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रचना को पढ़कर, सुनकर तथा देखकर चित्त प्रसन्न हो जाता है, हृदयकलिका विकसित होती है, उसे 'प्रसाद गुरण' कहते हैं । सहजग्राह्यता ही इस गुण की विशेषता है ।
'जिस प्रकार सूखे ईंधन में अग्नि तुरन्त व्याप्त होती है उसी प्रकार जो गुण चित्त में तुरन्त व्याप्त हो उसे 'प्रसाद' कहते हैं । यह गुण समस्त रसों तथा रचना में रह सकता है ।'
काव्य गुणों का रचना के क्षेत्र में विशिष्ट महत्त्व है, अतएव समस्त लाक्षणिक ग्रन्थों में इस विषय पर विशिष्ट प्रकाश डाला गया है ।
अलंकार
साहित्य के क्षेत्र में अलंकारों का महत्त्वपूर्ण स्थान है । काव्यगत सौन्दर्य को उत्कर्ष की श्रेणी में पहुँचाने का श्रेय अलंकारों को ही है । आचार्यों ने 'सौन्दर्यमलंकारः ' ऐसा कहते हुए इसे काव्य की आत्मा का स्थान दिलाने का अथक प्रयत्न किया ।
वस्तुतः 'अलंकरोतीति अलंकार:' इस शाब्दिक व्युत्पत्ति के आधार पर जो अलंकृत करे, उसे अलंकार कहते ( ७५ )