Page #1
--------------------------------------------------------------------------
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य विरचितश्रीप्रवचनसार टीका
प्रथम खण्ड ज्ञानतत्वदीपिका
अथवा
M ISHRA
टीकाकार--- श्रीमान् जैनधर्मभूषण व शीतलप्रसादा समयसार, नियमसार, समाधिशतक, इष्टोपदेशादिके
उल्याकर्ता तथा गृहस्थधर्म, आत्मधर्म आदिके रचयिता,
ऑ० सम्पादक, " जैमित्र "-सूरत ।
प्रकाशक
मूलचन्द किसनदास कापड़िया-सूरत । प्रथमावृत्ति] कार्तिक वीर सं० २४५० [प्रति १३०० " जैनमित्र "के २४वें वर्षके ग्राहकोंको सेठ गिरधारीलालजी
कलकत्ताकी ओरसे मेट। ।
मूल्य रु०१-४-० 99999999999999999999*
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशकमूलचंद-किसनदास कापडिया जॉ. प्रकाशक जेनमित्र व मालिक दिगम्बर जैन
पुस्तकाल, बंदासाडी-सूरत।
• मूलचन्द किसनदास कापड़ियाजनविजय' प्रेस, खपाटिया चकला-सरत है
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
भूमिका
यह श्री प्रवचनसार अन्य जनागमका सार है। इसमें तत्वज्ञान और चारित्रका तत्वरसगर्मित विवेचन है। इसमें तीन अधिकार हैं-ज्ञानतत्त्व, “ज्ञेयतत्व और चारित्र. जिनमें से इस खंडमें ज्ञानतत्व प्रतिपादक खण्डका -उल्था • विस्तारपूर्वक इसीलिये किया गया है कि भाषाके नाननेवाले सुगमतासे इसके भावको जान सकें। इसके मूलकर्ता श्री. कुंदकुंदाचार्य है जिन्होंने प्राकृत गाथाएं रची हैं । इसपर दो संस्कृत टीकाएं मिलती हैं-एक श्री अमृतचंद्राचार्य कृत, दुसरी श्री जयसेनाचार्यकृत । पहलेको टीकाके भावको आगरा निवासी पं० हेमराजनीने प्रगट किया है जो मुद्रित होचुका है, परन्तु जयसेनछत वृत्तिका हिंदी उल्था अबतक कहीं जानने में नहीं भाया था। तब जय नाचायके भावको प्रगट करने के लिये हमने विद्यावल न होते हुए भी इसका हिंदी उल्था किया है सो पाठकगण ध्यानसे पढ़ें । तथा महां कहीं भ्रम मालूम पड़े मूल प्रति देखकर शुद्ध करलें । हमने अपनी बुद्धिसे प्रत्येक गाथाका अन्वय भी कर दिया है.नि से पढ़नेवालोंको शनोंके अर्थका बोध होनावे । वृत्तिकारके अनुसार विशेष अर्थ देकर फिर हमारी समझनें जो गाथाका भाव माया उसे भावार्थमें खोल दिया है।
श्री कुंदकुंदाचार्यका समय विक्रम सं० १९ है ऐसा ही
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
दि. जैन पट्टावलियोंसे प्रगट है तथा इनके शिष्य श्री तत्वासत्रके कर्ता श्रीमदुमास्वामी महाराज थे, जिनका समय विक्रम सं०है। उनकी मान्यता जैन संघमें श्री गौतमस्वामी तथा श्री महावीरस्वामी के तुल्य है इसीसे हर ग्राममें मन नैन शास्त्र सभा होती है तब भारम्भमें यह श्लोक पढ़ा जाता है
मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गोतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दाचार्यो, जैनधर्मोस्तु मंगलं ॥
श्री पंचास्तिकाय, समयसार, नियमसार, षट्पाहुइ, स्यणसार, द्वादशानुप्रेक्षा आदि कई ग्रंथोंके कर्ता श्री कुंदकुंाचार्थनी हैं। श्री जयसेनाचार्यका समय श्री अमृतचन्द्र पीछे मालूम होता है। श्री अमृतचन्द्रका समय दशवीं शताब्दी है। इसके लगभग श्री जयसेनाचार्यका समय होगा। यह टोका शव्दवोष समझानेके लिये बहुत सरल है। पाठकगणोंसे निवेदन है कि वे इस पुस्तकको अच्छी तरह पढ़कर हमारे परिश्रमको सफल करें। तथा अन्धका प्रचार शास्त्रसमा द्वारा व्याख्यान करके करते रहें।
भाषाढ वदी १२ ता. १०-७-२३)
जैनधर्मका प्रेमी७० सीतलप्रसाद ।
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
विषयसूची।
२० २..
" .. ...
१५
गाथाएं नमस्कार २चारिषवर्णन ३ तीन प्रकार उपयोग
९-१० ४ इन उपयोगोंके फल . ' .
૧૧-૧૨ ५ शुद्धोपयोगका फल .... ... ... ... १०
शुद्धोपयोगी पुरुष ... ... ७ सर्वज्ञ स्वरूप... ... .. ८ स्वयंभू स्वरूप ... ... ... .... ५ परमात्माके उत्पाद व्यय प्रौव्य कथन........१७-१८ १० सर्वज्ञके श्रृद्धानसे सम्यकदृष्टी होता है ... १९ ११ अतीन्द्रिय ज्ञान व सुख ... ... ... २० १२ केवलीके भोजनादि नहीं .. ... ... . १३ केवलज्ञानको सर्व प्रत्यक्ष है ... ..."...२२-२३ १४ आत्मा और शान व्यवहारसे सर्वव्यापक है ...२४-२८
• ज्ञान ज्ञेय परस्पर प्रवेश नहीं करते ... ...२९-38 १६ निश्चय और व्यवहार केवली कथन ... ...३४-३७ १. भात्माको परेमानमें तीनकालका ज्ञान ...३८-४२ १८ शान बंधका कारण नहीं है किन्तु रागादि
बंधके कारण है। केवलोके धर्मोपदेश ५ .
विहार इच्छापूर्वक नहीं ... ... ... ...४३-७ १९ केपलज्ञान ही सर्वज्ञान है ... ... ...४८-५२ २० शानप्रपंचका सार ... ... ... ... .५३ २१ नमस्कार ... ... ... ... ..... ... ५४
११५
१४७
१६३ १८४
૨૨.
२०७
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथाएं २२ अताद्रिय ज्ञान तथा मुख उपादेय है... ...५५-५६ २०६ २७ इंद्रियज्ञान तथा मुख त्यागने योग्य है... ...५७-६० २४ केवलज्ञान ही सुख है ... ... ... ...६१-६४ . २२६ २५ इंद्रियसुख दुःखरूप है ... ... ...६५-१६ . २४० २६ मुक्तात्माके देह न होते हुए भी सुख है ...६७-६८ २४८ २७ इद्रियों के विषय भी मुसके कारण नहीं है ...६९-७० २५५ २८ सर्वज्ञ नमस्कार ... ... ... ... ...७१-७२ २६१ २९ शुभोपयोगका स्वरूप ... ... ... ... ७३ ३० शुभोपयोगसे प्राप्त इन्द्रिय मुख दुःखरूप है...७४-७५ २१ शुभोपयोग अशुभोपयोग स्मान है ... ... ७६ ३२ पुगसे इन्द्रादिपद होते है ... ... ... .. ३ पुष तृष्णा पैदाकरताहै , दुःस्वका
कारण है... ... ... ... ... ...७८.७९ ३४ इंद्रिय सुख दुःखरूप है... ... ... ... . ३५ पुण्य पाप समान है ... ... ... ... १ २९८ ३६ शुद्धोपयोग संसार दुःख क्षय करता है ... ....२' ३० ३७ शुद्धोपयोग बिना मुक्त नहीं होसक्ती... ....3-८४ 303 ३८ परमात्माका यथार्थ ज्ञाता आत्मज्ञानी है ...८५-८६ ३९ प्रमाद चोरसे बचनाचाहिये ... ... ... . ३१४ ४० नमस्कार योग्य ... ... ... ... ...८८-८९ ४१ मोहका स्वरूप व भेद... ... ... ४२. रागद्वेष मोहरा क्षयकरना चाहिये ... ४३ शाखस्वाध्यायकी आवश्यक्ता ... ... ४४ अर्थ किसे कहते है ... ... ... ४५ जैनका उपदेश दुर्लभ है ... ... ... ९५ ३४६ ४६ मे विज्ञानसे मोह क्षय होता है .... ४७ जिन भागमसे भेदविज्ञान' होता है...".... १७ ५१
3०९
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
पत्रे
(७.)
• गयाए ४८ यथार्थ पदाधकी श्रद्धा विना साधु शुद्धोपयोगी ___ नहीं होसक्ता ... ... ... ४४ महात्मा साघुला लक्षण... ... ... ... १९ ५. उपासकको फल... ... ... .... १००-१०१ ५१ ज्ञानतत्त्वदीपिकाका सार... ... ... ५२ भाषाकारका परिचय ... ....
......
९८
३५४. ५ ६ ३६२
Ansar
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
(८)
संक्षिप्त परिचय सेठ गिरधारीलाल चंडीप्रसादजी ।
सीकर ( राजपूताना) जयपुरका मण्डलदती राज्य तथा शेखावाटीका एक परिगणनीय भाग है । सीका की राज्य व्यवस्था सात परगनोंमें विभक्त है जिसमें तहसील फतहपुर एक बहुत बड़ा और प्रख्यात शहर है । यह संकर (राजधानी) से १६ कोशको दुरीपर वसा हुवा है। वर्तमान सीकर-नरेश रावराजा कल्याणसिंहभी हैं । फतेहपुरमें दिगम्बर भाइयों के १५०-२०० घर हैं तथा दो मंदिर भी हैं जिनमें एक मंदिर अति प्राचीन है।
इसी नगरमें सेठ गुलाबरायनी सरावगी ( श्रावक ) अग्नवाल गर्गगोत्रीके संवत् १९२८ में एक पुत्र-स्त उत्पन्न हुवा जिनका नाम गिरधारीलालजी था। पाठक, मिन-दो भाइयों को चित्र देख रहे हैं वे आपहीके पुत्र हैं।
गिरधारीलालजी फतेहपुरसे १४ वर्षकी अवस्थामें कलकत्ते माये उस समय आपकी आर्थिक अवस्था साधारण थी । अतः. माप.एक परिचित व्यापारीके यहां कार्य. सीखते रहे। ८-१० वर्ष बाद आपके शुभ कर्मोंका उदय हुवा और आपने कपड़ेकी दलाली करनी आरंभ की। तभीसे आपकी स्थिति दिनों दिन बढ़ने लगी और व्याप भगवान जिनेन्द्रकी कपासे लक्षाधिपति बन गये।
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
ria
.
म
1
:
moong-order
FIRE
..
...
...7.
SERE
-"
वर्गीय सेठ गिरधारीलालजीके पुत्रसेठ चंडीप्रमादजी तथा चि० देवीप्रसादनी-कलकत्ता
"जैविजय"प्रेस-सुरत ।
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
भापके तीन संतान हुई जिनमें प्रथम श्रीयुत चंडीप्रसादजीका जन्म संवत् १९१४ में हुवा । द्वितीय संतान आपके एक कन्या हुई और तृतीय संतान चि० देवीप्रसादका जन्म संवत १९६२ में हुवा।
सेठ मिरधारीलालमी बड़े मिशनसार तथा पर दुःख सुखमें सहयोग देनेवाले थे । धार्मिक नियमोंको भी आप यथासाध्य पालते थे। योतो माप श्री सम्मेदाचलकी यात्रा ३-१ वार कर माये ये पर संवत् १९७७ में अर्थात् स्वर्गारोहण (सं० १९७८) के ८-९ मास पूर्व ही आपको पुनः एकाएक तीर्थयात्रा करनेकी लालसा हुई । सो ठीक ही है, जिसकी गति अच्छी होनेको होती है उसके विचार धर्मकी ओर ऋजु हो जाते हैं। अतएव भाप कर्मकी निर्जरा हेतु सपरिवार प्रायः सारे तीर्थोके दर्शनकर माये और यथाशक्ति दान भी किया तथा श्री सम्मेदशिखरजीमें यात्रियों के लिये एक कमरा भी बनवा पाये। आपने कलकत्तेके रथोत्सवपर एकवार श्री मिनेन्द्र भगवानका रथ भी हांका था। मृत्यु समयमै भी आपने ५०००) का दान किया था। .
आपके दोनों पुत्र (चित्रमें ) पिताके जीवन कालहीमें व्यापारनिपुणता प्राप्तकर चुके थे और अपने पिताको उनकी
मृत्युके दो वर्ष पूर्व ही व्यापारसे मुक्तकर धर्मध्यानमें लगा दिया • था । " यन्नवे भानने. लग्नः संस्कारो नान्यथा भवेत्" की कहा कहावतके अनुसार ये दोनों भाई. धर्माचरणः करनेवाले, · सरलस्व. भावी, मिलनसार, परोपकाराः धन लगानेवाले और सदाचारी हैं।
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१०)
पूमनपाठ, शास्त्रश्रवण तथा स्वाध्याय व्रतादि भी यथाशक्ति करते हैं। आपकी मातानी भी बड़ी धर्मात्मा हैं। क्यों न हो, जिनके पुत्रादि इस प्रकार के सजन हों उस माताका क्या कहना ?
वीर निर्वाण संवत् २४४८ में जैनधर्मभूषण' ब्रह्मचारी श्री शीतलप्रसादनी महाराज जब कलकत्तेमें चातुर्मास (वर्षाकाल) विता रहे थे उस समय ब्रह्मचारीजीने जो यह टीका लिखी थी उसको प्रकाशन तथा "जैनमित्र के ग्राहकों को वितरण करनेके लिये श्रीयुत चंडीपसादनीसे आदेश किया कि आप अपने स्वर्गीय पिताकी स्मृति स्वरूप यह श्री जिनवाणी रक्षा तथा धर्म प्रसादका कार्यकर लेवें । तव मापने तत्क्षण ब्रह्मचारीनीकी पाज्ञाको शिरो. धार्य किया और यह अंथ-रल आन पाठकोंके कर-कमलों में धर्मपथ प्रदर्शनार्थ इन्हीं भाइयोंकी सहायतासे सुशोभित हो रहा है । परिवर्तनरूप संसारमें इसी प्रकारका दान साथ देता है। हां, इतना अवश्य है कि इस प्रकार शुभ और धार्मिक कार्योंमें उन्हीका द्रव्य लग सकता है जिनका द्रव्य अहिंसा और सत्य व्यापारसे उपार्जित हो। ____ भगवान् श्री जिनेन्द्र देवसे प्रार्थना है कि आप दोनों भाइयोंको चिरायु प्राप्त हो तथा मापके धार्मिक विचार दिनोंदिन उन्नति करें। स जातो येन जातेन, याति वंशः समुन्नतिम् परिवर्तिनि संसारे, मृतः को'वा न जायते ॥
विनीत-गैटेलाल जैन,-कलंकत्ता।
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
पत्रे ३
ला. ११
शुद्धयशुद्धि। अशुद्धि करते हैं करके परम चारित्रका
आश्रय करता हूं ऐसी प्रतिज्ञा करते हैं कम्ममलं
२८
७ १९
उपसंप मि आत्मा
३१
उपसंपयामि वीतराग तथा सराग भावमें परिणमन करता हुआ आत्मा कार्यो शुभोपयोग भपरिणामीक उसमेंसे पी अतीन्द्रिय हस्तावलम्बन गमसिद्धानाम्
काया ३ अशुभोपयोग
अपरिणामीके १३ उसमें घी ११, अतीन्दिय ११ हस्तावकमान । २३. ग सिद्धानाम् १८ ' मुख
, ४३ ४८ १९ ५०
सुख .
५६
१८
तो
जाय तो .
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
'पत्रे ला०
, ११ " २२ ५६ २३
(१२) अशुद्धि हैं करता जब तक
शुद्धि रखते हैं करता है है जबतक
८९ १९ ९८ १४ " १७ ९९ १९ २०३१
स्थिव्यर्थ तक योंकी ज्ञान । जह
स्थित्यर्थ यहां तक लिये इन्द्रियोंकी
आत्मा ज्ञान ' जहां
करते जो मात्माको
"
१८
नो
हीन
१०६ ८ आत्मज्ञान ।
" १३ कामका १०७ ७. मुखसे ।
व्यक्तता १२५ ५ कि धर्म जैसे १२८ २० आनात्मा १३१ १५ तथा ११३ नीचेसे। और और २४६ ३ ।
'प्रवण १४७ ११
आगामी
आत्मा ज्ञान कामको गुणसे व्यक्तृतामें कि जैसे अनात्मा है तथा
और द्रवण
भूत
.
