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प्रयोजन स्वीकार किया है। भोज ने प्रीति एवं कीर्ति दोनों को ही काव्य का परम प्रयोजन कहा है
रसान्वितं कविः कुर्वन् कीर्ति प्रीतिञ्च विन्दति । १
आचार्य कुन्तक ने काव्यप्रयोजन पर विशद प्रकाश डालते हुए कहा है- काव्य उच्च कुलोत्पन्न राजपुत्रों के लिए सुन्दर, सरल एवं सरस रूप में कहा गया धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है । इससे व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति होती है तथा अलौकिक आनन्द की अनुभूति भी होती है । २
आचार्य मम्मट ने काव्य के प्रयोजन - यश, अर्थ, व्यवहारज्ञान, शिवेतरक्षति ( श्रनिष्टनाश ), परनिवृत्ति तथा कान्तासम्मित उपदेश के रूप में स्वीकार किया है
१. सरस्वतीकण्ठाभरण १।२ ।
२.
धर्मादिसाधनोपायः सुकुमारक्रमोदितः । काव्यबन्धोऽभिजातानां हृदयाह्लादकारिणः ।। व्यवहारपरिस्पन्दसौन्दर्यं व्यवहारिभिः । सत्काव्याधिगमादेव नूतनौचित्यमाप्यते । काव्यामृतरसेनान्तश्चमत्कारो वितन्यते ॥
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- वक्रोक्तिजीवितम् - ११४-६