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२. प्रसाद-अर्थ की प्राञ्जलता, ३. समता-भावों के वर्णन में क्रमबद्धता, ४. माधुर्य-उक्ति की विचित्रता/ चमत्कारिता, ५. सुकुमारता-कटु या अशुभ उक्ति के स्थान पर मधुर एवं शुद्ध वचनों का प्रयोग, ६. अर्थव्यक्तिवस्तुवर्णन में स्वाभाविकता एवं सजीवता, ७. उदारत्वअश्लीलता, ग्राम्यता का पूर्ण परिहार, ८. प्रोज-भावों को प्रौढता, ६. कान्ति-रस की अभिव्यक्ति एवं उसकी प्रमुखता, तथा १०. समाधि-मूल अर्थ की ग्राहकता/ पकड़ । इन भेदकतत्त्वों के सुन्दर विश्लेषण से प्राचार्य वामन ने रीति के भाव पक्ष की महत्ता उजागर की है।
आचार्य वामन ने, प्राचार्य दण्डी द्वारा प्रदर्शित भौगोलिक आधार को स्वीकार करते हुए 'पाञ्चाली' नाम की एक तीसरी रीति की उद्भावना भी की है ।२ पाञ्चाल उत्तर प्रदेश के उत्तरी तथा पश्चिमी भाग को कहते हैं । तत्-तत् प्रदेशों के नाम से स्वीकृत रीतियों का तत्-तत् प्रदेशों के साथ नित्य/अटूट सम्बन्ध नहीं मानना चाहिए।
१. काव्यालंकारसूत्रवृत्ति ३,१,४ से ३,२,१४ पर्यन्त । २. १,२,६—काव्यालंकारसूत्रवृत्ति ।
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