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
पत्रे
ला
शुद्धि
अशुद्धि स्कुरायमान नंघका बंध
१७३ १७५
१ १
स्फुरायमान बंघका .. कर्माका यदि राग न करते भीतर मोहादिभिः न रहो परिणमाता सत्ता वह আহকি . ज्ञान होता है
लाल
करते किंतु भीतर मोहाहिमिः बन रहो . परिणमता. वह জয়ন্টি ज्ञान जाल
१७८ १५ १८९ नीचे २ १९२ ७.
२०३ २०५
१६ १६
२०६.. १२ २०८ नीचेसे२ २१९४
परिणमति अभुत्तो करण पश्चक्ख दृष्ट अत्त्या दुःख
परिणति भमुत्तो कारण पञ्चक्ख
श्रुत्वा
२३४ १५ २४१ .२ २४२ १८.
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
ला०
पत्रे १४५ २४७
(१४) अशुद्धि यां विष्ठता .
अदि येषां
१७
करता
.
तिष्ठना करना सब तरह मोह हटाकर निनमें आदि रात्रिको भाशक्तिके वश भीतर भी विषयको
अब तरह २९७ १ मोह
॥ २१ आदि २८१ २ भाशक्तिके २८८
यकी ३९० २९८ २१
पदमिद २०९ १० आदिक ३१२ नीचेसे। कारण ३१३ नीचेसे मास्त
नौकर्म समार....
नोकर्म ।
संसारं मोह.... पदमिद मादिकका करण मास्ते
और आत्मामें मूदता दूर करनेके लिये ज्ञान मारुहिडे गाथा २० से ८८तक नै गलत हैं यहांतक ८९ चाहिये । प्रेरणा
२१७ १० ३२०गाथा८८
भारुहिं
३२१
३
रणा
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२७ १९ ३२८ १२
कराने
मशुद्धि करने भवाम्बधा सयुतम् नता है। मिट्टी गुप्त
१५८ २४३
१० १८
भवाम्बोषौ संयुतम् जानता है मिट्टीमें गुप्त दोनों रहे हैं येन छ: गाथाओंसे भेद विज्ञान स्वभावावाप्ति रुचि आदेश
यन
ओंसे
३१७ २२ ३१८१४ १९. नीचेसेर ३५३ १८ १७० २१ ५०१ १३
भेद विज्ञानके स्वभाववाप्ति
मा देश
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीकुंदकुंदस्वामी विरचित -
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
1
दोहा - परमातम आनंदमय, ज्ञान ज्योतिमय मार। भोगत निज सुख आपसे, आपी में अधिकार ॥ अष्ट करमको नष्ट कर, निज स्वभाव झलकाय । परम सिद्ध निजमें, रमी, वंदन ध्याय ॥ परम पूज्य अरहंत गुरु, जिनवाणीके नाथ । सकल शुद्ध परमात्मा, नमहुं जोड़ निज हाथ || रिषभ आदि महावीर लो, चौबीसों जिन राय । परम शूर शुद्धात्मा, नमहुँ नम गुण गाय ॥ गौतम गणक ईश मुनि, जंतू और धर्म । पंचम युग केवलि भए, मगायो जिन धर्म | कर प्रणाम और नमनकर, श्रुत केवलि समुदाय } अंग पाठि मुनिवर सबै, निज पर तत्व खखाय ॥ कुंद कुंद आचार्य गुणं सुमखे हरवार । जिनके वचन प्रमाण हैं, जिनवर वच अनुसार ॥ सार तत्व निज आत्मा दिखलावन रविसार । var विभ्रम मोह तम, हरण परम अधिकार |
* प्रारंभ - श्रायण वदी १४ वि० सं० १९७९ तः० २२-७- २२ ।
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
mmammiwwwm
२] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
xmmmmmmmmmmmmmmmminenremain जा जान श्रद्ध विना, पथ सम्पन्न लाखाय । तिस आतमका भाव सव, भिन्नर दरशाय ॥ स्वसंवितिसे सार मुख, भोग भोग हुलशाय । अन्य भव्य पर कृपा कर, मारग दियो बताय॥ 'विस गुरुका आगम परम, है एक प्रवचन सार ।
चंद्रामृत टीका रची, संस्कृतम गुणकार ।। द्वितीय वृत्ति जयसेनने, लिख निज सुधा वदाय । ताका पय कर सुखभवो, रुचि वाड़ी अधिकाय॥ प्रथम चि भाषा करी; हेमराज बुधवान ।। द्वितीय पारी भाषा नहीं हुई अब तक यह ज्ञान। मंद बुद्धि पर रुचि धनी, ताके ही परसाद । बालबोध भाषा लिखू, कर प्रमादको वाद ।। निज अनुभवके कारणे, पर अनुभवके काज । जो कछु उद्यम बन पड़ा, है सहाय जितराज ॥
आगे श्री जयसेन भाचार्यकृत तात्पर्यवृत्तिके अनुसार श्री प्रवचनसार आगमकी भाषा वचनका लिखी नती है। प्रथम ही वृत्तिकारका मंगलाचरण है। श्लोक-नमः परमचैतन्यस्थात्मोत्यमुखराम्पदे ।
___ परमागमसाराय .सिवाय परमेष्ठिने ॥ १ ॥ भावार्थ-परम चेतन्यमई अपने आत्मासे उत्पन्न सुख संपत्तिके धर्ता और परमागमके सार स्वरूप श्री सिद्ध परमेष्ठीको . नमस्कार हो।
प्रथम श्लोककी उत्थानिका:-एक कोई निकट भव्य शिवकुमार नामधारी थे जो स्वसंवेदनसे उत्पन्न होनेवाले
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवचनसार भाषाका |
[>
परमानन्द मई एक लक्षणके धारी सुखं रूपी अमृतसे विपरीत चार गति मई संसारके दुःखोंसे भयभीत थे । व जिसमें परम भेदज्ञानके द्वारा अनेकान्तके प्रकाशका माहात्म्य उत्पन्न होगया था व जिन्होंने सर्व खोटी नयोंके एकान्तका हठ दूर करदिया या तथा जिन्होंने सर्व शत्रु मित्र आदिका पक्षपात छोड़कर व त्यन्त मध्यस्थ होकर धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थीकी अपेक्षा अत्यतसार, और आत्महितकारी व अविनाशी तथा पंच परमेष्ठी के प्रसाद से उत्पन्न होनेवाले, मोक्ष लक्ष्मी रूपी पुरुषार्थको अंगीकार किया था । श्री वर्द्धमान स्वामी तीर्थकर परमदेवको आदि लेकर भगवान पांच परमेष्टियों को द्रव्य और भाव नमस्कार के द्वारा नमस्कार करते हैं ।
·
2
भावार्थ - यद्यपि यहां टीकाकारके इन शब्दोंसे यह झककता है कि शिवकुमारजी आगेका कथन करते हैं परन्तु ऐसा नहीं है । आगे व्याख्यानोंसे झलकता है कि स्वामी कुंदकुदाचार्य ही इस अन्य कर्ता हैं तथा शिवकुमारजी मुख्य प्रश्नकर्ता है - शिवकुमारजीको ही उद्देश्य में लेकर आचार्यने यह ग्रन्थ रचा है !
गाथा
एस सुरासुरमसिंद, बंदिदं घोदघाइकम्मलं । पणमामि वडूमाणं, तित्थं धम्मस्स कत्तारं ॥ १ ॥ . संस्कृत छाया
एष सुरासुरमनुष्ये द्रवन्दितं धौतधातिकमलम् । प्रणमामि वर्धमान तीर्थ धर्मस्य वर्तारम् ॥ १ ॥
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
४] . श्रीभवचनसार भाषालीका । - सामान्यार्थ-यह जी मैं 'कुन्दकुन्दाचार्य है सो चार प्रकार देवोंके और मनुष्योंके इन्द्रोंसे बंदनीक, पातिया कर्माको धोनेवाले, धर्मके कर्ता, तीर्थस्वरूप श्री वईमान स्वामीको नमस्कार करता हूं।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(एस) यह जो मैं अन्य। कार ग्रन्थ करनेका उद्यमी मया हूं और अपने ही द्वारा अपने आत्माका अनुभव करनेमें लवलीन हूं सो (सुरासुरमणुसिंद वंदिद) तीन जगतमें पूजने योग्य अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य मादि गुणों के आधारभूत अईतश्दमें विराजमान होनेके कारणसे तथा इस पदके चाहनेवाले तीन भवनके बड़े पुरुषों द्वारा भले प्रकार जिनके चरणकमलोंकी सेवा की गई है इस कारणसे स्वर्गवासी देवों और भवनवासी व्यंतर ज्योतिषी देवोंके इंद्रोसे वंदनीक, (घोरघाइकम्ममलं) परम आत्म लवलीनता रूप समाधि भावसे जो रागद्वेषादि मलोंसे रहित निश्चय आत्मीक सुखरूपी अमृतमई निर्मल जल उत्पन्न होता है उससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन चार घालिया को मलको धोनेवाले अथवा दूसरों के पापरूपी मलके धोनेके लिये निमित्त कारण होनेवाले, ( धम्मस्स कत्तारं ) रागादिसे शून्य निज आत्मतत्वमें परिणमन रूप निश्चय धर्मके उपादान कर्ता अथवा दुप्सरे जीवोंको उत्तम क्षमा आदि अनेक प्रकार धर्मका उपदेश देनेवाले (वित्थ) तीर्थ अर्थात देखे, सुने, अनुभवे इन्द्रियों के विषय सुखकी इच्छा रूप जलके प्रवेशसे दूरवर्ती परमसमाधि रूपी जहाज पर.चढ़कर संसारसमुद्रसे तिरनेवाले अथवा दुसरे जीवोंको संसार सागरसे
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
LADITATEurका पवलाराम
Amawwwww
mummonin ‘पार होने का उपाय मई एक महान स्वरूप (बमाणे ) सब तरह अपने उन्नतरूप ज्ञानको धरनेवाले तथा रत्नत्रय मई धर्म तत्वके उपदेश करनेवाले श्री वर्षभान तीर्थकर परमदेवको (पणमामि) नमस्कार करता हूं। __भावार्थ-यहां अंथकर्ता श्रीकुंदकुंदाचार्य देवने मंयकी मादिमें मंगलाचरण इसी लिये किया है कि. मिस धर्म तीर्थके स्वामी श्री वर्धमान स्वामी थे उसी धर्मका वर्णन करने में उन्हींके गुण और उपदेशोंमें हमारा मन लवलीन रहे जिससे सम्यक प्रकार उस धर्मका वर्णन किया नासके । यह तो मुख्य प्रयोजन मंगलाचरणका है । तथा शिष्टाचारका पालन और अंतराय आदि पाप प्रकृतियों के अनुभागका हीनपना बिससे प्रारम्भिक कार्यमें विघ्न न हो गौण प्रयोगन है। महान पुरुषों का नाम लेना और उनके गुणोंको स्मरण करना उसी समय मनको अन्य चिन्तवनोंसे हटाकर उस महापुरुषके गुणों में तन्मय कर देता है जिससे परिणाम या उपयोग पहलेकी अपेक्षा उस समय अधिक वि. शुद्ध हो जाता है-उसी विशुद्ध उपयोगसे धर्मभावनामें सहायता मिलती जाती है। जबतक इस क्षेत्रमें दूसरे तीर्थकर द्वारा उपदेश न हो तबतक श्री वर्डमान स्वामीका शासनकाल समझा जाता है। वर्तमानमें जो गुरु द्वारा या भागम द्वारा उपदेश प्राप्त हो रहा है उसके साक्षात् प्रवर्तक श्री. वर्द्धमान स्वामी हुए हैं। इसीसे उनके महत् उपकारको स्मरणकर आचार्यने चौवीसवें तीर्थकर श्री वर्धमान भगवानको नमस्कार किया है । .. क्योंकि गुणों हीके द्वारा कोई व्यक्ति पूज्य होता है तथा गुणोंशा ही
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीभवचनसार भाषारीका। • असर स्मरण करनेवाले के वित्तमें पड़ता है इस लिये आचार्यने
गायाम श्री वर्द्धमान स्वामी के कई विशेषण दिये हैं। पहला विशेषण देकर यह दिखलाया है कि प्रभुके गुणोंका इतना महत्व है कि जिनके चरणोंको चार तरहके देवोंके सव इन्द्र नमन करते हैं तथा चक्रवर्ती गजा भी नमस्कार करते हैं। इससे यह भाव भी सूचित किया है कि हमारे लिये मादर्शरूप एक अरहंत भगवान ही हैं किन्तु कषाय रूप अंतरंग और वस्त्रादि वाह्य सामग्री रूप बाह्य परिग्रह धारी कोई भी देव या मनुष्य नहीं इसी लिये हमको श्री अरहंत भगवानमें ही सुदेवपनेकी बुद्धि रखकर उन्हींका पुमन मनन तथा भनन करना चाहिये । दूसरे विशेषणसे श्री भरहंत भगवानका अंतरंग गौरव बताया है कि जिन चार घातिया कर्माने हम संसारी आत्माओंकी शक्तियोंको छिपा रक्खा है उना वातिया कर्माका नाशकर प्रभूने मात्माके स्वाभाविक विशेष गुणोंको प्रकाश कर दिया है। अनंत ज्ञान और अनन्त दर्शनले वह प्रभु सर्व लोक अलोकके पदार्थोको उनकी त्रिकालवर्ती पर्यायोंके साथ विना क्रमके एक ही समयमें जान रहे हैं । उनको किसी पदार्थके किसी गुणके जाननेकी चिन्ता नहीं रहती। वह सर्वको जानकर परम संतुष्ट हैं। जैसे कोई विद्वान अनेक शास्त्रों का मरमी होकर उनके ज्ञानसे सन्तुष्ट रहता है और उनकी तरफलक्ष्य न देते हुए भी भोजन व भजनमें उपयुक्त होनेपर भी उन शास्त्रोंकाः . ज्ञाता कहलाता है वैसे केवली भगवान सर्व ज्ञेयोंको मानते हुए भी उनकी तरफ उपयुक्त नहीं है। उपयुक्त अपने आपमें ही अपने स्वभावसे हैं इसीलिये अपने आनन्दमई अमृतके स्वादी होरहे हैं।
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
[७
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। न उनको किसी ज्ञेयके जाननेकी न किसी ज्ञेयके भोगनेकी चिंता है। वे परम तृप्त हैं। अनंत चीयक प्रगट होनेसे वे प्रभु अपने स्वभावका विलास करते हुए तथा स्वमुख स्वाद लेते हुए कमी भी थकन, निर्बलता तथा अनुत्साहको प्राप्त नहीं होते हैं । न उनके शरीरको निर्बकता होती है और न उस निर्बलताके कारण कोई आत्मामें खेद होता है इसीलिये प्रमुके उपयोग में कभी भी भूख प्यासकी चाहकी दाह पैदा नहीं होती, विना चाहकी दाहके वे प्रभु मुनिवत् मिक्षार्थ नाते नहीं और न भोजन करते हैं । वे प्रभु तो स्वात्मामें पूर्ण तरह मस्त हैं । उनके कोई संकल्प विकल्प नहीं होते हैं। उनका शरीर भी तपके कारणसे अति उच्च परमौदारिक हो जाता है। उस शरीरको पुष्टि देनेवाली आहारक वर्गणाएं अंतराय कर्मके क्षयसे विना विघ्नके आती हैं । और शरीरमें मिश्रण होकर उसी ताह शरीरको पुष्ट करती हैं। जिस तरह वृक्षादिके बिना मुस्वसे खाए हुए मिट्टी, नलादि सामग्रीका ग्रहण होता और वृक्षादिका देह पुष्ट होता है। वे समाधिस्थ योगी साधारण मानुषीय व्यवहारसे दूरवर्ती जीवन्मुक्त परमात्मा होगए हैं। अनंत बल उनको कभी भी असंतुष्ट या क्षीण नहीं अनुभव।. कराता। अनंत सुख प्रगट होनेसे वे प्रभु पूर्ण आत्मानंदको विना किसी विघ्नबाधा या व्युच्छित्तिके भोगते रहते हैं । मोहनीय कर्मके क्षय होजानेसे प्रभुके क्षायिक सम्यक्त तथा क्षायिक चारित्र विद्यमान है निससे स्वस्वरूपके पूर्ण श्रद्धानी तथा वीतरागतामें पूर्ण तन्मय हैं । वास्तवमें चार घातिया कोसे मलीन आत्माओंके लिये चार
