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की इस सूक्ति द्वारा काव्य-प्रयोजनों की अन्वेषणा तथा प्रस्तुति आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य है ।
संस्कृत साहित्य में काव्य के प्रयोजनों पर विशद विवेचन किया गया है। आचार्य भरत ने काव्य (नाट्य) के प्रयोजनों पर विमर्श करते हुए कहा है-'नाटक, धर्म, यश और आयु का साधक, कल्याणकारक, बुद्धिवर्धक एवं लोकोपदेशक होता है। साथ ही वह लोकमनोरंजक, पीडित, परिश्रान्तजनों को सुख-शांति तथा विश्रान्ति प्रदान करता है । आचार्य भरत ने यह वर्णन नाट्य के सन्दर्भ में किया है, काव्य के नामोल्लेख के साथ नहीं। किन्तु स्मरणीय है कि नाट्य काव्य का एक अङ्ग है । अतः भरताचार्य के ये नाट्य प्रयोजन भी काव्यं के प्रयोजन अवश्य हैं ।
आचार्य भरत के बाद आलंकारिक आचार्य भामह ने व्यापक रूप से काव्य के प्रयोजनों पर ध्यान दिया तथा
१. धयं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धिविवर्धनम् । लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भविष्यति ।। दुःखार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम् । विश्रान्तिजननं काले नाट्यमेतद् भविष्यति । विनोदकरणं लोके नाट्यमेतद् भविष्यति ।
-नाट्यशास्त्र ११११३-११५
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