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विष्णुपुराण में कहा हैकाव्यालापाश्च ये केचिद् गीतकान्यखिलानि च । शब्दमूर्तिधरस्यैते विष्णोरंशा महात्मनः ॥
काव्य की प्रात्मा ___ संस्कृत साहित्य के प्रालंकारिकशास्त्रों में काव्य की आत्मा के सन्दर्भ में विद्वानों में विसंवाद है क्योंकि अपनेअपने सम्प्रदाय की मान्यता तथा पृष्ठभूमि का अनुसरण करते हुए सभी प्राचार्यों ने काव्य की आत्मा स्वीकार की है । तत्-तत् प्राचार्यों द्वारा प्रतिपादित काव्य की पूर्वोक्त परिभाषाओं के आधार पर 'काव्य की आत्मा' की स्वीकृतियों में विभिन्नता स्वतः सिद्ध है, उसका विस्तार से पिष्टपेषण करना आवश्यक प्रतीत नहीं होता। अतः संक्षेप में मात्र इतना कहना पर्याप्त है कि किसी प्राचार्य ने रस को, किसी ने ध्वनि को, किसी ने अलंकार को, तो किसी ने रीति को, किसी ने वक्रोक्ति को तथा किसी ने
औचित्य को काव्य की आत्मा कहा है, परन्तु यदि हम सूक्ष्मतया विमर्श करें तो स्पष्ट होता है कि रस के अतिरिक्त सभी तत्त्व काव्य के पोषक हैं, आनन्दव्यञ्जक हैं। काव्य की मूल आत्मा तो 'रस' के रूप में ही प्रतिष्ठित होती है।
रससिद्धान्त की प्रतिष्ठा आचार्य भरत के समय में
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