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
८] 'श्रीर्वचनसार भोपाटीको । घातिया कोसे रहित अरहंत परमात्मा ही उपादेयं या भक्तिके योग्य होसक्ते हैं। तीसरे विशेषणेसे यह बताया गया है कि प्रमुने हम जीवोंका बहुत बड़ा उपकार किया है अर्थात् मिस धर्मसे जीव उत्तम सुखको प्राप्त करें ऐसे सम्यक् धर्मको उन्होंने अपनी दिव्य चाणीसे प्रकाश किया है। इस विशेषणसे आचार्यने यह भी प्रगट किया है कि सशरीर परमात्मा हीके द्वारा निर्वाध और हित रूप धर्मका उपदेश हो सकता है। वचन वर्गणाएं पद्दलमई हैं उनका शब्द रूप संगठन अथवा उनका प्रकाश शरीर रहित अमूर्तीक परमात्मासें नहीं हो सका है। इसीलिये शरीररहित सिद्ध परमात्मा हितोपदेश रूपी गुणसे विशिष्ट नहीं माने जाते किन्तु शरीर सहित महंत भगवान् सर्वज्ञ और वीतराग होनेके सिवाय हितोपदेशी भी माने जाते हैं। चौथे विशेषणसे यह बताया है कि श्री वर्द्धमानस्वामी तीर्थ तुल्य हैं अथवा तीर्थकर पदविशिष्ट हैं। जैसे तीर्थ या जहाज़ स्वयं तिरता है और दूसरौके पार होनेमें सहाई होता है वैसे भरहंत भगवान स्वयं संसारसागरसे पार हो स्वाधीन मुक्तं होनाते हैं और उनका शरण लेकर जो उन्हींक समान हो उनहींके सदृश माचरण करते हैं वे भी अव उदधिसे पार उतर 'जाते हैं। अथवा वे वर्द्धमान स्वामी सा. मान्य केली नहीं हैं किन्तु विशेष पुण्यात्मा हैं-तीर्थकर पद धारी हैं-जिन्होंने पूर्वकालमै १६ कारण भावनाओं के द्वारा जगतका सम्यक् हित विचारा जिससे तीर्थकर नाम 'कर्म बांधा और तीर्थकर पदमें . अपने विहारसे अनेक नीवोंको परम मार्ग दर्शाकर उनका परम कल्याण किया । ऐसे चार गुण विशिष्ट वर्द्धमान
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीकां। [९ स्वामीको उनके गुण स्मरणरूप भाव और वचन कार्य नमन रूप द्रव्य नमस्कार किया है । इस मंगलाचरणसे आचायने अपनी प्रमाणता भी प्रगट की है कि हम श्री पद्धमान तीर्थकरके ही अनुयायी हैं और उन्हींक ज्ञान समुद्रका एक विंदु लेकर हमने अपना हित किया है तथा परहितार्थ कुछ कहनेका उद्यम बांधा है।
उत्थानिका-आगेकी गाथामें आचार्यने अन्य २३ तीर्थकर तथा अन्य चार परमेष्ठियोंको नमस्कार किया हैसेसे पुण तिस्थयरे, ससव्वसिद्धे विसुखसम्भावे । समणे य णाणदसण परित्ततक्वीरियायारे ॥२॥
शेषान् पुनस्तीर्थकरान् ससर्वसिद्धान् विशुद्धसद्भावान् । श्रमणांश्च शानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारान् ॥ २ ॥
सामान्धार्थ-तथा मैं निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभावधारी शेष श्री वृषभादि पावनाय पर्यंत २३ तीर्थकरोंको और सर्व सिद्धोंको तथा ज्ञान दर्शन चारित्र, तप वीर्यरूप पांच वरहके आचारको पालनेवाले आचार्य, उपाध्याय तथा साधुओंको नमस्कार करता हूँ।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(पुण ) फिर मैं (वि. सुखसमावे) निर्मल मात्माके अनुभवके वलसे सर्व आवरणको दुरकर केवल ज्ञान केवल दर्शन स्वभावको प्राप्त होनेवाले ( सेसे तित्थयरे ) शेष वृषभ मादि पार्श्वनाथ पर्यंत १३ तीर्थकरोंको (ससबसिद्धे ) और शुद्ध आत्माकी प्राप्ति रूप सर्व सिद्ध महारानोंको (य) तथा (गाणदसणचरित्ततवयीरियायारे ) सर्व प्रकार
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
FANAM
१०] , श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । विशुद्ध द्रव्य गुण पर्याय मई चैतन्य वस्तुमें जो रागद्वेष भादि विकल्पोंसे रहित निश्चल चित्तका वर्तना उसमें अंतर्भूत जो व्यवहार दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और.वीर्य सहकारी कारणसे उत्पन्न निश्चय पंचाचार उसमें परिणमन करनेसे यथार्थ पंचाचारको पालनेवाले (समणे) श्रमण शब्दसे वाच्य आचार्य, उपाध्याय और साधुओंको नमस्कार करता हूं।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने मनादि णमोकार मंत्रकी पूर्ति की है। इस पैतीस अक्षरी मंत्रमें मुक्तिके साधनमें आदर्श रूप सहकारी कारण ऐसें पांच परमेयिष्ठोंको स्मरण किया है। सम्पूर्ण जगत विषय कषायोंके वश होकर मोक्षमार्गकी चर्यासे बाहर हो रहा है। वास्तवमै सम्यग्वारित्र ही पूज्य है । जो संसारसे उदासीन होनाते हैं उनके ही चारित्रका पालन योग्यतासे होता है। मो इन्द्रियोंके सर्व विषयभोगोंसे रहित हो स्वममें भी इंद्रियों के विषयोंकी चाह नहीं करते हैं किन्तु केवल शरीरको स्थितिके लिये सरस नीरस जो भोजन गृहस्थ भावकने अपने कुटुम्बके लिये तय्यार किया है उसी से दिनमें एक दफे लेते हैं
और रात्रिदिन परम मात्माकी भावनामें तल्लीन रहते हैं जब ध्यान नहीं कर सकते तब स्वाध्याय करते हैं । जो महात्मा परम, दयावान हैं, बस स्थावर सर्व प्राणियों के रक्षक हैं। जिनके गृहस्थके वस्त्र तथा आभूषण अदिका त्याग है। ऐसे महान आत्माओंको अंतरात्मा यती कहते हैं। ये ही यती सम्यग्दर्शनकी दृढ़ताके लिये नित्य महंत, सिद्ध, भक्ति करते तथा स्तवन और वंदना इन दो मावश्यक कार्योको करते हैं। सम्यग्ज्ञानकी दृढ़ताके लिये
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाका । [११ " जिनवाणीका नित्य पठन करते हैं। सम्यग्चारित्रकी पुष्टताके लिये
महिंसादि १ महाव्रतोंको, ईर्या समिति आदि ५ समितियोंको तथा मनवचनकाय दंडरूप तीन गुप्तियोंको इस तरह तेरह प्रकारका चारित्र बड़ी भक्तिसे दोष रहित पालते हैं। इन नग्न दिगम्बर निर्मथोंमें जो सर्व साधुओं के गुरु होते हैं तथा नो दीक्षा शिक्षा देते हैं उनको भाचार्य कहते हैं। जो साधु शास्त्रोंके पठनपाठनको चारुरीतिसे सम्पादन करते हैं उनको उपाध्याय तथा जो इन पदोंसे बाहर हैं और यथार्थ मुनिका चारित्र पालते हैं के साधु संज्ञामें किये जाते हैं । इन तीनोंको अंतरात्मा कहते हैं-- ये उत्कृष्ट अंतरात्मा हैं । इसी साधु पदमें साधन करते करते यह जीव शुक्ल ध्यानके बग्से चार घातिया फर्म नाशकर भरहंत केवली होनाता है तथा वही महत शेष अधातिया' कर्मोका नाशकर सर्व तरह पुद्गलसे छूटकर सिद्ध परमात्मा हो जाता है-सिद्धको निकल अथवा अशरीर परमात्मा तथा महतको सकल अथवा सशरीर परमात्मा कहते हैं। हरएकमनुष्यको आत्माकी उन्नतिके लिये यथार्थ देव, गुरु, शास्त्रकी सहायताकी आवश्यक्ता है । सो इन पांच परमेष्ठियोंमें अर्हता और सिद्धको पूज्य देव और भाचार्य उपाध्याय, साधुको गुरु तथा देवके उपदेशके अनुसार स्वयं चकनेवाले और तदनुसार शास्त्ररचना करने वाले आचार्योंके रचे हुए शास्त्र ही यथार्थ शास्त्र हैं। इनमें पूज्य बुद्धि रखकर इनकी यथासंगव भक्ति करनी चाहिये। देवकी भक्ति उनकी साक्षात या उसकी प्रतिमाकी पूना स्तुति करनेसे व उनका ध्यान करनेसे होती है-गुरूकी भक्ति.
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२] श्रीप्रवचनसार भाषा का। . गुरु द्वारा उपदेश लाम करनेसे व उनकी सेवा आहार दानादि द्वारा करनेसे होती है-शास्त्रकी भक्ति शास्त्रोंको अच्छी तरह पढ़ या सुनकर भाव समझनेसे तथा उनकी विनय सहित रक्षासे होती है। क्योंकि जैन धर्म मात्माका स्वभाव रत्नत्रयमई है इसलिये इस धर्मके मादर्श देव, इसके उपदेष्टा गुरु व इसके बतानेवाले शास्त्र अत्यंत आवश्यक हैं । आदर्शसे ध्यानके फलका लक्ष्य मिलता है। गुरुमे ध्यानका उपदेश मिलता है, तथा शास्त्रसे ध्यानकी शेतियां व कुध्यान सुध्यानका भेद झलकता है। धर्मके इच्छुक साधारण गृहस्थ के लिये धर्मलाभका यही उपाय है। लौकिकमें भी किसी कलाको सीखनेके लिये तीन बातें चाहिये--कलाका दर्शन, कलाका उपदेश तथा कला बतानेवाला शास्त्र । यद्यपि सिद्ध 'परमात्मा सर्वसे महान हैं तथापि शास्त्रका उपदेश जो अशरीर . सिद्धात्मासे नहीं होसका सशरीर महंत द्वारा हमको मिलता है इसलिये उपकार विचारकर इस णमोकार मंत्रमें पहले अहंतोंको नमस्कार करके पीछे सि को नमस्कार किया है। उत्कृष्ट अंत-रात्माओंमें भी यद्यपि साधु बड़े हैं क्योंकि श्रेणी आरूढ़ यतीको साधु कह सक्ते हैं पर भाचार्य तथा आध्याय नहीं कह सके तथापि अपने उपकार पहुंचनेकी अपेक्षा आचार्यको पहले जो दिक्षा शिक्षा दोनों देते व संघकी रक्षा करते फिर उपाध्यायोंको जो शिक्षा देते फिर सर्व अन्य साधुओंकों नमस्कार किया है क्योंकि साधुओंमें संघ प्रबन्ध व धर्मोपदेश देनेकी मुख्यता नहीं है। यहां बहु वचन इसलिये दिया है कि ये पांच परमपद हैं। इनमें तिष्ठनेवाले अनेक हैं उन सर्व ही महत, सिद्ध आचार्य,
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीभवचनसार भाषाटीका । [3.
उपाध्याय तथा साधुमोंको नमस्कार किया है। मोक्षमार्ग में चल'नेवालोंके लिये ये ही पांच परमेष्ठी मानने योग्य हैं। इनके सिवाय : जो परिग्रह धारी हैं वे देव व गुरु मानने योग्य नहीं है। धर्मबुद्धिसे वात्सल्य व प्रेमभाव प्रदर्शित करने योग्य वे सब ही आत्मा हैं जिनको इन पांच परमेष्ठीक़ी श्रद्धा है तथा जो श्रद्धा वान होकर भी गृहस्थ श्रावकका चारित्र पालते हैं । इनमें भी जो थोड़े चारित्रवान हैं वे बड़े चारित्रवानोंका सत्कार करते व जो केवल श्रद्धावान हैं वे अन्य श्रद्धावानोंका व चारित्रवानों का ' सत्कार करते हैं । प्रयोजन यह है कि नमस्कार, भक्ति या विनय उस रत्नत्रय मई आत्मधर्मकी है जिनमें यह धर्म थोड़ा यां बहुत " बास करता है वे सर्व यथायोग्य विनय व सत्कार करनेके योग्य हैं-हम किसी सम्राटकी व धनाढ्यकी इसलिये विनय धर्मबुद्धिसे - नहीं कर सके कि इसने बहुत पुण्य कमाया है। हम हीन पुण्यो हैं इसलिये हमको पुण्यवानों की पूजा करनी है, यह बात मोक्ष - nife अनुकूल नहीं है । मोक्षमार्गमें तो वे ही पूज्य माननीय या सत्कार के योग्य हैं जिनमें यह रत्नत्रय मई धर्म थोडा या बहुत पाया जावे। यदि किसी पशु या चंडालमें श्रद्धा है तो यह मानने व सत्कार करने के योग्य है और यदि किसी चक्रवर्ती राजा श्रद्धा नहीं है तो वह धर्मकी अपेक्षा सत्कारके योग्य नहीं है ! पूज्य तो वास्तव में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र हैं। ये गुण जिन १ जीवोंमें हों वे जीव भी यथायोग्य सत्कारके योग्य हैं ।
C
गृही या उपासक, साधु या निर्ग्रथ तथा देव ये तीन दरजे मोक्षमार्ग में चलने वालोंके हैं उनमें देवके भक्त साधु या गृही तथा
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
MiAAMANAN
'१४] श्रीमक्चनसार भाषाटीका । देव और साधु दोनों के भक गृही या उपासक होते हैं। चार प्रकारके देव, सर्व ही नारकी, तथा सैनी तिच और साधुपद रहित गृहस्थ मनुष्य उपासक हैं।
उपासक उपासकोंकी देव व साधुतुल्य पूजा भक्ति न. करके यथायोग्य सत्कार करले हैं । नमस्कारके योग्य तो साधु और देव ही हैं । इसो लिये श्री कुंदकुंदाच यंने इस गाथामें पांच पदवी धारकोंको नमन किया है । इस चौथे कालमें ५४ तीर्थकर हो गए हैं जो बड़े प्रसिद्ध धर्मप्रचारक हुए हैं उनको • भरहंत मानके नमस्कार किया है।
उत्थानिका-भागे फिर भी नमस्कार रूप गाथाको कहते हैं
ते ते सव्ये समगं, समग पत्तेगमेव पत्तेयं । । बंदामि य वहंते, अरहते माणुसे खेत्ते ॥३॥
तांस्तान् सर्वान् समकं समकं । त्येकमेव प्रत्येक 1 - यदे च वर्तमानानहतो मानुरे क्षेत्रे ॥ ३ ॥
सामान्याष-फिर मैं मनुष्यके ढाई द्वीप क्षेत्रमें वर्तमान सर्व अरहतोंको एक साथ ही तथा प्रत्येकको अगर ही बदना करता है | अथवा उन ऊपर कहे पांच' परमेष्टियों को एक साथ व अलग २ तथा ढई द्वोपमें वर्तमान अईतोंको भो नमस्कार करता हूं।
अन्वय सहित विशेपार्थ-(ते ते सव्वे ) उन उन "पूर्व में कहे हुए सब पंच परमेष्ठियोंको (समग समग) समुदाय रूप
