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करते हुए कहा है-जहाँ अर्थ स्वयं को तथा अपने वाच्यार्थ को गौण करके उस व्यङ्गय रूप विशेष अर्थ को व्यक्त करता है, उस काव्य-विशेष को विद्वानों ने 'ध्वनि' कहा है।
प्राचार्य अभिनवगुप्त ने ध्वनि के पाँच अभिप्राय ग्रहण किये हैं-१. वाच्य २. वाचक ३. व्यंग्यार्थ ४. व्यंजनाव्यापार, और ५. ध्वनिकाव्य ।
. ध्वनिकाव्य के भेदोपभेदों का उल्लेख करते हुए साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने कहा है-ध्वनि के दो भेद होते हैं-१. अविवक्षितवाच्य ध्वनि ।
२. विवक्षितान्यपरवाच्य ध्वनि । 'अविवक्षितवाच्य ध्वनिकाव्य' के भी दो भेद होते हैं- १. अर्थान्तरसंक्रमित ध्वनिकाव्य ।
२. अत्यन्त तिरस्कृतवाच्य ध्वनिकाव्य ।
अर्थान्तरसंक्रमित वाच्य में वाच्यार्थ अपने आप में अनुपयुक्त तथा असम्बद्ध सिद्ध होकर, किसी अन्य व्यंग्यार्थ में संक्रमित हो जाता है । जैसेकदली कदली करभः करभः, करिराजकरः करिराजकरः । भुवनत्रितयेऽपि विति तुलामिदमूरुयुगं न तमूरूदृशः ॥
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