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आचार्य दण्डी ने गद्य तथा पद्य नामक काव्यभेदों के साथ 'मिश्र' नाम का तीसरा भेद भी समायोजित किया जिससे 'नाटक' का अन्तर्भाव भी काव्य के रूप में ही प्रतिष्ठित हो । वस्तुतः श्राचार्य भरत ने पहले ही नाट्य की काव्यता स्पष्ट कर दी थी ।
आचार्य भामह और दण्डी ने भाषात्मक आधार पर भी काव्य के तीन भेद स्वीकार किये - १. संस्कृतकाव्य २. प्राकृतकाव्य ३. अपभ्रं शकाव्य | आचार्य रुद्रट ने इन्हीं काव्यभेदों के साथ तीन प्रकारों की और समायोजना की है — ४. मागधकाव्य ५. पैशाचकाव्य ६. शौरसेनकाव्य ।
रीतिसम्प्रदाय के आचार्यों ने काव्यभेदों को बतलाते हुए महाकाव्य, कथा, आख्यायिका, चम्पू, नाटक तथा प्रकरण आदि रूपकों का उल्लेख किया है ।
यद्यपि ध्वनिवादी आचार्यों ने काव्य के भेद-प्रभेद पर विशेष ध्यान नहीं दिया है तथापि श्रानन्दवर्धनाचार्य ने प्राचीन आचार्यों के मतानुसार काव्यप्रभेदों को प्रस्तुत किया है
"यतः काव्यस्य प्रभेदा मुक्तकं संस्कृतप्राकृतापभ्रंशनिबद्ध सन्दानितक विशेषक - कलापक - कुलकानि, पर्यायबन्धः
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