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाका। [१५ वंदनाकी अपेक्षा एक साथ एक साथ तथा (पत्तेयं पत्तेय) प्रत्येकको अलग २ वंदनाकी अपेक्षा. प्रत्येक प्रत्येकको (य) और (माणुसे खेत्ते) मनुष्योंकि रहने के क्षेत्र ढाईटोपमें (वट्टने) वर्तमान (अरहंते) अरहोंको (वंदामि) मैं वन्दना करता हूं। भाव यह है कि वर्तमानमें इस भरतक्षेत्रमें तीर्थंकरोंका अभाव है परन्तु ढईद्वीपके पांच विदेहोंमें श्रीमन्दरस्वामी तीथकर आदि २० तीर्थकर परमदेव विराममान हैं इन सबके साथ उन पहले कहे हुए पांच परमेष्टियोंको नमस्कार करता हूं। नमस्कार दो प्रकारका होता है द्रव्य और भाव, इनमें भाव नमाकार मुख्य है । इस भाव नमस्कारको मैं मोक्षकी साधनरूप सिद्ध भक्ति तथा योग भक्तिसे करना हू । मोक्षरूप लक्ष्मीका स्वयम्बर मंडप रूप मिनेन्द्रके दीक्षा काल मगलाचार रूप में अनन्त ज्ञानादि सिद्धके गुणोंकी भावना करनी उसको सिद्धभक्ति कहते हैं । जैसे ही निर्मल समाधिमें परिणमन रूप परम योगियों के गुणों की अथवा परम योपके गुणोंको भावना फरनी सो योग भक्त है। इस ताह इस गाथाये विदेहोंके तीर्थकरोके नमस्कारकी मुख्यतासे कथन किया गया।
भावार्थ-श्री कुंदकुंदाचाजी महाराज अपनी अंतरंग श्रद्धाकी महिमाका प्राश करते हुए कहते हैं कि पहले तो जो पहली गाथाओंमें अरदंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु इन पांच पामेष्ठियोंका कथन आया है उन सबको एक साथ भी नमस्कार करता इ तथा प्रत्येकको अलगर भी नमन करता हूं । नम अभेद नयसे देखा जाय तो सर्व परमेष्ठी रत्नत्रयकी अपेक्षा एक रूप हैं तथा भेद नयकी अपेक्षा सर्व ही व्यक्ति रूप अलग २ हैं-अनंत सिद्ध
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका
स्वभावापेक्षा एक हैं. तथापि सपने १ ज्ञानदर्शन सुखवीर्य मादिकी भिन्नताकी तथा अपने २ आनंदके अनुभवकी अपेक्षा सब सिद्ध भिन्न २ हैं। इसी तरह सर्व अरहंत, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु अपनी ९ भिन्न आत्माकी सत्ताको अपेक्षा भिन्न २ हैंसमुदाय रूप युगपत् नमस्कार करने में पदवी अपेक्षा नमस्कार है तथा अलग २ नमस्कार करनेमें व्यक्तिकी अपेक्षा नमस्कार है । फिर आचार्यने पांच विदेsोंके भीतर विद्यमान सर्व ही अरहंतोंको भी एक साथ व अलग २ नमन करके अपनी गाढ भक्तिका परिचय दिया है। वर्तमान में जंबूद्वीपमें चार, धातुकी खंडमें आठ तथा पुष्करार्द्धमें बाट ऐसे २० तीर्थकर अरहंत पदमैं साक्षात् विराजमान हैं । इनके सिवाय जिनको तीर्थंकर पद नहीं है किन्तु सामान्य केवलज्ञानी हैं ऐसे गत भी अनेक विद्यमान हैं उनको भी आचार्यने एक साथ व भिन्न र नमस्कार किया है । नमस्कार के दो भेद हैं । वचन से स्तुति व शरीरसे नमन द्रव्य नमस्कार है तथा अंतः रंग श्रद्धा सहित आत्मा गुणोंमें लीन होना सो भाव नमस्कार है । इस भाव नमस्कारको टीकाकारने सिद्धभक्ति तथा योगभक्ति नामले सम्पादन किया है । जब तीर्थकर दीक्षा लेते हैं तब सिद्धभक्ति करके लेते हैं इसलिये टीकाकार ने इस भक्ति को दीक्षाक्षणका मंगलाचरण कहा है। अथवा मोक्षलक्ष्मीका स्वयंवर मंडप रचा गया है उसमें सिद्ध भक्ति करना मानो मोक्ष लक्ष्मी कंठमें वरमाला डालनी है। सिद्ध अनन्त दर्शन ज्ञान . सुख वीर्य्यादि गुणों घारी हैं तैसा ही निश्चयसे मैं हूं ऐसी
T
भावना करनी सो सिद्ध भक्ति है । निर्मल रत्नत्रयकी एकतारूप
१६]
:
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
wrimmmmmm
श्रीपश्चनसार भाषादीका। [१७ . समाधि भावमें परिणमन करते हुए परम योगियोंके वैराग्य चारित्रादि गुणों की सराहना करके उन गुणों के प्रेममें अपने मनको जोड़ना सो योग भक्ति है । नमस्कार करते हुए भावों में विशुजताकी आवश्यक्ता है सो गय नमस्कार करने योग्य पूज्य पदार्थके गुणों में परिणाम लवलीन होते हैं तब ही भाव विशुद्ध होते हैं। इन विशुद्धभावोंके कारण पाएकाँका रस सूख जाता है व घट जाता है तथा पुण्य कर्मो रस रह जाता है जिससे प्रारंभित कार्य में विघ्न बाधाएं होनी वंह होजाती हैं। . ___उत्थानिका-आगेकी गाथामें ऊपरके कथनको फिर पुष्ट करते हैंकिचा अरहनाणं, लिखाणं तह णो गणराण । ভল্লালাগা, ভাল্লু ব ভ ॥ ৪
सवाई-गः सिद्धेम्पलाथा णमो गणपरेभ्यः ।
अध्यापवर्गभ्यः साधु-मधेत सर्वेभ्यः ॥ ४ ॥
सामान्या-इस प्रकार सर्व ही अहतोको, सिद्धोंको गणधर आचार्यायो, उपाध्याय समूह तथा साधुओंको नमस्कार करके (क्या करूंगा सो आगे रहते हैं।
__ अन्वय सहित विशेषार्थ-(सन्वेसिं ) सर्व ही ( अरहताणं ) अरतों को ( सिद्धाणं ) आठ कर्म रहित सिद्धोंको (गणहराणं) चार ज्ञानके धारी गणधर आचार्योको (तह ) तथा (अज्झावयदग्गाणं ) उपाध्याय समूहको और ( चेष ) तैसे ही (सारण ) मधुओंको ( णमो किचा ) भाव और द्रव्य नमस्कार दूरके भागे मांगा जो करना है।
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
Sharpuirgammaanaanimamminuwannasammar
१४] श्रीपवचनसार भाषाटीका। • भावार्थ-इस गाथामें फिर भी भाचार्यने पांच परमेष्ठीकी वरफ अपनी भक्ति दिखाकर अपने भावोंग निर्मल क्रिया है। मह उत्कट भक्तिका नमूना है___ उत्थानिका-आगे आचार्य मंगलाचरणके पीछे चारित्र भावको धारण करते हैं ऐसी सूचना करते हैं। तेसिं विसुखदसणणाणहाणासमं समासेज । अवस्पधामि सम्म, जत्तो णिव्याणसंपत्ती॥५॥
तेषां विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानाभ समासाद्य । ...
उपसम्पधे सम्यं यतो निर्वाणसप्रातिः ॥५॥ . सामान्यार्थ-उन पांच पामेष्ठियोंके विशुद्ध दर्शन'ज्ञानमई प्रधान माश्रमको प्राप्त होकर मैं समताभावको धारण करता हूं निससे मोक्षकी प्राप्ति हो। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(तेसिं) उन पूर्वमें कहे हुए पांच परमेष्ठियोंके (विसुद्धदसणणाणपहाणासम) विशुद्ध दर्शन ज्ञानमई लक्षणधारी प्रधान भाश्रमको (समासेज ) मलेप्रकार प्राप्त होकर (सम्म ) शाम्यमाव रूप चारित्रको ( उपसंपयामि) भलेप्रकार धारण करता हूं (जत्तो) जिस शाम्यभावरूप चारित्रसे (णियाणसंपत्ती) निर्वाणकी प्राप्ति होती है। यहां टीकाकार. खुलासा करते हैं कि मैं आराधना करनेवाला हूं तथा ये अहंत आदिक आराधना करने के योग्य हैं ऐसे माराध्य आराधकका जहां विफल है उसे द्वैत नमस्कार कहते हैं तथा राग नादि औधिक मावोंके विकल्पोंसे रहित जो परम समाधि है उसके बलसे मात्मामें ही आराध्य आराधक भावः होना अर्थात् दूपरा कोई मिन्न पूज्य
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका ।.
[:१९,
पूजक नहीं है मैं ही पूज्य हूं मैं ही पुजारी हूं ऐसा एकत्वभाव थिरता रूप होना उसे अद्वैत नमस्कार कहते हैं। पूर्व गाथामोंमें ' कहे गए पांच परमेष्ठियों को इस लक्षण रूप देत अथवा अद्वैत नमस्कार करके मठ चैत्यालय आदि व्यवहार आश्रमसे चित्रक्षण भावाश्रम रूप जो मुख्य आश्रम है उसको प्राप्त होकर मैं वीतराग चारित्रको आश्रय करता हूं । अर्थात् रागादिकों से मिन्न यह अपने आत्मासे उत्पन्न सुख स्वभावका रखनेवाला परमात्मा
है सो ही निश्वयसे मैं हूं ऐसा भेद ज्ञान स्वभाव सब तरह से ग्रहण करने योग्य है दर्शन इस तरह दर्शन ज्ञान सभावमई भावाश्रम है। इस भावाश्रम पूर्वक आचरण में माता हुआ जो पुण्य बंधका कारण सरागचारित्र है उसे जानकर त्याग करके निश्व शुद्धात्मा के अनुभव स्वरूप वीतराग चारित्र भावको में ग्रहण करता हूं ।
"
भावार्थ - इस गाथा में आचार्यने स्वानुभव की ओर लक्ष्य कराया है । यह भाव झलकाया है कि पांच परमेष्ठीको नमस्कार करने का प्रयोजन यह है कि जिस निल दर्शन ज्ञानमई आत्म स्वभावरूपी निश्चय आश्रय स्थानमें पंचपरमेष्ठी मौजूर हैं उसी निजात्म स्वभावमईं अथवा सम्यक्तपूर्वक भेदज्ञानमई भाव आश्रमको मैं प्राप्त होता हूं। पहले व्यवहारमें जो मठ चैत्रालय आदिको are माना था उस विकलनको त्याग करता हूं । ऐस निज आश्रममें जाकर मैं पुण्य बंधके कारण शुभोपयोग रूप व्यवहार चारित्रके विकल्पको त्यागकर अपने शुद्ध आत्मस्वभाव के अनुभव रूप वीतराग चारित्रको अथवा परम शांत भाव को धारण करता हूं..
तथा वही परमात्मऐसी रुचिरूपी सभ्य
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०], श्रीमवचमसार भाषाटीका । क्योंकि इस वीतराग विज्ञानमई मभेद रत्नत्रय स्वरूप शांतभावके ही द्वारा पूर्ववद्ध कौके बंधन टूटते हैं तथा नवीन कर्मीका संवर होता है जिसका अंतिम फळ मोक्षका प्रगट होना है। इस कथनसे श्रीकुंदकुंदस्वामीने यह भी दिखलाया है कि सम्यक्तज्ञान पूर्वक वीतराग चरित्रमई परम शांतभावके द्वारा पहले भी गवाने निर्वाण लाभ किया व मब भी निर्वाण जारहे हैं तथा भविप्य भी इस हीसे मुक्ति पाएंगे इसलिये जसे मैंने ऐसे वीतराग शारित्रका माश्रय लिया है वैसे सर्व ही मुमुक्षु जीव इस शाम्यमा शरण , अहण करो क्योकि यही मोक्षका असली साधन है। इस तरह प्रथम स्थलमें नमस्कारकी मुख्यता करके पांच गाथाएं पू हुई।
उत्थानिक्षा-आगे निस वीतराग चारित्रामाश्रय लिया है वही वीतराग चारित्र प्राप्त करने योग्य अतीन्द्रिय सुखका कारण है इससे प्रष्टण करने योग्य है तथा सराग चारित्र अतीन्द्रिय मुखकी अपेक्षासे गगने योग्य इंद्रिय सुखका कारण है. इससे सराग चारित्र छोड़ने योग्य है ऐसा उपदेश करते हैं:संपनदि णिचाणं, देवासुरमणुयरायविहवेहि । जीवस्स चरित्तादो, देखणणाणप्पहाणादो॥६॥
संपद्यते निर्वाण देवासुरमनुजराजविभवैः ।
जीवस्य चरित्राज्ञानप्रधानात् ॥ ६॥ सामान्यार्थ-इस जीवको सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी मुख्यता पूर्वक चारित्रके पालनेसे देव, मसुर तथा मनुष्यराजकी सम्पदाओं के साथ मोक्षकी प्राप्ति होती है।
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
MAA
NAMMAN
श्रीमवचनसार भाषाटीका। [२१ अन्वय सहित विशेषार्थ-( जीवस ) इस जीवके . (देरणणाणपहाणादो) सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी प्रधानता पूर्वक (चरित्तादो) सम्यग्चारित्रके पालनेसे (देवासुरमणुयराय विहवेहि ) कापासी, भवनत्रिक तथा चक्रपी भादि राज्यकी विभूतियों के साथ२ (णिव्वाण) निर्वाण (संपनदि) प्राप्त होती है। प्रयोजन यह है कि बात्माके आधीन मिन सहन ज्ञान और सहन मानंद स्वभाववाले अपने शुद्ध आत्मद्रव्यमें जो निश्चलतासे विकार रहित अनुभूति प्राप्त करना अथवा उसमें ठहरजाना सोही है लक्षण निसका ऐसे निश्चय चारित्रके प्रभावसे इस जीव पराधीन इन्द्रिय जनित ज्ञान और सुखसे विलक्षण तथा स्वाधीन मतीन्द्रिय उत्कष्ट ज्ञान और अनंत सुख है लक्षण जितका ऐसा निर्वाण प्राप्त होता है । तथा सराग चारित्रके कारण पल्पवासी देव, भवनत्रिकदेव, चक्रवर्ती आदिकी विभूतिको उत्पन्न करनेवाला मुख्यतासे विशेष पुण्ययंध होता है तथा उससे परम्परासे निर्वाण प्राप्त होता है।
सुरोंके मध्य में सम्यग्दृष्टि कसे उत्पन्न होता है ? इसका समाथान यह है कि निदान करनेके भावसे सम्यक्तझी विराधना करके यह जीव भवनत्रिकमें उत्पन्न होता है ऐसा मानना चाहिये। यहां भाव यह है कि निश्चय नयसे वीतराग चारित्र उपादेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य है तथा सराग चारित्र हेय अर्थात् त्यागने योग्य है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने उस वीतराग चारित्ररूप शांत भावकी महिमा बताई है जिसका आश्रय उन्होंने किया है। वह वीतराग चारित्र निसके साथ शुद्धात्मा और उसका
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२] श्रीप्रवचनसार भांपटीका । • स्वाभाविक आनन्द उपादेय है ऐसा सम्यक्त तथा हमारा आत्मा 'द्रव्य दृष्टि से सर्व ही ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म, रागादि भावकर्म तथा शरीरादि नो कोसे भिन्न है, ऐसा सम्यग्ज्ञान मुख्यतासे ही साक्षात् कमौके बंधको दूर करनेवाला तथा आत्माको पवित्र बनाकर निर्वाण प्राप्त करानेवाला है । अभेद या निश्चय रत्नत्रय एक
आत्माका ऐसा आत्मीक भाव है जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान सम्यक् चारित्र तीनोंकी एकता हो रही है। यही भाव सुद्ध है
और यही भाव ध्यान है इसीसे ही घातिया कर्म जलजाते और • 'अरहंत पद होता है । इस निश्चय चारित्रकी प्राप्तिके लिये जो देशवत या महाव्रत रूप व्यवहार चारित्र पाला जाता है उसमें कुछ सरागता रहती है-वह वीतराग आत्मामें स्थिति रूप चारित्र ' नहीं है क्योंकि जीवोंके हितार्थ धर्मोपदेश देना, शास्त्र लिखना,
