यह हुआ " सुन्दर ( सौन्दर्यमय ) शब्दार्थ काव्य है" और यह लक्षण बुरा नहीं है । परन्तु वामन ने कदाचित् गुण और अलंकार का जानबूझ कर प्रयोग इसलिये किया है कि उनका रीतिसिद्धान्त मूलतः गुरण और अलंकार पर ही आश्रित है । अतएव अपने वैशिष्ट्य को व्यक्त करने के लिये प्रयोग वामन के लिये अनिवार्य हो गया है । फिर भी कारण चाहे कुछ भी रहा हो यह लक्षण तात्त्विक न रहकर वर्णनात्मक हो गया है- अतएव लक्षणदृष्टि से यह सर्वथा श्लाघ्य नहीं है । आचार्य मम्मट ने दोषरहित गुणयुक्त अलंकार से अलंकृत शब्दार्थमयी रचना को काव्य की संज्ञा दी हैतददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि । आचार्य विश्वनाथ ने रसात्मक वाक्य को काव्य कहा है- वाक्यं रसात्मकं काव्यम् । ( २४ ) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डितराज जगन्नाथ ने रमणीय अर्थ प्रतिपादक शब्द को काव्य की अभिधा दी है रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम् । अग्निपुराण में काव्य का लक्षण इस प्रकार प्राप्त होता है संक्षेपाद्वाक्यभिष्टार्थ - व्यवच्छिन्नापदावली । काव्यं स्फुरदलंकार - गुणवद्दोषवजतम् ॥ कलिकालसर्वज्ञ जैनाचार्य श्री हेमचन्द्र का काव्यलक्षण मम्मटवत् है प्रदोषौ सगुणौ सालंकारौ च शब्दार्थों काव्यम् वाग्भट २ विद्यानाथ ३ विद्याधर जयदेव ५ रूद्रट ६ १. काव्यानुशासन, पृ. १६२ । २. शब्दार्थी निर्दो प्रायः सालंकारौ च काव्यम् । – काव्यानुशासन, वाग्भट, पृ. १४ ३. गुणालंकारसहितो शब्दार्थों दोषवर्जितौ । प्रतापरुद्रीय, पृ. ४२ । ४. शब्दार्थों वपुरस्य तत्र विबुधरात्माभ्यायि ध्वनिः । - एकावली १।१३ । ५. निर्दोषा लक्षणवती सरीतिर्गुणभूषणा । सालंकाररसानेकवृत्तिर्वाक् काव्यनामभाक् ॥ ६. ननु शब्दार्थों काव्यम् । काव्यालंकारः रुद्रट | ( २५ ) चन्द्रालोक, १७ । । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोज? आदि के काव्यलक्षण भी मम्मट से मिलते-जुलते हैं तथापि स्मर्तव्य हैं। महामहोपाध्याय छज्जूराम विद्यासागर ने पण्डितराज जगन्नाथ के लक्षण को 'साहित्य बिन्दु' नामक अपने लाक्षणिक ग्रन्थ में खण्डित करते हुए काव्यलक्षण प्रस्तुत किया है-'रसगङ्गाधरकारस्य नेदं काव्यलक्षणं युक्तम्काव्यं पठितं काव्यं बुद्धमित्युभयविधव्यवहारदर्शनात् । काव्यपदशक्यतावच्छेदकं व्यासज्यवृत्तिलक्ष्यतावच्छेदककाव्यत्वस्य शब्दार्थोभयनिष्ठत्वात् । तदधीते तद्वद' इति पाणिनिसूत्र-तद्भाष्ययोश्च स्वारस्यात् प्राञ्चो भामहादयोऽपि 'सहितौ शब्दार्थों' काव्यमित्याहुः ।' साहित्यबिन्दु का काव्य लक्षण"रम्यं शब्दार्थयुगलं काव्यमस्माभिरिष्यते । रम्यता लौकिकालाद-जनिका तत्र मन्यताम् ॥" काव्य के प्रयोजन 'प्रयोजनमनुद्दिश्य तु मन्दोऽपि न प्रवर्तते'-कालिदास १. निर्दोषं गुणवत्काव्यमलंकारैरलंकृतम् । रसान्वितं कविः कुर्वन्कीति प्रीति च विन्दति । –सरस्वतीकण्ठाभरण । ( २६ ) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की इस सूक्ति द्वारा काव्य-प्रयोजनों की अन्वेषणा तथा प्रस्तुति आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य है । संस्कृत साहित्य में काव्य के प्रयोजनों पर विशद विवेचन किया गया है। आचार्य भरत ने काव्य (नाट्य) के प्रयोजनों पर विमर्श करते हुए कहा है-'नाटक, धर्म, यश और आयु का साधक, कल्याणकारक, बुद्धिवर्धक एवं लोकोपदेशक होता है। साथ ही वह लोकमनोरंजक, पीडित, परिश्रान्तजनों को सुख-शांति तथा विश्रान्ति प्रदान करता है । आचार्य भरत ने यह वर्णन नाट्य के सन्दर्भ में किया है, काव्य के नामोल्लेख के साथ नहीं। किन्तु स्मरणीय है कि नाट्य काव्य का एक अङ्ग है । अतः भरताचार्य के ये नाट्य प्रयोजन भी काव्यं के प्रयोजन अवश्य हैं । आचार्य भरत के बाद आलंकारिक आचार्य भामह ने व्यापक रूप से काव्य के प्रयोजनों पर ध्यान दिया तथा १. धयं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धिविवर्धनम् । लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भविष्यति ।। दुःखार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम् । विश्रान्तिजननं काले नाट्यमेतद् भविष्यति । विनोदकरणं लोके नाट्यमेतद् भविष्यति । -नाट्यशास्त्र ११११३-११५ ( २७ ) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ ऐसे नवीन तत्त्वों का भी समायोजन काव्य के प्रयोजनों के रूप में प्रस्तुत किया है, जिनकी चर्चा भरत ने नाट्यशास्त्र में नहीं की थी। भामह कहते हैं कि काव्य का प्रयोजन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के साथ-साथ निपुणता, कीर्ति तथा आनन्द की प्राप्ति भी है। धर्मार्थकाममोक्षेषु, वैचक्षण्यं कलासु च । करोति कीति प्रीतिञ्च साधुकाव्यनिबन्धनम् ॥१ प्रेय और श्रेय के संगम स्वरूप काव्य के प्रयोजन को स्पष्ट करके भामह ने काव्य में लोकोत्तर तत्त्व का समावेश किया है । सूक्ष्मतया विचार किया जाये तो भरत के धर्म्य एवं यशस्य ही 'काव्यालंकार' में धर्म एवं कीर्ति के रूप में प्रकट हुए हैं। हित एवं लोकोपदेशजनन 'काव्यालंकार' में अर्थ और मोक्ष के रूप में अवतरित हैं । भामह ने 'आनन्द' का सूत्रपात करके काव्यशास्त्र को एक नया आयाम प्रदान किया है। आचार्य वामन ने काव्य के मात्र दो प्रयोजन स्वीकार किये हैं १. काव्योलङ्कार ११२ । ( २८ ) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "काव्यं सद् दृष्टादृष्टार्थप्रीतिकोतिहेतुत्वात् । काव्यं सच्चारु, दृष्टप्रयोजनं प्रीतिहेतुत्वात् । अहष्टप्रयोजनं कीतिहेतुत्वात् ।" प्राचार्य रुद्रट ने 'काव्यालंकार' में पुरुषार्थचतुष्टय के अतिरिक्त अर्थोपशम, विपदनिवारण, रोगविमुक्ति तथा अभीष्ट वरप्राप्ति को भी काव्य के प्रयोजन के रूप में स्वीकार किया है ज्वलदुज्ज्वलं वाक्प्रसरः सरसं कुर्वन्महाकविःकाव्यम् । स्फुटमाकल्पमनल्पं प्रतनोति यशः परस्यापि ॥ अर्थमनर्थोपशमं शमसममथवा मतं यदेवास्य । विरचितरुचिरसुरस्तुतिरखिलं लभते तदेव कविः ।। आनन्दवर्धनाचार्य ने काव्य का प्रयोजन 'प्रीति' के रूप में स्वीकृत किया है किन्तु प्रोति से उनका अभिप्राय काव्यार्थ से सहृदय के हृदय में उत्पन्न होने वाली प्रानन्द की अनुभूति है। 'तेन ब्रूमः सहृदयमनःप्रीतये तत्स्वरूपम्'१ अभिनवगुप्तपादाचार्य ने भी 'प्रीति' को काव्य का परम १. ध्वन्यालोक १।१ । ( २६ ) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोजन स्वीकार किया है। भोज ने प्रीति एवं कीर्ति दोनों को ही काव्य का परम प्रयोजन कहा है रसान्वितं कविः कुर्वन् कीर्ति प्रीतिञ्च विन्दति । १ आचार्य कुन्तक ने काव्यप्रयोजन पर विशद प्रकाश डालते हुए कहा है- काव्य उच्च कुलोत्पन्न राजपुत्रों के लिए सुन्दर, सरल एवं सरस रूप में कहा गया धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है । इससे व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति होती है तथा अलौकिक आनन्द की अनुभूति भी होती है । २ आचार्य मम्मट ने काव्य के प्रयोजन - यश, अर्थ, व्यवहारज्ञान, शिवेतरक्षति ( श्रनिष्टनाश ), परनिवृत्ति तथा कान्तासम्मित उपदेश के रूप में स्वीकार किया है १. सरस्वतीकण्ठाभरण १।२ । २. धर्मादिसाधनोपायः सुकुमारक्रमोदितः । काव्यबन्धोऽभिजातानां हृदयाह्लादकारिणः ।। व्यवहारपरिस्पन्दसौन्दर्यं व्यवहारिभिः । सत्काव्याधिगमादेव नूतनौचित्यमाप्यते । काव्यामृतरसेनान्तश्चमत्कारो वितन्यते ॥ ( ३० ) - वक्रोक्तिजीवितम् - ११४-६ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यं यशसेऽर्थकृते, व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये । सद्यः परनिर्वृत्तये, कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे । काव्यप्रकाशकार मम्मट पर आचार्य रुद्रट की छाप स्पष्टतया दृष्टिगोचर होती है। परन्तु मम्मट की समन्वयवादिता प्रशंसनीय है। कलिकालसर्वज्ञ प्राचार्य हेमचन्द्र ने काव्य के तीन प्रयोजन स्पष्ट किये हैं काव्यमानन्दाय यशसे, कान्तातुल्यतयोपदेशाय च । प्राचार्यश्री इन तीनों में आनन्द को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए कहते हैं कि आनन्द कवि एवं सहृदयगत है, यश की आकांक्षा केवल कविगत है और सहृदय पाठक उपदेश ग्रहण करता हैं अतः ये तीनों तत्त्व महत्त्वपूर्ण हैं किन्तु आनन्द काव्य का विशिष्ट प्रयोजन है । आचार्य विश्वनाथ की काव्यप्रयोजन विवेचना पर कुन्तक की छाप स्पष्टतया दिखाई देती है। क्योंकि उन्होंने कहा है चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि । काव्यादेव यतस्तेन तत्स्वरूपं निरूप्यते ।। ( ३१ ) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य का महत्त्व और उपयोगिता आगम, निगम शास्त्रों की विद्यमानता में काव्य के पठन, पाठन आदि में श्रम करना व्यर्थ है क्योंकि उनकी प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध है तथा उक्त काव्य-प्रयोजन के माध्यम से बताई गई निःश्रेयस्-सिद्धि, परमानन्दप्राप्ति भी आगम, निगमों के माध्यम से सुतराम् सिद्ध है । फिर काव्यार्थ यत्न क्यों ? इसी प्रकार के एक प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य विश्वनाथ ने कहा है-“कटुकौषधोपशमनीयस्य रोगस्य सितशर्करोपशमनीयत्वे कस्य रोगिणः सितशर्कराः प्रवृत्तिः सा धीयसी न स्यात् ।” अर्थात् कड़वी औषधि से मिटने वाला रोग यदि मीठी मिश्री से दूर हो जाये तो भला कौनसा रोगी मिश्री के आस्वादन के प्रति उपेक्षाभाव रखेगा। अतः स्वतः सिद्ध है कि वेदादिशास्त्रों के अध्येता भी काव्य को सुरुचि एवम् आनन्द के साथ पढ़ेगे । काव्य के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए अग्निपुराण में कहा गया है नरत्वं दुर्लभं लोके, विद्या तत्र सुदुर्लभा । कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा । ( ३२ ) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णुपुराण में कहा हैकाव्यालापाश्च ये केचिद् गीतकान्यखिलानि च । शब्दमूर्तिधरस्यैते विष्णोरंशा महात्मनः ॥ काव्य की प्रात्मा ___ संस्कृत साहित्य के प्रालंकारिकशास्त्रों में काव्य की आत्मा के सन्दर्भ में विद्वानों में विसंवाद है क्योंकि अपनेअपने सम्प्रदाय की मान्यता तथा पृष्ठभूमि का अनुसरण करते हुए सभी प्राचार्यों ने काव्य की आत्मा स्वीकार की है । तत्-तत् प्राचार्यों द्वारा प्रतिपादित काव्य की पूर्वोक्त परिभाषाओं के आधार पर 'काव्य की आत्मा' की स्वीकृतियों में विभिन्नता स्वतः सिद्ध है, उसका विस्तार से पिष्टपेषण करना आवश्यक प्रतीत नहीं होता। अतः संक्षेप में मात्र इतना कहना पर्याप्त है कि किसी प्राचार्य ने रस को, किसी ने ध्वनि को, किसी ने अलंकार को, तो किसी ने रीति को, किसी ने वक्रोक्ति को तथा किसी ने औचित्य को काव्य की आत्मा कहा है, परन्तु यदि हम सूक्ष्मतया विमर्श करें तो स्पष्ट होता है कि रस के अतिरिक्त सभी तत्त्व काव्य के पोषक हैं, आनन्दव्यञ्जक हैं। काव्य की मूल आत्मा तो 'रस' के रूप में ही प्रतिष्ठित होती है। रससिद्धान्त की प्रतिष्ठा आचार्य भरत के समय में ( ३३ ) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लवित पुष्पित हो चुकी थी। भरत का नाट्यशास्त्र रससिद्धान्त का प्राचीनतम प्रामाणिक शास्त्र है। भरत से पूर्व भी रससम्प्रदाय के वासुकि, सदाशिव, अगस्त्य, व्यास, नन्दिकेश्वर, वृद्धभरत, द्रुहिणाचार्य आदि का उल्लेख प्राप्त होता है परन्तु इनके मौलिक ग्रन्थों के अभाव में आचार्य भरत को ही रससिद्धान्त का प्रवर्तक स्वीकार किया जाता है। - रस के बिना काव्य की काव्यता पर सन्देह के प्रश्नचिह्न खड़े हो जाते हैं। अतएव काव्य का रसात्मक होना आवश्यक है । ध्वनि आदि तत्त्वों को काव्य की आत्मा स्वीकार करने वाले प्राचार्य भो किसी-न-किसी रूप में रस की प्रमुखता के पक्षधर रहे हैं, इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं है। --- काव्य और काव्यशास्त्र काव्य तथा काव्यशास्त्र का महत्त्व सर्वविदित है, क्योंकि विश्व का कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं है जो काव्यात्मक पंक्तियों को न गुनगुनाता हो, सुनकर तथा नाट्य रूप में देखकर आनन्दविभोर न हो जाता हो । मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति काव्य के महत्त्व को और ही अधिक उजागर करती है । जब जब देश, समाज तथा जाति में ( ३४ ) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकीर्णता, वैमनस्य या प्रमाद की प्रवृत्ति बढ़ी है तब तब काव्यों की धारा मानव मात्र को कर्तव्यबोध कराने की दृष्टि से कल-कल निनाद करती हुई मुखरित हुई है तथा सर्वत्र समुचित वातावरण संस्थापित करने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है-इतिहास इसका साक्षी है । काव्यशास्त्र की पृष्ठभूमि का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि इसका प्राचीनतम नाम छन्दःशास्त्र था अतः छन्दःशास्त्र का उल्लेख वेदाङ्गों में किया गया है। "शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्त छन्दोविचितिः ज्योतिषञ्च षडङ्गानि । उपकारत्वादलङ्कारः सप्तममङ्गम् ः इति यायावरीयः । ऋते च तत्स्वरूपपरिज्ञानाद् वेदार्थानवगतिः ।" इस प्रकार का उल्लेख काव्यमीमांसा में सम्प्राप्त होता है । इससे यह ज्ञात होता है कि कालान्तर में 'काव्यशास्त्र' ने मात्र छन्दःशास्त्र की परिधि में रहना पसन्द नहीं किया तथा स्वतन्त्र अस्तित्व धारण कर 'अलङ्कारशास्त्र' की अभिधा प्राप्त की, जिसे प्राचार्यों ने सप्तम अङ्ग की संज्ञा भी प्रदान की । प्राचार्य राजशेखर के अनुसार अलंकारशास्त्र आन्वीक्षिकी (तर्क) त्रयी, वार्ता तथा दण्ड-नीति नामक चारों विद्याओं का सार है, अतएव पञ्चम विद्या ( ३५ ) । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है? यह शास्त्र सुदीर्घकालीन परम्परा तक 'अलङ्कारशास्त्र' के नाम से विख्यात रहा परन्तु प्राचीन अलङ्कारशास्त्र आलोचकों का मार्गदर्शक मूलतः आलोचनाशास्त्र के रूप में प्रतिष्ठत था, काव्य के समस्त तत्त्वों की विवेचना एवं आलोचना इस शास्त्र में भी नहीं होती थी। प्राचार्य भामह, वामन, उद्भट आदि ने काव्य विवेचन की सर्वाङ्गीणता पर ध्यान देते हुए इसका नाम 'काव्यालङ्कार' के रूप में स्वीकार किया । 'अलङ्कार' को इसलिए साथ रखा गया क्योंकि प्राचीन आचार्यों ने काव्य का मूलतत्त्व अलङ्कार स्वीकार किया । प्राचार्य वामन काव्य-सौन्दर्यजनक समस्त धर्मों को अलङ्कार के रूप में स्वीकार करते थे ।२ प्राचार्य भामह ने भी काव्य में अलङ्कारों की प्रधानता को दृढ़ता से स्वीकार किया है ।३ . प्राचीन आचार्यों में दण्डी एवं राजशेखर ने उस समय भी क्रमशः काव्यादर्श एवं काव्यमीमांसा शब्द देना ही उचित समझा था । १. पञ्चमी साहित्यविद्या, इति यायावरीयः । सा हि चतसृणामपि विद्यानां निष्यन्दः । -काव्यमीमांसा १/२ २. सौन्दर्यमलंकारः, -काव्यालङ्कारसूत्र ३. अलङ्कारा एव काव्ये प्रधानम् --काव्यालङ्कार ( ३६ ) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यतत्त्वों का विवेचन करने वाले ग्रन्थों के लिए 'साहित्यशास्त्र' का प्रयोग भी परवर्ती कुछ प्राचार्यों ने उचित समझा है; अन्वेषणा करने पर ऐसा प्रतीत होता है । आचार्य भामह आदि के 'शब्दाथों सहितौ काव्यम्' के बाद काव्यविवेचन ग्रन्थों का नाम भी साहित्यशास्त्र या साहित्य विद्या के नाम से व्यवहृत होने लगा। प्रायः 'साहित्यविद्या' का विकास अर्थात् प्रचलन ६०० ई. के समय से है क्योंकि इसी काल के प्राचार्य राजशेखर ने साहित्य तथा 'पञ्चमीसाहित्यविद्या' पद का प्रयोग समान रूप से किया है । आलोचकों के विमर्शानुसार भामह और दण्डी से पूर्व काव्यतत्त्वविवेचक शास्त्रों का नाम क्रियाकल्प था ।२ वात्स्यायन के कामशास्त्र में 'क्रियाकल्प' को भी चौंसठ कलाओं में सम्मिलित किया है। बाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में भी क्रियाकल्प का उल्लेख काव्यतत्त्वविवेचक शास्त्र के रूप में प्राप्त होता है ।३ १. History of Sanskrit Poetics by P.V. Kane (Page 329) २. वही. प. ३३० ३. क्रियाकल्पविदश्चैव तथा काव्यविदो जनान्-अ. ६४/७ ( ३७ ) . Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः यह मत संदिग्ध सा प्रतीत होता है, इसके प्रमाण भी प्रक्षिप्त तथा सन्देहास्पद हैं ।१ काव्य के प्रकार काव्य की अजस्रधारा को विभाजित करने का कार्य अत्यन्त कठिन है परन्तु पूर्वाचार्यों ने अथक प्रयत्न से काव्य के प्रकार स्पष्टतया लाक्षणिकग्रन्थों में प्रतिपादित किये हैं। ___ काव्य के भेद-प्रभेदों के विषय में प्राचीनकाल से ही विमर्श होता रहा है। प्रत्येक सम्प्रदाय के काव्यतत्त्व विवेचक आचार्य ने अपनी तरह से भेद-प्रभेदों का वर्णन प्रस्तुत किया है। प्राचार्य भामह ने काव्य के दो भेद किये थेगद्यकाव्य, पद्यकाव्य । उन्हें वृत्तबन्ध तथा प्रवृत्तबन्ध की दृष्टि से ये दो भेद ही अभीष्ट थे। रीतिसम्प्रदाय के प्राचार्य वामन ने काव्य की उक्त स्वरूपद्वयी को स्वीकार किया था ।२ इन्होंने प्रबन्धकाव्यों में दशरूपक को श्रेष्ठ माना है ।३ १. वही. पृ. ३३१ २. काव्यं गद्यं पद्यञ्च -काव्यालङ्कारसूत्र-१-३-२७ ३. संदर्भेष दशरूपं श्रेयः -वही-१-३-३० ( ३८ ) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य दण्डी ने गद्य तथा पद्य नामक काव्यभेदों के साथ 'मिश्र' नाम का तीसरा भेद भी समायोजित किया जिससे 'नाटक' का अन्तर्भाव भी काव्य के रूप में ही प्रतिष्ठित हो । वस्तुतः श्राचार्य भरत ने पहले ही नाट्य की काव्यता स्पष्ट कर दी थी । आचार्य भामह और दण्डी ने भाषात्मक आधार पर भी काव्य के तीन भेद स्वीकार किये - १. संस्कृतकाव्य २. प्राकृतकाव्य ३. अपभ्रं शकाव्य | आचार्य रुद्रट ने इन्हीं काव्यभेदों के साथ तीन प्रकारों की और समायोजना की है — ४. मागधकाव्य ५. पैशाचकाव्य ६. शौरसेनकाव्य । रीतिसम्प्रदाय के आचार्यों ने काव्यभेदों को बतलाते हुए महाकाव्य, कथा, आख्यायिका, चम्पू, नाटक तथा प्रकरण आदि रूपकों का उल्लेख किया है । यद्यपि ध्वनिवादी आचार्यों ने काव्य के भेद-प्रभेद पर विशेष ध्यान नहीं दिया है तथापि श्रानन्दवर्धनाचार्य ने प्राचीन आचार्यों के मतानुसार काव्यप्रभेदों को प्रस्तुत किया है "यतः काव्यस्य प्रभेदा मुक्तकं संस्कृतप्राकृतापभ्रंशनिबद्ध सन्दानितक विशेषक - कलापक - कुलकानि, पर्यायबन्धः ( ३६ ) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकथा, खण्डकथासकलकथे, सर्गबन्धः, अभिनेयार्थम्, आख्यायिका कथे- इत्येवमादयः । " १ आचार्य आनन्दवर्धन ने इसके अतिरिक्त काव्य के तीन भेद २ स्वीकार किये हैं- १. ध्वनि २. गुणीभूतव्यंग्य ३. चित्र काव्य | आचार्य मम्मट ने भी उत्तम, मध्यम तथा अवर काव्य के रूप में काव्य के तीन भेद स्वीकार किये हैं । में साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने पाँचवें परिच्छेद में काव्य के दो भेद ध्वनिकाव्य एवं गुणीभूतव्यंग्य काव्य के रूप में स्वीकार करके पुनः षष्ठ परिच्छेद दृश्य और श्रव्य के भेद से काव्य के दो भेद स्वीकार किए हैं। प्राचार्य विश्वनाथ चित्रकाव्य को स्वीकार नहीं करते क्योंकि उनके काव्यलक्षरण 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' का प्रवेश चित्रकाव्यों में नहीं होता । ध्वनिकाव्य तथा भेदोपभेद आचार्य आनन्दवर्धन ने 'ध्वनि' तत्त्व का विवेचन १. ध्वन्यालोक ३।७ २. गुणप्रधानाभ्यां व्यङ्गयस्यैव व्यवस्थिते काव्ये उभे ततोऽन्यत् तच्चित्रमभिधीयते । वही ३।४२ ( ४० ) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हुए कहा है-जहाँ अर्थ स्वयं को तथा अपने वाच्यार्थ को गौण करके उस व्यङ्गय रूप विशेष अर्थ को व्यक्त करता है, उस काव्य-विशेष को विद्वानों ने 'ध्वनि' कहा है। प्राचार्य अभिनवगुप्त ने ध्वनि के पाँच अभिप्राय ग्रहण किये हैं-१. वाच्य २. वाचक ३. व्यंग्यार्थ ४. व्यंजनाव्यापार, और ५. ध्वनिकाव्य । . ध्वनिकाव्य के भेदोपभेदों का उल्लेख करते हुए साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने कहा है-ध्वनि के दो भेद होते हैं-१. अविवक्षितवाच्य ध्वनि । २. विवक्षितान्यपरवाच्य ध्वनि । 'अविवक्षितवाच्य ध्वनिकाव्य' के भी दो भेद होते हैं- १. अर्थान्तरसंक्रमित ध्वनिकाव्य । २. अत्यन्त तिरस्कृतवाच्य ध्वनिकाव्य । अर्थान्तरसंक्रमित वाच्य में वाच्यार्थ अपने आप में अनुपयुक्त तथा असम्बद्ध सिद्ध होकर, किसी अन्य व्यंग्यार्थ में संक्रमित हो जाता है । जैसेकदली कदली करभः करभः, करिराजकरः करिराजकरः । भुवनत्रितयेऽपि विति तुलामिदमूरुयुगं न तमूरूदृशः ॥ ( ४१ ) - Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त श्लोक में द्वितीय बार आये हुए कदली, करभ आदि पद यदि मुख्यार्थ का ही बोध न करें तो पुनरुक्ति दोष माना जाएगा। अतः वे मुख्यार्थ में बाधित होकर 'जाड्यगुण विशिष्ट कदली' आदि का बोधन करते हैं, फलस्वरूप यहाँ अर्थान्तरसंक्रमित ध्वनि स्वीकार की जाती अत्यन्त तिरस्कृत वाच्य ध्वनि में वाच्यार्थ आपात सार्थक प्रतीत होता है किन्तु मूलतः वह अपने आप में असंगत होकर सर्वथा तिरस्कृत होकर व्यंग्यार्थ का कारण बनता है। जैसे 'निश्वासान्ध इवादर्शश्चन्द्रमा न प्रकाशते'-यहाँ अन्ध' पद अपने मुख्यार्थ (दृष्टिशून्यता) में सर्वथा अनुत्पन्न है और एकमात्र प्रकाशरहित अर्थ का ही बोधक है-अतः अत्यन्त तिरस्कृत वाच्य ध्वनि है । संस्कृत पद का अर्थ हैचन्द्रमा बिल्कुल नहीं चमक रहा है । ऐसा लगता है जैसे श्वासोच्छवास से अन्धा (मलिन) दर्पण लटक रहा हो। यहाँ व्यंग्य से स्पष्ट है-मलिनता (अप्रकाशता) का आधिक्य । यही लक्षणा का प्रयोजन भी है। विवक्षितान्यपरवाच्य ध्वनिकाव्य में 'वाच्यार्थ' अपने ( ४२ ) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप में विवक्षित या संगत रहता है, पर स्वयं तक सीमित न रहकर व्यंग्यार्थ रूप में परिणत होकर पूर्णता प्राप्त करता है । इसी को अभिधामूलक ध्वनिकाव्य भी कहते हैं । इसके दो भेद होते हैं - १. असंलक्ष्यक्रमध्वनिकाव्य २. संलक्ष्यक्रमध्वनिकाव्य | संलक्ष्यक्रमध्वनि का क्षेत्र रस, भावादि है । अतः इस ध्वनि का क्षेत्र गरिणत होने के कारण विद्वानों ने इसे एक रूप में ही स्वीकार किया है क्योंकि एक संभोग शृंगार के एक भेद में परस्पर आलिंगन, अधरपान, चुम्बन आदि अनेक भेद हैं तो भला विभाव आदि की विचित्रता के साथ मात्र इसी रस की गणना कैसे सम्भव हो सकती है । वाच्यार्थ तथा व्यंग्यार्थ के बीच के क्रम का अवबोध जिसमें हो जाता है या संलक्षित होता है वहाँ संलक्ष्यक्रमध्वनि होती है । जिस प्रकार घंटे के बजने पर एक जोरदार ठनाका होता है तथा फिर क्रमशः शनैःशनैः मधुर मधुर गूँज सुनाई पड़ती रहती है, ठीक इसी प्रकार वाच्यार्थ के प्रतीत होने के बाद जहाँ क्रम से व्यंग्य अर्थ प्रतीत होता है वहाँ संलक्ष्यक्रमध्वनि होती है । इसके भी तीन भेद होते हैं - १. शब्दशक्त्युद्भव ( ४३ ) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. अर्थशक्त्युद्भव । ३. शब्दार्थशक्त्युद्भव । उक्त अनुस्वान (गूज) स्वरूप ध्वनि शब्द, अर्थ और शब्दार्थ द्वारा प्रगट होती है। शब्दशक्ति से प्रादुर्भूत ध्वनि वस्तु और अलंकार के भेद से दो प्रकार की होती ध्वनि के समस्त भेदों को संकलित करने पर अठारह प्रकार के ध्वनिकाव्य होते हैं(१) अर्थान्तरसंक्रमित वाच्य ध्वनि , (२) अत्यन्ततिरस्कृत वाच्य ध्वनि (३) असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य ध्वनि (४) शब्दशक्त्युद्भव ध्वनि काव्य के दो भेद (५) अर्थशक्त्युद्भव ध्वनि काव्य के बारह भेद १२ (६) शब्दार्थोभयशक्त्युद्भव ध्वनि काव्य वस्तुतः ध्वनि के भेद-प्रभेदों को यदि लाक्षणिक ग्रन्थों के अनुसार योजित किया जाये तो ध्वनि की भेद संख्या ५३५५ होती है । ध्वनि के विषय में परिगणनात्मक ( ४४ ) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधा तत्त्वतः उद्भ्रान्तिजनक है जबकि शास्त्रों का प्रयोजन पाठक के लिए ज्ञानप्रद होना चाहिए। गुरणीभूतव्यंग्य ध्वनि और उसके प्रकार आचार्य मम्मट ने काव्यप्रकाश में गुणीभूतव्यंग्य का वर्णन करते हुए कहा है-'गुणीभूतव्यंग्य वह काव्य है, जिसमें व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ की अपेक्षा अप्रधान होता है अर्थात् वाच्यार्थ अधिक चमत्कारक होता है। इसके पाठ प्रकार होते हैं १. अगूढ़ २. अपरस्याङ्ग ३. वाच्यसिद्धयङ्ग ४. अस्फुट ५. सन्दिग्धप्राधान्य ६. तुल्यप्राधान्य ७. क्वाक्षिप्त ८. असुन्दर । विश्वनाथ कविराज ने आचार्य मम्मट के गुरणीभूतव्यंग्य के भेद-विवेचन को अपनाया है। प्रायः ध्वनिकाव्य के समान ही गुणीभूत व्यङ्गयकाव्य के भी भेद-प्रभेद होते हैं। उपर्युक्त पाठ भेदों के अतिरिक्त अर्थान्तर संक्रमित वाच्य आदि की दृष्टि से भी इसके भेद होते हैं किन्तु जहाँ गुणीभूत व्यङ्गय की सम्भावन नहीं की जा सकती वहाँ इसके भेद कैसे हो सकते हैं ? जैसे ध्वनिकार की मान्यता के अनुसार जहाँ अनलंकृत वस्तुमात्र ( ४५ ) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से अलंकार व्यञ्जना होती है वहाँ ध्वनि होती है, गुणीभूतव्यंग्य नहीं, क्योंकि वहाँ काव्य - व्यवहार अलंकार पर ही निर्भर है, वहाँ व्यञ्जना से प्रतीत होने वाला अलंकार प्रधानतया चमत्कारक है, वह गुणीभूत नहीं हो सकता । इस प्रकार ध्वनि के ५१ शुद्ध भेदों में से वस्तुव्यंग्य अलंकार कृत & भेद [ स्वतः सम्भवी, कवि प्रौढोक्तिसिद्ध तथा कवि निबद्धप्रौढोक्तिसिद्ध वस्तु-व्यंग्य अलंकारों के पदगत, वाक्यगत और प्रबन्धगत रूप से तीन-तीन भेद ] कम हो जाते हैं तथा अष्टविध गुणीभूत व्यंग्य के ५१-६ = ४२ भेद होने के कारण गुणीभूतव्यङ्गय काव्य के ४२ x८ = ३३६ शुद्ध भेद होते हैं । संसृष्टि तथा सङ्करादि ४ भेदों के कारण ३३६ x ३३६x४ = ४५१५८४ और इनमें ३३६ शुद्ध भेद जोड़ने पर ४५१६२० भेद होते हैं । आचार्य आनन्दवर्धन ने ध्वनि तथा गुणीभूत व्यंग्य के पारस्परिक मिश्ररण से ध्वनि की 'प्रतिभूयसी संख्या' स्वीकार की है । रीति सिद्धान्त संस्कृत काव्यशास्त्र में रीति सिद्धान्त का प्रवर्तन आचार्य दण्डी से पूर्व ही हो चुका था । परन्तु पूर्वाचार्यों के मौलिक ग्रन्थों के अभाव में श्राचार्य ( ४६ ) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दण्डी को ही रीतिसिद्धान्त का प्रवर्तक माना जाता है । दण्डी का समय सातवीं शताब्दी के अन्त में स्वीकार किया जाता है । १ दण्डी ने काव्य का लक्षण करते हुए कहा है- इष्ट अर्थ से सम्बलित पदावली काव्य है । २ स्पष्ट है कि दण्डी को पदावली की इष्टता के लिए अर्थ की इष्टता अभिप्रेत है, फलतः काव्य में पदावली - शब्द और अर्थ की समुचित योजना प्रभिलषित है । वस्तुतः शब्द और अर्थ की समुचित योजना दण्डी के मत में रीति है । काव्य-रचना के प्रमुख दो तत्त्व होते हैं - अनुभूति प्रौर अभिव्यक्ति । पहला पक्ष भाव पक्ष तथा दूसरा पक्ष कलापक्ष कहलाता है । रीति का सम्बन्ध कला -पक्ष के साथ है । प्रत्येक कवि की अपनी विशेष शैली, अभिव्यक्ति होती है । कवियों के अभिव्यक्ति वैचित्र्य के आधार पर, अभिव्यक्ति की पद्धतियों की अनन्तता सम्भाव्य है । अभिव्यक्ति वैचित्र्य का सूक्ष्म विवेचन असम्भव है जैसे - ईख, गन्ना, दूध तथा १. ए क्रिटिकल स्टडी आफ दण्डिन् एण्ड हिज वर्क्स, दिल्ली, १९७०, पृ. ६१-६३ २. काव्यादर्श, १,१० - ' शरीरं तावदिष्टार्थ व्यवच्छिन्ना पदावली' ( ४७ ) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुड़ आदि की मिठास के सूक्ष्म अन्तर का विश्लेषण संभव नहीं है । इस प्रकार सूक्ष्म एवं अपरिच्छेद्य वैचित्र्य के रहते हुए भी दण्डी ने कहा है कि इन मार्गों (रीति) के पारस्परिक स्थूल अन्तरों को पृथक् पहचाना जा सकता है। रीति के स्थूल दो भेदों - वैदर्भी और गौड़ी का उल्लेख करते हुए दण्डी ने उन्हें प्रस्फुटान्तर माना है | २ वैदर्भी तथा गौड़ी पद्धतियाँ मूलतः तत् स्थान के नाम से व्यवहृत हैं । इन दोनों पद्धतियों के पारस्परिक अन्तर को निर्धारित करने के लिए कुछ भेदकतत्त्वों की चर्चा भी आचार्य दण्डी ने की है । काव्यगुरण ही वैदर्भी तथा गौड़ी के भेदकतत्त्व हैं । काव्यगुण - दस प्रकार के हैं :१. श्लेष ३ - अक्षरों और पदों का सुन्दर समायोजन, संश्लिष्ट या गुम्फित होना, जिससे वर्णयोजना तथा पदयोजना में शिथिलता न हो सके । - १. वही, - १,१०१-१०२ तद्भेदास्तु न शक्यन्ते वक्तु ं प्रति कविस्थिताः ॥ इक्षु-क्षीरगुडादीनां माधुर्यस्यान्तरं महत् । तथापि न तदाख्यातु सरस्वत्यापि शक्यते ।। २ . वही - १, ४० प्रस्त्यनेको गिरां मार्गः सूक्ष्मभेदः परस्परम् । तत्र वैदर्भगौडीयौ वर्ण्यते प्रस्फुटान्तरौ ।। ३. वही - १,४१,१०० ( ४८ ) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रसाद - सरल - सुबोध तथा स्वाभाविक शब्द - प्रयोग | ३. समता - वर्णयोजना में एकरूपता, भले ही वर्णयोजना कोमल हो या कठोर । ४. माधुर्य - वर्णयोजना में मिठास का गुण एवं अर्थव्यंजना में अश्लीलता के अभाव से उत्पन्न सरसता । ५. सुकुमारता - कोमल एवं सुकुमार वर्णों को योजना | ६. अर्थव्यक्ति-भाव या अर्थ की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति, जिससे कोई बात अप्रकट या अर्धप्रकट न रह सके । ७. उदारत्व - किसी उदात्तगुण या भाव का वर्णन । ८. प्रोज- समासों का प्रचुर प्रयोग | 8. कान्ति - लोकव्यवहार के अनुरूप, स्वाभाविक तथा अत्युक्तिरहित वर्णन | १०. समाधि - रूपक योजना अथवा रूपकात्मक अभिव्यक्ति । वैदर्भी तथा गौड़ीय मार्गों के निर्धारक तत्त्वों के रूप दण्डी ने स्पष्ट किया है कि माधुर्य, अर्थव्यक्ति, उदारत्व, समाधि और प्रोज- ये पाँच गुण, दोनों मार्गों में समान ( ४६ ) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप से ग्राह्य अथवा उभयमार्ग साधारण हैं ,शेष पाँच गुण वैदर्भ-मार्ग में अपने मूल रूप में ग्रहण किये जाते हैं; वहाँ गौड़ीय मार्ग में कुछ परिवर्तन के साथ स्वीकार किये जाते हैं ।१ स्वरूप-निरूपण के अनुसार वैदर्भ-मार्ग के छह प्रमुख तत्त्व हैं-१. वर्णयोजना एवं पदयोजना में कोमलता तथा संश्लिष्टता तथा अोज गुण का समन्वय । २. वर्णयोजना में एकरूपता। ३. अर्थ की स्वच्छता, स्पष्टता तथा पूर्णता, ४. वर्णयोजना तथा पदयोजना और भावयोजना में माधुर्य । ५. भावों की उदारता एवं स्वाभाविकता ६. अभिव्यक्ति-पद्धति की अलंकृतता एवं रूपकयोजना । गौडीयमार्ग के प्रमुख लक्षण-१. वर्णयोजना एवं पदयोजना में कठोरता तथा समासों के उन्मुक्त प्रयोगों से उत्पन्न अोज का गुण २. अनुप्रास के उदार प्रयोग से उद्भूत माधुर्य । ३. अर्थयोजना में चमत्कार उत्पादित करने के लिये आडम्बरपूर्ण शब्दों का प्रयोग, भले ही १. वही -पृ. १३८-१४०, ( ५० ) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उससे भाव में अस्पष्टता तथा दुर्बोधता हो जाये । ४. अलंकृत, उदात्त तथा अतिशयोक्तिपूर्ण रचना । स्पष्ट है कि वैदर्भी-मार्ग कोमल, कान्त, परिष्कृत पदावली बद्ध शैली पर जोर देता है तथा रचना की संश्लिष्टता, भावों की प्राञ्जलता, अनुपात एवम् औचित्य को महत्त्वपूर्ण मानता है, जबकि गौड़ीय-मार्ग क्लिष्ट, चमत्कारपूर्ण, शब्दाडम्बर-भित अत्युक्ति पर विशेष बल देता है। दण्डी के बाद आचार्य वामन ने रीति को काव्य के प्रमुख तत्त्व के रूप में स्वीकार किया है। वे स्वीकार करते हैं कि 'रीति काव्य की आत्मा' है ।१ दण्डी के 'मार्ग' शब्द के स्थान पर उन्होंने सम्भवतः प्रथम बार रीति शब्द का प्रयोग किया जो आगे चलकर काव्यशास्त्रों में सर्वमान्य रूप में प्रचलित हुआ। व्युत्पत्ति की दृष्टि से तो मार्ग और रीति दोनों ही शब्द पर्यायवाची सिद्ध होते हैं ।२ १. रीतिरात्मा काव्यस्य १।२।६ -काव्यालंकारसूत्र (सं. जीवानन्द विद्यासागर, कलकत्ता १९२२ । २. वैदर्भादिकृतः पन्थाः काव्ये मार्ग इति स्मृतः । रीङ्गताविति धातोः सा व्युत्पत्त्या रीतिरुच्यते ।। सरस्वतीकण्ठाभरण-१.२.२७ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य वामन के अनुसार रीति की परिभाषा 'विशिष्ट पदरचना रीति' है। दण्डी के द्वारा प्रस्तुत किये गये काव्यगुणों को स्वीकार करते हुए वामन ने उनकी स्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत की है तथा उनकी सीमा का विस्तार भी किया है । उन्होंने काव्यगुणों को शब्दगुण तथा अर्थगुण के रूप में विभक्त किया है । फलतः भेदक तत्त्वों की संख्या दस से द्विगुणित (बीस) हो गई है। __शब्दगुण- १. श्लेष-वर्गों की संश्लिष्ट योजना और उसके फलस्वरूप शब्दयोजना में श्लक्षणता-मृदुता, २. प्रसाद-शब्दों की अत्यन्त सघन योजना का परिहार, ३. समता-शब्दयोजना में एकरूपता, ४. माधुर्य-दीर्घ समासों के अभाव के फलस्वरूप प्रत्येक पद की पृथक्पृथक् स्पष्ट प्रतीति, ५. सुकुमारता-कोमल-कान्त पदयोजना, ६. अर्थव्यनि-शब्दप्रयोग की सम्पूर्णता, भाव की पूर्णता तथा स्पष्ट प्राकट्य, ७. उदारत्व-पदयोजना में सजीवता एवं शक्ति, ८. प्रोज-शब्दों की योजना में प्रगाढ़ता, ६. कान्ति-शब्दों की उज्ज्वलता एवं सम्पन्नता, १० समाधि-शब्दों के प्रयोग में आरोह-अवरोह का समुचित न्यास । अर्थगुरण-१. श्लेष-अनेक भावों का समुचित सुमेल, ( ५२ ) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रसाद-अर्थ की प्राञ्जलता, ३. समता-भावों के वर्णन में क्रमबद्धता, ४. माधुर्य-उक्ति की विचित्रता/ चमत्कारिता, ५. सुकुमारता-कटु या अशुभ उक्ति के स्थान पर मधुर एवं शुद्ध वचनों का प्रयोग, ६. अर्थव्यक्तिवस्तुवर्णन में स्वाभाविकता एवं सजीवता, ७. उदारत्वअश्लीलता, ग्राम्यता का पूर्ण परिहार, ८. प्रोज-भावों को प्रौढता, ६. कान्ति-रस की अभिव्यक्ति एवं उसकी प्रमुखता, तथा १०. समाधि-मूल अर्थ की ग्राहकता/ पकड़ । इन भेदकतत्त्वों के सुन्दर विश्लेषण से प्राचार्य वामन ने रीति के भाव पक्ष की महत्ता उजागर की है। आचार्य वामन ने, प्राचार्य दण्डी द्वारा प्रदर्शित भौगोलिक आधार को स्वीकार करते हुए 'पाञ्चाली' नाम की एक तीसरी रीति की उद्भावना भी की है ।२ पाञ्चाल उत्तर प्रदेश के उत्तरी तथा पश्चिमी भाग को कहते हैं । तत्-तत् प्रदेशों के नाम से स्वीकृत रीतियों का तत्-तत् प्रदेशों के साथ नित्य/अटूट सम्बन्ध नहीं मानना चाहिए। १. काव्यालंकारसूत्रवृत्ति ३,१,४ से ३,२,१४ पर्यन्त । २. १,२,६—काव्यालंकारसूत्रवृत्ति । ( ५३ ) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहाँ की रचनाओं में इन शैलियों की बहुलता होने के कारण उक्त रीतियों का नामकरण मात्र किया गया है ।१ वैदभी रीति उक्त सम्पूर्ण गुणों से सम्पन्न होती है, गौड़ी में प्रोज तथा कांति और पाञ्चाली रीति में माधुर्य एवं सुकुमारता की महत्ता होती है ।२ समस्त गुणों के सम्मिलित परिपाक होने के कारण वैदर्भी रीति को काव्यपाकरे की संज्ञा से भी अभिहित किया गया है । वैदर्भी का क्षेत्र व्यापक तथा पूर्णतया समृद्ध है। परन्तु गौड़ी तथा पाञ्चाली रीति का क्षेत्र नितांत संकुचित, सीमित एवं परस्पर विपरीत भी। गौड़ी रीति अर्थयोजना में भावों की प्रौढ़ता तथा संश्लिष्टता एवं रसाभिव्यक्ति पर बल देती है; शब्दयोजना में समासशैली/प्रगाढ़ता पदों की समुज्ज्वलता को महत्त्व देती है; जबकि गौड़ी रीति के ये १. विदर्मादिषु दृष्टत्वात् तत् समाख्या । विदर्भ-गौड-पाञ्चालेषु देशेषु तत्र त्यैः कविभिर्यथास्वरूपम् उपलभ्यमानत्वात् तत्समाख्या, न पुनर्देशे किञ्चिदुपक्रियते काव्यानाम्-का.सू.वृ. १.२.१०. २. का.सू.वृत्ति. १.२.११-१३. ३. "गुणस्फुटत्वसाकल्यं काव्यपाकं प्रचक्षते"-का.सू.वृत्ति. ३.२.१४. विस्तृत विवेचन देखें- 'कन्सेप्टस् ऑफ रीति एण्ड गुण इन संस्कृत पोइटिकस्' - (दिल्ली-१९४०) पृ. ८५-१११. ( ५४ ) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण पाञ्चाली को अभिलषित नहीं हैं। इसमें तो अर्थयोजना की दृष्टि से चमत्कारिता, कोमल मृदु पदयोजना महत्त्वपूर्ण है तथा शब्दयोजना की दृष्टि से यह समासरहित व्यास शैली एवं कोमल पदयोजना पर बल देती है । प्राचार्य उद्भट ने, जो वामन के समकालीन थे, रीति के संदर्भ में यद्यपि कोई विमर्श नहीं किया है परन्तु उनके द्वारा प्रतिपादित कठोर वर्गों की योजना से सम्पृक्त परुषावृत्ति, कोमल वर्णों की योजना वाली 'कोमलावृत्ति/ ग्राम्यावृत्ति', उक्त दोनों के मध्य की-सी योजना से सम्पृक्त 'उपनागरिकावृत्ति' रीतियों से आंशिक रूप से मिलती जुलती हैं। भारतीय भौगोलिक भागों की दृष्टि से दक्षिण, पूर्व और उत्तर को वैदर्भी, गौडी तथा पाञ्चाली के माध्यम से प्रतिनिधित्व प्राप्त है तो पश्चिम का प्रतिनिधित्व करने वाली कौन-सी काव्य शैली है ? इस विषय पर गहन अवलोकन करके नवीं शताब्दी के मध्य भाग में आचार्य रुद्रट ने 'लाटी' नामक रीति का प्रस्तावन किया, जिसके द्वारा पश्चिम काव्य जगत् का काव्यरीतिगत प्रतिनिधित्व हो सके । रुद्रट की लाटी रीति को उत्तरवर्ती आचार्यों ने स्वीकार नहीं किया है। मात्र ( ५५ ) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 विश्वनाथ कविराज ही इसके अपवाद ही इसके अपवाद हैं क्योंकि उन्होंने साहित्यदर्पण में 'लाटी' का विवेचन किया है । वैसे भोजने अवन्तिका तथा माग को मानकर छह रीतियों की चर्चा की है परन्तु वे विद्वविमर्श भोग्य नहीं सिद्ध हो सकीं । रुद्रट ने समासयोजना को रीति का निर्धारक तत्त्व स्वीकार किया है । उनके अनुसार समासरहित संरचना वैदर्भी, लम्बे-लम्बे समासगर्भित पदों से युक्त रचना गौड़ी तथा छोटे-छोटे समासों वाली पद रचना पाञ्चाली कहलाती है । मध्यम आकार की समासयोजना से संवलित चतुर्थ रीति 'लाटी' कहलाती है । 'लाटी' की उद्भावना के अतिरिक्त रुद्रट ने पाँच वृत्तियों का उल्लेख भी किया है, उन पाँच वृत्तियों के नाम इस प्रकार हैं- १. मधुरा २. प्रौढ़ा ३. परुषा ४. ललिता ५. भद्रा । रीति-वृत्ति सिद्धान्त में समास तथा वर्णयोजना करते हुए भी रुद्रट रीति की प्रामाणिक दूरदर्शी प्रस्तुति नहीं कर सके । ६५० से १०५० ई. के मध्य आचार्य कुन्तक ने नूतन वैचारिक आयाम प्रस्तुत किये, उन्होंने प्रादेशिक आधार ( ५६ ) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर स्वीकृत रीतियों का खुलकर विरोध किया और कहा कि यदि प्रादेशिक श्राधार पर रीतियाँ स्वीकार की जाती हैं तो एक-एक रीति में असंख्य रीतियों की कल्पनायें करनी होंगी क्योंकि भौगोलिक प्रदेशों की असंख्यता विद्यमान है । एक क्षेत्र के कवि एक रीति से सम्बद्ध हों, यह आवश्यक नहीं है । काव्य-रीति को उत्तम, मध्यम तथा अधम के रूप में वर्गीकृत करने के भी कुन्तक विरोधी थे । उन्होंने स्पष्ट किया है कि काव्य में उच्च कोटि का ही सौरस्य होता है, अतः मध्यम तथा अधम कोटि की रीति का कोई महत्त्व नहीं तथा औचित्य भी नहीं है । सर्वप्रथम प्राचीन मान्यताओं पर नवीन क्रान्तिकारी चिन्तन प्रस्तुत करते हुए कुन्तक ने कविस्वभाव को रीतितत्त्व का नियामक स्वीकार किया है । प्रत्येक कवि का स्वभाव प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास से अनुप्राणित होता है । राजानक कुन्तक मानते हैं - " कविस्वभाव-भेद के आधार पर निबन्धित काव्यों के आधार पर ही काव्य-मार्ग ( रीति) के भेदों को सम्यक् मानना चाहिए, न कि देश विशेष के आधार पर । सुकुमार स्वभाव वाले कवि में ( ५७ ) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकुमार रचनापरायण सहज शक्ति प्रादुर्भूत हो जाती है क्योंकि शक्ति और शक्तिमान् में अभेद सम्बन्ध पाया जाता है। कविस्वभाव, प्रतिभा या शक्ति को किसी देश विशेष की सीमा में परिमित नहीं किया जा सकता । अतः देश विशेष के आधार पर रीति/मार्ग का व्यवहार उचित नहीं है। आचार्य कुन्तक ने रीति/मार्ग के वामनादि मत की आलोचना के बाद तीन मार्गों का उल्लेख किया है१. सुकुमार मार्ग, २. विचित्र मार्ग ३. मध्यम मार्ग । सुकुमार मार्ग-कालिदास आदि महाकवियों ने अपनी काव्य-यात्रा सुकुमार-मार्ग से ही प्रारम्भ की थी। पुषित, सरस मार्ग से, जिस प्रकार भ्रमरपंक्तियाँ विचरण करती हैं ठीक उसी प्रकार इस मार्ग के कवियों में सारसंग्रह जैसा गुण प्राप्त होता है । इस मार्ग के कवियों में जो कुछ भी प्रस्तुतिकला, अलंकारादि वैचित्र्य प्राप्त होता है, वह प्रतिभा से प्रकट होता है; सहज होता है, आहार्य नहीं। सुकुमारमार्ग के विषय में गहनता से जानने के लिए तो 'वक्रोक्तिजीवित' का ही अध्ययन करना होगा क्योंकि ( ५८ ) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि विचार से समझाने का प्रयास किया जाए, तो मात्र इसी विषय के लिए स्वतन्त्र ग्रन्थ की अपेक्षा प्रतीत होने लगेगी । प्राचार्य ने इस सुकुमार मार्ग के चार गुणों का वर्णन भी अपने 'वक्रोक्तिजीवित' में बड़े ही विस्तार से विवेचनापूर्वक किया है । वे चार गुण हैं १. माधुर्य २. प्रसाद ३. लावण्य ४. आभिजात्य । विचित्र मार्ग-यह मार्ग तलवार की धार पर चलने के समान दुःसञ्चार योग्य है । कुछ विरले पाण्डित्यपूर्ण कवीश्वर ही इस मार्ग से संचरण कर सकते हैं। जहाँ कविप्रतिभा के प्रथम प्रभात के समय शब्द और अर्थ के बीच वक्रता प्रस्फुरित होती है, जहाँ एक ही अलंकार से संतोष न होने पर कविजन हार आदि आभूषणों में जटित विभिन्न मणियों की तरह दूसरे अलंकारों का गुम्फन करते हैं, हारादि आभूषणों में विन्यस्त अनेक मणियों से चमकती हुई किरणप्रभा के बाहुल्य से देदीप्यमान अलंकारों से सुसज्जित करके जैसे युवती को अलंकृत किया जाता है, ठीक उसी प्रकार जहाँ स्वतः प्रकाशमान उपमादि अलंकारों से स्वाभाविक शोभातिशय में विद्यमान अलंकार्य प्रकाशित होता है, जहाँ वक्रोक्ति का वैचित्र्य ही ( ५६ ) .. