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विश्वनाथ कविराज ही इसके अपवाद ही इसके अपवाद हैं क्योंकि उन्होंने साहित्यदर्पण में 'लाटी' का विवेचन किया है । वैसे भोजने अवन्तिका तथा माग को मानकर छह रीतियों की चर्चा की है परन्तु वे विद्वविमर्श भोग्य नहीं सिद्ध हो सकीं ।
रुद्रट ने समासयोजना को रीति का निर्धारक तत्त्व स्वीकार किया है । उनके अनुसार समासरहित संरचना वैदर्भी, लम्बे-लम्बे समासगर्भित पदों से युक्त रचना गौड़ी तथा छोटे-छोटे समासों वाली पद रचना पाञ्चाली कहलाती है । मध्यम आकार की समासयोजना से संवलित चतुर्थ रीति 'लाटी' कहलाती है । 'लाटी' की उद्भावना के अतिरिक्त रुद्रट ने पाँच वृत्तियों का उल्लेख भी किया है, उन पाँच वृत्तियों के नाम इस प्रकार हैं- १. मधुरा २. प्रौढ़ा ३. परुषा ४. ललिता ५. भद्रा ।
रीति-वृत्ति सिद्धान्त में समास तथा वर्णयोजना करते हुए भी रुद्रट रीति की प्रामाणिक दूरदर्शी प्रस्तुति नहीं कर सके ।
६५० से १०५० ई. के मध्य आचार्य कुन्तक ने नूतन वैचारिक आयाम प्रस्तुत किये, उन्होंने प्रादेशिक आधार
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