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ते हिमालयमामव्य पुनःप्रेक्ष्य च शूलिनम् । सिद्धं चास्मै निवेद्यार्थं तद्विसृष्टा खमुद्ययुः ॥१
इस श्लोक में एक ही वाक्य है जो अनेक वाक्यों के आमन्त्रण आदि अर्थ को संक्षेप से प्रकट करता है । (ङ) साभिप्रायत्व का अर्थ है विशेषण की सार्थकता, जैसे-'कुर्यां हरस्यापि पिनाकपाणेः' यहाँ, पिनाकपाणि विशेषण रूप से प्रयुक्त है।
___ वामन आदि के अनुसार काव्य व्यवहार के प्रवर्तक गुण ही हैं किन्तु इस चार प्रकार की प्रौढ़ि के न होने पर भी 'यः कौमारहरः' इत्यादि में काव्य-व्यवहार दृष्ट है और इनके होने पर भी यदि रसादि का अभाव होता है तो काव्यत्व व्यवहार नहीं होता, अतः ये गुण नहीं हैं, अपितु उक्तिवैचित्र्य मात्र हैं। साभिप्रायत्व रूप पञ्चम प्रौढ़ि तो अपुष्टार्थत्व दोष का अभाव है, अन्य गुण नहीं।
प्रसाद गुरण
'प्रसाद' का अर्थ है-प्रसन्नता । अतः जिस काव्य
१. काव्यप्रकाश २४६ उदा. श्लो., स. उ. ।
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