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विधा तत्त्वतः उद्भ्रान्तिजनक है जबकि शास्त्रों का प्रयोजन पाठक के लिए ज्ञानप्रद होना चाहिए।
गुरणीभूतव्यंग्य ध्वनि और उसके प्रकार आचार्य मम्मट ने काव्यप्रकाश में गुणीभूतव्यंग्य का वर्णन करते हुए कहा है-'गुणीभूतव्यंग्य वह काव्य है, जिसमें व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ की अपेक्षा अप्रधान होता है अर्थात् वाच्यार्थ अधिक चमत्कारक होता है। इसके पाठ प्रकार होते हैं
१. अगूढ़ २. अपरस्याङ्ग ३. वाच्यसिद्धयङ्ग ४. अस्फुट ५. सन्दिग्धप्राधान्य ६. तुल्यप्राधान्य ७. क्वाक्षिप्त ८. असुन्दर ।
विश्वनाथ कविराज ने आचार्य मम्मट के गुरणीभूतव्यंग्य के भेद-विवेचन को अपनाया है।
प्रायः ध्वनिकाव्य के समान ही गुणीभूत व्यङ्गयकाव्य के भी भेद-प्रभेद होते हैं। उपर्युक्त पाठ भेदों के अतिरिक्त अर्थान्तर संक्रमित वाच्य आदि की दृष्टि से भी इसके भेद होते हैं किन्तु जहाँ गुणीभूत व्यङ्गय की सम्भावन नहीं की जा सकती वहाँ इसके भेद कैसे हो सकते हैं ? जैसे ध्वनिकार की मान्यता के अनुसार जहाँ अनलंकृत वस्तुमात्र
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