________________
वहाँ की रचनाओं में इन शैलियों की बहुलता होने के कारण उक्त रीतियों का नामकरण मात्र किया गया है ।१
वैदभी रीति उक्त सम्पूर्ण गुणों से सम्पन्न होती है, गौड़ी में प्रोज तथा कांति और पाञ्चाली रीति में माधुर्य एवं सुकुमारता की महत्ता होती है ।२ समस्त गुणों के सम्मिलित परिपाक होने के कारण वैदर्भी रीति को काव्यपाकरे की संज्ञा से भी अभिहित किया गया है । वैदर्भी का क्षेत्र व्यापक तथा पूर्णतया समृद्ध है। परन्तु गौड़ी तथा पाञ्चाली रीति का क्षेत्र नितांत संकुचित, सीमित एवं परस्पर विपरीत भी। गौड़ी रीति अर्थयोजना में भावों की प्रौढ़ता तथा संश्लिष्टता एवं रसाभिव्यक्ति पर बल देती है; शब्दयोजना में समासशैली/प्रगाढ़ता पदों की समुज्ज्वलता को महत्त्व देती है; जबकि गौड़ी रीति के ये
१. विदर्मादिषु दृष्टत्वात् तत् समाख्या ।
विदर्भ-गौड-पाञ्चालेषु देशेषु तत्र त्यैः कविभिर्यथास्वरूपम् उपलभ्यमानत्वात् तत्समाख्या, न पुनर्देशे किञ्चिदुपक्रियते काव्यानाम्-का.सू.वृ.
१.२.१०. २. का.सू.वृत्ति. १.२.११-१३. ३. "गुणस्फुटत्वसाकल्यं काव्यपाकं प्रचक्षते"-का.सू.वृत्ति. ३.२.१४.
विस्तृत विवेचन देखें- 'कन्सेप्टस् ऑफ रीति एण्ड गुण इन संस्कृत पोइटिकस्' - (दिल्ली-१९४०) पृ. ८५-१११.
( ५४ )