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१०. विद्याविरुद्ध ११. अनवीकृत १२. सनियमपरिवृत्त १३. अनियमपरिवृत्त १४. विशेषपरिवृत्त १५. अविशेषपरिवृत्त १६. साकाङ्क्ष १७. अपदयुक्त १८. सहचरभिन्न १६. प्रकाशितविरुद्ध २०. विध्ययुक्त २१. अनुवादायुक्त २२. त्यक्तपुनः स्वीकृत २३. अश्लील ।
दोषों के परिहार के विषय में भी समाधानात्मक दृष्टिकोण से युक्त आचार्यों के विवेचन अवश्य द्रष्टव्य हैं।
काव्य के गुण काव्य के लिये गुण अत्यन्त आवश्यक हैं। प्राचार्य मम्मट ने गुणों का सम्बन्ध रस के साथ सिद्ध करते हुए कहा है-"शरीरावस्थित आत्मा के शौर्य आदि धर्म जिस प्रकार आत्मा के साथ एकाकार होकर शाश्वत रहते हैं तथा आत्मा के शोभावर्धक होते हैं, उसी प्रकार काव्य के माधुर्य, अोज और प्रसाद गुण रस के साथ नित्यसम्बद्ध होकर काव्य की श्रीवृद्धि करते हैं।” (का. प्र. ८।६६)
भरतमुनि ने काव्यगुणों के सन्दर्भ में माधुर्य, औदार्य का उल्लेख किया है तथा अोज के स्वरूप पर भी प्रकाश डाला है। गुण के स्वरूप तथा संख्या आदि का विवेचनयुग तो स्पष्ट रूप से आचार्य भामह के पश्चात् हो गया
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