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण के समान प्रतीत होता है और जिसमें कोई अपूर्व ही अभिधा परिस्फुरित होती है; तलवार की धार के पथ पर चलने वाले महान शूरवीरोंके मनोरथ की भाँति, जिस कठिन मार्ग से विदग्ध कवियों ने यात्रा की है; वह अत्यन्त दुस्संचर मार्ग विचित्र मार्ग कहलाता है । प्राचार्यं कुन्तक ने विचित्र मार्ग के वर्णन में जो अलंकारों की स्वाभाविकता का वर्णन किया है, वह ध्वनिकार प्रभावित है । अलंकारों का आहार्य रूप काव्य की सुन्दरता को विकृत कर देता है | विचित्र मार्ग की विचित्रता के कारण पूर्वोक्त चार गुणों के स्वरूप में भी पर्याप्त अन्तर दृष्टिगोचर होते हैं । वस्तुतः श्राचार्य कुन्तक की तर्करणा, विवेचना की नवीन उद्भावना अनुपम है । मध्यम मार्ग - यह मार्ग सुकुमार तथा विचित्र दोनों मार्गों के काव्य- व्यसनी कविजनों का मनोज्ञ, हृदयावर्जक काव्यपथ है, जिसमें दोनों मार्गों की विभूतियों की समान प्रतिस्पर्धा परिलक्षित होती है । सुकुमार तथा विचित्र की सम्मिलित सुषमा सुतराम् यहाँ प्रस्फुटित होती है । मध्यम मार्ग को परिभाषित तथा विवेचित करते हुए ( ६० ) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्तक ने कहा है - " सहज एवं आहार्य शोभा के उत्कर्ष से सुशोभित जहाँ परस्पर संकीर्णता को प्राप्त सुकुमार एवं विचित्र भाव प्रकाशित होते हैं, जहाँ माधुर्य, लावण्य, प्रसाद एवं आभिजात्य गुण वर्ग मध्यम वृत्ति का अवलम्बन कर, रचना के सौन्दर्य की किसी अपूर्व विशेषता को परिपुष्ट करते हैं तथा विभिन्न रुचि वाले सहृदयों की मन को हरण करने वाली सुकुमार एवं विचित्र मार्ग विभूतियों की जहाँ प्रतिस्पर्धा परिलक्षित होती है उसे मध्यममार्ग कहते हैं ।”१ तीनों मार्गों के कवियों का कुन्तक ने नामग्राहपूर्वक उल्लेख भी किया है १. कालिदास तथा सर्वसेन आदि महाकवियों के काव्य सहज तथा सुकुमारमार्ग की शोभा से सम्वलित हैं । २. विचित्रमार्ग का सौन्दर्य बारण के 'हर्षचरित' में प्रचुर मात्रा में मिलता है । इसी प्रकार भवभूति, राजशेखर के ग्रन्थों तथा मुक्तकों में परिलक्षित होता है । ३. सुकुमार - विचित्र उभयात्मक सम्वलित मध्यममार्ग के दर्शन मातृगुप्त, माञ्जीर, मायुराज आदि में प्राप्त होते हैं । १. वक्रोक्तिजीवितम् - प्रथमोन्मेषः ४ε-५१ । ( ६१ ) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. नगेन्द्र ने 'भारतीय काव्यशास्त्र की भूमिका' में तथा रघुनाथ दामोदर करमकर ने 'काव्यप्रकाश' में पाञ्चाली, गौड़ी तथा वैदर्भी से अभिन्नता दर्शायी है साथ ही कोमला, परुषा एवं उपनागरिका वृत्तियों के साथ भी तुलना की है। रीति के आत्मनिष्ठ पक्ष के सम्बन्ध में शारदातनय (११७५-१२५० ई.) का यह मत भी उपादेय है कि प्रत्येक कवि में अपनी स्वनिष्ठ विशेषता होती है और इसी कारण प्रत्येक कवि की वाणी भिन्न रूप धारण करती है जबकि अक्षरों की योजना वही होती है एवं पदों की संघटना भी वही होती है ।२ इस प्रकार अनन्तता का संकेत करते हुए उन्होंने कहा है कि प्रत्येक मनुष्य,उसके प्रत्येक भाव एवं उसकी प्रत्येक अभिव्यक्ति में परस्पर अन्तर होता है अतः इस कारण ये अभिव्यक्ति पद्धतियाँ अनन्त हो सकती हैं ।३ १. (क) काव्यप्रकाश-सं. रघुनाथ दामोदर, पूना-१९६५, १०/८१ वृत्ति (ख) भारतीय काव्यशास्त्र की भूमिका (दिल्ली-१६६३) पृ. ३८-४०. २. भावप्रकाश : पृ. ११-१२ 'त एवाक्षरविन्यस्तास्त एवं पदपंक्तयः । पुसि पुसि विशेषेण कापि कापि सरस्वती ।। ३. सम कन्सेप्ट्स् आफ दि अलंकारशास्त्र, मद्रास; १९४२ पृ. १७१ से उद्धृत । ( ६२ ) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत काव्यशास्त्र में रीतितत्त्व का सूक्ष्म विवेचन करने पर ज्ञात होता है कि संस्कृत के आचार्य रीति की संकल्पना में वैयक्तिक तत्त्व की महत्ता को भलीभाँति जानते हैं परन्तु उसे सैद्धान्तिक महत्ता नहीं दे सके । रीति की प्रतिष्ठा बुद्धि तत्त्व तक तो पहुँच सकी है, श्रात्मतत्त्व तक नहीं । आचार्य भरत से लेकर क्षेमेन्द्र तक सभी ने काव्य में औचित्य की प्रधानता को स्वीकार किया है । कुन्तक ने मार्गों के विश्लेषण के पश्चात् औचित्य पर प्रकाश डालते हुए कहा है - " वर्णन की स्पष्ट रीति से जहाँ स्वभाव का महत्त्व परिपुष्ट किया जाता है, उचित वर्णन स्वरूप प्राणयुक्त उस तत्त्व को औचित्य कहते हैं ।" औचित्य के स्वरूप को दूसरे सौन्दर्य की दृष्टि से प्रस्तुत करते हुए कुन्तक ने कहा है- "जहाँ वक्ता या प्रमाता की शोभा के अतिशय से प्रशंसा स्वभाव से वाच्य ही आच्छादित हो जाता है उसे भी औचित्य गुरण कहते हैं । " औचित्य के बाद कुन्तक ने सौभाग्य नामक एक अन्य सामान्य गुण की चर्चा की है सौभाग्य - " उपादेय वर्ग में जिस वस्तु के लिए कवि ( ६३ ) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की प्रतिभा सम्यग्रूपेण प्रयुक्त होती है, उसके गुण को सौभाग्य कहते हैं। काव्योपयोगी समग्र सामग्री के परिस्पन्द से संपादनयोग्य तथा रसयुक्त चित्त (सहृदय) जनों को अलौकिक चमत्कार प्रदान करने वाला काव्य का प्रधान प्राणभूत सौभाग्य गुण होता है । पदों, वाक्यों एवं प्रबन्धों के तीनों ही मार्गों (सुकुमार, विचित्र एवं मध्यममार्ग) में सौभाग्य एवं औचित्य गुण व्यापक रूप से विद्यमान रहते हैं।" काव्य-दोष का स्वरूप काव्य के विविध तत्त्वों के विवेचन के साथ-साथ संस्कृत के प्राचार्य काव्यगत दोषों के विवेचन के प्रति भी सहज रूप से सजग रहे हैं । कविजन काव्यदोषों से परिचित होकर स्वरचित काव्यों में इनका परिहार करें, इस बुद्धि से दोष-विवेचन काव्यशास्त्रों में हो रहे हैं? परन्तु काव्यदोष के सामान्य स्वरूप के विवेचन के प्रति प्रायः प्राचार्य वामन ने ही प्रथमतः दृष्टिपात किया और कहा - "गुण के विपरीत ही दोषों का स्वरूप है" ।२ १. सौकर्याय प्रपञ्चः । काव्यालंकारसूत्र २।१।३ । २. गुणविपर्ययात्मानो दोषाः। २।१।१ । ( ६४ ) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्वनिवादी आचार्य गुणविपर्यय या गुणाभाव के रूप में नहीं, भावात्मक रूप से मानते थे ऐसा प्राचार्य आनन्दवर्धन के दोषों के उल्लेख से ज्ञात होता है ।१ अतएव प्राचार्य मम्मट मुख्यार्थ काव्यत्व के विघातक को ही दोष मानते हैं ।२ रस-भावादि के विघातक/अपकर्षक ही काव्यदोष हैं । तात्पर्य यह है जिनसे रस आदि की अनुभूति में बाधा उपस्थित होती है, वे ही सरस काव्य के दोष माने जाते हैं । आचार्य मम्मट के अनुसार जिन काव्यों में रस की मुख्यता नहीं होती, उनमें शब्द-बोध्य, वाच्य, लक्ष्य तथा व्यङ्गयार्थ को ही मुख्यार्थ कहा जाता है क्योंकि विभावादि अर्थ ही रस के व्यञ्जक हैं। चमत्कारिक वाक्यार्थ की प्रतीति में बाधक तत्त्व भी काव्य-दोष कहलाते हैं तथा शब्द आदि के अपकर्षक भी काव्य-दोष की श्रेणी में आते हैं । इस प्रकार काव्य दोषों को हम तीन श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं १. द्विविधो हि दोष कवेरव्युत्पत्तिकृतः, अशक्तिकृतश्च । तत्राव्युत्पत्तिकृतो दोषः शक्तितिरस्कृतत्वादेव कदाचिन्न लक्ष्यते । यस्त्वशक्तिकृतो दोषः स झटिति प्रतीयते । -ध्वन्यालोक-का. ३-६ २. मुख्यार्थहतिर्दोषो रसश्च मुख्यस्तदाश्रयाद्वाच्यः । उभयोपयोगिनः स्युः शब्दाद्यास्तेन तेष्वपि सः ।। -काव्यप्रकाश ७११ ( ६५ ) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. साक्षात् रसभावादि के अपकर्षक । २. रसोपकारक वाच्य । ३. रसादि तथा अर्थ के उपकारक पद, वाक्य, वर्ण, रचना आदि के अपकर्षक । पदगत दोष प्राचार्य मम्मट ने काव्य के दोषों का वर्णन करते हुए १६ पदगत दोषों का सोदाहरण विवेचन प्रस्तुत किया है १. श्रुतिकटु २. च्युतसंस्कृति ३. अप्रयुक्त ४. असमर्थ ५. निहतार्थ ६. अनुचितार्थ ७. निरर्थक ८. अवाचक ६. बीड़ा, निन्दा और अमंगल का अश्लील १०. सन्दिग्ध ११. अप्रतीत १२. ग्राम्य १३. नेयार्थ (जो केवल पदगत और समासगत भी हुआ करते हैं) १४. क्लिष्ट १५. अविमृष्टविधेयांश १६. विरुद्धमतिकृत (जो मात्र समासगत ही होते हैं)। वाक्यगत दोष पूर्वकथित पदगत दोषों में से च्युतसंस्कृति, असमर्थ तथा निरर्थक को छोड़कर शेष तेरह दोष वाक्यों में तथा कुछ पदांश में भी होते हैं। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्र वाक्यगत दोषों का उपाख्यान इस प्रकार प्राप्त होता है-१. प्रतिकूलवर्ण २. उपहतविसर्ग ३. लुप्तविसर्ग ४. विसन्धि ५. हतवृत्त ६. न्यूनपद ७. अधिक पद ८. कथित पद १. पतत्प्रकर्ष १०. समाप्तपुनरात्त ११. अर्थान्तरैकवाच्य १२. अभवन्मतयोग १३. अनभिहितवाच्य १४. अपदस्थपद १५. अपदस्थ समास १६-सङ्कीर्ण १७. गर्भित १८. प्रसिद्धाहत १६. भग्नप्रक्रम २०. अक्रम २१. अमतपरार्थ । __ प्राचार्य रुद्रट ने अप्रयुक्तत्व, अवाच्यत्व तथा निहितार्थ का असमर्थत्व में समन्वय प्रस्तुत किया है । आचार्य विश्वनाथ ने अवाच्यत्व, निहितार्थत्व आदि का असमर्थत्व से अन्तर स्पष्ट करते हुए सूक्ष्मदृष्टि का परिचय दिया है। अर्थगत दोष ___ शब्द और वाक्य से अर्थ प्रोद्भासित होता है अतः आचार्यों ने अर्थगत दोषों का स्वरूप भी नामग्राह पूर्वक प्रदर्शित किया है १. अपुष्ट २. कष्ट ३. व्याहत ४. पुनरुक्त ५. दुष्क्रम ६. ग्राम्य ७. सन्दिग्ध ८. निर्हेतु ६. प्रसिद्धिविरुद्ध ( ६७ ) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. विद्याविरुद्ध ११. अनवीकृत १२. सनियमपरिवृत्त १३. अनियमपरिवृत्त १४. विशेषपरिवृत्त १५. अविशेषपरिवृत्त १६. साकाङ्क्ष १७. अपदयुक्त १८. सहचरभिन्न १६. प्रकाशितविरुद्ध २०. विध्ययुक्त २१. अनुवादायुक्त २२. त्यक्तपुनः स्वीकृत २३. अश्लील । दोषों के परिहार के विषय में भी समाधानात्मक दृष्टिकोण से युक्त आचार्यों के विवेचन अवश्य द्रष्टव्य हैं। काव्य के गुण काव्य के लिये गुण अत्यन्त आवश्यक हैं। प्राचार्य मम्मट ने गुणों का सम्बन्ध रस के साथ सिद्ध करते हुए कहा है-"शरीरावस्थित आत्मा के शौर्य आदि धर्म जिस प्रकार आत्मा के साथ एकाकार होकर शाश्वत रहते हैं तथा आत्मा के शोभावर्धक होते हैं, उसी प्रकार काव्य के माधुर्य, अोज और प्रसाद गुण रस के साथ नित्यसम्बद्ध होकर काव्य की श्रीवृद्धि करते हैं।” (का. प्र. ८।६६) भरतमुनि ने काव्यगुणों के सन्दर्भ में माधुर्य, औदार्य का उल्लेख किया है तथा अोज के स्वरूप पर भी प्रकाश डाला है। गुण के स्वरूप तथा संख्या आदि का विवेचनयुग तो स्पष्ट रूप से आचार्य भामह के पश्चात् हो गया ( ६ ) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था परन्तु गुण एवम् अलंकारों का विवेक रीतिवादी आचार्य वामन से प्रारम्भ हुआ। इनके बाद ध्वनिवादी आचार्यों ने गुणों के सूक्ष्म विवेचन पर विशिष्ट ध्यान दिया तथा इन्हें काव्य की आत्मा का धर्म बतलाया है । प्राचार्य मम्मट का उक्त कथन भी मूलतः आनन्दवर्धन तथा अभिनवगुप्त की मान्यताओं का अनुसरण करता है । मम्मट के अनुसार ही साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ ने गुणस्वरूप का विवेचन किया है-'उत्कर्षहेतवः प्रोक्ता गुरणालंकाररीतयः' रसस्याङ्गित्वमाप्तस्य धर्मः शौर्यादयो यथा गुणाः । इस प्रकार विश्वनाथ ने हो गुणों को रसोत्कर्षक स्वीकार किया है । गुणों की संख्या प्राचीन आचार्यों ने गुणों की संख्या बतलाते हुए परस्पर विभिन्नता का प्राश्रयण किया है अतएव संख्या अनवरत बढ़ती गई। आनन्दवर्धन तथा भामह से प्रेरणा प्राप्त करके प्राचार्य मम्मट ने गुणों को माधुर्य, प्रोज तथा प्रसाद नामक तीन गुणों में समाहित किया है। तदनन्तर आचार्य हेमचन्द्र तथा विश्वनाथ आदि ने भी उसी गुणत्रयी का समर्थन किया है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाट्यशास्त्र में आचार्य भरत ने काव्य के दस गुणों को स्वीकृति प्रदान करते हुए श्लेष, प्रसाद, समता, समाधि, माधुर्य, प्रोज, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता एवं कान्ति, नामकरण द्वारा उन दस गुणों को प्रकट किया है। अग्निपुराण में शब्दगत, अर्थगत तथा शब्दार्थोभयगत गुणों की संख्या उन्नीस मानी गई है। दण्डी ने भरत के अनुसार दस गुण स्वीकार किये हैं। वामन शब्दगत तथा अर्थगत भेद से बीस गुण स्वीकार करते हैं। इनसे मिलते-जुलते चौबीस गुण भोजराज ने स्वीकार किये हैं। प्राचार्य जयदेव ने आठ गुणों का उल्लेख किया है । आचार्य आनन्दवर्धन ने द्रुति, दीप्ति तथा व्यापकत्व के आधार पर माधुर्य, अोज तथा प्रसाद नामक तीन गुणों को स्वीकृति दी है । इनसे प्रेरणा लेकर ही आचार्य मम्मट ने वामन द्वारा निरूपित गुणों का सयुक्ति खण्डन प्रस्तुत करके माधुर्य, अोज तथा प्रसाद नामक तीन काव्य-गुणों की स्थापना की है। मम्मट का गुण-विवेचन सटीक एवं पूर्णतया वैज्ञानिक है । संक्षेप में, माधुर्य आदि को इस प्रकार समझा जा सकता है माधुर्य भरतमुनि के अनुसार काव्य का सौन्दर्य श्रुतिमधुरता ( ७० ) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में है । दण्डी के अनुसार रसमयता ही माधुर्य है । वामन के अनुसार माधुर्य का अभिप्राय समासरहित उक्तिवैचित्र्य से है । मम्मट की मान्यता के अनुसार हृदय को भावविभोर करने की विशेषता माधुर्य गुरण में है । आचार्य मम्मट ने माधुर्य का लक्षण प्रस्तुत करते हुए कहा है - 'चित्त की द्रुति का कारण प्रह्लादकता 'माधुर्य' कहलाती है । '१ तात्पर्य यह है कि जिससे सहृदयजनों का हृदय द्रवित सा हो जाता है, आह्लादित हो जाता है, उसमें (आह्लाद में ) एक विशिष्ट धर्म रहता है, जिसे 'माधुर्य गुण' कहते हैं । यह माधुर्य, शृंगार आदि रसों में कहीं अधिक तथा कहीं कम होता है । आचार्य भामह ने भी माधुर्य, प्रोज तथा प्रसाद के रूप में तीन गुण स्वीकार किये हैं परन्तु माधुर्य का लक्षण करते हुए वे कहते हैं- 'श्रव्यं नातिसमस्तार्थशब्दं मधुरमिष्यते ।' यहाँ श्रव्य का अर्थ है - श्रवणानुकूलता-श्रुतिप्रियता । यह लक्षण समुचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि श्रुतिप्रियता तो प्रोज तथा प्रसाद में भी विद्यमान रहती है, किन्तु प्रोजस्वी काव्य में दीप्तत्व की ही अनुभूति होनी १. श्राह्लादकत्वं माधुर्यं शृङ्गारे द्रुतिकारणम् ८२६८ कारिका - उत्तराद्ध । ( ७१ ) - Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिये, माधुर्य की नहीं । इसी प्रकार प्रसाद में भी माधुर्य की अभिव्यक्ति नहीं होती। अतः माधुर्य को श्रुतिप्रिय शब्दों का गुण कहना उचित नहीं है। ____ माधुर्य, मात्र सम्भोग शृगार में ही नहीं रहता अपितु करुण, विप्रलम्भ तथा शान्त में भी रहता है । सम्भोग शृगार की अपेक्षा करुण में माधुर्य अधिक होता है। करुण की अपेक्षा विप्रलम्भ में तथा विप्रलम्भ की अपेक्षा शान्त रस में अधिक माधुर्य होता है, सहृदयों के अनुभव के अनुसार संभोग शृगार की अपेक्षा करुण आदि में क्रमशः चित्तः की द्रुति अधिक होती है। अतएव वह द्रुति आँसू तथा पुलकावली के द्वारा स्पष्ट होती है । प्रोज दीप्ति रूप चित्त के विस्तार के हेतु को अोज गुण कहते हैं । यह वीर रस में तथा वीर रस की अपेक्षा बीभत्स में तथा बीभत्स की अपेक्षा रौद्र में अधिक रूप में प्राप्त होता है ।१ तात्पर्य यह है कि वीर रस में तो द्वष्य के प्रति जीतने की इच्छा मात्र होती है, बीभत्स में जुगुप्सित विषय के प्रति प्रबल त्याग की इच्छा होती है तथा रौद्र १. का. प्र. ८/६९-७० पूर्वार्ध । ( ७२ ) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में तो अपकारी के वध की ही इच्छा होने लगती है । इस प्रकार चित्तगत दीप्ति के प्रदीप्त होने के कारण क्रमशः प्रोज की अधिकता स्वीकार की जाती है । वामन के अनुसार 'अर्थस्य प्रौढ़ि: प्रोज: ' १ अर्थात् अर्थ की प्रौढ़ता ही प्रोज है । इस प्रौढ़ि के पाँच भेद हैं(क) कहीं-कहीं एक पद के अर्थ को व्यक्त करने के लिए वाक्य का प्रयोग किया जाता है, जैसे- 'अथ नयनसमुत्थं ज्योतिरत्रेरिव द्यौः' यहाँ चन्द्रमा के लिए 'अत्रिनयनसमुत्थं ज्योतिः' वाक्य का प्रयोग हुआ है । ( ख ) कहींकहीं वाक्य के अर्थ में एक पद का प्रयोग किया जाता है जैसे - 'कान्तार्थिनी संयोगस्थानं गच्छति' इस वाक्य के अर्थ में अभिसारिका शब्द का प्रयोग किया जाता है । (ग) कहीं-कहीं एक वाक्य के अर्थ को व्यासवृत्ति द्वारा ( विस्तार से ) कई वाक्यों द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है । जैसे - 'परस्त्वं नापहर्तव्यम्' इस अर्थ को 'परान्नं नापहर्तव्यम्, परवस्त्रापहारोऽनुचित:' इत्यादि वाक्यों द्वारा चोरी का निषेध किया जाता है । (घ) कहीं-कहीं एक वाक्य के द्वारा संक्षेप में अनेक वाक्यों को व्यक्त किया जाता है, जैसे १. काव्यालंकार सूत्र ३/२/२ । ( ७३ ) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते हिमालयमामव्य पुनःप्रेक्ष्य च शूलिनम् । सिद्धं चास्मै निवेद्यार्थं तद्विसृष्टा खमुद्ययुः ॥१ इस श्लोक में एक ही वाक्य है जो अनेक वाक्यों के आमन्त्रण आदि अर्थ को संक्षेप से प्रकट करता है । (ङ) साभिप्रायत्व का अर्थ है विशेषण की सार्थकता, जैसे-'कुर्यां हरस्यापि पिनाकपाणेः' यहाँ, पिनाकपाणि विशेषण रूप से प्रयुक्त है। ___ वामन आदि के अनुसार काव्य व्यवहार के प्रवर्तक गुण ही हैं किन्तु इस चार प्रकार की प्रौढ़ि के न होने पर भी 'यः कौमारहरः' इत्यादि में काव्य-व्यवहार दृष्ट है और इनके होने पर भी यदि रसादि का अभाव होता है तो काव्यत्व व्यवहार नहीं होता, अतः ये गुण नहीं हैं, अपितु उक्तिवैचित्र्य मात्र हैं। साभिप्रायत्व रूप पञ्चम प्रौढ़ि तो अपुष्टार्थत्व दोष का अभाव है, अन्य गुण नहीं। प्रसाद गुरण 'प्रसाद' का अर्थ है-प्रसन्नता । अतः जिस काव्य १. काव्यप्रकाश २४६ उदा. श्लो., स. उ. । ( ७४ ) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचना को पढ़कर, सुनकर तथा देखकर चित्त प्रसन्न हो जाता है, हृदयकलिका विकसित होती है, उसे 'प्रसाद गुरण' कहते हैं । सहजग्राह्यता ही इस गुण की विशेषता है । 'जिस प्रकार सूखे ईंधन में अग्नि तुरन्त व्याप्त होती है उसी प्रकार जो गुण चित्त में तुरन्त व्याप्त हो उसे 'प्रसाद' कहते हैं । यह गुण समस्त रसों तथा रचना में रह सकता है ।' काव्य गुणों का रचना के क्षेत्र में विशिष्ट महत्त्व है, अतएव समस्त लाक्षणिक ग्रन्थों में इस विषय पर विशिष्ट प्रकाश डाला गया है । अलंकार साहित्य के क्षेत्र में अलंकारों का महत्त्वपूर्ण स्थान है । काव्यगत सौन्दर्य को उत्कर्ष की श्रेणी में पहुँचाने का श्रेय अलंकारों को ही है । आचार्यों ने 'सौन्दर्यमलंकारः ' ऐसा कहते हुए इसे काव्य की आत्मा का स्थान दिलाने का अथक प्रयत्न किया । वस्तुतः 'अलंकरोतीति अलंकार:' इस शाब्दिक व्युत्पत्ति के आधार पर जो अलंकृत करे, उसे अलंकार कहते ( ७५ ) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। आचार्य मम्मट ने अलंकारों को रस के पोषक तत्त्व में रूप में भी स्वीकार करते हुए कहा है-'अलंकार, हार आदि आभूषणों के समान हैं, वे रस के उपकारक भी हैं ।१ आचार्य विश्वनाथ ने भी अलंकार के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा है-'जिस प्रकार अंगदादि (केयूर) प्राभूषण शरीर के लिये शोभातिशय के जनक होते हुए भी आत्मोत्कर्षक भी होते हैं, उसी प्रकार उपमादि अलंकार काव्य-शरीर को अलंकृत करके, काव्य की आत्मा (रस) में उत्कर्ष लाते हैं ।२ । आधुनिक काव्यशास्त्रीय दृष्टि से अलंकार वर्णन की सुन्दर और चमत्कारिक पद्धति है । यद्यपि अलंकार सौन्दर्य के उत्कर्षक हैं तथापि उनका महत्त्व रस-ध्वनि गुण, रीति और औचित्य के पश्चात् ही आदरणीय है । अलंकारों के स्वरूप एवं माहात्म्य को प्रस्तुत करते हुए किसी मनीषी ने ठीक ही कहा है - १. उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित् । हारादि वदलङ्कारास्तेऽनुप्रासोपमादयः ।। २. शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माः शोभातिशायिनः । रसादीनुपकुर्वन्तोऽलङ्कारास्तेऽङ्गादिवत् ।। ( ७६ ) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अलंकार केवल वारणी की सजावट के लिये नहीं, वे भाव की अभिव्यक्ति के विशेष द्वार हैं । भाषा की पुष्टि के लिए राग की पूर्णता के लिये आवश्यक उपादान हैं, वे वाणी के आचार-व्यवहार, रीति-नीति हैं, पृथक् स्थितियों के पृथक् स्वरूप, भिन्न अवस्थानों के भिन्न चित्र हैं । वे वाणी के हास, अश्रु, स्वप्न, पुलक, हाव-भाव हैं । जहाँ भाषा की जाली केवल अलंकारों के चौखटे में फिट करने के लिए बुनी जाती है, वहाँ भावों की उदारता शब्दों की कृपण जड़ता में बँधकर सेनापति के दाता और सूम की तरह 'इकसार' हो जाती है ।" अलंकारों के भेद अलंकार तीन प्रकार के होते हैं - १. शब्दालंकार २. अर्थालंकार ३. उभयालंकार । १. शब्दालंकार - शब्दालंकार शब्द विशेष के द्वारा अपना चमत्कार प्रस्तुत करते हैं । शब्द विशेष के परिवर्तन से शब्दालंकार का अस्तित्व प्रभावित होता है । शब्दालंकारों में अनुप्रास, यमक, श्लेष, वक्रोक्ति आदि विख्यात हैं । २. अर्थालंकार - जो अलंकार काव्य के अर्थ के द्वारा चमत्कार सौन्दर्य उत्पन्न करते हैं, वे अर्थालंकार कहलाते ( ७७ ) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। अर्थालंकारों में शब्द-परिवर्तन होने पर भी अर्थ में अन्तर नहीं आता है। अर्थालंकारों में उपमा, रूपक, परिकर, भ्रान्तिमान्, दीपक, अप्रस्तुत प्रशंसा, विभावना, अर्थान्तरन्यास, अतिशयोक्ति, व्यतिरेक, अपहनुति, प्रतीप, संदेह आदि प्रसिद्ध हैं। ३. उभयालंकार-जो अलंकार शब्द और अर्थ के आश्रित रहकर काव्य को चमत्कृत करते हैं, उन्हें उभयालंकार कहते हैं । इन्हें मिश्रितालंकार भी कहा जाता है । 'साहित्यरत्नमञ्जूषा' का वैशिष्टय संस्कृत-साहित्य की समृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान करने वाली यह काव्यशास्त्रीय कृति सरस, सरल तथा बोधगम्य है। अनसुलझी, उलझी हुई शास्त्रीय-वार्ताओं को, लाक्षणिक रहस्यों को सरल एवम् सरस स्वरूप में प्रस्तुत करना-इस कृति की अनुपम विशेषता है । स्वनामधन्य विद्वन्मूर्धन्य जैनधर्मदिवाकर साहित्यमनीषी परम पूज्य आचार्य विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. एक सफल साहित्यकार हैं । सतत लेखन-स्वाध्याय आदि में व्यस्त रहते हुए आपश्री संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती आदि समृद्ध भाषाओं में सरस एवम् सफल साहित्य-रचना करके वाङ्मय की शोभा बढ़ाते हैं। ( ७८ ) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत साहित्य के प्रति प्राचार्यश्री की विशेष अभिरुचि है। अतएव लक्ष्य तथा लक्षण दोनों प्रकार की सरस रचनायें आपकी सफल लेखनी से प्रसूत हुई हैं। प्रस्तुत 'साहित्यरत्नमञ्जूषा' आपकी लाक्षणिक शैली का सरल तथा बोधगम्य ग्रन्थ है। ग्रन्थकार ने प्रस्तुत ग्रन्थ को पाँच परिच्छेदों में विभक्त किया है-१. कथं कवित्वसम्प्राप्तिः ? २. कवेः शिक्षा च कीदृशी ? ३. कश्च काव्यचमत्कारः ? ४. गुणदोषादयस्य के ? ५. कवेः कः सम्प्रदायः ? इन पाँचों परिच्छेदों में क्रमशः १. कवित्व-शक्ति काव्य स्वरूप, २. छन्दोज्ञान सोदाहरण गण समझ सहित, ३. नवरस, रसाभास, भावाभास, ध्वनिकाव्य का संक्षिप्त सारगर्भित सोदाहरण वर्णन, ४. गुण, दोष, रीति तथा अलंकार का सोदाहरण सुन्दर वर्णन, ५. कवि-सम्प्रदाय का ऐतिहासिक वर्णन एवं विभाग तथा साहित्य में प्रचलित अंकलेखनादि पद्धति का सरस प्रतिपादन हुआ है। प्रत्येक परिच्छेद के अवसान में प्राचार्यश्री ने कविहृदय का सरस परिचय देते हुए सारांश कथन किया है; जिसमें आचार्यश्री की सूत्रात्मकसारगर्भित शैली के ( ७६ ) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन होते हैं । अनुष्टुप् छन्द में अनुप्रास की चमत्कारिक छटा के साथ काव्यशास्त्रीय लाक्षणिक विषय को परिगरिणत श्लोंकों में आबद्ध करके आपने एक अनूठा उपकार किया है । मुझे विश्वास है कि इन सरस श्लोकों को सहजता से स्मरण करके साहित्यिक जिज्ञासु लाभान्वित होंगे । आचार्यश्री की यह कृति प्रौढ़ काव्यशास्त्रीय अध्ययन के अभाव में भी शास्त्रीय मौलिक तत्त्वों के अभ्यास हेतु सार्थक सिद्ध होगी । आचार्यश्री विजय सुशील सूरीश्वरजी महाराज स्वस्थ रहते हुए चिरकाल तक धर्मप्रेरणा के साथ साहित्यजगत् की सेवा करते रहें - इसी सद्भावना के साथ | स्थल १०/३० चौ. हा. बोर्ड जोधपुर [राज. ] आसोज सुद- १० (विजयादशमी) मंगलवार दिनाङ्क १०-१०-८६ ( लेखक प्राचार्य शम्भुदयाल पाण्डेय [ व्याकरणाचार्य, साहित्यरत्न, शिक्षाशास्त्री ] ८० ) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यरत्नमञ्जूषा Page #83 --------------------------------------------------------------------------  Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विषयानुक्रमणिका * क्रम विषय + मङ्गलाचरणम् ॥ प्रथमः परिच्छेदः ॥ * काव्यस्य महत्त्वम् * * प्रथमः परिच्छेदस्य सारांश: * ॥ द्वितीयः परिच्छेदः ॥ "कवेः कीदृशी शिक्षा ?" छन्दोलक्षणम् अक्षरविचारः मात्राः यतिः यतिभङ्गः चरणम् गतिः तुकः लघु-गुरुवणौं गुरुलक्षणं यथा Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम विषय गरणविचारः गणसूत्रम् गरणस्थापना गरगसूचकचक्रम् छन्दसां भेदः छन्दमात्रागणनविधिः छन्दसां भेदा: यन्त्रम् * अनुष्टुप् छन्दः * * एकादशवर्णात्मकानि छन्दांसि * (१) इन्द्रवज्रा छन्दः (२) उपेन्द्रवजा वृत्तम् (३) उपजातिवृत्तम् शालिनी छन्दः रथोद्धता छन्दः दोधकवृत्तम् स्वागता छन्दा * द्वादशाक्षरवृत्तानि * वंशस्थवृत्तम् इन्द्रवंशा छन्दः प्रमिताक्षरा वृत्तम् द्रुतविलम्बितं वृत्तम् तोटकवृत्तम् कुसुमविचित्रा छन्दः जलोद्गति छन्दः भुजङ्गप्रयातं वृत्तम् ( ८४ ) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम विषय * त्रयोदशाक्षरवृत्तानि प्रहर्षिणीयंवृत्तम् मत्तमयूरवृत्तम् ॐ चतुर्दशाक्षरवृत्तम् वसन्ततिलका * पञ्चदशाक्षरवृत्तम् मालिनी * षोडशाक्षरवृत्तम् * पञ्चचामरम् * सप्तदशाक्षरवृत्तानि शिखरिणीवृत्तम् पृथ्वीवृत्तम् मन्दाक्रान्तावृत्तम् हरिणीवृत्तम् * प्रष्टादशाक्षरवृत्तम् चित्रलेखा शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् * एकविंशत्यक्षरवृत्तम् स्रग्धरावृत्तम् * विषमच्छन्दांसि पुष्पिताग्रावृत्तम् सुन्दरीवृत्तम् उद्गतावृत्तम् * द्वाविंशत्यक्षरवृत्तम् भद्रकवृत्तम् ( ८५ ) पृष्ठ ५४ ५५ ५६ ५७ ५७ ५८ ६० ६१ ६२ ६३ ६४ ६६ ६७ ६६ ६६ ७० Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम ७३ ७४ ७७ विषय * त्रयोविंशत्यक्षरवृत्तम् * अश्वललितं वृत्तम् मत्ताकोडं वृत्तम् * चतुर्विंशत्यक्षरं वृत्तम् * तन्वीवृत्तम् पञ्चविंशत्यक्षरं वृत्तम् * क्रौञ्चपदावृत्तम् * षड्विंशत्यक्षरं वृत्तम् * भुजङ्गविजृम्भितं वृत्तम् * दण्डकवृत्तानि * चण्डवृत्तिप्रयातो नाम दण्डकः प्रचितकदण्डकः कुसुमस्तबकं दण्डकम् मत्तमातङ्गलीलाकरः दण्डकः अनङ्गशेखरदण्डकः सिंहविक्रान्तदण्डकः प्रशोकमञ्जरीदण्डक: * गण देवतादिनां यन्त्रम् * * द्वितीयपरिच्छेदस्य सारांश * ॥ अथ तृतीयः परिच्छेदः ॥ रसस्वरूपम् रसभेदाः (१) शृङ्गारः (२) हास्यः (३) करुणः VISU m MMK WW० ( ८६ ) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम विषय १२६ १४४ (४) रौद्रः (५) वीरः (६) भयानकः (७) वीभत्सः (८) अद्भुतः (६) शान्तः ॐ व्यङ्गयार्थरूपध्वनिकाव्यभेदाः * ध्वनिकाव्यम् * तृतीयपरिच्छेदस्य सारांश: * ॥अथ चतुर्थः परिच्छेदः ॥ "गुण-दोषादयश्च के" ? ।। दोषनिरूपणम् ॥ ॥ रीतिनिरूपणम् ॥ ॥ अलङ्कारनिरूपणम् ।। शब्दालङ्काराः अर्थालङ्काराः ।। दृश्य-श्रव्यकाव्यनिरूपणम् ।। * महाकाव्यम् 2 * खण्डकाव्यम् * * कोश: * * गद्यलक्षणम् ६ क आख्यायिका * * चतुर्थपरिच्छेदस्य सारांशः * ( ८७ ) ० १८४ २१३ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय २१७ २२४ २३० २३६ २३८ ॥ अथ पञ्चमः परिच्छेदः ॥ अलङ्कार-सम्प्रदायः रीति-सम्प्रदायः ध्वनि-सम्प्रदायः वक्रोक्ति-सम्प्रदायः औचित्य-सम्प्रदायः निरङकुशाः कवयः * कविसमयः * * पञ्चमपरिच्छेदस्य सारांश: * ॥ तत्समाप्तौ च समाप्तेयं साहित्यरत्नमञ्जूषा ।। ॥ श्रीरस्तु ॥ शुभं भवतु ॥ २३६ २५५ २६० ( ८८ ) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासनसमाट परम पूज्य आचार्य महाराजाधिराज श्रीमद् विजय साहित्यसमा परम पूज्य आचार्यदेवेश-श्रीमदविजय धर्मप्रभावळ परम पूज्य आचार्यप्रवर श्रीमविजय नेमिसूरीश्वरजीमहाराज साहेब लावण्यसरीधरजी महाराजसा. दक्षसूरीधरजी महाराज सा. धमलाम मपूज्य आचार्य साकार परम पूज पायम प्रवचनका जैनधन भगवतश्रीमान श्रीनिलोत्तमा विजयस सुशीलसरी 'महाराजसा. नराधरजीमहाय मविजयजी म योगश आट यश आटपालोताना Page #91 --------------------------------------------------------------------------  Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000 DUR जीरावल तीर्थमण्डन श्री पार्श्वनाथ प्रभु Page #93 --------------------------------------------------------------------------  Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HTTHULILSAR HTTRIBULALLANTRATERIHSHIK THIMIRRITAITHILI शासनप्रभावक (स्व.) परम पूज्य प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय विकाशचन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान केसरी (स्व.) परम पूज्य प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय मनोहर सूरीश्वरजो म. सा. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफ फ्र ॐ ह्रीं श्रीं नमः फ्र ॥ वर्त्तमानशासनाधिपति श्रीमहावीरस्वामिने नमः ॥ अनन्तलब्धिनिधान- श्री गौतमस्वामिने नमः 11 11 11 शासनसम्राट् - श्रीनेमिसूरीश्वर परमगुरवे नमः " ॥ साहित्यसम्राट् - श्रीलावण्यसूरीश्वरप्रगुरवे नमः 11 纷纷纷纷55555555555555555555555555566556卐卐 साहित्यरत्नमञ्जूषा ******* फफफफफफफफफफ 5 मङ्गलाचरणम् फ्र सर्वज्ञं श्रीमहावीरं, जिनेन्द्रं जगदीश्वरम् । नत्वा सुरेन्द्रपूज्यं वै कामदं मोक्षदं वरम् ।। १ ।। जिनोदितश्रुतज्ञानं, श्रुतदेवीं सरस्वतीम् । सम्यग्ज्ञानप्रदं नित्यं, स्तुत्वा च हंसवाहिनीम् ॥ २ ॥ स्मृत्वा श्रीनेमिसूरीशं, सम्राजं जिनशासने । सुतीर्थोद्धारकं ख्यातं, सुपूज्यं ब्रह्मचारिणम् ।। ३ ।। पूज्यं लावण्यसूरीशं, काव्य - शास्त्रविशारदम् । कवि साहित्यसम्राजं, व्याकृतौ च वृहस्पतिम् ॥ ४ ॥ तथा श्रीदक्षसूरीशं, शास्त्रविशारदं गुरुम् । व्याकरणे सुरत्नं वै कविदिवाकरं वरम् ॥ ५ ॥ " साहित्याकर" सुग्रन्थे - भ्यः समुद्धृत्य वै मुदा । देव-गुरुकृपादृष्ट्या, सुशीलसूरिगा मया ।। ६ । बोधार्थं बालजीवानां शिष्याऽभ्यर्थनया शुभा । साहित्यरत्नमञ्जूषा, संक्षेपाच्च निरूप्यते ।। ७ । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथमः परिच्छेदः ॥ अनाद्यनन्तकालीनसंसारे सांसारिकजीवानां निरतिशयानन्दौपयिकमनेकानेकसांसारिकचिन्ताक्रान्तहृदयानामपि, अन्यानपेक्षानन्दजनक - मनोविनोदसम्पादकं काव्यमेव । तल्लक्षणं 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' इति । ___* काव्यस्य महत्त्वम् ॐ विश्वे सुप्रसिद्धसाहित्यशास्त्रे 'काव्यस्य महत्त्वं' विशेषरूपेण प्रतिपादितमस्ति । यथा साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः, साक्षात् पशुः पुच्छविषारणहीनः । तृणं न खादन्नपि जीवमान स्तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ॥ १ ॥ यस्य जीवने साहित्यसुधायाः प्रयातेः कलकलायमानो न प्रवहितः, तस्य जीवनं तु पशुवत् नीरसमेवेति भावः । अन्यच्च काव्यफलं काव्यमर्मज्ञाः यथा वक्ष्यन्ते चतुर्वर्गफलप्राप्तिकारणं अल्पधियानां कृतेऽपि, काव्यादेव संजायते । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यशास्त्रविनोदेन , कालो गच्छति धीमताम् । व्यसनेन च मूर्खारणां, निद्रया कलहेन वा ॥ १ ॥ काव्यप्रकाशकारेण प्रोक्तं यत्काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये । सद्यःपरिनिर्वृत्तये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ॥१॥ • कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरैरपि स्वविरचितकाव्यानुशासने प्रोक्त यत् "काव्यमानन्दाय यशसे कान्तातुल्यतयोपदेशाय च ॥१॥३॥ इति । काव्यस्योपादेयत्वं श्रीअग्निपुराणेऽपि उक्त यथानरत्वं दुर्लभं लोके, विद्या तत्र सुदुर्लभाः । कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभाः ॥ १ ॥ विष्णुपुराणेऽपि कथितम् “त्रिवर्गसाधनं काव्यम्" काव्यालापाश्च ये केचिद्, गीतकान्यखिलानि च । शब्दमूत्तिधरश्चैते, विष्णोरंशा महात्मनः॥१॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-३ . Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यः खलु श्रीमम्मटाचार्यो ग्रन्थारम्भे एव ख्यापयति"सकलप्रयोजनमौलिभूतं रसास्वादनमुद्भूतं वेद्यान्तरमानन्दम् ।” विगलित अत्रेदं सुभाषितमपि - संसारविषवृक्षस्य द्व े फले सुभाषितरसास्वादः, संगमः सज्जनैः सह ॥ १ ॥ मृतोपमे । " काव्यं हि परमानन्दसन्दोहजनकतया सुखादेष सुकुमारबुद्धीनामपि पुनः काव्यादेव । धर्मार्थकाममोक्षफल प्रदायकं स्वरूपं काव्यमेव । अतः काव्यरहस्यविज्ञानाय च केषां सहृदयानां नोत्कण्ठते चेतः । काव्योपयोगित्वं समुद्धृत्य साहित्यकाव्यग्रन्थकोषेभ्यः संक्षेपान्निरूप्यते जिज्ञासूनां कृते । तत्र कथं कवित्वसंप्राप्तिः ? कवेः कीदृशी शिक्षा ? कश्व काव्ये चमत्कार : ?, गुण-दोषादयोऽपि कथं चक्रे ? तथा कवेः कोऽस्ति सम्प्रदायः ? इत्यादयो जिज्ञासूनां जिज्ञासा प्रयोजिकाः । ताश्चेमारनुक्रमेण कथ्यन्तेऽत्र हि । श्रथ 'कथं कवित्वसम्प्राप्तिः ?' इत्युच्यतेशास्त्रागमेषु कवित्वसंप्राप्तेः ये हेतवश्चाख्याता: साहित्यरत्नमञ्जुषा -४ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेष्वाद्यः देवताराधनजन्यत्वेन वा साधनमन्त्रतन्त्रोपासनाभिः समुत्पन्नः ? यत्-हेतुश्च येन कवित्वसम्प्राप्तिर्भवति । सो हि दिव्यप्रयत्नोत्पन्नः प्रयत्नः प्रथमः । द्वितीयो हि भवभवान्तरपूर्वसंस्कारजन्यः [जन्मान्तरसंस्कारजन्यः] कवित्वहेतुः । तृतीयश्च ऐहिकप्रयत्नोत्पन्नः [लौकिकप्रयत्नलभ्यः] कवित्वहेतुः । तत्र हि, दिव्यसाधना-मन्त्र-तन्त्रादिभिः उपलभ्या कवित्वसंप्राप्तिः । मन्त्राणां बीजमन्त्रादिजापादिभिर्वा, यथा-“ऐं" प्रभृतिः। बीजमन्त्रादिजापेन नियतावधिसमये तप-जपादिविधिना साधयितु साधको अहर्निशं तप्यति ध्यायति वा तन्मयोपासनां करोति । तेनाविर्भता सिद्धि जायते । यथा-(१) “ऐं' काराभिधमन्त्रजापेन कवित्वावाप्तिः न्यायविशारद-न्यायाचार्यश्रीमद्यशोविजयवाचकवराणाम् । तथा च तेषामेव सूक्त प्रोक्त श्रीमहावीरस्तवापरनामखण्डनखण्डखाद्ये । "ऐं" कारजापवरमाप्य कवित्ववित्त्व वाञ्छासुरद्रुमुपगङ्गमभङ्गरङ्गम् । सूक्त विकासिकुसुमैस्तववीरशम्भो रम्भोजयोश्चरणयोर्वितनोमि पूजाम् ॥ १ ॥ (२) परमाहतोपासक श्रीकुमारपालभूपालप्रतिबोधक साहित्यरत्नमञ्जूषा-५ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञ - श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वराणामपि वाग्देवताप्रसादासीत् । तद् वृत्तं यथा तस्मिन् काले तस्मिन् समये एकदा किल 'श्रीसोमचन्द्रमुनिराजः' [श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरः]. सञ्जातः । सोऽपि श्रीवाग्देवताराधनाभिलाषः स्वगुर्वाज्ञया श्रीभारतदेशे सुप्रसिद्धश्रीकाश्मीरप्रदेशान् प्रति प्रस्थितः, श्रीसरस्वतीमन्त्रं स्मरतस्तस्य मार्गे एव संमिलिता भगवती भारती, एवमुक्तवती श्रीसरस्वतीदेवी। काश्मीरान्मास्म यासीस्त्वं वत्स ! मत्तोषहेतवे । त्वद्भक्तिप्रणिधानाभ्यां प्रीतास्म्यत्रापि सम्प्रति ॥ १॥ सिद्धसारस्वतो भूयाः, प्रसादेन ममाधुना । इत्युदौर्य तिरोऽधत्त देवी विद्युदिव क्षणात् ॥ २॥ (३) श्रीआमनपतिप्रतिबोधक - सिद्धसारस्वताचार्य श्रीबप्पभट्टिसूरीश्वराणामपि मन्त्राराधनजन्यश्रीवाग्देवीसरस्वतीप्रसादवर्णनमासीत् । यथा श्रीप्रभावकचरित्रग्रन्थे प्रोक्तम् योग्यतातिशयं चास्य, ज्ञात्वा सद्गुरवस्ततः । सारस्वतं महामन्त्रं, तत्रस्थास्तस्य ते ददुः ॥ ३२ ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-६ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परावर्तयतस्तस्य, निशीथे तं सरस्वती । स्वर्गङ्गास्रोतसि स्नात्य-नावृत्तासीद्रहो भुवि ॥ ३३ ॥ तन्मन्त्र-जापमाहात्म्यात्, तद्रूपा सा समाययौ । ईषद् दृष्ट्वा च तां वक्त्रं, परावर्त्तयति स्म सः ॥ ३४॥ स्वं रूपं विस्मरन्तीव, प्राह वत्स ! कथं मुखम् । विवर्तसे भवन्मन्त्र-जापात् तुष्टाहमागता ॥ ३५ ॥ वरं वृण्विति तत् प्रोक्तो, बप्पभट्टिरुवाच च । मातर्विसदृशं रूपं, कथं वीक्ष्ये तवेदृशम् ॥ ३६॥ स्वां तनु पश्य निर्वस्त्रा-मित्युक्त स्वं ददर्श सा। अहो निबिडमेतस्य, ब्रह्मव्रतमिति स्फुटम् ॥ ३७ ॥ उच्चैश्च मन्त्रमाहात्म्यं, येनाऽहं गतचेतना । ध्यायन्ती दृढतोषेण, त्वत् पुरः समुपस्थिता ॥ ३८ ॥ वरेऽपि निस्पृहे त्वत्र, दृढं चित्रातिरेकतः। गत्याऽऽगत्यो ममास्वेच्छा, त्वदीया निवतो भव ॥ ३९ ॥ तथा च तैः श्रीबप्पभट्टिसूरीश्वरैरपि अनुभूतसिद्धसारस्वतस्तवाभिधं विरचितं 'श्रीसरस्वतीस्तोत्रम् । यत् हि महाप्रभावकं त्रयोदशश्लोकात्मकसङ्ख्यकं श्रीसरस्वते: प्रसादप्रयोजकं प्रवर्तते इति । साहित्यरत्नमञ्जूषा-७ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) एवं तार्किकशिरोमणि-जैनाचार्य-श्रीसिद्धसेनदिवाकरमहाराजगुरुदेवानां श्रीवृद्धवादीनामपि वाग्देवीप्रसादः प्रसिद्धः । तद् शास्त्रेष्वपि श्रूयते । स चैवम्-वृद्धावस्थायां गृहीतदीक्षो श्रीमुकुन्दाभिधानो मुनिराजः (अपरनाम श्रीवृद्धवादी) श्रुतपाठमहाघोषैः व्योमं प्रतिध्वनयन् सोपहासं केनचिद् युवमुनिना प्रोक्तः "किमेवं त्वं मुशलं प्रफुल्लयिष्यसि ?" इति श्रुत्वा स्वोपहासं वृद्धमुनिराजः स्वचेतसि अचिन्तयत् । 'धिक मां विद्याविहीनं, मामधिकृत्यैवोपहसति लोकः,' तदहं ध्र वमेव वाग्देवीं श्रीसरस्वतीमाराधयिष्यामीति निश्चित्य मनसि आराधयामास वाग्देवीं एकविंशतिदिनपर्यन्तोपवाससाधना - मन्त्रजापादिक्रियाभिः वृद्धमुनिराजस्य कठोरसाधनां दृष्ट्वा, वाग्देवी प्रसन्ना जाता। सा उवाचसमुत्तिष्ठ प्रसन्नास्मि, पूर्यन्तां ते मनोरथाः । स्खलना न तवेच्छास्तु, तद् विधेहि निजे हितम् ॥ १॥ ततः समुत्थाय कृतपारणकः वृद्धमुनिराजः समानाय्य कस्यचित् गृहस्थस्य गृहात् मुशलञ्चैवमवोचत्अस्मादृशा अपि यदा, भारति ! त्वत् प्रसादतः । भवेयुर्वादिनः प्राज्ञा, मुशलं पुष्यतां ततः ॥ १ ॥ इत्युक्त्वा प्रासुकैर्नीरैः, सिषे च मुशलं मुनिः । सद्यः पल्लवितं पुष्पै-र्युक्तं तारैर्यथा नभः ॥ २ ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-८ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थं दिव्यप्रयत्नैः कवित्वसंप्राप्तिर्भवति । इत्यादयो दृष्टान्ताः जैनशास्त्रग्रन्थे मन्त्राम्नायादिकं गुरूपासनतः प्राप्यम् । ( ५ ) जैनेतरग्रन्थेऽपि कविकालिदासस्यापि कालिकादेवीप्रसादसमुपलब्धः कवित्वशक्तिः समुद्भूता इति सुप्रसिद्धः । एवं बद्धः कविकालिदाससदृशाः स्वेष्टदेवताप्रसादसमुपलब्धाः कवयः संजाताः प्रसिद्धतमाः । अतः कवित्वसंप्राप्तेः त्रिधाप्रकाराः इतिवृत्तवृत्तान्तेषु वर्णिताः सन्ति । तेषु मन्त्राम्नायादिकं वाग्देवीप्रसादतः वा गुरूपासनतः प्राप्यमिदं प्रथमं दिव्यप्रयत्नोपलभ्यमिति । (२) द्वितीयः प्रकारः वर्ण्यते शास्त्रेषु यत् जन्मान्तरसंस्कारजन्यतया कवित्वशक्तः संप्राप्तिरपि जायते । सा च पूर्वजन्मनि समाराधितसम्यग्ज्ञानानां ज्ञानावरणीयादिकर्मणां क्षयोपशमकर्माभ्यां समुत्पद्यते । यथा - सुप्रसिद्धजैनाचार्य श्रीप्रार्य रक्षितसूरीश्वराणां बाल्यावस्थायां वेदोपनिषत्पारिणा देशोनदशपूर्वपर्यन्तश्रुताध्ययनसमर्थाः धीः पूर्वजन्मसंस्कारजन्यैवासीत् । अन्यच्च श्रीशंकरमिश्राभिधकवेरपि यच्छ्र यते तत्र पूर्वजन्मसंस्कार एव हेतुरवसीयते । तथाहि - वैशेषिकसूत्रस्यो साहित्यरत्नमञ्जूषा - ९ ܘ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पस्कारादिग्रन्थविरचितेन श्रीशंकरमिश्रेण बाल्यावस्थायां राजसभायां "सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्" इति वेदसूक्तस्य समस्या स्वतीक्ष्णबुद्धिप्रतिभावैभवेन पूरिता एव । यथा चलितश्चकितच्छन्नः, प्रयाणे तव भूपते ! । सहस्रशीर्षा पुरुषः, सहस्राक्षः सहस्रपात् ॥ १॥ एतच्च समस्यापूत्ति सम्यक् श्रुत्वा, सन्तुष्टेन नृपेण भूरिदानं दत्त्वा कथितं यत्-"अहो ! बाल्येऽप्यस्य एतादृशी प्रतिभा वर्तते ? श्रुत्वा तदा ऊनपञ्चवर्षवयस्केन शङ्करमिश्रेण कथितम् बालोऽहं जगदानन्द !, न मे बाला सरस्वती। अपूर्णे पञ्चमे वर्षे, वर्णयामि जगत्त्रयम् ॥ १॥ प्राग्जन्मसंस्कारात् एवं शक्यते, नान्यथा । (३) तृतीया हि लौकिकप्रयत्नलभ्या कवित्वशक्तिः । साऽपि व्याकरण-काव्य-कोश-छन्दःशास्त्रप्रमुखाभ्यासैः साध्या । तत्राधिकारीणां त्रिप्रकाराः सन्ति । तथाहिअल्पप्रयत्नबोध्यः, कृच्छ्रबोध्यः, कृच्छतरबोध्यश्चेति । तेषु साहित्यरत्नमञ्जूषा-१० Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्य साक्षरस्य बुद्धि-प्रतिभा श्रेष्ठा, काव्यस्य रुचिरपि उत्तमा बलीयसी तथा गुरोविनयो गरीयान् स प्रथमोऽधिकारी कथ्यते । स हि अल्पप्रयत्नेन पदपादपूर्तीत्यादिना काव्यानि संभूयते । • तत्र पादपूत्तिः यथा महामहोपाध्याय-श्रीमेघविजयगणिवराणां श्रीमेघदूतस्यानुकृति विधाय समस्यापूत्तिलेखनं कृतम् । यथा स्वस्ति श्रीमद्भुवनदिनकृवीरतीर्थाभिनेतुः , प्राप्यादेशं तपगरणपतेर्मेघनामा विनेयः । ज्येष्ठस्थित्यां पुरमनुसरन्नव्यरङ्ग ससर्ज , स्निग्धच्छायातरुषु वसति रामगिर्याश्रमेषु ॥ १ ॥ अन्यच्च-सुप्रसिद्ध - जैनाचार्यश्रीमानतुङ्गसूरीश्वरैः विरचितस्य श्रीभक्तामरस्तोत्रस्य "भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रभाणा" मिति पद्यस्य पाद्यपदमादाय केनचिद् मुनिवरेण पूर्तिः कृताः । तद् पद्यमाहभक्तामरप्रणतमौलिमरिणप्रभारणा मुद्दीपकं जिन ! पदाम्बुजयामलन्ते । स्तोष्ये मुदाहमनिशं किल मारुदेव ! दुष्टाष्टकर्मरिपुमण्डलभित् सुधीर ! ॥१॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-११ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा - " श्रियः कुरुणामधिपस्य पालिनीमितिपद्यस्य " श्राद्यपदमादाय माघनाम्ना कविना पूर्तिः कृता, “श्रियः पतिः श्रीमतिशासितु" मित्यादि । काव्यपटूनां कृच्छ्रबोध्यः द्वितीयः - स हि कविकालिदासादिकृतकाव्यादिप्रबन्धानामवलोकनोद्भवचित्तानन्दः सहनिवासी काव्यस्य रचनायै वाक्यार्थशून्यमपि काव्यस्य संयोजनं करोति, तथा छायादिकमादाय काव्यकर्त्ता एव । तत्र वाक्यार्थशून्यमपि काव्यं यथा हि • 1 विमलकान्तनितान्त निशान्त के प्रकृतिचारुविदारुणसारुणे । भववनेऽनवने घननूतने , सरसमाररमारमितानने ॥ १ ॥ तथा छायामादाय काव्यं यथा कलमरालविहङ्गमवाहना, प्रणतभूमिरुहामृतसारिणी सितदुकूलविभूषरणलेपना । , प्रवरदेहविभाभरधारिणी ॥ १ ॥ इति सिद्धसारस्वताचार्य - श्रीबप्पभट्टिसूरिविरचितः अनुभूतसिद्ध सारस्वतस्तवस्य श्लोकछायामादाय श्रीसरस्वती - स्तोत्ररूपा मत्कृतिर्यथा साहित्यरत्नमञ्जूषा - १२ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभप्रियश्वेतमरालवाहिनी , मृणालतन्तूपमवस्त्रशालिनी । तुषारकुन्देन्दुसमानशोभना , स्तुत्या सदा तुष्यतु भव्यभारती ॥ १ ॥ • कृच्छतरबोध्यः तृतीयः-सोऽपि अतिप्रयत्नेन पदपरावादिना चमत्कृतिहीनकाव्यकारकः । यथा भोजप्रबन्धे कथितमाह-श्रीभोजराजप्रार्थनाकृते चतुर्भिद्विजैरतिप्रयासेन पदद्वयं विरचितम् । तच्चैवम् भोजनं देहि राजेन्द्र ! , घृत-सूपसमन्वितम् । इति श्लोकार्द्ध कविकालिदासेन पूरितम् । यथा माहिषं च शरच्चन्द्रिकाधवलं दधि । पदपरावृत्याऽपि यथा आदिमं पृथिवीनाथ-मादिमं निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथं च, ऋषभः स्वामिनं स्तुमः ॥ ३ ॥ [इति सकलार्हत्चैत्यवन्दने प्रोक्तम् ] प्रथमं पृथिवीपालं, प्रथमं निरवग्रहम् । प्रथमं तीर्थनाथं वै, श्रीऋषभं जिनं नुमः ॥१॥ चमत्कृतिहीनं यथा निशायां शोभते चन्द्रः, तारागरणादि संवृतः । विनाशन तिमिरौघं वै, वितन्वन् चन्द्ररश्मिकम् ॥१॥ कवित्वसंप्राप्तिरिति विषये अल्पप्रयत्नबोध्यः, कृच्छबोध्यः, कृच्छतरबोध्यश्चेति त्रिविधोऽधिकारी ज्ञातव्याः । साहित्यरत्नमञ्जूषा-१३ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्तु सर्वदा शब्दशास्त्रमात्रोद्घोषरणादिना, तथाभूतादिहेतुहेत्वाभासादिरूपतर्कशास्त्रसमध्ययनेन वा विनष्टकवनशक्तिः साहित्यनिन्दा श्रवणेन चाऽपि विप्रलब्धः, सोऽत्रासाध्यत्वेनानधिकारी ज्ञेयाः ॥ * प्रथमपरिच्छेदस्य सारांश: कोमले काव्यसंसारे, कवित्वं कीदृशं मतम् । सुशीलसूरिणा प्रोक्तं, रम्यं संस्कृतभाषया ॥ १ ॥ कवित्वं दुर्लभं लोके, तत्रापि तत्रापि रससिद्धता । रससिद्धकवीनाञ्च भेदा: शास्त्रेषु दर्शिताः ॥ २ ॥ सिद्धसारस्वतः कश्चिद्, जन्मसंस्कारतोऽपि वा । यत्नाल्लभ्या च शक्तिः स्यात्, काव्यकोशपुरस्सरा ॥ ३ ॥ यत्नलभ्या च या शक्ति-स्तत्र सन्त्यधिकारिणः । अल्पकृच्छौ च बोधन्यौ, पुनः कृच्छतरो मतः ॥ ४ ॥ कृच्छतरात् कृच्छः श्रेष्ठः एवं विद्यात् समासेन, कृच्छाच्चाल्पबोध्यकः । कवित्वप्राप्ति सूचना ।। ५ ।। सरलैस्सरसैः शब्दः - रथैर्भावैश्व सङ्गतः । प्रथमोऽयं परिच्छेदो, मया प्रीत्या प्रपूरितम् ॥ ६ ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-१४ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति-श्रीशासनसम्राट - सूरिचक्रचक्रवत्ति-तपोगच्छाधि - पति-भारतीयभव्यविभूति - महाप्रभावशालि-अखण्डब्रह्मतेजोमूत्ति-श्रीकदम्बगिरिप्रमुखानेकप्राचीनतीर्थोद्धारक-श्रीवलभीपुरनरेशाद्यनेकनृपप्रतिबोधक - चिरन्तनयुगप्रधानकल्प-वचनसिद्ध-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-प्रातःस्मरणीय-परमोपकारि-परमपूज्याचार्यमहाराजाधिराज श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वराणां दिव्यपट्टालंकार-साहित्यसम्राट्-व्याकरणवाचस्पति-शास्त्रविशारदकविरत्न - साधिकसप्तलक्षाधिकश्लोकप्रमाणनूतनसंस्कृत - साहित्यसर्जक-परमशासनप्रभावक-बालब्रह्मचारि-परमपूज्याचार्यप्रवर श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वराणां प्रधानपट्टधरधर्मप्रभावक - शास्त्रविशारद - कविदिवाकर-व्याकरणरत्नस्याद्यन्तरत्नाकराद्यनेकग्रन्थकारक-बालब्रह्मचारि-परमपूज्याचार्यवर्य श्रीमद्विजयदक्षसूरिवराणां पट्टधर-जैनधर्मदिवाकरशास्त्रविशारद-साहित्यरत्न-कविभूषण-बालब्रह्मचारि श्रीमद्विजयसुशीलसूरि सन्दृब्धायां साहित्यरत्नमञ्जूषायां प्रथमः परिच्छेदः ॥ साहित्यरततमन्यूषा-२५ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ द्वितीयः परिच्छेदः ॥ कवित्वसंप्राप्तिरिति पूर्व कथिता एव । तदनु तत्र "कवेः कीदृशी शिक्षा ?" इति जिज्ञासायां प्रोक्त यत् "समुपलब्धविलक्षणरसयुक्तकाव्यगिरः कवयितुः शिक्षा कथ्यते ।" अतः काव्येषु साहित्यशिक्षायां कवित्वधारणाशिक्षायां प्रथमतः छन्दोज्ञानमावश्यकमिति । छन्दोलक्षणमाह .. यत्र रचनायामक्षराणां मात्राणां यतीनां च विशेषनियमो भवेद् तत्र 'छन्दः' जायते । अक्षरविचारः छन्दशास्त्रे अर्द्धमात्रिककारणेन व्यञ्जनानां पृथगणना नास्ति, किन्तु स्वराणां संख्या एव अक्षराणां संख्या मन्यते । स्वयं राजन्ते शोभन्ते इति स्वराः । व्यज्यते प्रकटीक्रियतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनमिति । साहित्यरत्नमञ्जूषा-१६ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्रा "अक्षिस्पन्दनप्रमाणकः कालविशेषः। कश्चिदपि वर्णोच्चारणे यद् समयो लगति स 'मात्रा' कथ्यते । 'अ, इ, उ, ऋ, लु' इति ह्रस्वस्वरः । एवं एते स्वरवन्तः व्यञ्जनाः अपि एकमात्रिक: कथ्यते । शेषदीर्घस्वरास्तथा दीर्घस्वरवन्तो व्यञ्जनाः, एवं गुरुवर्णः सर्वेऽपि द्विमात्रिका उच्यन्ते । यतिः कश्चिदपि छन्दस्य पठनकाले तस्य प्रत्येकचरणस्यान्ते, अथवा मध्यभागे, एकस्थले वा अधिकस्थलेऽपि यद् विश्रामः (विरामः) तत् 'यतिः' कथ्यते । यतिभङ्गः नियमस्य बिना यद् कश्चिद् पदस्य मध्ये यतिः (विरामः) करणाद् 'यतिभङ्गः' भवति । तस्माद् न केवलं छन्दगतौ हि भङ्गः, किन्तु तस्यार्थः हृदयंगमकरणेऽपि कठिनता लगति एव । क्वचिदपि यतिभङ्गकारणाद् अर्थस्याऽनर्थोऽपि हि जायते । अतः यतिभङ्गस्य छन्देषु महत्त्वपूर्ण स्थानमस्ति । चरणम् साधारणतः एकस्मिन् छन्दे चत्वारः पङ्क्तयो भवन्ति । साहित्य-२ साहित्यरत्नमञ्जूषा-१७ । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दस्यैकापंक्तिः छन्दशास्त्रेषु छन्दस्य 'पदं' 'पादं' अथवा 'चरणं' कथ्यते । गतिः-छन्दस्य यद् लयस्तद् 'गतिः' कथ्यते । प्रत्येकछन्दस्य स्वलयो वर्तते । तस्य द्वारा छन्दस्य पठने सति मधुरता आगच्छति । तुकः-छन्दानां चरणेषु पादेषु स्वसमान यद् ध्वनिः तदेव 'तुकः' कथ्यते। दग्वाक्षरः-मुख्यतया "झ ह र भ प' इत्यक्षराणि 'दग्धाक्षरारिण' कथ्यन्ते । अत्यन्ताऽशुभकारणात् छन्दशास्त्रे आदौ एते वजितास्तथापि यानि दग्धाक्षराणि यद् देववाचीत्यादयो भवेद् तान्यशुभो नाऽभवत् । गुरुवर्णकारणाद् एते सर्वेऽपि निर्दोषा भवन्ति । लघु-गुरुवरणौ___ एकमात्रिको वर्णः 'लघुः (ह्रस्वः)' कथ्यते । द्विमात्रिको वर्णः 'गुरुः (दीर्घः)' कथ्यते । तथा द्विमात्रिकानुस्वारः, एवं विसर्गाक्षरवान् वर्णस्तथाऽक्षराद् संयुक्ताक्षराच्च पूर्वाक्षरोऽपि 'गुरुः' मन्यते । चरणस्यान्तिमाक्षरश्चापि आवश्यकतानुसारेण लघुः अथवा साहित्यरत्नमञ्जूषा-१८ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुरपि कथ्यते । छन्दश्च मात्राऽक्षरस्य भेदेन द्विधा भवति । ह्रस्वस्वरस्यैकमात्रा तथा गुरुस्वरस्यैव मात्राद्वयं वर्त्तते । गुरुलक्षणं यथा संयुक्ताद्यं दीर्घं, सानुस्वारं विसर्गसंमिश्रम् । विज्ञेयमक्षरं गुरु पादान्तस्थं विकल्पेन ॥ १ ॥ गरण - विचार: त्रयाणां वर्णानां वृन्दं तद् 'गरणः' कथ्यते । तस्य द्विधा - द्विप्रकारो वर्त्तते । वर्णगरणस्तथा मात्रागणः । मात्राणां गणना लघ्वक्षराणां एकात् तथा गुर्वक्षराणां (दीर्घाक्षराणां ) द्वाभ्यामकथयत् । वर्णगरणस्तु त्रिष्वक्षरेषु बद्धः गुरु-लघोः निश्चित क्रमस्य कथयति । गरणसूत्रम् गणस्वरूपाणां स्मरणार्थमेतद् सूत्रमाह - " य-मा-ता-राज-भान-स-लगा ।" एतस्मिन् सूत्रे पूर्वाष्टाक्षराः गणानां सूचकाः । नवमाक्षरः लघुसंकेतस्तथा दशमाक्षरोऽपि गुरुसंकेत एव । यदि कश्चिदपि गरणस्य स्वरूपं ज्ञेयार्थं सहितेनाग्रिमस्याक्षरद्वयसंमिलने तस्याक्षरस्य संति ज्ञातव्यम् । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १९ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा-'मगरणः' तद्स्वरूपज्ञेयार्थं 'मा-ता-रा'। sss पूर्वरूपाद् 'यगण, मगरण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण, सगरण' इत्यष्टनामानि सन्ति । तथा लघुः गुरुश्च संमिल्य दशैतानि ज्ञातव्याः । मात्राछन्दभिन्नानामन्येषां छन्दसां सौकर्याय गणवर्गः समुपदिष्टः शिष्टजनैः । गणश्चाष्टधा। तद्यथा-मगण, नगण, भगण, यगण, जगण, रगण, सगण, तगणभेदात् । तेषां स्वरूपं दर्शयति अनेनश्लोकेनमस्त्रिगुरुस्त्रिलघुश्च नकारो , भादिगुरुः पुनरादिलघुर्यः । जो गुरुमध्यगतो रलमध्यः, सोऽन्तगुरुः कथितोऽन्तलघुस्तः ॥१॥ अन्यच्च आदिमध्यावसानेषु, भजसा यान्ति गौरवम् । यरता लाघवं यान्ति, मनौ तु गुरुलाघवम् ॥२॥ वर्णत्रयसमुदयो 'गरणः'। तत्र यस्मिन् गणे त्रयोऽपि वर्णा गुरवः सन्ति, सो 'मगरणः' मन्यते । यत्र त्रयो वर्णाः लघवः सन्ति, सो 'नगरणः' गण्यते । यत्र प्रथमो वर्णः साहित्यरत्नमञ्जूषा-२० Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुः तथा शेषौ द्वौ लघु स्तः, सो 'भगरणः' भण्यते । यत्र आद्यो वर्णः लघुः तथा शेषौ द्वौ गुरू स्तः, सो 'यगरणः' कथ्यते । यत्र मध्यमो गुरुरग्रिमान्तिमौ लघु स्तः, सो 'जगणः' मन्यते । यत्र मध्यमो लघुः तथा प्रथम-तृतीयौ गुरू स्तः, सो 'रगणः' गण्यते। यत्र प्रथम-द्वितीयौ लघू तृतीयश्च गुरुः, सः 'सगरणः' कथ्यते । यत्रान्तिमो लघुवर्णः तथा शेषप्रथम-द्वितीयौ गुरुवर्णः, स 'तगरणः' मन्यते इति । अत्र रेखारूपदर्शकोऽयं श्लोक:वक्ररेखा (5) गुरोश्चिह्न, सरला च (1) लघोस्तथा । गुरुरेको गकारस्तु , लकारो लघुरेककः ॥१॥ ॥ गणस्थापना ॥ (१) मगणः sss (५) जगणः ।। ཙེ ཚེ (२) नगणः ॥ (३) भगणः ॥ (६) रगणः I (७) सगणः ॥ (८) तगणः । (४) यगणः । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२१ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. सं. १ ४ ७ ८ ६ १० नाम मगण नगण भगण यगण जगण रगण सगण तगण लघु गुरु लघुसंज्ञा | लक्षरणम् त्रिगुरु त्रिलघु प्रादिगुरु आदिलघु मध्यगुरु मध्यलघु अन्तगुरु अन्तलघु म न भ य ज र स त ल ग * गणसूचकचक्रम् चिह्नम् SSS = 15 SII ISS ISI SIS 115 SSI 1 S मात्रा ६ ३ ४ ५ ४ ५. ४ ५ १ वर्ण रूपम् मातारा नसल मानस यमाता जभान राजभा सलगा ताराज अ ना शुभाशुभम् शुभ शुभ शुभ शुभ अशुभ अशुभ अशुभ अशुभ उदाहरणम् श्रीदेवी सुमति ईश्वर अहिंसा सुधर्म चन्द्रमा जनता आदित्य Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * छन्दसां भेदः ॐ छन्दसां भेदो द्विधा भवति । मात्रिको वणिकश्चेति । तत्र मात्रिक-मात्राछन्दसि मात्राणां संख्या निश्चितमेव वर्तते। तथा वणिकछन्दसि वर्णानाम् अक्षराणां संख्या निश्चितमेव वर्त्तते । वणिकछन्दसः संस्कृते वणिकवृत्तमपि कथ्यते । मात्रिक-वणिकद्वयोरपि छन्दसोः पुनः सम-विषमपदानां सम्बन्धाद् विधा त्रिधा भेदाः भवन्ति । तथाहि(१) मात्रिकसमछन्दः, (२) मात्रिकार्द्धसमछन्दः, (३) मात्रिकविषमछन्दश्च । तथैवम् (४) वणिकसमछन्दः, (५) वर्णिकार्द्धसमछन्दः, (६) वर्णिकविषमछन्दश्चापि । (१) मात्रिकसमछन्दः-यस्य छन्दसश्चतुर्षु चरणेषु मात्राणां संख्या समाना भवति, सः 'मात्रिकसमछन्दः' कथ्यते । यथा-चौपाई, हरिगीतिका प्रमुखाः । (२) मात्रिकाद्धसमछन्दः-यस्य छन्दसः प्रथमतृतीययोश्चरणयोः तथा द्वितीय-चतुर्थयोश्चरणयोः मात्राणां संख्या समानं भवति, सः 'मात्रिकाद्धसमछन्दः' कथ्यते । यथा-दोहादयः। साहित्यरत्नमञ्जूषा-२३ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) मात्रिकविषम छन्दः - यस्य छन्दसश्चतुर्षु चरणेषु मात्रा भिन्ना:- भिन्नाः वर्त्तते, तस्माद् न समछन्दः न विषमछन्दः स एव ' मात्रिकविषमछन्दः' कथ्यते । तथा चत्त्वाराधिकचरणवन्तछन्दसामपि मात्रिकविषम छन्दः कथ्यते यथा - आर्या, कुण्डलिया, छप्पयेत्यादयः । एव । (४) वरिंग कसमछन्द: - यस्य छन्दसश्चतुर्षु चरणेषु वर्णानां संख्या समाना भवति, स ' वणिकसमछन्दः ' कथ्यते । यथा - इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, वंशस्थश्चेत्यादयः । छन्दसः प्रथम (५) वरिंणकार्द्ध समछन्दः -यस्य तृतीययोश्चरणयोः तथा द्वितीयचतुर्थयोश्चरणयोः वर्णानां संख्या समाना भवति, स ' वरिंग कार्द्धसम छन्दः' कथ्यते । यथा - पुष्पिताग्रा प्रमुखः । (६) वरिंगकविषम छन्दः - यः छन्दः न समः नार्धसमः, यस्य चतुर्षु चरणेषु वर्णानां संख्या भिन्न-भिन्नं वर्त्तते सः 'वरिंगकविषमछन्दः' कथ्यते । यथा- प्रार्यादयः । एतेषामतिरिक्तमात्राणां वर्णानां च संख्यायाः विचारेणाऽपि छन्दानां कतिपयः अन्यभेदः कथितः । यथा - १. साधारणः २. दण्डकश्चेति । मात्रिकछन्देषु द्वात्रिंशद्मात्रापर्यन्तानां छन्दसां 'साधारण छन्दः ' साहित्यरत्नमञ्जूषा - २४ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कय्यते । तथा द्वात्रिंशदधिकमात्राणां छन्दसां 'दण्डकछन्दः' कथ्यते। वणिकछन्देषु षड्विंशतिवर्णपर्यन्तानां छन्दसां 'साधारणवृत्तम्' कथ्यते । तथा षड्विंशदधिकवर्णानां छन्दसां 'दण्डकवृत्तम्' कथ्यते । वरिपकछन्दसामपि अन्यद्विविधो भेदः-१. गणबद्धः, २. मुक्तकश्चेति । तत्र गणबद्ध छन्दसां चरणेषु वर्णानां गणानां च संख्या विनिश्चितं भवति । यथा-मन्दाक्रान्ता, द्रुतविलम्बितं, वंशस्थः, सवैया प्रमुखाः । मुक्तकछन्दसां चरणेषु - केवलवर्णानां संख्या विनिश्चिता, न तु गणानां तथा लघु-गुरुणां च कश्चिदपि नियमो भवति । यथा-मनहरण-कवित्तादयः । छन्दमात्रागगनविधिः यस्य छन्दसो मात्रा गण्यते, तद् स्पष्टं लिखित्वा तदस्य लघ्वक्षरोपरि लध्वक्षरस्य चिह्न [1] प्रदत्तम् । तथा तदस्य गुर्वक्षरोऽपि गुर्वक्षरस्य चिह्न प्रदत्तमेव । पुनः लध्वक्षरस्य एकमात्रा तथा गुर्वक्षरस्य द्विमात्रा संलग्नं श्लोकचरणस्याग्रिमस्थले लिखितमस्ति । मात्रायां छन्दसि आर्यायाः प्राथम्यात्तामेवादौ कथयामि । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२५ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * छन्दसां भेदाः ॐ छन्दः मात्रिक: वणिकः अद्ध सम समः अद्ध समः साधारणः दण्डकः दण्डक: साधारणः साधारण: दण्डकः वणिक: गरणबद्धः मुक्तक: ॥ इति छन्दसा भेदाः सन्ति ।। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्याः पादे प्रथमे, द्वादशमात्रास्तथा तृतीयेऽपि । अष्टादश द्वितीये, चतुर्थके पञ्चदश साऽऽर्या ॥१॥ आर्यायाः लक्षणमुदाहरणं चेदमेव-पार्यायाः पथ्या, चपला, विपुला, मुखचपला, जघनचपला, गीति, उपगीत्यादयोऽनेकाः भेदाः छन्दशास्त्रतो ज्ञेया विशेषार्थिना । तेषु गीतिछन्दसोऽतिप्रसिद्धत्वात् तल्लक्षणमुच्यते । 'आर्या प्रथमाधसमं, यस्या अपरार्धमाह तां गीतमिति ।' तस्योदाहरणं यथाअजिअं जिन-सव्वभयं, संति च परांत-सव्व-गय-पावं । जयगुरु संति गुणकरे, दोवि जिणवरे पणिवयामि ॥१॥गाहा। [श्रीप्रजित-शान्तिस्तवने प्रोक्तमिति] अक्षरच्छन्दःसु प्रथममष्टाक्षरमनुष्टुप् छन्दः । तल्लक्षणं यथा पञ्चमं लघु सर्वत्र, सप्तमं द्वि-चतुर्थयोः । गुरुषष्ठं विजानीयाच्छेषेष्वनियमो मतः ॥१॥ तस्योदाहरणं यथा नमस्कारसमो मन्त्रः, शत्रुञ्जयसमो गिरिः । वीतरागसमो देवो, न भूतो न भविष्यति ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-२७ । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा मम सुशीलनाममालेयं, सुशीलसूरिणा मुदा । बालबोधाय दृब्धाऽभि-धानचिन्तामरिण श्रिता ॥ - [इति सुशीलनाममालाग्रन्थे प्रोक्तम्] अथ वक्त्रस्य ऽष्टाक्षरत्वेनानुष्टुभिः वक्तव्यस्यापि तद्वत् सकलस्य नियतगुरुलघुत्वाभावात् पथ्या-चपलादि संज्ञा कार्या । मात्रावृत्तानामसाङ्कर्याच्च मात्रावृत्तप्रस्ताव एव लक्षणमाह 'वक्त्रं नाद्या न्नसौ स्याता मध्ये योऽनुष्टुभिख्यातम् ।' अन्यच्चापिश्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं, सर्वत्र लघु पञ्चमम् । द्विचतुष्पादयो ह्रस्वं, सप्तमं दीर्घमन्यथा ॥ वक्त्रं युग्भ्यां मगौ ख्यातामब्धेर्योऽष्टुभिख्यातम् । युजोश्चतुर्थतो येन पथ्यावक्त्रं प्रकीतितम् ॥ कश्चिद् विद्वान् अनुष्टुपलक्षणस्य प्रायिकं मन्यतेऽपि अष्टाक्षरतायाः स्वीकरोति एव । प्रयोगे प्रायिकं प्राहुः, केप्येतद् वृत्तलक्षरणम् । लोकेऽनुष्टुविति ख्यातं, तस्याष्टाक्षरता मता ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-२८ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतस्मिन् समर्थने श्रीक्षेमेन्द्रोऽपि कथितमाह - शास्त्रं कुर्यात् प्रयत्नेन प्रसन्नार्थमनुष्टुभा । येन सर्वोपकाराय याति सुस्पष्ट-सेतुताम् ॥ भवति । यत्र च प्रथमो 'प्रमाणिका' छन्दे अष्टाक्षरप्रमाणं तल्लक्षरणमाह- 'प्रमाणिका जरौ लगौ । जगणः द्वितीयो रगरणः पश्चाल्लघुवर्णः ततश्च गुरुवर्णः, तत्र 'प्रमाणिका नाम छन्दः' वर्त्तते । तस्योदाहरणं यथा मम - अनन्तलब्धिसाधिका, गरणीन्द्रगौतमार्चना । जिनागमे रति कुरु, 'सुशील' अत्र साधकाः ॥ प्रमाणिका छन्द: जगरण: अनन्त ISI रगणः ल, लब्धि सा- धि SIS गु, का S अथ एकादशवर्णात्मकानि छन्दांसि वर्ण्यन्ते ( १ ) अत्र तेषामाद्य : ' इन्द्रवज्रा छन्दः' कथ्यते । साहित्यरत्नमञ्जूषा - २९ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तल्लक्षणमाह 'स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौ गः ।' इन्द्रवज्रावृत्ते तगणद्वयं जगरण: गुरुद्वयं च भवन्ति वर्णाः । तत्र तदिन्द्रवज्रानाम छन्दः ।। तस्योदाहरणं यथा कल्पद्रुमस्तस्य गृहेऽवतीर्णश्चिन्तामणिस्तस्य करे लुलोठ । त्रैलोक्यलक्ष्मीरपि तं वृणीते, [ इति विरचितशत- न्याय ग्रन्थ- न्याय प्राचार्य श्रीमद् यशोविजयवाचकानाम् । ] इन्द्रवज्रा छन्दः गेहाङ्गणं यस्य पुनाति सङ्घः ॥ १ ॥ तगरणः कल्पद्रु मस्तस्य SSI तगरणः उदाहरणं यथा मम - ss शब्दानुसन्धानप्रदानकाले जगरण: 1 गृहेऽव श्राशास्यते सुन्दरनाममालाशालेव धर्मस्य सम प्रिया स्यात् । ISI मालेव वा मोदकरी भवित्री ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा - ३० गु, ती S गु. S - Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) 'उपेन्द्रवज्रावृत्तं कथ्यते । गौ।" तल्लक्षणमाह-"उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो अथवा-"उपेन्द्रवज्रा प्रथमे लघौ सा ।" सा इन्द्रवज्रा एव प्रथमे लघुवर्णे सति 'उपेन्द्रवज्रा' स्यात् । यत्र प्रथमः जगणः द्वितीयः तगणः तृतीयः जगणश्च दशमैकादशवणौं गुरवः । तस्योदाहरणं यथासुवर्णवर्णो हरिणा सवर्णो, मनो वनं मे सुमतिर्बलीयान् । गतस्ततो दुष्टकुदृष्टिराग द्विपेन्द्र ! नैव स्थितिरत्र कार्या ॥१॥ [इति वाचकश्रीक्षमाकल्याणगणिविरचित श्रीचैत्यवन्दनचतुर्विंशतिकायाम्] । उपेन्द्रवज्रा तगणः तगरणः जगणः गु छन्दः सुवर्ण वर्णो ह | रिणा स | व | isi ssi 151 s s साहित्यरत्नमञ्जूषा-३१ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथैवोदाहरणं यथा ममसर्वज्ञदेवो जिनवर्द्धमानः, पुरीमपापां महत्यरण्ये महसेननाम्नि, तीर्थप्रवृत्यै कृतवान् विहारम् ॥ [ इति श्रीगणधरवादकाव्ये प्रोक्तमिदम् ] । (३) 'उपजातिः वृत्तं' कथ्यते । तल्लक्षणमाह निकषा सुरम्ये । श्रनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ पादौ यदीयावुपजातयस्ताः । इत्थं किलान्यास्वपि मिश्रितासु, वदन्ति जातिष्विदमेव उदाहरणं यथा नाम || श्रव्यवहितोक्त `न्द्रवज्रोपेन्द्रवज्रालक्षणसहितौ पादौ यत् सम्बन्धिनौ । " इन्द्रवज्रोपेन्द्रवज्रयौः मिलितौ पादौ यस्याँ सा उपजातिः” । जितो जगत्येष भवभ्रमस्तैः 1 १ ॥ गुरूपदेशेन प्रभुं स्मरन्ति । उपास्यमानं कमलासनाद्य रुपेन्द्रवज्रायुध - वारिनाथः ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा - ३२ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रथमे लघुः। जगरणः उपजातिः जितो ज | गत्येष भवभ्र | मस् | तैः छन्द: 151551 151 ss तथैवोदाहरणं यथाअथ प्रजानामधिपः प्रभाते, जायाप्रतिग्राहितगन्धमाल्याम् । वनाय पीतप्रतिबद्धवत्सां , यशोधनो धेनुमृषेर्मुमोच ॥१॥ (इति कविश्रीकालिदासविरचितश्रीरघुवंशकाव्ये प्रोक्तम् ) अत्रेदं समानजातिकयोरेव द्वयोः वृत्तयोः सङ्करे उपजातित्वम्, न विषमजातिकयोः। किञ्च मेलनमपि वृत्तद्वयस्य कविजनसमाचरितस्य श्रुतिसुखकरस्य च । यत्र च चरणद्वयस्य जातिभिन्नाः, अपरद्वयस्य च जातिभिन्ना तत्राभावोपजातेः, किन्तु अर्द्धसमत्वं वर्तते । समजातिकयोरपि किञ्चिद् वैशिष्टयं विहाय सर्वेष्वंशेषु यत्र साम्यं सम्भवति तत्रैव मेलनमादि । यथा-इन्द्रवज्रोपेन्द्रवज्रयोः स्वागतारथोद्वत्तयोः इन्द्रवंशावंशस्थयोरित्यादि । स्वागतारथोद्धतावंशस्थेन्द्रवंशादिभ्योऽपि तथैव भवन्त्युपजातयः । साहित्य-३ साहित्यरत्नमञ्जूषा-३३ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वेषूपजातिषु चतुर्दशभेदाः । तत्र च इन्द्रवज्रोपेन्द्रवज्रयोर्भेदा नामतो यथा-१. कीर्तिः, २. वाणी, ३. माला, ४. शाला, ५. हंसी, ६. माया, ७. जाया, ८. बाला, ६. आर्द्रा, १०. भद्रा, ११. प्रेमा, १२. रामा, १३. ऋद्धिः १४. बुद्धिश्चेति । (१) उपजातिभेदेषु प्रथमभेदोदाहरणं यथा 'कोत्तिः' नामोपजातिछन्दः (उ इ इ इ) तदीय पट्टाधिकृतो गुरणाना माधिकयतः शासनदक्षसूरिः । साधुप्रधानश्च सहोदरश्च , तच्छिष्यनामानुगुणः सुशीलः ॥ (२) द्वितीयभेदोदाहरणं यथा 'वाणी' नामोपजातिछन्दः (इ उ इइ) देवाधिदेवादि - गुणानुरागाः , षडत्र ये सन्ति प्रदत्तभागाः । भवन्ति प्रायः जगतां प्रसिद्धाः , 'सुशील' दृष्टानि मनोहराणि ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-३४ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) तृतीयभेदोदाहरणं यथा'माला' नामोपजातिछन्दः ( उ उ इ इ ) श्रालम्बते तत्क्षरणमम्भसीव, विस्वारमन्यत्र विना न साहित्यविदाऽपरत्र, गुणः कथञ्चित् प्रथते कवीनाम् ॥ (४) चतुर्थभेदोदाहरणं यथा'शाला' नामोपजातिछन्दः ( इ इ उ इ ) वैयाघ्रपद्यं द्विपदीय बुद्धि:, क्रियां स तीर्थे द्विपदाभमित्रः । गीरा स्फुरन्नासिकया न्यकार्षी नसीतदृष्टि द्विपदी सृजन्ता ॥ न तैलबिन्दुः । (५) पञ्चमभेदोदाहरणं यथा 'हंसी' नामोपजातिछन्दः ( उ इ उ इ) दुग्धानिगद्रूढमनः स्निडेव्या, स्नुग्धामृतस्नूढवचाः श्रुतिश्रुक् । स्नीद्विजैः स्निग्धतनुः सुमन्त्रः, प्रभात - सन्ध्योचितमन्त्रजापम् ॥ [ इति कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य विरचितद्वयाश्रयमहाकाव्ये प्रोक्तम् । ] साहित्यरत्नमञ्जूषा - ३५ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) षष्ठभेदोदाहरणं यथा 'माया' नामोपजातिछन्दः (उ इ इ उ) मुद्वानरोही वतिकामुनीवत् , यूषीवतीवाः शुचिवाग् बभाषे । नृपेण तृष्णीवति जेहुलो लक्षमीवान् यशस्वान्नयवत्सु धीमान् ॥ [श्रीद्वयाश्रय महाकाव्ये प्रोक्तम्] (७) सप्तमभेदोदाहरणं यथा'जाया' नामोपजातिछन्दः (उ उ उ इ) राजन्वती या हरिणा सुराष्टा , ___ तादाम्भिमानूमिमदब्धिभीमः । शौर्येष्मकण्ड्वा कृमिमानिवाद्य , ___ स भूमिमान् राजवतीं व्यधत्तः ॥ [श्रीद्वयाश्रयमहाकाव्ये प्रोक्तम्] (८) अष्टमभेदोदाहरणं यथा 'बाला' नामोपजाति-छन्दः (इ इ इ उ) वन्द्यः स पुंसां त्रिदशाऽभिनन्द्यः , कारुण्य - पुण्योपचय - क्रियाभिः । संसारसारत्वमुपैति यस्य , परोपकाराऽऽभरणं शरीरम् ॥ [सुभाषितावलौ प्रोक्तम्] साहित्यरत्नमञ्जूषा-३६ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) नवमभेदोदाहरणं यथा 'पार्दा' नामोपजातिछन्दः (उ इ इ उ) गुणा गुणज्ञेषु गुणी भवन्ति , ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः । सुस्वादुतोयापभवा हि नद्यः , समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः ॥ [सुभाषिते प्रोक्तम् (१०) दशमोदाहरणं यथा 'भद्रा' नामोपजातिछन्दः (इ उ इ उ) अस्त्रं नवं मानसिजं वरेण , क्षरेजयहं क्षरजाति - तेजः । इन्द्राण्युरोजोचितमद्रिजोरसिजोचित ढोकयति स्म कीरः ॥ [श्रीद्वयाश्रयमहाकाव्ये प्रोक्तम्] (११) एकादशोदाहरणं यथा 'प्रेमा' नामोपजातिछन्दः (उ उ इ इ) वितीर्ण शिक्षा इव हृत्पदस्थं , सरस्वती - वाहनराजहंसैः । ये क्षीरनीरप्रविभागदक्षा , विवेकिनस्ते कवयो जपन्ति ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-३७ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) द्वादशोदाहरणं यथा 'रामा' नामोपजातिछन्दः ( इ इ उ उ) ईदृग्गजो भर्तृगृहेस्थिदन्तो , हन्यात् पितुः शिष्यं पितुस्तनूजान् । पितुः स्वसारं स्वसृपत्यपत्यं , ___ स्वसुः पति नाम पितृष्वसृरणाम् ॥ [श्रीद्वयाश्रयमहाकाव्ये प्रोक्तम्] (१३) त्रयोदशोदाहरणं यथा 'ऋद्धिः' नामोपजातिछन्दः (उ इ उ उ) प्रियोदसम्तूदकभारजन्तू व्यग्रा वणीग्रोदकसम्तु शुभ्रा । रणोदगाहाद्रुधिरोदभाराः , क्षणेन केप्योदकगाहमीयुः ।। [श्रीद्वयाश्रयमहाकाव्ये प्रोक्तम् (१४) चतुर्दशोदाहरणं यथा 'बुद्धिः' नामोपजातिछन्दः (इ उ उ उ) दीपाः स्थितं वस्तुविभावयन्ति , _कुलप्रदीपास्तु भवन्ति केचित् । चिरव्यतीतान्यपि पूर्वजान्ये , प्रकाशयन्ति स्वगुणप्रकर्षात् ॥ [श्रीअमृतवर्द्धनस्य] साहित्यरत्नमञ्जूषा-३८ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एते चतुर्दशोपजातिभेदाः इन्द्रवज्रोपेन्द्रवज्रासम्भवा प्रदर्शिता, उपरि उपजातिभेदानामाद्यं यत् उदाहरणमुल्लिखितं तत्र एकैकलघुह्रासक्रमः बहुषु ग्रन्थेषु अयमेव क्रमः समादृतः। अतः तेनैव क्रमेण उपजातिभेदाः अत्रापि प्रदर्शिताः । किञ्च मूलकृतः 'अनन्तरोदीरित' इत्युदाहरणप्रदर्शनेन पादे सर्वगुरावाद्या लघु न्यस्य इति प्रस्तारपथप्रदर्शनेन प्रदर्शितः क्रमः एव सामञ्जस्यमावहति । अत्र पूर्वोक्तलक्षणेन पादद्वयेन यथायोगमेकद्विवारावृत्या निष्पत्तिर्विवक्षिता। न तु द्वाभ्यां एव वृत्तपूर्तिः पादद्वयमात्रघटितस्य वृत्तस्याभावात् । द्विवचनं लक्षणद्वयेन लक्षणया नेयम् । ताश्च तुरक्षरप्रस्तारवत् प्रस्तरे सत्याद्यन्तभेदयोः केवलेन्द्रवज्रोपेन्द्रवज्रा त्यागे चतुर्दश भवन्ति । यथा ८ इ इ इ उ Խ છે १ २ ३ ४ ५ ६ उ इ इ इ इ उ इ इ उ उ इ इ इ इ उ इ उ इ उ इ इ उ उ इ խ १० ११ १२ १३ १४ 4444 इ उ इ उ उ उ इ उ इ इ उ उ उ इ उ उ इ उ उ उ, इति । - साहित्यरत्नमञ्जूषा-३६ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा च अन्यच्चएकत्र पादे चरणद्वये वा , पादत्रये वान्यतरः स्थितश्चेत् । तयोरिहान्यत्र तदोहनीया चतुर्दशोक्ता उपजातिभेदाः ॥ एवं भेदेषु उदाहरणानि विवेचनीयानि । इत्यं किलान्यास्यपि मिश्रितासु । स्मरन्ति जातिष्विदमेव नाम ॥ केषाञ्चित्-इन्द्रवज्रोपेन्द्रवज्रयोर्मेलनेन इन्द्रवंशावंशस्थयोमेलनेन यथा उपजातयः सम्मधन्ते तथा इन्द्रवज्रावंशस्थयोः इव अन्यान्यविषमाक्षरजातिद्वयमेलनेन अपि उपजातयः भवन्तीति वदन्ति । 'शालिनी' छन्दः कथ्यते । तल्लक्षणमाह 'शालिन्युक्ता, म्तौ तगौ गोऽब्धिलोकः ।' यस्यां मगणः तगणद्वयं गुरुद्वयं स्यात् चतुर्भिः सप्तभिश्च विरामः 'शालिनी' छन्दः । साहित्यरत्नमञ्जूषा-४० Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्योदाहरणं यथाअन्तर्वारिण मन्यमानः कवीनां , पौरोभाग्यं युक्तिष्क्तासु दत्ते । सर्वानिन्द्येऽप्यङ्गके कामिनीना मीमांमार्ग शोधते भर्भ (बम्भ) राली ॥१॥ मत्कृतिः - नृणां श्रद्धा-शालिनी देवपूजा , श्रेयस्कारी धर्मवृद्धि विधत्ते । कामं दत्ते श्रीसमूहं प्रदत्ते , मोक्षं धत्ते कर्मविनाशिनी वै॥ शालिनी मगणः । तगणः तगणः छन्द: नृ णां श्रद्धा शालिनी देव | bc | | sss | ऽ। | । | | n (३) 'रथोद्धता' छन्दः कथ्यते तल्लक्षणमाह "रात्परैर्नरलगै रथोद्धता।" यत्र रगणः, नगणः रगणः लघुः गुरुश्च स्यात् सा 'रथोद्धता' छन्दः । साहित्यरत्नमञ्जूषा-४१ . Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्योदाहरणं यथापूजया भवति राज्यमूजितं , पूजया भवति निर्मला मतिः । पूजया भवति निर्वृतिः कमात् ॥ मत्कृतिः - आदिनाथवदनाम्बुजाद् वरा निसृतामृतरसागमेदुरम् अद्वितीयवरमद्भुतं चिरं, स्तौम्यहं जगति जैनशासनम् ॥ १॥ रगण: नगण: रगणः । ल, | गु, रथोद्धता छन्दः आदिना थवद नाम्बुजाद् व | Is | ॥ | ऽ (१) 'दोधकवृत्तम्' कथ्यतेतल्लक्षणमाह दोधकवृत्तमिदं भभभाद्गौ। यत्र भगणत्रयाद् गुरुद्वयं चेद् दोधकं नाम । भ भ भादिति समाहारद्वन्द्व कवद्भावः । दोधकनामनि भत्रयतौ गौ पादान्ते यतिः । साहित्यरत्नमञ्जूषा-४२ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्योदाहरणं यथा मत्कृतिःलुब्धकस्वार्थपरायणमित्रं , कामकलाचपलं हि कुवीरम् । शाठ्यवरं मतिहीनकुमित्रं , मुञ्चति यो सुजनः सः सुशीलः ॥ | गु, | गु, भगणः भगणः भगणः दोधकवृत्तम् । लुब्धक | स्वार्थ प | रायण | मि | त्रम् ॥ | ॥ | | | (२) 'स्वागता' छन्दः कथ्यते तल्लक्षणमाह "स्वागतेति रनभाद् गुरुयुग्मम् ।" यस्यां रगणः नगणः भगणः गुरुद्वयं च स्यात् सा 'स्वागता' छन्दः । तस्योदाहरणं यथारत्नभङ्गविमलैर्गुणतुङ्ग रथिनामभिमतापरणशक्तैः । स्वागताभिमुखनम्रशिरस्कै /व्यते जगति साधुभिरेव ।। साहित्यरत्नमञ्जूषा-४३ । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रगणः नगणः भगणः स्वागता छन्द: रत्नभ ङ्गविम | लैगुण SIS III Sils १९ अथ द्वादशाक्षरवृत्तानि - (१) 'वंशस्थवृत्तं' कथ्यते- .. तल्लक्षणमाह सुशीलवंशस्थविलं जतौ जरौ । जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ । यत्र जगण-तगणौ जगण-रगणौ च भवेतां तद् 'वंशस्थवृत्तं' कथ्यते । 'ज-त-ज-रैवंशस्थम्' । पादे यति । तस्योदाहरणं यथा मत् कृतिः - जिनेश्वरस्याऽऽगमशासने स्थिता , जयन्ति सन्तः सततं समुन्नताः । विशालवंशस्थतया गुणोचिता , 'सुशील' छत्र प्रतिभा विभान्ति मे ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-४४ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तगणः जगणः रगणः जगणः वंशस्थवृत्तम् । जिनेश्व रस्याग मशास ने स्थिता isi 551 151 SIS नैषधीयकाव्येऽपि प्रोक्त यत्निपीय यस्य क्षितिरक्षिणः कथा स्तथाद्रियन्ते न बुधाः सुधामपि । नलः सितच्छत्रितकोत्तिमण्डलः __स राशिरासीन् महसां महोज्ज्वलः ॥ (२) 'इन्द्रवंशा' छन्दः कथ्यते तल्लक्षणमाह 'स्यादिन्द्रवंशा ततजै रसं युतैः। "त-त-जै रसं युतैः रगणसहितैरिन्द्रवंशा' पादे यति । तस्योदाहरणं यथाकरोति यो देव-गुरोऽवमानना , सुशीलचारित्र्य न यस्य जीवने । तस्येन्द्रवंशेऽपि गृहीतजन्मनः , सञ्जायते श्रीः प्रतिकूलवर्तिनी ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-४५ . Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रवंशा छन्दः तगणः यथा करोति SSI ३ इन्दुमा ४ पुष्टिदा ५ उपमेया ६ सौरमेयी ७ शीलातुरा ८ वासन्तिका ६ मन्दहासा तगण: १० शिशिरा ११ वैधात्री १२ शङ्खचूडा यो देव वंशस्थेन्द्रवंशासम्भूतानामुपजातिभेदाः । १३ रमरणा १४ कुमारी SSI जगरणः १ वैरालिकी (वं इ इ इ ) । २ रताख्यानकी ( इ वं इ इ ) । (वं वं इ इ ) । इइइ) । (वं इ वं इ) । इ वं वं इ) । ( वं वं वं इ) । ( इ इ इ वं ) । (वं इ इ वं ) । ( इ वं इ वं) । ( वं वं इ वं) । ( इ इ वं वं) । (वं इ वं वं ) । ( इ वं वं वं) । साहित्यरत्न मञ्जूषा - ४६ गुरोऽव ISI रगणः मानना 511 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. 'इन्दुमा' नाम्नः तृतीयभेदस्योदाहरणं कुमारसम्भवे पञ्चदशसर्गे प्रोक्तं यत् a sir tr चमूप्रभुं मन्मथमर्दनात्मजं , विजित्वरीभिविजयश्रियाऽऽश्रितम् । श्रुत्वा सुराणां पृतनाभिरागतं , चित्ते चिरं चुक्षुभिरे महासुराः ॥ huo 'lo ६. 'सौरमेयी' नाम्नः षष्ठभेदस्योदाहरणं यथासङ्गन वो तपस्विनः पशुः वराक एषोऽन्तमवाप्स्यति ध्र वम् । अतस्कर-तस्कर-सङ्गमे यथा , तद् वो निहन्मि प्रथमं तसोऽप्यमुम् ॥ to fuo . . ७. 'शीलातुरा' नाम्नः सप्तभेदस्योदाहरणं यथाततः क्रुधा विस्फुरिताऽधराधरा , सहारको दर्पित दोर्बलोदृतान् । युधे त्रिलोकी जयकेलिलालसः , सेनापतीन्सन्नहनार्थमादिशत् ॥ . . साहित्यरत्नमञ्जूषा-४७ । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Trrls ६. 'मन्दहासा' नाम्नः नवमभेदस्योदाहरणं यथास जामदग्न्यः क्षयकालरात्रिकृत् , स क्षत्रियाणां समराय वल्गति । येन त्रिलोकी सुभटेन तेन ते , कुतोऽवकाशः सह विग्रहग्रहे ॥ १०. 'शिशिरा' नाम्नः दशमभेदस्योदाहरणं यथासाऽवज्ञमुन्मील्य विलोचने सकृत् , क्षणं मृगेन्द्रेण सुषुप्सुना पुनः । सैन्यान्न यातः समयाऽपि विव्यथे , ___ कथं सुराजम्भव मन्यथाऽथवा ॥ her to huo to to ११. 'वैधात्री' नाम्नः एकादशभेदस्योदाहरणं यथाप्रयान्ति मन्त्रैः प्रशमं भुजङ्गमाः, न मन्मसाध्यास्तु भवन्ति धातवः । केचिच्च काञ्चिच्च दशान्ति पन्नगाः , ___ सदा च सर्वञ्च तुदन्ति धातवः ॥ to hos tus hr horo १२. 'शङ्खचूडा' नाम्नो द्वादशभेदस्योदाहरणं यथाश्रुत्वेति वाचं वियतो गरीयसी , क्रोधादहङ्कारपरो महासुरः । प्रकम्पिताशेष जगत्त्रयोऽपि सन न कम्पतोच्चैदिवमभ्यधाच्च सः ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-४८ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ q. q. ey 9. for १३. 'रमणा' नाम्नो त्रयोदशभेदस्योदाहरणं यथा बलीबलारातिबलाऽतिशासनं दिगदन्तिनादद्रवनाशनस्वनम् । महीधराम्भोधि न वारितक्रमं art रणं घोरमथाऽधिरुह्य सः ॥ १४. 'कुमारी' नाम्नश्चतुर्दशभेदस्योदाहरणं यथादासीकृताऽशेषजगत्त्रयं न मां, जिगाय युद्धे कतिशः शचीपतिः । गिरीशपुत्रस्य बलेन साम्प्रतं, ध्रुवं विजेतेति स का कुतोऽहसत् ॥ अन्यान्युदाहरणान्यपि स्थाने स्थाने काव्येषु दृश्यन्ते । 'प्रमिताक्षरा' वृत्तं कथ्यते तल्लक्षणमाह " प्रमिताक्षरा सजससैरुदिता " । सगणौ च सा प्रमिताक्षरा वृत्तमिति । तस्योदाहरणं यथा मम - परिशुद्धबोधवचनातिशयैः 1 साहित्य- ४ परिषिञ्चती श्रवणयोरमृतं , यत्र सगरण-जगणौ प्रमिताक्षराऽपि जिनभावयुता । 1 जिनभारती हरति मे हृदयम् ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा -४ε Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमिताक्षरा वृत्तम् सगणः परि शु 115 तस्योदाहरणं यथा मम - जगरण: द्ध बोध 151 द्रुतविलम्बितचारुविकालकं, भवभवान्तरजन्मविदारणं द्रुतविलम्बित नगण: वृत्तम् III (३) 'द्रुतविलम्बितं' वृत्तं कथ्यते— तल्लक्षणमाह द्रुतविलम्बितमाह नभौभरौ । न-भ-भ-रैद्रुतविलम्बितमाह । यत्र छन्दसि नगरण - भगरणौ भगण - रगणौ च तद् द्रुतविलम्बितं वृत्तं ज्ञेयम् । पादे यतिः । सगणः , वचना भगण: IIS जिनवराम्बुपदार्चनपूजनम् । SII जिनवरार्चनमङ्गलमङ्गलम् ॥ द्रुतवि लम्बित चारुवि सगरणः तिशयैः भगण: साहित्यरत्नमञ्जूषा - ५० 115 SII रगणः कालकम् SIS Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) 'तोटकं' वृत्तं कथ्यते तल्लक्षणमाह "इह तोटकमम्बुधिसः प्रथितम्"। अम्बुधिसैश्चतुभिः सगणैः । पादे यतिः । सगणचतुष्कं यत्र तत् तोटकम् । तस्योदाहरणं यथा मत् कृतिः - त्यज कांचनकामिनिसङ्ग सदा , भज पार्श्वप्रभुं नितमोक्षकरम् । जिननायक-शान्तिकरं सुभगं , भवभञ्जनशीलसुशीलवरम् ॥ सगरणः सगणः सगणः सगरणः तोटकवृत्तम् त्यज कां चन का मिनिसं ग सदा | ॥ | ॥ | ॥ | ॥ अन्योदाहरणमपि यथामणिना वलयं वलयेन मरिण मणिना वलयेन विभाति करः। पयसा कमलं कमलेन पयः , पयसा कमलेन विभाति सरः ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-५१ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) 'कुसुमविचित्रा' छन्दः कथ्यते— तल्लक्षणमाह "न-य सहितौ न्यौ कुसुमविचित्रा" । द्वयोरपि पादे यतिः । तस्योदाहरणं यथा विगलितपापा जिनपतिमुद्रा विगलिततापा कुसुमसनाथा । सचरणपूता मुदमयमोहा कथयति मुद्रा कुसुमविचित्रा ॥ कुसुम विचित्रा छन्द: नगरणः विगलि 111 यगरणः त पापा 1 ISS 1 नगरणः जिनप ||| यगणः साहित्यरत्नमञ्जूषा - ५२ ति मुद्रा ISS ( ६ ) ' जलोद्गतिः' छन्दः कथ्यते— तल्लक्षणमाह "रसे जस जसा जलोद्गतिः " । रसाश्च रसाश्चेत्येक शेषे षड्भिश्च यतिः । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्योदाहरणं यथा यदीय हलतो विलोक्य विपदं, कलिन्दतनया जलोदृतगतिः । " विलास विपिनं विवेश सहसा करोतु कुशलं हली स जगताम् ॥ जलोद्गति छन्दः जगरणः सगरणः यदीय हलतो ISI 115 तस्योदाहरणं यथा मम - " जगरण: विलोक्य Is सगरणः नमो वर्द्धमानाय तीर्थंकराय, सुदेवाधिदेवाय तथा योगिनाथाय विश्वेश्वराय, विपदं (७) 'भुजङ्गप्रयातं ' वृत्तं कथ्यते । तल्लक्षरणमाह “भुजङ्गप्रयातं भवेद्यैश्चतुभिः" । यगरणचतुष्कं यत्र तद् भुजङ्गप्रयातम् । IIS देवार्चनाय | जिनेन्द्राय सर्वज्ञ - मोक्षप्रदाय ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा - ५३ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुजङ्ग प्रयातं वृत्तम् यगरणः नमो व ISS यगरणः र्द्धमाना ISS यगणः य तीर्थं ISS यगरणः क राय त्रयोदशाक्षरवृत्तं प्रहर्षिणी नाम कथ्यते ISS तल्लक्षरणमाह "ज्याशाभिर्मनजरगाः प्रहर्षिणीयम् ।" यत्र मगरणनगरण- जगरण-रगणाः गुरुवर्णश्च त्रिभिर्दशभिश्च विरामः सा 'प्रहर्षिणी' वृत्तं ज्ञेयमिति । अन्यच्च " नौ नौ गस्त्रिदशयति प्रहर्षिरणीयम् ।" यस्या पादे त्रिभिर्दशभिश्च यतिः विद्यते । श्रन्यच्च 'प्रहर्षिणी नौ ज् रोग् त्रिक् दशकौ ।' तस्योदाहरणं यथा पण्डितश्रीजगन्नाथेन प्रोक्तं यत्स्वच्छन्दं दलदरविन्द ! ते मरन्दं, विदन्तो विदधतु गुञ्जितं मिलिन्दाः । श्रामोदनथ हरिदन्तराणि नेतुं, नैवान्यो जगति समीरणात् प्रवीरणः ॥ १ ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा - ५४ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगणः नगरणः जगणः रगरणः प्रहर्षिणी वृत्तम् स्वच्छन्दं दलद रविन्द ते मर SSS !!! | 18 | SIST S मत्तमयूरवृत्तं कथ्यते तल्लक्षणमाह "वेदैरन्ध्रम्तौ यसगा मत्तमयूरम् ।" यत्र मगण-तगणयगण-सगणाः गुरुवर्णश्च चतुभिः नौभिश्च विरामः स्यात्, तद् 'मत्तमयूरवृत्तं' भवति । तस्योदाहरणं यथापुष्टस्कन्धो प्रांसुलहस्तायतनेत्रः , कम्बूग्रीवः पीनशरीरस्तनु लेमा । व्यूढोरस्कः केसरीसिंहानतमध्यः , भुङ्क्ते राज्यं मत्तमयूराऽऽकृतिनेत्रः ॥ मगणः तगणः यगरणः सगणः मत्तमयूर वृत्तम् पुष्टस्क | न्धो प्रांसु | लहस्ता | यतने । त्रः ___sss | | | । | साहित्यरत्नमञ्जूषा-५५ . Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशाक्षरवृत्तं वसन्ततिलका नाम कथ्यते-- तल्लक्षणं यथा "ज्ञेया वसन्ततिलका तभजा जगौ गः।" यत्र तगणभगण-जगण-जगणाः, गुरुद्वयं च सा 'वसन्ततिलका' वृत्तं भवति । तस्योदाहरणं यथातुभ्यं नमस्त्रिभुवनात्तिहराय नाथ !, तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय । तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय , तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधि-शोषणाय । [इति श्रीमदाचार्यमानतुङ्गसूरीश्वरविरचिते श्रीभक्तामरस्तोत्रे श्लोके २६ तमे प्रोक्तम् ।] तगणः भगणः | जगणः जाणः 64 वसन्ततिलका तुभ्यं न | मस्त्रिभु | वनाति हराय | ना | थ वृत्तम् । उम्पन | मस्त्रिभु | वनात्ति हराय | | ॥ | ।। | ।। | | यथा मत्कृतिः. लावण्यसूरिपमणेर्बुधदक्षशिष्य तस्यान्तिषत्क मुनिराजसुशीलदृब्धम् । रम्यं किलाष्टकमिदं विबुधार्थजात मा पुष्पदन्तमनिशं पठतां शिवः स्यात् ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-५६ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चदशाक्षरवृत्तं 'मालिनी' नाम कथ्यते-- तल्लक्षणमाह "ननमयययुतेयं 'मालिनी' भोगिलोकः ।" यत्र नगणनगण-मगण-यगण-यगणाः अष्टभिः सप्तभिश्च विरामः स्यात् सा 'मालिनी' वृत्तं भवति । तस्योदाहरणं यथामनुज भुवि सुधेयं शब्दमाधुर्ययुक्ता , सकलकविजनानां हर्षदा नाममाला । गुरुपदकजयुग्मे यापिता भक्तिभावाज्जगति विजयते सा विस्तृता कोशरूपा ॥ [इति सुशीलनाममालायां प्रोक्तम् ।] षोडशाक्षरवृत्तं 'पञ्चचामरं' नाम कथ्यते । तल्लक्षणमाह "प्रमारिएका पदद्वयं वदन्ति पञ्चचामरम् ।" अथवा "लघुर्गुरुर्लधुर्गुरुरित्येवं षोडशाक्षरपर्यन्तं स्यात् तत् पञ्चचामरम्" इति । साहित्यरत्नमञ्जूषा-५७ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्योदाहरणं यथानमामि नेमितीर्थपं सदा सुशीलशालिनं , समस्तसूरिचकचक्रवत्तिताविराजिनम् । प्रदीप्रदीपमालिकाधिकप्रकाशशालिका , विधाय विश्वनालिकां दधानमात्मसम्भवम् ॥१॥ [इत्यस्मत्प्रगुरुदेवाचार्यप्रवरश्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वरविरचितश्रीदेवगुर्वष्टके प्रोक्तमिदम् ।] जगणः | रगणः | | ल, | गु, जगणः रगणः ल, | गु, पञ्चचा नमामि | नेमिती | र्थ | पं. सदा सु/ शीलशा| लि | नम् वृत्तम् isi sis ilsisi | Is तथैव मत्कृतिरपि यथाजिनेश्वरं नमाम्यहं जिनेश्वरं नमाम्यहं , जिनोत्तमं नमाम्यहं जिनोत्तमं नमाम्यहम् । जिनाधिपं नमाम्यहं जिनाधिपं नमाम्यहं, जिनप्रभुं नमाम्यहं जिनप्रभुं नमाम्यहम् ।। * अथ सप्तदशाक्षरवृत्तानि * तत्र (१) 'शिखरिणी' वृत्तं कथ्यते । सोहित्यरत्नमञ्जूषा-५८ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तल्लक्षणं यथा " रसैरु श्छिन्ना यमनसभलागः शिखरिणी ।" यत्र यगरण-मगरण-नगरण- सगरण - भगरणाः लघुवर्णः लघुवर्णः गुरुवर्णश्च षड्भिः एकादशभिश्च विरामः स्यात् सा शिखरिणी' वृत्तं भवति । रसैः षड्भीरुद्रैरेकादशभिच्छिन्ना यतिमती । तस्योदाहरणं यथा मम सदा क्रीडन्तं सच्चररणजलधौ नौ वरगुणैः सुशीलालङ्कारो - ल्लसिततनुवल्ली सुललितम् । सुविद्वद्वृन्दालि- स्तुतविबुधतं सद्गुरणयुतः, स्तुवे तं सूरीशं प्रगुरुवर लावण्यमुनिपम् ॥ १॥ [ इति प्रगुरुदेवाचार्यश्रीमद्विजयलावण्य सूरीश्वराष्टके प्रोक्तमिदम् । ] शिखरिणी वृत्तम् यगणः मगणः सदा क्रीडन्तं स ISS SSS नगरण: सगरणः जलधौ च्चरण "" 115 साहित्यरत्नमञ्जूषा - ५६ 1 भगरणः ल, गु, णैः, नौ वर SII 64 गु 1 S Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) 'पृथ्वी वृत्तं कथ्यते तल्लक्षणमाह "जसौ जसयला वसुग्रहयतिश्च पृथ्वी गुरुः।" यस्मिन् वृत्ते जगण-सगण-जगण-सगण-यगणाः लघुवर्णः गुरुवर्णश्च अष्टभिर्नवभिश्च विश्रामः, तत्र पृथ्वीनामवृत्तं भवति । तस्योदाहरणं यथावरं विभववन्ध्यता सुजनभावभाजां नृणा मसाधुचरितातिता न पुनरूजिता सम्पदः । कृशत्वमपि शोभते सहजमायतौ सुन्दरं , विपाकविरसा न तु श्वयथुसम्भवा स्थूलता ॥१॥ [इति श्रीसोमप्रभाचार्यविरचित-सूक्तिमुक्तावल्यां प्रोक्तमिदम् ।] जगणः सगणः जगणः सगणः यगणः ल, | पृथ्वी वृत्तम् वरं वि | भवव | ध्यतासु | जनभा वभाजां| नृ | णाम् isi 115 1 151 115 155 is साहित्यरत्नमञ्जूषा-६० Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) 'मन्दाक्रान्ता' वृत्तं कथ्यते-- तल्लक्षणमाह "मन्दाक्रान्ता-म्बुधिरसनग-र्मोभनौगौय युग्मम्"। यस्यां मगण-भगण-नगणाः गुरुद्वयं ततश्च यगणद्वयं चतुर्भिः षड्भिः सप्तभिश्च विश्रान्तिः स्यात् सा मन्दाक्रान्ता वृत्तं भवति । तस्योदाहरणं यथा भो भो भव्या ! शृणुत वचनं प्रस्तुतं सर्वमेतद् , ये यात्रायां त्रिभुवन-गुरो-राहता भक्तिभाजः । तेषां शान्तिर्भवतुभवता - महदादि - प्रभावा-, दारोग्यश्री-धृतिमति-करी क्लेश-विध्वंसहेतुः ॥ १॥ [इति श्रीबृहच्छान्तिनाम नवमस्मरणे प्रोक्तमिदम् ।] मगणः | भगणः नगणः यगणः | यगणः मन्दा भो भो भ | व्या शः| त वच नं स्तुतं स 4 मेतद् क्रान्ता वृत्तम् SSS | | | ॥ | 5 | | 5 | । | । साहित्यरत्नमञ्जषा-६१ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्कृतिरपि यथा - प्रोन्नमय्यात्मदेहम् । रोमव्याप्तं पुलकिततमं आङ्गीशोभा रचयति तरां भावमागन्तुकाग्रे ॥ दर्श दर्श चकितनयनै रातिथेयं शरीरम् । स्नेहं सर्वं वितरति च ते नौमिपादौ सदा हि ॥ [ सुशीलसूरे : रचनामुक्तिकायामिति । ] - (४) 'हरिणी' वृत्तं कथ्यते- तल्लक्षणमाह "रसयुगये सोनौलौगो यदा हरिणी तदा ।" यस्मिन् वृत्ते नगरण - सगरण - मगरण - रगरण - सगरणाः लघुगुरू च षड्भिः चतुभिः सप्तभिश्च विरामः स्यात् तत्र हरिणीवृत्तं ज्ञेयमिति । तस्योदाहरणं यथा हरति कुर्मांत भिन्ते मोहं करोति विवेकितां । वितरति ति सूते नीति तनोति गुरगावलिम् ॥ प्रथयति यशो धत्ते धर्मं व्यपोहति दुर्गति । जनयति नृणां किं नाभीष्टं गुणोत्तमसङ्गमः ॥ [ इति प्रोक्तमिदम् । ] श्रीसोमप्रभाचार्यविरचित - सिन्दूर प्रकरणे साहित्यरत्नमञ्जूषा - ६२ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगरणः सगण: | मगरणः | रगणः | सगरणः | ल, | हरिणी वृत्तम् हरति । कुमति | भिन्ते मो| हं करो | ति विवे | कि | ताम्, ॥ | sss | sis | | । | - मत्कृतिरपि यथा नयति सुमति भिन्ते पापं तनोति विनीततां । वितरति रति सूते कीत्ति करोति विवेकिताम् ।। कुरुत सुकृतं धत्ते धर्म व्यपोहति दुर्नयं । जनयति नृणां शीलस्य श्रीजिनोत्तमसङ्गमः ॥ (१) अष्टादशाक्षरवृत्तं 'चित्रलेखा' कथ्यते-- तल्लक्षणं यथा"मन्दाक्रान्ता नयुगलजठरा कात्तिता चित्रलेखा ।" "वर्णाश्वमनननततमः कीतिता चित्रलेखा।" मन्दाक्रान्तासमानमिदं वृत्तं चित्रलेखा, किन्तु अयमेव विशेषः अस्मिन् वृत्ते, मध्ये नगणद्वयम् अर्थात् मन्दाक्रान्तायां मध्ये पञ्चलघवो वर्णा भवन्ति, अस्यां तु षट् इति । साहित्यरत्नमञ्जूषा-६३ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्योदाहरणं यथा चित्र लेखा वृत्तम् शङ्केऽमुष्मिञ्जगति मृगदृशां साररूपं यदासीदाकृष्येदं व्रजयुवतिसभा वेधसा सा व्यधायि ॥ नैतादृक् चेत् कथमुदधिसुता - मन्तरेणाच्युतस्य । प्रीतं तस्यां नयनयुगलं चित्रलेखाद्भुतायाम् ॥ मगरणः गु, नगणः नगरणः शङ्क ेऽमु ष्मि जगति SSS कथ्यते— S तल्लक्षणमाह III ( १ ) एकोनविंशत्यक्ष रं मृगदृ 111 गु, गु, यगरणः यगणः शां ररूपं यदासी S सा S ISS ISS 'शार्दूलविक्रीडितं' वृत्तं "सूर्याश्वमंसजस्तताः सगुरवः शार्दूलविक्रीडितम् ।" यस्मिन् छन्दसि मगरण- सगरण- जगरण- सगरण- तगरण- तगरणाः गुरुवर्णश्व द्वादशभिः सप्तभिश्व विरामः स्यात् तत्र 'शार्दूलविक्रीडितं' वृत्तम् । साहित्यरत्नमञ्जूषा - ६४ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्योदाहरणं यथा वीरः सर्वसुरासुरेन्द्रमहितो वीरं बुधाः संश्रिताः । वीरेणाभिहतः स्वकर्मनिचयो वीराय नित्यं नमः ॥ वीरात् तीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं वीरस्य घोरं तपो । वीरे श्रीधृतिकत्तिकान्तिनिचयः श्रीवीर भद्रं दिशः ॥ [ इति श्रीसकलार्हत्स्तोत्रे कथितमिदम् । ] मगणः सगणः जगणः सगणः तगणः तगणः गु, सुरेन्द्र महितो वीरं बुधाः संश्रिताः शार्दूल विक्रीडित वीरः स र्वसुरा वृत्तम् SSS IIS ISI IIS मत्कृतिरपि यथा यत् साक्षात्कृतिगोचरत्वनियतं यत् साक्षात्कृतिगोचरत्ववियुतं तं वोरं SSI SSI वस्तुत्वमन्यादृशं । नेकान्तमेकान्तगम् || भुक्त्येनालिङ्गितं । भवहेतुलेशवियुतं वन्दे पूज्यतमं विपक्षविफलं मान्यागमं सर्वदा ॥ S [ इति मया सुशीलसूरिणा विरचिते 'श्रीषड्दर्शनदर्पणम्' नामग्रन्थे प्रोक्तमिदम् । ] साहित्य - ५ साहित्यरत्नमञ्जूषा - ६५ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) एकविंशत्यक्षरवृत्तं 'स्रग्धरा' नाम कथ्यते--- तल्लक्षणमाह "म्रभ्नर्यानां त्रयेण त्रिमुनियतियुता स्रग्धरा कोत्तितेयम् ।” अस्यां छन्दसि एकविंशति-अक्षराः भवन्ति । अत्र मगरण - रगण - भगण - नगण - यगण-यगण-यगणाः सप्तभिः सप्तभिः सप्तभिः वर्णैः विरामः स्यात् सा 'स्रग्धरा' भवति । तस्योदाहरणं यथा"संतोषस्थूलमूलः प्रशमपरिकरः स्कन्धबन्धप्रपञ्च । पञ्चाक्षीरोधशाखः स्फुरदभयदलः शीलसम्पत्प्रवालः ॥ श्रद्धाम्भः पूरसेकाद् विपुलकुलबलेश्वर्यसौन्दर्यभोगः । स्वर्गादिप्राप्तिपुष्पः शिवपदफलदः स्यात् तपः पादपोऽयम् ॥ [इति श्रीसिन्दूरप्रकरणे श्लोक-८४ प्रोक्तमिदम् ।] मगणः रगणः | भगणः नगणः | यगणः | यगणः | यगणः स्रग्धरा वृत्तम् |संतोष | स्थूल मू| लः प्रश मपरिकरः स्क| न्धबन्ध | प्रपञ्च SS5 ____ss | ॥ ॥ Is | ।| Is साहित्यरत्नमञ्जूषा-६६ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्कृतिरपि यथानानाविद्याधिदेवाचलविमलधिया मुक्तिसौभाग्यभाजां । श्रीमल्लावण्यसूरीश्वरप्रगुरुसतां दक्षनाम्नो गुरोश्च ॥ श्रासाद्यानुग्रहं चाष्टकमिदममलं श्रीसुशीलेन दृब्धं । नित्यं भव्यात्मनां वं श्रुतिपठनकृतां मोददानाय भूयात् ॥ [ इति श्रीधातु रत्नाकरग्रन्थस्य पञ्चमविभागादुद्धृतमिदम् । ] * अथ विषमच्छन्दांसि (१) 'पुष्पिताग्रा' वृत्तं कथ्यते । तल्लक्षणमाह "अयुजि नयुगरेफतो यकारो, युजि तु नजौ जरगाश्च पुष्पिताग्रा ।" विषमे नयुगरेफतो यकाराः युजि समे नज-न-र- गुरवस्तद् 'पुष्पिताग्रा' नाम । इयमप्यौपच्छन्दसि कान्तभूतैव विशेषसंज्ञार्थमिहोक्ता । अत्र च विषमे प्रथमे तृतीये पादे नगरणद्वयं रगण यगरणौ च युजि तु अर्थात् द्वितीये चतुर्थे पादे तु नगरण - जगरण - जगरण - रगणाः गुरुवर्णश्च स्यात्, सा 'पुष्पिताग्रा' भवति । तस्योदाहरणं यथा कमलिनि ! मलिनी करोषि चेतः । किमिति बकैरवहेलितानभिज्ञैः ॥ परिरणतमकरन्दमार्मिकास्ते । जगति जयन्ति चिरायुषो मिलिन्दाः ॥ [ इति श्रीपण्डितजगन्नाथविरचित - भामिनीविलासग्रन्थे प्रोक्तमिदम् । ] साहित्यरत्नमञ्जूषा - ६७ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथम-तृतीयपादयोः म द्वितीय-चतुर्थपादयोः ॥ नगरणः नगराः रगरणः यगणः नगणः | जगरणः | जगणः | रगणः | गु, AALAENara कमलि | नि ! मलि| नीकरो | षि चेतः किमिति | बकर | वहेलि | तानभि | जैः । SIS ISS ।। | ।। | | सगणः सगरणः जगरगः सगणः । भगणः | रगण: ल |गु, सुन्दरी वृत्तम् विहितां | प्रियया मनः प्रि या, मथ नि | श्चित्य गि| रं गरी य सीम् IIS 15 151 115 SIS Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) 'सुन्दरी' वृत्तं कथ्यते. तल्लक्षणमाह "प्रयुजोर्यदि सौ जगौ युजोः, सभराहलगौ यदि सुन्दरी तदा ॥" यस्मिन् छन्दसि अयुग्मे प्रथम-तृतीयपादयोः सगण-सगण-जगणाः गुरुवर्णश्च युग्मे द्वितीय-चतुर्थपादयोः सगण-भगण-रगणाः लघुवर्णः गुरुवर्णश्च स्यात्, सा 'सुन्दरी' भवति । तथैव वियोगिनी, वैतालियादिः, अस्या एव नामान्तरं ज्ञेयमिति । तस्योदाहरणं यथाविहितां प्रियया मनः प्रिया मथ निश्चित्य गिरं गरीयसीम् । उपपत्तिमर्जिताशयं , __ नृपमूचे वचनं वृकोदरः ॥ [इति श्रीभारविक्रविना प्रोक्त किरातार्जुनीये।] (३) 'उद्गता' वृत्तं कथ्यते-- तल्लक्षणमाह प्रथमे सजौ यदि सलौ च । न सजगुरुकाण्यनन्तरम् ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-६९ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्यथ भनजलगाः स्युरथो । सजसा जगौ च भवतीयमुद्गता ॥ अस्मिन् वृत्ते प्रथमपादे सगण-जगण-सगणाः लघुवर्णश्च, तदनन्तरं द्वितीयपादे नगण-सगण-जगणाः गुरुवर्णश्च, तदनुतृतीयपादे भगण-नगण-जगणाः लघुवर्णः गुरुवर्णश्च, तदनन्तरं चतुर्थपादे सगण-जगण-सगरण-जगणाः गुरुवर्णश्च स्यात्, सा उद्गतानाम छन्दो भवति । तस्योदाहरणं यथाअथ वासवस्य वचनेन , रुचिरवदनस्त्रिलोचनम् । क्लान्तिरहितमभिराधयितुं , विधिवत् तपांसि विदधे धनञ्जयः ॥ [इति श्रीकिरातार्जुनीयकाव्ये कथितमिदम् ।] १ अथ द्वाविंशत्यक्षरवृत्तं 'भद्रक' कथ्यते तल्लक्षणमाह "भ्रौ नरनारनावथगुरुदिगविरतं हि भद्रकमिदम् ।" यस्मिन् वृत्ते भगण-रगणौ नगण रगण नगणा रगण साहित्य रत्नमञ्जूषा-७० Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपादस्य 9 द्वितीयपादस्य सगणः जगणः | सगणः ल, नगण: सगणः जगणः । गु, अथ वा सवस्य वचने न, रुचिर वदन स्त्रिलोच | नम् 44.44 ITS 151 ॥ 115 | । | ॥ | ॥ | । तृतीयपादस्य ॥ चतुर्थपादस्य भगरण: नगणः जगरणः ल, | गु, | सगणः | जगणः | सगणः | जगणः | गु, क्लान्तिर | ध | यि | तु, | विधिवत् तपांसि | विदधे | धनञ्ज यः । ॥ | | । ।। | | | | साहित्यरत्नमञ्जूषा-७१ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगणौ गुरुश्चैकः स्युः तथा दशभिः द्वादशभिश्चाक्षरैः विरामो भवेत् तत्र 'भद्रक' नाम वृत्तं भवति । तस्योदाहरणं यथाभद्रकगीतिभिः सकृदपि स्तुवन्ति भव ये भवन्तमनघं , भक्तिपरावनम्रशिरसः प्रणम्य तव पादयोः सुकृतिनः । ते परमेश्वरस्य पदवीमवाप्य सुखमाप्नुवन्ति विपुलम् , मर्त्य भुवं स्पृशन्ति न पुनर्मनोहरमुराङ्गनावृत्ताः ॥१॥ अथवा मत्कृतिः श्रीजिनशासने जयति शाश्वतः प्रखरभानुसद्गुणनिधिः , आगमशास्त्रसारसरिताप्रवाहपूतमानसो विजयताम् । शान्त-पवित्र-चरित्रयुक्तः सदा सकलशिष्यवन्दितपादौ , सद्ज्ञानसागरोऽयं गुरुवर्यश्रीविजयनेमिसूरि जयताम् ॥१॥ - भगणः रगणः | गणः| रगणः |गणः| रगणः | नगरगः کي भद्रक | sis | | SIS वृत्तम् SIS श्रीजिन शासने जयति | शाश्वतः | प्रखर| भानुसद् | गुणनि | धिः साहित्यरत्नमञ्जूषा-७२ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ त्रयो विशत्यक्षरवृत्तं 'प्रश्वललितं' कथ्यते-- तल्लक्षणमाह "विकृतौ न्जौ म्जौ भ्जौ म्जभलगास्तदश्वललितहरार्कयति तत् ।" यत्र प्रतिपादं क्रमशो नगण-जगणभगण-जगण-भगण-जगण-भगणानां वर्णास्ततो लघुरेको गुरुश्चैकस्तस्याश्वललितं नाम प्रख्यातं भवति । दशभिरक्षरैर्यतिश्च कर्त्तव्या। अर्थात्-यदिह शास्त्रे नगण-जगणौ भगण-जगण-भगण-जगण-भगण-लघुगुरवश्च स्युस्तत् अश्वललितं नाम छन्दः। किंभूतं तत् हरार्कयति हरैरेकादशभिरकै द्वादशभिर्यतिविरामो यत्र तत् । तस्योदाहरणं यथातिरय महान्धकूपमसमान्धकार - भरदुर्विलोकमतुलं , निपतित - गाढमोहपटलान्धजन्तुविविधप्रलापतुमुलम् । प्रवचनचक्षुषे क्षत इमं चिराय तनुभृत् तथापि वलवचपलतरेन्द्रियाश्वललितविकृष्ट इह तत् क्षणान् निवजति ॥ [अस्मिन् वृत्ते दशमो भगणोऽस्माभिय॑स्तः। अत्र सप्तमभगणस्थानेऽपि यतिर्भवति । तत् स्थाने केचिज्जगणमिच्छन्तीति ज्ञेयम् ।] साहित्यरत्नमञ्जूषा-७३ .. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगणः भगणः | जगणः भगणः | जगण: भगणः | ल, 64 अश्व ललितं तिरय | | महान्ध कूपम | समान्ध | कारभ रदुर्विलोकम| तु । छन्दः 111 isi SIL isi Sulisi sii s ३ 'मत्ताक्रीडम्' वृत्तं कथ्यते-- तस्य लक्षणमाह "मत्ताकोडं वस्विष्वाशायतिमयुगगयुगमनुलघुगुरुभिः।" भगणद्वयेन गुरुद्वयेन मनुलघुभिः चतुर्दशभिः लघुवर्णैः एकेन गुरुणा च यस्य चरणो निबन्धो भवेत् तत् मत्ताक्रीडं नाम वृत्तं भवति। अत्र वसुभिः अष्टाभिः इषुभिः पञ्चभिः आशाभिः दशभिरिति बोध्यम्। अन्यच्च पञ्चभिरक्षरैः पञ्चदशभिरक्षरैः यतिर्भवतीति विज्ञेयम् । तस्योदाहरणं यथामुग्धोन्मीलन्मत्ताकोडं मधुसमयसुलभमधुरमधुरसाद् , गाने याने किञ्चित्स्पन्दत् पदमरुणनयनयुगलसरसिजम् । रासोल्लास - क्रीडत्कम्रवजयुवतिवलयविहित - भुजरसं , सान्द्रानन्दं वृन्दारण्ये स्मरत हरिमनघचरणपरिचयम् ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-७४ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगरणः भगणः गु. गु, मत्त क्रीडा मुग्धोन्मीलन्मत्ता क्रीड छन्द: SSS Sss SS तन्वी ।" अथवा लं. ल. लं. लॅ. ल. ल. ल. ल. ल. ल. ल. ल. ल. ल. गु. मधुसमयसुलभ मधुरमधुर साद् 'तन्वी' वृत्तं कथ्यते -- चतुर्विंशत्यक्षरं वृत्तमिदम्- तल्लक्षणमाह S "भूतमुनिनैर्यतिरिहभतनाभौ भनवाश्च यदि भवति "संकृतौ भ्तौ न्सौ भौ न्यौ तन्वी ठैः ।" यदि छन्दसि भगरण-तगणनगरणाश्च सगरण - भगणौ च भगरण-तगरण-यगगाश्च स्युः तत्र 'तन्वी' नाम छन्दो भवति । अस्मिन् वृत्ते भूतैः पञ्चभिः मुनिभिः सप्तभिः इनैः सूर्यैः द्वादशैश्च यतिर्ज्ञातव्येति । तस्योदाहरणं यथा छन्दोमञ्जर्यां माधवमुग्धैर्मधुकरविदितैः कोकिलकूजितमलय समीरैः, कम्पमुपेताः मलयजसलिलैः प्लवनतोऽप्य विगततनुदाहा । पद्मपलाशैः विरचितशयना देहज सज्वरभर परिदूनेनिश्वसती सा मुहुरतिपरुषं ध्यानलये तव निवसति तन्वी ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा - ७५ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तन्वी नाम छन्दः भगणः तगणः नगणः सगणः भगणः भगणः नगरणः माधव मुग्धैर्मधुकर विदितैः कोकिल कूजित मलय SII ડા " 115 511 511 111 यगणः समीरैः ISS 'पञ्चविंशत्यक्षरायाभिकृतिजाति' वर्ण्यते- क्रौञ्चपदा वृत्तं लक्षणमाह " अभिकृतौ भ्म स्भ नी गाः क्रौञ्चपदा ङ ङ जैः । " अथवा " क्रौञ्चपदा भ्मौ स्भौ नननान्गा विषु शरवसु --- मुनिविरतिरिह भवेत् ।" - अथवा "क्रौञ्चपदा स्याद् भो भसभाश्चेदिषु शरवसुमुनियतिरिनलघुगैः ।" यस्मिन् छन्दसि यदि भगरणो भगणसगण-भगरणाश्च स्युः इनैः सूर्यैः द्वादशभिः लघुभिः तत् एकेन गुरुणा च योगः स्यात्, तर्हि तच्छन्दसः क्रौञ्चपदानां स्यात् । यस्मिन् वृत्ते इषुभिः पञ्चभिः शरैः पञ्चभिरष्टभिः मुनिभिः सप्तभिश्च यतिर्भवति । तस्योदाहरणं यथा प्रोजम्म्यपुरारित्वद्भययोगान् नृपवर भवदरिरतिशयविधुरो, दूरमरण्यं प्राप्य कलत्रैः सह समजनि गतिरयवशतृषितः । सारसनादात् सस्वयमादौ प्रसरति कियदपि भुवनमथ सहसा, प्रेक्ष्य चकार क्रौञ्चपदाङ्कां ध्रुवमिहमरिदितिनिगदतिदयिता ।। साहित्यरत्नमञ्जूषा - ७६ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवाक्रौञ्चपदाली चित्रिततीरा मदकलरवगकुलखगकुलकलकल रुचिरा, फुल्लसरोजश्रेरिणविलासा मधुमुदितमधुपखरभसकरी । फेनविलास प्रोज्ज्वलहासा ललितलहरीभरपुलकित सुतनुः , पश्य हरेऽसौ कस्य न चेतो हरति तरलगतिरहिमकिरणजा ॥ भगणः | मगणः गणः भगण गण नगणः नगणः नगणः गु, क्रौञ्च प्रोज्म्म्य पु रारित्वद् भययो गान्नृप वरभ वदरि रतिश यविधु | रो | ॥ | sss ||s | s॥ |॥ ॥ ॥ |॥ | s पदा छन्दः अथ षड्विंशत्यक्षरामुत्कृतिजातिवर्णनम्-- षड्विंशत्यक्षरं 'भुजङ्गविजृम्भित' वृत्तं कथ्यते तल्लक्षणमाह"उत्कृतौ मौ तो निरसल्गा भुजङ्गविजृम्भितं जट्टः।" अथवा "वस्वीशाश्वच्छेदोपेतं ममतनयुगेनरसलगैर्भुजङ्गविज़म्भितम् ।" यस्मिन् छन्दसि मगण मगण तगण नगण नगण रगण सगणाश्च लघु गुरु स्यात् तर्हि तच्छन्दः साहित्यरत्नमञ्जूषा-७७ । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भुजङ्गविजृम्भितनाम स्यात् । अस्मिन् छन्दसि वसुभिरष्टभिः एकादशभिः अश्वैः सप्तभिः छेदेन यत्याः विधानं भवति । तस्योदाहरणं यथाक्वापि स्वरं क्रूर-क्रीडन् , महिषशतमचकितरतं कुरङ्गकुलं क्वचित् , क्वापि क्रीडा-व्यग्र-कोडं, क्वचिदपि मदजडविहरन् मतङ्गजसंकुलम् । सिंह-क्ष्वेडा-रौद्रं क्वापि , क्वचिदपि विषविषममहाभुजङ्गविजृम्भितं , श्री - चौलुकय - क्षोणीनाथ , स्फुटमजनि भवदरि महीभुजामधुना पुरम् ।। अथवाहे लोदञ्चन्यञ्चत्पादप्रकटविकट नटनभरो रगत्करतालकश्चारुप्रेङ्खच्चूडाबहः श्रुतितटलनव किसलयस्तरङ्गितहारघृक् । त्रस्यन्नागस्त्रीभिर्भक्तया मुकुलितकट कमलयुगं कृतस्तुतिरच्युतः , पायन्नाश्छिन्दन् कालिन्दी हृदकृत निजवसति बृहद् भुजङ्गविजृम्भितम् ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-७८ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - 3] मगण: मगणः| तगणः गणः गणः रगणः सगणः| ल, | गू, विजः भि क्वापि स्वरकर | क्रीडन्म हिषशः फितर तंकुरं गकुलं | व | चित् छन्दः | sss | sss | ॥ | | | | sis | | | ।। 5 * सप्तविंशत्यक्षरमारभ्य नानाविधानि दण्डकवृत्तानि सन्ति * अथ चण्डवृष्टयादिकदण्डकानाह-- (१) तल्लक्षणमाह "यदिह नयुगलं ततः सप्तरेफास्तदा चण्डवृष्टिप्रपातो भवेद् दण्डकः।" यदा इह दण्डकजातौ न युगलं नगणद्वयं ततः सप्तरेफाः सप्तरगणाः स्युः तदा चण्डवृत्ति प्रपातो नाम दण्डको भवति । तस्योदाहरणं यथा मम्त्रिभुवनजनमानसाम्भोज - लीलाविधौ हंसकल्प्यं समूलव्यपास्ताखिलद् । चरणकरणधारिणं छिन्नदुर्मोहजालं कषायोज्भितं वादिचूडामरिणम् ॥ तिमिरमदघटामहामोहमेघावली चण्डवृष्टि प्रपाता कुलेन्द्रं सूर्यम् । परममहिममन्दिरं शुद्धचारित्रयुक्तं कलानां गृहं वन्दे नेमिसूरिम् ॥ १॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-७९ । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) " प्रतिचररणविवृद्धरेफाः जीमूत-लीलाकरोद्दाम शङ्खादयः ।" स्युरर्णाऽर्णवव्याल जपक्षय गतकामतापा जिनेशादि - शान्ति जिननेमि पार्श्व - श्रीवीरजिना सौख्यदा । त्रिदशगणगुरो ! जिनेशो कर्मध्वंसचित्तो ! महाज्ञानपूर्णेश्वर ! पातु मां सर्वदा ॥ निखिलजनसुपूज्यप्रभो ! सच्छ्रे यस्तरुवर्द्ध नसुधाधरोऽम्बर ! रक्ष मां सर्वदा । चरमजिन ! श्रीवीर प्रभो ? भवाम्भोधिधो रार्णवे वं निम्मज्जन्तमभ्युद्धरोपेत्य नाम् ॥ १ ॥ । ततः चरणे चरणे इति प्रतिचरणं प्रतिपादमित्यर्थः । विवृद्धो रेफो रगणो यत्र ते दण्डकाः अर्णोऽर्णवादयः स्युः । सर्वेषु दण्डकेषु प्रादौ नगरणद्वयमावश्यकं भवति । परं सप्तसु रेफेषु चण्डवृष्टिप्रयातो नाम दण्डकः । एकरेफ विवृद्धौ अर्थात् नगरणद्वयानन्तरमष्टसु रेफेसु प्रर्णोनाम दण्डकोऽयम् । एवं नगणद्वयानन्तरं नवसु रेफेषु अर्णवः, दशसु व्यालः, एकादशसु जीमूतः, द्वादशसु लीलाकरः, त्रयोदशसु उद्दामः, चतुर्दशसु शङ्खः दण्डको भवति ; आदिपदेन आरामसङ्ग्रमादयो दण्डका ज्ञेयाः । साहित्यरत्नमञ्जूषा - ८० Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसमूहस्य स्तुति: समवसरणमत्र 1 यस्याः स्फुरत्केतुचक्रानकानेकपद्मन्दुरुक्चामरोत्सर्पिसालत्रयी सदवनमदशोक पृथ्वीक्षरणप्रायशो भातपत्र प्रभागर्वराराट् परेहितारोचितम् ॥ प्रवितरतु समीहितं साऽर्हतां संहतिर्भक्तिभाजां भवाम्भोधिसम्भ्रान्तभव्यालीसेविता । - ऽसदवनमदशोक पृथ्वीक्षणप्रायशोभातपत्र प्रभागर्वराराट् परेहितारोचितम् ॥ ६४ ॥ [ स्तुतिचतुर्विंशतिकायां प्रोक्तमिति ] प्रचितकदण्डकस्य लक्षरणमाह "प्रचितकसमभिधो धीरधीभिः स्मृतो दण्डकोनद्वयादुत्तरैः सप्तभिर्यैः । " नगरणद्वयात् परिवर्तिभिः सप्तभिः यगणैः रचितः धीरधीभिः छन्दोविद्भिः प्रचितकसमभिधः तन्नामा दण्डकः स्मृतः कथितः ः । तस्योदाहरणं यथागतमद ! साहित्य - ६ रविकुलाम्भोधिचन्द्र ! प्रभो ! त्रिशला पुत्ररत्न ! त्रिलोकैकनाथ ! । प्रचितकपटमघादिमदोद्दामदन्ताबलस्तोमविद्रावणे चरणप्रखरसुधांशुच्छटोन्मेषनिः शोषितध्यापि चेतो सकलजनपरितापोग्रदावानलोच्छेद मेघ ! केसरीन्द्र ! | साहित्यरत्नमञ्जूषा - ८१ विनष्टान्धकार | प्रसीद वीरो जिनदेवः ॥ १ ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगणः | नगणः | यगरणः यगणः । यगणः | यगणः | यगणः | यगण: | यगणः - प्रचितक 155 155 । | Is | Is 1155155 दण्डकः प्रचित | कसम | भिधोधी | रधीभिः | स्मृतोद | ण्डकोन | द्वयादु | तरः स |प्तभिर्यः सगरणः | सगण: | सगणः | सगणः | सगणः / सगणः | सगणः | सगणः | सगरणः कुसुम विमलै | श्चरित | भरित | रखिल | विभवः । प्रभुता | न्वितया | सुविभा | तितराम स्तबकं वृत्तम् 115 115 115 115 115 115 साहित्यरत्नमञ्जूषा-८२ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसुमस्तबकदण्डकस्य लक्षणमाह "सगरणः सकलः खलु यत्र भवेत् तमिह प्रवदन्ति बुधाः कुसुमस्तबकम् ।” यत्र यस्मिन् वृत्तौ छन्दसि वा सकलः समस्तसगणः एव भवेत् अर्थात् प्रतिपादे नव सगणा भवेयुः यस्य च सप्तविंशति-अक्षरधरितपादस्य दण्डकस्य सर्वेऽपि पादाः सगणेनैव रचितः स्यात् तं कुसुमस्तबकं नाम दण्डकं प्रवदन्ति । तस्योदाहरणं यथाविमलेश्चरितैर्भरितेरखिलविभवः प्रभुतान्वितया सततं , सफलैः सजलैः सुगुणैः सकला वसुधा निजदेशगता सुविभातितराम् । सुमतिः कुमति परिशोधनके निरता विरता न कदापि भवेदमिता, मनसा वचसा क्रियया सुलभा सुगतिः कुति जयतात् सहजैरमला ॥१॥ मत्तमातङ्गलीलाकरदण्डकस्य लक्षणमाह “यत्र रेफः परं स्वेच्छया गुम्फितः स स्मृतो दण्डको मत्तमातङ्गलीलाकरः।" यत्र दण्डके प्रतिचरणं स्वेच्छया परं केवलं रेफः रगणः गुम्फितः निबद्धः स्यात् स मत्तमातङ्गलीलाकरो नाम दण्डकः भवेत् । साहित्यरत्नमञ्जूषा-८३ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्योदाहरणं यथाहेमरि वशानोंऽशुकं शक्रनीलासिते वर्मणि स्पष्ट दिव्यानुलेपाङ्किते । तार हारांशुवक्षो नभश्चित्रमालाञ्चितो भव्यभूषोज्ज्वलाङ्गः समंसीरिणा ॥ अञ्जनाभाम्बरेणेन्दुकुन्दाभदेहेन लीला परिहास हासोमिकौतूहलैः । कंसरङ्गाद्रिगः पातु नश्चक्रपाणिर्गति । क्रीडया मत्तमातङ्गलीलाकरः ॥१॥ अनङ्गशेखरदण्डकस्य लक्षणमाह___"यत्र दृश्यते गुरो परो लघुः क्रमात् स उच्यते बुधैरनङ्गशेखरदण्डकः ।" यस्मिन् दण्डके क्रमाद् गुरोः परो लघुवर्णो दृश्यते सः बुधैः छन्दोविद्भिः अनङ्गशेखरनाम दण्डकः कथ्यते । तस्योदाहरणं यथामूनि चारुचम्पकस्रजा सलीलवेष्टनं लसल्लवङ्गचारुचन्द्रिकाकचेषु । कर्णयोरशोकपुष्पमञ्जरीवतंसको गले च कान्तकेसरोपकलप्तदाम ॥ फुल्लनागकेसरादिपुष्परेणुरूषणं तनौ विचित्रं इत्युपात्त वेश एष । केशवः पुनातु नः सुपुष्पभूषितः सुमूत्ति मानिवागतो मधुविहर्तुमत्र ॥१॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-८४ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रगणः रगणः | रगणः रगरणः रगणः | रगरणः | रगणः | रगणः | रगणः मत्तमातङ्गलीलाकर SIS SIS SIS SIS SIS SIS SIS SIS SIS दण्डक: यत्ररे | फः परं | स्वेच्छया | गुम्फितः | सस्मृतो | दण्डको | मत्तमा | तङ्गली | लाकरः अनङ्गशेखर गुरु-| गुरु- गुरु- | गुरु- | गुरु- | गुरु- | गुरु- | गुरु- | गुरु- | गुरु- | गुरु- गुरु- | गुरु-| गुरु| लघु | लघु | लघु | लघु | लघु | लघु | लघु | लघु | लघु | लघु | लघु | लघु | लघु | लघु दण्डक: । । | | | | | | | | | | ।। | । साहित्यरत्नमञ्जूषा-८५ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहविक्रान्तदण्डकस्य लक्षणमाह___"यकारैः कवीच्छानुरोधान्निबन्धैः प्रसिद्धो विशुद्धोऽपरोदण्डकः सिंहविक्रान्तनामा ।" कवेः इच्छानुसारं स्थापितैः गणैः सिंहविक्रान्तनामकोऽन्योविख्यातः शुद्धो दण्डको भवति । तस्योदाहरणं यथायदीयं यशः सुप्रसिद्ध विशुद्धं सदागाररूपं सुधर्मादि सेव्यं मुनीनां समाजे । सदा वीतरागं विशालं प्रकामं गरिणगौतमादि प्रदिष्टं निकामं निरीहम् ॥ बुधैः शंसितं संश्रितं साधुभिश्च प्रभक्तः सुरक्तः सुशीलैः सुबुद्धैः सदा पूजितं वै । गुणातीतरूपं सदानन्दशीलं सुधीरं सुवीरं सुतीर्था धिनाथं जिनेन्द्रं नमामि ॥१॥ अशोकमञ्जरी नाम्नो दण्डकस्य लक्षणमाह "स्वेच्छया रजौ क्रमेण सन्निवेशपत्युदारधीः कविः सदण्डकः स्मृतो जगत्यशोकमञ्जरी।" उदारबुद्धिः कवियदि यदृच्छया यथाक्रमं रगण-जगणी छन्दे स्थापयति तत्र अशोकमञ्जरी नाम दण्डकः भवति । साहित्यरत्नमञ्जूषा-८६ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंह विक्रान्त दण्डकम् अ शो क म ञ्जरी दण्ड कः यगरणः यगरणः यगरणः यगरणः यगणः यगणः यदीयं ISS रगणः SIS स्वे च्छ या ISI ISS 시 यशः सु जगणः रगणः जगण SIS ISS जौ क्र स प्रसिद्ध विशुद्ध ច ISI न्नि श डाड प ISS रगणः जगणः त्यु दा ISS सदागा ररूपं ISI र धी: क वि: ISS स द जगणः रगणः 515 15 ISI यगरणः साहित्यरत्नमञ्जूषा - ८७ ISS सुधर्मा ण्ड कः स्मृ यगणः ISS रगणः SIS तो ज ग यगणः दिसेव्यं मुनीनां समाजे ISI ISS 위의 쇠 जगण: रगणः त्य यगणः ISS शो SIS म ञ्ज री Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्योदाहरणं यथा अथ च साहित्यविषयक ग्रन्थादौ कविना प्रायः शुभफलदत्वात् संयोज्यः शुभगणः । नाऽन्यो विपरीतत्त्वात् । तथा च तत् स्वरूपनिदर्शक: श्लोकोऽत्र कथ्यते । तथाहि मो भूमिस्त्रिगुरुः श्रियं दिशति यो वृद्धि जलं चादिलो । रोऽग्निर्मध्य लघुविनाशमनिलो देशाटनं सोऽन्त्यगः ॥ तो व्योमान्तलघुर्धनापहरणं जोऽर्कोरुजं मध्यगो । भश्चन्द्रो यश उज्ज्वलं मुखगुरु-र्नो नाक श्रायुस्त्रिलः ॥ १ ॥ इदं च फलं ग्रन्थनेतुः कर्तु : अथवा पथितुः, तेषां यथायोग्यं भवत्येव । 'वर्णानाश्रित्याऽपि ' फलश्रुतिः कथ्यते ― तस्य श्लोकमाह अवर्णात् सम्पत्तिर्भवति मुदि वर्णाद्धनशता न्युवरर्णादख्यातिः सरभसमृवरर्णाद्धरहितात् । तथा ह्यचः सौख्यं ङञरणरहितादक्षरगरणात् 1 पदादौ विन्यासाद्भरबह लहाहाविरहितात् ॥ १ ॥ साहित्यरत्न मञ्जूषा - ८८ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गरगदेवतादीनां यन्त्रम् * गणनाम मगरणः | यगणः | रगणः । सगरणः तगणः | जगरणः भगणः नगरपः स्वरूपम् SSS 155 55 115 5511 151 SIL देवता | पृथ्वी | जलम् अग्निः | वायुः प्राकाशः सूर्यः चन्द्रः नाक: फलम् । | श्रीः | वृद्धिः । विनाशः | भ्रमणम् धननाशः रोगः सुयशः प्रायुः साहित्यरत्नमञ्जूषा-८६ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अपवादोऽपि' अत्र कथ्यते तथाहि देवतावाचकाः शब्दाः , ये च भद्रादिवाचकाः । ते सर्वे नैव निन्द्याः स्यु-लिपितो गरगतोऽपि वा ॥१॥ * द्वितीयपरिच्छेदस्य सारांशः * अद्वितीये द्वितीयेऽस्मिन्, परिच्छेदे मया मुदा । वरिणता च कवेः शिक्षा, छन्दोज्ञानपुरस्सरा ॥१॥ छन्दः शास्त्रार्णवे प्रोक्त, छन्दसां कौशलं परम् । मात्राक्षरविभेदेन, द्विधा छन्दो बुधैर्मतम् ॥ २॥ कविता वनिता हासे, प्रकाशे परमेऽद्भुते । विषमान्यपि वृत्तानि, विकसन्ति विलसन्त्यपि ॥ ३ ॥ विषमेष्वपि वृत्तेषु, स्यात् प्रवेशोऽल्पमेधसाम् । द्वितीयेऽस्मिन् परिच्छेदे, दिङ्मात्रमिह दर्शितम् ॥ ४ ॥ कविना विदुषा भाव्यं, सुगरणायोजकेन च । फलदः सुगरणः प्रोक्तो, नेतरो विपरीततः ॥ ५ ॥ शुभाऽक्षराणां योगोऽपि, फलवान् गुरगवान् मतः । अतः काव्य-कलापूर्णैः, पूरणीयाः सदक्षराः ॥ ६ ॥ एकः शब्दः सुविज्ञातः, सम्यग्योगमुपागतः। करोति कत्ति प्रीतिञ्च, सत्साहित्यसंयुतः ।। ७ ।। साहित्यरत्नमञ्जूषा-६० Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवता वाचकाः प्रोक्ताः, ये शब्दा भद्रसूचकाः । तेषां योगे न दोषोऽस्ति, वर्णतो गणतोऽपि वा ॥ ८ ॥ सोदाहरणसङ्केतैः, सज्जितः सार्थकस्सदा । सुरिणतः सुशीलेन, सूरिणा सुगमाय च ॥ ६ ॥ इति श्रीशासनसम्राट्-सूरिचक्रचक्रवत्ति-तपोगच्छाधिपति-भारतीयभव्यविभूति - महाप्रभावशालि-अखण्डब्रह्मतेजोमूत्ति-श्रीकदम्बगिरिप्रमुखानेकप्राचीनतीर्थोद्धारक-श्रीवलभीपुरनरेशाद्यनेकनृपप्रतिबोधक - चिरन्तनयुगप्रधानकल्प-वचनसिद्ध-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-प्रातःस्मरणीय-परमोपकारि-परमपूज्याचार्य महाराजाधिराज श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वराणां दिव्यपट्टालंकार-साहित्यसम्राट्-व्याकरणवाचस्पति-शास्त्रविशारदकविरत्न - साधिकसप्तलक्षाधिकश्लोकप्रमाणनूतनसंस्कृत - साहित्यसर्जक-परमशासनप्रभावक-बालब्रह्मचारि-परमपूज्याचार्यप्रवर श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वराणां प्रधानपट्टधरधर्मप्रभावक-शास्त्रविशारद - कविदिवाकर - स्याद्यन्तरत्नाकराद्यनेकग्रन्थकारक - बालब्रह्मचारि - परमपूज्याचार्यवर्य श्रीमद्विजयदक्षसूरिवराणां पट्टधर-जैनधर्मदिवाकर-शास्त्रविशारद - साहित्यरत्न - कविभूषण - बालब्रह्मचारि-श्रीमद्विजयसुशीलसूरि संदृब्धायां साहित्यरत्नमञ्जूषायां द्वितीयः परिच्छेदः ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-६१ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ ॥ अथ तृतीयः परिच्छेदः ॥ 'कथं कवित्वसंप्राप्तिः ? ' इत्यस्य निरूपणं प्रथमपरिच्छेदे कृतम् । तदनन्तरं 'कवेः शिक्षा च कीदृशी ?" इत्यस्य निरूपणमपि द्वितीयपरिच्छेदे कथितं च । अत्र 'कश्च काव्ये चमत्कारः ? ' इत्यस्य निरूपणं क्रियते । रसस्वरूपम् अभिधामूलो विवक्षितान्यपरवाच्यो नाम ध्वनिकाव्ये चमत्कारः । तत्र चमत्कारो नाम प्रह्लादकत्वम् । तदाह्लादकत्वं ध्वनेः चामत्कारित्वं काव्ये । केषांचित् मतं 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम् ।' रसात्मकता ध्वनेः अनिर्वचनीयता आस्वाद्यन्ते रसज्ञैः । प्रोक्तं ध्वनिः प्रथमतो द्विविधः असंलक्ष्यक्रमव्यङ्गेन संलक्ष्यक्रमव्यङ्गेन । यथा असंलक्ष्यक्रमोद्योतः क्रमेण द्योतितः परः विवक्षिताभिधेयस्य ध्वनेरात्मा द्विधा मतः । साहित्यरत्नमञ्जूषा - ε२ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमश्च रसादि रस-रसाभास भाव-भावाभास-भावोदयभावप्रशम-भावसन्धि, भावशबलता। तत्र रसस्योदाहरणम् किमपि मन्दं मन्दं मन्दमासत्तियोगादविरलितकपोलं जल्पतोरक्रमेण । आशिथिलपरिरम्भव्यापृतैकैकदोष्णोरविदित गतयामा रात्रिरेव व्यरंसीत् । रसे कोऽपि विलक्षणः सहृदयानां लोकोत्तरचमत्कारजनकः सम्भोगशृङ्गाररसास्वादः वाच्यप्रतीत्य व्यवहितोत्तरकालावच्छेदे नैव सम्पद्यते। अत एवोत्पलशतपत्रव्यक्तिभेदवत् तदुभयो प्रतीत्योः क्रमस्य सहृदयैरलक्ष्यमाणतया असंलक्ष्यक्रमव्यङ्गो नाम रसध्वनिरिहावसेयः । चमत्कारो नाम-आह्लादकत्वं, स शब्दगतः अर्थगतश्चेति द्विविधः। शब्दश्रवणमात्रेण विलक्षण-चित्तालादो भवेत्, स शब्दगतः । यथा शारदा शारदाम्भोज - वदना वदनाम्बुजे । सर्वदा सर्वदाऽस्माकं सन्निधि सन्निधि क्रियाम् ॥ १॥ अर्थगतोऽपि द्विविधः। वाच्यार्थगतः, व्यङ्गयार्थगतश्चेति । यत्र च व्यङ्गयार्थापेक्षया वाच्यार्थस्यातिशायित्वं, तत्र वाच्यार्थगतः । यथा साहित्यरत्नमञ्जूषा-६३ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये तप्यन्ते तत्तपस्तेपि रे वा तान्पातस्ते कारि तीव्र तपो हि। कारिष्यन्ते सिद्धयोथ नियन्ते पाचि श्रेयः पच्यते पक्ष्यते वा। [इति श्रीकलिकालसर्वज्ञश्रीमदहेमचन्द्राचार्यविरचित श्रीद्वयाश्रयमहाकाव्ये प्रष्टमसर्गे श्लोक १६ तमे प्रोक्तमिदम् ।] अन्यमपिएकातपत्रं जगतः प्रभुत्वं , नवं वयः कान्तमिदं वपुश्च । अल्पस्य हेतोर्बहुहातुमिच्छन् , विचारमूढः प्रतिभासि मे त्वम् ॥ [इति श्रीकविकालिदासविरचित श्रीरघुवंशकाव्ये प्रोक्तमिदम् ।] व्यङ्गयार्थश्च क्वचिद् रसरूपः, क्वचिद् भावरूपः, क्वचिच्चालङ्कारादिरूपः । रसो नाम "विभावानुभावव्यभिचारिभि व्यक्तः" रसपरिपाकः स्थायीभावो रसः । विभावादिसमूहालम्बनात्मकावरणभङ्गावच्छिन्नचिदानन्द रूपाः रसाः शृङ्गार-हास्य-करुण-रौद्र-वीर-भयानकबीभत्स-अद्भुत-शान्तेति नवप्रभेदाः भावाः रसभूयतासम्पादकविभावादिसम्पर्करहिताः । स च नवधा शृङ्गारादिभेदात् तथाहि साहित्यरत्नमञ्जूषा-६४ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतिर्हासश्च शोकश्च क्रोधोत्साहौ भयं तथा । जुगुप्सा विस्मयश्चेत्थ - मष्टौ प्रोक्ताः शमोऽपि च ॥ १ ॥ एते प्रास्वादाङ्कुरमूलभूताः स्थिरतया वर्त्तमानाः स्थायिभावा नव । निवेदादयस्त्रयस्त्रिंशद् व्यभिचारि भावाश्च भावपदवाच्या । तदुक्तम् संचारिण प्रधानानि देवादिविषया रतिः । उबुद्धमात्र स्थायी च भाव इत्यभिधीयते ॥ विभावाः - ' रत्यादिस्थायिभावोद्बोधका विभावाः ।' ते च द्विप्रकाराः ग्रालम्बनोद्दीपन भेदाभ्याम् । यं प्रालंब्य रसोद्गमः भवति स 'श्रालम्बनविभावः' । ये च रसमुद्दीपयन्ति ते ' उद्दीपनविभावाः' । अनुभावाः- तत् तत् कारणैरुद्बुद्धं स्थायिभावं ये बहिः प्रकाशयन्ति तेऽनुभावाः । व्यभिचारिभावा: - ' रत्यादिस्थायिभावे ये प्रधानतया प्रभवन्ति वा प्रचलन्ति ते व्यभिचारिभावाः । अनौचित्येन प्रवृत्तेर्दुष्टा रसा रसाभासा दुष्टाभावा भावाभासाश्च । तत् प्रशान्ति भावस्य शान्तिः प्रशम्य - दवस्था । एवमादिपदेन भावस्योक्तरूपस्योदयः । उद्गमा साहित्यरत्नमञ्जूषा - १५ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्था भावसन्धिः, शमकक्षयोर्युगपदास्वादः । भावशबलता - निरवच्छिन्नतया तेषां पूर्व पूर्वोपमर्दनाम् परेषां आस्वादः । एतादृशो रसादि प्रक्रमः । असंलक्ष्यक्रमः अङ्गित्वेन प्रधानतया भासमान सहृदयहृदयाह्लादकतया चर्वरणाविषयी भवन् ध्वनेः विवक्षितान्य परवाच्यरूपस्य आत्मा स्वरूपं व्यवस्थितः । श्री साहित्यदर्पणग्रन्थेऽपि उच्यते विभावेनाऽनुभावेन, व्यक्तः संचारिणा तथा । रसतामेति रत्यादि स्थायीभावः सचेतसाम् ॥ सात्विकाश्चानुभावरूपत्वान्नपृथगुक्ता । रसवस्थः पटं भावः स्थापितां प्रतिपद्यते । प्रोक्तश्च रसे सारश्वमत्कारः, सर्वत्राप्यनुभूयते । तच्चमत्कारसारत्वे, सर्वत्राऽप्यद्भुतो रसः ॥ अतः साहित्ये काव्ये वा रसस्य चमत्कारित्वं सर्वत्रैव सहृदयैः अनुभूयन्ते । यदुक्तम् “ पुण्यवन्त प्रमिण्वान्ति योगिवद् रससन्ततिम् ।” यद्यपि स्वादः काव्यार्थसंमादादात्मनः श्रानन्दसमुद्भवः, इत्युक्तदिशा रसस्यास्वादनातिरिक्तत्वम् । तथापि 'रसः स्वाद्यन्ते' इति काल्पनिकं भेदं स्वीकृत्य स्वीकृतं रसः यत् प्रधानोऽयं साहित्यरत्नमञ्जूषा - १६ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्यस्ताद् भावेदितः शब्द इति किञ्चिद् विस्तारेण विवेच्यन्ते । विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद् रसनिष्पत्तिः । अलङ्कारवादिभिस्तु विभावानुभावव्यभिचारिणां संयोगात् समुदायः रसनिष्पत्तिः । रसपदव्यवहारेति सूत्राशयं मन्वानाः विभावादयः त्रयः समुदिता रस इति रसस्वरूपं निरूपयन्ति । श्रीकाव्यप्रकाश ग्रन्थे निराकतु कथितं - " न खलु विभावानु भावव्यभिचारिण एव रसः अपि तु रसस्त्र इत्याह अस्ति क्रमः स तु लाघवान्न लक्ष्यते " इति मम्मटः । बहवस्तु विभावादीनां संयोगात् सम्यग्योगात् चमत्कारात् रसनिष्पत्ति:, इति सूत्रार्थवर्णयन्तो विभावादिषु यः प्रधानतया चमत्कारी, स एव रस इति वर्णयन्ति । केचित्तु - " भाव्यमानो विभावः एव रसः" इति मन्यन्ते । अन्ये केचित् - " भाव्यमानोऽनुभावस्तथा" इति वर्णयन्ति । केचित्तु - " सञ्चारी एव तादृशः तथा परिणतिः" इति वर्णयन्ति । रसस्य क्व ध्वनित्वम् ? कश्चालङ्कारित्वम् ? इत्युपपद्याद्य तयोरुदाहरणे प्रकाशमपि अत्र अवश्यं विधेयम् । उक्त ं वाच्यवाचकचारुत्वहेतूनां विवधात्मनाम् । रसादिसाहित्य - ७ साहित्यरत्नमञ्जूषा - ९७ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परता यत्र स ध्वनेः विषयो मतः । ध्वनौ रसस्य महत्त्वं पूर्वमेवोक्तम् । अत्र च विषदीकृत्य वर्णयामः यत्र काव्ये रसादयो व्यञ्जनया प्रतीयमानाः प्रधानतया वाक्यार्थीभूता सन्तः विच्छित्तिविशेषाधायकाः भवन्ति । वाच्यं वाचकं तच्चारुत्वहेतवोऽलङ्कारा गुणाश्च प्रधानीभूतव्यङ्ग्यं च रसाधुपस्कारा एव सन्ति । तत्र रसस्य रसध्वनित्वं भवति, किन्तु प्रधानेऽन्यत्र वाक्यार्थे यत्राङ्ग तु रसादयः। काव्ये तस्मिन्नलङ्कारो रसादिरिति मे मतिः, अर्थात् यत्र काव्ये व्यङ्गयरसाद्यपेक्षया वाच्यार्थबोध-विषयीभूतो रसादयस्तु नाति चमत्कारितयाऽङ्गभूता एव भवन्ति । तत्र रसवदादिः अलङ्कारो भवतीति भावः । तत्र च शृङ्गारे रसध्वनेः उदाहरणम्निद्राकैतविनः प्रियस्य वदने विन्यस्त-वकं वधूः , बोध-त्रास-निरुद्ध-चुम्बनरस प्याभोग लोलं स्थिता । वैलस्याद् विमुखी भवेदिति पुनः तस्याप्यनारम्भिरणः , साकाक्षप्रतियत्तिनायहृदयं यातं हु पारं रतेः ॥ ___ रसवदादिस्तु अलङ्कारो द्विविधः । शुद्धः संकीर्णश्च । तत्र शुद्धस्योदाहरणं कलिकालसर्वज्ञश्रीमद्हेमचन्द्राचार्यकृतश्री द्वयाश्रयमहाकाव्ये प्रोक्त यत् साहित्यरत्नमञ्जूषा-६८ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाभिमुखास्तुङ्गनासिका कानासिकवो लम्बोष्यः उन्नतोष्ठाः । लम्बोदर्यः कृषोदरा कागड्डा पृथुजङ्घयोन्वपुः पिशाच्यः ॥ अन्यच्च सम्थ्नायुः पथिखेतृणां रिपु नृपा प्रक्ष्णासमोत्क्रान्तरं । दध्नोस्थ्योश्च न जानते स्म मधुनोम्बूनां च पर्याकुलाः ॥ श्रश्वीयानि सुवल्ग्य वल्गिसुमहां स्यत्पूज्यंनूजि क्षणात् । तेषां दन्ति कुलानि चालममवन्नाऽस्मिन् रणारम्भिरण || पुनः संक्षेपेण रसस्य निरूपणम् - रत्यादेरित्यादिपदेन हासोत्साहादयो गृह्यन्ते । लौकिके उत्साहादीनां वक्ष्यमाणानां स्थायिभावानां यानि कारणानि उत्पादकरूपारिण नायकप्रतिनायकादीनि, उद्दीपनरूपारिण, नायकप्रतिनायकचेष्टादीनि यानि कार्याणि, विपक्षाभिमुखगमनादीनि यानि च सहकारिणि, सहायभूतानि, धृतिगर्वादीनि तानि नाटय काव्ये च चेन्निबोधे परन् क्रमेण विभावाः अनुभावाः व्यभिचारिणश्च कथ्यन्ते । तैर्विभावादिर्व्यक्तः - स्फुटीकृतः विलक्षणप्रतीतिविषयीकृतः इति यावत् स्थायिभावः रसः कथितः । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १६ , Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ रसभेदाः * शृङ्गारादिभेदात् नवधा रसभेदाः । तथाहिशृंगारहास्यकरुणा-रौद्रवीरभयानकाः । बीभत्साद्भुतसंज्ञौ चेत्यष्टौ काव्ये रसा स्मृताः ॥१॥ नवमोऽपि शान्तरसः स्वीकृतः । विस्तरेणायं भावः नायिकादिभिः पालम्बनकारणैः चन्द्रचन्द्रिकादिभिः उद्दीपनकारणः अनुरागजन्यहावभावादिभिः कायैः चिन्तादिभिश्च सहकारिभिः स्थायीभावभूतस्यानुरागविशेषरतेः परिशीलमवरोधसामाजिकानां अन्तःकरणे वासनारूपतया स्थितः लोकोत्तर-चमत्कारी रसो जायते । यद्यप्यत्र शब्दश्रवणसमानान्तरमेवार्थबोधः । ततो विभावादिप्रतीतिः अनन्तरं सहृदयैः भावनया विभावादिसंवलितचिदानन्दात्मकः आस्वाद्यमानो रत्यादिः स्थिरोभावः रसतामाप्नोतीति । क्रमो नूनमस्ति तथापि कार्याणामियत्तां कमलशतपत्रभेदवत् सहसा सम्पन्नतया नैव क्रमः प्रतीतिरनुभूयते । प्रतिरसं विभावादयो विद्यन्ते यथा शृङ्गाररसस्य स्थायिभावादयः। साहित्यरत्नमञ्जूषा -१०० Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा परोढां वर्जयित्वा तु वै नृपा चानुरागिणीम् । आलम्बनं नायिका स्युः, दक्षिणाद्याश्च नायकाः । चन्द्रचन्दनरोलाम्ब-ताद्युद्दीपनं विक्षेप कटाक्षादिरनुभावः व्रीडा - चपलताहर्षधृत्याद्या स्मृतम् 1 प्रकीर्तितः । व्यभिचारिणः । सामान्यतो रसस्य लक्षणमुक्त्वा तद् भेदं प्रतिपादयन्ति कलिकालसर्वज्ञश्रीमद्हेमचन्द्राचार्यः, तथा श्रीमम्मट - श्रानन्दवर्द्धनादयः 1 'शृङ्गारः, हास्यः, करुणः, रौद्र, वीरः, भयानकः, बीभत्सः तथा अद्भुतः' इति भेदैः काव्येऽष्टौ - अष्टसंख्यकाः रसाः स्मृताः । अधुना शान्तः नवमो रसोऽपि स्वीकृतः । शृङ्गारः प्रकृतिपुरुषयोः सनातनसम्बन्धतया नायकनायिकावलम्बितः । तद्गत-सौन्दर्य-चन्द्रवसन्त कोकिलाद्युद्दीपितः तच्चेष्टितकटाक्षभुजक्षेपाद्यनुभावितः, लज्जाहासादिसञ्चारितः सामाजिकानां सहृदयानां वा चेतसि आस्वादपदवीमारूढः रत्याख्यः स्थायिभावः शृंगाररसतां पद्यते । तेषां शृङ्गारादीनां नवरसानां क्रमशः साहित्यरत्नमञ्जूषा - १०१ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरणानि प्रदर्श्यन्ते । तत्र प्रथमस्य शृङ्गाररसस्योदाहरणम् (१) शृङ्गारः१ रतिस्थायिभावकः, रागवन्नायक - नायिकालम्बनकः, चन्द्र-चन्दनरोलम्बाद्युद्दीपनकः, भ्रू विक्षेप-कटाक्षाद्यनुभावकः, शृङ्गार नामा रसः। स च सम्भोग-विप्रलम्भभेदेन द्विविधो भवति । __यत्र दर्शन-स्पर्श-रोमाञ्चादि-विलासिनौ परस्परमनुरागिणौ विदधतः, तत्र 'सम्भोगशृङ्गारः' भवति । यथाशून्यं वासगृहं विलोक्य शयनादुत्थाय किञ्चिच्छनैनिद्राव्याजमुपागतस्य सुचिरं निर्वर्ण्य पत्युर्मुखम् ॥ विश्रब्धं परिचुम्ब्य जातपुलकामालोक्य गण्डस्थलों । लज्जानम्रमुखी प्रियेण हसता बाला चिरं चुम्बिता ॥१॥ अत्रोक्तस्वरूप:-पतिः उक्तस्वरूपा बाला च आलम्बनविभावौ शून्यं वासगृहं उद्दीपनविभावः चुम्बनं अनुभावः १. श्यामवर्णकः, विष्णु देवतः, करुण-वीर-बीमत्स-रोद्र-भयानकरसः सह विरोधी एव। साहित्यरत्नमञ्जूषा-१०२ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लज्जाहासौ व्यभिचारिणौ, एतैः अभिव्यक्तः सहृदयविषयो रतिभावः शृङ्गाररसरूपतां भजते। तद् भेदश्च विप्रलम्भः । विप्रलम्भोऽथ संभोगः इत्येव द्विविधो मतः । यत्र तु प्रकृष्टा रतिः अभीष्टं न उपैति स विप्रलम्भशृङ्गारः। यथा अभिलाषस्योदाहरणम् कथमीक्षे कुरङ्गाक्षी, साक्षात् लक्ष्मी मनोभुवः । इति चिन्ताकुलः कान्तो, निद्रां नौति निशीथिनीम् ॥ प्रलापस्योदाहरणम् पाण्डु क्षामं वदनं हृदयं सरसं तवालसं च वपुः । आवेदयति नितान्तं क्षेत्रियरोगं सखि हृदन्तः ॥ व्याधि भिसिणीग्रलसपणीए निहिनं सव्वं सूणिच्चलं अंगं । दोहो णीसा सहरो एसो साहेइ जीन इति परं ॥ रसविच्छेदहेतुत्वान्मरणं नैव वर्ण्यते । जातप्रायं तु तद् वाच्यं, चेतसा काङ्कितं तथा । वर्ण्यतेऽपि यदि प्रत्यु-ज्जीवनं स्याददूरतः॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-१०३ । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथातां जानीथाः परिमितकथां जीवितं मे द्वितीयं । दूरीभूते मयि सहचरे चक्रवाकीमिवैकाम् ॥ गाढोत्कण्ठां गुरुषु दिवसेष्वेषु गच्छत्सु बाला । जातां मन्ये शिशिरमथितां पद्मिनी वान्यरूपाम् ॥१॥ (२) हास्यः१ विकृतानवाक्चेष्टं, यमालोक्य हसेज्जनः । तत्रालम्बनं प्राहुः, तच्चेष्टोद्दीपनं स्मृतम् ॥ अनुभावोऽसि संकोचः, वचनस्मेरतादयः । निद्रालस्यवहित्थाद्या, अत्र स्युर्व्यभिचारिणः ।। हासस्थायिभावकः, विकृताकारवाक्चेष्टावज्जनालम्बनकः, तदीयचेष्टोद्दीपनकः, अक्षिसंकोचनवदनविकाशानुभावकः, निद्रालस्यादिसंचारिभावकश्चेति हास्यरसः । हास्यस्य षड्भेदाः___ज्येष्ठानां स्मितहसिते, मध्यमानां विहसितावहसिते, नीचानां तु अपहसितं तथा अतिहसितं भवति । अतः १. श्वेतवर्णः, प्रमथ (शिवगणविशेष) देवतः, करुणभयानकाभ्यां विरोषोऽस्य । साहित्यरत्नमञ्जूषा-१०४ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवति । एभि: हसनक्रियाभेदैः हास्यस्य षड्भेदाः भवन्ति । यत्र ईषद्विकासि नयनं स्यात् स्पन्दिता घटं स्यात् स्मितं हास्यं भवति । स्मितं हास्यं च ज्येष्ठानां मध्यमानां तु विहसितं प्रवहसितं च भवतः, नीचानां अपहसितं प्रतिहसितं भवतः । विहसने मधुर - शब्दानां प्रयोगः भवति सो सशिरः कम्पनं प्रवहसिते भवतः, सास्राक्षं विक्षिप्ताङ्गं च अपहसने भवतः । भवतः । तस्योदाहरणं यथा गुरोगर : पञ्चदिनान्यधीत्य, वेदान्तशास्त्रारिण दिनत्रयं च । श्रमी समाघ्राय च तर्कवादान्, समागताः प्रन्यच्च कुक्कुटमिश्रपादाः ॥। १॥ निबन्धे, निरूपिता नूतनयुक्तिरेषा । श्रीतातपादविहिते अगं गवां पूर्वमहो पवित्रं, नवा कथं रासभधर्मपत्न्याः ॥ १ ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा - १०५ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) करुणः १ स्वेष्टनाशादनिष्टाप्तेः, करुणाख्यो रसो भवेत् । धीरैः कपोतवर्णोऽयं, कथितो यमदैवतः ॥ शोकोऽत्र स्थायिभावः स्यात्, शौच्यमालम्बनं मतम् । तस्य दाहादिकावस्था, अनुभावा दैवनिन्दा, वैवर्ण्याच्छ्वासिनः श्वासस्तम्भप्रलपनानि च ॥ निर्वेदमोहाऽपस्मार, व्याधि ग्लानि स्मृति क्षमाः । विषाद जडतोन्मादः, चिन्ताद्या व्यभिचारिणः || भवेदुद्दीपनं पुनः ॥ भूपातनंदितादयः । स्वेष्टनाशादनिष्टसम्बन्धात् शोकस्थायिभावका, शोच्य - जनावलम्बनः, तदीयदाहाद्युद्दीपनः, दैवनिन्दाद्यनुभावकः, विषादजडतादिव्यभिचारिभावकः करुणरसः । यथोदाहरणम् विपिने क्व जटानिबन्धनं तव चेदं क्व मनोहरं वपुः । अनयोर्घटनाविधेः स्फुटं ननु खड्गेन शिरीषकर्तनम् ॥ १ ॥ अत्र हि श्रीरामवनवासजनितशोकार्त्तस्य दशरथस्य दैवनिन्दा एवं बन्धुवियोगविभवनाशादावप्युदाहार्यमिति । १. कपोतवर्णः, यमदैवतः, हास्य शृङ्गाराभ्यां विरोधोऽस्य । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १०६ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) रौद्रः रौद्रः क्रोधस्थायीभावो, रक्तो रुद्राधिदैवतः। आलम्बनमरिस्तत्र, तच्चेष्टोद्दीपनं मतम् ।। मुष्टिप्रहारपातन-विकृतच्छेदावदारणैश्चैव । संग्राम-संभ्रमाद्यैरस्योद्दीप्तिर्भवेत् प्रौढा ॥ भ्र विभङ्गोष्ठनिर्देश, बाहुस्फोटन तर्जनाः । आत्मावदान कथन-मायुधोत्क्षेपणानि च ॥ उग्रतावेगरोमाञ्च, स्वेद-वेपथवो मदः । अनुभावास्तथाक्षेप, क्रूर-संदर्शनादयः । मोहामर्षादयस्तत्र, भावा स्युः व्यभिचारिणः ॥ क्रोधस्थायिभावः, शत्रुरालम्बनः, तच्चेष्टोद्दीपनः, भ्र भङ्गबाहुस्फोटनोग्रतायुधग्रहणादा अनुभावाः, मोहामर्षादयो व्यभिचारिणः, यत्र तत्र रौद्ररसः । रौद्ररसस्य स्थायीभावः क्रोधो भवति । तथाऽस्य वर्णः रक्तः, रुद्रदैवतः, शृङ्गार-हास्य-भयानकैः सह विरोधः । अस्मिन् रसे आलम्बनः शत्रुः भवति। तच्चेष्टोद्दीपनः मुष्टिप्रहारपातनविकृतच्छेदावदारणं युद्धोत्साहादिप्रदीप्तिः, भ्र भङ्गोष्ठानिदर्शनबाहुपादानां स्फोटनं कृतिश्चोग्रतावेगरोमाञ्चादयः १. रक्तवर्णः, रुद्रदेवतः, शृङ्गारहास्यभयानकः सह विरोधी। साहित्यरत्नमञ्जूषा-१०७ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभावाः, आक्षेप - मोहामर्षादयः व्यभिचारी भावाः भवन्ति रौद्रे । तस्योदाहरणं यथा चंचभुजभ्रमितचण्डगदाभिघात संचूरितोरुयुगलस्य सुयोधनस्य । रुत्तंसयिष्यति कचाँस्तव देवि ! भीमः ॥ १॥ स्त्यानावनद्धघनशोणितशोणपाणि (५) वीर : १ उत्तमप्रकृतिर्वीरः, उत्साहस्थायीभावकः । महेन्द्रदेवतो हेम, वर्णोऽयं समुदाहृतः । आलम्बन-विभावस्तु, विजेतव्यादयो मताः । विजेतादि चेष्टाया, तस्योद्दीपनरूपिणः । अनुभावस्तु तत्र स्युः, सहायान्वेषरणादयः । संचारिणस्तु धृतिमतिगर्वस्मृतितर्करोमाञ्चाः । स च दान-धर्म- युद्धैर्दयया च समन्वितश्चतुर्धा स्यात् । १. सुवर्णवर्णः, महेन्द्रवैवत, भयानक-शान्तरसाभ्यां सह विरोधी । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १०८ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्योदाहरणं क्रमेण यथा १. दानवीरः दानेषु वीरः दानवीरः, कर्णादयः । यथाकियदिदमधिकं मे यदविजयार्थयित्रे । कवचमरमरणीयं कुण्डले चार्ययामि ॥ अकरुणमवकृत्य द्राक् कृपारणेन निर्य द्वहलरुधिरधारं मौलिमावेदयामि ॥१॥ २. धर्मवीरः धर्मषु वीरः धर्मवीरः ऋषभादयः । यथाराज्यं च वसु देहं च, भार्या भातृसुताश्च ये । यच्च लोके ममायत्तं तद् धर्माय सदोद्यताम् ॥२॥ आदिमं पृथवीनाथ-मादिमं निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथं च, ऋषभस्वामिनं स्तुमः ॥ ३ ॥ [इति सकलार्हत्स्तोत्रे प्रोक्तमिदम्] ३. युद्धवीरः युद्धेषु वीरः युद्धवीरः, श्रीरामचन्द्रादयः । यथाभो लङ्केश्वर ! दीयतां जनकजा रामः स्वयं याचते । कोऽयं ते मतिविभ्रमः स्मर नयं नाद्यापि किञ्चिद्गतम् ॥ नैवं चेत् खरदूषणत्रिशिरसां कण्ठासृजापङ्किलः । पत्त्री नैष सहिष्यते मम धनुाबन्धबन्धकृतः ॥१॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-१०९ । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. दयावीरः दयासु वीरः दयावीरः, श्रीमेघरथोनृपः दिलीपनृपादयश्चेति । यथाशिरामुखैः स्यन्दतः एव रक्त मद्यापि देहे मम मांसमस्ति । तृप्तिं न पश्यामि तवापि तावत्, कि भक्षरणात्त्वं विरतो गरुत्मन् ॥ १॥ (६) भयानकः शृंगारादिविरोधी यो, स्थायीभावो भयस्तथा । कालदैवत-कृष्णश्च, वर्णो भयानको रसः ॥ यत्र भयस्थायिभावः, यस्माद् भयमुत्पद्यते स आलम्बनविभावः, विकृतस्वरश्रवणायुद्दीपनः वैवर्ण्यगद्गद्भाषणमनुभावः, स्वेदरोमाञ्चादयो व्यभिचारिभावाः, स भयानकरसः । यथानष्टं वर्षवरैर्मनुष्यगरगना-भावादपास्य त्रपामन्तः कंचुकिकंचुकस्य विशति त्रासादयं वामनः ॥ पर्यन्ताश्रयिभिनिजस्य सदृशं नाम्नः किरातः कृतं, कुब्जा नीचतयैव यान्ति शनकरात्मक्षरणाशङ्किनः ॥१॥ १. कृष्णवर्ण, कालदेवतः, शृङ्गार, वीर, रौद्र, हास्य शान्तविरोधीः । साहित्यरत्नमञ्जूषा-११० Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) बीभत्सः १ यत्र जुगुप्सा स्थायिभावः, दुर्गन्धमांसरुधिरादीन्या लम्बनानि, तत्र कृमिपाताद्युद्दीपनानि, निष्ठीवनवदनविकारनयनसंकोचादयोऽनुभावाः, मोहापस्मारावेगव्याध्यादयः संचारिभाव:, सो बीभत्सो रसः । यथा उत्कृत्योत्कृत्य कृत्ति प्रथममथ पृथूच्छोफभूयांसि मांसान्यं सस्फिक् पृष्ठपिण्डाद्यवयवसुलभान्युग्रपूतीनि जग्ध्वा । प्रात्तस्नाय्वन्त्रनेत्रः प्रकटितदशन: प्रेतरङ्कः करङ्कादङ्कस्थादस्थिसंस्थं स्थपुटगतमपि क्रव्यमव्यग्रमत्ति ॥ १ ॥ (८) अद्भुतः २ यत्र विस्मयस्थायिभाव:, विस्मयजनककार्यकर्त्ताssलम्बनः, विस्मयावहकर्म उद्दीपनम्, चकिताद्यनुभावः, हर्षादिसंचारिभाव:, तत्र अद्भुतरसः । यथा श्रीमतेवरनाथाय, सनाथायाद्भुतश्रिया । महानंदसरोराज - मरालायाऽर्हते नमः ॥ १. नीलवर्णः, महाकालदेवतः, शृङ्गारेण सार्द्धं विरोधी । २. पीतवर्णः, गन्धर्वदैवतः । साहित्यरत्नमञ्जषा - १११ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) शान्तः१ शमस्थायिभावः, संसारानित्यता परमात्मस्वरूपं वाऽऽलम्बनम्, पुण्यतीर्थसाधुसङ्गनिर्मलारण्यादि उद्दीपनम्, रोमाञ्चाद्यनुभावः, निर्वेदहर्षस्मरणादयो व्यभिचारिणः, यत्र स शान्तो रसः। यथाप्रशमरसनिमग्नं दृष्टियुग्मं प्रसन्नं , वदनकमलमङ्कः कामिनीसङ्गशून्यम् । करयुगमपियत्ते शस्त्रसम्बन्धवन्धं , तदसि जगति देव वीतरागस्त्वमेवम् ॥१॥ काव्यशास्त्र यदुक्त "व्यङ्गयार्थः भावरूपः।" तत्र को भावः ? कथ्यतेऽत्र__यत्र संचारिभावस्य प्राधान्यं, देव-गुरु-नृपविषया च रतिः, किञ्चिद् उद्बुद्धमात्र स्थायिभावः, तत्र रसः पुष्टितामलभमानो भावः इत्यभिधीयते । स च रसस्वरूप एव । प्रोक्त यत्न भावहीनोऽस्ति रसो, न भावो रसजितः ॥ परस्परकृता सिद्धिः अनयोः रसभावयोः ॥१॥ १. धवलवर्णः, नारायणदेवतः, शृङ्गारहास्यरौद्रवीरभयानकैः सह विरोधी । साहित्यरत्नमञ्जूषा-११२ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचारिभावस्य प्राधान्यम्, यथाएवं वादिनि देवषौ , पावें पितुरधोमुखी ॥ लीलाकमलपत्रारिण , गणयामास पार्वती ॥१॥ अत्र अवहित्था [आकारगुप्तिः] रूपस्य संचारिभावस्य प्रधानता प्रवर्तते । (१) देवविषया रतिः, यथाश्रीशत्रजयमुख्यतीर्थतिलकं श्रीनाभिराजाङ्गजं , वन्दे रैवतशैल-मौलिमुकुटं श्रीनेमिनाथं यथा । तारङ्गऽप्यजितं जिनं भृगपुरे श्रीसुव्रतं स्तम्भने , श्रीपावं प्रणमामि सत्यनगरे श्रीवर्द्धमानं त्रिधा ॥१॥ भवबीजाकुरजनना __रागाद्या क्षयमुपगता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णु र्वा , हरो वा जिनो वा नमस्तस्मै ॥२॥ अत्र देवविषया रतिः ज्ञेया। श्रीमद्वीरजिनस्य पद्महदतो निर्गम्यतं गौतमं , गङ्गावर्तनमेत्यया प्रविभिदे मिथ्यात्ववैताढयकम् । उत्पत्तिस्थितिसंहृति-त्रिपथगा ज्ञानाम्बुदा वृद्धिगा , सा मे कर्ममलं हरत्वविकलं श्रीद्वादशाङ्गी नदी ॥१॥ साहित्य-८ साहित्यरत्नमञ्जूषा-११३ । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिवि वा भुवि वा ममाऽस्तु वासो, नरके वा नरकान्तक ! अवधीरितशारदारविन्दौ चरणौ ते मरणेऽपि चिन्तयामि ॥ २ ॥ अत्र देवीविषया रतिः ज्ञेया । (२) गुरुविषया रतिः, यथा - अज्ञानतिमिरान्धानां नेत्रमुन्मीलितं 1 प्रकामम् । ज्ञानाञ्जनशलाकया 1 येत तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १ ॥ अत्र गुरुविषया रतिः ज्ञेया । मुनिविषया रतिः, यथा - प्रियप्राया वृत्तिविनयमधुरो वाचि नियमः, प्रकृत्या कल्याणी मतिरनवगीत: परिचयः । पुरो वा पश्चाद् वा तदिदमविपर्यासितरसं रहस्यं साधूनामनुपधि विशुद्धं विजयते ॥ २ ॥ " अत्र मुनिविषया रतिः ज्ञेया । साहित्यरत्नमञ्जूषा - ११४ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) नृपविषया रतिः, यथात्वद् वाजिराजिनिधूत धूलीपटलपङ्किलाम् । न धत्ते शिरसा गङ्गां , भूरिभाभिया हरः ॥ १ ॥ अत्र राजविषया रतिः ज्ञेया । किञ्चिदुबुद्धस्थायिभावः, यथाहरस्तु किञ्चित् परिवृत्तधैर्य श्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशिः । उमामुखे बिम्बफलाधरोष्ठ, व्यापारयामास विलोचनानि ॥ १ ॥ अस्मिन् श्लोके किञ्चिद् उद्बुद्धस्थायिभावो वर्त्तते । अत्र प्रसङ्गवशात् किञ्चिद् रसाभासस्वरूपं भावाभासस्वरूपं च कथ्यते । यत्र रसाभावादीनां अनौचित्यप्रवृत्तिर्भवति तत्र रसाभासः, भावाभासश्च प्रवर्तते । यथा रसाभासःजघनस्थलनद्धपत्रवल्ली गिरिमल्लीकुसुमानि काऽपि भिल्ली । अवचित्य गिरौ पुरो निषण्णा , स्वकचानुत्कचयाञ्चकार भर्ना ॥१॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-११५ । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकेऽस्मिन् अधमपात्रगता रतिर्वर्ण्यते इति शृङ्गाररसाभासः। भावाभासो यथाराकासुधाकरमुखी तरलायताक्षी , सा स्मेरयौवनतरङ्गितविभ्रमाङ्गी । तत् किं करोमि विदधे कथमत्र मैत्री , तत् स्वीकृतिव्यतिकरे क इवाभ्युपायः ॥१॥ अस्मिन् श्लोके चिन्तारूपसंचारिभावस्याननुकूलनायकविषयतया आभासत्वम्, इति भावाभासः। एवं यत्र गुरुविषयकक्रोधो वर्त्तते तत्र रौद्ररसाभासो ज्ञेयः । सत्पात्रे भयस्तदा भयानकाभासो ज्ञेयः । अन्यत्रापि तथैव यथायोग्यमवसेयम् । यदुक्त "क्वचिच्चालङ्कारादिरूपः" । अत्र आदिपदात् वस्तुरूपव्यङ्गयार्थोऽपि ज्ञेयः । * अथ व्यङ्गयार्थरूपध्वनिकाव्यभेदाः निरूप्यन्ते * ध्वनिकाव्यं नाम-यत्र वाच्यार्थापेक्षया व्यङ्गयार्थस्याधिकचमत्कारित्वं वर्तते । तदेव 'कविभिः उत्तम काव्यं कथ्यते, इति ।' तत्र ध्वनिः-द्विविधो वर्तते । लक्षणामूलः अभिधामूलश्चेति । साहित्यरत्नमञ्जूषा-११६ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्षणामूलो ध्वनिः नाम __यत्र वाच्यार्थस्याविवक्षा लक्षणया अर्थोऽवसीयते, व्यज्यते च कश्चिदर्थविशेषः सः लक्षणामूलो ध्वनिः ।" तस्य भेदौ द्विविधौ भवतः । तद्यथा-अर्थान्तरसंक्रमितवाच्यः, अत्यन्ततिरस्कृतवाच्यश्चेति । १. यत्र व्यर्थीभूतो वाच्यार्थः स्वमर्थमपरित्यज्याजहत्स्वार्थलक्षणया स्वविशेषरूपेऽर्थान्तरे संक्रामति तत्र अर्थान्तरसंक्रमितवाच्यः लक्षणामूलो ध्वनिः, यथा कदली कदली करभः करभः , करिराजकरः करिराजकरः । भुवनत्रितयेऽपि बिति तुला मिदमूरुयुगं न चमूकदृशः ॥१॥ अस्मिन् श्लोके कदलीत्यादिशब्दाः पुनरुक्तत्वाद् दोषदूषिता अभिधया कदल्यादिरूपमुख्यार्थं न कथयन्ति, किन्तु लक्षणया जाड्यादिगुणविशिष्टान्तरे संक्रमितत्वात् अर्थान्तर-संक्रमितवाच्य एव। तथा जाड्यातिशयोऽपि व्यङ्गयः । २. यत्र अनुपयुज्यमानो वाच्यार्थः स्वमुख्यार्थं सर्वथैव साहित्यरत्नमञ्जूषा-११७ । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहाय जहल्लक्षणयाऽर्थान्तरे परिणमति, तत्र अत्यन्त - तिरस्कृतवाच्यः लक्षणामूलो ध्वनिः । अत्र वाच्यार्थ - स्यात्यन्ततिरस्कृतत्वाद् अत्यन्ततिरस्कृतवाच्यत्वमिति । यथा रविसंक्रान्त सौभाग्य स्तुषारावृतमण्डलः ॥ निश्वासान्ध इवादर्श चन्द्रमा न प्रकाशते ॥ १ ॥ श्लोकेऽस्मिन् अन्धत्वं सचेतने एव सम्भवतीति । तदर्थं परित्यज्य सर्वथैव अन्धशब्दो लक्षणया अप्रकाशरूपं अर्थं बोधयति । तथा अप्रकाशातिशयोऽपि व्यङ्गयः । अभिधा मूलत्वं नाम यत्र वाच्यार्थस्य मुख्यार्थत्वं भवति तत्रैव प्रभिधामूलो ध्वनिर्नाम | स च द्वौ भेदौ । असंलक्ष्यक्रमवाच्यः, संलक्ष्यक्रमवाच्यश्च ेति । तत्र असंलक्ष्यक्रमवाच्यो रसभावादिरूपः रसभावादिव्यङ्गयप्रतीतेः क्रमिकत्वेऽपि क्रमस्य दुर्बोध्यत्वात्, असंलक्ष्यक्रमत्वमिति असंलक्ष्यक्रमवाच्यः । साहित्यरत्न मञ्जूषा - ११८ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतन्मूलकत्वेनैव पूर्वमुक्तं यत् व्यङ्गयार्थः क्वचिद् रसरूप इत्यादयः । तथा संलक्ष्यक्रमवाच्यस्योऽपि त्रयो भेदाः सन्ति । तथाहि - शब्दशक्त्युत्थः, अर्थशक्त्युत्थः, शब्दार्थोभयशक्त्युत्थश्च ेति । तत्र शब्दशक्त्युत्थो द्विविधः । वस्तुरूपव्यङ्गयः, अलङ्काररूपव्यङ्गयश्च ेति । अलङ्कारस्य भिन्नाभिहितत्वात् अत्र वस्तु - शब्देन अलङ्कारस्य भिन्न सर्वं ग्राह्यमिति । शब्दशक्त्यैव वस्तुव्यञ्जनं यत्र भवति तत्र वस्तुरूपशब्दशक्त्युत्थः, अलङ्कारव्यञ्जनं भवति, तत्र अलङ्काररूपशब्दशक्त्युत्थस्यानु क्रमेणोदाहरणं यथा पथिक ! नात्र संस्तरमस्ति, मनाक् प्रस्तरस्थलग्रामे । उन्नतपयोधरं प्रक्ष्य * यदि वससि तद् वसः ॥ १ ॥ 1 अस्मिन् श्लोके यदि उपभोगसमर्थोऽस्ति तदा तिष्ठ इति वस्तु संस्तरादिशब्दशक्तिद्वारा व्यज्यते । दुर्गालङ्घितविग्रहो मनसिजं संमीलयँस्तेजसा प्रोद्यद् राजकलो गृहीतगरिमा विश्वग्वृतो भोगिभिः । नक्षत्रेशकृतेक्षणो गिरिगुरौ गाढां रुचिन्धारयन् गामाक्रम्य विभूतिभूषिततनू राजत्युमावल्लभः ॥ १ ॥ , साहित्यरत्नमञ्जूषा - ११६ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकेऽस्मिन् उमादेवीवल्लभभानुदेवनपो वर्णनं प्रकरणगम्यमिति प्रथमार्थः । द्वितीयार्थलभ्य पार्वती पतिशिववर्णनमप्राकरणिकत्वाद् असमञ्जसं मा भूदिति । स्थाणुभानुदेवयोरुपमानोपमेयभावः कल्प्यते तदत्र उमावल्लभ इव उमावल्लभो राजते इति उपमालङ्कारो व्यङ्गयो भवति । यत्र अर्थशक्त्यैव व्यञ्जनं भवति । स च ध्वनिरर्थशक्त्युत्थः । अर्थशक्तिः द्विनिष्ठा भवति । वस्तुनि अलङ्कारे चेति । वस्त्वलङ्कारौ द्वावपि स्वतः सम्भवि, कविप्रौढोक्तिसिद्ध , कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्ति सिद्ध , इत्यनेन भेदेन त्रिविधौ तैर्व्यञ्जनमपि वस्त्वलङ्कारयोरेव भवतीति द्वादशप्रकारोऽर्थशक्त्युत्थः । तत् प्रकारस्याऽनुक्रमोऽत्रोदाहरणपूर्वं प्रतिपाद्यते । तथा हि (१) स्वतः संभावि वस्तु 'व्यङ्गयवस्तु' । तस्योदाहरणं यथागुञ्जन्ति मञ्जु परितो, गत्वा घावन्ति संमुखम् ॥ प्रावर्तन्ते विवर्तन्ते, सरसीषु मधुव्रताः ॥१॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-१२० Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्मिन् श्लोके भ्रमरकृतमञ्जुगुञ्जनादिवस्तुभिः स्वतः संभविभिः समीपसरोरुहोद्भवध्वननद्वारा शरदऋत्वागमनकालनैकट्यरूपं वस्तु व्यज्यते इति । (२) स्वतः संभविवस्तु व्यङ्गयालङ्कारः । तस्योदाहरणं यथा ---- मृद्विका रसिता सिता समशिता स्फीतं निपीतं पयः, स्वर्यातेन सुधाप्यधायि कतिधा रम्भाधरः खण्डितः । तस्त्वं ब्रूहि मदीय जीव ! भवता भूयो भवे भ्राम्यतः, वीरेत्यक्षरयोरयं मधुरिमो द्गारः क्वचिल्लक्षितः ॥ १ ॥ श्लोकेऽस्मिन् स्वतः संभविना बाह्यवस्तूनामुपभोगरूपवस्तुना अनेकजन्मतपोध्यानप्रमुखप्राप्य भगवन्नाम्नोऽतिशयोक्तिरलङ्कारो व्यज्यते इति । ( ३ ) स्वतः संभवि श्रलङ्कारव्यङ्ग्यवस्तु । तस्योदा - हरणं यथा नदन्ति मददन्तिनः परिलसन्ति वाजिव्रजाः, पठन्ति बिरुदावलीमहितमन्दिरे बन्दिनः । इदं तदवधि प्रभो ! यदवधि प्रवृद्धा न ते, युगान्तदहनोपमा नयनकोरशोरद्युतिः ॥ १ ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा - १२१ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र नेत्रकोणशोणद्युतेर्युगान्तदहनोपमया शत्रूणां सम्पत्तयो भस्मीभूतं भविष्यन्तीति वस्तु व्यज्यते । (४) स्वतः संभवि - अलङ्कारव्यङ्गयालङ्कारः । तस्योदाहरणं यथा उदितं मण्डलमिन्दोरुदितं सद्यो वियोगिवर्गेण । मुदितं च सकलललना - चूडामरिणशासनेन मदनेन ॥ १ ॥ - अस्मिन् श्लोके समुच्चयालङ्कारेण अतिशयोक्तिरलङ्कारो व्यज्यते । (५) कविप्रौढोक्तिसिद्धवस्तुव्यङ्गयवस्तु । तस्योदाहरणं यथा सज्जयति सुरभिमासो " न चार्ययति युवतिजनलक्ष्यशते । अभिनवसहकारमुखान् , नवपल्लवपत्तलान् श्रनङ्गस्य शरान् ॥ १ ॥ श्लोकेऽस्मिन् वसन्त इषुकारः, कामदेवो धानुष्कः, लक्ष्यं स्त्रियः, कुसुमानीषवः, इत्यादीनि वस्तूनि कविप्रौढोक्तिसिद्धानि । तैः प्रकाशीभवत्कामभोगक्रीडनरूपं वस्तु व्यज्यते इति । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १२२ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) कविप्रौढोक्तिसिद्धवस्तुव्यङ्गघालङ्कारः । तस्यो दाहरणं यथा रजनीषु विमलभानोः, करजालेन प्रकाशितं वीर ! धवलयति भुवनमण्डल मखिलं तव कीर्तिसन्ततिः सततम् ॥ १ ॥ अत्र कविप्रौढोक्तिसिद्धवस्तुना चन्द्रकलाजालादधिककीर्तिकलापस्येति कालप्रकाशितं व्यतिरेकालङ्कारो व्यज्यते इति । (७) कविप्रौढोक्तिसिद्धालङ्कारव्यङ्ग्यवस्तु । तस्यो - दाहरणं यथा देवाः के पूर्वदेवाः समिति मम नरः सन्ति के वा पुरस्तादेवं जल्पन्ति तावत् प्रतिभटपूतनावत्तनः क्षत्रवीराः । यावन्नायाति राजन् ! नयनविषयतामन्तकत्रासिमूर्ते ! मुग्धारिप्राणदुग्धाशनमसृणरुचिस्त्वत्कृपाणो भुजङ्गः ॥ १ ॥ अस्मिन् श्लोके कविप्रौढोक्तिसिद्धेन रूपकालङ्कारेण त्वय्युद्यतकृपाणे सति परेषां का जीवनस्याशेति वस्तु व्यज्यते इति । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १२३ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) कविप्रौढोक्तिसिद्धालङ्कारव्यङ्गयालङ्कारः । तस्योदाहरणं यथादयिते ! रदनत्विषां मिषा दयितेऽमी विलसन्ति केसराः । चालकवेषधारिणो मकरन्दस्पृहयालवोऽवलयः ॥१॥ अपि श्लोकेऽस्मिन् पूर्वोत्तरार्द्धवत्तिनीभ्यामपह नुतिभ्यां न त्वं कामिनी किन्तु नलिनीति तृतीयापह नुतिः व्यज्यते इति । (8) कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्धवस्तुव्यङ्गयवस्तु । तस्योदाहरणं यथाशिखरिणी क्व नु नाम कियच्चिरं, किमभिधानमसावकरोत् तपः ॥ सुमुखि ! येन तवाधरपाटलं , दशति बिम्बफलं शुकशावकः ॥१॥ अत्र कविनिबद्धस्य कामिनः प्रौढोक्तिसिद्धेन वस्तुना तवाधरः पुण्यातिशयलभ्य इति वस्तु व्यज्यते । (१०) कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्धवस्तुव्यङ्गयालङ्कारः । तस्योदाहरणं यथा साहित्यरत्नमञ्जूषा-१२४ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभगे ! कोटिसङ्घयत्व मुपेत्य मदनाशुगैः। वसन्ते पञ्चता त्यक्ता , पञ्चतासीद् वियोगिनाम् ॥ १॥ इह कामदेवशराणां कोटिसङ्घयत्वमुपेतत्वेन निखिलविरहिजनमरणरूप - कविनिबद्धवक्तृ - प्रौढोक्तिसिद्धवस्तुना शराणां पञ्चत्वं तान् विहाय वियोगिनं गतं किमिति उत्प्रेक्षालङ्कारः प्रतीयते । (११) कविनिबद्धवक्तप्रौढोक्तिसिद्धालङ्कारव्यङ्गयवस्तु । तस्योदाहरणं यथामल्लिकामुकुले चण्डि ! भाति गुञ्जन् मधुव्रतः । प्रयाणे पञ्चबारणस्य , शङ्खमापूरयन्निव ॥१॥ ___ अस्मिन् श्लोके कविनिबद्धवक्तप्रौढोक्तिसिद्धेन उत्प्रेक्षालङ्कारेण कामस्यायमुन्मादकः कालः समागतः तत् कथं मानिनि ? मानं न मुञ्चसीति वस्तु व्यज्यते । (१२) कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्धालङ्कारव्यङ्गयालङ्कारः । तस्योदाहरणं यथा साहित्यरत्नमञ्जूषा-१२५ । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महिलासहस्सभरिए तुह , हिए सुहन ! सा अमाअन्ती । अणुदिरणमणण्णकम्मा , ___ अङ्ग तुणुझं वि तणुएइ ॥१॥ श्लोकेऽस्मिन् कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्धहेत्वलङ्कारेण तनोस्तनूकरणेऽपि सा तव हृदये न वर्तते इति विशेषोक्तिरलङ्कारः प्रतीयते । ॥ इति अर्थशकत्युत्थस्य द्वादशप्रकाराः प्रतिपादिताः ।। शब्दार्थोभयशक्त्युत्थस्तु एक एव कथितः । यथाअतन्द्रचन्द्राभरणा, समुद्दीपितमन्मथा । तारकातरला श्यामा, सानन्दं न करोति कम् ॥ १॥ अत्र चन्द्र त्यादिशब्दा परिवृत्यसहिष्णव इति शब्दमालंब्य, अतन्द्राभरणेत्यादिशब्दा अनिद्रभूषणादिपर्यायान्तरैरपि तदर्थप्रतीतेः परिवृत्तिसहेत्यर्थमाश्रित्य, श्यामा रात्रिरिव श्यामा कामिनीति उपमा व्यङ्गय इत्युभयशक्त्युत्थः । एवं ध्वनिकाव्यस्यापि अष्टादशभेदाः सन्ति । एते सर्वेऽपि भेदाः पद-पदांशवाक्य-प्रबन्धप्रमुखगतत्वेन गणनातीता भवन्ति । विशेषार्थिना तन्निरूपणं साहित्याकरग्रन्थे द्रष्टव्यमिति । साहित्यरत्नमञ्जूषा-१२६ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयपरिच्छेदस्य सारांशः * नव्ये भव्ये सुकाव्ये तु, चमत्कारश्च कीदृशः । सर्वमेतद् विनिश्चेतु, नूतनं चेष्टितं मया ॥१॥ काव्ये कश्च चमत्कारः ?, प्राह्लादकत्वमीरितः । आह्लादकस्य संसृष्टी, रम्यता हितकारिणी ॥ २॥ चमत्कारो द्विधा काव्ये, शब्दार्थाभ्यां प्रवर्तते । शब्दैरथैः सुसंयुक्त -श्चात्मकृत्यं विराजते ॥३॥ अर्थकृत्वश्चमत्कारो, वाच्य व्यङ्गयार्थ - भेदतः। द्वधात्वं पुनरायाति, कोमले काव्य-सागरे ॥४॥ सुकवेः सरसं कर्म, काव्यतां लभते सदा । कीदग रसस्वरूपं स्यात्, इति भावैश्च भावितः ॥५॥ समाहृत्य च सद्भावान्, विदुषां वर्णितान् परान् । अयं सुशीलसूरिर्वं, तत् स्वरूपं न्यरूपयत् ॥ ६ ॥ सरसा रुचिरा वाणी, चमत्कार-विधायिनी । तृतीयेऽस्मिन् परिच्छेदे, सौकर्याय सुरिणता ॥ ७ ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-१२७ ।। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति श्रीशासनसम्राट्-सूरिचक्रचक्रवत्ति-तपोगच्छाधिपति-भारतीयभव्यविभूति - महाप्रभावशालि-अखण्डब्रह्मतेजोमूति-श्रीकदम्बगिरिप्रमुखानेकप्राचीनतीर्थोद्धारक-श्रीवलभीपुरनरेशाद्यनेकनृपतिप्रतिबोधक-चिरन्तनयुगप्रधानकल्प-वचनसिद्ध-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-प्रातःस्मरणीय-परमोपकारि-परमपूज्याचार्यमहाराजाधिराज श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वराणां दिव्यपट्टालंकार-साहित्यसम्राट्-व्याकरणवाचस्पति-शास्त्रविशारदकविरत्न - साधिकसप्तलक्षश्लोकप्रमाणनुतनसंस्कृत-साहित्यसर्जक - परमशासनप्रभावक - बालब्रह्मचारि - परमपूज्या - चार्यप्रवर श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वराणां प्रधानपट्टधरधर्मप्रभावक-शास्त्रविशारद - कविदिवाकर - स्याद्यन्तरत्नाकराद्यनेकग्रन्थकारक - बालब्रह्मचारि - परमपूज्याचार्यवर्य श्रीमद्विजयदक्षसूरीश्वराणां पट्टधर-जैनधर्मदिवाकर-शास्त्रविशारद - साहित्यरत्न - कविभूषण - बालब्रह्मचारि-श्रीमद्विजयसुशीलसूरि सन्दृब्धायां साहित्यरत्नमञ्जूषायां तृतीयः परिच्छेदः । साहित्यरत्नमञ्जूषा-१२८ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ चतुर्थः परिच्छेदः ॥ "गुणदोषादयश्च के" इति जिज्ञासायां गुणदोषादयो निरूप्यन्ते । तत्र काव्यलक्षणे निर्दिष्टानां गुणानां स्वरूपं वस्तु उपक्रमते । गुण्यन्तः इति गुणाः । यथा शरीरे शौर्यादयो गुणाः आत्मधर्माः तथैव काव्ये आत्मभूतस्याङ्गिनो रसस्य धर्मा गुणाः, शब्दार्थयोः परम्परया वर्तन्त इति परिष्कृता पन्थाः । गुरणस्य सामान्यलक्षरणम् ये रसस्याङ्गिनो धर्माः, शौर्यादय इवात्मनः । उत्कर्ष हेतवस्ते स्यु- रचलास्थितयो गुरगाः ॥ रसवृत्तित्वे सत्युत्कर्षहेतुत्वं गुणत्वम्, नाट्यशास्त्रे दशगुणाः प्रतिपादिताः । श्लेषः प्रसादसमता समाधि-र्माधुर्यमोजः पदसौकुमार्यम् । अर्थस्य च व्यक्तिरुदारता च, कान्तिश्च काव्यार्थगुरणा दर्शते ॥ साहित्य - साहित्यरत्नमञ्जूषा - १२६ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भोजराजेन श्रीसरस्वतीकण्ठाभरण - नामकग्रन्थे तु चतुर्विंशति गुणाः प्रतिपादिताः दशगुणाः नाट्यशास्त्रोक्ताः, इतरे तु एते उदात्तता औजित्यम् प्रेयः सुशब्दता सौम्यम्, गाम्भीर्यं विस्तरः संक्षेपः संमितत्त्वं भाविकम्, गतिः रीतिः उक्तिः प्रौढिः । एते गुणाः शब्दार्थयो एव, काव्यप्रकाशादिषु रसधर्मागुणा उक्ताः । ते च माधुर्यम् ओजः प्रसाद इति त्रय एव स्वीकृताः, न तु पुनर्दश चतुर्विंशतिर्वा । एषां व्यञ्जिका रचना रचनापवादश्च दशितः कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्येगापि, एतदेव मतमधुना सक्रियते, प्रोक्तषु दशगुणेषु श्रीमद्भोजराजोक्तगुणानां अन्तर्भावः । ____ दशगुणेषु केषाञ्चिच्च माधुयौंजः प्रसादेष्वन्तर्भावः । केचिच्च दोषाभावरूपाः । यथा-श्लेषः समाधि प्रौदार्यम् प्रसादः ओजश्चैते, माधुर्यं माधुर्य, अर्थव्यक्तिः प्रसादे चान्तर्गताः ग्राम्यदोषाभावः कान्तिः श्रुतकटुदोषाभावः सुकुमारता समता च क्वापि दोषः, क्वापि चास्या उक्तो गुणान्तर्भावः । अर्थगुणेषु प्रोजः प्रसादमाधुर्य-सौकुमार्योदारता गुणाः अपुष्टार्थाधिकपदानवीकृता मङ्गलरूपाश्लीलग्राम्यदोषाभावरूपाः अर्थव्यक्तिः स्वभावोक्तिरलङ्कारे, कान्तिश्च साहित्यरत्नमञ्जूषा-१३० Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसध्वनि-गुणीभूत-व्यंग्यादावान्तर्गतौ श्लेष-समाधौ वैचित्र्यमात्रद्यौतको समता च दोषाभावरूपता। वेदान्तेऽपि व्यावहारिकस्यात्मनः सगुणत्वम् । अत एव न्याये वैशेषिके चात्मनो गुणा इच्छादेवादयः स्वीक्रियन्ते । गुणानां रसधर्मत्वाभाव - स्वीकारे च गुणालङ्कारयोर्मदको हेतुरपि नावशिष्यते । द्वयोरेव काव्योत्कर्षाध्यापकत्वात् गुणाःरसधर्मा एव । • संक्षेपेण काठिन्यादिपरित्यागपूर्वकानन्दोबोधेन सहृदयाताजनकत्वम् माधुर्यम् (?), तच्च शृङ्गारे करुणे शान्ते च क्रमादतिशयमावहति । माधुर्य-व्यञ्जकाःअग्रे वर्गान्त्यवर्णयुक्ता वर्णाः, ट ठ ड ढ वजिताः, ह्रस्वस्वरयुक्तौ रेफणकारौ, अल्पसमासाः, ललितमृदुरचनादयः । आह्लादकत्वं माधुर्यशृङ्गारे द्रुतिकारकम् । शृङ्गारे करुणे शान्ते वा अनुभवसिद्धमेवाह्लादजनकत्वं माधुर्यम् । श्राह्लादातिरिक्तस्य द्रवीभावस्य निर्ववतुमशकयतया आह्लाद एव पर्यवसानम् । एवं च शृङ्गारकरुण-शान्तरसोद्बोधनान्तरं जायमानो रत्याद्यविषयकः सहृदयद्रवीभावरूपः केवलानन्दसन्दोहानुभवो माधुर्यं तस्य जनकता-सम्बन्धेन रस सम्बन्धितया रसधर्मत्वमक्षतमेवेति भावः । साहित्यरत्नमञ्जूषा-१३१ । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केषाञ्चित् तु रतिशोकप्रशमेषु गुर्जर्यादिरागवृत्तिरिव कश्चिदेको धर्मोऽस्ति । स एव माधुर्यं तेन सामाजिकानां चित्तं द्रवीभवति । रत्यादीनां रसरूपतया परिरणामेन तस्य रसवृत्तित्वं इति वदन्ति । तन्न । तत्र तादृश धर्मसत्त्वे मानाभावात् । न च दुतिरुपकार्यान्वयानुपपत्या तत् कल्पनं इति वाच्यम् । गुर्जर्यादौ तु प्रत्यक्षसिद्ध एव तादृशधर्मः । अन्ये तु 'सुश्रवत्वमेव माधुर्यं काव्यधर्मः' संभोगापेक्षया करुणे तदपेक्षया विप्रलम्भे, तदपेक्षया शान्तेऽधिकम् । शृंगारे माधुर्यं यथा 1 लता कुञ्जं गुञ्जन् मदवदलिपुञ्जं चपलयन् समालिङ्गन्नङ्गः द्रुततरमनङ्गः प्रबलयन् । मरुन्मन्दं मन्दं दलितमरविन्दं तरलयन्, रजोवृन्दं विन्दन् किरति मकरन्दं दिशि दिशि ॥ १ ॥ लतापदं सुरभि पुष्पलता बोधकतया सार्थक्यम् । आवृत्तेर्माधुर्यव्यञ्जकत्वं यथा मुद्रितामिन्दुमालोकय, पद्मिनीं पश्य सुन्दरि । दन्तकान्तस्य विच्छेदे, मधुरोऽपि न रोचते ॥ सोहित्यरत्नमञ्जूषा - १३२ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकुमारार्थ प्रतिपादकरचनाया माधुर्यं व्यञ्जकत्वं यथा उचितं गोपनमनयोः स्तनयोः कनकाद्रिधर्मतस्करयोः । अवमानित विधुमण्डल मुखमण्डलगोपनं किमिति ॥ - करुणे यथा गृहिणीसचिवः सखा मिथः प्रियशिक्षाललिते कलाविधौ । करुणाविमुखेन मृत्युना हरता त्वं वद किं न मे हृतम् ॥ १ ॥ शान्ते यथा यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं, निर्मापित स्त्रिभुवनं कललामभूत ! तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां, यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति ॥ १२ ॥ [ इति श्रीमानतुङ्गसूरीश्वरविरचिते श्रीभक्तामर स्तोत्रे प्रोक्तमिदम् ] माधुर्याभावो यथा कुण्ठोत्कण्ठया पूर्ण माकण्ठं कलकण्ठि ! माम् । कम्बुकण्ठ्याः क्षणं कण्ठे कुरु कण्ठातिमुद्धर ॥ माधुर्य प्रतिकूल - टवर्गीयवर्णाभिसम्बन्धान्न अत्र माधुर्यम् । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १३३ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओजः चित्तस्य विस्तारकं दीप्यत्वमुच्यते । चित्तोत्साह - पूर्वकदीप्तिजनकं श्रोजः । एतद् वीररसे बीभत्से ततश्च रौद्ररसेऽतिशयित्वमाप्नोति । वर्गस्याद्य तृतीयाभ्यां युक्तौ वरणौ तदन्तिमौ । उपर्यधो द्वयोर्वा सरेफौ ट ठ ड ढैः सह । षकारश्च षकारश्च तस्य व्यञ्जकतां गताः । उत्साहाद्याकारानुविद्ध चमत्कारोद्बोधेन भूयमान उत्साहाद्यविषयक चमत्कारोद्बोधः प्रजः । वीरापेक्षया बीभत्से तदपेक्षया रौद्रे प्रोजस प्राधिकयम् अतिशयः । रौद्रवीरे च निष्प्रतिभटमोजः, बीभत्सेतु माधुर्य लेशानुविद्धम्, हास्याद्भुतभयानकेषु द्वयोः समावेशो ध्वनिसिद्धान्त-संग्रहोक्तरीत्या ज्ञेय । एतन्मते बीभत्सापेक्षया रौद्रवीरयोरोजस प्राधिक्यम् । औद्धत्यशालिनी डम्बरा, सा च संयुक्त वर्णबाहुल्येन भवति चञ्चदिति व्याख्यातमिदम् । समासबाहुल्यडम्बरबन्धयोः प्रोजो व्यञ्जकत्वं वर्गस्यादीत्युक्तवर्णस्य । यथा अनेन च्छिन्दता मातुः कण्ठं परशुना तव । बद्धस्वर्घः कृपारणोऽयं, लज्जते मम भार्गव ! ॥ अत्र तृतीयपादे दकारयुक्तौ धकारौ प्रोजो व्यञ्जकौ । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १३४ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "विरुद्ध प्रौढविक्रमः" इत्यत्रासंसक्तौ ठकारौ । वस्तुतस्तु माधुर्यव्यञ्जककारिका वर्णान्तरसंयुक्ता द्वित्रा, अन्येऽपि वर्णा प्रोजो व्यञ्जकाः । यथा समरे भाति संरम्भादुद्यद्दिनकर द्युतिः । हुताश - कुण्डसंकाश लोचनो नृप - पुङ्गवः ॥ अत्र द्वितीयपादे संयुक्तवर्णत्रयमोजो व्यञ्जकम् । ओजो व्यञ्जकाक्षर घटित - बहुतरपदसमासस्तादृशाक्षरसन्दोहघटितो बन्धश्च प्रोजोऽतिशयव्यञ्जकौ । दीप्त - वह्निचयोद्दीप्तनेत्रापीतद्विषद्वलः, चण्डध्वानपरिध्वस्त हस्तिदानोऽस्त्यसौ युधि । प्रज्ज्वलज्वले - क्षरणः, उद्यद्दिनकरवक्रः, भागवो नृपवर्णस्य, मृत्युरेष धुटि स्थितः ॥ - अन्यत्रापि यथा - वीरे , मूर्ध्नामुद्वृत्तकृत्ताविरलगलगलद्रक्तसंसक्तधारा धौतेशांह्निप्रसादोपनतजयजगज्जातमिथ्यामहिम्नाम् । कैलासोल्लासनेच्छा व्यतिकरपिशुनोत्सर्पिदर्पाद्धराणां, दोष्णां चैषां किमेतत् फलमिह नगरीरक्षणे यत् प्रयासः ॥ बीभत्से - उत्कृत्योत्कृत्तिमित्यादि साहित्यरत्नमञ्जूषा - १३५ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रौद्ररसे चञ्चद्भुजभ्रमितचण्डगदाभिघातसंचूणितोरुयुगलस्य सुयोधनस्य । स्त्यानावनद्धघनशोणितशोणपारिणरुत्तसयिष्यति कचांस्तवदेवि ! भीमः ॥१॥ न पुनरेवं यथादेशः सोऽयमरातिशोरिणतजलैर्यस्मिन् हृदाः पूरिताः , क्षत्रादेव तथाविधः परिभवस्तातस्य केशग्रहः । तान्येवाहितशस्त्रघस्मरगुरूण्यस्त्राणि भास्वन्ति नो, यद्रामेण कृतं तदेव कुरुते द्रोणात्मजः कोधनः ॥१॥ अत्र प्रोजसोऽनुकूलवर्णरचनासमासानां अभावेन न प्रोजः । • समस्तेषु रसेषु रचनासु च यः शुष्कन्धनं अनलः इव क्षिप्रं चित्तं व्याप्नोति सः प्रसादः। श्रुतिमात्रतः अर्थबोधकाः शब्दाः व्यञ्जकाः भवन्ति । यस्मात् कारणात् सूक्तस्य काव्यस्यान्तःस्थितोऽन्तर्गतः सकलः अर्थः सलिलस्यान्तःस्थितः सर्वोऽर्थः पदार्थ इव स्वयमेवावभासतेप्रकाशते स प्रसादः प्राचीनः कथितः । यथा स्वच्छजले साहित्यरत्नमञ्जूषा-१३६ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऽन्तर्गतं वस्तु बहिर्दृश्यते, तथैव कवेरभिमतार्थस्य यत्र स्वयमेव प्रकाशनं जायते तत्र प्रसादस्य भावेति । काव्यप्रकाशादिरसधर्मतावादिनां मते -- अर्थो रसः तदवभासकत्वं प्रसादत्वम् । शब्दार्थनिष्ठतः त्वौपचारिकी प्रसादस्य शब्दार्थयोः रसव्यञ्जकत्वात् । काव्यप्रकाशे प्रसादलक्षणं त्वेतत्- शुष्केन्धनाग्निवत् स्वच्छ जलवत्सह सैव यः । व्याप्नोत्यन्यत्प्रसादोऽसौ, सर्वत्र विहित स्थितिः ॥ अर्थात्-वस्त्रे यथा निर्मलजलं, शुष्केन्धने यथा वह्निः, तथा चेतसि योऽविलम्बेन प्रसरति स प्रसादः । अन्यच्चापि कथयति एवम् -- समर्पकत्वं काव्यस्य, यतः स प्रसादो गुरणो ज्ञ ेयः, सर्वरसान् प्रति । सर्वसाधारणत्रियः ॥ अर्थात् -- यदा विकासाख्यचित्तवृत्तिसमुत्पादकः प्रसादो वीर - रौद्रादिषु चित्तं व्याप्नोति तदा शुष्केन्धनाग्निवत्, यदा च शृङ्गार-करुरणादिषु चित्तं व्याप्नोति तदा विमलजलवत् सः ज्ञेयः । श्रवणमात्रेणार्थबोधजनकैर्वर्णरचना समासैरयं व्यज्यते । रसमात्रसाधारणोऽयं गुणः । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १३७ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथादातारो यदि कल्पशाखिभिरलं यथिनः किं तृणैः , सन्तश्चेदमूतेन कि यदि खलास्तत् कालकूटेन किम् । किं कर्पूरशलाकया यदि दृशोः पन्थानमेति प्रिया , संसारेऽपि सतीन्द्रजालमपरं यद्यस्ति तेनापि किम् ॥ १ ॥ केचित्तु कथयति एवम्श्लेषः१ प्रसादः२ समता३, माधुर्यं४ सुकुमारता५ । अर्थव्यक्ति६ रुदारत्व-७ मोजः८ कान्तिः समाधयः१०॥ इति दशगुणान् मन्यन्ते साक्षराः, तथाऽपि तेषामुपयुक्तगुणत्रयेऽन्तर्भावान्नातिरिक्तत्वम् । तद्यथा___माधुर्ये कान्तिः सौकुमार्य च, प्रोजसि श्लेषः समाधिरुदारता च, तथा प्रसादे अर्थव्यक्तिः समता चेति । यद् प्रोक्तमिदम्माधुयमोजः प्रसादाख्यास्त्रयस्ते न पुनर्दश । केचिदन्तर्भवन्त्येषु दोषत्यागात् परे स्थिताः । समतामाह अल्पश्चासौ समासः तस्य भावस्तत्त्वं दीर्घसमासा साहित्यरत्नमञ्जूषा-१३८ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावः समता। या वर्णाद्यवर्णादिसंख्यासामान्येन पदादितुल्यता वा समता । यथोदाहरणम् श्यामला कोमला बाला, रमरणं शरणं गता ॥ श्यामा यौवनमध्यस्था सैव श्यामला कोमला सुकुमाराङ्गी बाला नवोढा शरणं रक्षकं रमणं पतिं गता प्राप्ता। कामपीडिता भानं परित्यज्य तं प्राप्नोति इति भावः । अत्र दीर्घसमासाभावः श्यामला, कोमला, रमणं, शरणमिति पदचतुष्टये व्यक्षरत्वेन बाला गतेति पदद्वये द्वयक्षरत्वेन पदतुल्यता श्यामलेति प्रथमपादे आकारवर्णसाम्येन रमणमिति द्वितीयपादे अकारवर्ण - साम्येन च तुल्यता। समाधि लसन् प्रकाशमानो घनो निबिडश्चासौ रसश्चेति लसन्-घनरसः स एवात्मा स्वरूपं यस्य स तेन । अन्तर्विशता चेतोविशता येनार्थेन सतां सहृदयानां गात्रं शरीरम् । अङ्कुरितं रोमाञ्चितं स्यात् सोऽर्थमहिमाऽर्थचमत्कारः समाधि । “अर्थदृष्टिः समाधिः" साहित्यरत्नमञ्जूषा-१३६ । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसव्यञ्जक-चमत्कृतार्थत्वं समाधित्वम् । अत्र रसपदं ध्वन्यलङ्कारादीनां उपलक्षणम् । येनायं भावो यद् येनार्थेन सहृदयानां चमत्कारः स्यात् सोऽर्थः समाधिः । यत्र च चेतनप्रवेशेन रोमाञ्चितगात्रादि चमत्कृत कृतार्थव्यञ्जकत्वमिति भावः । माधुर्यम् पुनरुक्तपदस्य रमणीयताजनकं द्रुतिजनकमिति । विचित्रता स्याद् तदा माधुर्यं भवति वा रमणीयता - संवलितविचित्रताजनकं पुनरुक्तपदत्वं माधुर्यं भवति, तेन माधुर्यं तु उक्तस्य कथितस्य चारुतावहं चित्तद्रवीभावजनक वैचित्र्यमिति । संक्षेपतः "चित्तद्रवीभावमयोह्लादो माधुर्यमुच्यते इति साहित्यदर्पणे उक्तम् । काव्यप्रकाशे तु द्रवीभावजनकाह्लादो माधुर्यमित्युक्तम्, शृङ्गारादिरसे चित्तद्रवीभावो माधुर्यमित्यर्थः । । इदं संयोगशृङ्गारे करुणे, विप्रलम्भे शान्ते च क्रमशोऽधिकं वर्त्तते । तस्योदाहरणं यथा वपस्य पश्य पश्यास्याश्चञ्चलं लोचनाञ्चलम् । अत्र पश्य, पश्य, विलोक्य पुनरुक्तपदस्य चारुता प्रतीतिर्भवति । साहित्यरत्नमञ्जुषा - १४० Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोजःयथा साहित्यदर्परणकम् प्रोजश्चित्तस्य विस्तार-रूपं दीप्तत्वमुच्यते । वीर बीभत्सरौद्रेषु, क्रमेणाधिवयमस्य तु ॥ चन्द्रालोके तु प्रोजः स्यात् प्रौढिरर्थस्य, संक्षेपो वाऽतिभूयसः । रिपुं हत्वा यशः कृत्वा, त्वदसिः कोशनाविशत् ।। अर्थगतः प्रोजो भवति वा अतिभूयसो महतोऽर्थस्य संक्षेपः संकोचः शाब्द प्रोजो गुणः । साहित्यदर्पणे--प्रोजो लक्षणमुक्त्वाऽस्य व्यञ्जिकारचने यं प्रतिपादिता वर्गस्याद्यतृतीयाभ्यां, युक्तौ वौं तदन्तिमौ । उपर्यधो द्वयोर्वा स रेफो टठडद्वैः सह ॥ १॥ शकारश्च सकारश्च, तस्य व्यञ्जकतां गताः। . तया समासो बहुला, घटनौदृत्य-शालिनी ॥ २ ॥ उदाहरणे रिपु....त्वदसिस्तव खड्गः शत्रु हत्वा कीत्ति कृत्वा कोशं प्रविवेश । साहित्यरत्नमञ्जूषा-१४१ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र कारणभूतस्य रिपुहननकर्तृत्वानाश्रयस्य खड्गस्य रिपुहननकर्तृत्वाश्रयरूपेण वर्णनादर्थगत प्रोजः । सौकुमार्यम्____ शब्दान्तरस्य परिवर्तनाद् विनिमयाद् वा हेतोः परुषवर्णाभावः सौकुमार्यम्, अमङ्गलशब्दपरित्यागेन तत् पर्यायवाचिशब्दप्रयोगः सौकुमार्यमिति भावः । अमङ्गलजनकाश्लीलत्वाभावो यत्र तत्र सौकुमार्यम् । यथा-स पुरुषः मरुत्सखं समालिङ्गय कथाशेषतां यातः । अत्र 'अग्नौ प्रविश्य मृतः' इति भावः, किन्तु अमङ्गलशब्दस्याभावरूपेण पर्यायपदान्तरैवर्णनं कृतम् । उदारता विदग्धप्रयोज्यत्वमुदारता, सा च न ग्राम्यदोषा भावरूपा अपि ग्राम्यदोषाभावात् । वामनस्य मते "अविकटत्वमुदारता" पदानां नृत्यत्प्रायत्वं चाविकटत्वमुदारता । अविकटत्वं प्रोजस्यान्तर्गतं काव्यप्रकाशादि मते । व्यङ्गयार्थप्रत्यायकत्वं उदारता इति दण्डी व्याचष्टे । वामनोक्तदशगुणान्तर्गतयोः कान्त्यर्थव्यक्तिगुणयोः काचिदन्तर्भावं दर्शयति--शृङ्गारे चेति । कान्तिश्चार्थ साहित्यरत्नमञ्जूषा-१४२ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तिश्चेति कान्त्यर्थव्यक्ती तयोः संग्रहः क्रमेण शृङ्गारे प्रसादे च भवति शृङ्गारे कान्तिः प्रसादे चार्थव्यक्तिरन्तर्गतेति भावः । ननु वामनेन दीप्तरसत्वं कान्तिरिति व्याहत्य 'प्रेयान्सायमपाकृतः सशपथं पदानतः कान्तया' इत्याद्य दाहृतम् । तत्रैष्यौत्सुक्यानुभावस्य दीप्तेवर्णनं न तु शृंगारदीप्तिरिति । अनुभाववर्णनस्य शृंगारवर्णनाभिन्नत्वम् । गुणसंख्यामुपसंहरति अमीति पुंसि यथा शौर्यादयो गुणाः वर्तन्ते तथैव काव्ये, अमी पूर्वोक्ता गुणाः श्लेषप्रासादयो दशैव वर्तन्ते । दशगुणा वामनस्य मते स्वाभिमतास्त्वष्टावेव । यथा श्लेषः प्रसादः समता, समाधिः, माधुर्यम्, प्रोजः, सौकुमार्यम्, उदारतेति । सरस्वतीकप्ठाभरणोक्तचतुर्विंशतिगुणानामत्रैवान्तर्भावः । ॥ इति गुणनिरूपणं प्रोक्तम् ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-१४३ .. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ दोषनिरूपणम् ॥ काव्यस्य शब्दार्थों शरीरम् रस आत्मा, गुणाः शौर्यादयः कटक - कुण्डलादि श्राभूषणाः । यथा कामिन्याः वपुर्विशेषमलङ्करोति तथैव अलङ्काराः काव्यस्य रीतयो - वयवसंस्थानवत् दोषाः कारणत्वादिवत् भवति । अन्यच्च कथितं येन चेतः प्रविष्टेन काव्यस्य रमणीयतोद्देश्य प्रत्यायकत्वलक्षरणा सुन्दरतानाशेन सक्षता सप्रतिबन्धा स्यात् । यत् सत् तयोद्देश्यप्रतीतिविघातो भवेत् दोषः इति तात्पर्यम् । काव्यस्य शब्दार्थों शरीरं भवति, आत्मा रसः, शौर्यादयः गुणाः, तथैव कारणत्वादिवत् अपकर्षकाः दोषाः भवन्ति । संस्थानसमा रीति, आभूषणसमाऽलङ्काराः ज्ञातव्याः । रसानां अपकर्षहेतवः ये सन्ति ते दोषाः । ते च त्रिधा शब्ददोषार्थदोषरसदोषभेदात् । विस्तरेण शब्दे वाचके अर्थे वाच्ये च कृतो उन्मेषः प्रादुर्भावो येन स तं शब्दार्थोभयनिष्ठमिति । यावत् तं रमणीयता विघातकं साहित्यरत्नमञ्जूषा - १४४ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोषं काव्यदूषणमुद्घोषयन्ति विद्वान्सः । स चायं दोषः द्विविधः नित्योऽनित्यश्च । तत्र प्रकारान्तरेणापि समाधातुमशकयो नित्यः । यथा च्युतसंस्कृत्यादिः एतद् विपरीतस्त्वन्यः । यथा ग्राम्यत्वादिः अभिभूतोऽर्थे अभिधेयो यस्मिन् स तादृशो दोष इति यावत् । रागे वक्तव्ये लोहितादिशब्दमपहाय रुधिरार्थवाचकशोरिणतादि पदप्रयोगे निहतार्थदोषसत्ता, यतो हि शोणित - पदस्य रुधिरे प्रसिद्धार्थता रागे त्वप्रसिद्धार्थता इति दोषः । उभयार्थशब्दत्वे सत्यप्रसिद्धार्थ प्रयोजकतृत्वं निहतार्थित्वम् । असमर्थे त्वर्थानुपस्थितिरत्र द्वितीयार्थस्य विरलप्रयोगतया विलम्बेन अर्थप्रयोगः । प्रकृते यच्छब्दस्यानुपयोगित्वम्= तन्निरर्थकत्वम् । यथा उत्फुल्लकमल के सरपरागगौरद्युते मम हि गौरि ! अभिवाञ्छितं प्रसितु भगवति ! युष्मत् प्रसादेन । अत्र 'हि' शब्दो अनुपयोगी। पूरणमेवैकं मुख्यं प्रयोजनं यस्मिन् तत् तादृशः पादाक्षरभरणमात्रफलकम् । निर्गतोऽर्थः प्रयोजनं यस्मात् तन्निरर्थकं नाम दूषणं भवति । यत्र श्लोके पादाक्षरपूर्तीच्छया 'तु' हि पदानि विनिवेश्यन्ते । यथा " मुञ्च मानं हि मानिनि" अत्र हि शब्दः निरर्थकः । निरर्थकपदयुक्त वचसि सहृदयानां वैमुख्यम् । साहित्य - १० साहित्यरत्नमञ्जूषा - १४५ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणशास्त्रादिलक्षणरहितं निर्लक्षरणम् यथा दिशि मन्दायते तेजो, दक्षिणस्यां रवेरपि । तस्यामेव रघोः पाण्डयाः, प्रतापं न विहिरे ॥ अत्र "पाण्डया" इति न सम्भवति बहुवचने तद्धित-प्रत्यय लोपात् इति व्याकरणदूषितम् । अनुचितार्थम् यत् पदं अयोग्यार्थपदं प्रकटयति, तदनुचितार्थबोधक पदं तदेवानुचितार्थदोषाख्यमाहुः । उदाहरणं यथा-"इयमद्भुतशाख्यग्रकेलिकौतुकवानरी" (चन्द्रालोके) अवाचकम् "अभिमतार्थप्रतिपादनासमर्थम् अवाचकम्" । यथाउद्गर्जज्जलकुञ्जरेन्द्ररभसास्फालानुबन्धोद्धतः । सर्वाः पर्वतकन्दरोदरभुवः कुर्वन् प्रतिध्वानिनीः। उच्चरुच्चरति ध्वनिः श्रुतिपथोन्माथी यथायं तथा , प्रायः प्रेसदसङ्घयशङ्खधवला वेलेयमागच्छति ॥१॥ अत्र ध्वनिशब्दो गीतप्रमुखध्वनिषु प्रसिद्धः, समुद्रे तु साहित्यरत्नमञ्जूषा-१४६ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्जितमेव, अतो ध्वनिशब्दो समुद्रजशब्देऽशक्तः तदर्थबोधेऽसमर्थः । विदधदित्यादौ कुर्वदित्यादावर्थेऽभिधिये यद् दधद् प्राद्यं यस्मिन् - तत् पदं दधदाधम् । यदुपसर्गसम्बन्धेन यो धातुः यादृशार्थबोधकः तदुपसर्गादिविनैव तादृशार्थबोधकतया तस्य धातोः प्रयोगेऽवाचकदोषः । विवक्षितार्थ द्योतकोपसर्गादि- सम्बन्धाभावेऽपि तत् सम्बन्धजन्यार्थ - प्रतिपादकतया तत् प्रयुक्तत्वं प्रवाचकत्वम् । यथा इति "डुधाञ् धारण-पोषणयोः" इति धातु व्युपसर्गसहित एव करणार्थे वर्त्तते । नान्यथा, यदि धा धातोः करणार्थे प्रयोगः इष्यते तदा व्युपसर्गसहितस्यैव प्रयोगः [ विधत्ते ] इत्यादि । वि-उपसर्ग रहितस्य तु न । तस्य धारणार्थकत्वात् । यदि धारणार्थकस्य वि उपसर्ग - रहितस्य धा धातोः करणार्थे प्रयोगः स्यात् तदाऽवाचकदोषः जायते । "ते नभस्तलं सूर्यः प्ररुणं प्रखरैः करैः । " 1 " अश्लीलम् " 'असभ्यार्थान्तरव्यञ्जकत्वं अश्लीलम् श्रथवा मनोवैकल्यजनकं अश्लीलम् । यथा " मनीषिताः सन्ति गृहेऽपि देवतास्तपः क्व वत्से ! च तावकं वपुः । