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से अलंकार व्यञ्जना होती है वहाँ ध्वनि होती है, गुणीभूतव्यंग्य नहीं, क्योंकि वहाँ काव्य - व्यवहार अलंकार पर ही निर्भर है, वहाँ व्यञ्जना से प्रतीत होने वाला अलंकार प्रधानतया चमत्कारक है, वह गुणीभूत नहीं हो सकता । इस प्रकार ध्वनि के ५१ शुद्ध भेदों में से वस्तुव्यंग्य अलंकार कृत & भेद [ स्वतः सम्भवी, कवि प्रौढोक्तिसिद्ध तथा कवि निबद्धप्रौढोक्तिसिद्ध वस्तु-व्यंग्य अलंकारों के पदगत, वाक्यगत और प्रबन्धगत रूप से तीन-तीन भेद ] कम हो जाते हैं तथा अष्टविध गुणीभूत व्यंग्य के ५१-६ = ४२ भेद होने के कारण गुणीभूतव्यङ्गय काव्य के ४२ x८ = ३३६ शुद्ध भेद होते हैं । संसृष्टि तथा सङ्करादि ४ भेदों के कारण ३३६ x ३३६x४ = ४५१५८४ और इनमें ३३६ शुद्ध भेद जोड़ने पर ४५१६२० भेद होते हैं ।
आचार्य आनन्दवर्धन ने ध्वनि तथा गुणीभूत व्यंग्य के पारस्परिक मिश्ररण से ध्वनि की 'प्रतिभूयसी संख्या' स्वीकार की है ।
रीति सिद्धान्त
संस्कृत काव्यशास्त्र में रीति सिद्धान्त का प्रवर्तन आचार्य दण्डी से पूर्व ही हो चुका था । परन्तु पूर्वाचार्यों के मौलिक ग्रन्थों के अभाव में श्राचार्य
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