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की प्रतिभा सम्यग्रूपेण प्रयुक्त होती है, उसके गुण को सौभाग्य कहते हैं। काव्योपयोगी समग्र सामग्री के परिस्पन्द से संपादनयोग्य तथा रसयुक्त चित्त (सहृदय) जनों को अलौकिक चमत्कार प्रदान करने वाला काव्य का प्रधान प्राणभूत सौभाग्य गुण होता है । पदों, वाक्यों एवं प्रबन्धों के तीनों ही मार्गों (सुकुमार, विचित्र एवं मध्यममार्ग) में सौभाग्य एवं औचित्य गुण व्यापक रूप से विद्यमान रहते हैं।"
काव्य-दोष का स्वरूप
काव्य के विविध तत्त्वों के विवेचन के साथ-साथ संस्कृत के प्राचार्य काव्यगत दोषों के विवेचन के प्रति भी सहज रूप से सजग रहे हैं । कविजन काव्यदोषों से परिचित होकर स्वरचित काव्यों में इनका परिहार करें, इस बुद्धि से दोष-विवेचन काव्यशास्त्रों में हो रहे हैं? परन्तु काव्यदोष के सामान्य स्वरूप के विवेचन के प्रति प्रायः प्राचार्य वामन ने ही प्रथमतः दृष्टिपात किया और कहा - "गुण के विपरीत ही दोषों का स्वरूप है" ।२
१. सौकर्याय प्रपञ्चः । काव्यालंकारसूत्र २।१।३ । २. गुणविपर्ययात्मानो दोषाः। २।१।१ ।
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