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संस्कृत काव्यशास्त्र में रीतितत्त्व का सूक्ष्म विवेचन करने पर ज्ञात होता है कि संस्कृत के आचार्य रीति की संकल्पना में वैयक्तिक तत्त्व की महत्ता को भलीभाँति जानते हैं परन्तु उसे सैद्धान्तिक महत्ता नहीं दे सके । रीति की प्रतिष्ठा बुद्धि तत्त्व तक तो पहुँच सकी है, श्रात्मतत्त्व तक नहीं ।
आचार्य भरत से लेकर क्षेमेन्द्र तक सभी ने काव्य में औचित्य की प्रधानता को स्वीकार किया है । कुन्तक ने मार्गों के विश्लेषण के पश्चात् औचित्य पर प्रकाश डालते हुए कहा है - " वर्णन की स्पष्ट रीति से जहाँ स्वभाव का महत्त्व परिपुष्ट किया जाता है, उचित वर्णन स्वरूप प्राणयुक्त उस तत्त्व को औचित्य कहते हैं ।" औचित्य के स्वरूप को दूसरे सौन्दर्य की दृष्टि से प्रस्तुत करते हुए कुन्तक ने कहा है- "जहाँ वक्ता या प्रमाता की शोभा के अतिशय से प्रशंसा स्वभाव से वाच्य ही आच्छादित हो जाता है उसे भी औचित्य गुरण कहते हैं । "
औचित्य के बाद कुन्तक ने सौभाग्य नामक एक अन्य सामान्य गुण की चर्चा की है
सौभाग्य - " उपादेय वर्ग में जिस वस्तु के लिए कवि ( ६३ )