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में तो अपकारी के वध की ही इच्छा होने लगती है । इस प्रकार चित्तगत दीप्ति के प्रदीप्त होने के कारण क्रमशः प्रोज की अधिकता स्वीकार की जाती है ।
वामन के अनुसार 'अर्थस्य प्रौढ़ि: प्रोज: ' १ अर्थात् अर्थ की प्रौढ़ता ही प्रोज है । इस प्रौढ़ि के पाँच भेद हैं(क) कहीं-कहीं एक पद के अर्थ को व्यक्त करने के लिए वाक्य का प्रयोग किया जाता है, जैसे- 'अथ नयनसमुत्थं ज्योतिरत्रेरिव द्यौः' यहाँ चन्द्रमा के लिए 'अत्रिनयनसमुत्थं ज्योतिः' वाक्य का प्रयोग हुआ है । ( ख ) कहींकहीं वाक्य के अर्थ में एक पद का प्रयोग किया जाता है जैसे - 'कान्तार्थिनी संयोगस्थानं गच्छति' इस वाक्य के अर्थ में अभिसारिका शब्द का प्रयोग किया जाता है । (ग) कहीं-कहीं एक वाक्य के अर्थ को व्यासवृत्ति द्वारा ( विस्तार से ) कई वाक्यों द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है । जैसे - 'परस्त्वं नापहर्तव्यम्' इस अर्थ को 'परान्नं नापहर्तव्यम्, परवस्त्रापहारोऽनुचित:' इत्यादि वाक्यों द्वारा चोरी का निषेध किया जाता है । (घ) कहीं-कहीं एक वाक्य के द्वारा संक्षेप में अनेक वाक्यों को व्यक्त किया जाता है, जैसे
१. काव्यालंकार सूत्र ३/२/२ ।
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