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कुछ ऐसे नवीन तत्त्वों का भी समायोजन काव्य के प्रयोजनों के रूप में प्रस्तुत किया है, जिनकी चर्चा भरत ने नाट्यशास्त्र में नहीं की थी। भामह कहते हैं कि काव्य का प्रयोजन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के साथ-साथ निपुणता, कीर्ति तथा आनन्द की प्राप्ति भी है।
धर्मार्थकाममोक्षेषु, वैचक्षण्यं कलासु च । करोति कीति प्रीतिञ्च साधुकाव्यनिबन्धनम् ॥१
प्रेय और श्रेय के संगम स्वरूप काव्य के प्रयोजन को स्पष्ट करके भामह ने काव्य में लोकोत्तर तत्त्व का समावेश किया है । सूक्ष्मतया विचार किया जाये तो भरत के धर्म्य एवं यशस्य ही 'काव्यालंकार' में धर्म एवं कीर्ति के रूप में प्रकट हुए हैं। हित एवं लोकोपदेशजनन 'काव्यालंकार' में अर्थ और मोक्ष के रूप में अवतरित हैं । भामह ने 'आनन्द' का सूत्रपात करके काव्यशास्त्र को एक नया आयाम प्रदान किया है।
आचार्य वामन ने काव्य के मात्र दो प्रयोजन स्वीकार किये हैं
१. काव्योलङ्कार ११२ ।
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