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पर स्वीकृत रीतियों का खुलकर विरोध किया और कहा कि यदि प्रादेशिक श्राधार पर रीतियाँ स्वीकार की जाती हैं तो एक-एक रीति में असंख्य रीतियों की कल्पनायें करनी होंगी क्योंकि भौगोलिक प्रदेशों की असंख्यता विद्यमान है । एक क्षेत्र के कवि एक रीति से सम्बद्ध हों, यह आवश्यक नहीं है ।
काव्य-रीति को उत्तम, मध्यम तथा अधम के रूप में वर्गीकृत करने के भी कुन्तक विरोधी थे । उन्होंने स्पष्ट किया है कि काव्य में उच्च कोटि का ही सौरस्य होता है, अतः मध्यम तथा अधम कोटि की रीति का कोई महत्त्व नहीं तथा औचित्य भी नहीं है ।
सर्वप्रथम प्राचीन मान्यताओं पर नवीन क्रान्तिकारी चिन्तन प्रस्तुत करते हुए कुन्तक ने कविस्वभाव को रीतितत्त्व का नियामक स्वीकार किया है । प्रत्येक कवि का स्वभाव प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास से अनुप्राणित होता है ।
राजानक कुन्तक मानते हैं - " कविस्वभाव-भेद के आधार पर निबन्धित काव्यों के आधार पर ही काव्य-मार्ग ( रीति) के भेदों को सम्यक् मानना चाहिए, न कि देश विशेष के आधार पर । सुकुमार स्वभाव वाले कवि में
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