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था परन्तु गुण एवम् अलंकारों का विवेक रीतिवादी आचार्य वामन से प्रारम्भ हुआ। इनके बाद ध्वनिवादी आचार्यों ने गुणों के सूक्ष्म विवेचन पर विशिष्ट ध्यान दिया तथा इन्हें काव्य की आत्मा का धर्म बतलाया है । प्राचार्य मम्मट का उक्त कथन भी मूलतः आनन्दवर्धन तथा अभिनवगुप्त की मान्यताओं का अनुसरण करता है ।
मम्मट के अनुसार ही साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ ने गुणस्वरूप का विवेचन किया है-'उत्कर्षहेतवः प्रोक्ता गुरणालंकाररीतयः' रसस्याङ्गित्वमाप्तस्य धर्मः शौर्यादयो यथा गुणाः । इस प्रकार विश्वनाथ ने हो गुणों को रसोत्कर्षक स्वीकार किया है ।
गुणों की संख्या
प्राचीन आचार्यों ने गुणों की संख्या बतलाते हुए परस्पर विभिन्नता का प्राश्रयण किया है अतएव संख्या अनवरत बढ़ती गई। आनन्दवर्धन तथा भामह से प्रेरणा प्राप्त करके प्राचार्य मम्मट ने गुणों को माधुर्य, प्रोज तथा प्रसाद नामक तीन गुणों में समाहित किया है। तदनन्तर आचार्य हेमचन्द्र तथा विश्वनाथ आदि ने भी उसी गुणत्रयी का समर्थन किया है।