भूमि शोषते गमन करना, प्रतिक्रमण पाठ पढना आदि नितने कार्य इच्छापूर्वक किये जाते हैं उनमें मंद कषाय रूप संचलन रागका उदय है। इसी कारण इस सराग चारित्रसे जितना. राग अंश है उसके फल स्वरूप पुण्य कर्मका बंध हो जाता है और 'पुण्य कर्मके उदयसे देव गति या मनुष्य गति प्राप्त होती है । "जैसा विशेष पुण्य होता है उतना विशेष पद अहमिंद्र, इन्द, चक्रवर्ती आदिका प्राप्त होता है क्योंकि यह सराग चारित्र भी सम्यग्दर्शन पूर्वक होता है इसलिये देव या मनुप्यकी पदवो पाकर भी वह भव्य जीव उस पदमें लुब्ध नहीं होता ! उदयमें आए हुए पुण्य फलको समताभावसे भोग लेता है तथा निरंतर भावना रखता है कि कब मैं वीतराग चारित्रको प्राप्त करके निर्वाण
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमपचनसार भाषाटीका। [२३ मुखका लाभ करूं । इसलिये ऐसे सराग चारित्रसे भी परम्परा निर्वाणका भाजन होनाता है । तौभी इन दोनोंमें साक्षात् मुक्तिका कारण वीतराग चारित्र ही उपादेय है । यह चारित्र यहां भी
आत्मानुभव करानेवाला है तथा भविष्पमें भी सदा भानन्दकारक निर्वाणका देनेवाला है। . जैसा इस गाथामें भाव यह है कि सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यग्चारित्रकी एकता निर्वाणका मार्ग है ऐसा ही कथन श्री उमास्वामी आचार्यने अपने मोक्षशास्त्रके प्रथम सूत्र में कहा है। यथा “ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।
तात्पर्य यह है कि हमको मोक्षका साधक निश्चय रत्नत्रय मई वीतराग चारित्रको समझना चाहिये और व्यवहार रत्नत्रय मई सराग चारित्रको उसका निमित्त कारण या परम्परा कारण समझना चाहिये। . उत्थानिका-आगे निश्चय चारित्रका स्वरूप तथा उसके पर्याय नामोंके कहनेका अभिप्राय मनमें धारण करके मागेका सुत्र कहते हैं-इसी तरह आगे भी एक सूत्रके आगे दूसरा सूत्र कहना उचित है ऐसा कहते रहेंगे इस तरहकी पातनिका यथासंभब सर्वत्र माननी चाहिये। चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जोसोसमोति णिहिहो। मोहक्खोह विहीणो,परिणामो अप्पणो हि समोथ
चारित्रं खलु धर्मो धर्मों यः स शम इति निर्दिष्टः । मोहक्षोभविहीनः परिणाम आत्मनो हि शमः ॥७॥
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४] श्रीमवचनसार भाषाटीका। • सामान्यार्थ-निश्चय करके अपने मात्मामें स्थिति रूप
वीतराग चारित्र ही धर्म है और नो धर्म है सो ही साम्यभाव कहा गया है, तथा मोहकी भाकुन्तासे रहित पो पात्माका परिणाम है वही साम्यंभाव है। ____ अन्वय सहित विशेषार्थ-(चारित) चारित्र (खलु) प्रगटपने ( धम्मो ) धर्म है (जो धम्मो ) यह धर्म है (सो समोत्ति ) सो ही शम या साम्यभाव है ऐसा ( णिहिटो) कहा गया है । ( अपणो ) आत्माका ( मोहक्खोइविहीणः.) मोहके क्षोभसे रहित ( परिणामः ) भाव है (हि ) दही निश्चय करके (समो ) समता भाव है । प्रयोजन यह है कि शुद्ध चैतन्यके स्वरूपमें आचरण करना चारित्र है । यही चारित्र मिथ्यात्व रागद्वेषादि द्वारा संस्मरणरूप जो भाव संसार उसमें पड़ते हुए प्राणीका उद्धार करके विकार रहित शुद्ध चैतन्य भावमें धारण करनेवाला है इससे यह चारित्र ही धर्म है यही धर्म अपने आत्माकी भावनासे उत्पन्न जो सुखरूपी अमृत उस रूप शीतल गळके द्वारा काम क्रोध आदि अग्गिसे उत्पन्न संसारीक दुःखोंको दाहको उपशम करनेवाला है इससे यही शम, शांतभाव या साम्यभाव है। मोह और क्षोभके ध्वंस करनेके कारणसे वही शांतभाव मोह क्षोभ रहित शुन्द मात्माका परिणाम कहा जाता है। शुद्ध आत्माके शृद्धान रूप सम्यग्दर्शनको नाश करनेवाला जो दर्शन मोह कर्म उसे मोह ' कहते हैं। तथा निर्विकार निश्चल चित्तका बर्तनरूप चारित्रको जो नाश करनेवाला हो वह चारित्र मोहनीय फर्म या क्षोभ कहलाता है
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
ANANAMA
श्रीमवचनसार भाषाटीका । ' . [ २५
mamermaina भावार्थ-यहां आचार्यने यह दिखलाया है कि चारित्र, धर्म, साम्यमाव यह सब एक भावको ही प्रगट करते हैं । निश्चयसे दर्शनमोह और चारित्र मोह रहित तथा सम्यग्दर्शन और बीतरागता सहित जो आत्माका निज भाव है वही साम्यभाव है अर्थात् मात्मा. जव सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र रूप परिणमन करता है तब जो भाव स्वात्मा सम्बन्धी होता है उसे ही समताभाष, या शांत भाव कहते हैं ऐसा नो शांत भाव है वही संसारसे उद्धार करने वाला धर्म है तथा यही वीतराग चारित्र है जिससे निर्वाणकी प्राप्ति होती है। इस गाथामें भी भाचार्यने स्वात्मानुभव अथवा स्वरूपाचरण चारित्रकी ही ओर लक्ष्य दिलाया है और यही प्रेरणा की गई है कि जैसे हमने इप्त मानन्द धामका माश्रय किया है वैसे सव जन ईस ही स्वात्मानुभवका आश्रय करो यही साक्षात् सुखका मार्ग है। __उत्थानिका-आगे कहते हैं कि अभेद नयसे इस वीत. राग भांवररूपी धर्ममें परिणमन करता हुआ आत्मा ही धर्म है। परिणदि जेण दवं, तझालं तस्मयत्ति पण्णत्तं । सम्हा धम्मपरिणदो, आदा धम्मो मुणेपब्बो ॥८
परिणमति येन द्रव्यं तत्कालं तन्मयमिति प्राप्तम् । तस्मादपरिणत आत्मा धर्मो मन्तव्यः ॥ ८ ॥
सामान्यार्थ-यह द्रव्य मिस कालमें जिस भावसे परि. णमन करता है उस कालमें वह द्रव्य उस भावसे तन्मयी होता है ऐसा कहा गया है । इसलिये धर्म भावसे परिणमन करता हुआ.मात्मा धर्म रूप ही माना जाना चाहिये।
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६] श्रीप्रवचनसार भाषाका ।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(दव्य) द्रव्य (जेण) जिस अवस्था या भावसे ( परिणमदि) परिणमन करता है या वर्तन करता है ( तक्कालं) उसी समय वह द्रव्य ( तम्मयत्ति ) उस पर्याय या भावके साथ तन्मई हो जाता है ऐसा ( पण्णत्त.) कहा गया है । (सम्हा ) इसलिये (धम्म परिणदो) धर्मरूपं भावसे वर्तन करता हुआ (मादा) आत्मा (धम्मो) धर्मरूप (मुणेयब्बो) माना जाना चाहिये । तात्पर्य यह है कि अपने शुद्ध मात्माके स्वभावमें परिणमन होते हुए जो भाव होता है उसे निश्चय धर्म कहते हैं । तथा पंच परमेष्ठी आदिकी भक्ति रूपी परिणति या भावको . व्यवहार धर्म कहते हैं। क्योंकि अपनी २ विवक्षित या अविविक्षित पर्यायसे परिणमन करता हुआ द्रव्य उस पर्यायसे तन्मयो होमाता है इसलिये पूर्वमें कहे हुए निश्चय धर्म और व्यवहार धर्मसे परिणमन करता हुमा आत्मा ही गर्म लोहके पिंडकी तरह अभेद नयसे धर्म रूप होता है ऐसा जानना चाहिये । यह भी इसी लिये कि उपादान कारणके सदृश कार्य होता है ऐसा सिद्धांतका वचन है । तथा यह उपादान कारण शुद्ध अशुद्धके भेदसे दो प्रकारका है। केवलज्ञानकी उत्पत्तिमें रागद्वेषादि रहित स्वसंवेदन ज्ञान तथा भागमकी भाषासे शुक्ल ध्यान शुद्ध उपादान कारण है । तथा अशुद्ध मात्मा रागादि रूपसे परिणमन करता हुआ अशुद्ध निश्चय नयसे अपने रागादि भावोंका अशुद्ध उपादान कारण होता है। .
भावार्थ-इस गाथामें भाचार्यने यह बात बताई है कि धर्म कोई भिन्न वस्तु नहीं है-आत्माका ही निन स्वभावमें परि
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
AAMAN
श्रीमवचनसार भापार्टीका। [२७ णमन रूप है अर्थात् जब आत्मा परभावमें न परिणमन करके अपने स्वभाव भावमें परिणमन करता है तब वह मात्मा ही धर्म रूप हो जाता है । इससे यह बात भी बताई है स्वभाव या गुण हरएक पदार्थमें कहीं भलगसे पाते नहीं न कोई किसीको कोई गुण या स्वभाव दे सका है। किंतु हरएक गुण या स्वभाव उस वस्तुमें जिसमें वह होता है उसके सर्व ही अंशोंमें व्यापक होता है। कोई द्रव्य के साथ न कोई गुण मिलता है न कोई गुणा द्रव्यको छोड़कर जाता है। जैन दर्शनका यह अटल सिद्धांत है कि द्रव्य और गुण प्रदेश अपेक्षा एक हैं-जहां द्रव्य है वहीं गुण हैं। तथा यह भी जैन सिद्धांत है कि द्रव्य सदा द्रवन या परिणमन किया करता है । अर्थात गुणोंमें सदा ही विकृति भाव या परिणति हुआ करती है इसलिये द्रव्यको गुण पर्यायवान् कहते हैं। द्रव्यके अनंते गुण प्रति समय अपनी अनंत पर्यायोंको प्रगट करते रहते हैं और क्योंकि हरएक गुण द्रव्यमें सर्वांग व्यापक है इस लिये अनंत गुणोंकी अनंतपर्याय द्रव्यमें सर्वांग व्यापक रहती हैं। इनमें से विचार करनेवाला व कहनेवाला निस पर्यायपर दृष्टि रखता है वह उसके लिये उस समय विविक्षित या मुख्य हो नाती है, शेष पर्यायें अविविक्षित या गौण रहती हैं । क्योंकिरागद्वेष मोह संसार है; इमलिये सम्यक्त सहित वीतरागता मोक्षः है या मोक्षका मार्ग है । आत्मामें ज्ञानोपयोग मुख्य है इसीके द्वारा आत्मा प्रकाश रहता है व इस हीके हारा आप और परको जानता है । जब यह आत्मा अपने ही मात्माके स्वरूपको जानता हुभा रहता है अर्थात 'बुद्धिपूर्वक निज आत्माके सिवाय अन्य
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
• २८] . श्रीप्रवचनसार भाषाका । सर्व पदार्थोसे उदासीन होकर अपने आत्माके ही जानने में तन्मय होनाता है अर्थात् पाप ही ज्ञाता तथा बाप ही शेष होजाता है, तथा इस ही ज्ञानकी परिणतिको धार बार किया करता है। तब
आत्मा अपने शुद्ध आत्मस्वगावमें लीन है ऐसा कहा जाता है उस समय अनंत गुणोंकी और पर्यायोंको छोड़कर विशेष लक्ष्य में लेने योग्य पर्यायोंका यदि विचार किया जाता है तो कहने में माता है कि उस समय सम्यक्त, ज्ञान, चारित्र तीनों ही गुणोंका परिणमन हो रहा है। सम्यक परिणति श्रद्धा व रुचि रूप है ही, ज्ञान आपको मानता है यह ज्ञानकी परिणति है तथा पर पदार्थसे राग द्वेष न होकर उनसे उदासीनता है तथा निजमें थिरता है यही चारित्रकी परिणति है। भेद नयसे सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप तीन प्रकार परिणतिय हो रही हैं, निश्चय रूप अभेद नयसे तीन भावमई आत्माकी ही परिणति है । इसी कारणसे रत्नत्रयमें परि. णमन करता हुआ आत्मा ही साक्षात् धर्मरूप है। इस ही धर्मको बीतराग चारित्र भी कहते हैं। अतएव इस रत्नत्रयमई वीतराग चारित्रमें परिणमन करता हुआ आत्मा ही वीतराग चारित्र। जैसे अग्निशी उष्णता रूप परिणमन करता हुआ लोहेका गोला अग्निमई दोजाता है वैसे वीतरागमाबमें परिणमन करता हुआ आत्मा सराग होजाता है। जिस समय पांच परमेष्ठोड़ी मक्ति रूप आवसे वर्तन होरहा है उस समय विचार किया जाय कि आत्माके तीन मुख्य गुणोंका किस रूप परिणयन है तो ऐसा समझमें आता है कि सम्पदाटी बीयवे रम्पक गुणा से साँचे रूप परिणमन है तथा ज्ञान गुणका पांच परमेष्टी ग्रहण करने व भक्ति करने
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। २९ योग्य है इस ज्ञान रूप परिणमन है तथा चारित्रगुणका मंदकपायके उदयसे शुभ रागरूप परिणमन है इसीलिये इस समय आत्माके सराग नारित्र कहा जाता है तथा आत्माको सराग कहते हैं और यह मात्मा इस समय पुण्यकर्मको बांध स्वर्गादि गतिका पात्र होता है। यहां आचार्यका यही अभिप्राय है कि वीतराग चारित्रमई मात्मा की उपादेय है क्योंकि इस स्वात्मानुभव रूप वीतराग चारित्रसे वर्तमानमें भी अतीन्द्रिय सुखका लाम होता है तथा आगामी मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है । इस तरह वीतराग चारित्रको मुख्यतासे संक्षेपमें फथन करते हुए दूसरे स्थनमें तीन गाथाएं पूर्ण हुई ॥८॥
उत्थानिका-आगे यह उपदेश करते हैं कि शुभ, अशुभ तथा शुल ऐसे तीन प्रकारके प्रयोगसे परिणमन करता हुआ खात्मा शुभ, अशुभ तथा शुद्ध उपयोग स्वरूप होता है। जीवो परिणमादि जदा, सुहेण अहेण वा सुहो
अनुहो। सुषेण तदा सुन्डो, हदि हि परिणामसभावो ॥२॥
जेवः परिणमति यदा शुभेनाशभेन वा शुभोऽशुभः । शुद्धेन तदा शुद्धो भवति हि परिणामस्वभावः ॥ ९ ॥
सामान्पार्थ-जब यह परिणमन स्वभावी आत्मा शुभ भावसे परिणमन करता है तब शुभ, जब अशुभ भावसे परिणमन करता है तब अशुभ और जब शुद्ध भावसे परिणमन करता है तव शुद्ध होता है ॥९॥
अन्श्य सहित विशेषार्थ-(जदा) जब (परिणाम
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
३० ]
श्रीमवचनसार भापाटीका !
