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"काव्यं सद् दृष्टादृष्टार्थप्रीतिकोतिहेतुत्वात् । काव्यं सच्चारु, दृष्टप्रयोजनं प्रीतिहेतुत्वात् । अहष्टप्रयोजनं कीतिहेतुत्वात् ।"
प्राचार्य रुद्रट ने 'काव्यालंकार' में पुरुषार्थचतुष्टय के अतिरिक्त अर्थोपशम, विपदनिवारण, रोगविमुक्ति तथा अभीष्ट वरप्राप्ति को भी काव्य के प्रयोजन के रूप में स्वीकार किया है
ज्वलदुज्ज्वलं वाक्प्रसरः सरसं कुर्वन्महाकविःकाव्यम् । स्फुटमाकल्पमनल्पं प्रतनोति यशः परस्यापि ॥ अर्थमनर्थोपशमं शमसममथवा मतं यदेवास्य । विरचितरुचिरसुरस्तुतिरखिलं लभते तदेव कविः ।।
आनन्दवर्धनाचार्य ने काव्य का प्रयोजन 'प्रीति' के रूप में स्वीकृत किया है किन्तु प्रोति से उनका अभिप्राय काव्यार्थ से सहृदय के हृदय में उत्पन्न होने वाली प्रानन्द की अनुभूति है।
'तेन ब्रूमः सहृदयमनःप्रीतये तत्स्वरूपम्'१ अभिनवगुप्तपादाचार्य ने भी 'प्रीति' को काव्य का परम
१. ध्वन्यालोक १।१ ।
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