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काव्य एक कला है जिसमें अनुभूति और अभिव्यक्ति नामक दो मूल तत्त्व होते हैं। काव्य में बुद्धि तथा तर्क का कार्कश्य नहीं होता अपितु हृदय की स्वाभाविक सरस अनुभूति तथा अभिव्यक्तिमयी गङ्गा-यमुना का सङ्गम होता है । महाकवि भवभूति की मानस-वीणा से भी काव्य को कला की स्वीकृति प्रदान करती हुई सहसा ही यह रागिनी झंकृत हुई है
"मैं उस विमल वाणी को वन्दना करता हूँ जिसमें आत्मा की दिव्य कला अमृत के रूप में विद्यमान है।"
प्राचार्य भर्तृहरि ने तो साहित्य-संगीत कलाओं से विमुख व्यक्ति को पशु की संज्ञा दी है। जैनागम ग्रन्थों में कला के संदर्भ में पर्याप्त चर्चा प्राप्त होती है, जिनमें समवायांग, ज्ञाताधर्मकथा, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति प्रमुखतया उल्लेखनीय हैं। कलाओं के विभिन्न भेदों में 'काव्यकला' भी संगहीत है । आचार्य भामह ने 'काव्यालङ्कार' में काव्यकला के सन्दर्भ में कहा हैन स शब्दो न तद्वाक्यं न स न्यासो न सा कला । जायते यन्न काव्याङ्गमहो भारो महान् कवेः ॥१
१. काव्यालङ्कार (५।३) ।
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