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दण्डी को ही रीतिसिद्धान्त का प्रवर्तक माना जाता है । दण्डी का समय सातवीं शताब्दी के अन्त में स्वीकार किया जाता है । १ दण्डी ने काव्य का लक्षण करते हुए कहा है- इष्ट अर्थ से सम्बलित पदावली काव्य है । २ स्पष्ट है कि दण्डी को पदावली की इष्टता के लिए अर्थ की इष्टता अभिप्रेत है, फलतः काव्य में पदावली - शब्द और अर्थ की समुचित योजना प्रभिलषित है । वस्तुतः शब्द और अर्थ की समुचित योजना दण्डी के मत में रीति है ।
काव्य-रचना के प्रमुख दो तत्त्व होते हैं - अनुभूति प्रौर अभिव्यक्ति । पहला पक्ष भाव पक्ष तथा दूसरा पक्ष कलापक्ष कहलाता है । रीति का सम्बन्ध कला -पक्ष के साथ है । प्रत्येक कवि की अपनी विशेष शैली, अभिव्यक्ति होती है । कवियों के अभिव्यक्ति वैचित्र्य के आधार पर, अभिव्यक्ति की पद्धतियों की अनन्तता सम्भाव्य है । अभिव्यक्ति वैचित्र्य का सूक्ष्म विवेचन असम्भव है जैसे - ईख, गन्ना, दूध तथा
१. ए क्रिटिकल स्टडी आफ दण्डिन् एण्ड हिज वर्क्स,
दिल्ली, १९७०, पृ. ६१-६३
२. काव्यादर्श, १,१० - ' शरीरं तावदिष्टार्थ व्यवच्छिन्ना पदावली'
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