समावो) परिणमन स्वभावधारी ( जीवः ) यह जीव ( सुहेण ) शुभ भावसे ( वा अण) अथवा अशुभ भावसे ( परिणमदि ) परिणमन करता है तब ( सुहो असुहो ) शुभ परिणामों से शुभ तथा अशुभ परिणामोंसे अशुभ ( हवदि) होजाता है । ( सुद्धेण) जब शुद्ध भावसे परिणमन करता है ( तदा ) तब (हि) निश्चय से ( सुद्धो ) शुद्ध होता है । इसीका भाव यह है कि जैसे स्फटिक मणिका पत्थर निर्मल होनेपर भी जपा पुष्प आदि लाल, काली, श्वेत उपाधिके बशसे लाल, काला, सफेद रंग रूप परिणम जाता है तैसे यह जीव स्वभावसे शुद्धबुद्ध एक स्वभाव होनेपर भी व्यवहार करके गृहस्थ अपेक्षा यथासंभव राग सहित सम्यक्त 'पूर्वक दान पूजा आदि शुभ कायाके करनेसे तथा मुनिकी अपेक्षा मूल व उत्तर गुणोंको अच्छी तरह पालन रूपं वर्तनेमें परिणमन करने से शुभ है ऐसा जानना योग्य है। मिथ्शदर्शन सहित अविरति भाव, प्रमादभाव, कषावभाव व मन वचनकाय योगोंके इन चलन रूप भाव ऐसे पांच कारण रूप अशुमोपयोग में वर्तन करता हुआा अशुभ जानना योग्य है तथा निश्चय रत्नत्रय भई शुद्ध उपयोगसे परिणमन करता हुआ शुद्ध जानना चाहिये। क्या प्रयोजन है सो कहते हैं कि सिद्धांत में जीवके असंख्यात लोकमात्र परिणाम मध्यम वर्णनकी अपेक्षा मिथ्यादर्शन आदि १४ चौदह गुणस्थान रूपसे कहे गए हैं। इस प्रवचन सार प्राभृत शास्त्र में उनही गुणस्थानों को संक्षेपसे शुभ अशुभ तथा शुद्ध उपयोग रूपसे कहा गया है। सो ये तीन प्रकार उपयोग
T
१४ गुणस्थानों में किस तरह घटते हैं सो कहते हैं । मिथ्यात्व,
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका । [32
सांसादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानोंमें तारतम्यसे कमती २ अशुभ उपयोग है । इसके पीछे असंयत सम्यग्दृष्टि, देशविरत तथा प्रमत्त संयत ऐसे तीन गुणस्थानों में ताग्तप्यसे शुभोपयोग है । उसके पीछे अप्रमत्तसे ले क्षीणकषाय तक छः गुणस्थानों में तारतम्य से शुद्धोपयोग है। उसके पीछे सयोगि जिन और भयोगि जिन इन दो गुणस्थानों में शुद्धोपयोगका फल है ऐसा भाव है।
भावार्थ - यहां आचार्यने ज्ञानोपयोगके तीन भेद बताए हैं। अशुभ उपयोग, शुभ उपयोग और शुद्ध उपयोग | वास्तवमैं ज्ञानका परिणमन ही ज्ञानोपयोग है सो उसकी अपेक्षा से ये तीन भेद नहीं हैं । ज्ञानमें ज्ञानावरणीय कर्मके अधिक २ क्षयोपशमसे ज्ञानका बढ़ता जाना तथा बढ़ते बढ़ने सर्वज्ञानावरणीय कर्मके क्षयसे पूर्णज्ञान होताना यह तो परिणमन है परंतु निश्वयसे अशुभ, शुभ, शुद्ध परिणमन नहीं है । कषाय भावों की क्लुपता जो पयोंके उदयसे ज्ञानके साथ साथ चारित्र गुणको विकृत करती हुई होती है उम कलुषताकी मपेक्षा तीन भेद उपयोग के लिये गए हैं। शुद्ध उपयोग कलुषता रहित उपयोगका नाम है - आगम में जहांसे इम जीवकी बुद्धिमें कषायका उदय होते हुए भी क्लुपताका झलकाव नहीं होता किन्तु वीतरागतामा भान होता है वहीं से शुद्धोपयोग माना है और जहां शुद्धोपयोग रूप होनेका राग है व शुद्धोपयोग होनेके कारणोंमें' अनुराग है वहां इस जीवके शुभोपयोग है इन दो उपयोगों को छोड़कर जहां शुद्धोपयोगकी पहचान ही नहीं है न शुद्ध होने की रुचि है किन्तु संसारिक सुखकी वासना है उस वासना सहित
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२1 श्रीमवचनसार भाषाटीका । वर्तन करता हुशा चाहे हिंसा करें व नीवदया पाले, चाहे झूठ बोले या सत्य बोले उस जीवके अशुभोपयोग कहा जाता है, इसी अपेक्षा चौथे गुणस्थानसे ही अशुभोपयोगका प्रारम्भ है और बुद्धिपूर्वक धर्मानुराग छठे गुणस्थान तक रहता है उसके आगे नहीं इससे सात गुणस्थानसे शुद्धोपयोग है। यदि भावों की शुद्धता की अपेक्षा विचार करें तो यहां कपार्योका अभाव होकर बिलकुल भी झलुपता नहीं है, किन्तु ज्ञानोपयोग पवनवेग विना निश्चल समुदत निश्चल स्वस्वरूपाशक्त होजाता है वही शुद्धोपयोग है । अाहत सिद्ध अवस्थामें आत्मा यथास्वरूप है उस समय उपयो- को शुद्ध कहो नी भी ठीक है या शुद्धताका फलरूप हो तो भी सीक है क्योंकि शुद्ध अनुभवका फल शुद्ध होना है ! आत्मा परिणमन स्वभाव है तब ही उसके भीतर ज्ञान
और चारित्रमा भी अन्य गुणोंकी तरह परिणमन हुमा करता है। कर्म बंध सहित पशुद्ध अवस्थामै ज्ञानका हीन अधिकरूप और चारित्र गुणका अशुभ, शुभ, तथा शुखरूप परिणमन होता है। इन दो परिणमनों को व्यवहारमें एक नामसे अशुभ उपयोग, शुभ उपयोग तथा शुद्ध उपयोग कहते हैं। शुद्ध उपयोग पूर्वबद्ध कौकी निर्गहरा करता है, शुभोपयोग पापकी निर्जरा तथा विशेषतासे पुण्य कर्मोंका व कुछ पाप कर्मोंका बंध करता है तथा अशुभोपयोग पाप कमों हीको बांधता है।
शुद्धोपयोगीके ११ वें, १२ वें तेरहवें गुणस्थानमें जो आश्भव तथा बंध होता है वह योगोंके परिणमनका अपराध है शुद्ध चारित्र व ज्ञानका नहीं। यह आश्रव ईर्यापथ है व बन्ध एक
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीचनसार भाषाका । [ २३
समय मात्र तक ठहरनेवाला है इसलिये इसको बन्ध नहींसा कहना चाहिये क्योंकि हरएक कर्म बंघकी नघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त हे सो इन तीन गुणस्थानों में जघन्य स्थिति भी नहीं पड़ती । सातवें ले १० वे गुणस्थान में अबुद्धिरूप कषायका उदय है इससे तारतम्यसे जितना शुभपना है उतना यहां कमका घ है | चौथेसे ले छठें तक शुभोपयोगी मुख्यता है । यद्यपि स्वास्मानुभव करते हुए चौथे से ले ८वें तक शुद्ध भाव भी बुद्धि झलकता है तथापि वह अति अल्प है तथा उस स्वात्मानुभवके समय में भी कार्योकी करता है इससे उसको शुद्धोपयोग नहीं हा है। ससग भावसे ये तीन गुणस्थानवाले विशेष पुण्य कर्मका
करते हैं। चार अघातिया कर्ममें पुण्य पास भेद हैं किन्तु घातिया कर्म पापरूप ही हैं - इन घातिया कर्मोंका उदय कपाय कालिनाके साथ १० वे गुणस्थान तक होता है इससे इनका वन्ध भी १० वे गुणस्थान तक रहता है। नीचे तीन मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में सम्यक्त न होनेकी अपेक्षा अशुभोपयोन कहा है । यद्यपि इन गुणस्थानों के जीवोंके भी मदकाय रूप दान पूजा जप तपके भाव होते हैं और इन भावोंसे वे कुछ पुण्यकर्म भी करते हैं तथापि मिथ्यात्व के वलसे चार घातियारूप पाप फर्मोंका विशेष वंध होता है । सम्यक्त भूमिकाके बिना शुभपना उपयोग में आता नहीं । जहां निन शुद्धात्मा व उसका मतीन्द्रिय सुख उपादेय है ऐसी रुचि बैठ जाती है वहां सम्यक्त भूमिका बन जाती है तब वहां उपयोगको शुभ कहते हैं । यद्यपि सम्यक्ती गृहस्थोंके भी आरंभी हिंसा आदि अशुभ उपयोग होता है व
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwwA
३४1 श्रीप्रवचनसार भाषाढीका । जिस घे पापकर्म असावा घेदनीय आदि भी बांधते हैं तथापि संसार कारण न होनेसे व सम्बतनी भूमिका रहनेखे उपयोगको शुम रहा है। सर्प कथन मुख्यता व गौणताकी अपेक्षासे है। प्रयोजन यह है कि जिस तरह बने शुद्धोपयोगकी रुचि रखकर उसीफी माप्तिका उद्यम करना चाहिये-इसीसे आत्महित है-यहो पुरुषार्थ है जिससे यहां भी स्वात्मानंद होता है और परलोकमें भी परम्परा मोक्षकी प्राप्ति होती है।९॥
सानिमा-मागे जो कोई पदार्थको सर्वथा अपरिणामी नित्य टास मानते हैं तथा जो पदार्थको सदा ही परिणमन.. शील क्षणिक हो मानते हैं. इन दोनों एकान्त भावों का निराकरण करते हुए परिणाम और परिणामो मो पदार्थ उनमें परस्पर कथंचितू मभेदभाव दिखलाते हैं। अर्थात् जिसमें अवस्थाएं होती हैं वह द्रव्य नशा उसी अवस्थाएं सिसी अपेक्षा एक ऐमा बताते हैं।
पत्थिविणा परिणाम अत्यो अत्यविणेह परिणामो। লুgথা জখী লিলি ???
नास्ति विना परिणामोऽर्थोऽर्य यिनेइ परिणामः । द्रव्यगुणपर्यवस्थोऽर्थोऽस्तिस्यनित्तः ॥ १० ॥
मामाभ्यार्थ-पर्यायके विना द्रव्य नहीं होता है । और, पर्थाय द्रव्यके बिना नहीं होती है । पदार्थ द्रव्यगुण पर्यायमें रहा हुआ अपने अस्तिपनेसे सिद्ध होता है। ..
अन्वय सहित विशेश-(भत्थो) पदार्थ (परिणाम
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [३६ विना) पर्यायफे विना (त्यि) नहीं रहता है। यहां वृसिकारने 'मुफ जीवमें घटाया है कि सिद्ध पर्यायरूप शुद्ध परिणागको छोड़. कर शुद्ध जीव पदार्थ नहीं होता है क्योंकि यद्यपि परिणाम और . परिणामीसंज्ञा, संख्या, लक्षण प्रयोगनकी अपेक्षा भेद है, तो भी प्रदेश भेद न होनेसे अमेह है। तथा (इह ) इस जगतः । परिणामो ) परिणाम ( अत्थं विणा ! पदार्थले बिना नहीं होता है। अर्थात् शुद्ध आत्माकी प्राप्ति रूप है लक्षण सिक्षा ऐसी सिद्ध पर्यायरूप शुद्ध परिणति मुक्तरूप भात्म पदाथके बिना नहीं होती है क्योंकि परिणाम परिणामी, संज्ञादि भेद होनेपर मो प्रदेशोंका भन्न नहीं है । (दव्यगुणपजत्यो ) द्रव्यगुण पर्यायो उडरा हुआ (अन्यो) पदार्थ (अस्थित्तणिवत्तो) अपने अस्तित्वमें रहनेवाला अर्थात् अपने अस्तिपने सिद्ध होता है। यहां शुद्ध आत्मामें लगाकर कहते हैं कि आत्म स्वरूप तो द्रव्य. है, उसमें केवल ज्ञानादि गुण हैं तथा मिनप पर्याय है । शुद्ध आत्म पदार्थ इस तरह द्रव्य गुण पर्याय ठहरा हुआ है जो धर्ण पदार्थ, पर्ण द्रव्य पीतपना आदि गुण तथा कुंठलादि पर्यायोंमें तिष्ठनेवाला है। ऐसा शुद्ध द्रव्य गुण पर्यायका आधारभूत जो शुद्ध स्तिपना उससे. परमात्म पदार्थ सिद्ध है जैसे सुवर्ण पदार्थ सुवर्ण द्रव्य गुण पर्यायकी सत्तासे सिद्ध है। यहां यह तात्रय कि जैसे मुक्त जीवमें द्रव्य गुण पर्याय परस्पर भविशाभूत दिखाएं गए हैं तैसे सप्तारी जीयमें भी मतिज्ञानादि विभाष गुणोंफे तथा कर नारकादि त्रिभाव पर्यायोंक होते हुए नय विभाग Times जान लेना चाहिये । वैसे ही पुद्गलादिके भीतर भी।
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
rammar marria
३६] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
भावार्थ-यहाँपर आचार्य यह दिखलाते हैं कि हरएक पदार्थ परिणाम स्वभावको रखनेवाला है तथा वह परिणाम पलटता रहता है तो भी पदार्थ बना रहता है तथा परिणाम पदार्थसे कोई भिन्न वस्तु नहीं है । द्रव्य गुण पर्यायोंका समुदाय है जैसा कि.
श्री उमास्वामी आचार्यने भी कहा है "गुणपर्ययावत् दन्न । इनमेंसे गुण सहभावी होते हैं अर्थात गुणोंका और द्रव्यका कमी भी संबंध छूटता नहीं है, न गुण द्रबके विना कड़ी पाए जाते हैं न
न्य कभी गुण विना निर्गुण होसका है । गुणों के भीतर सदा ही पर्यायें हुआ करती हैं। गुणोंकी अवस्था कभी एकसी रहती नहीं। यदि गुण बिलकुल अपरिणामीके हो अर्थात् जैसेके तैसे पड़े रहें कुछ भी विकार अपने में न करें तो उन गुणोंसे भिन्न २ कार्य न उत्पन्न हो । जैसे यदि दुधको चिकनाई दूधमें एकसी दशामें बनी रहे तो उसमें घी आदिकी चिकनई नहीं बनसकी है। यहां पर यह बराबर ध्यान में रखना चाहिये कि द्रव्य अपने सीगमें अवस्थाको पलटता है इससे उसके सब ही गुण साथ साथ पलट जाते हैं। दुप द्रव्य पलटकर मक्खन छाछ तथा घी रूप होनाता है । उस द्रव्यमें जितने गुण हैं उनमेंसे मिलकी मुख्यता करके देखें वह गुण पलटा हुशा प्रगट होता है। धोकी चिकनईको देखें नो दूधकी चिकनईसे पल्टी हुई है। घीके स्वादको देखें तो दूधके स्वादसे पलटा हुआ स्व द है। घीके वर्णको देखें तो धके वर्णसे पटा हुआ वर्ण है। आकारपना अर्थात् प्रदेशत्व भी द्रव्यका गुण है । आकार पलटे बिना एक द्रव्यकी दो अवस्थाएं जिना साकार मिन्न ? हो नहीं होती हैं। एक सुवर्णके
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
nunaruwwwwww
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका . [३७ कुंडलको तोड़कर नम पाली बनायेंगे तो कुंडलसे बालीका आकार भिल ही होगा । इस पलटनको आकारका पलटना कहते हैं। द्रव्यमें या उसके गुणोंमें पर्याय दो प्रकारकी होती हैं-एक स्वभाव पर्याय दूसरी विभाव पर्याय । स्वभाव पर्याय सदृश सदश . एकसी होती है स्थूल दृष्टिमें भेद नहीं दिखता । विभाव पर्याय विसदृश होती है इससे प्रायः स्थूल दृष्टि से विदित होनाती है । जैन सिद्धांतने इस जगतको छः द्रव्योंका समुदाय माना है। इनमेसे धर्म, अधर्म, आकाश, काक तथा सिद्धशुद्ध सब जीव सदा स्वभाव परिणमन करते हैं। इन द्रव्यों के गुणोंमें विसहश विभाव परिणमन नहीं होता है। सदा ही एक समान ही पर्यायें होती हैं। किन्तु सर्व संसारी जीवोंमें पुद्गलके सम्बन्धसे विभाव पर्याय हुमा करती हैं तथा पुद्गलमें जम कोई अधिभागी परमाणु जघन्य अंश साचिक्कणता व रूक्षताको रखता है अर्थात अबंध अवस्थामें होता है तब यह स्वभाव परिणमन करता है । परंतु अन्य परमाणुओंसे बंधनेपर स्कंध अवस्था विभाव परिणमन होता है । यद्यपि स्वभाव परिणमन हमारे प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं है तथापि हम विभाव परिणमन मंसारी जीव तथा पुदलोंमें देखकर इस घातका अनुमान फरसते हैं कि द्रव्योंमें स्वभाव परिणमन भी होता है, क्योंकि नव परिणमन स्वभाव दस्तु होगो तब ही उसमें विमान परिणमन भी होसक्ता है। यदि परिणमन घभाव द्रव्यमें न हो तो अन्य किसो द्रव्यमें ऐसी शक्ति नहीं है जो बलात्कार किसीमें परिणमन करा सके । काठके नीचे हरा लाल डाँक लगानेसे हरा लाल नगीना नहीं चमक सक्ता है क्योंकि काठमें ऐसी परिणमन शक्ति
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
aaaaaaaaaaaa
३८] श्रीवकामार भाषाटीका । नहीं है किन्तु स्फटिकमणिमें ऐसी परिणमन शक्ति है जो निम रंगके हांकका संयोग मिलेगा उस रंगरूप नगीने के भावको झलकायेगा। हरएक वस्तुको परिणमन शक्ति भिन्न है तथा विजातीय वस्तु
ऑमें विजातीय परिणमा होते हैं। जैसे चैतन्य स्वरूप मात्माका परिणमन चेतनमई तथा जड़ पुदलका परिणमन जड़ रूप अचेतन है । एक पुस्तक रखे खखे पुरानी पड़ जाती है क्योंकि उसमें परिणमन शक्ति है । इसीसे जब परिणयन होना द्रव्यमें सिद्ध है तब शुरु द्रव्य भी इस परिणमन शक्तिको कभी न त्यागकर परिधमन करते रहते हैं। इस तरह सर्व ही द्रव्य तथा मात्मा परिएमन स्वभाव हैं ऐसा सिद्ध हुभा । जब यह सिद्ध होगया कि मात्मा या सर्व द्रव्य परिणगन रवभान है तब परिणाम या पर्याय द्रव्यमें सदा ही पाए जाते हैं । जैसे गुण सदा पाए जाते हैं कैसे पर्यायें सदा पाई जाती हैं इसी लिये द्रव्य गुण पर्यायवान है यह सिद्ध है-गण और पर्याय जन्तर यही है कि गुण सदा वे ही द्रव्यमें मिलते हैं जब कि पयायें सदा भिनर मिलती हैं। जिस समय एक पर्याय पैदा होती है उसी समय पिछली पर्यायका नाश होता है या यों पहिये कि पिछली पर्यायका नाश उसीको नवीन पर्यायका उत्पाद कहते हैं। इसलिये द्रव्य में पर्यायकी अपेक्षा हरममय उत्पाद और व्यय अर्थात् नाश सदा पाए जाते हैं तथा गृण महमादी रहते हैं इस वे ध्रौव्य या अविनाशी कहलाते है। इसी अपेक्षा जहां “त् इन्यलक्षणं " पहा है वहां सतको उत्पाद व्यय प्रौव्वरूप कहा है । अर्थात् द्रव्य तब ही मान सक्ते हैं नव द्रव्यमें ये उत्पाद व्यय प्रौव्य तीनों दशाएं हरसमयमें
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीभवचनसार भाषाटीका । [३९ . m immmmmmmmmmminvernurvinninn पाई जावें । यही भाव इस गाथामें है कि पदार्थ कमी परिणामके विना नहीं मिलेगा और पदार्थक विना परिणाम भी कहीं अलंग नहीं मिलसक्ता है इन दोनोंका अविनाभाव सम्बंध है । तथा उसी पदार्थकी सत्ता सिद्ध मानी जायगी जो द्रव्यगुण पर्यायोंमें रहनेवाला है। यहां द्रव्य शब्दसे सामान्य गुण समुदायात्मा लेना चाहिये उमोके विशेष गुण और पर्यायें लेनी चाहिये। इस तरह सामान्य और विशेष रूप पदार्थ ही जगतमें सत् है । तात्पर्य यह है कि जब भात्माका म्वभाव परिणमनशील है तब ही यह आत्मा मिम भावरूप परिणमन करेगा उस रूप हो जायगा अतएव शुम अशुभ भावों को त्यागकर शुद्ध भावोंमें परिणमना कार्यकारी हैं। इस तरह शुभ भशुम शुद्ध परिणामोंकी मुख्यतासे व्याख्यान करते हुए तीसरे स्थलमें दो गाथाएं पूर्ण हुई।
उस्थानिका-आगे वीतराग चारित्र रूप शुद्धोपयोग तथा सराग चारित्र रूप शुभोपयोग परिणामोंका संक्षेपसे फल दिखाते हैं:धम्मेण परिणदप्पा, अप्पा जदि सुखसंपयोगजुदो। पाचदिणिव्याणसुह, सहोरजुत्तोष सग्गसुहं ॥११॥
धर्मेण परिणतात्मा आत्मा यदि शुद्धसंप्रयोगयुतः। .
