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गुण पाञ्चाली को अभिलषित नहीं हैं। इसमें तो अर्थयोजना की दृष्टि से चमत्कारिता, कोमल मृदु पदयोजना महत्त्वपूर्ण है तथा शब्दयोजना की दृष्टि से यह समासरहित व्यास शैली एवं कोमल पदयोजना पर बल देती है ।
प्राचार्य उद्भट ने, जो वामन के समकालीन थे, रीति के संदर्भ में यद्यपि कोई विमर्श नहीं किया है परन्तु उनके द्वारा प्रतिपादित कठोर वर्गों की योजना से सम्पृक्त परुषावृत्ति, कोमल वर्णों की योजना वाली 'कोमलावृत्ति/ ग्राम्यावृत्ति', उक्त दोनों के मध्य की-सी योजना से सम्पृक्त 'उपनागरिकावृत्ति' रीतियों से आंशिक रूप से मिलती जुलती हैं।
भारतीय भौगोलिक भागों की दृष्टि से दक्षिण, पूर्व और उत्तर को वैदर्भी, गौडी तथा पाञ्चाली के माध्यम से प्रतिनिधित्व प्राप्त है तो पश्चिम का प्रतिनिधित्व करने वाली कौन-सी काव्य शैली है ? इस विषय पर गहन अवलोकन करके नवीं शताब्दी के मध्य भाग में आचार्य रुद्रट ने 'लाटी' नामक रीति का प्रस्तावन किया, जिसके द्वारा पश्चिम काव्य जगत् का काव्यरीतिगत प्रतिनिधित्व हो सके । रुद्रट की लाटी रीति को उत्तरवर्ती आचार्यों ने स्वीकार नहीं किया है। मात्र
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