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ध्वनिवादी आचार्य गुणविपर्यय या गुणाभाव के रूप में नहीं, भावात्मक रूप से मानते थे ऐसा प्राचार्य आनन्दवर्धन के दोषों के उल्लेख से ज्ञात होता है ।१ अतएव प्राचार्य मम्मट मुख्यार्थ काव्यत्व के विघातक को ही दोष मानते हैं ।२ रस-भावादि के विघातक/अपकर्षक ही काव्यदोष हैं । तात्पर्य यह है जिनसे रस आदि की अनुभूति में बाधा उपस्थित होती है, वे ही सरस काव्य के दोष माने जाते हैं । आचार्य मम्मट के अनुसार जिन काव्यों में रस की मुख्यता नहीं होती, उनमें शब्द-बोध्य, वाच्य, लक्ष्य तथा व्यङ्गयार्थ को ही मुख्यार्थ कहा जाता है क्योंकि विभावादि अर्थ ही रस के व्यञ्जक हैं। चमत्कारिक वाक्यार्थ की प्रतीति में बाधक तत्त्व भी काव्य-दोष कहलाते हैं तथा शब्द आदि के अपकर्षक भी काव्य-दोष की श्रेणी में आते हैं । इस प्रकार काव्य दोषों को हम तीन श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं
१. द्विविधो हि दोष कवेरव्युत्पत्तिकृतः, अशक्तिकृतश्च । तत्राव्युत्पत्तिकृतो दोषः शक्तितिरस्कृतत्वादेव कदाचिन्न लक्ष्यते । यस्त्वशक्तिकृतो दोषः स झटिति प्रतीयते ।
-ध्वन्यालोक-का. ३-६ २. मुख्यार्थहतिर्दोषो रसश्च मुख्यस्तदाश्रयाद्वाच्यः । उभयोपयोगिनः स्युः शब्दाद्यास्तेन तेष्वपि सः ।।
-काव्यप्रकाश ७११
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