प्राप्नोति निणिमुवं शुभोपयुक्तो वा स्वगसुखम् ॥ ११ ॥ .. सामान्यार्थ-धर्मभावसे परिणमन करता हुआ आत्मा यदि शुद्ध उपयोग सहित होता है तो निर्वाणके सुखको पाला है। यदि शुभ उपयोग सहित होता है सव स्वर्गक सुखको पाता है। " ': अन्वय सहित विशेषार्थ-(धम्मेण ) धर्म भावसे
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
anmour immwwwmarne
MAMwinik
४०] श्रीमनचनसार भापाटीका । (परिणदप्वा) परिणमन स्वरूप होता हुमा (अपा ) यह आत्मा ( जदि ) यदि (सुद्धसंपयोगजुदो) शुद्धोपयोग नामके शुद्ध परिणाममें परिणत होता है ( णियाणसुहं ) सब निर्वाणके सुखको ( पावदि ) प्राप्त करता है । (व ) और यदि ( सुहोवयुत्तो) शुभोपयोगमें परिणमन करता है तो (सग्गसुह) स्वर्गके सुखको पाता है । यहां विस्तार यह है कि यहां धर्म शब्दसे अहिंसा लक्षण धर्म, मुनि श्रावकका धर्म, उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्म अथवा रत्नत्रय स्वरूप धर्म वा मोह क्षोमसे रटित मात्माका परिणाम या शुद्ध वस्तुका स्वभाव गृहण किया जाता है । वहीं धर्म अन्य पर्यायसे अर्थात् चारित्र भावकी अपेक्षा चारित्र कहा जाता है । यह सिद्धांतका बचन है कि " चारितं खलु धम्मो " (देखो गाथा ७ वीं ) वही चारित्र अपहृत संबम तथा उपेक्षा संयमछे भेदसे वा सराग वीतरागके मेदसे दा शुनोपयोग, शुद्धोपयोगके भेदसे दो प्रकारका है । इनमेंसे शुद्ध संप्रयोग शब्दसे कहने योग्य जो शुद्धोपयोग रूप वीतराग चारित्र उमसे निर्वाण प्राप्त होता है । जब विरूप रहित समाधिमई शुद्धोपयोगकी शक्ति नहीं होती है तब यह जात्मा शुभोपयोग रूप सराग चारित्र भावसे परिणमन करता है तब अपूर्व और अनाकुन्ता लक्षण धारी निश्चय सुखसे विपरीत माकुल्ताको उत्पन्न करनेवाला स्वर्ग सुख पाता है । पीछे परम समाधिके योग्य सामग्रोके होनेपर मोसको प्राप्त करता है ऐसा सूत्रका भाव है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने शुद्धोपयोगका फल कर्म बंधनसे छूटकर मुक्त होना अर्थात शुद्ध स्वरूप हो जाना बताया
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवचनसार थापाटीका ।
[ 8?
है | आचार्य महाराज अपनी ९वीं गाथामें कही हुई बातकी ही पुष्टि कर रहे हैं कि साम्यभावसे ही आत्मा मुक्त होता है इसी साम्यभावको वीतराग चारित्र चारित्रकी अपेक्षा या कषायोंके शमन या क्षयी अपेक्षा तथा शुद्धोपयोग निर्विकार क्षोभ रहित ज्ञानोपयोगकी अपेक्षा इसी भावको निश्चय रत्नत्रयमई धर्म व अहिंसाध या वस्तु स्वभाव रूप धर्म या दश धर्मका एकत्व कहते हैं - यही राग द्वेष रहित निर्विकल्प समाधि भाव कहलाता है । इसीको धर्म- . ध्यान या शुक्लध्यानकी अग्नि कहते हैं । इसीको स्वात्मानुभूति व स्वस्वरूप रमण व स्वरूपाचरण चारित्र भी कहते हैं । इसी भाव में यह शक्ति है कि जैसे कपासके समूहको जला देती है वैसे यह व्योमकी अग्नि पूर्वमें बांधे हुए कर्मोकी निर्जरा कर देती है तथा - नवीन कर्मी संवर करती है। जिस भावसे नए कर्म न मानें और पुराने बंधे समय समय असंख्यात गुणे अधिक झड़े उसी भावसे अवश्य आत्माकी शुद्धि होसको है। जिस कुंडमें नया पानी आना चंद होजावे और पुराना पानी अधिक जोरसे वह जाय वह कुंड rasu कुछ कालमें बिलकुल नल रहित हो जावेगा । आत्माके बंधन काय भावके निमित्तसे होता है । इसी कायको रागद्वेष कहते हैं । तच रागद्वेषके विरोधी भाव अर्थात् वीतराम भावसे अवश्य कर्म झड़ेंगे। वास्तव में मैमा साधन होगा वैसा साध्य सधेगा | जैसी भावना तैसा फल | इसलिये शुद्ध आत्मानुभवसे अवश्य शुद्ध आत्माका लाभ होता है । यह शुद्धात्मानुभव यहां भी aafar आनन्दका स्वाद प्रदान करता है तथा भविष्य में भी सदा के लिये आनन्दमयी बना देता है। यही मुक्तिका साक्षात
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
WMM
४२] श्रीअपचनसार भाषाटीका । कारण है । श्री अमृतचंद्र आचार्यने समयसार कलशामें कहा है
दर्शनज्ञानचारित्रश्यात्मा तत्वमात्मनः।। एक एव सदा सेन्यो मोक्षमार्गों मुमुक्षुणा ॥ ४६॥ एको मोक्षपयो य एष नियतो दम्ज्ञप्तिवत्सारमक स्तत्रैव स्थिविमोति यस्तमनिशं ध्यायेद्य संचेतति । तस्मिन्मेव निरंतरं विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन् । सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति ॥४७॥
भावार्थ-सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमई शात्माका स्वभाव है । मो मोक्षका इच्छुक है उसे इसी एक मोक्षमार्गकी सदा सेवा करनी योग्य है । निश्श्रयमे यही एक दर्शन ज्ञावचारित्रमई मोक्षफा मार्ग है । जो कोई इसी मार्गमें ही ठहरता है, हमीको ही रात दिन ध्याता है, इसीका ही अनुभव करता है, इसी ही निरंतर विहार करता है तथा अपने आत्माके सिवाय अन्य द्रव्योंको जो स्पर्श नहीं करता है वही जीप नित्य प्रकाममाल शुखात्माका अवश्य ही स्वाद लेता है। इसलिये शुद्धोपयोग साक्षात मोक्षका कारण होनेसे उपादेय है । परन्तु जिस किसीफा उपयोग शुद्ध भावमें नहीं जमता है वह शुभोपयोगमें उपयुक्त होता है। शुद्धोपयोगमें व शुद्धोपयोगके धारक पांच परमेष्टीमें जो प्रीतिभाव तथा इस प्रीति भावके प्रदर्शनके निमित्तोंमें मो प्रेम उसको शुभोपयोग कहते हैं । इस शुभोपयोगी ज्ञानी जीय यद्यपि वर्तन करता है तथापि अंतरंग भावना शुद्धोपयोगके लाभकी होती है । इसी कारणसे ऐमा शुभोपयोगर्ने वर्तना शीघ्र शुद्धोपयोगकी तरफ उपयोगको मुड़ने के लिये निमित्त कारण है; इसीसे इस शुभोपयोग
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
INNNNNNN
ANAM
श्रीभवचनसार भाषाका ४३. को मोलमा परंपरा कारण कहा गया है। इस शुभोपयोग जितना अंश रागभाव होता है उससे अघातिया फर्मोकी एप. प्रकृतियोंका बंधन होकर पुन्य प्रतियोंका बंध होता है इसीसे शुभोपयोगी शुभ नाम, उच्च गोत्र, साता वेदनीय तथा देवाथु बांधकर स्वर्गीमें अतिशय सातामें मग्न देव होजाता है। वहां क्षुधा तृषा रोगादि व धन लामादिकी पाकुलताओंसे तो छूट जाता है किन्तु केवल आकुझतामई इन्द्रिय जनित भुख भोगता है तथापि यहां भी शुद्धोप. योगकी प्राप्तिकी भावना रहती है जिससे वह ज्ञानी आत्मा उन इंद्रिय सुखोंमें तन्मय नहीं होता है किन्तु उनको शाकुलताके कारण मानके उनके छुटने व मतीन्दय आनन्दके पानेका उत्सुक रहता है । इससे स्वर्गका सम्यग्दृष्टी मात्मा इस मनुष्य भवमें योग्य सामग्रीका सम्बन्ध पाता है जिससे शुद्धोपयोग रूप परिणमन कर सके। ____तात्पर्य इस गाथाका यह है कि अनुमोपयोगसे बचकर शुद्धोपयोगमे रममेकी चेष्टा करनी योग्य है। यदि शुद्धोपयोग न होसके तो शुभोपयोगमें वर्तना चाहिये तथापि इस शुभोपयोगको उपादेय न मानना चाहिये
उत्थालिशा-आगे कहते हैं कि निस किमी आत्मामें वीतराग या सराग चारित्र नहीं है उसके भीतर अत्यन्त त्यागने. योग्य अशुभोपयोग रहेगा उस अशुभयोगका फल कटुक होता है। भानुहोघेण आदा कुणरो तिरियो भवीय रह्यो । सुक्खसहरसहि सदा अभिधुदो भमइ अचंतं ॥१२॥
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका।
अनुभोदयेनात्मा कुनरस्तियन्मृत्वा नैरयिकः । दुःखसहरः सदा अभिभृतो अमत्यत्यन्तम् ॥ १२ ॥
सामान्यार्थ-दिला, झूठ, चोरी, कुशील, तृष्णा, धूत रमण, परकी हानि, विषयभोगोंने लोलुपता आदि अशुभोपयोगसे परिणमन करता हुआ आत्मा पाप आंधकर उस पापके उदयसे खोटा दुःखी दरिद्रो मनुष्य होकर व तिच मर्थात् एकेन्द्रो वृक्षादिमे पंचेन्द्री तक पशु होकर अथवा नारकी होकर हज़ारों दुःखोंसे सदा पीड़ित रहता हुआ इस संसार में बहुत अधिक भ्रमण करता है। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-( असुहोदयेण ) अशुम उपयोगके प्रगट होनेसे जो पाप कर्म बंधता है उसके उदय होनेसे (आदा) शात्मा (कुणरो) खोटा दीन दरिद्री मनुष्य (तिरियो। तिर्यंच तथा ( णेरइयो ) नारकी (भवीय ) होकर (मञ्चंत) बहुत अधिक { भमई ) संसारमें भ्रमण करता है। प्रयोजन यह है कि अगुम उपयोग विकाररहित शुद्ध आत्मतत्वकी रुविरूप निश्चय सम्यत्वसे स्था उस ही शुद्ध आत्मामें क्षोभरहित चित्तमा वर्तनारूप निश्चय चारित्रसे विलक्षण या विपरीत है। विपरीत मगिप्रायसे येना होता है तथा देखे, सुने, अनुभव किए हुए पंचेन्द्रि योंके विषयोंकी इच्छामई तो संशरूप है ऐसे अशुभ उपयोगसे जो पाप कर्म बांधे जाते हैं उनके उदय होनेसे यह आत्मा स्वभावसे शुद्ध आमाके आनन्दमयी परमार्थिक सुलसे विरुद्ध दुःखसे दुःखी होता हुमा व अपने स्वभावको भावनासे गिरा हुमा संसारमें खुब ही भ्रमण करता है। ऐसा तात्पर्य है।
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीnaarer भाषाका [ ४५ :
भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने अशुभोपयोगका फल 1. दिखलाया है। इस जीवके वैरी कषाय हैं। कषायक उदयसे ही आत्माका उपयोग कलुषित या मैला रहता है। शुद्धोपयोग कषायः रहित परिणाम है इसीसे वह मोक्षका कारण है । अशुद्धोपयोग कषाय सहित आत्माका भाव है इससे बंधका कारण है। इस अशुद्धोपयोग के शुभोपयोग और अशुभोपयोग ऐसे दो भेद हैं। जिस जीवके अनंतानुबन्धी चार और मिथ्यात्व आदि तीन दर्शन मोहनी की ऐसी सात कर्मकी प्रकृतियोंका उपशम हो जाता है । अथवा क्षयोपशम या क्षय हो जाता है उस सम्यग्दृष्टो जीवके कषाय अंतरंग में मन्द हो जाती है। तएव ऐसा ही जीव मंढ कपायपूर्वक जप, तप, सयम, व्रत, उपवास, दान, परोपकार,स्वाध्याय, पूजा, आदि व्यवहार धर्ममें प्रेम करता हुआ शुभोपयोगका धारी होता है । परन्तु सि जीवके सम्यग्दर्शनरूपी रत्नकी प्राप्ति नहीं हुई है वह अनंतानुबन्धी कषाय और मिथ्यात्व से वासित आत्मा अशुभ उपयोगका घारी होता है क्योंकि उसके भीतर देखे, सुने, छानुभए इन्द्रिय भोगोंकी कामना जाग्रत रहती है । जिस इच्छाकी पूर्ति के लिये मद्य,.. मांस, मधु खाता है, हिंसा, असभ्य, चोरी, कुशील, परिग्रहमें लगा रहता
1
है । अपने स्वार्थके लिये परका बुरा करनेका उद्यम करता है । इसलिये वह अशुभोपयोगका घारी जीव अपने पाप भावसे नरक निगोद तिथेच गतिका कर्म बांधकर नरकमें जाता है तब छेदन भेदन मारण तारण 'आदि महा दुःखको सागरों पर्यंत भोगता है, 'यदि निगोद जाता है तब दीर्घकाल वहीं विलाकर फिर विर्यक
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६ ]
श्रीचनसार भाषाटीका ।
यतिस्थाद वो धार भारफर महान संकर उठाता है । मनुष्य गति दन्द्रो, दुःखी, रोगी मनुष्य हो बड़े कटले ena पूरी करता है | forयादृष्टी अज्ञानी मीथ कभी जप, तप, व्रत उपवान, व्यान, परोपकार आदि भी करता है जरा समय उसकी कभी शुभ तथा आगमके अनुसार ठीच प्रयत् हो है. परन्तु संरंग में मिथ्या अभिप्राय रहनेसे उसके उपयोगोपयोग वहीं कहते हैं । यद्यपि यह मिथ्यादृष्टो इस मंट कपासे अधाति में पुण्य प्रकृतियों को शुगोपयोग को तरह शुभोपयोगी से भी अधिक मंदरुपाय होने
शुज पनि पुण्य प्रकृतिको die लेता है तो भी भ्रमणका पात्र ही रहता है इससे उस मिध्यात्वी द्रव्यलिंगी सुनको भी योगी कहते हैं। एक ग्रहस्थ सम्यग्दृष्टी व्रतको पालता हुआ जब शुभयोगसे पुण्य बांध केवल १६ सोल्ह स्वर्ग तक ही जाता है तब मिथ्यादृष्टी द्रव्यलिंगी सुनि बाहर उपयोग में प्रगट के प्रतापसे नौमें जीवक तक चला जाता है। तौ भी वह श्रावक नोक्षी होने से शुभोपयोगी है, तथा द्रव्यलिंगी सुनि ससारमान होने से अशुभोपयोगी है। यहां पर कोई शंका करे कि सम्यग्टी जब ग्रहारम्भमें वर्तता है अथवा क्षत्री या वैश्य फर्मो युद्धादिप्ता या कृषि वाणिज्य करता है या विषयभोगोंमें वर्तता है तब भी क्या उस सम्यग्दष्टिके उपयोगको शुमोपयोग करेंगे ? जिस अपेक्षा यहां अशुभोफ्योगकी व्याख्या की हैं, वह अशुमोयोगसम्यष्टके कदापि नहीं होता है। सम्यग्दृष्टीका प्रहारम्भ भी मंशा परम्परा निमित्तमूत है। अभिप्राय में सम्मटी
cr
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीभवचनसार, भापाटीका ! [४७. .www.winemammi
