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हैं। आचार्य मम्मट ने अलंकारों को रस के पोषक तत्त्व में रूप में भी स्वीकार करते हुए कहा है-'अलंकार, हार आदि आभूषणों के समान हैं, वे रस के उपकारक भी हैं ।१
आचार्य विश्वनाथ ने भी अलंकार के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा है-'जिस प्रकार अंगदादि (केयूर) प्राभूषण शरीर के लिये शोभातिशय के जनक होते हुए भी आत्मोत्कर्षक भी होते हैं, उसी प्रकार उपमादि अलंकार काव्य-शरीर को अलंकृत करके, काव्य की आत्मा (रस) में उत्कर्ष लाते हैं ।२ ।
आधुनिक काव्यशास्त्रीय दृष्टि से अलंकार वर्णन की सुन्दर और चमत्कारिक पद्धति है । यद्यपि अलंकार सौन्दर्य के उत्कर्षक हैं तथापि उनका महत्त्व रस-ध्वनि गुण, रीति और औचित्य के पश्चात् ही आदरणीय है ।
अलंकारों के स्वरूप एवं माहात्म्य को प्रस्तुत करते हुए किसी मनीषी ने ठीक ही कहा है -
१. उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित् ।
हारादि वदलङ्कारास्तेऽनुप्रासोपमादयः ।। २. शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माः शोभातिशायिनः ।
रसादीनुपकुर्वन्तोऽलङ्कारास्तेऽङ्गादिवत् ।।
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