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है? यह शास्त्र सुदीर्घकालीन परम्परा तक 'अलङ्कारशास्त्र' के नाम से विख्यात रहा परन्तु प्राचीन अलङ्कारशास्त्र आलोचकों का मार्गदर्शक मूलतः आलोचनाशास्त्र के रूप में प्रतिष्ठत था, काव्य के समस्त तत्त्वों की विवेचना एवं आलोचना इस शास्त्र में भी नहीं होती थी। प्राचार्य भामह, वामन, उद्भट आदि ने काव्य विवेचन की सर्वाङ्गीणता पर ध्यान देते हुए इसका नाम 'काव्यालङ्कार' के रूप में स्वीकार किया । 'अलङ्कार' को इसलिए साथ रखा गया क्योंकि प्राचीन आचार्यों ने काव्य का मूलतत्त्व अलङ्कार स्वीकार किया । प्राचार्य वामन काव्य-सौन्दर्यजनक समस्त धर्मों को अलङ्कार के रूप में स्वीकार करते थे ।२ प्राचार्य भामह ने भी काव्य में अलङ्कारों की प्रधानता को दृढ़ता से स्वीकार किया है ।३ .
प्राचीन आचार्यों में दण्डी एवं राजशेखर ने उस समय भी क्रमशः काव्यादर्श एवं काव्यमीमांसा शब्द देना ही उचित समझा था ।
१. पञ्चमी साहित्यविद्या, इति यायावरीयः । सा हि चतसृणामपि विद्यानां निष्यन्दः ।
-काव्यमीमांसा १/२ २. सौन्दर्यमलंकारः, -काव्यालङ्कारसूत्र ३. अलङ्कारा एव काव्ये प्रधानम् --काव्यालङ्कार
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