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १४७ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं, शिरीषपुष्पं न पुनः पतत्रिणः ॥१॥" अत्र "पेलव" शब्दस्य अतिशयेन कोमलत्वं व्यञ्ज्यते । किन्तु पेलवः शब्दः अश्लीलस्याऽर्थे प्रसिद्धः । अन्यच्च-न श्लीलः अश्लीलः व्रीडा, जुगुप्सा, घृणा, अमङ्गलं अशुभमात्मास्वरूपं यस्य तेन । अर्थात् ब्रीडाजनकतया जुगुप्साजनकतया अभद्रतया चाऽश्लीलस्य भेदत्रयम् । "प्रियानाशे भवेत् वायुः, कथं आह्लादसाधनम्" । अत्र आह्लादसाधने 'उपस्थ' शब्दस्याश्लीलत्वं व्रीडाजनकं भवति । वायोः अपानवायुप्रतीत्या जुगुप्साजनकम् 'प्रियानाशे' अस्मिन् पदे अमङ्गलस्य प्रतीतिः । किन्तु शिवलिङ्गः, सुभगा, भगिनी, ब्रह्माण्डादिशब्दानां लोके नाश्लीलतया प्रतीतिः, तेषां प्रयोगे न दोषः । नेयार्थम् यत्र परम्परयाऽर्थो ज्ञायतेऽनुभूयते वा लक्षणाया लक्षणवृत्या अत्यन्तप्रसरादाधिक्याद्यय मनोहरत्वं नेयार्थत्वम् अथवा नेयः स्वकल्पनयान्यथा प्राप्यौऽर्थोऽभिधेयो यस्मिन् तत् पदं नेयार्थम् । अन्यच्च सति मुख्यार्थबाधे सति च रूढिप्रयोजनान्यतरहेतौ लक्षणावकाशो भवति यत्र नेयार्थम् । सोहित्यरत्नमञ्जूषा-१४८ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेयार्थस्य द्वौ भेदौ । यत्र च रूढिप्रयोजनान्यतरहेतु विनैव लक्षणा क्रियते तत्राद्यः, द्वितीयश्च लक्षणाप्रयोगाधिक्ये भवति । यथोदाहरणम् नवकुमुदवनश्रीहासकेलिप्रसङ्गादधिकरुचिरशेषा-मप्युषां जागरित्वा । अयमपरदिशोक मुञ्चति स्रस्तहस्तः । शिशयिषुरिव पाण्डुर्लानमात्मानमिन्दु : ॥१॥ अत्र 'हस्तः' शब्दः करं बोधयति, तेन च किरणाः लक्ष्यन्ते इति नेयार्थम् । अन्यच्च "हिमांशोऱ्यारादधिका, जागरे यामिकाः कराः।" अत्र चन्द्रकिरणेभ्योऽप्यधिका कामिनी- मुक्ताहारशोभासीदिति । अत्र लक्षणाया-पाधिक्यं स्पष्टमिति । ग्राम्यत्वम् अविदुषो वचनं ग्राम्यम् । अन्यच्च"स ग्राम्योऽर्थोरिरंसादिः, पामरैर्यत्र कथ्यते । वैदग्ध्यवत् किमबलं, हित्वैव वनितादिषु ॥" अत्र सहृदयवैमुख्यं दूषकताबीजं बोध्यते । अनित्योऽयं दोषः । साहित्यरत्नमञ्जूषा-१४६ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा " ताम्बूलभृतगल्लोऽयं, भल्लं जल्पति मानवः । करोति खादनं पानं, सदैव तु येन्या तथा ॥ " अत्र 'गल्ल' 'भल्ल' शब्दौ ग्राम्यत्वबोधकौ । अन्यच्च - 'ते कटि हरते मनः' अर्थात् - तव कटि मे मनः हरते । त्रापि सहृदयवैमुख्यं जायते । अथवा 'एकं मे चुम्बनं देहि तव दास्यामि कञ्चुकम्' । अत्र 'चुम्बनं ' ग्राम्यत्व जनकं वर्त्तते, अतः ग्राम्यत्वदोषः । सन्दिग्धम् अर्थद्वयभासमानेन संशयात्मकं भवति यत् तत् सन्दिग्धमिति' । यत्र काव्ये द्वावर्थों भवति तथा अर्थं संशयात्मकं भवति । एतादृशं पदं संदिग्धाख्यं भवति । सन्दिग्धस्य अन्यं लक्षणं द्वयर्थमिति - उपलक्षम् । तेनानेकार्थकपदोपादानेऽपि संदिग्धाख्यो दोषः स्यादेव । सं पूर्वकाद् 'दिह उपचये' धातोर्भावे क्त प्रत्ययः । अन्यच्च अनेक कोटयवलम्बितार्थबोधकत्वं सन्दिग्धत्वम् । उदाहरणं यथा श्रालिङ्गितस्तत्रभवान्, सम्पराये जयश्रिया । आशीः परम्परां वन्द्यां कर्णे कृत्वा कृपां कुरु ॥ , साहित्यरत्न मञ्जूषा - १५० Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र बवयोः ऐकयात् वन्द्यां वन्दनीयां वा इति अथ - " द्वय प्रतिभासः । अतः संदिग्धमिति । श्रन्यच्च - " नद्यां यान्ति पतत्रिणः " । पतन्तं अधोगच्छन्तं त्रायत इति पतत्रं पक्षः तदेषा - मस्तीति पतत्रिणः पक्षिणः नद्यो सीरति यान्ति गच्छन्ति । अत्र 'नद्यो' इति पदं नदीप्रदेशे गच्छन्ति, द्यो स्वर्गं न गच्छन्ति इत्यर्थद्वयप्रतिपादकमिति । अत्र संदिग्धदोषम् । नद्यो इति पदं सरित् पक्षे सपृभ्यन्तं स्वर्गार्थपक्षे द्वितीयान्तं भवति । अत्र द्वयात्मकविपत्ति सन्देहे 'किं ग्राह्यम् किं न ?' इति सन्देहमुत्पादयति । अतः सन्दिग्धदोषं अत्र भवतीति । श्रुतिकटुत्वम् * परुषवर्णतया व्यवहितं श्रुतिकटुत्वम् । यथाउत्खातप्रखरा सुखासुखसखी खड्गा सिता खेलगा वैशृङ्खल्यखलोकृताखिलखला खे (खा ) त्खेटकैः ख्यापिताः । खेटादुत्खनितु निखर्वमनसां मौर्यं मुखात् खक्खटं निःसंख्यान्यनिखर्व सर्व मरिणभूराख्यातु सङ्ख्यानि वः ॥ १ ॥ , क्लिष्टत्वम् यदीयोऽर्थः श्रर्थश्रेण्या निःश्रेणि इच्छति तत् क्लिष्टम् । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १५१ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यच्च अर्थपरम्परया स्वल्पतात् पर्यार्थकप्रत्यायकत्वं क्लिष्टत्वम् । यथा- "हरिप्रिया पितृवधूप्रवाहप्रतिभं वचः"। हरेः प्रियाःलक्ष्मीःतस्याः पिता समुद्रः तस्य वधूः गङ्गा तस्याः प्रवाहप्रतिभं प्रवाहतुल्यं ते तव वचः अस्ति । अर्थात्- गङ्गाप्रवाहसदृशं ते वचः अस्ति । अत्र समस्तपदगतो दोषः । अन्यच्च कष्टत्वं यत्र वाचि न सम्यग् भासते वा दुःखबोधत्वं यत्र वर्त्तते । यथा सदा मध्ये या साममृतरसनिष्पन्दसरसं , सरस्वत्युद्दामा वहति बहुमायां परिमलम् । प्रसादं ता एता घनपरिचयाः केन महतां, , महाकाव्यव्योम्नि स्फुरितरुचिरायां तु रुचयः ॥१॥ या सा कविरुचीनां प्रतिभास्वरूपाणां प्रभाणां मध्ये बहुमार्गा सुकुमारविचित्रमध्यमात्मक त्रिमार्गा सरस्वती भारती परिमलं चमत्कारं वहति । ताः कविरुचयो महाकाव्यव्योम्नि सर्गबन्धलक्षणे परिचयमागताः । अपुष्टः अपुष्टोऽर्थो यस्मिस्तदपुष्टार्थदूषणं भवति । मुख्यानुपकारकविशेषणोपादानत्वमपुष्टार्थम् । यत्र शब्दपरि साहित्यरत्नमञ्जूषा-१५२ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्त्तनेऽप्यर्थे दूषकता स्यात् तदार्थगता दोषा इत्यर्थान्वयव्यतिरेकतयात्रार्थदोषाः ज्ञेयाः । उदाहरणं यथा "विशन्ति हृदयं कान्ता कटाक्षाः खञ्जनत्विषः।" खञ्जनस्य त्विङ् इव खञ्जनसमानकान्तयः कान्ता कटाक्षा हृदयं विशन्ति प्रविशन्ति इत्यर्थः । अत्र खञ्जन त्विष इति विशेषणेन विशेषस्य कान्ता कटाक्षपदस्य न किञ्चित् हृदयप्रवेशानुकूलोऽतिशय आधीतस्य इत्यपुष्टार्थमत्र । अन्यच्च 'प्रकृतानुपयोगी अपुष्टः' । यथा अनणुरणन् मणिमेखलमविरतसिञ्चानमञ्जुमंजरीन् परिसरणमरुणचरणे रणरणकमकारणं कुरुते । अत्र वर्णसावर्ण्यमानं भवति । व्याहतत्वम् यत्र पूर्वापरविरोधः अनुभूयते । यदि पूर्वः अपरः पूर्वापरौ पूर्वापरायौं तयोः अर्थयोः मिथः परस्परं विरोधो व्याघातः स्यात् तदा व्याहतदोषः । “पूर्वापरार्थ विरुद्धत्वं व्याहतत्वम् ।" यथा "उत्कर्षो वाऽपकर्षो वा प्राग् यस्यैव निगद्यते तस्यैवार्थस्तदन्यश्चेद्, व्याहतोऽर्थस्तदा भवेत् इति न्यायेन स्तुति साहित्यरत्नमञ्जूषा-१५३ . Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपार्थस्य निन्देन निन्दारूपार्थस्य वा स्तुतौ द्विविधो व्याहतदोषः । उदाहरणं यथा जहि शत्रुकुलं कृत्स्नं, जय विश्वंभरामिभाम् । न च ते कोऽपि विद्वष्टा, सर्वभूतानुकम्पिनः । अत्र पूर्वार्द्ध शत्रुकुलं जहि उत्तरार्द्ध न कोऽपि विद्वष्टा इति परस्परविरोधः । अतः अत्र व्याहतत्वम् । प्रथमव्याहतस्यान्यत् उदाहरणम् सहस्रपत्रमित्रं ते, वक्त्रं केनोपमीयते । कमलतुल्यं ते मुखं, केन वस्तुना समानी क्रियते ॥ अत्र पूर्व कमलोपमा प्रदाऽपि पुनस्तदुपमानिषेधो दशितः । अतः अत्र मिथो विरोध इति व्याहतता । कमलसादृश्येन पूर्वं मुखस्योत्कर्षः, पुनरत्रोपमाभावप्रदर्शनेन कमलसादृश्यमेवापकर्षद्योतकं प्रथमव्याहतदोषोदाहरणम् । द्वितीयम् गोस्तनीमधुपीयूष-मस्तु लोकमनो मुदे । मदनोन्मत्तचार्वङ्गी वचो मधु मुदे मम ॥ अत्र पूर्व मधुन्युपेक्षारूपा निन्दा पुनरुत्तरत्र च मधु न साहित्यरत्नमञ्जूषा-१५४ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवोत्कर्षार्थमारोपः । हेयोपादेयत्वविरोधो दूषकताबीजं, नित्योऽयं दोषः । पुनरुक्तम् प्रधिगतेऽर्थे पुनरभिधानं पुनरुक्तम् । अथवा "अधिगते प्राप्ते वाऽर्थे पुनरभिधानं पुनरुक्तम्" । अर्थप्रतीतत्त्वेऽपि पुनस्तत् प्रतिपादकत्वं पुनरुक्तत्वम् । अत्र वा शब्देन प्रतिपन्नत्वे सति पुनस्तेनैव प्रतिपादने पुनरुक्तत्वम्, किन्तु अर्थेन प्रतिपन्नस्य प्रतिपादने तु अपुष्टत्वम् । यथा तदन्वये शुद्धिमति प्रसूतः शुद्धिमत्तरः । दिलीप इति राजेन्दु- रिन्दुः क्षीरनिधाविव ॥१॥ अत्र इन्दुरिति पुनरुक्तम् तदर्थस्य राजेन्दुरित्यत्रावगतत्वात् । " कुतस्ततोपमा यत्र पुनरुक्तः सुधाकरः ।" तत्रोपमा सादृश्यं कुतः कस्मात् यत्र सुधाकरः चन्द्रः पुनरुक्तः व्यर्थः । अत्र कुत इति पदेनोपमाभावप्रदर्शनेन चन्द्रव्यर्थे सिद्धेऽपि पुनः " पुनरुक्तः सुधाकरः" इति वाक्योपादाने पुनरुक्तता । यद्वा "वक्त्रं केनोपमीयते " इत्यस्यावृत्तिः । तेन वक्त्रं केनोपमीयत " कुतस्तत्रोपमा " इति वाक्यद्वयं पुनरुक्तम् । न चास्यापुष्टत्वदोषेऽन्तर्भावः । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १५५ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेत्वाभाववत्-निर्हेतुकम्- यथा गृहीतं येनासीः परिभवभयानोचितमपि , प्रभावाद्यस्याभून्न खलु तव कश्चिन्न विषयः । परित्यक्तं तेन त्वमसि सुतशोकान्न तु भयात् , विमोक्षे शस्त्र ! त्वामहमपि यतः स्वस्ति भवते ॥१॥ अत्र द्वितीयशस्त्रपरित्यागे हेतुर्नोपात्तः । दुष्कमम् अत्र लोकशास्त्रविरुद्धक्रमाभिधानत्वं दुष्त्रमत्वम् ।" तस्योदाहरणं यथा- हे प्रभो ! त्वद् भक्तः गच्छेयं नरकं स्वर्गमेव वा ? । ___ हे प्रभो ! त्वद् भक्तः अहं नरकं गच्छेयं स्वर्ग गच्छेयं वा' इति सम्भावना। प्रभोभक्तस्य पूर्वं स्वर्गगमनसम्भावना समुचिता, ततश्च नरकगमनरूपा। अत्र तु पूर्वं नरकगमनरूपा समुपातेति दुष्क्रमाख्योऽत्र दोषः । नित्योऽयं दोषः सहृदयोगः बीजं दूषणतायाः । अनौचित्यम् "अयोग्यसम्बन्धत्वं अयोग्यत्वम् ।" 'कीतिलतां तरङ्गयति यः सदा' यः सदा यशोवली तरङ्गितां करोति । साहित्यरत्नमञ्जूषा-१५६ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र निष्ठतरङ्गवर्णनमनुचितम् । तरङ्गस्य सम्बन्धः समुद्रसरित्प्रभृतिषु योग्यः । पल्लवयतीति अनुचितम् । प्रसिद्धविरुद्धत्वम् यत्र प्रसिद्धया विद्यया शास्त्रेण वा विरुद्ध वर्ण्यते तत्र प्रसिद्धविरुद्धत्वम् । यथा "न्यस्तेयं पश्य कन्दर्पप्रतापधवलद्युतिः "। इयं कन्दर्पस्य कामस्य यः प्रतापः तस्य धवला द्युतिः शास्त्रेषु काव्येषु वा प्रतिपादिता । अत्र प्रतापस्य रक्तवर्णरूपां कविप्रसिद्धिमपहाय श्वेतो वर्णः प्रतापस्य प्रतिपादितः इति कविसमयविरुद्धमेतत् । श्रीकेशवमिश्रेणालङ्कारशेखरे प्रोक्तम् असतोऽपि निबन्धेन, सतामप्यनिबन्धनात् । नियमस्य पुरस्कारात्, सम्प्रदायस्त्रिधा कवेः ॥ विद्याविरुद्धस्योदाहरणं यथा'केतकी शेखरे शम्भो-र्धत्ते चन्द्रकला तुलाम् ।' अत्र केतकीपुष्पं शम्भोः पूजायां वर्जितम् । अतः अत्र केतकेः वर्णनं पुराणादिविद्याविरुद्ध वर्त्तते । यथा-कथितं कात्तिकमाहात्म्ये साहित्यरत्नमञ्जूषा-१५७ । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शृणु केतव ते पुष्पैः, नरो मामर्चयिष्यति । लक्ष्मी सन्तति होनोऽसौ रौरवं नरकं व्रजेत् ॥ पूर्वं शब्ददोषा प्रर्थदोषाश्च कथिताः । तदन्तरं रसदोषाः कथ्यन्ते (१) रसस्थायिभावादीनां स्वशब्दोक्तिः । (२) विभावानुभावयोः कष्टेन प्रतीतिः । (३) वर्णनीयरसविरुद्धविभावादिपरिग्रहः । ( ४ ) पुनः पुनः उद्दीपनं रसादे: । (५) अनवसरे रसस्य विस्तारः । (६) प्रकाण्डे रसस्य छेदः । ( ७ ) प्रकृतीनां विपर्ययः । प्रमुखाः अनुक्रमेण यथा शृङ्गारी गिरिजानने सकरुणो रत्यां प्रवीरः स्मरे, बीभत्सोऽस्थिभिरुत्करणी च भयकृन्मूर्त्याद्भुतस्तुङ्गया । रौद्रो दक्षविमर्दने च हसकृन्नग्नः प्रशान्तश्चिरादित्थं सर्वरसात्मकः पशुपतिर्भूयात् सतां भूयते ॥१॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा १५८ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्परम् । अत्र रसस्य शृङ्गारादेः स्वशब्दोक्तिः । " संप्रहारे प्रहरणैः प्रहाराणां छरणत्कारैः श्रुतिगर्त - रुत्साहस्तस्य कोऽप्यभूत् ॥ अत्र स्थायिभावस्य स्वशब्दोक्तिः । (२) परिहरति रति, मति लुनीते, स्खलति भृशं परिवर्तते च भूयः ॥ इति बत विषमा दशाऽस्य देहं परिभवति प्रसभं किमत्र कूर्मः ॥१॥ अत्र रति परिहारप्रमुखानां करुरणादावपि सम्भवात् कष्टावसेयः, कामिनीरूपो विभावः । (३) प्रसादे वर्तस्व प्रकटय मुदं संत्यज रूपं, प्रिये ! शुष्यन्त्यङ्गान्यमृतमिव ते सिञ्चतु वचः । निधानं सौख्यानां क्षरणमभिमुखं स्थापय मुखं, न मुग्धे ! प्रत्येतुं प्रभवति गतः कालहरिणः ॥ १॥" अत्र शृङ्गारप्रतिकूलस्य शान्तरसस्य निर्वेदस्योपनिबन्धनम् । (४) रतिविलापे पुनर्पुनरुद्दीपनम् - इति कुमारसम्भवकाव्यग्रन्थे चतुर्थ सर्गे कथितमेव । (५) 'अनवसरे रसस्य विस्तारः,' श्रीवेणीसंहारग्रंथे साहित्यरत्नमञ्जूषा - १५६ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयाऽङ्क कथितं यद् भीष्मप्रमुखानेकानां वीरक्षये करुणवीररसादेरेव प्रसङ्गः शृङ्गाररसस्तु सर्वथाऽनुचितः, तथापि दुर्योधनस्य भानुमत्या सह शृङ्गारवर्णनमिति दोषः। (६) 'प्रकाण्डे रसस्य छेदः' श्रीवीरचरित्रग्रन्थे द्वितीयाऽङ्क राम-परशुरामयोः वीररसे प्रवृत्ते कङ्कणमोचनाय गच्छामीति श्रीरामस्योक्तिः प्रसिद्धः । (७) प्रकृतीनां विपर्ययः- प्रकृतयः त्रिविधा सन्ति । तथा हि-दिव्या, अदिव्या, दिव्यादिव्याश्चेति । तत्र दिव्याः देव-गन्धर्वादयः, अदिव्याः नरादयः, ये दिव्या अपि आत्मनि नराभिमानिनस्ते दिव्यादिव्याश्च । यथा-श्रीरामचन्द्रादयस्तेषां यत् प्रतिकूलवर्णनं तत् प्रकृतिविपर्ययः । यथाधीरोदात्तप्रकृतेः रामस्य धीरोद्धतवच्छद्मना वालिवधः । तथा च मात-पित्रोः सम्भोगवर्णनवद् भगवतो सम्भोगवर्णनमनुचितम्, तथापि श्रीकुमारसम्भवकाव्यग्रन्थे पार्वती-शङ्करयोः तद्वर्णनमिति दोषः । एते दोषा स्थलविशेषे यथायथं दोषत्वं त्यजन्ति । तथा तेषामनुकरणे सति विदूषकप्रोक्तौ, व्यभिचारस्य स्वशब्देन कीर्तने, वदनाद्याकारविशेषे एवं अन्यत्रापि वै । क्वचिद् दोषोऽपि गुणः करोति । यथा-क्रोधयुक्त वक्तरि रौद्ररसे च दुःश्रवत्वं गुणः साहित्यरत्नमञ्जूषा-१६० Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा वैयाकरणवक्तरि कष्टत्वं वा दुःश्रवत्वं गुणः । एवं अधर्मोक्तिषु ग्राम्यत्वं गुणः । तथाऽन्यत्रापि विज्ञेयमिति । ___एतेषां दोषाणामाश्रयाणामपि संक्षिप्तवर्णनं अत्र क्रियते । शब्दनिष्ठाः दोषाः पदादिगतत्वेन पञ्चधा, अर्थदोषस्त्वेकविधः । 'काव्यप्रकाशादौ तु अर्थदोषो रसदोषश्चेति द्विविधोऽर्थदोषो वर्णितः । अलङ्कारादिदोषास्तूक्त भ्यो दोषेभ्यो न भिन्ना इति । अतः तेऽत्र न परिगणिताः । 'व्यक्तिविवेके' महिमभट्टन "तद् यथा विधेयाविमर्शः, प्रक्रमभेदः, क्रमभेदः, पुनरुक्तिः, वाच्यावचनञ्च" इति पञ्चैव दोषाः वरिणताः काव्यडाकिनी नाम्ने चिरञ्जीव भट्टाचार्यग्रन्थे दोषा एव प्रतिपादिताः । कलिकालसर्वज्ञश्रीमद्हेमचन्द्राचार्येण श्रुतिकटुत्वं, च्युतसंस्कृतित्वं, अप्रयुक्तत्वं, असमर्थत्वं, निहतार्थत्वं, अनुचितार्थत्वं, निरर्थकत्वं, अवाचकत्वं, ब्रीडाजनकाश्लीलत्वं, अमङ्गलजनकाश्लीलत्वं, सन्दिग्धत्वं, अप्रतीतत्वं, ग्राम्यत्वं, नेयार्थत्वं, क्लिष्टत्वं, अविमृष्ट विधेयांशत्वं, विरुद्धमतिकृतत्वं चेत्यादिदोषाः प्रतिपादिताः । एषु श्रुतिकटुत्वादि ये दोषाः अत्र वर्णिताः पददोषाः वाक्यदोषाश्च । निरर्थकत्वावाचकत्व - क्लिष्टत्वादयः पदमात्रगाः । अन्येऽपि चतुर्दशदोषाः अर्थमात्रगाः । यथा-अपुष्टार्थत्वं, कष्टत्वं, व्याहतत्वं, साहित्य-११ साहित्यरत्नमञ्जूषा-१६१ . Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनरुक्तत्वं, दुष्क्रमत्वं, ग्राम्यत्वं, सन्दिग्धत्वं अनौचित्यत्वं, प्रसिद्धविरुद्धत्वमित्यादयः । ये च दोषान् निवारयन्ति ते 'दोषाङ्कुशं ' भवन्ति । अर्थात् येन दोषाः गुणा भवन्ति, निर्दोषाः भवन्ति सः दोषाङ्कुशः । यो हि त्रिधा भेदैः । दोषाङ्कुशभेदत्रयमाह(१) दोषं गुणतां तनुते, (२) दोषं निर्दोषं करोति, (३) दोषाणां ग्राह्यत्वं विदधाति च । एते त्रयः भेदाः अर्थात् दोषे गुणत्वं दोषे निर्दोषत्वं दोषे उपादेयत्वम् तृतीयो भेदः । , ॥ इति दोषनिरूपणम् ॥ ॥ अथ रीतिनिरूपणम् ॥ शरीरिणोऽवयवसन्निवेश इव रसोपकर्त्री सुप्तिङात्मकपदसंयोजनात्मिका 'रोतिः' । यथा शरीरेऽवयवसन्निवेशः तथैव रसोपकर्त्री सुप्तिङात्मकस्वरूपा रीतयः । रीतिविषये श्रीवामनाचार्यः रीतिप्राधान्यं स्वीकरोति । 'रीति रात्मा काव्यस्य । विशिष्टा पदरचना रोतिः' । साच 'वैदर्भी, गौडी, पाञ्चाली' इत्यनेन तिस्रो रीतयः श्रीवामनाचार्य मते कथिताः । लाटीरीतिरधिका श्रीरुद्रमते कथिता । श्रीभोजराजमते अवन्ती मागधीसहिताः पूर्वोक्ताः षट्रीतयः कथिता एव । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १६२ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञश्रीमद्हेमचन्द्रसूरीश्वराणां मतेऽपि रीतयः षटैव कथिताः । तेषां मते पातुर्यमाचतुर्थं यथा तथा पदैः समासः स्यात् तदा पाञ्चाली रीतिः। प्रा समाप्तं च यथा स्यात् तथा पदैः समासः स्यात् तथा लाटीया लाटदेशप्रिया रीतिः । अष्टमादिभिर्यथेष्टै: पदैः समासो यदा तदा गौडदेशप्रिया गौडीया रीतिः । सर्वथापि समासो यदा न स्यात् तदा वैदर्भी रीति विदर्भदेशप्रिया । द्वित्रिचतुष्पदानां समासे पाञ्चाली, पञ्च-षट्-पदानां समासे लाटीया, अष्टमादियथेष्टपद-समासे गौडीया, सर्वथा समासाभावे वैदर्भी रीतिः, पाञ्चालदेशे भवा पाञ्चालिकी, लाटदेशे भवा लाटीया, गौडदेशे भवा गौडीया, विदर्भदेशे भवा वैदर्भीः रीतयः प्रसिद्धाः । रसमनतिक्रमेति यथा रसं रीतयः भवन्ति । शृङ्गारे वैदर्भी, रौद्र-वीरयोगौंडीया, अन्यत्र पाञ्चाली-लाटीये रीती स्तः । साहित्यदर्पणे रीतिलक्षणमाह-"पद-संघटना रीतिः अङ्गसंस्थाविशेषवत् ।" रीयते गुणानां विशेषो ज्ञायतेऽनया इति रीतिः । 'रीङ् गतौ' इति धातोः स्त्रियां क्तिन् । यद्यपि रौद्र-वीरयोर्गोडीया रीतिर्भवति, तथापि कुत्रापि वक्तुरौचित्याद् वोरेऽपि वैदर्भीरीतिर्भवति । यथा- “भो लङ्कश्वर ! दीयतां जनकजा रामः स्वयं याचते' इत्यादौ वीरे साहित्यरत्नमञ्जूषा-१६३ । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसेऽपि वक्तुः श्रीरामस्यानुद्धततया वैदर्भी रीत्यनुकूला सुकुमार- रचना | काव्यप्रकाशे तु उपनागरिका परुषा - कोमलाख्या वृत्तयः एव वैदर्भी - गौडी - पाञ्चाल्याख्या रीतयः । यथा- पाञ्चाल्याः उदाहरणम् - प्रसादगुणाभिव्यञ्जिका, सुश्लिष्टा सुकुमारा मधुरा रचना पाञ्चाल्यां भवति । उदाहरणम् "मधुरया मधुबोधितमाधवीमधुसमृद्धिसमेधितमेधया । मधुकराङ्गनया मुहुरुन्मद अन्यच्च ध्वनिभृता निभृताक्षरमुज्जगे ॥ १ ॥ मदननृपतिमात्राकालविज्ञापनाय, स्फुरति जलधिमध्ये ताम्रपात्रीव भानुः । श्रयमपि पुरुहूतप्रेयसी मूनि पूर्णः, कलश इव सुधाशुः साधुरुल्लालसीति ॥ अस्मिन् श्लोके श्लोके पाञ्चाली रीतिः । प्रथमपादे चतुष्पदानां समासे (१) वैदर्भी - माधुर्य गुणव्यञ्जिका, मनोहारिणी, समासरहिता अल्पसमासा वा कोमलबन्धान्विता, वैदर्भीतिः । यथा साहित्यरत्नमञ्जूषा - १६४ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अमुंपुरः पश्यामि देवदारु, पुत्रीकृतोऽसौ वृषभध्वजेन । यो हेमकुम्भस्तन-निःसृतानां, स्कन्दस्य मातुः पयसां रसज्ञः ॥ [इति रघुवंशकाव्ये कथितम्] नैषधकाव्येऽपि कथितमेवम्"निविशते यदि शूकशिखापदे, सजति सा रिवतीमिव न व्यथाम् । मृदुतनोवितनोतु कथं न तां, अवनिभूत निवेश्य हृदि स्थितः ॥१॥" लाटीया वैदर्भीपाञ्चाल्योः मध्यवर्तिनी लघुसमाससंयुक्ता ललिता लाटीरीतिः । यथा "अयमुदयति मुद्राभञ्जनः पद्मिनीनामुदयगिरिवनालीबालमन्दारपुष्यम् । विरह विधुरकोकद्वन्द्वबन्धुविभिन्दन्, कुपितकपिकपोलकोडताम्रस्तमांसि ॥१॥ अन्ये त्वाहुः "गौडी डम्बरबद्धा स्यात् वैदर्भी ललितक्रमा । पाञ्चाली मिश्रभावेन, लाटी तु मृदुभिः पदैः ॥" साहित्यरत्नमञ्जूषा-१६५ . Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) गौडी-"प्रोजो गुणानुरञ्जिका सघनसमासा उद्धतबन्धबन्धुरा-गौडीरीतिः। पञ्च-षट्पदानां समाससद्भावात् गौडीया। यथा वेणीसंहारे "चञ्चद्-भुजभ्रमित-चण्डगदाभिघातसञ्चूणितोरु-युगलस्य सुयोधनस्य । स्त्यानावनद्धघनशोरिणतशोणपाणि रुत्तंसयिष्यति कचांस्तव देवि ! भीमः ॥ अन्यच्च"दंष्ट्रालः स्फुटकुन्दकुड्मलशतैः जिह्वाल-उल्लासिभिः, किं किंल्लिद्रुमपल्लवैः शितमुखैः प्रेखन्नखः किंशुकैः । वल्लीजालविशालबालधिरसावत्रो अयन्ताचलो, बन्धकोद्धतलोचनः प्रकुरुते शार्दूलविक्रीडितम् ॥ काव्यलक्षणो वृत्तीनिरुपयिष्यन्नादौ मधुरो वृत्ति व्याचष्टे । विलासविन्यासक्रमो वृत्तिः वचनविन्यासक्रमो रीतिः वेषविन्यासक्रमश्च प्रवृत्तिरिति । काव्यमीमांसायां लक्षणानि वरिणतानि "वेदभाषानुकरणात्, तथाचारप्रवर्तनात् । संक्षेपेण समाख्याता, वृत्तिरीतिप्रवृत्तयः ॥१॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-१६६ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेन कैशीकी सात्वत्यारभटीभारती-इति नाटकवृत्तीनामेव मधुराप्रौढापरुषाललिता भद्राख्या-इत्यादयः । मधुरादिवृत्तीनां विलास-विन्यास-क्रमस्वरूपा चात् । निजवर्गस्थैः पञ्चमैवर्णङकारादिभिः समाक्रान्ता युक्ता वर्गस्थाः कवर्गादिवर्गस्थिताश्चत्वारो वर्णाः क ख ग घादयः मधुरायां भवन्ति । पुनश्च लसंयुक्तो लकारसहितो लकारः । तथा ह्रस्वव्यवहितौ ह्रस्वाक्षरान्तरितौ रणौ रफणकारौ च मधुरायां स्तः । साहित्यदर्पणे हि वृत्तौ ट ठ ड ढा वर्णा न भवन्ति । यथा उदाहरणम् "अङ्गभङ्गोल्लसत् लीला तरुणी स्मरतोरणम्"। प्रौढावृत्तेः लक्षणम्__ट वर्गात् पञ्चमात् डकारादि पञ्चमाक्षरात्, "ऋते विना टवर्ग पञ्चमाक्षराणि च वर्जयितु इत्यर्थः । अस्यां वृत्तौ वर्गेण वा क ख ग घादयो वर्णाश्च यणौ यकारणकारौ चेति वर्णाः, रकार-संयुक्ताः भवन्ति तथा तवर्गश्च कपाभ्यां ककार-पकाराभ्यां आक्रान्तो भवति । अर्थात् तवर्गश्च न रेफाक्रान्तोऽपि तु कपाक्रान्त एव इति भावः । किञ्च प्रौढावृत्तिः ककारस्य मूर्टिन तकारो यस्यां सा साहित्यरत्नमञ्जूषा-१६७ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तादृशी भवति । संक्षेपेणाऽयं टवर्ग - वर्ण्यपञ्चमाक्षराणि तवर्गं च त्यक्त्वा वर्ग्यायणौ च रेफयुक्ताः तवर्गश्च तपाक्रान्तः क मूनि च तकारः प्रौढायां भवति । यथा " " तर्क कर्कशपूर्वोक्ति प्राप्तोत्कटधियां वृथा परुषावृत्ति: सकारस्योक परिस्थितैः सर्वैः निखिलवर्णैः संयोगः तथा रेफस्य सर्वैः वर्णैः संयोगः अस्यां वृत्तौ भवति । रेफहकारयोः द्वेधोपर्यधोभावेन संयोगः, शषौ स्वतः परुषायां स्तः । 'साहित्यदर्पणे' परुषरचनायाः स्वरूपं यथा निर्दिष्टम् "वर्गस्याद्यतृतीयाभ्यां युक्तौ वरणौ तदन्तिमौ उपर्यधो द्वयोर्वा सरेफौ ट ठ ड ढैः सह । षकारश्च षकारश्च तस्य व्यञ्जकतां गताः, तथा समासो बहुलो, घटनौदृत्य शालिनी ॥ विप्सोत्सर्पन् मुखाग्रार्द्र, बर्ही जह कृशस्तृषम् ललितावृत्ति : " यदा लकारस्य लकारे संयोगः भवति, घकार-मकारधकाराश्च रसकारौ ललितायां भवन्ति । ललना रभसं धत्ते धनाः । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १६८ यथा Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रावृत्तिः__उक्त चतुर्वृत्यवशिष्टाः षकारादयोऽन्यैर्वर्णैः संयुक्ता असंयुक्ता वा भद्रायां भवति । यथा- टोपे महीयसी इत्येताः पञ्चवृत्तयःअक्षरविन्यासविशेषव्यङ्ग्या भवन्ति इतिभावः । मधुरा वृत्तिश्च प्रौढावृत्तिः नव्यन्यायशास्त्रण कठिनाः व्याप्ताश्च या उत्तमस्ताभिः लब्धाः विकटाः मतिः येस्तैः तार्किकाणां कृत इति भावः । कामतोरणरूपा, अङ्गभङ्गन भावहावाद्यङ्गविक्षेपेगोल्लसन्ति लीलाविलासो यस्याः सा तादृशी तरुणी वृथा न सुखाय । सा हिंसादित्यपरिशीलनरसिकानामेव सुखदेति भावः । अत्र ङकारधः स्थौ गकारौ लकाररसयुक्तौ लकारो रेफणकारौ च ह्रस्वाक्षरान्तरितावित्यङ्गभङ्गति पूर्वार्द्ध मधुरावृत्तिः तर्ककर्कशेत्युत्तरार्द्ध ककार-पकारणकारा रेफाक्रान्ताः । तकार ककार पकाराभ्यां संयुक्तः । त्क इत्यत्र च ककारस्य मूनि तकार इति प्रौढावृत्तिः । रीतीनां समासव्यङ्गत्वं वृत्तीनां वर्गानुपूर्वी व्यङ्गत्वमित्यनयोर्भेदः । काव्यप्रकाशे तु अनयोः न कोऽपि भेदः इत्युक्त रीतिनिरूपणप्रस्तावे निरूपितम् । "अङ्गभङ्गोल्लसल्लीला तरुणीस्मरतोरणम् । तर्क-कर्कश-पूर्वोक्ति प्राप्तो कटधिपां वथा ॥" (चण्डा०) साहित्यरत्नमञ्जूषा-१६६ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परुषा - ललिता-भद्रा-वृत्तीनां उदाहरणानि प्रतिशयेन घटाटोपे सति कृशो बहीं वारं वारं उत्सर्पद्यन् मुखाग्रं तदाद्र ं यथा तथा येन केन प्रकारेण तृषमत्यजत् वीप्सोत्सर्पन्मुखाग्राद्र" बहीं जहे कृशस्तृषम् । ललना रभसं धत्ते धनाटोपे महीयसी ( चन्डा० ) । वर्षाकाले मयूराः नृत्यन्ति रमण्यः रमन्ते इति भावः । पूर्वोक्तोदाहरणे पूर्वार्द्ध सकारोर्ध्वस्थौ पकार तकारौ पकार गकार रकारश्च रेफस्योपर्यधः स्थायिनः रकार - दकारौ च मिथः उपर्यधो भावापन्नौ, शकार-षकारौ चायुक्तौ इति परुषा वृत्तिः । " ललना रभसं धत्ते धनाः " । इत्यत्रासंयुक्तो लकारः रेफ-भकारसकार-घकार-धकाराश्च लघवोऽसंयुक्ता इति ललितावृत्तिः । " ललना रभसं धत्ते धनाटोपे महीयसी" इत्यत्र वर्णानां प्रसंयुक्तत्वाद् भद्रावृत्तिः । ॥ इति रीतिः निरूपणम् ॥ - ॥ अथ अलङ्कार - निरूपणम् ॥ अथ अलङ्काराः - "अलङ्क्रियतेऽनेनेति श्रलङ्कारः” । यथा रसपोषकाः शरीरस्य कनक- कुण्डलादय इव काव्यस्य साहित्यरत्नमञ्जूषा - १७० Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोभाविधायिका अलङ्काराः,ते च शब्दार्थगतत्वेन द्विविधाः। शरीरसुषमाध्यायकत्वेन हारादीनामिव काव्यशोभा-सम्पादकत्वेन अनुप्रासादीनां अलङ्काराणां वाचकः । अलंकृतिः अलंकरणं वा अलङ्कारः इति भावप्रधानोऽलङ्कारशब्दः साहित्यशास्त्रपरपर्यायः । यथा शरीरे हारादयः संयोगसम्बन्धेन अात्मनि शौर्यादयः समवायसम्बन्धेन वर्तन्ते तथैव काव्ये शब्दार्थशरीरेऽनुप्रासोपमादयः संयोगवृत्या माधुर्यादयः रसे समयावृत्याद्यवर्तन्त इति भेदोऽवधयः । बहूनां प्राचार्याणां काव्यलक्षणे अलङ्काराणां प्राधान्यं वर्त्तते । श्रीभामहोद्भटवामनरुद्रटादिभिः काव्यालङ्कारनाम्ना ग्रन्थाः निमिताः । कलिकालसर्वज्ञ-श्रीमद्हेमचन्द्रसूरीश्वरेणापि अलङ्काराणां काव्ये महत्त्वं स्वीकृतमस्ति । एतेषां ग्रन्थेषु रसविचारः स्वल्प एव प्राप्यते । प्रतीयमानस्य अर्थस्य अप्रस्तुतप्रशंसा समासो मत्यादिअलङ्कारेषु अन्तर्भावो दृश्यते । पर्यायोक्ति-वक्रोक्ति-अतिशयोक्तयादिषु च । ततः श्रीमानन्दवर्धनाचार्येण ध्वनिः उद्भावितः । 'ध्वन्यालोके' अस्य विवेचनं प्राप्यते । प्राधान्येन उपमैवालङ्कारः। सैव भूमिकाभेदात् अनेकालङ्कारतो प्राप्नोति । यथा-प्रोक्त चित्रमीमांसायां अप्पयदीक्षितेन साहित्यरत्नमञ्जूषा-१७१ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपका शत्रुजी संप्राप्ता चित्रभूमिकाभेदान् । रञ्जयति काव्यरङ्ग नृत्यन्ती तद्विदां चेतः ॥ उपमेयोपमानन्वय-प्रतीप - स्मरण - रूपक, सन्देह, दीपक, प्रतिवस्तूपमा दृष्टान्त - निदर्शना व्यतिरेक सहोक्ति - समासोक्ति - श्लेष - अप्रस्तुतप्रशंसा इत्यादयः अलङ्काराः उपमा भूमिकाभेदात् एव उत्पन्नाः । · काव्यादर्श दण्डिना पञ्चत्रिंशद् अलङ्काराणां विवेचनं कृतम् । भामहेन एकोनचत्वारिंशद् अलङ्काराणां वर्णनं कृतम् । उद्भटेन चत्वारिंशद् अलङ्काराणां विवेचनं कृतम् । वामनेन त्रयस्त्रिराद् अलंकाराः प्रदर्शिताः । रुद्रटेन द्विपञ्चाशत् अलङ्काराः कथिताः । मम्मटेन काव्यप्रकाशे सप्तषष्टिः अलङ्काराः प्रदर्शिताः । श्रलङ्कारसर्वस्वे एकाशीति, एषु षट् शब्दालङ्काराः दर्शिताः । चन्द्रालोके शतमलङ्काराः प्रदर्शिताः । कुवलयानन्दे चतुर्विंशत्यधिकशतमलङ्काराः कथिताः कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्रसूरीश्वरेणापि षट् शब्दालङ्काराश्च शतमलङ्काराः प्रदर्शिताः सन्ति । सामान्यलक्षणेन श्रलङ्काराणां विवेचनं क्रियतेऽत्र । काव्येऽलङ्कारिकस्य प्रसिद्धया वा प्रौढिवशेन प्रौढिकल्पनया वा शब्दार्थयोः चमत्कारश्च मनोहरशब्दार्थयोः विन्यासः हारादिवत् पुरुषस्य काव्येषु अलङ्कारो भवति । शब्दाना साहित्यरत्नमञ्जूषा - १७२ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ञ्चार्थानां च यः कविप्रसिद्धया वा तस्य प्रौढिकल्पनया मनोहरः सनिवेशः क्रमशः शब्दगतोऽर्थगतश्च अलङ्कारः, न तु हारादिवत् पुसः पृथग्भूतः । अनुप्रासादेः शब्द एवान्तर्भावात्, उपमादेश्चार्थे, हारादिवदिति दृष्टान्तस्तु रमणीयता मात्रे न तु सर्वांशो गुणानां मनोहररूपतया सन्निवेशरूपत्वे ऽपि न अलङ्कारत्वम् । यत् तेषां तत्त्वेनाप्रसिद्धेरिति भावः केषाञ्चिद् आचार्याणां मतम् । वस्तुतः हारादिवदित्यनेन अलङ्काराणां काव्यात् पृथग्भावः प्रदर्शितः । तेन गुणालङ्कारभेदोऽपि संघटते । अत्र प्राचीनकविप्रसिद्धाः अन्ये प्रौढिकल्पिता अपि अलङ्काराः सन्ति, इति सूचयन्ति ।। अलङ्काराणां शब्दार्थगतत्वनिश्चयस्त्वन्वयव्यतिरेकानु विधायित्वेन बोध्यः । समानार्थकशब्दपरिवर्तनेऽपियोऽलङ्कारो वर्त्तते सोऽर्थनिष्ठः । अन्यथा तु शाब्दः स इति शब्दार्थनिष्ठबोधको हेतुर्दोषालङ्कारादीनाम् । कविप्रसिद्धप्रौढयन्तरजनित-हारादि-दष्टान्तो भूतचमत्कृतिजनकशब्दार्थान्यतरसन्निवेशत्वमलङ्कारत्वम् । यथा- काव्यप्रकाशे अलङ्कारलक्षणम् उपकुर्वन्ति तं सन्त-मङ्गद्वारेण जातुचित् । हारादिवदलङ्कारास्ते-ऽनुप्रासोपमादयः ॥८२-६७॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-१७३ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं काव्यप्रकाशमतेन रसोपकारकत्वे सति तदवृत्तित्वं तथात्वे सति रसानियतास्थितित्वम् , अनियमेन रसोपकारत्वमिति लक्षणत्रितयं फलितम् । कुवलयानन्देऽलङ्कारचन्द्रिकायाञ्चालङ्कारलक्षणं यत् निरूपितं यथारसवदादिभिन्नव्यङ्गयभिन्नत्वे सति शब्दार्थान्यतरनिष्ठाया विषयिता सम्बन्धावाच्छिन्ना चमत्कृतिजनकतावच्छेदकता तदवच्छेदकत्वमलङ्कारत्वमिति । अस्माकं मतेऽपि वैद्यनाथेन परिष्कृत्य अलङ्काराणामिदं लक्षणं प्रोक्तम् । अस्माकं मतेऽपि अनुप्रासादिविशिष्टशब्दज्ञानमुपमादि विशिष्टार्थज्ञानं चमत्कृतिजनकम्, तेन तयोश्चमत्कृतिजनकता वर्तत एव । तदवच्छेदकता चानुप्रासोपमादिविशिष्टशब्दार्थयोवर्तते। अत्र चानुप्रासोपमादयो विशेषणीभूता इत्यस्माकं मतम् । चमत्कृतिजनकावच्छेदकता च शब्दार्थयोः विषयतासम्बन्धेन वर्तत, इति विषयता-सम्बन्धोऽयं चमत्कृति-जनकतायाः अवच्छेदकः । चमत्कृतिजनकतावच्छेदकता च शब्दार्थान्यतरनिष्ठविषयता सम्बन्धावच्छिन्ना वर्तते । तेन शब्दार्थान्तरनिष्ठा विषयतासम्बन्धावच्छिन्ना या चमत्कृतिजनकतावच्छेदकता तदवच्छेदकत्वमलङ्कारत्वमिति ममाऽपि सिद्धान्तम् । साहित्यरत्नमञ्जूषा-१७४ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ननु ध्वनिविशिष्टार्थज्ञानेनापि चमत्कारोदयात्ध्वनिविशिष्टार्थज्ञाने चमत्कृतिजनकता तदवच्छेदकतावच्छेदकत्वं च ध्वनौ वर्तत, इत्येतस्यापि अलङ्कारत्वम् । एतेन ध्वनौ व्यङ्गयार्थस्य सत्वान्नालङ्कारत्वम् । __ एवं सत्यपि रसवत्प्रेयङ्गर्जस्विसमाहितेषु चतुर्वलङ्कारेषु व्यङ्गयार्थसद्भावान्नालङ्कारत्वं स्याद् तेन लक्षणेन । मन्यन्ते च तत्रालङ्कारत्वं सर्वैरिति चेत् तदा रसवदादिभिन्नव्यङ्गयभिन्नत्वे सतीति विशेषण विशिष्ट-सत्पन्नविशेषणोपादनं कर्त्तव्यम्, तेन उक्तलक्षणे न कोऽपि दोषः । अथ शब्दालङ्काराः १ अनुप्रासः- 'प्रकर्षश्चाऽव्यवधानेन न्यासः स एव च सहृदयहृदयानुरञ्जकः' । साहित्यदर्पणे-अनुप्रासः शब्दसाम्यं वैषम्येऽपि स्वरस्य यत् । काव्यप्रकाशे- 'वर्णसाम्यमनुप्रासः'। सोऽयं अनुप्रासः वर्णगतः शब्दगतश्चेति द्विविधः । निरर्थकवर्णानुप्रासः प्रथमः। द्वितीयस्तु सार्थकः वर्णानुप्रासः । अनुप्रासः पञ्चविध: (क) छेकानुप्रासः- तत्र प्रथमो छेकानुप्रासः छेकवृत्तित्वेन द्विविधः । प्रथमः यत्र स्वराः व्यञ्जनानि च तेषां सन्दोहः साम्यं स्तोमो वा तस्य व्यूहावृत्तिर्यस्यां सा । यद्वा साहित्यरत्नमञ्जूषा-१७५ . Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "छेकास्त्रिषु विदग्धेषु गृहासक्तमृगाण्डजे"। इति चवर्गादौ रभसकोशेन छेका आलस्थाः परीक्षणस्तेषां अनुप्रासेन द्विर्भाषितेन भासुराः । एषां पक्षिणां द्विर्भाषितं भवतीति व्यवहारसादृश्येन छेकानुप्रास संज्ञा । अथवा स्वरस्तोमानां व्यञ्जन्-स्तोमानां उभयेषां च यत्र सकृत् साम्यं तत्र छेकानुप्रासः । ___ अनुप्रासे स्वरवैपरीत्येऽपि शब्दस्य साम्यं भवति । यत्र वर्णानामेकवारमावृत्तिः तत्र छेकानुप्रासः । अत एव काव्यप्रकाशे "सोऽनेकस्य सकृतपूर्वः" अनेकस्य व्यञ्जनस्य सकृत् साम्यं छेकानुप्रास इत्युक्तम् । __ वृत्त्यनुप्रासे तु एकस्यापि व्यञ्जनस्य असकृद् आवृत्तिर्भवति । साहित्यदर्पणे तु "छेको व्यञ्जनसंघस्य सकृत् साम्यमनेकधा" इति छेकानुप्रासलक्षणमुक्तम् । छेकानुप्रासस्य लक्षणं वक्ष्यतेऽधुना छेको व्यञ्जनसंघस्य सकृत् साम्यमनेकधा ॥सा.द.।। यथा निरानन्दः कौन्दे मधुनि विधुरो बालमुकुले , न साले सालम्बो लवमपि लवङ्ग न रमते । प्रियङ्गौ नासङ्ग रचयति न चूते विटमति , स्मरं लक्ष्मीलीलाकमलमधुपानं मधुकरः ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-१७६ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख)वृत्त्यनुप्रासः- रसानुगुणा वर्णरचनावृत्तिःवृत्त्यनुप्रासः । "वृत्त्यनुप्रासवचनं अमन्दानन्दमन्दिरम्" 'एकस्याप्यसकृत्परः' काव्यप्रकाशे वरिणतः । असकृदनेकवारमावर्त्तनं वृत्त्यनुप्रासः । आवृत्तवर्णेन सम्पूरितं वचनं वृत्त्यनुप्रासे भवति । वृत्तम् अर्थात् आदितोऽवसानपर्यन्तं वर्त्तनम् । तदस्यास्तीति वृत्ती तस्यानुप्रासः सोऽस्यामस्तीति वृत्त्यनुप्रासः । संक्षेपतः यत्र वर्णानामनेकवारमावृत्तिः तत्र वृत्त्यनुप्रासः । यथा(१)उत्कूजन्तु वटे-वटे बतबकाः काकाः वराका अपि , क्रां कुर्वन्तु सदा निनाद - पटवस्ते पिप्पले-पिप्पले । सोऽन्यः कोऽपि रसालपल्लवनवग्रासोल्लसत्पाटवः , क्रीडत् कोकिलकण्ठकूजनकला-लीलाविलासक्रमः ॥ (२) अमन्दानन्दसन्दोहस्वच्छन्दास्पदमन्दिरम् । (ग) श्रुत्यनुप्रासः- यत्र समानोच्चारणस्थानानां वर्णानां प्रयोगः विधीयते तत्र श्रुत्यनुप्रासः भवति । एकैव स्थानोच्चारिताः शब्दाः श्रवणमधुराः भवन्ति अतः यत्र कण्ठ- तालव्य - मूर्धन्य- दन्त्यौष्ठ - नासिका स्थानानां वर्णानां आवृत्तिर्जायते तत्र श्रुत्यनुप्रासः भवति । यथा जयतु जिनेश्वर जय, जय ‘सुशील' सन्तापहर । (घ) अन्त्यानुप्रासः- यत्र यथासम्भवमनुस्वारविसर्ग साहित्य-१२ साहित्यरत्नमञ्जूषा-१७७ । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरयुक्ताक्षर विशिष्ट व्यञ्जनं पदान्ते वा आवर्त्यते तत्र अन्त्यानुप्रासः। यथा केशः काशस्तबकविकासः , ___ कायः प्रकटितकरभविलासः । चक्षुर्दग्धवराटककल्पं, त्यजति न चेतः काममनल्पम् ॥१॥ (ङ) लाटानुप्रासः-शब्दगतोऽयमनुप्रासः, यत्र तात्पर्यमात्रतः भेदे सति शब्दार्थयोः पौनरुक्त्यं तत्र लाटानुप्रासः । लाटजनप्रियत्वादेष लाटानुप्रासः, भिन्नाभिप्रायक पुनरुक्तत्वं लाटानुप्रासः । साहित्यदर्पणे- "शब्दार्थयोः पौनरुक्त्यं भेदे तात्पर्यमात्रतः" इति साहित्यदर्परणे लक्षणमुक्तम् । काव्यप्रकाशे तु पदानां पदस्य एकसमासे भिन्नसमासे समासासमासयोश्च नाम्नः सारूप्यात् पञ्चधा लाटानुप्रासः । यत्र वैरिणः हुंकारशब्दो न स्यात् जितं सफलम् । यथा"यत्र स्यान पुनः शत्रोः गजितं तज्जितं जितम् ।" अत्र "जितं जितम्" इति पुनरुक्तपदे द्वितीयजितशब्दस्य सफलतारूपाभिप्रायात् लाटानुप्रासत्वम्” । अन्यच्च स्मेर राजीवनयने, नयने कि निमीलिते । पश्य निजितकन्द, कन्दर्पवशनं पतिम् ।। साहित्यरत्नमञ्जूषा-१७८ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यमकः भिन्नार्थस्य स्वरव्यञ्जनसङ्घस्य यथैकधा समुच्चारणं तथैव पुनरुच्चारणं 'यमकालङ्कारः' । अथवा 'यम्यते इति यमकम्' । भिन्नार्थवर्णसमूहावृत्तित्वं 'यमकत्वम्' | यमौ द्वौ समजातौ तौ तत्प्रकृतियमकम् । अनुप्रासे वरर्णावृत्तेः स्थाननियमो नास्ति । यत्र तु वरर्णावृत्तेः स्थाननियमोऽस्तीति द्वयोर्भेदः । क्वचिद्वर्णभेदेऽपि श्रुतिसाम्येन यमकं भवति । तदुक्तम् यमकादौ भवेदेक्यं, डलयोर्रलयोर्बवोः । शषयो नंणयोश्चान्ते, सविसर्गाविसर्गयोः ॥ सबिन्दुकाबिन्दुकयोः स्यादभेदप्रकल्पनम् ॥ यमकं हि एकस्मिन् द्वयोश्चतुर्षु वा पादेषु प्रयोक्तव्यं न तु पादत्रये । यमकं तु विधातव्यं न कदाचिदपि त्रिपात् । उदाहरणं यथा- " स्तबकं स्तबकं माधुर्यं माधुर्यं" इति पादान्तवर्णावृत्तेः सत्वात् । काव्यप्रकाशादौ यमकस्य अनेकभेदाः व्याख्याताः । तथाहि मुख- सन्देश प्रवृत्ति गर्भ - सन्दृष्ट- पुच्छ - पंक्ति परिवृत्ति युग्मक समुद्रकमहायमकं इत्यादय एकादशभेदाः । पाद - भागवृत्तियमकेषु, द्विखण्डीकृतेषु विंशतिः त्रिखण्डीकृतेषु त्रिंशत्, चतुःखण्डीकृतेषु चत्वारिंशद् भेदाः । स्थानपरिवर्त्तने च साहित्यरत्नमञ्जूषा - १७९ - - - - - Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तादियमक- प्राद्यन्तयमक, एतत्समुच्चय- मध्यादियमक, श्रादिमध्ययमक, उभयसमुच्चय, अन्त्यमध्य, मध्यान्तिक, अन्त्य मध्यान्तसमुच्चयादयो बहवः भेदा: । स च श्लोकश्लोकार्द्ध पाद पादांशभेदेनानेकधा तत्र श्लोकयमकं महायमकं कथ्यते । यमकस्योदाहरणं यथाभव्याम्भोजविबोधनैकतरणि-विस्तारिकर्मावली, रम्भासामजनाभिनन्दनमहानष्टापदाभासुरैः भत्तया वंदितपादपद्मविदुषां सम्पादयप्रोज्झिता, रम्भासामजनाभिनन्दनमहानष्टापदाभासुरैः ॥१॥ (३) वक्रोक्तिः - श्लेषवक्रोक्तिकाकुभ्यां वाच्यान्तरकल्पनम् । श्लेषश्च काकुश्चेति ताभ्यां यत्र वाच्यान्तरस्य कल्पनं क्रियते तत्र वक्रोक्तिः । अन्याभिप्रायेण वाक्यमन्यार्थकतया श्लेषेण काक्वा श्लेषेण वाऽन्यार्थे योजयेत् तत्र वक्रोक्तिः । यथासद्वाः प्रेयसि ! दीयतां प्रियतम ! द्वारं किमुच्छाद्यते, सत्कं सुन्दरि ! याचितं कथय मे, किं कस्य सत्कं प्रिय । श्रीनाभेयजिनस्य मज्जनजलं कस्त्वं जनः किं जलं, दम्पत्योरिति जल्पितं जिनपतेः स्नात्रोत्सवे पातु वः ॥ - विज्ञप्तित्रिवेण्यां यथा कुन्थु कान्त ! नमस्कुरु प्रियतमे ! कः क्षुद्रजन्तु नमेत् । बत्तः ! श्रीतनयं वदाभि मदनः, किं नैष सूरात्मजः ॥ किं मन्दोऽयमयि प्रभो! नहि जगत्प्रद्योतकस्तीर्थकृत् । दम्पत्योरिति वक्रवाक्यविषयः पुण्यात् सुखान्येष वः ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा - १८० Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र अन्यदीयान्यार्थकं योजितम् । सभङ्गश्लेषेणार्थान्तरकल्पनाद् वक्रोक्तिः श्लेषभूता । काकुवक्रोक्तिः काले कोकिलवाचाले, सहकारमनोरमे । कृतागसः परित्यागात्, तस्याश्चेतो न दूयते ॥ इत्यत्र न दूयते अपितु दूयत एवेति काक्वा वक्रोक्तिः श्रीकुन्तकाचार्यो वक्रोक्तिजीवितग्रन्थे सर्वेषामलङ्काराणां वक्रोक्त्यलङ्कारे समावेशं चके । "वक्रोक्तिः काव्यजीवितम्" इत्यपि च तेन तत्रैवोक्तम् । 'वक्रोक्तिजीवित' ग्रन्थस्य तृतीयोन्मेषे वाक्यवैचित्र्यवक्रता द्रष्टव्या । (४) भाषासमः- "अनेक - विधास्वपि भाषासु एकविधैरेव वाक्यैर्यत्र रचना विधीयते तत्र भाषासमालङ्कारः भवति ॥" तस्योदाहरणं यथा संसार - दावानल - दाह - नीरं, संमोह - धूली - हरणे समीरम् । माया - रसा - दारण - सार - सीरं, नमामि वीरं गिरि - सार - धीरम् ॥ १ ॥ अस्मिन् श्लोके संस्कृत - प्राकृतभाषाद्वयोः समानता वर्तते। साहित्यरत्नमञ्जूषा-१८१ । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यश्चोदाहरणं यथापालोलकमले चित्ते, ललामकमलालये । पाहि चण्डि! महामोह-भङ्गभीमबलामले ॥१॥ [इति श्रीवाग्भट विरचिते काव्यानुशासने प्रोक्तमिदम्] अत्र संस्कृतम्, प्राकृतम्, मागधी, पैशाचिकी, शौरसेनी, अपभ्रशा- इति षण्णां भाषाणां योगः अस्ति । (५) श्लेषः- "अनेकार्थपर्यवसितैरेकविधैरेव शब्दैरनेकार्थाभिधाने श्लेषालङ्कारः ।" नानार्थक शब्दजन्यानेकार्थाभिधानत्वं श्लेषत्वम् । यथा- “सकलप्रदो माधवः पायात् संयोगं गामदीधरत् ।” कुवलयानन्दे सामान्यलक्षणं वरिणतम्, नानार्थसंश्रयश्लेषो वर्ष्यावर्योभयमिश्रितः । अत्रोदाहरणे यथा - सकलप्रदो माधवः पायात, योऽगं पर्वतं गोवर्धनाख्यं गां भूमि च दधावित्येकोऽर्थः अन्यश्च सर्वदा सदा उ माधव शिवः पायात् यो गङ्गां दधौ इति द्वितीयोऽर्थः । द्विविधस्याप्यर्थस्य अत्र प्रतीति अभिधया वृत्या एव भवति । स च श्लेषो द्विविधः शब्दगतोऽर्थगतश्च । तत्र च शब्दगतो वर्ण- पदलिङ्ग- भाषा- विभक्ति- प्रकृति- प्रत्यय- वचनभेदाद् अष्टधा । सभङ्गः, अभङ्गः, उभयात्मकश्चेति पुनः स त्रिविधः । साहित्यरत्नमञ्जूषा-१८२ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिविधोप्ययं प्रकृतानेकविषयप्रकृताप्रकृतानेकविषयश्चेति त्रिविधः । अत्र प्रथमे द्वितीये च भेदे विशेषस्य श्लिष्टतायां कामचारः, तृतीयभेदे तु विशेषण - वाचकस्यैव पदस्य श्लिष्टत्वं न विशेष्यवाचकपदस्यापि । तथात्वे तु शब्दशक्तिमूलध्वनेः उच्छेदः एव स्यात्, पादश्लेषस्य खण्डश्लेषः, भङ्गश्लेषश्चेति द्वौ भेदौ । तत्र च खण्डश्लेषस्येदं लक्षणम्"प्रत्येक - वाक्यार्थं प्रतिपदानां शब्दानां भिन्नार्थकता तहि खण्डश्लेषः।" अन्यच्च "समस्तपदावयवस्यैकरूपस्यैवार्थभेदेन वाक्यार्थ द्वय प्रतिपादकत्वं खण्डश्लेषः। ___श्लेषालङ्कारविषये तावदयं विचारः प्रस्तुतो ग्रन्थान्तरेषु तथाहि- शब्दयोः जतु काष्टन्यायेन सभङ्गः श्लेषः शब्दगतः, शब्दाभेदाद् - एकवृन्तगतफलद्वयन्यायेन अभङ्गश्लेषः अर्थनिष्ठः । केषाञ्चिन्मते सभङ्गाभङ्गोभयात्मकश्चेति । त्रिधा । सभङ्गो यथा पथकारीस्वरपात्रं, भूषितनिःशेषपरिजनं देव ! । विलसत् करेणुगहनं, सम्प्रति सममावयोः सदनम् ॥१॥ अभङ्गो यथाकिं तत्रास्ति निरन्तरं न भवतः सङ्गः कुरङ्गीदृशां , किं वा तत्र तथा पयोधरपरिष्वङ्गोऽपिनालादकः । यन्मामत्र विहाय निर्वृतिमना नाथोज्जयन्तं गतः , पायाद् वोऽभिहितः स भोजसुतया देवः शिवानन्दनः ॥१॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-१८३ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उभयात्मको यथामाघेन विनितोत्साहा, नोत्सहन्ते पदक्रमे । स्मरन्ति भारवेरेव, कवयः कपयो यथा ॥१॥ ॥ इति शब्दालङ्काराः ।। ॥ अथ अर्थालङ्काराः ॥ अर्थालङ्कारेषु उपमायाः महत्त्वं विशेषेण वर्त्तते । सादृश्यमूलेषु सादृश्यप्रतिभोत्थापितेषु स्मरणादिषु लक्षितव्येषु तेषां सादृश्यमूलालङ्काराणां उत्थापकत्वेन प्राधान्यात् प्रथमे उपमालङ्कारः निरूपणं विधीयते । उपमायामुपमेयोपमानस्य साधारणो धर्मः उपमा वाचकश्चेति चत्वारः पदार्थाः । तत्र साधारणधर्मत्वेन प्रसिद्धः पदार्थः उपमानम् । तद् धर्मतया कविसंरम्भगोचरः उपमेयम् उत्कृष्टगुणवत् तया संभाव्यमानमुपमानम्, अपकृष्ट-गुणवत्तया संभाव्यमानं उपमेयम् । अर्थात्-सादृश्यप्रतियोगी उपमानं सादृश्यानुयोगी उपमेयम् । उपमानोपमेययोः संगतो धर्मः साधारणः कथ्यते । यस्य धर्मस्य सम्बन्धाद्य न सह यद् उपमीयते स साधारणधर्मः तदुपमानं तच्चोपमेयम् । यथा- "श्रीपार्श्वस्य पादौ कमलौ इवास्तः" अत्र मनोज्ञत्वधर्म कोमलत्वधर्म सम्बन्धात् साहित्यरत्नमञ्जूषा-१८४ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद्वद् तया प्रसिद्धन कमलेन सह पादौ उपमीयते कोमलत्वं साधारणधर्मः कमलमुपमानं पादौ उपमेयमिति उपमालङ्कारः । इयमुपमा तदुक्तिवैचित्र्येण नानालङ्कारभावं अवगाहते । तथाहि- "द्वयोपरुमानोपमेययोः सादृश्य - प्रतीतेः पूर्णोपमालङ्कारः । तथा च उक्तेषु चतुर्ष पदार्थेषु मध्ये कस्याप्येकस्यापि अभावे लोपे वा लुप्तोपमा भवति । पूर्णोपमाश्नौत्यार्थीभेदेन द्विधा । तेऽपि वाक्य-समास-तद्धित-गतत्वेन षड्विधे । एवं पूर्णोपमायाः षड्भेदाः धर्मलुप्तोपमा च तद्धितगतश्नौतिमन्तरोक्तभेदैः पञ्चधा । पुनरपि सा धर्मलुप्ता कर्मविहित - क्यचि, आधारविहितक्यचि, कर्मविहितणमुलि, कर्तृ विहितणमुलि क्याङि पञ्चधा भवति । उपमानलोपे वाक्यसमासगतत्वेन द्वौ भेदौ । वाक्यलोपे समासे क्विपि च द्वौ भेदौ उपमेयलोपे क्यचि एको भेदः धर्मोपमेयलुप्तैका । धर्मवाचकोपमानलुप्ता चैका समासगा । एवं संकलने लुप्तोपमायाः एकविंशतिभेदाः पूर्णतयाश्च षट भेदाः भवन्ति । सर्वे च सप्तविंशतिभेदाः उपमायाः । 'काव्यप्रकाशे' लुप्तोपमायाः एकोनविंशतिभेदाः, ते उक्तभेदेषु अन्तर्गताः, 'कुवलयानन्दे' तु वाचकोपमानलोपे एको भेदो साहित्यरत्नमञ्जूषा-१८५ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऽधिकः स्वीकृतः । 'काव्यादर्श' दण्डिना धर्मोपमा, वस्तूपमा, विपर्यासोपमा अन्योन्योपमादयः द्वात्रिंशद् भेदाः उपमायाः प्रोक्ताः । तत्र अतिप्रसिद्धत्वात् प्रथमं उपमालङ्कारः१ - " उपमानोपमेययोर्हृद्यं साधर्म्यं उपमालङ्कारः ।" स च द्विविधः । पूर्णोपमालङ्कारः प्रतीयमानोपमालङ्कारःश्चेति । यत्र उपमानमुपमेयं साधारणधर्मः सादृश्यं च प्रोक्तानि स्युः तत्र पूर्णोपमालङ्कारः । एतेषामन्यतमस्यानुक्तं प्रतीयमानोपमालङ्कारश्चेति । पूर्णा यथा 1 गत्या विभ्रममन्दया प्रतिपदं या राजहंसायते यस्याः पूर्णमृगाङ्कमण्डलमिव श्रीमत्सदैवाननम् । यस्याश्चानुकरोति नेत्रयुगलं नीलोत्पलानि श्रिया, तां कुन्दार्हदतीं त्यजञ्जिनपती राजीमतों पातु वः ॥ अत्र पूर्णोपमालङ्कारः प्रवर्तते । प्रतीयमाना यथाअनाधिव्याधिसंबाध-ममन्दानन्दकाररणम् ॥ न किञ्चिदन्यदस्तीह, समाधेः सदृशं सखे ! ॥ अत्र प्रतीयमानालङ्कारः वर्त्तते । साहित्यरत्नमञ्जूषा-१८६ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ - "यत्र पूर्वपूर्वोपमेयस्य उत्तरोत्तरमुपमानता तत्र रसनोपमालङ्कार : ।" यथा चन्द्रायते शुक्लरुचाऽपि हंसो, कान्तायते स्पर्शसुखेन वारि, हंसायते चारुगतेन कान्ता । यथा ३ - " एकस्यैव वस्तुनो यदोपमानत्वमुपमेयत्वं च तदाऽनन्वयालङ्कारः । " वारीयते स्वच्छतया विहायः ॥ १ ॥ यथा "राजीवमिव राजीवं, जलं जलमिवाऽजनि । चन्द्रश्चन्द्र इवातन्द्रः, शरत् समुदयोद्यमे ॥ १ ॥ " अत्र अनन्वयालङ्कारः प्रवर्त्तते । ४- " यत्रानुक्रमेण द्वयोरुपमानोपमेयत्वं तत्र उपमेयोपमालङ्कारः । " “गिरिरिव गजराजोऽयं, गजराज इवोश्चकैविभाति गिरिः । निर्भर इव मदधारा, मदधारेवास्य निर्झरः स्रवति ॥ १ ॥ अत्र उपमेयोपमालङ्कारः वर्त्तते । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १८७ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५- “यत्रोपमेये उपमानस्य 'अभेदाध्यवसायः' तत्र रूपकालङ्कारः ।" यथा" संसार एष कूपः सलिलानि विपत्तिजन्मदुःखानि । इह धर्म एव रज्जुस्तस्मादुद्धरति निर्मग्नान् ॥ १॥ अत्र रूपकालङ्कारः प्रवर्त्तते । ६- “यत्र सादृश्यज्ञानतः स्मृतिः संजायते तत्र स्मृत्यलङ्कारः।" यथा "पङ्कजं पश्यतः कान्तामुखं मे गाहते मनः।" अत्र स्मृत्यलङ्कारो वर्तते । ७- यत्र सादृश्यज्ञानतो भ्रान्तिः संजायते तत्र भ्रान्त्यलङ्कारः। यथा पलाशमुकुलभ्रान्त्या, शुकतुण्डे पतत्यलिः । सोऽपि जम्बुफलभ्रान्त्या, तमलि धर्तुमिच्छति ॥ १॥ अत्र भ्रान्त्यलङ्कारः प्रवर्तते । साहित्यरत्नमञ्जूषा-१८८ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८- यत्र सादृश्यज्ञानतः सन्देहः संजायते तत्र सन्देहालङ्कारः । यथा जीवनग्रहणे नम्रा, गृहीत्वा पुनरुन्नताः । कि कनिष्ठाः किमुज्येष्ठा, घटी यन्त्रस्य दुर्जनाः ॥ १ ॥ अत्र सन्देहालङ्कारो वर्त्तते । E - वर्णनीयवस्तुधर्मनिह्नवपूर्वकतत् सादृशधर्मारोपः शुद्धापह्न तिः श्रलङ्कारः । 1 यथा "अङ्क केऽपि शशङ्किरे जलनिधेः पङ्क परे मेनिरे, सारङ्ग कतिचिच्च संजगदिरे भूच्छायमैच्छन्परे । इन्दौ यद् दलितेन्द्रनीलशकलश्यामं दरीदृश्यते, तत्सान्द्रं निशि पीतमन्धतमसं कुक्षिस्थमाचक्ष्महे ।। १ ।। अत्र शुद्धापह्न ुतिः अलंकारः प्रवर्त्तते । १०- यत्र निषेधं विना फलस्वरूपयोः ग्रहणम् । उत्कटकोटि सन्देह विषयो क्रियते, तत्र उत्प्रेक्षेति भावः । उत् ऊर्ध्वगता प्रेक्षा बुद्धिः यस्यां सा उत्प्रेक्षा । प्रकृतस्योत्कट - कोटिकज्ञानतादात्म्येन सम्भावनमुत् प्रेक्षा; गूढा साहित्यरत्नमञ्जूषा - १८९ - Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगूढा च इयं उत्प्रेक्षा द्विधा । पदस्य सत्तायां चागूढा । दण्डिना काव्यादर्श दर्शितम् इवादिपदाभावे गूढा, इव मन्ये शङ्के ध्र ुवं प्रायो, नूनमित्येवमादिभिः । उत्प्रेक्षा व्यज्यते शब्द - रिवाशब्दोऽपि तादृशः ॥ प्रत्यन्तसादृश्यादसतोऽपि धर्मस्य कल्पन-मुत्प्रेक्षाऽलङ्कारः । सा च एवं मन्ये शङ्क े ध्रुवं नूनमित्यादिभिः शब्दैर्व्यज्यते । यथा दिशतु विरतिलाभानन्तरं पार्श्वसर्पन्नमिविनमिकृपारणोत्सङ्गदृश्याङ्गलक्ष्मीः । त्रिजगदपगतापत् कर्त्तुमात्तान्यरूप द्वय इव भगवान् वः सम्पदं नाभिसूनुः || प्रतीयमानोत्प्रेक्षालङ्कारो यथाबलं जगद्ध्वंसनरक्षणक्षमं , क्षमा च कि संगमके कृतागसि । इतीव संचिन्त्य विमुच्य मानसं, रुषेव रोषस्तव नाथ ! निर्ययौ || अत्र प्रतीयमानोत्प्रेक्षालङ्कारः प्रवर्त्तते । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १९० Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११- प्रत्युक्तिर- तिशयोक्तिरलङ्कारः । अतिशयोऽतिशयता शयोक्तिः । विषयिणा विषमस्य निगरणमतिशयस्तस्योक्तिः इति । यत्र च उपमानद्वारोपमेयस्य निगरणं भवति । यथा साहित्यदर्पणे प्रसिद्धिमतिक्रान्ता उक्तिरति “सिद्धत्वेऽध्यवसायस्यातिशयोक्ति निगद्यते ।" अध्यवसायो नाम विषयिणा विषयनिगरणेन द्वयोरभेदप्रतिपत्तिः, यत्र कार्यकरणे युगपत् एककालमेव ककालावच्छिन्नत्वमतिशयोक्तित्वम् । कार्यकारणाधिकरण मुखं द्वितीयश्चन्द्रः । अत्र अतिशयोक्तिः विषये अधः करण मात्रेण निगरणं भवति । अतिशयोक्तिनां अन्योदाहरणेषु विषयानुपादानात् निगरणं भवति । भेदेप्यभेदः सम्बन्धेSसम्बन्धस्तद् विपर्ययौ पौर्वापर्यात्ययः कार्यहेत्वोः सा पञ्चधा [ साहित्यदर्पणे] भेदेऽभेदः, अभेदे भेदः सम्बन्धेऽसम्बन्धः, असम्बन्धे सम्बन्ध:, कार्यकारणपौर्वापर्यवत्यास इति पञ्चविधातिशयोक्तिः । 'कुवलयानन्दे' यथा रूपकातिशयोक्तिः, भेदकातिशयोक्तिः, सम्बन्धातिशयोक्तिः, चपलातिशयोक्तिः, अत्यन्तातिशयोक्तिश्चेति । अतिशयोक्तयाः अलङ्कारस्योदाहरणं यथा साहित्यरत्नमञ्जूषा - १९१ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सममेव समाक्रान्तं, द्वयं द्विरदगामिना । तेन सिंहासनं पित्र्यं, मण्डलं च महीक्षिताम् ॥ १॥ अत्र अतिशयोक्तिरलङ्कारः वर्तते । १२- दृष्टान्तालङ्कारः - “यत्रोपमानोपमेययोभिन्नौ धमौ बिम्बप्रतिबिम्बभावेन वरिणतौ तत्र दृष्टान्तालङ्कारः।" ___ यत्र बिम्ब-प्रतिबिम्बत्वं दृष्टान्तस्तत्र वर्ण्यते । चेद् यदि वाक्यार्थयो बिम्बश्च प्रतिबिम्बश्वे ति बिम्ब-प्रतिबिम्बौ तयोर्भावो बिम्बप्रतिबिम्बत्वम् । "बी गति व्याप्तिपूजनकान्त्यसनखादनेषु' इति धातोः "उत्वादयश्च (४।६५) इत्यौणादिकात् सूत्राद् वन्न मागम ह्रस्वत्वे बिम्बशब्दसिद्धिः। यथा दर्पणे बिम्बवत् प्रतिबिम्बः दृश्यते तथैव एकवाक्यवदपरवाक्यं यत्र तद् तदा दृष्टान्तोऽलङ्कारो भवति । दृष्टोऽन्तो निश्चयः यस्मिन् स दृष्टान्तः । उपमानोपमेयनिष्ठ - वाक्यधर्मयोःबिम्बप्रतिबिम्बभाव यत्र तत्र दृष्टान्तः । वस्तुतो भिन्नयोरपि उपमानोपमेययोः परस्परसादृश्याद्भिन्नयोः पृथगुपादानं बिम्बप्रतिबिम्बभावः । “दृष्टा मयाऽहत्प्रतिमा, तन्मृष्टा दैवदुष्कृतिः ।” यथा"अविदितगुणाऽपि सत्कविभरिणतिः , कर्णेषु वमति मध्धारां । अनधिगतपरिमलाऽपि हि , हरति दृशं मालतीमाला ॥ १ ॥" साहित्यरत्नमञ्जूषा-१९२ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३- निदर्शनाऽलङ्कारः- “यत्र सदृशयोः वाक्यार्थयोः ऐक्यारोपस्तत्र-निदर्शनाख्योऽलङ्कारः ।" 'वाक्यार्थयोः बिम्बबिम्बं बोधयेत् सा निदर्शना ।' 'निश्चित्यदर्शनं सादृश्याविष्करणं निदर्शना ।' 'अनुपपद्यमानो वाक्यार्थयोः सम्बन्धो यत्रौपम्यबोधकः सन् पर्यवस्यति तत्र निदर्शना ।' साधारणधर्मानुपन्यासाद् वाक्यार्थयोः सापेक्षत्वाच्च न दृष्टान्तेऽन्तर्भावः । उदाहरणम्-- "या दातुः सौम्यता सेयं सुधांशोरकलङ्कता।" . [श्री कुवलयानन्दे प्रोक्तमिदम्] या दातुर्वदान्यस्य सौम्यता सुधांशोः चन्द्रस्याकलङ्कता, कलङ्कशून्यता । अत्र दातृपुरुषसौम्यत्वस्योपमेयवाक्यार्थस्य चन्द्रस्याऽकलङ्कत्वस्योपमानवाक्यस्य च यत् तत् शब्दाभ्यां एक्यारोपात् निदर्शना अलङ्कारः। इयं निदर्शना सदर्था असदा इति द्विधा । अन्यच्च "यथा जिनेन्द्र प्रतिभाति शोभा, तथा समृद्धिः परिपूजकानाम् ।" साहित्य-१३ साहित्यरत्नमञ्जूषा-१९३ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र हि यथा तथा शब्दाभ्यां ऐक्यारोपात् निदर्शना अलङ्कारः। यथा अरण्यरुदितं कृतं शवशरीरमुवतितं , स्थलेऽब्जमवरोपितं सुचिरमूषरे वर्षितम् । श्वपुच्छमवनामितं बधिरकर्णजापः कृतो धृतोऽन्धमुखदर्पणो यदबुधो जनः सेवितः ॥१॥ अत्रापि वै निदर्शनाख्योऽलङ्कारो वर्त्तते । १४- व्यतिरेकालङ्कारः- "उपमानादुपमेयस्याधिक्यं न्यूनता, वा यत्र वर्ण्यते तत्र व्यतिरेकाऽलङ्कारः। वैशेष्यमुपमेयस्योपमानान्न्यूनताथ च । चेद् उपमानोपमेययोः प्रकृताऽप्रकृतयोः वैलक्षण्यं स्यात् तदा व्यतिरेकः अलङ्कारो भवति । व्यतिरेकशब्दो भावघजन्तः । उपमानापेक्षया उपमेयस्य आधिक्ये व्यतिरेकाख्योऽलङ्कारो भवति । व्युत्पत्त्या व्यतिरिच्यते । उपमानवैलक्षण्येनोपलभ्यते । उपमेयमनेन इति व्यतिरेक पद व्युत्पत्तिरवधेया। "अचलेव श्रमणास्तुङ्गाः, किन्तु मनसि कोमलाः।" यथा श्रमणा अचलेव शैला इव तुङ्गाः उन्नताः, किन्तु मनसि चेतसि कोमला श्रमणाः उत्कर्षप्राप्ताः ऊर्ध्वं गताः किन्तु प्रकृत्या कोमलाः सुकुमाराः सन्ति । साहित्यरत्नमञ्जूषा-१९४ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र शैल - श्रमरणयोः प्रन्नत्य - साम्येऽपि सज्जनानां कोमलत्वेन प्राधिक्यं प्रतिपादितम् । अतः व्यतिरेकालङ्कारः । १५ - विनोक्त्यलङ्कारः - "यत्र येन विना वर्णनीयवस्तुनि न्यूनता, प्राधिक्यं वा स्यात्, तत्र- विनोक्त्यलङ्कारः । " यथा "विद्या हृद्याऽपि सावद्या, विना विनयसम्पदम् । विना खर्लोविभात्येषा, राजेन्द्र ! भवतः सभा ॥ अत्र विनोक्त्यलङ्कारो वर्त्तते । १६ - "स्वभावतः एकार्थके वाक्ये अनेकार्थता श्लेषालङ्कारः।” ' सकृदुच्चरितः शब्दः सकृदर्थं गमयति' इति नियमेन काव्ये स्वरभेदादानात् यावन्तोऽर्थास्तावन्त एव शब्दा एक प्रयत्नेनोच्चार्यन्त इति नये युगपन्ना शब्दोच्चारणेऽपि तेषां भेदोपलम्भो न भवति । तत्रापि प्रकरणादिनियमाभावादनेकार्थानां अभिधयैव बोधः । प्रकरणादिनियमसत्वे तु एकस्याभिधया परस्य व्यञ्जनयेति मतमाश्रित्येदं लक्षणम् । एवं चैकप्रयत्नोच्चार्यत्वेन लुप्तभेदानां वर्णादीनां मेलकः श्लेषः । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १९५ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तद् विशिष्टै: पदैः अनेकार्थानां अभिधया बोधने सति श्लेषो भवति । वौं च प्रत्ययौ च लिङ्ग चेतिविग्रहः । स श्लेषालङ्कारः। स्वभावतः एकार्थके वाक्ये अनेकार्थता श्लेषः । बह्वर्थसंश्रयश्लेषः वर्णप्रत्ययलिङ्गषु । "सर्वदा ऋषभः पायात् यो हि गां स्ववशीकरोत् ।" अत्र सदा श्रीऋषभजिनेश्वरः पायात् यो हि निश्चयेन गां इन्द्रियं वाणीं वा स्ववशे अकरोत् स्वाधीनं कृतवान् । अन्यच्च-द्विविधस्याप्यर्थस्याऽत्र प्रतीतिः अभिधाख्यया वृत्यैव भवति । ऋषभः बलीवर्दः पायात् यो गां धेनु स्ववशीकरोत् । यथा"प्रवर्तयन् क्रियाः साध्वीर्मालिन्यं हरितां हरन् । महसा भूयसा दीप्तौ विराजति विभाकरः ॥१॥" अत्र श्लेषालङ्कारः प्रवर्त्तते । १७- अप्रस्तुतप्रशंसालङ्कारः - “यत्र अप्रस्तुतवर्णनेन प्रस्तुतं ज्ञायते, तत्र अप्रस्तुतप्रशंसाऽलङ्कारः।" साहित्यरत्नमञ्जूषा--१९६ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा "पादाहतं यदुत्थाय मूर्धानमधिरोहति । स्वस्था देवापमानेऽपि देहिनस्तद् वरं रजः ॥” अत्र अप्रस्तुतप्रशंसाऽलङ्कारो वर्त्तते । १८ - व्याजस्तुतिरलङ्कारः - "यत्र निन्दा -स्तुतिभ्यां स्तुति - निन्दे गम्येते तत्र व्याजस्तुतिरलङ्कारः । " यथा "सर्वदा सर्वदोऽसीति, मिथ्या त्वं स्तूयसे बुधैः । नारयो लेभिरे पृष्ठं, न वक्षः परयोषितः ॥ " अत्र निन्दया स्तुतिः, तस्माद् व्याजस्तुतिरल कारः प्रवर्त्तते । यथाऽथवा "कि वृत्तान्तैः परगृहगतेः किन्तु नाहं समर्थ - स्तूष्णीं स्थातुं प्रकृतिमुखरो दाक्षिणात्यस्वभावः । गेहे गेहे विपरिणषु तथा चत्वरे पानगोष्ठ्यामुन्मत्तेव भ्रमति भवतो वल्लभा देव ! कीत्तिः ॥ " अत्रापि वै निन्दया स्तुतिः, तस्माद् व्याजस्तुतिरलङ्कारो वर्त्तते । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १९७ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुत्या निन्दा यथा "कृपणेन समो दाता, न भूतो न भविष्यति । अस्पृशन्नेव वित्तानि यः परेभ्यः प्रयच्छति ।। " अत्र स्तुतिद्वारा निन्दा, तस्माद् व्याजस्तुतिरलङ्कारः प्रवर्त्तते । १६- प्रर्थान्तरन्यासालङ्कारः- “यत्र सामान्यं विशेषेण विशेषश्च सामान्येन समर्थ्यते - तत्र प्रर्थान्तरन्यासालङ्कारः " "विशेषेण हि सामान्यं, सामान्येन विशेषकम् । समर्थ्यतेऽन्योऽन्यं वाऽर्थान्तरन्यास मन्यते ॥ १ ॥ " अन्योऽन्योऽर्थोऽर्थान्तरं तस्य न्यासः न्यसनम्, प्रर्थान्तरन्यासः मुख्यार्थसम्बन्धमर्थान्तरं यत्र स्यात् तत्र अर्थान्तरन्यासः । सामान्यं विशेषो वा सामान्येन विशेषेण वा समर्थ्यते यत्र तत्र अर्थान्तरन्यासः अलङ्कारः । अन्यच्च – समर्थ-समर्थकयोः सामान्यविशेषसम्बन्धेऽर्थान्तरन्यासः तदितरसम्बन्धे च काव्यलिङ्गमिति । केचित्तु - "समर्थनाद्यक्षसमर्थने काव्यलिङ्गम् तन्निरपेक्षसमर्थनेऽर्थान्तरन्यासः ।" यत्र सामान्यविशेषरूपाथन्तिरेण पूर्वार्थसमर्थनम्, तत्र प्रर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः । साहित्यरत्नमञ्जूषा - १९८ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यापकधर्मावच्छिन्नतया समर्थनं सामान्यम्, विशेषेण व्याप्यधर्मावच्छिन्नगोचरेण साधर्येण साधर्म्यप्रकारकज्ञानेन वैधर्म्यज्ञानेन वा यदि समर्थ्यते उत्पाद्यते तदा अर्थान्तरन्यासः । उदाहरणं यथा"विजेतव्या लङ्का चरणतरणीयो जलनिधि विपक्षः पौलस्त्यो रणभुवि सहायाश्च कपयः । तथाप्येको रामः सकलमवधीद्राक्षसकुलं, क्रियासिद्धिः सत्वे भवति महतां नोपकरणे।" अत्र सामान्यं विशेषेण समर्थितम् । सामान्येन विशेषसमर्थनं यथा"गुरगवद् वस्तुसंसर्गाद्, याति नीचोऽपि गौरवम् । पुष्पमालानुसङ्गन, सूत्रं शिरसि धार्यते ॥" अन्यच्च"निर्ग्रन्थाः श्रमणाः मुक्ताः दुष्कृतं किं महात्मनाम् ।" श्रीजिनधर्मे निमग्नाः निर्ग्रन्थाः श्रमणाः साधवः मुक्ताः मोक्ष प्राप्ताः, यतो महात्मनां महापुरुषाणां किं दुष्करं दुर्लभं भवति, अपि तु किमपि दुष्करं दुर्लभं नेत्यर्थः । साहित्यरत्नमञ्जूषा-१९९ । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र सामान्यविशेषभावसम्बन्धमर्थान्तरमभिहितम्, अतः अर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः। महात्मसम्बन्धि-समस्तकार्यसुकरता प्रतिपादनेन सामान्येन निर्ग्रन्थकृतक भवाम्बुधिस्तरणं विशेषार्थस्य समर्थनात् अर्थान्तरन्यासस्य प्रतिपादनम् । २०-विभावनालङ्कारः- “यत्र हेतु विना कार्योत्पत्तिः वर्ण्यते तत्र विभावनालङ्कारः।" विनाऽपि कारणे कार्य यत्र स्यात् तत् विभावना। चेत् कार्य विनाऽपि कारणं स्यात् । यदि कारणं विना कार्यजन्यफलोत्पत्तिः तदा विभावनालङ्कारो भवति । सति कारणे निमित्त कार्यं भवतीति नियमः । अत्र तु तद् वैपरीत्यम् । विभाव्यते हेतुरस्यामिति विभावना बाहुलकादधिकरणे युच् प्रत्ययः । उदाहरणं यथा "चक्रिनिजितशत्रूणा-मुत्पदेऽरात्रिकं तमः ।" अत्र अन्धकारोत्पत्ती रात्रावेव तथाऽपि तस्योत्पत्ती रजनीं विना वर्णिता-इति विभावना । अन्यच्चाऽपि"गतधना अपि हि त्वदनुग्रहात् , कलितकोमलवाक्य सुधोर्मयः । चकितबालकुरङ्गविलोचना , जनमनांसि हरन्ति तरां नराः ॥ १ ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-२०० Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतधना अपि यथा धनहीना अपि यत् निर्धनस्य कुत्राऽपि नैव सन्मानम् । "माता निन्दति, नाभिनन्दति पिता, भ्राता न संभाषते, भृत्यः कुप्यति, नाऽनुगच्छति सुतः, कान्ता च नाऽऽलिङ्गते । अर्थप्रार्थनशङ्कया न कुरुतेऽप्यालापमानं सुहृत्, तस्मात् द्रव्यमुपार्जयाशु सुमते ! द्रव्येण सर्वे वशाः ॥" एतादृशों दशायां अनुभावमाना अपि मानवाः त्वदनुग्रहात् कलितकोमलवाक्यसुधोर्मयः भवन्ति । अर्थात् निर्द्रव्या अपि तवानुग्रहात् सर्वान् अपि मोहयन्ति । अतः कारणाभावेऽपि कार्योत्पत्तिर्वणिता इति । अतोऽत्र विभावनाऽलङ्कारः। २१- विशेषोक्तिः- "यत्र कारणसत्त्वेऽपि कार्याभावस्तत्र विशेषोक्तिरलङ्कारः।" कारण विद्यमाने सति कार्यस्याभावो यत्र वर्तते तत्र विशेषोक्तिः अलङ्कारो भवति । उदाहरणं यथा"धनिनोऽपि निरुन्मादा, युवानोऽपि न चञ्चलाः । प्रभवोऽप्यप्रमत्तास्ते, महामहिमशालिनः ॥" अत्र विशेषोक्तिः अलङ्कारः वर्तते । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२०१४ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२- विरोधाभासः- “यत्र आपाततः विरोधं प्रतिभासते तत्र-विरोधाभासोऽलङ्कारः।" श्लेषादिजन्यो विरोधश्चेत्, विरोधाभास भूयते। चेद् यदि श्लेषादिना भवति इति श्लेषादिजन्यो यदि विरोधः परस्परं अनुपत्तिस्तदा विरोधाभासः भवति । श्लेषहेतुकविरोधे विरोधाभासते इति भावः । प्रा ईषद् भासत इत्याभासः । विरोधश्चासा वाभासश्चेति विरोधाभासः । प्राचीनग्रन्थेषु विरोधो विरोधाभासश्चाभिन्न एव । वास्तविकविरोध-परिहारमूलक - श्लेषादिजन्य - विरोधज्ञानत्वं विरोधाभासत्वम् । उदाहरणं यथा "विश्वेश्वरोऽपि जनपालक! दुर्गतत्वं । कि वाक्षरप्रकृतिरप्यलिपीस्त्वमीश! ॥ अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव । ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकाशहेतोः ॥ १ ॥ अत्र विरोधाभासः अलङ्कारः प्रवर्त्तते । २३- विषमालङ्कारः- “यत्र असम्भावितस्यार्थस्य सम्बन्धः क्रियते स-विषमालङ्कारः।" उदाहरणं यथा "क्व चायं भूभागः क्व च गगनमेतद्व्यवहितं । तथाप्यम्भोराशिविकसति सितांशोः समुदये ॥ वृथा प्रत्यासत्तिः किमु किमपि मृष्यं तदपरं । यदत्यन्तं भावान् घटयति विदूरानपि मिथः ॥ १॥" अत्र विषमालङ्कारो वर्त्तते । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२०२ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ - समालङ्कारः - "यत्र योग्यकर्मणा योग्यस्य वस्तुनः प्रशंसा स्यात् तत्र समालङ्ककारः ।" उदाहरणं यथा " नमोऽस्तु वर्द्धमानाय, स्पर्द्धमानाय कर्मरणा । तज्जयावाप्तमोक्षाय, परोक्षाय कुर्तीथिनाम् ॥ १ ॥ येषां विकचारविन्दराज्या, क्रमक्रमलावल दधत्या । संगतं ज्यायः सदृशैरिति कथितं सन्तु शिवाय ते अत्र समालङ्कारः प्रवर्त्तते । २५ - विचित्रालङ्कृति:- " इष्टविरुद्धस्य करणं यदि इष्टफलाय जायते तदा विचित्रालङ कृतिः ।" उदाहरणं यथा "प्ररणमत्युन्नति हेतो प्रशस्यं, जिनेन्द्राः ॥ २ ॥ जवितहेतोः विमुञ्चति प्राणान् । दुःखीयति सुखहेतोः, को मूढः सेवकादन्यः ॥ १ ।। " अत्र विचित्रालङ्कारो वर्त्तते । २६- कारणमाला - " परं परं प्रति यदि पूर्वपूर्वस्य कारणता तदा कारणमालाऽलङ्कारः ।" उदाहरणं यथा साहित्यरत्नमञ्जूषा - २०३ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "श्रुतं कृतधियां सङ्गाज्जायते विनयः श्रुतात् । लोकानुरागो विनयान किं लोकानुरागतः ॥ १ ॥ " अत्र कारणमालाऽलङ्कारः प्रवर्त्तते । २७- मालादीपकम् - " उत्तरोत्तरं एकधर्मेण अनेकधर्मिणां सम्बन्धः मालादीपकमलङ्कारः ।" उदाहरणं यथा " सङ्ग्रामाङ्गणमागतेन भवता चापे समारोपिते । देवाकर्णय येन येन सहसा यद्यत्समासादितम् ॥ कोदण्डेन शराः शरैररिशिरस्तेनाऽपि भूमण्डलं । तेन त्वं भवता च कीतिरतुला कीर्त्या च लोकत्रयम् ॥ १॥" अत्र मालादीपकमलङ्कारो वर्त्तते । २८ - सारालङ्कारः- “उत्तरोत्तरमुत्कर्षो वस्तुनः सारालङ्कारः ।" उदाहरणं यथा "काव्येषु नाटकं रम्यं, नाटकेषु शकुन्तलम् । तत्राऽपि चतुर्थोऽङ्कः, तत्र श्लोकचतुष्टयम् ॥ १॥" अस्मिन् श्लोके सारालङ्कारो वर्त्तते । २६ - परिसंख्याऽलङ्कारः - " प्रश्नादप्रश्नाद्वा तादृशस्यान्यस्य वस्तुनो निरासो भवेत् तदा परिसंख्याऽलङ्कारः ।” साहित्यरत्नमञ्जूषा - २०४ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यत्र प्रश्नाद् वा अप्रश्नात् तादृशस्य अन्यस्य पदार्थस्य निरासो भवेत् तत्र परिसंख्याऽलङ्कारो भवति । उदाहरणं यथा "कि भूषणं सुदृढमत्र यशो न रत्नं, कि कार्यमार्यचरितं सुकृतं न दोषः । किं चक्षुरप्रतिहतं धिषणा न नेत्रं , जानाति कस्त्वदपरः सदसद्विवेकम् । अत्र परिसंख्याऽलङ्कारः प्रवर्त्तते । ३०- आक्षेपालङ्कारः-“यत्रोपमानस्य तिरस्कारः सआक्षेपालङ्कारः।" उदाहरणं यथा "अहमेव गुरुः सुदारुणामिति , हालाहल तात ! मा स्म दृप्यः । ननु सन्ति भवादशानि भूयो, - भुवनेऽस्मिन् वचनानि दुर्जनानाम् ॥ १॥ अत्र आक्षेपालङ्कारो वर्त्तते । ३१- स्वभावोक्तिरलङ्कारः- “यत्र तत् तत् स्वभावमेव वर्णनं तत्र-स्वभावोक्तिरलङ्कारः।" उदाहरणं यथा "करारविन्देन पदारविन्दं , ___ मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम् । वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं . बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि ॥ अत्र स्वभावोक्तिरलंकारः प्रवर्त्तते । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२०५ । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२- काव्यलिङ्गालङ्कार :- वाक्यपदार्थत्वे वाक्यस्य पदार्थस्य वा हेतुत्वे व्यङ्गय काव्यलिङ्गालङ्कारो भवति । यत्र नूतनस्य नवस्यार्थस्य बोधको वाचः पदवाक्यरूपस्य अर्थः स्यात् तत्र 'काव्यलिङ्गाऽलङ्कारः' स्यात् । समर्थनसापेक्षस्यार्थस्य यत्र पदद्वारा वाक्यद्वारा वा समर्थनं भवति तत्र काव्यलिङ्गाऽलङ्कारः । एवं च पदार्थहेतुकतया वाक्यार्थहेतुकतया च काव्यलिङ्गस्य द्वौ भेदौ भवतः । अन्यच्च काव्याभिमतं लिङ्ग काव्यलिङ्गम्, तर्कवैलक्षण्यार्थ-काव्यग्रहणम् न हि यत्र व्याप्तिपक्षधर्मतः उपसंहारादयः क्रियन्ते, तत्र काव्यलिङ्गाऽलङ्कारो भवति । लक्षणम्"काव्यलिङ्ग भवेत् यत्र, हेतोः वाक्यपदार्थता । विजितो कामसन्दोहः, मच्चित्तेऽस्ति जिनोत्तमः ॥ १॥ कामस्य सन्दोहः वेगः विजितः कारणं यत् मच्चित्ते मन्मनसि जिनोत्तमः जिनेश्वरः अस्ति, अतः कामस्य प्रभावो निष्फलः । श्रोजिनेश्वरस्य प्रभोः हृदि वर्तमानत्व वर्णनेन तस्य समर्थनात् काव्य लिङ्गालङ्कारो वाक्यार्थहेतुकः । ३३- दीपकम्-"वर्णनीयावर्णनीयानां तुल्यत्वे दीपकं स्मृतम् ।" साहित्यरत्नमञ्जूषा-२०६ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यत्र वर्णनीयाः प्रस्तुताः अवर्णनीया अप्रस्तुताः प्रस्तुताऽप्रस्तुतानां प्रकृताऽप्रकृतानां गुणेन क्रियया च साम्ये तुल्यत्वे वा दीपकमलङ्कारः । प्रकृतधर्मः प्रसङ्गादप्रकृतमपि दीपयति प्रकाशयतीति दीपकम् । अथवा दीप इव दीपकम् “संज्ञायां कन्" इतीवार्थे कन् प्रत्ययः । यथा प्रासादार्थमारोपितो दीपकः वीथ्यामुपकरोति, दीपसाम्याद् दीपकाख्योऽलङ्कारोऽपि प्रकृतमपि उपकरोति । प्रस्तुताप्रस्तुतनिष्ठ - साधारणधर्म - कथनं दीपकत्वम् । उदाहरणं यथा "सुधयेन्दु यथा भाति तथैव जिनशासने ।" अत्र दीपकाख्योऽलङ्कारः वर्त्तते । अत्र येऽतिप्रसिद्धाः अलङ्काराः साहित्यग्रन्थे कथितास्तेऽत्र प्रकाशिताः । विशेषार्थिना विशिष्टग्रन्थाः श्रीकाव्यानुशासन-काव्यप्रकाश-साहित्यदर्पणादयो विलोकनीयाः । ॥ इत्यर्थालङ्काराः ॥ ॥ दृश्य-श्रव्यकाव्यनिरूपणम् ॥ अत्र संक्षिप्तं दृश्य-श्रव्य काव्यनिरूपणं निरूप्यते"दृश्य-श्रव्यत्वभेदाभ्यां, द्विविधं काव्यलक्षणम् । अभिनेयं यत् तद् दृश्यं, रूपारोपाद्धि रूपकम् ॥१॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-२०७ , Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनेययोग्य दृश्यं, नाट्याद्यभिनीयमानं नायकादिचरितं दृश्यमुच्यते । यथा मुखादी पद्यादेरारोपो रूपकं मतम्, तथैव नायकारोपो नटे रूपकमुच्यते । यथा मन्दारमन्दे भङ्गयन्तरेण प्रतिपादितम् उत्पादयन् सहृदये रसज्ञानं निरन्तरम्, अनुकर्त्ता स्थितो योऽर्थः अभिनयः सोभिधीयते । नाट्यशास्त्रेऽपि भरतस्य मतम् - विभावयति यस्माच्च नानार्थान् हि प्रयोगतः शाखाङ्गोपाङ्ग - संयुक्तः तस्माद् अभिनयः स्मृतः । नाट्यशास्त्रे तु "विविधस्याङ्गिको ज्ञेयः, शरीरो मुखजस्तथा । तथा चेष्टा कृतश्वव शाखाङ्गोपाङ्गसंयुतः ॥ इत्यनेनाङ्गिकाभिनयस्य वैविध्यमुदीरितम् । " देहिको वाचिकचंव, भूषकः सात्त्विकस्तथा । तुर्याभिनयविधा ज्ञेया, भवेन्नाटक - रूपके ॥ अस्य रूपकस्य दशभेदाः नाट्यशास्त्रेषु दर्शिता एव । तद्यथा सोहित्यरत्नमञ्जूषा - २०८ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "नाटकं प्रकरणं भारणं, व्यायोगं समवकारकम् । डिम्मेहामृगाङ्कविथ्यः, प्रहसनेतिदशस्मृतः ॥" प्रकरणस्य लक्षणम् "लौकिकं वा रचितं वृत्तं, भवेत् प्रकरणे मतम् । विना विशेषं सर्वेषां, वृत्तं नाटकवत् रचेत् ॥" भारणस्य लक्षणम् "एकाङ्कस्य भवेत् भारणः, धूर्तावस्थान्तरात्मकः ।" व्यायोगस्य लक्षणम् "इतिवृत्तात्मकख्यातः, अल्पस्त्रीपात्रसंयुतः। विना विशेषं नाट्यस्य, व्यायोगोऽतिनराश्रितः ॥" समवकारस्य लक्षणम् "सुराऽसुराश्रयं वृत्त - मङ्कस्त्रय - समन्वितम् । संधयस्तुर्यमाख्यातं, समवकारस्य लक्षणम् ॥" डिमस्य लक्षणम् "इन्द्रजालसभायुक्तः, युद्धक्रोधादिचेष्टितः । मुख्य रौद्ररसो यत्र, डिमः ख्यातेति वृत्तकः ॥" ईहामृगस्य लक्षणम् "चतुरङ्क सभायुक्तः, इतिवृत्तश्च मिश्र वा । संधयोऽपि त्रयस्तत्र, ईहामृगः प्रकीर्तितः ॥" साहित्य-१४ साहित्यरत्नमञ्जूषा-२०६। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्कस्य लक्षणम् उत्सृष्टिका प्रख्यातं वृत्तं बुद्धया प्रपञ्चयेत् ॥ रसस्तु करुणः स्थायी नेतारः प्राकृता नराः। भारणवत्सन्धिवृत्त्यङ्ग-युक्तिः स्त्रीपरिदेवितैः । वाचा युद्धं विधातव्यं तथा जयपराजयौ । (दशरूपकम्) वीथिलक्षणम् "उत्तमाधममध्येषु, नायककोऽत्रं वर्तते । आकाशभाषितैः युक्ता, एकाङ्का वीथिरुच्यते ॥" प्रहसनस्य लक्षणम् "हास्यरसप्रधानत्वं, प्रहसने नाट्यभेदके ।" साहित्यदर्पणे तु प्रहसनस्य लक्षणमिदम्"भारणवत् सन्धिसन्ध्यङ्ग लास्याङ्गाङ्क विनिर्मितम् । भवेत् प्रहसनं वृत्तं , निन्द्यानां कविकल्पितम् ॥ १॥" * श्रव्यकाव्यम् * "श्रोतव्यमेव श्रव्यं हि, गद्य-पद्यात्मकं द्विधा । पद्यं छन्दमयं प्रोक्तः, तेन मुक्त हि मुक्तकम् ॥ १॥" साहित्यरत्नमञ्जूषा-२१० Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * महाकाव्यम् * "धीरोदात्तगुणैर्युक्तः, नायको सुर वा नृपः । सर्गबद्धो महाकाव्यं, एकोऽङ्गीरस इष्यते ॥ इतिवृत्तात्मकं वृत्तं, अन्यद् वा साधुराश्रयम् । धर्मार्थकाममोक्षेषु, एकं तत्र फलं भवेत् ॥" उदाहरणं यथा- श्रीशान्तिनाथमहाकाव्यम, माघकाव्यम्, रघुवंशकाव्यं चेत्यादयः । * खण्डकाव्यम् * “यत् काव्यांशानुसारी तत् , खण्डकाव्यं निगद्यते ।" काव्यस्य एकदेशानुसारी यत् वा एकांशानुसारी भवेत् तत् खण्डकाव्यं भवति । उदाहरणं यथा-शीलदूतं, नेमिदूतं, मेघदूतं, पवनदूतं चेत्यादयः। * कोशः * "वज्या (वर्णमाला) क्रमेण शब्दानां श्लोकः कोशस्य लेखनम् ।" उदाहरणं यथा मम-सुशीलनाममालायां वर्णक्रमेण एकाक्षरी कोशः । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२११ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गद्यलक्षणम् * समासरहितमाद्यं पद्यभागयुतं परम् । श्रन्यदीर्घसमासोक्त तुर्यं चाऽल्पसमासकम् ॥ १॥ , गद्यकाव्यस्य चत्वारो भेदाः सन्ति । मुक्तकं, वृत्तगन्धिकं, उत्कलिकं, चूर्णकं चेति । तेषु प्रथमं समासरहितं मुक्तकं गद्यमस्ति । पद्यांशयुक्त तथा गद्यमपि युक्त च द्वितीयं वृत्तगन्धिकं गद्यमस्ति । तृतीयं दीर्घसमाससहितं उत्कलिकं गद्यमस्ति । यथा कादम्बरी - तिलकमञ्जरिग्रन्थादौ उत्कलिकं गद्यमस्ति । चतुर्थं च अल्पसमाससमेतं चूर्णकं गद्यम् अस्ति । * आख्यायिका * "कवेवंशकी तिगानं कथावृद्धिकथानकम् । वृत्तमन्यकवीनाञ्च भवेद् श्राख्यायिका क्रमे । " * चम्पूलक्षणम् * " गद्यपद्यात्मकं चम्पूः, काव्य - नाम्नाभिधीयते । " उदाहरणं यथा - पञ्चतन्त्रादयः । श्रव्यदृश्यविभागेन काव्यं यद् युगलात्मकम् । सुशीलसूरिणा रत्नमञ्जूषायां सुर्वारणतम् ॥ ॥ इति दृश्य-श्रव्यकाव्य - निरूपणम् ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा - २१२ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चतुर्थपरिच्छेदस्य सारांश: * कवितासरिता सृष्टौ रसे प्राधान्यमारितम् । रसापकर्षका दोषाः, उत्कर्षाय गुरणा मताः ।। १ ।। सरसता कीदृशैः शब्दे - रथैर्भावैश्व सम्मता । रम्यता लौकिका ह्लाद जनिका भवति सर्वदा ॥ २ ॥ स्मारं स्मारञ्च साहित्यं, लालित्यैर्लसितं वरम् । लक्षणे दक्षवृत्तीनां लक्षणं लक्ष्यलक्षितम् ॥ ३॥ साहित्यलक्षणग्रन्थे, काव्योत्कर्षकरा गुणाः । प्रोजः प्रसादमाधुर्य भेदैस्त्रेधा च सम्मताः ॥ ४॥ - माधुर्य तत्र शृङ्गारे, करुणे शान्ते सुवर्णितम् । वर्गान्त्यवर्णसंयुक्त, टठडढैश्व वर्जितम् ॥ ५ ॥ ह्रस्वस्वरसुसंयुक्तौ रणावल्प समासकाः । ललिता रचना रम्या, माधुर्ये सुसमाहिता ॥ ६॥ , चित्तात्साहकरं प्रोक्तं प्रोजः कर्मसु कौशलम् । वीर- बीभत्स - रौद्रे -ध्वोजोऽतिशयवन् मतम् ॥ ७ ॥ चित्ते प्रसन्नता येन, संयाति सहसा द्रुतम् । तं प्रसादं विजानीयात्, रसोत्कर्षकरं परम् ॥ ८ ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा - २१३ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसापकर्षका दोषाः, त्रिधा शास्त्रेषु वगिताः । शब्दार्थरसभेदैस्तु मयाऽप्यास्मिन् नियोजिताः ॥ ६॥ निरर्थका लक्षणहीना -ऽश्लील कर्णकटूक्तयः । नेयार्था - ग्राम्य-संदिग्धा ऽवाचकाः शब्ददूषरणम् ॥ १० ॥ / अपुष्टाः कष्टबोध्याश्च, ग्राम्याः पौनरुक्तयः । निर्हेतुकाश्च सम्प्रोक्ताः, साहित्ये दोष हेतवः ॥ ११ ॥ काव्ये रसस्य वैचित्र्यं, तत्र दोषोऽक्षमो मतः । यस्यार्थे काव्यसंसृष्टिः, दोषस्तत्र कथङ्करः ॥ १२ ॥ रसानां स्थायिभावानां स्वशब्दोक्तिश्च दूषरणम् । कष्टेन यदि सम्प्राप्तिः, सोऽपि तद्विधमाश्रितम् ॥ १३ ॥ 1 वर्णनीयरसापेक्षो, विभावादि न चेद् भवेत् । तदा दोषो रसे चोक्तः, काव्यतत्त्वमनीषिभिः ।। १४ ।। रसादेः पौनरुक्त्या च समुद्दीपनमन्यथा । सोऽपि दोषत्वमायाति, काव्ये रसविघातनात् ॥ १५ ॥ देशकालविरुद्धञ्च, रसविस्तारदर्शनम् । साहित्ये सरसे सोऽपि दोषत्वेन च वरितः ॥ १६ ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा - २१४ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाण्डे रसविच्छेदः, प्रकृतीनां विपर्ययः । एतावपि रसे दोषी, वरिणतौ धीश्वरैः परः ॥ १७ ॥ शरीरिणोऽङ्गतुल्या स्याद् रीतिः काव्यशरीरके। सेयं सुप्तिङ्पदैर्युक्ता, रसोत्कर्षकरी मता ॥ १८ ॥ वैदर्भी चाथ गौडी च, पाञ्चाली लाटिका पुनः। काव्यशास्त्रे सुविख्याता, चतस्रोऽपि रसद्धिका ॥१६॥ माधुर्यधुर्य-संयुक्ता, ललितैर्वर्णविराजिता । अल्पवृत्तिरवृत्ति-र्वा, वैदर्भी रीतिरुच्यते ॥ २० ॥ प्रोजो गुणगणैर्युक्ता, क्लिष्टवर्णसमाकुला । समास-सधना गौडी, रीतिरुक्ता सुधीश्वरैः ॥ २१ ॥ प्रसादगुरण-संश्लिष्टा, सुकुमारा च माधुरी। पाञ्चाली रीतिराखिलैश्चचिता काव्यसंसदि ॥२२॥ लघुसमासयुक्ता या, भूयिष्ठा ललिता वरा । लाटी च रीतिर्वैदर्भी, पाञ्चाल्योर्मध्यमा मता ॥ २३ ॥ काव्यशोभाकराः प्रोक्ताः, अलङ्कारा मनीषिभिः। शब्दार्थोभयभेदैश्च, पुनर्भेदत्वमागताः ॥२४॥ चतुर्थेऽस्मिन् परिच्छेदे, गुण-दोषादिवर्णनम् । रीत्यलङ्कारसंयुक्त, युक्तियुक्तया च योजितम्॥२५॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-२१५ . Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति श्रीशासनसम्राट-सूरिचक्रचक्रवत्ति-तपोगच्छाधिपतिभारतीयभव्यविभूति-महाप्रभावशालि-अखण्डब्रह्मतेजोमूत्तिश्रीकदम्बगिरिप्रमुखानेकप्राचीनतीर्थोद्धारक - श्रीवलभीपुरनरेशाद्यनेकनृपप्रतिबोधक-चिरन्तनयुगप्रधानकल्प-वचनसिद्धसर्वतन्त्रस्वतन्त्र-प्रातःस्मरणीय-परमोपकारि-परमपूज्याचार्य महाराजाधिराज श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वराणां दिव्यपट्टालंकार साहित्यसम्राट्-व्याकरणवाचस्पति-शास्त्रविशारद- कविरत्नसाधिकसप्तलक्षश्लोकप्रमाणनूतनसंस्कृतसाहित्यसर्जक-परमशासनप्रभावक -बालब्रह्मचारि - परमपूज्याचार्यप्रवर श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वराणां प्रधानपट्टधर- धर्मप्रभावकशास्त्रविशारद-कविदिवाकर- व्याकरणरत्न- स्याद्यन्तरत्नाकराद्यनेकग्रन्थकारक-बालब्रह्मचारि-परमपूज्याचार्यवर्य श्रीमद्विजयदक्षसूरिवराणां पट्टधर-जैनधर्मदिवाकर-शास्त्रविशारदसाहित्यरत्न - कविभूषण - बालब्रह्मचारि श्रीमद्विजय सुशीलसूरि सन्दृब्धायां साहित्यरत्नमञ्जूषायां चतुर्थः परिच्छेदः । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२१६ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ पञ्चमः परिच्छेदः ॥ अमृतमयी निरन्तर-निरर्गल-निर्मल-नीरप्रवाह इव परिपूताऽस्माकं भारतीयधरा । सर्वस्वरूपा संस्कृतसाहित्यविद्या तदीयज्ञानज्योतिविद्योतितान्तःकरणैः सुर-सरस्वती-समुपासकैस्सुविदितचरमेतद् यत् काव्यस्य मूलतत्त्वानां पर्यालोचनेन काव्यमान्यताविभेदैः विभिन्नानां कविसम्प्रदायानां समुदयः समजनिः। एतेषां सर्वेषां साम्प्रदायिकविभेदानां कारणं काव्यस्य मूलतत्त्वमेव वरीवति । अयं भारतदेशः प्रारम्भादेव आत्मवादी अस्ति । आत्मनः शोधः प्रतिष्ठा च निगमागमकालादेव सुष्ठुतया व्यवस्थिता अस्ति.। आत्मा आनन्दस्वरूपोऽस्ति एतदेव सम्प्राप्य मनुष्य आनन्दमग्नो भवति । आत्मानन्द इव काव्यमपि आनन्ददायकमास्ते। अतएव काव्यशास्त्रिभिः काव्ये आनन्दस्वरूपात्मनः प्रतिष्ठां विधातु सुचेष्टितम् । एनं महत्त्वपूर्ण विषयं पर्यालोच्य सूक्ष्मचिन्तनदृष्ट्या-रसः, रीतिः, ध्वनिः, अलंकारः, वक्रोक्तिः, औचित्यम् इति षट्सम्प्रदायाः प्रकीर्तिताः । प्रत्येकोऽपि काव्यशास्त्रीयसम्प्र साहित्यरत्नमञ्जूषा-२१७ - Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दायः स्वकीयं महत्त्वं प्रतिपादनाय प्रयत्नशीलः । अलंकारसर्वस्वस्य समुद्रबन्धटीकायां पञ्चकाव्यसम्प्रदायानामुल्लेखः तावदेवं समुपलभ्यते "इह विशिष्टौ शब्दाथौं काव्यम् । तयोश्च वैशिष्ट्यं धर्ममुखेन, व्यापारमुखेन, व्यंग्यमुखेन चेति त्रयः पक्षाः । आद्ये प्यलंकारतो गुणतो वेति द्वैविध्यम् । द्वितीयेऽपि भणिति वैचित्र्येण भोगकृत्वेन वेति द्वविध्यम् । इति पंचसु पक्षेष्वाद्यः उद्भटादिभिरङ्गीकृतः । द्वितीयो वामनेन तृतीयो वक्रोक्तिजीवितकारेण चतुर्थो भट्टनायकेन पञ्चम आनन्दवर्धनेन ।” उद्धरणेऽस्मिन् क्षेमेन्द्रस्यौचित्यसिद्धान्तस्य समुल्लेखो न वर्तते तमपि स्वीकृत्य साम्प्रतं काव्यस्य मूलतत्त्वात्मानमनुसृत्य षट् सम्प्रदायाः सन्ति । के च ते सम्प्रदाया इति जिज्ञायासां तेषां स्वरूपम् अनुक्रमेणेह प्रदर्श्यते (१) रससम्प्रदायः (२) अलंकारसम्प्रदायः (३) रीतिसम्प्रदायः (४) वक्रोक्तिसम्प्रदायः (५) ध्वनि-सम्प्रदायः (६) औचित्यसम्प्रदायः सर्वेषामेतेषां सम्प्रदायानां सुगमव्याख्यानाभिलाषया प्रत्येकस्य विषयगाम्भीर्यं स्फोरयितुमस्माभिरेवं प्रयतितु साहित्यरत्नमञ्जूषा-२१८ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्यते । रस सम्प्रदायः - रससिद्धान्तस्य प्रतिष्ठा नाट्याचार्य भरतस्य समये सञ्जाता । भरतस्य नाट्यशास्त्रमेव रससिद्धान्तस्य प्राचीनतम ग्रन्थः । ग्रन्थेऽस्मिन् शताब्दिभिः प्रवर्तितकाव्यशास्त्रीय विवेचनस्य सारः समाहितोऽस्ति । विद्वज्जनैरिदमपि स्वीक्रियते यदयं ग्रन्थो रससिद्धान्तस्य प्रवर्तकग्रन्थो नास्ति अपितु विकासोद्योतकः । भरतात् पूर्वमपि सम्प्रदायस्यास्यानेके प्राचार्याः समभवन् । यथावासुकिः, सदाशिवः, अगस्त्यः, व्यासः, नन्दिकेश्वरः, वृद्धभरतादि । "ह्यष्टौ रसाः प्रोक्ता द्रुहिणेन महात्मना" कथनेनानेन द्रुहिणनामकाचार्यस्यापि समुल्लेखः समवाप्यते । राजशेखरस्य काव्यमीमांसायां काव्यपुरुषस्य चर्चेपलभ्यते । तत्रायमुल्लेखोऽस्ति यत् काव्यपुरुषेण काव्यशास्त्रस्य विभिन्नाधिकरणानामुल्लेखनाय अष्टादशपट्टशिष्याः नियोजिताः । एतेषु रसाचार्यो नन्दिकेश्वरः नाट्याचार्यरूपेण भरतस्य - 'रूपकं निरूपणीयं भरतः रसाधिकारं नन्दिकेश्वरः । किन्तु नन्दिकेश्वरस्य सम्प्रति कापि कृतिनैवोपलभ्यते । यत्र तत्रोल्लेखे सत्यपि प्रामाणिकग्रन्थानामभावे वयं कथयितुं शक्नुमो यत्-नाट्यशास्त्रमेव साम्प्रतिको रससिद्धान्तविचारस्य श्राद्यग्रन्थः, रससिद्धान्त साहित्यरत्नमञ्जूषा - २१६ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवर्तकश्च भरत इति । नाट्यशास्त्रस्य षष्ठे सप्तभे चाध्याये रसविकल्पकता, भावव्यञ्जकता च सुतरां स्फुटीभवति । 'विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः ।' इति रससिद्धान्तविषये भरतमुनेः सूत्रम् । साहित्ये रसानां महत्त्वं स्फुटतरं स्वयंसिद्धञ्चास्ति, यतो हि काव्यस्य मूलतत्त्वं रस एव । विभिन्न ष्वपि काव्यसम्प्रदायेषु रसस्य महत्ता जागति । ___ध्वन्याचार्यैरपि वस्तुध्वनिः, अलङ्कारध्वनिः, रसध्वनिश्च स्वीकृताः किन्त्वत्र रसध्वनेः प्राधान्यं स्वीकृतम् । रसोक्त : महत्त्वपूर्ण स्थानं मन्यमानेन भोजराजेनोक्तम् वक्रोक्तिश्च रसोक्तिश्च स्वभावोक्तिश्च वाङ्मयः। सर्वासु ग्राहिणी तासु रसोक्ति प्रतिजानीते ॥ आलंकारिकैः रससत्ता रसवदाद्यलंकाररूपेणैव स्वीकृता । प्राचार्यभामहोऽलङ्कारवादी सोऽत्र मनुते । यदुत्तमकाव्यायालंकारतत्त्वमनिवार्यम् । अस्य मते रसो गौणः, अलङ्कारेष्वेवान्तर्भूत इति-उक्तञ्च काव्यालङ्कारेरसवद्दशितस्पष्ट शृंगारादि रसं यथा । (काव्यालंकार ३/६) साहित्यरत्नमञ्जूषा-२२० Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् 'रसवदलङ्कारस्तत्र भवति यत्र शृंगारादिरसा : स्पष्टरूपेण दर्शिता भवेयुः । एवं सत्यप्यस्माभिः कथयितुं शक्यते यद् भामहो रसमहत्तां स्वीकरोतीति । यतो ह्ययं महाकाव्याय समस्तरसानां विधानमनिवार्यरूपेण स्वीकरोति युक्त लोकस्वभावेन रसैश्च सकलैः पृथक् । ( काव्यालंकार १ / १२१ ) प्राचार्यदण्डी अलङ्कारवादी सन्नपि भामह इव रसेऽनुदारो न दृश्यते तथापि तस्य दृष्टिः भामहेन साम्यं भजति । काव्यादर्शस्य द्वितीये आदर्श रसविवेचनं प्राप्यते तत्र दण्डी मधुरगुणानेव रसस्वरूपेगाङ्गीकरोति । तस्य मतमस्ति यत् 'रसवद्वाक्यमेव मधुरं भवति, अतएव रस एव माधुर्यम् न पृथक्-पृथक् । यया शब्दार्थजन्याह्लादकतया सहृदयगणाः मत्ताः भवेयुः, स एव रसः । उक्तञ्च मधुरं रसवद्वाचि वस्तुन्यपि रसस्थितः । येन माद्यन्ति धीमन्तो मधुनेव मधुव्रताः ॥ ( काव्यादर्श: १ / ५१ ) दण्डिनो मतानुसारेण प्रत्येकोऽप्यलङ्कारोऽर्थे रससेचनक्षमतां विभर्ति - "कामं सर्वोऽप्यलङ्कारो रसमर्थे निषिञ्चति" साहित्यरत्नमञ्जूषा - २२१ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थं काव्य सर्वस्वमलङ्कारं स्वीकुर्वताऽपि तेन तस्य चरमारिणतिः रसस्वरूपे स्वीक्रियत इति नास्ति क्षति, श्राचार्यरुटोsपि अलङ्कारवादी किन्तु प्रयमेव रसमहत्त्वं स्वीकुर्वन् प्रतिपादयति यत् ' तस्मात् कर्त्तव्यं यत्नेन महीयसारसंयुक्तम्' काव्ये यत्नपूर्वकं रसप्रतिष्ठाया आग्रहमयं स्वीकरोत्येव श्रग्निपुराणकाराऽपि काव्ये चमत्कारस्य प्रधानतां स्वीकुर्वन्नपि रसमेव काव्यजीवनमिति स्फुटमङ्गीकरोति । " वाग्वैदग्ध्य प्रधानेऽपि रस एवात्र जीवितम् ।" प्राचार्य वामनः रीति सम्प्रदायस्य प्रवर्तकोऽस्ति तथापि स गुरणानां वर्णने रसमावश्यकतत्त्वमाभरणन्तिं । कान्तिगुणान्तरेऽसौ रसस्य समावेशमपि चिकीर्षति 'दीप्तिरसत्वं कान्तिः ।' वामनस्य मतानुसारेण रसो रीतेरङ्गमात्रम् । रसस्य दीप्तिः रीतेः शोभायां सहयोगाय प्रचक्ष्यते । इयमेव रसस्य सार्थकता अर्थात् रसोऽङ्गो रीतिरङ्गीति । एतद्विवेचनेन स्फुटतरमायाति यद्रीतेः अलङ्कारस्याचार्यै: रसस्यास्तित्वं स्वीक्रियते । ध्वनिसम्प्रदायोऽपि रसस्य प्राधान्यमङ्गीकरोति, सम्प्रदायेऽस्मिन् 'रसध्वनिः' इति कृत्वा सर्वश्रेष्ठा ध्वनिः स्वीक्रियते । काव्यस्यात्मा रस इत्यपि स्वीक्रियते - साहित्यरत्नमञ्जुषा - २२२ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यस्यात्मा स एवार्थस्तथा चादिकवेः पुरा । क्रोञ्चद्वन्द्ववियोगोत्थः शोकः श्लोकत्वमागतः ॥ अभिधावादी भट्टनायकोऽपि रसस्याक्षुण्णं महत्त्वं स्वीकुर्वन्ति । व्यञ्जनावादिन प्रानन्दवर्धनाचार्याः, अभिनवगुप्तपादाश्च रसस्य महत्त्वमङ्गीकुर्वन्ति प्राचार्यमम्मटविश्वनाथ-जगन्नाथानाम, कलिकालसर्वज्ञाचार्यहेमचन्द्रसूरीश्वराणां विषये तु किं कथयामः । एते तु रसतत्त्वस्य ध्वनितत्त्वस्य च प्रतिष्ठापकाः समभवन्, एतेषां मतानुसारेण रसः काव्यस्य सर्वस्वमिति । रससम्प्रदायस्य पृष्ठभूमिमनोवैज्ञानिकी वर्तते । रससिद्धान्ते मानवहृदयस्य मूलप्रवृत्तीनां विस्तरेण विवेचनं, सहायकमनोभावानां संसृष्टिरपि समुपलभ्यते । रससम्प्रदायस्य प्रमुखाः प्राचार्याः ग्रन्थाश्च एवं समुल्लसन्ति प्राचार्यभरतः | नाट्यशास्त्रम् आनन्दवर्धनाचार्यः | ध्वन्यालोकः धनञ्जयः दशरूपकम् मम्मट: काव्यप्रकाशः विश्वनाथः | साहित्यदर्पणः जगन्नाथः | रसगंगाधरः साहित्यरत्नमञ्जूषा-२२३ . Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भानुदत्तः अभिनवगुप्तः | अभिनवभारती भोजः शृगारप्रकाशः रसमञ्जरी, रसतरंगिणी आचार्यश्रीहेमचन्द्रः काव्यानुशासनम् रामचन्द्र-गुणचन्द्रः नाट्यदर्पणम् शारदातनयः भावप्रकाशनम् रूपगोस्वामी हरिभक्तिरसामृतसिन्धुः इत्यादयो रससम्प्रदायस्य | उज्ज्वल नीलमरिणश्च, प्रमुखाचार्याः । इत्यादयो ग्रन्थाः । | अलंकार-सम्प्रदायः | अलङ्कारसम्प्रदायसंदर्भ श्रीराजशेखराचार्येण कतिपयानामाचार्याणामुल्लेखः -- कृतः । तद् यथा'प्रानुप्रासिकं प्रचेताः, औपम्योपकायनः, अतिशयं पराशरः, अर्थश्लेषमुतथ्यः, उभयालङ्कारिकं कुबेरः ।' इत्थञ्च - अनुप्रासोपमातिशयोक्त्यर्थश्लेषोभयालङ्कारादीनां विवेककर्त्त णां समुल्लेखस्तु प्राप्यते किन्तु एतेषु आचार्यचरणेषु केषामपि ग्रन्थः साम्प्रतं नोपलभ्यते । साम्प्रतमुपलभ्यमानासु पालङ्कारिककृतिषु कृतिकारेषु च भामहाचार्यकृतिः सर्वश्रष्ठेति विदुषामाकूतम् । अयमेव साहित्यरत्नमञ्जूषा-२२४ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानुभावोऽलङ्कार-सम्प्रदायस्य प्रवर्तकोऽप्यस्ति । अन्येष्वाचार्येषु उद्भट दण्डि - रुद्रट प्रतिहारेन्दुराज जयदेवाः प्रमुखाः सन्ति । जैनकाव्यशास्त्रिदृष्ट्या तत्र स्वनाम - धन्यानां विद्वन्मूर्धन्यानां कलिकालसर्वज्ञानां श्रीहेमचन्द्राचार्याणां नामापि महत्त्वपूर्णां पदवीमावहति । - - भामह - दण्डि - रुद्रटोद्भटादिभिराचार्यैरलङ्कारस्य व्यापकमर्थं स्वीकृत्य काव्यस्यात्माऽलङ्कार, इति वचनम् कथयित्वा काव्यस्य सर्वस्वमलङ्कार इति स्वीकृतम् । एभिराचार्यैः श्रङ्गीभूतो रसः, भावः, रसाभासश्च क्रमशः रसवत् प्रेयस्वत्, ऊर्जस्वी, समाहितोऽलङ्कारः कथितः । एभिरालङ्कारिकैराचार्यैः गुणस्वरूपमप्यलङ्काररूपेण स्पष्टतस्तु नैव प्रोक्तस्तथापि दण्डिकथनानुसारेण प्रतीयते यत् - ते माधुर्यादि दसगुणान् साधारणालङ्कारान् विवक्षन्त इति । आलङ्कारिकाचार्या यद्यपि ध्वनिमलङ्कारशब्दैर्न क्वचिदपि व्यवह्नितवन्तस्तथापि रूपकोत्प्रेक्षा - प्रतिवस्तूपमापर्यायोक्ति-संकराद्यलङ्काराणां लक्षणैरुदाहरणैर्वा किमप्यस्मिन् विषये विशेषेण ध्वन्यते सूच्यते वेति विज्ञेयम् । आचार्यदण्डी नाट्यशास्त्रसम्बद्धान् विषयानपि अलङ्कार साहित्य - १५ साहित्यरत्नमञ्जूषा - २२५ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वेन स्वीकरोति । तद् यथा, सन्धिः, सन्ध्यङ्गम्, वृत्तिःवृत्त्यङ्गम्, लक्षणा- व्यञ्जनादीनामपि अलङ्कारेषु समावेशः स्यादिति चिकीर्षति । इत्थञ्चालङ्कारिकाः विशेषतो दण्डी गुण-रस-ध्वनि-प्रबन्धकाव्य-नाट्यादिविषयानपि अलङ्कारनाम्नाऽभिहितवन्त इति समासेनात्र स्वीकार्यम् । एतेषां मतेन अनुप्रासोपमादय एवालंकारपदवाच्या न सन्त्यपितु - काव्य - चमत्कारोत्पादकाः सौन्दर्यविधायकाश्च सकलान्यपि काव्यतत्त्वानि काव्याङ्गानि वाऽलङ्कारपदवाच्यानि सन्ति - इति सुतरां बुद्धिपथमुपयाति । निष्कर्षतो वयं व्यावक्तुम् शक्नुमो यत् अलंकारसम्प्रदायेऽलङ्कारस्य व्यापकोऽर्थोऽभीष्टः । एतेषां मते अलंकार एव काव्य सर्वस्वम् । अलंकारवादी रुय्योऽचीकथत् यत् प्राचीनाऽऽलंकारिका भामहोद्भटादयः प्रतीयमानं ( व्यंग्यम् ) अर्थम् वाच्यस्य सहायकं मत्वाऽलंकार एव निवेशयन्ति - 'इह तावत्भामहोद्भटप्रभृतयश्चिरन्तनालंकारकाराः प्रतीयमानमर्थं वाच्योपस्कारतया अलंकारपक्षनिक्षिप्तं मन्यन्ते । एतेषामाचार्याणां मतेन रसादयोऽलंकारपोषकाः उपकारका सन्ति । अतएव काव्यमीमांसाग्रन्था अपि अलंकारशास्त्राभिधानेन प्रसिद्धिमावहन्तीति । साहित्यरत्नमञ्जूषा - २२६ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रलङ्करोतीति-प्रलङ्कारः - यः शोभयति सोऽलङ्कारः । प्रथमव्याख्यानेऽलंकारः अथवा अलं क्रियतेऽनेनेत्यलंकारः । कर्त्ता, विधायको वा, द्वितीये च साधनमात्रम् | अलंकारस्य सर्वसम्मतदृष्ट्या द्वितीयव्युत्पत्तिः संगता यया च अलंकाराणां काव्यशोभायां साधनमात्रत्वमाभाति - 'काव्यशोभायाः कर्त्तारो धर्माः गुणाः तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः' । दण्डी काव्यशोभाकर्त्त त्वरूपेणालंकारं स्वीकरोति'काव्यशोभाकरान् धर्मानलंकारान् प्रचक्षते' । अत्रालंकारो द्वयर्थे प्रयुक्तः - समग्रकाव्य सौन्दर्याय सौन्दर्योपकररणाय च । आचार्यवामनोऽलंकारान् काव्यशोभाकरान् न मनुते अपितु गुणोत्कर्षान् अङ्गीकरोति । अस्यैव प्रभावः परवर्तिकाले प्रतिफलितोऽभूत् । परिणामस्वरूपेण एकः पक्षः काव्याय अलङ्कारस्यानिवार्यतामपरश्च गौणतां प्रदर्शयति । यथा खल्वाचार्यमम्मट: - ' श्रनलंकृती पुनः क्वापि । अत्र चन्द्रालोककारः पीयूषवर्षी जयदेवस्तु प्रोक्तवान् अङ्गीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलंकृती । असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलंकृती ॥ अर्थात् यदि कश्चित् पण्डितम्मन्यः काव्यमनलंकृती ( अलंकाररहितम् ) स्वीकरोति तर्हि स पावकमपि उष्णतारहितं स्वीकुर्यादिति । साहित्यरत्नमञ्जूषा - २२७ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्राचार्यभामहस्तु उक्तवान् यत्- 'न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनिताननम् ।' अर्थात् प्राभूषणरहितं सुन्दर्याः वदनं प्रियाय आकर्षकं न भवतीति । ध्वनिसिद्धान्तस्य प्रतिष्ठानन्तरं काव्येऽलंकारसत्ता अपरिहार्या न सजाता- आचार्यश्रीहेमचन्द्राः अलंकाराणां काव्ये शोभाजनकत्वेन कथितवन्त इति नात्र संदेहः । विश्वनाथोऽपि शब्दार्थास्थिरधर्मम् अलंकारमिति स्वीकृत्य काव्यशोभावर्धकम् रसोपकारकं मनुते शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्मा शोभातिशायिनः । रसादीनुपकुर्वन्तोऽलङ्कारास्तेऽङ्गादिवत् ॥ निष्कर्षतोऽलङ्कारविषये वयं वक्तुं शक्नुमो यत् भावोत्कर्षप्रदर्शकान्, वस्तूनां रूप-गुण-क्रियातिशयानुभवितु यदा कदा सहायिका युक्तिरलङ्कार इति । रोतिसम्प्रदायः || रीतितत्त्वस्य चर्चा भरतस्य नाट्यशास्त्रेऽपि विराजते किन्त्वस्य सम्प्रदायस्य प्रवर्तकः वामनाचार्य एव। तस्य समयोऽष्टम्शकम् अस्ति । संस्कृतसाहित्ये रीतिशब्दोऽनेकेषु अर्थेषु प्रयुक्तः । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२२८ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भामहो रीतिशब्दस्यार्थः काव्यम्, दण्डिभोजौ मार्ग : ( पन्था ) आनन्दवर्धनः पदसंरचना, रुद्रकमम्मटौ वृत्तिः, विश्वनाथः रीतिरिति अभिहितवन्तः । भोज : रीङ गतौ, धातोः क्तिन् प्रत्यये सति रीतिपदं निष्पादयति त स मार्ग: ( पन्था ) इत्यर्थं सम्पादयति वैदर्भादिकृतः पन्थाः काव्ये मार्ग इति स्मृतः । रीङ् गताविति धातोः सा व्युत्पत्त्या रीतिरुच्यते ॥ प्राचार्य वामनः काव्यस्य श्रात्मा रीति इति स्फोरयति - 'रीतिरात्मा काव्यस्य' । अत्र च तेन 'विशिष्टपदरचना रीतिः' स्वीकृता । विशेषतेयं गुणानां संश्लेषणाश्रिता - 'विशेषी गुणात्मा' | काव्यशोभोत्पादकान् धर्मान् गुणान् प्रचक्षते - 'काव्यशोभायाः कर्त्तारो धर्मा गुणाः अत्र तावत् गुणो नित्यधर्मः, श्रलङ्कारश्चानित्यः । वामनमतानुसारेण काव्यस्य समस्तं सौन्दर्यं रीतौ प्रतिष्ठितम् । सौन्दर्यमेतद् दोषाणां परिहारेण गुणालंकारसफलप्रयोगेण च सुतरामाविर्भवति - काव्यं ग्राह्यमलंकारात्, सौन्दर्यमलंकारः स दोष- गुणहानादानाभ्याम् । अन्ये प्राचार्याः रीतिपदेन गुणाभिव्यञ्जकवर्णानामर्थ - ग्रहणव्युत्पत्ति स्वीकुर्वन्ति रीयते माधुर्यादिगुणानां विशेषो साहित्यरत्न मञ्जूषा - २२९ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञायतेऽनयेति रीतिः। विश्वनाथोऽपि शरीराङ्गसंस्थानवत् काव्यात्मभूतरसादीनामुपकारिका रीतिरिति स्वीकरोति । उक्तञ्च पदघटना रीतिरङ्गसंस्थाविशेषवत् । उपकी रसादीनां...................।। निष्कर्षश्चायं वामनोऽलंकारवादिनः सिद्धान्तान् अधिकांशतोऽङ्गीकरोति तथापि काव्यस्यात्मा रीतिरिति मतं संस्थापयति । अनेनास्य गुणग्राहकता शिथिलता चोभयं द्योत्यते । ध्वनिसम्प्रदायः भारतीयकाव्यशास्त्रेतिहासे ध्वनि-सम्प्रदायोदयो युगान्तरकारी भासते। ध्वनिवादिन आचार्याः रसालंकाररीतिवक्रोक्त्यादीनां पूर्वन्तनीनकाव्यतत्त्वानां सामञ्जस्य ध्वनिना सहैव सम्पादयन्ति । सम्प्रदायस्यास्य प्रतिष्ठाता आनन्दवर्धनाचार्यः, पोषकोऽभिनवगुप्तः तस्मिन् प्राणसञ्चारको मम्मटाचार्यः । यद्यपि ध्वनिसम्प्रदायस्य विरोधिनोऽस्य खण्डनं कतु बहुधा विचेष्टितवन्तस्तथापि अन्तस्तत्त्वमहत्त्वात् सिद्धान्तोऽयमजेयः । वाच्यार्थाऽपेक्षया या अन्या हृदयाह्लादकारिका सा साहित्यरत्नमञ्जूषा-२३० Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्वनिः- इदमुत्तममतिशयिनि व्यंग्ये वाच्याद् ध्वनिर्बुधः कथितः। (का. प्र. १/४) अर्थस्तावत् वाच्यप्रतीयमानभेदेन द्विधा भवति। साहित्ये ध्वनिवादिदृष्ट्या-अलंकारादीनां ग्रहणं वाच्यार्थे सम्पद्यते । ध्वने: ग्रहणन्तु प्रतीयमानेऽर्थे प्रवर्तते । प्रानन्दवर्धनाचार्यमतेन प्रतोयमानार्थस्य सत्ता निश्चिता भवति। तच्च प्रतीयमानमन्यदेव वस्तुप्रतीयमानं पुनरन्यदेववस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम् । यत्तत्प्रसिद्धावयवातिरिक्त विभाति लावण्यमिवाङ्गनासु ॥ (ध्वन्यालोक: १/४) ध्वनिसिद्धान्तोद्भावना प्रतिष्ठा च आनन्दवर्धनस्य महत्युपलब्धिरस्ति । वाल्मीकि-व्यास-कालिदासादीनां महाकाव्येषु ध्वनितत्त्वं समीक्ष्य तच्चात्मपदे प्रतिष्ठाप्याचार्यानन्दवर्धन उक्तवान् 'काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति बुधैर्यः समाम्नातपूर्वः' आनन्दवर्धनस्य कथनानुसारेणेदं प्रतीयते यत् ततः पूर्वमपि ध्वनितत्त्वप्रतिष्ठा प्रासीदिति । ध्वन्यालोकरचनायाः पूर्वं भरतस्य नाट्यशास्त्रम्, भामहस्य काव्यालंकारः, उद्भटस्य टीका दण्डिनः काव्यादर्शः वामनस्य काव्यालंकारसूत्रवृत्तिः, रुद्रटप्रणीतः काव्यालंकार इत्यादयो लाक्षणिकाः ग्रन्थाः आसन् किन्त्वेतेषु ध्वनितत्त्वस्य क्वचिदपि साहित्यरत्नमञ्जूषा-२३१, Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेचनं न समवाप्यते आनन्दवर्धनस्तु ग्रन्थानेतान् विलोक्य व त्रयाणां विरोधिमतानां कल्पनामकरोत् । ध्वनिसिद्धान्तात् पूर्वं रस-रीत्यलंकार-सम्प्रदायानां प्रतिपादनं समुल्लासितमासीत् । यद्यपि रस-रीत्यलंकाराचार्या ध्वनिसिद्धान्तेन परिचिताः नासन् एतेषां विवेचने ध्वनेः पूर्वाभासः समजनि । अानन्दवर्धनः स्वत एव स्वीकरोति यदेतेषां स्थापनाः ध्वनेः सामीप्यमभजन् । ध्वनिसिद्धान्तस्य मूलस्रोतो वैयाकरणानां स्फोटसिद्धान्ते सुरक्षितम् । तथा च तस्य स्वरूपं भारतीयदर्शनेषु विवेचितव्यञ्जनाव्यापारे परिलक्ष्यते । व्याकरण शास्त्रे कर्णगोचरः शब्दोऽनित्यः, अनित्यात् शब्दात् अर्थप्रतीतिरसम्भवा । अतो वैयाकरणाः नित्यशब्दानां कल्पनाय स्फोटसिद्धान्तोद्भावनामकुर्वन् । स्फोटश्चैवं व्याख्यातः'स्फुटित अर्थोऽस्मादिति स्फोटः' यस्मात् शब्दविशेषात् अर्थः स्फुटितः स स्फोट: स च नित्यः पूर्वापरसम्बन्धरहितोऽखण्डएकस्सः । शब्दस्यास्याभिव्यक्तिरेव ध्वनितत्त्वमस्ति । व्याकरणशास्त्रे ध्वनिशब्दोऽभिव्यञ्जनार्थे प्रयुक्तस्थता च ध्वनिसम्प्रदाये शब्दार्थोभयाय प्रयुज्यते । ध्वनिसम्प्रदाये काव्यस्यात्मा ध्वनिः। ध्वन्याचार्या ध्वनेरभ्यन्तरे रसध्वनि, अलंकारध्वनि वस्तुध्वनिञ्च गुण साहित्यरत्नमञ्जूषा-२३२ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यन्ति । रसध्वनिना तेषां तात्पर्यम् - नवरसभाव-भावाभास भावोदय-भावशबलता-भावसन्ध्यादिभिरप्यस्ति 1 वस्तु ध्वनिना तथ्यकथनस्य तथा च कल्पनाप्रसूत- चमत्कारजनकभामाहाभिव्यक्त` रलंकारध्वनौ ग्रहणं भवती तिएतेषु । ध्वनित्रयेषुरसध्वनिरेव सर्वश्रेष्ठा मन्यते । सैषा ध्वनिरेव काव्यस्यात्मा विद्यत इति । ध्वन्याचार्यैः ध्वनितत्त्वे एव सर्वेषामन्यकाव्यात्मकतत्त्वानां समाहारो विहितः । तेषां वर्णनानुसारेण रस इव गुणालंकाररीतिवक्रतादयोऽपि व्यंग्या एव न वाच्याः । वाचकशब्दैस्तु न च माधुर्यादिगुणानां कथनं भवति, वैदर्भ्यादिरीतिनाम्, उपमाद्यलंकारकाराणाम्, वक्रतादीनामपि च न । एते सर्वेऽपि ध्वनिस्वरूपे एव समुपस्थिता भवन्तीति । अन्यच्च - गुणालंकाररीत्यादयः पदार्थाः प्रत्यक्षतो वाच्यार्थ - द्वारा मानसं नाभिनन्दयन्ति । अस्य महत्त्वमपि प्रत्यक्षापेक्षया ध्वन्यार्थादेव । यतो हि यत्र ध्वन्यार्थो न तत्र आत्माविहीनतत्त्वानि आभूषणामिव निरर्थकत्वं भजन्ते । अतएव ध्वनिकारैरेते ध्वन्यार्थरूपाङ्गिनोङ्गत्वेनैव स्वीकृताः सन्ति । फलतो ध्वनेः प्राधान्यम्, सैव काव्यस्य आत्मा । भारतीय काव्यशास्त्रेतिहासे ध्वनिसम्प्रदायोदयः कीयं विशिष्टोपलब्धिस्वरूपं विभर्ति । साहित्यरत्नमञ्जूषा - २३३ स्व ध्वनिसम्प्रदायोद Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात् प्रागपि काव्यशास्त्रे मौलिकता आसीत् । किन्तु तस्मिन् परिपक्वतया प्रभावो व्यज़म्भत । आनन्दवर्धनाचार्येण, अभिनवगुप्तेन मम्मटेन च दिशेयं निर्दिष्टा। परिपक्वतायाः प्रौढतायाः गाम्भीर्यस्य च समावेशोऽस्मिन्नव काले समजनि। कालोऽयं चरमविकासकालः । ध्वनिसिद्धान्तमुद्दिश्य काव्यशास्त्रेतिहासे कालविभाजनमपि संदृश्यते १- पूर्व ध्वनिकालः-प्रारम्भात्, आनन्दवर्धनात् पूर्व ___८५० ईस्वीपर्यन्तम् । २- ध्वनिकाल-पानन्दवर्धनान् मम्मटपर्यन्तं १२५० ई. पर्यन्तम् । ३- उत्तरध्वनिकालः-मम्मटादद्यावधि-पर्यन्तम् । ध्वनिकालस्य प्रथमाचार्यः आनन्दवर्धनोऽभवत् । द्वितीयस्य अभिनवगुप्तः। अस्य समयः ६८० तः १०२० खीष्टाब्दपर्यन्तमङ्गीक्रियते ऐतिह्यतत्त्वविद्भिः। अनेन 'ध्वन्यालोकलोचन' नाम्नी टीकाध्वन्यालोकोपरि टीकिता। तत्र च ध्वनिसिद्धान्तस्य पल्लवनं पोषणञ्च विराजेते । अस्याः कृतेमहत्त्वं कस्या अपि मौलिककृतेन्यू नं न सम्भवति । अनेनाचार्येण प्रमाणितं यत् व्यञ्जनाव्यापारद्वारैव रससिद्धिर्भवितुमर्हति । आचार्योऽयौं मुख्यतो रसवादी साहित्यरत्नमञ्जूषा-२३४ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारकः समभवत् । प्रतोऽनेन रसादेव ध्वनेर्महत्त्वं प्रतिष्ठापितम् । अस्य मतानुसारेण रस-भावादीनां प्रतीति व्यंग्यद्वारैव भवति । रसस्य महत्त्वं व्यञ्जनाशक्त ेरनुसारेण स्फुटी भवति । अस्य विवेचनेन रस-ध्वनिसिद्धान्तयोर्मध्येऽन्तसम्बन्धसंस्थापितोऽभवत् ध्वनिकारैर्ध्वनिविषये वस्तुध्वनिः, अलंकारध्वनिः । इति द्वयोरेवोल्लेखः कृतोऽभूत् किन्तु अभिनवगुप्तेनोद्दुष्टं काव्यं रसेनैव जीवति, रसमन्तरा काव्यं न सम्भवति । अतो रसध्वनिः स्वीकार्या । वस्तुतस्तु वस्त्वलंकाराभ्यामपि रस एव बोध्यते । इत्थञ्चाभिनवगुप्तेन रसध्वनिसिद्धान्तयोः समीचीनसम्बन्धसंस्थापितः । ध्वनि सम्प्रदायोन्नायकेषु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आचार्यमम्मटो बभूव । अयञ्च ध्वनिप्रस्थापनपरमाचार्यपदेनापि प्रसिद्धिमावहति । ध्वनिसिद्धान्तं समीचीनतया व्यवस्थापयितुं परिपोषयितुञ्चास्य महत्त्वमतिरोहितं प्रेक्षावताम् । आचार्य मम्मटो मूलतो ध्वनिवादी सञ्जातः । अतएव काव्यप्रकाशस्य पञ्चमोल्लासे व्यञ्जनाविरोधीनां मतखण्डनं विधाय व्यञ्जनाव्यापारं संस्थापितवान् । मम्मटानन्तरं साहित्यरत्नमञ्जूषा - २३५ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , कलिकाल - सर्वज्ञो हेमचन्द्रः, रुय्यकः, विद्याधरः, विद्यानाथः इत्यादयोऽपि ध्वनिसिद्धान्तप्रतिष्ठाने महत्त्वपूर्ण योगदानम कुर्वन् । पण्डितराजजगन्नाथोऽपि ध्वनिसम्प्रदायस्यान्तिमः प्रौढो ग्रन्थो रसगङ्गाधरः । ध्वनिसमर्थकः समजनि । ध्वनिविरोधकेष्वाचार्येषु मुकुटभट्टप्रतिहारेन्दु- धनञ्जयधनिक - कुन्तक-महिमभट्टानामुल्लेखनीयानि सन्ति । वक्रोक्तिसम्प्रदायः भारतीय काव्यशास्त्रे कुन्तकात् पूर्वम् अलंकारः काव्यस्य सर्वस्वम्, रीतिर्ध्वनिश्चात्मपदे प्रतिष्ठिते प्रास्ताम् । तथा च भरताचार्यैः ग्रानन्दवर्धनाचार्यैश्च रसस्य परिनिष्ठितं व्यवस्थितञ्च स्वरूपं प्रत्यपादि । आचार्य कुन्तक एव वक्रोक्तिसम्प्रदायस्य प्रवर्तयिता स्वीक्रियते । एते वक्रोक्तिमलंकाररूपेण तथा प्रकारान्तरेण ध्वनिरिति कथयित्वा सिद्धान्तद्वयं प्रति मूलतो ध्वनिसिद्धान्तं प्रति समादरमभिव्यञ्जयन्ति । रसस्तु मुक्तकण्ठेन समर्थ्यतेऽनेन । तथापि वक्रोक्तिवादस्संस्थापितः एतैर्वक्रोक्तिश्च मत्कृतिः, सामान्यजनकथनाद्भिन्ना, चमत्कार - साहित्यरत्नमञ्जूषा - २३६ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनिकेति स्वीक्रियते । अन्यच्च- 'वक्रोक्तिः काव्यजीवितम्' इति स्वीकृत्य सा काव्यस्यात्मपदे प्रतिष्ठापिता । मान्यतैषा परिवर्तिनिकाले पुनः काव्यस्यात्मपदात् परिभ्रष्टा, मात्रमलंकारस्वरूपे स्वीकृता। यतो हि वक्रोक्तिमाध्यमेन काव्यचमत्कारो निरूप्यते । वर्णसम्बन्धिसूक्ष्मतत्त्वात्, बाह्यसौन्दर्याच्चारभ्य प्रबन्धवक्रतापर्यन्तं वक्रोक्त: क्षेत्रम् । अत्र च गुणरीत्यलंकारध्वनि-प्रबन्धसंगठनौचित्य रसादीनामंशतः समावेशोऽपि सञ्जायते । काव्यचमत्कारस्य सूक्ष्मविवेचनाय वक्रोक्तिसिद्धान्तः एकः सूक्ष्मो व्यापक: सर्वाङ्गपूर्णश्च वरीवति । 'अरिस्टोटललांजीनस-एडीसन-क्रोचे'- इत्यादिभिः पाश्चात्य-विचारकैः स्वकीयसिद्धान्तेषु वक्रोक्त: महत्त्वपूर्ण स्थानमङ्गीक्रियते । आचार्यकुन्तकः उक्तिवक्रताजन्यः काव्यस्य आह्लादः इति स्वीचकार । वस्तुतस्तु काव्यालादादेवोक्तिवक्रता समायाति । कविः उद्दीप्तमनोभावान् भावयितु विशिष्टाह्लादं रसं वा अनुभवति तथा च अस्मादाह्लादात् रसादा उक्तौ वक्रतावैचित्र्यं समायाति । अतएव रस एव काव्यात्मा भवितुमर्हति वक्रोक्तिरनिवार्या सत्यपि काव्यजीवितं भवितु नार्हति । वक्रोक्तिसम्प्रदायो योग्योत्तराधिकारिणोऽभावात् समु साहित्यरत्नमञ्जूषा-२३७ । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चितरूपेण विकसितो नाभूत् । कुन्तकस्य समयः एकादशशताब्द्याः पूर्वार्धो मन्यते ।। औचित्यसम्प्रदायः औचित्यसम्प्रदायस्याचार्यः क्षेमेन्द्रः । औचित्याग्रहो भरतस्य नाट्यशास्त्रेऽपि वर्तते । अानन्दवर्धनोऽपि स्वीकृतवान् यत् रसस्य मौलिक रहस्यमौचित्यमिति अनौचित्यादृते नान्यद्रसभङ्गस्य कारणम् । औचित्योपनिबन्धस्तु रसस्योपनिषत्परा ॥ ध्वन्यालोकः ३/१४ आचार्याभिनवगुप्तोऽपि औचित्यं ध्वनितत्त्वञ्च परस्परोपकारकरूपेणाङ्गीकृतवान् । क्षेमेन्द्रो ध्वनिवादी सन्नपि औचित्यं व्यापकतत्त्वरूपेणोद्भावयति । औचित्यविचारचर्चायां काव्यशास्त्रस्यान्य सिद्धान्तान् औचित्ये आत्मसात् कुर्वन् प्रोवाच अलंकारास्त्वलंकारा गुरणा एव गुरणाः सदा । औचित्यं रससिद्धस्य, स्थिरं काव्यस्य जीवितम् ।। क्षेमेन्द्रः उचितस्य भावः, औचित्यमित्येव स्वीकरोति"उचितस्य च यो भावस्तदौचित्यं प्रचक्षते ।" साहित्यरत्नमञ्जूषा-२३८ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औचित्यं रसस्य जीवनमस्ति, रस काव्यस्यात्मा । औचित्यमन्तरा काव्यं निश्चप्रचत्वेनोपहासप्रदमेव सञ्जायते । अत्र कुप्पूस्वामिन उक्तिरपि विशेषेण समादरणीयाप्रचितीमनुधावन्ति सर्वे ध्वनिरसोन्नयाः । गुणालङ कृतिरीतिनां नयाश्वानृजुवाङ्मयाः || आचार्य क्षेमेन्द्रस्य समयः एकादशशताब्दद्याः उत्तरार्द्धः स्वीक्रियते । विवेचनेनानेन काव्यशास्त्रीय - कविसम्प्रदायानां सामान्यपरिचयो विजायते । काव्यात्मतत्त्वजिज्ञासायां पल्लवितः सम्प्रदायविभेदः । वस्तुतस्तु काव्यतत्त्वमक्षुण्णमेव रुचीनां वैचित्र्यात् सम्प्रदायभेदत्वमुपयाति । निरङ्कुशाः कवयः कविसम्प्रदाये कवीनां निरंकुशत्वमिति विषयोऽनुप्रेक्षणीय इति जिज्ञासायां तेषां निरंकुशोक्तीनां वैचित्र्यञ्चात्रैव परम्पराप्राप्तं विविच्यते 'कवयः निरंकुशाः भवन्ति' । वस्तुवर्णने क्वचित् सत्तायामपि तस्याभावेऽपि वस्तूनां तद्भावं वर्णयन्ति । साहित्यरत्नमञ्जूषा - २३९ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यादि बहुप्रकारा लोकनिरपेक्षा कवीनां प्रवृत्तिः प्रवर्तते । साऽत्र संक्षेपात् प्रदर्श्यते । १- सतां भावानामनिबन्धनम् १. वसन्तऋतौ मालत्याऽभावोयथा"मालती विमुखश्च त्रो, विकासी पुष्पसम्पदाम् । आश्चर्य जातिहीनस्य , कथं सुमनसः प्रियाः ॥१॥" २. चन्दनवृक्षे पुष्प-फलयोरभावो यथा"सा छाया स च सुन्दरः परिमलस्ते कोमलाः पल्लवाः, भ्रान्तश्चन्दनपादपस्य बहवः सन्त्येव किं तैर्गुणैः । दृप्यद्दुष्टभुजङ्गसंगतिवशादापादमूलागतेरानीतं फलमन्यतोऽपि पथिकैः साशङ्कमास्वाद्यते ॥१॥" ३. मासस्य कृष्णपक्षे ज्योत्स्नायाः अभावो वर्तते, तथा मासस्य शुक्लपक्षे तिमिरस्य प्रभावो वर्तते । अत्र कृष्णपक्षे शुक्लपक्षे च यथा साहित्यरत्नमञ्जूषा-२४० Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "परतो न तत्त्वचिन्ता , तद्वन्तः स्युर्मुखस्थगुणदोषैः । एको हि सितः पक्षः कौमुद्या तुल्ययाऽपि कृष्णोऽन्यः ॥ १॥" ४. कुन्दकुड्मलानां कामिदन्तानां रक्तत्वस्याभावो वर्त्तते । यथा"सुश्वेतकुन्दकुड्मल-विमलदती यो विहाय राजिमतीम् । मोक्षाङ्गनानुरक्तो, बभूव नेमिः स वः पायात् ॥१॥" ५. दिवा नीलोत्पलादीनां विकासस्याऽभावो वर्त्तते । यथा-शिशुपालमाघकाव्ये वर्णने"कुमुदवनमपनि श्रीमदम्भोजखण्ड, ___ त्यजति मुदमुलूकः प्रीतिमांश्चक्रवाकः। उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं , हतविधिलसितानां हि विचित्रो विपाकः ॥१॥" इति वस्तु सतां भावानामनिबन्धविषये ज्ञेयम् । २- क्वचिद वस्तु असतामपि भावानां निबन्धनं काव्येषु प्रदर्श्यते । १. यथा मृणालानां जलाशयमात्रे निबन्धः यथा लक्षण साहित्यग्रन्थेषु उदाहरणं निबन्धनस्य । साहित्य-१६ साहित्यरत्नमञ्जूषा-२४१ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नदीषु नीलोत्पलादीनां यथा“शस्तं पयः पपुरनेनिजुरम्बराणि, चक्षुविसंहृतविकाशि बिसप्रसूनाः । सैन्याः श्रियामनुपभोगनिरर्थकत्व मिथ्याप्रवादमसृजत्वननिम्नगानाम् ॥ १ ॥ " , २. राजहंसानां जलाशयमात्रे निबन्धो, यथा साहित्यदर्पणे"अस्मिन्न ेव लतागृहे त्वमभवस्तून्मार्गदत्तेक्षणः सा हंसः कृतकौतुका चिरमभूद् गोदावरीरोधसि । प्रायान्त्याः परिदुर्मनायितमिव त्वां वीक्ष्य बद्धस्तया, कातर्यादरविन्दकुड्मलनिभो मुग्धः प्ररणामाञ्जलिः ॥ १ ॥ | " ३. यशोहास्ययोः शौक्लस्य निबन्धो यथा साहित्यलक्षणग्रन्थेषु - 1 "कर्पूरद्र मगर्भधूलीधवलं यत् केतकानां त्विषः श्वेतिना परिभूय चन्द्रमहसा सार्धं प्रतिस्पर्धते ॥ तत् पाकोज्वलनालिकेर सलिलच्छायावदातं यशः, प्रालेयाचलचूलिकासु भवतो गायन्ति सिद्धाङ्गनाः ॥ १॥" ४. प्रयशः पापयोः कार्ण्यस्य निबन्धो, यथा "प्रसरन्ति कीर्त्तयस्ते तव - च रिपूरणामकीर्त्तयो युगपत् । प्रतिदिशमिव मालतीमालाः ॥ १ ॥ " साहित्यरत्नमञ्जूषा - २४२ कुवलयदलसंवलिताः Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. रात्रौ चक्रवाकानां भिन्नतटाश्रयणस्य विरहत्व-निबन्ध नम् । यथा काव्यग्रन्थेषु"इह हि कुमुदकोशे पीतमम्भः सुशीतं , कवलितमिह नालं कन्दलं चेह दृष्टम् । इति रटति निशायां पर्यटन्ती तटान्ते । सहचरपरिमुक्ता चक्रवाकी वराकी ॥१॥" एवम्६. भूधरभावे हेमरत्नगजाः निबध्यते । ७. अन्धतमिस्र मुष्टिग्राह्यत्वं निबध्यते । ८. ज्योत्स्नायाः कुम्भोपवाह्यत्वं निबध्यते । ६. क्रोधानुरागयो रक्तत्वमसदपि निबध्यते । ३- केषाञ्चिन्नयत्यम् यथा१. वसन्ते एव कोकिलऋतं नैयत्येन वर्ण्यते । २. वर्षास्वेव मयूरस्य नृत्यं ऋतं च नैयत्येन वर्ण्यते । ३. मलयगिरावेव चन्दनोत्पत्तिः नैयत्येन वर्ण्यते । ४. समुद्रेष्वेव मकराः नैयत्येन वर्ण्यते । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२४३ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. हिमगिरावेव भुर्जजन्म नैयत्येन वर्ण्यते । ६. ताम्रपण्यां एव मौक्तिकानि नैयत्येन वर्ण्यते । इत्यादयो अनेकाः नैयत्येन वर्ण्यते इति । ४- कुत्रचिद भिन्नानामप्यक्यम् , तत्र कृष्ण-नील हरित-श्यामानां ऐक्यं यथा"सजलजलदनीला भाति यस्मिन् वनाली मरकतमणिकृष्णो यत्र नेमिजिनेन्द्रः । विकचकुवलयालि-श्यामलं यत्सरोम्भः , प्रमदयति न कांस्कांस्तत्पुरं राहडस्य ॥ १॥" अस्मिन् श्लोके कृष्ण-नील-हरित-श्यामानां भिन्नत्वेऽपि ऐक्यं निबध्यते। श्वेत-गौरयोरैक्यं यथा रघुवंशकाव्ये"कैलासगौरं वृषमारुरुक्षोः , पादापरणानुग्रहपूतपृष्ठम् । अवेहि मां किंकरमष्टमूर्तेः, कुम्भोदरं नाम निकुम्भमित्रम् ॥ १॥" श्लोकेऽस्मिन् श्वेत-गौरयोः भिन्नत्वेऽपि ऐक्यं निबध्यते । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२४४ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीत-रक्तयोरक्यं यथा"नवकनकपिशङ्ग वासराणां विधातुः, ककुभि कुलिशपारणे ति भासां वितानम् । जनितभुवनदाहारम्भमम्भांसि दग्ध्वा , चलितमिव महाब्रुव॑मौर्वानलाचिः ॥१॥" अत्र पीत-रक्तयोः भिन्नत्वेऽपि ऐक्यं निबध्यते । एवं रक्त-गौरयोः इन्दौ शशमृगयोः कामध्वजे मकरमत्स्ययोः कन्दर्पस्य मूर्तत्वाऽमूर्त्तत्वयोः भिन्नत्वेऽपि ऐक्यं निबध्यते । ५- देविवर्णने विज्ञान-चातुर्यत्रपाशीलव्रतम्, रूपं, लावण्यं, सौभाग्यं, प्रेम, शृङ्गार इत्यादयो वर्ण्यन्ते । ६- मन्त्रवर्णने यथा"मन्त्रे पञ्चाङ्गता शक्तिषाड्गुण्योपायसिद्धयः । उदयाश्चिन्तनीयाश्च, स्थैयौन्नित्यादिसूक्तयः ॥" अस्मिन् श्लोके मन्त्रवर्णनं प्रोक्तमिति । ७- नृपवर्णने विद्या, वयः, शक्तिः, प्रजाशास्तिः, प्रजारागः ,धर्मार्थकामेषु तुल्यतादिकं वर्ण्य ते । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२४५ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा किराते दुर्योधनवर्णने"प्रसक्तमाराधयतु यथायथं, विभज्य भक्त्या समपक्षपातया । गुणानुरागादिव सख्यमियिवान्, न बाधतेऽस्य त्रिगरणः परस्परम् ॥” अत्र नृपवर्णनमुक्तमिति । ८ कुमारवर्णने शस्त्र-शास्त्र-कला - बलं - गुणाः उच्छ्रया राजभक्तिः सुगमतादिकं वर्ण्यते । यथा द्रष्टिस्तृरणीकृत जगत्त्रयसत्त्वसारा, धीरोद्धता नमयतीव गतिर्धरित्रीम् । कैमारकेऽपि गिरिवद्गुरुतां दधानो, वीरो रसः किमयमेत्युत दर्प एव ॥ ६- अमात्यवर्णने नीतिशास्त्रं, शक्तिशास्त्रं, धैर्य, बुद्धिः, गभीरता, प्रलोभत्वं, जनरागः विवेकिता वर्ण्य ते । १०- सेनापतिवर्णने यथा "सेनापतौ राजभक्तिः नीतिशास्त्रमभीरुता । संगरे विजयोऽभ्यासे, वाहने कुशलव्रती ॥१॥" साहित्यरत्नमञ्जूषा - २४६ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्र सेनापतिवर्णनं प्रोक्तमिति । ११- पुरोहितवर्णने ___ स्मृतिः वेदः निमित्तं आपत् प्रतिक्रिया दण्डनीतिज्ञता शुद्धिः धर्मः शीलं कुलक्रमः वर्ण्य ते । १२- दूतवर्णने यथा"दूतेषु चारु - चक्षुत्वं, राज्यश्रीवृद्धिकृद्वचः । क्षोभितु शत्रुणां गुह्य, धृष्ट वा कर्मदक्षता ॥१॥" अत्रापि दूतवर्णनं कथितमिति । १३- युद्धवर्णने यथा____"युद्धे तु वर्मबलवीररजांसि तूर्य विश्वासनादशरमण्डपरक्तनद्यः । छिन्नातपत्र-रथ-चामरकेतुकुम्भि मुक्तासुरीवृत भटामरपुष्पवर्षाः॥१॥" अस्मिन् श्लोके युद्धवर्णनं कथितमिति । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२४७ । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४- प्रयाणवर्णने यथा "प्रयाणे भेरिनिर्घोषः सेनासम्मर्दधूलयः । गजाश्वरथबाहुल्यं, पदातिसैनिकैयुताः ॥ १ ॥ " अत्र प्रयाणवर्णनं प्रोक्तमिति । १५- अश्ववर्णने यथा " श्वे निजखुरोत्खात - रजसा धूलिमण्डलम् । रभसा गति प्रौन्नत्यं जातिर्धाराग्रपञ्चनम् ॥१॥ श्लोकेऽस्मिन् अश्ववर्णनमुक्तमिति । १६- गजवर्णने यथा 1 यथा "गजे सहस्रयोधित्वमुच्चत्वं कर्णचापलम् । रिव्यूहविभेदित्वं कुम्भमुक्ता मदानिलः ॥ १ ॥ ” , अस्मिन् श्लोके गजवर्णनमिति । १७- देशवर्णने "देशेऽतिगर्भ द्रव्यत्वं, पण्यधान्यादिषु सुखी । नगरग्रामजनाधिक्यं, दुर्गादिनदनिर्झराः ॥ " अत्र देशवर्णनं कथितमिति । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२४८ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८- पुरवर्णने यथा"पुरेषु बहुप्रासादाः, विपण्यां जनसंमदः । परिखावप्रवाप्यानां, बाहुल्यं मणिकादिषु ॥" श्लोकेस्मिन् पुरवर्णनं प्रोक्तिमिति । १६- ग्रामवर्णने यथा"ग्रामे सघनवृक्षाली, पशु-धान्य-धनं बहु । वाप्यरघट्टकेदारा ग्रामेयीमुग्धविभ्रमाः ॥" अत्र ग्रामवर्णनमुक्तमिति । २०- अरण्यवर्णने यथा"वने सिंह-गज-व्याघ्र-, व्याल-वराह-वृक्षकाः । काकोलूककपोताद्या भिल्लभल्लदवादयः ॥" अत्र अरण्यवर्णनं कथितमिति । ___ २१- उद्यानवर्णने यथा"उद्याने कुञ्जवृक्षारणां, बाहुल्यं विहगादिषु । मल्लिका-मालती-गन्धः, वापिमध्ये सरोरुहाः ॥" अस्मिन् श्लोके उद्यानवर्णनमुक्तमिति । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२४९ । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२- आश्रमवण ने यथा"पाश्रमेऽतिथिपूजैरण-विश्वासो हिस्रशान्तता। यज्ञधूमो मुनिसुता द्रुसेको वल्कलद्रुमाः ॥" श्लोकेऽस्मिन् आश्रमवर्णनं प्रोक्तमिति । २३- पर्वतवर्णने यथा"शैले काष्टौषधिधातु-वंशविद्याधरादयः । सिंहा व्यालाश्च रिक्षादि, चरन्ति दस्युदानवाः ॥" अत्र पर्वतवर्णनं प्रोक्तमिति । २४- समुद्र वर्णने यथा"अब्धौ द्वीपाद्रिरत्नोमि-पोतयादो जगत्प्लवाः । विष्णुकुल्यागमश्चन्द्राद्, वृद्धिमत् घोषपूरितः ॥" अस्मिन् श्लोके समुद्रवर्णन मुक्तमिति । ___ २५- नदीवर्णने यथा"सरत्यम्बुधियायित्वंः, वीच्यो जलगजादयः । पद्मानि षट्पदा हंसा-चक्राद्याः कुलशाखिनः ॥" श्लोकेऽस्मिन् नदीवर्णनं कथितमिति । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२५० Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६- सरस्य वर्णने यथा "सरस्यम्भोलहर्यम्भो-गंजाद्यम्बुजषट्पदाः । ___हंसचक्रादयस्तीरो-ध्यानस्त्रीपान्थकेलयः ॥" अस्मिन् श्लोके सरस्य वर्णनं कथितमिति । २७- सूर्यवर्णने यथा"सूर्येऽरुणता रविमरिणचक्राम्बुजपथिकलोचनप्रीतिः । तारेन्दुदीपकौषधिघूकतम - श्चौरकुमुदकुलटातिः ॥१॥" अत्र सूर्यवर्णनं प्रोक्तमिति । २८- चन्द्रवर्णने यथा"चन्द्रे कुलटाचक्राम्बुरुहविरहितमोहानीरौज्ज्वल्यम् । सागरजननेत्रकैरवचकोरचन्द्राश्मदम्पतिस्नेहः ॥१॥" श्लोकेऽस्मिन् चन्द्रवर्णनमुक्त चेति । २६- मृगवर्णने यथा मृगयायां श्वव्याधानां, वागुरा नीलवेषता । शरक्षेपैः मृगत्रासः, सिंहयुद्ध गतिस्त्वरा ॥" अस्मिन् श्लोके मृगवर्णनं कथितमिति । ___साहित्यरत्नमञ्जूषा-२५१ - Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०- वसन्तऋतुवर्णने यथा"वसन्ते दोलाकोकिल-मारुतसूर्यगतितरुदलोभेदाः । जातीतरपुष्पचयाऽम्रमंजरीभ्रमरझंकाराः॥" अत्र वसन्तऋतुवर्णनं प्रोक्तमिति । ३१- ग्रीष्मऋतूवर्णने यथा"ग्रीष्मे पाटलमल्ली-तापसरः पथिकशोषवाताल्यः। सक्तुप्रपाप्रपास्त्री - मृगतृष्णाम्रादिफलपाकाः ॥" अस्मिन् श्लोके ग्रीष्मऋतुवर्णनमुक्तमिति । ___३२- वर्षाऋतुवर्णने यथा"वर्षासु घनशिखिस्मयहंसगमाः पङ्ककन्दलोद्भदौ । जातीकदम्बकेतक-भंभानिलनिम्नगा-हलिप्रीतिः ॥ श्लोकेऽस्मिन् वर्षाऋतुवर्णनं प्रोक्तमिति । ३३- शरदऋतुवर्णने यथा"शरदीन्दुरविपदुत्वं जलाच्छतागस्त्यहंसवृषदः । सप्तच्छदपद्मसिता-भ्रधान्यशिखिपक्षमदपाताः ॥" अत्र शरदऋतुवर्णनं कथितमिति । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२५२ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ - हेमन्त शिशिर ऋतुवर्ण नयोः यथा "हेमन्ते रवितनुता शीतंय वस्तम्बमरुबकहिमानि । शिशिरे शुष्कगोमयत्वं कुमुदाम्बुजदाहशिखरतोत्कर्षाः || ” अस्मिन् श्लोके हेमन्त-शिशिरऋतुवर्णनं प्रोक्तमिति । ३५- सुरापानवर्ण' ने - यथा " सुरापाने गतिभंगः, वचने स्खलना भ्रमः । लज्जा मानापमानेषु, तिरस्कारं पदे पदे ।। " श्लोकेऽस्मिन् सुरापानवर्णनमुक्तमिति । ३६ - विवाहवर्णने यथा “विवाहे वरमात्रा हि, स्त्रियाणां मधुरध्वनिः । लाजा होमादिवेदीषु, मङ्गलं पाणिपीडनम् ॥ " अत्र विवाहवर्णनं प्रोक्तमिति । ३७- स्वयंवरवर्णने “स्वयंवरे कुमाराणां, मञ्चमण्डपशोभनम् । राजपुत्र्याः निजोद्वाहं, क्रीयते निजचेष्टया ॥" अस्मिन् श्लोके स्वयंवरवर्णनं कथितमिति । साहित्यरत्नमञ्जूषा - २५३ - Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८- सुरतवर्णने यथा... "सुरते सामजाभावाः, सीत्कारः कोरकाक्षता । माजीयं मधुरं शब्दः, रवोऽधरनखक्षतिः ॥" श्लोकेऽस्मिन् मैथुनवर्णनमुक्तमिति । ___३९- विरहवर्णने यथा"विरहे तापनिश्वास - चिन्ताग्निदेहदग्धता । शीतोपलेपनं सौख्यं, जागृतिः शिशिरोष्मता ॥" अत्र विरहवर्णनं प्रोक्तमिति । ४०- जलकेलिवणने यथा "जलकेलौ सरःक्षोभश्चऋहंसापसर्पणम् । - पद्मग्लानिः पयः क्षेपो, दृग्रागो भूषणच्युतिः ॥" श्लोकेऽस्मिन् जलकेलिवर्णनमुक्तमिति । ४१- पुष्यावचयवण ने यथा"पुष्यावचये पुष्पावचयः पुष्पार्पणाथिने दयिते । मानाद्य गात्रस्खलनेावक्रोक्तिसम्भ्राश्लेषाः ॥" अत्र पुष्यावचयवर्णनं प्रोक्तमिति । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२५४ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२-४३- प्रातः-मध्याह्न-सायंकालेषु वर्ण ने यथाप्रातः कोकाम्बुजोत्कर्षो, मध्याह्न तापसंप्लवः ॥ ४४सायं-भानोः रक्तत्वं, चक्रपद्मादिविप्लवः ।" अस्मिन् श्लोके प्रातः-मध्याह्न-सायंकालेषु वर्णनमुक्तमिति । ४५- अन्धकारवर्णनं यथा"तमिस्र सान्द्रमन्धत्वं, सर्वलोकोपशून्यता । आकस्मिक समारम्भो निःशङ्कमभिसारिका ॥" अस्मिन् श्लोके अन्धकारवर्णनं प्रोक्तमिति । 8 कविसमयः 8 एवं च कवीनां समये अङ्कलेखनस्य प्रकारोऽपि बहुधा संकेताक्षरैः निम्नप्रकारैः विवणितो दृश्यते काव्येषु शिलापट्टेषु इतिवृत्तात्माकालेखेषु च । साहित्यरत्नमञ्जूषा-२५५ ।। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) एकं - 'ब्रह्म, भूमि:, इन्दु:' इति । (२) द्वौ - ' पक्षी, प्रक्षिणी, दोषी ( भुजौ ) यमी ( यमल), अश्विनौ' इति । (३) त्रयः - 'रामाः, , गुणा ग्रामाणि पुराणि, लोकाः क्रमाः, श्रग्नयः' इति । (४) चत्वारः - ' अब्धयः, युगाः, श्रुतयः ( ५ ) पञ्च - 'इषवः, वायवः, भूताः, ( ६ ) षट् - ' रसाः अङ्गानि ऋतवः, (७) सप्त - ' स्वराः, ऋषयः, तुरङ्गाः पर्वताः' इति । (८) अष्टौ - ' वसूनि सर्पाः मतङ्गजाः' इति । , , कृताः' इति । अक्षा:' इति । तर्का:' इति । (e) नव - सङ्ख्याः, गावः, अङ्कानि, नन्दाः निधयः, नभश्चराः, इति । (१०) दश - 'आशा' शून्य, अभ्रम्' इति । ( ११ ) एकादश - 'त्रिलोचना : - महेश्वराः' इति । , (१२) द्वादश - 'आदित्याः, 'अर्का : सूर्याः' इति । (१३) त्रयोदश - 'विश्वे देवा:' इति । (१४) चतुर्दश - ' मनवः, इन्द्राः भुवनानि' इति । " साहित्यरत्नमञ्जूषा - २५६ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) पञ्चदश-'तिथयः' इति । (१६) षोडश-'कलाः, अष्टयः, राजानः' इति । (१७) सप्तदश-'अत्यष्टयः, धनाः' इति । (१८) अष्टादश-'धृतयः' इति । (१६) एकोनविंशतिः-'अतिधृतयः' इति । (२०) विशतिः-'कृतयः, अङ्गुलयः, नखाः,' इति । (२१) एकविंशतिः-'प्रकृतयः, मूर्छनाः' इति । (२२) द्वाविंशतिः-'जातयः, प्राकृतयः' इति । (२४) चतुविशतिः-'जिनाः सिद्धाः' इति । (२५) पञ्चविंशतिः-'तत्त्वानि' इति । - (२७) सप्तविंशतिः-'ऋक्षाणि' इति । (३२) द्वात्रिंशत्-'दशना:-द्विजाः' इति । (३३) त्रयस्त्रिशत्-'सुराः' इति । (४६) एकोनपञ्चाशत्-'तानाः' इति । एवं एतेषां तुल्यार्थकानां शब्दैः पृथ्वीस्थाने भू - भूमिमहीत्यादि धीमता सङ्ख्याया अवगमः कार्य: इति । साहित्य-१७ साहित्यरत्नमञ्जूषा-२५७ । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अङ्कानां वामतो गतिः' ज्ञेया । एतेषां श्रङ्कानां श्लोक रूपेण कथ्यतेऽत्र— तथाहि एकं ब्रह्म ेन्दू भूमिद्धों, पक्षाक्षिदोर्यमाश्विनः । त्रयो राम-गुण- ग्राम पुर लोक क्रमाग्नयः ॥ १ ॥ - · - चत्त्वारोऽब्धि-युग- श्रुति कृताः पञ्चेषु वायवः । भूताक्षाः षड् रसाङ्गर्तु - तर्काः सप्त स्वरर्षयः ॥ २ ॥ - तुरङ्गः पर्वतश्चाष्टौ वसु सर्प मतङ्गजाः । नवसङ्ख्यागोऽङ्करन्ध्र - नन्द - निधि- नभश्चराः ॥ ३ ॥ - प्रथात्यष्टिर्धनाः प्रोक्ता, धृतयोऽष्टादश स्याद् वै - शून्यमभ्रं दशाशाः स्यादेकादश त्रिलोचनाः । द्वादशादित्यमाख्याता, विश्वेदेवा त्रयोदशः || ४ || चतुर्दश मनुश्चेन्द्रः, तिथयः पञ्चदशानां वै कलाष्टिराज षोडशः ||५|| भुवनेभ्यः प्रयोगितः । सप्ताधिदशसङ्ख्यके । प्रतिधृत्यूनविंशतिः || ६ || कृताङ्गुलिनखाः ज्ञेया, संख्या विशतिभ्यः सदा । प्रकृतिर्मूर्छनाश्चैकविंशतिः कथिताः बुधैः ॥७॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा - २५८ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद् जातिराकृतिश्चैव, ख्यातो द्वाविंशतिः सदा । वन्दनीया जिनाः सिद्धाः, स्युश्चतुर्विंशतिः मुदा ॥८॥ तथा तत्त्वमपि प्रोक्तं, प्रसिद्ध पञ्चविंशतिः । सप्तविंशति ऋक्षारिण, द्वात्रिंशद् दशना द्विजाः ॥६॥ त्रयस्त्रिशत् सुराः ख्याताः, वणिताः साक्षरैः सदा । तथा तानादयो शब्दाः, ऊनपञ्चाशदूचिरे ॥१०॥ पर्यायवाचकैः शब्दः, कल्पनीया तथाऽपि वै । सङ्ख्याङ्कानां च वै संज्ञा, सुधिया धियाऽऽ साम् ॥११॥ इत्यत्र संक्षेपतः कविसमयः समासतो निदर्शितः । विशेषाणिजिज्ञासुना काव्यानुशासन - तदीयविवेक-काव्यप्रकाश-साहित्यदर्पण-तट्टीकादयो ग्रन्था अवलोकनीयाः ।। साहित्यरत्नमञ्जूषा-२५९ । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 पञ्चमपरिच्छेदस्य सारांश: काव्य कलात्मकैर्भेदैः सम्प्रदायः कवेश्च कः । जिज्ञासाकुलचित्तानां हितबुद्धया सुभाषितम् ॥ १ ॥ - " कवीनां सम्प्रदायाः षट्, रसाऽलङ्काररीतयः । वक्रोक्ति - ध्वनि रौचित्य - भेदैस्साहित्यविश्रुताः ॥ २ ॥ विभावस्यानुभावस्य रसनिष्पत्तिराम्नायो, संयोगाद् व्यभिचारिणः । भरताचार्य अलङ्कारस्य वैशिष्ट्य, दण्डी गुणानां रीतीनां - उत्पत्तिञ्च रसस्यास्य, मनुते भट्टलोल्लटः । शङ्कुकोऽनुमति चाभि व्यक्तिमभिनवोऽवदत् ॥ ४ ॥ श्रानन्दवर्द्धनाचार्यैः, ध्वनेः अभिनवगुप्तपादैश्च, चितम् ॥ ३ ॥ भामहोद्भटरुद्रटाः । वामनश्चैव मेनिरे ॥ ५ ॥ प्राधान्यमीरितम् । मम्मटाद्यैस्समर्थितम् ॥ ६ ॥ औचित्य सम्प्रदायस्य, क्षेमेन्द्रोऽभूत् प्रवर्त्तकः । औचित्यं रससिद्धस्य, प्रोक्तं काव्यस्य जीवितम् ॥ ७ ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा - २६० Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरसे काव्यसंसारे, कवेरेवास्ति कौतुकम् । यदस्मै रोचते रम्यं, नव्यं भव्यं प्रवर्तते ॥८॥ निरङ्कुशत्वं कवीनां तु, विदितं विश्वभासितम् । ललितं वलितं नित्यं, चमत्कारैश्च चचितम् ॥६॥ अङ्कलेखन - साहित्य - प्रतिपादन - पुरस्सरम् । समयादिवर्णनं प्रोक्तं, कविभिः स्वीकृतं पुरा ॥१०॥ पञ्चमोऽयं परिच्छेदः, प्रोक्तः सुशीलसूरिणा। पठता पटुतासिद्धय, प्रीत्यै पाठयतां परम् ॥११॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-२६१४ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐5555555555 म प्रशस्तिः 59555555555555 (१) मिथ्यामोहतमिस्रकल्मषहरं सज्ज्ञान - तेजस्करं , मोक्षश्वर्य-सुप्रीतिपूरभरितं निर्वाणमार्गे स्थितम् । दग्धानङ्गपतत्त्रिणं न च पुनर्विज्ञातरूपं भृशं , तं देवं प्रणमामि मोक्षसुखदं पावं फलोधीश्वरम् ॥१॥ (२) जिने धर्मे श्रद्धा शिशुसमयतो यस्य च गुरौ , विरक्तिराबालाद् - भवविषयहालाहलनिभा । जिघृक्षा दीक्षायाः समजनि मुमुक्षा प्रबलतः , स्तुवे सूरि नेमि विमलचरितं तं गुरुवरम् ॥२॥ ( ३ ) यदीयं व्याख्यानं प्रशमरसधाराधरसमं , यदीयं माहात्म्यं सुजनजनमाङ्गल्यकरणम् । यदीया शास्त्रेषु प्रखरगति वैदुष्य प्रतिभा , स्तुवेऽहं सूरि वै सुगुरुवरं लावण्यसुधियम् ॥३॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा-२६२ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) संसारमाया - नवलिप्त - जन्मतः, शीलप्रभाभासित यो मुनीश्वरः । धुरन्धरः शास्त्रविशारदस्तथा श्रीदक्षसूरिः प्रणमामि सद्गुरुः || ४ || ( ५ ) तेषां पट्टधरो मुख्यः, अनुजो हि सहोदरः । सुति समाख्यातः, शास्त्रेषु व्यसनं मम ॥५॥ राजस्थाने हि प्रख्याते, मरुधरप्रदेशके । शुभे फलोधितीर्थे वै तीर्थमाला महोत्सवे ॥६॥ श्रीफलवृद्धिपार्श्वेश - स्यानुभावाच्च गुरोरपि । साहित्याकरग्रन्थेभ्यो, विलोकनाच्च चिन्तनात् ॥ ७ ॥ वेद वेद नभोनेत्रे [२०४४], मिते वैक्रमवत्सरे । माघे च शुक्लसप्तम्यां तिथौ च सोमवासरे ॥ ८ ॥ साहित्यरत्नमञ्जूषा, संक्षिप्ता कृतवान् मुदा । युता पञ्चपरिच्छेदः, सानन्दा पूर्णतामिता ॥ ६ ॥ यावत् मेरु-रवीन्दु-भू, ग्रह-नक्षत्र - तारकाः । स्थीयात् तावदयं ग्रन्थः, सर्वेषां हितसाधने ॥। १० । । साहित्यरत्नमञ्जूषा - २६३ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति श्रीशासनसम्राट्-सूरिचक्रचक्रवत्ति-तपोगच्छाधिपतिः भारतीयभव्यविभूति-महाप्रभावशालि-अखण्डब्रह्मतेजोमूत्तिश्रीकदम्बगिरिप्रमुखानेकप्राचीनतीर्थोद्धारक - श्रीवलभीपुरनरेशाद्यनेकनृपतिप्रतिबोधक-चिरन्तनयुगप्रधानकल्प-वचनसिद्धसर्वतन्त्रस्वतन्त्र-प्रातःस्मरणीय-परमोपकारि-परमपूज्याचार्यमहाराजाधिराज श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वराणां दिव्यपट्टालंकारसाहित्यसम्राट्-व्याकरणवाचस्पति-शास्त्रविशारद- कविरत्नसाधिकसप्तलक्षश्लोकप्रमाणनूतनसंस्कृतसाहित्यसर्जक-परमशासनप्रभावक - बालब्रह्मचारि - परमपूज्याचार्यप्रवर श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वराणां प्रधानपट्टधर - धर्मप्रभावकशास्त्रविशारद-कविदिवाकर- व्याकरणरत्न- स्याद्यन्तरत्नाकराद्यनेकग्रन्थकारक-बालब्रह्मचारि-परमपूज्याचार्यवर्य श्रीमद्विजयदक्षसूरिवराणां पट्टधर-जैनधर्मदिवाकर-शास्त्रविशारदसाहित्यरत्न - कविभूषण - बालब्रह्मचारि - श्रीमद्विजयसुशीलसूरि सन्दृब्धायां साहित्यरत्नमञ्जूषायां पञ्चमः परिच्छेदः ।। तत्समाप्तौ च समाप्तेयं साहित्यरत्नमञ्जूषा ॥ श्रीरस्तु ।। शुभं भवतु ।। साहित्यरत्नमञ्जूषा-२६४ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JIRLX60 KAR : G मानाण ताज प्रिण्टर्स, बोराणा हाउस, जालोरी गेट के अन्दर, जोधपुर