nie स्वपर टिनको ही वांछना है-शत्रुकी भी आत्माशा कल्याण चाहता ' है. इससे उसके उपयोगको शुभोपयोग कहते हैं । यद्यपि चारित्र : . अपेक्षा "शुभोपयोग है क्योंकि संक्लेश भावोंने प्रहारंभ करता. . हैं तथापि मम्यककी अपेक्षा शुभोपयोग है। जहांतक सम्बन्डष्टी' जीवके प्रवृत्ति मार्ग है बड़ा तक इसके अशुभोपयोग और शुभो. पयोग दोनों होते हैं। नारित्रकी अपेक्षा जेर सम्यक्ती तीव्र पायवान हो अधारममें प्रवर्तता है, अथवा इe वियोग अनिष्ट संयोग था पीड़ादी चिंतामें होता या पमिहमें उलझकर कुछ दृषकर लिया जाता है या परियह विमोगसे 'कुछ विषाद कर लिया ५.रता है ता इसके अशुभोपयोग होता है और जब व्यवः हार चारित्र आवक या मुनिका पाचरता है तब इसके शुभोपयोग होता है। शुभःपयोग धर्मशान जब कि अशुभोपयोगमें धर्मध्यान न होकर केवल आतं और शैन्द्र ध्यान रहता है । ये दोनों ध्यान ॐ शुग है तथापि पांच गुणस्थानवी श्रावक तक शैन ध्यान और छठे गुणस्थायी प्रमत्तविरत मुनिता आर्तव्यान रहता है। ____ यद्यपि समारीके अशुभोपयोग होता है ताकि यह , अशुभोपयोग, सम्यक्तकी भूमिका सहित है, इस कारण मिथ्या
दृष्टोके अशुभोपयोगसे विलक्षण है। ' यह अशुभोपयोग भी निर्माणमें बाधक नहीं है जबकि - मिथ्याष्टोका शुभोपयोग भी मोक्षमें बाधक है । इस सिवाय ... मिथ्यादृष्टी अशुभोपयोग भैलो पारफर्म बांधता वैसा पापकर्म
सम्यग्दृष्टीकर अशुभोपयोग नहीं बांधता है। क्योंकि सम्याहाटी 'नीष ४१ प्रतियोंका तो बंध ही नहीं.. करता है इसलिये वह
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
Amwwwmananwr
४८] श्रीप्रवचनसार भाषाका । जरक, तिर्यश्च आयुको नहीं बांधता, न वह स्त्री नपुंसक होता है नदीन दुःखी दलिद्री मनुष्य न हीन देव होता है । मिथ्यादृष्टीके जप, तप दानादिको उपचारसे शुर्म कहा जाता है। वास्तवमें वह शुभ नहीं है इसीखे मिध्यादृष्टीके शुभोपयोगका निषेध है, केयस अशुभोपयोग ही होता है । जिसके कारण घोर पाप बांध चारोंगतियोंमें दीर्घ कालतक भ्रमण करता है। ___ तात्पर्य यह है कि अशुभोपयोग त्यागने योग्य है, पाप बंधका कारण है इससे इस उपयोनसे बचना चाहिये तथा शुद्धो. पयोग मोक्षका कारण है इससे ग्रहण करना चाहिये और जत्र शुद्धोपयोग न हो सके तब अशुभोपयोगसे बचने के लिये शुभोपयोगयो हस्तादलभनजान अहणकर लेना चाहिये ।
इसमें इतना और विशेष जानना कि सम्यकी अपेक्षा नत्र सक मिथ्यात्व भावका सद्भाव है तस्तक उपयोगको अशुभोपयोग कहा जाता है क्योंकि यह मोक्षका परंपरा कारण भी नहीं है। किन्तु जब लेश्याओंकी अपेक्षा विचार किया जाय तब कृष्ण नील कापीत तीन अशुभ लेश्याओंफे साथ उपयोगो अशुभोपयोग तथा पीत पद्म शुक्ल तीन शुभ लेश्याओं के साथ उपयोगको शुभोपयोग कहते हैं । इप्त अर्थसे देखनेरो नम छहों लेश्याएं सैनी पंचेन्द्रो मिथ्यादृष्टी जीवके पाई जाती हैं तब अशुभोपयोग और शुमोपयोग दोनों उपयोग मिथ्याष्टियोंके पाए जाते हैं इसीसे जब शुमलेश्या सहित शुभोपयोग होता है तब मिथ्यादृष्टी जीव चाहे द्रव्यलिंगी श्रावक हो या मुनि, पुण्य कर्मों को भी बांधते हैं । परंतु उस पुण्यको -निरतिशय पुण्य या पापानुबंधी पुण्य कहते हैं । क्योंकि
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
womanmmmm
mann
श्रीमानसार भापीका ९ उस पुण्यके उदयसे इन्द्रादि महापदवी धारक नहीं होते हैं। तथा पुण्यको भोगते हुए बुद्धि पापोंमें झुक जासक्ती है जिससे फिर नई नियोदमें चले जाते हैं। इसलिये मिथ्यात्वीका शुमो पयोग व उसका फल दोनों ही सराहनीय नहीं हैं।
इसीसे यही भाव समझना चाहिये कि मिस बरहसे हो तत्वज्ञान द्वारा सम्वतकी प्राप्ति करनी योग्य है। १२॥
इस तरह तीन तरह के उपयोगकै फलको कहते हुए चौथे स्थलमें दो गाथाएं पूर्ण हुई।
उस्थानिशा मागे आचाप शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनोंको निश्चय नयमे त्यागने योग्य मानकरके शुद्धोपयोगके अधिकारको प्रारंभ करते हुए तथा शुद्ध आत्माकी भावनाको स्वीकार . करते हुए अपने स्वभावमें रहने के इच्छुक जीवके उताह बढानेके लिये शुद्धोपयोगका फराश करते हैं । अथवा दूसरी पातनिका या सुचना यह है कि यपि आये आचार्य शुद्धोपयोगका फक ज्ञान और मुख संक्षेन या विचारसे कहगे तथापि यहां भी इप्स पीठिका पित करते हैं अपधा तोपरी पानिका यह है कि पहले शुद्धोपयोगका फल निर्वाण बताया था अब यहां निर्वाणका फल अनंत सुख होता है ऐसा कहते हैं। इस तरह तीन पातनिकाओं के भावको मनमें धरकर आचार्य आगेका सूत्र कहते हैं--- अइलघमास पिसवातीद अणावममणत । अव्युच्छिण्णं च सुई सुद्धपोसिडाणं ॥ १३ ॥ - अतिशयनालसर विषयातीतमनौपम्यमनन्तन् । - अन्युछिच तुखं शुद्ध पयगतसिद्धानाम् ॥ १३ ॥
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
www
५०] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका! :
सामान्यार्थ अति आश्चर्यकारी, मात्मासे ही उत्पन्न, . पांच इन्द्रियके विषयोंसे शून्य, उपमा रहिन, अनंत और निरावाध । सुख शुद्धोपपोममें प्रसिद्ध अर्थात शुद्धोपयोगी अरहंत और सिद्धोंके होता है।
अन्वय सहित विशेषार्थ-( मुद्धरओगप्पसिद्धाणं) शुद्धोपयोगमें प्रसिद्धोंको अर्थात् वीतराग परम सामायिक शब्दसे कहने योग्य शुद्धोपयोगके द्वारा जो परहंत और सिद्ध होगए हैं उन परमात्माओंको (भइसय) अतिशयरूप अर्थात अनादि कालके संसारमें चले आए हुए इन्द्रादिके सुखोंसे भी अपूर्व अद्भुत परम आल्हाद रूप होनेसे भाश्चर्यकारी, (आदसमुत्थं) आत्मासे उत्पन्न अर्थात् रागद्वेषादि विकल्प रहित अपने शुद्धात्मा अनुमवसे पैदा होनेवाला, ( विसयातीदं ) विषयोंसे शून्य अर्थात् इन्द्रिय निपय रहित परमात्म तत्वके विरोधी पांच इन्द्रियोंके विषयोंसे रहित, ( अणोवमं ) उपमा रहित अर्थात् दृष्टांत रहित परमानन्दमई एक लक्षणको रखनेवासा, (अori) अनंत अर्थात् अनन्त भविष्यकालमें विनाश रहित अथवा अप्रमाण (च) तथा (अव्वुछिण) विवाहित अर्थात् असाताका उदय न होनसे निरन्तर रहनेवाला ( सुई) आनन्द रहता है। यही गुख पादेश है इसीको निरन्तर भावना करनी योग्य है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने साम्यभाव यारद्धोपयोगका फल यह बताया है कि दोपयोगफे प्रतापसे संसारी आत्माके गुणोंके रोकनेवाले घातिया कर्म छूट जाते हैं। तब अलाके मच्छन्न गुण विकसित हो जाते हैं। उन सब गुणों। मुख्य सुव
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwwmarA
श्रीमवचनसार भाषाटीका। . . [५१ नामा गुण है। क्योंकि सभी संसारी जीवोंके अंतरंग सुख पानकी इच्छा रहती है । सब ही निराकुल तथा सुखी होना चाहते हैं इन्द्रियों के विषय भोगके कल्पना मात्र सुखसे यह नीव न कभीनिराकुल होता है न सुखी होता है। सच्चा सुख आत्माका स्वभाव है. वही सच्चा सुख कर्मोके आवरण हटनेसे प्रगट होजाता है । उसी सुखका स्वभाव यहां कहते हैं । वह मुख इस प्रकारका है कि बड़े र इन्द्र चक्रवर्ती भी निस सुखको इन्दिय भोगोंको करते करते नहीं पासक्त हैं तथा जिस जातिका आल्हाद इस आत्मीक मुखमें है वैसा आनन्द इन्द्रिय भोगोंसे नहीं प्राप्त होसक्ता है । इंद्रिय सुख आकुलता रूप है, अतीन्द्रिय सुख निराकुल है इसीसे अतिशय रूप है । इन्द्रिय सुख पराधीन है क्योंकि अपने शरीर व अन्य चेतन अचेतन वस्तुओं के अनुकूल परिणमनके आधीन है, जब कि मात्मीक सुख स्वाधीन है जो कि आत्माका स्वभाव होनेसे आत्मा ही के द्वारा प्रगट होता है । इन्द्रिय सुख इन्दिय हारा योग्य पदाथोंके विषयको ग्रहण करनेसे अर्थात माननेसे होता है जब कि ' मात्मीक सुखमें विषयोंके ग्रहण या भोगका कोई विकल्प ही नहीं होता है। भात्मीक सुखके समान इस लोकमें कोई और सुख नहीं है जिससे इस सुखका मिलान किया जाय इससे यह मात्मीक मुख उपमा रहित है, इंद्रिय सुख अंत सहित विनाशीक व अल्प होता है जब कि आत्मिक सुख भंज हित अविनाशी और माममाण है, इद्रिय सुख असाताका उदय होनेसे व साताके क्षयसे छूट जाता है निरन्तर नहीं रहता जब कि आत्मीक सुख निरन्ता बना रहता है । जब पूर्गपने प्रगट होमाता है तब अनंतकालतक
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२ ]
श्री वचनसार भाषाटीका ।
विना किसी विधा अनुभवमें आता है।
अरहंत भगवानके ऐसा अनुपम सुख उत्पन्न होनाता है सो सिद्धोंके सदाकाळ बना रहता है । यद्यपि इस सुखकी पूर्ण प्रगयता महतोंके होती है तथापि चतुर्थ गुणस्थान से इस सुखके अनुभवका प्रारंभ होजाता है। जिस समय मिथ्यात्त्व और अनंतासुन्धीका पूर्ण उपशम होकर उपशम सम्यग्दर्शन जगता है उसी समर्थ स्वात्मानुभव होता है तथा इस मात्मीक आनन्दका स्वाद आता है। इस सुखके स्वाद लेनेसे ही सम्यक्त भाय हैं ऐसा अनुमान किया जाता है | यहांसे लेकर श्रावक या मुनि अवस्था में महात्मामें अपने स्वरूपकी सन्मुग्नता होती है तब तव स्वास्मानुभय होकर इस आत्मीक सुखका लाभ होता है । कि ज्ञान और अनंतवीर्य के होनेपर इस आत्मीक सुखका निर्मक और निरन्तर प्रकाश केवलज्ञानी अर्हतके डोभाता है और "फिर वह प्रकाश कभी भी बुझता व मन्द नहीं होता है ।
तात्पर्य यह है कि जिस साम्यभावसे आत्मीक आनन्दकी प्राप्ति होती है उस साम्यभाव के लिये पुरुषार्थ करके उद्यम करना चाहिये । वही अब भी सुख प्रदान करता है और भावीकालमें श्री सुखेदाई होया । निर्वाणमें भी इसी उत्तम आत्मीक आनंदा प्रकाश सदा रहता है इसी लिये मोक्ष या निर्वाण ग्रहण करने योग्य है । उसका उपाय शुद्धोपयोग है। सोही भावने योग्य है ।
उत्थानका- आगे जिस शुद्धोपयोग के द्वारा पहले कहा आनन्द प्रगट होता है उस शुद्धोपयोग में परिणमन करनेवाले पुरुषका लक्षण प्रगट करते हैं:
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwwwwwmorammar
RAMM
श्रीमवचनसार भापाटीका। [१३ सुविदिदपदत्यनुत्तो,संजमतवसंजुदो विगदागो समणो समहदुक्खो, भणिो सुद्धोध
ओगोत्ति ॥१४॥ सुविदितपदार्थसूत्रः संयमतपः संयुतो विगतरागः । श्रमणः समसुखदुःखो भणिश: शुद्धोपयोग इति ॥ १४ ॥ .
सामान्यार्थ-जिसने भले प्रकार पदार्थ और उनके बतानेवाले सूत्रों को जाना है, जो संयम और तपसे संयुक्त है, वीतराग है और दुःख सुखमें समता रखनेवाला है सो सानु शुद्धोपयोगी कहा गया है। ___अन्वय सहित विशेषार्थ-( सुविदिदपदत्थसुत्तों) भले प्रकार पदार्थ और सूत्रोंको नाननेवाला, अर्थात् संशय शिोह विभ्रम रहित होकर निसने अपने शुद्धात्मा गादि पदार्थोंको और उनके बतानेवाले सूत्रोंको जाना है और उनकी रुचि प्राप्त की है, (संनमतबसंजुदो ) संयम और तप संयुक्त है अर्थात नो बाह्यमें द्रव्येद्रियोंसे उपयोग हटाते हुए और पृथ्वी आदि छः कामोंकी रक्षा करते हुए तथा अंतरंगमें अपने शुद्ध आत्माके अनुभवके वलसे अपने स्वरूपमें संयम रूप ठहरे हुए हैं तथा बाह्य व अंत. रंग बारह प्रकार तपके बळसे काम क्रोध आदि शत्रुओंसे मिनका. प्रताप खंडित नहीं होता है और जो अपने सुख मात्मामें कम रहे हैं; नो ( विगदरागो) वीतराग हैं अर्थात् वीतराग शुद्ध आत्माकी भावनाके वलसे सर्व रागादि दोपोंसे रहित हैं (सममुह दुक्खो ) सुख दुःखमें समान हैं अर्थात् विकार रहित और विकल्प रहित समाधिसे उत्पन्न तथा परमानन्द सुखरसमें लपलीन ऐसी
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४ ]
श्रीमवचनसार भापाटीका ।
निर्विकार स्वसंवेदन रूप जो परम चतुराई उसमें थिरीभूत होकर st अनिष्ट इन्द्रियों के विषयों में हविषादको त्याग देने से समता भावके धारी हैं ऐसे गुणों को रखनेवाला ( समणः ) परममुनि ( सुद्धोवओोगः ) शुद्धोपयोग स्वरूप ( भणिभो ) कहा गया है (त्ति ) ऐसा अभिप्राय है ।
भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने निर्वाणका कारण जो शुद्धोपयोग है उसके धारी परम साधुका स्वरूप बताया है । यद्यपि स्वस्वरूप में थिरताको प्राप्त करना सम्यक् चारित्र है । और यही शुद्धोपयोग है । तथापि व्यवहार चारित्रके निमित्तकी आवश्यक्ता है । क्योंकि हरएक कार्य्यं उपादान और निमित्त कारणों से होता है । यदि दोनोंमेंसे एक कारण भी न हो तो का होना अशक्य है । आत्माकी उन्नति आत्मा ही के द्वारा "होती है । आत्मा स्वयं आत्माका अनुभव करता हुआ परमात्मा होजाता है । जैसे वृक्ष माप ही स्वयं रगड़कर अग्निरूप होजाता है।
1
जैसा समाधिशतक में श्री पूज्यपाद स्वामीने कहा है:उपास्यात्मानमेवात्मा जायते परमोऽथवा । मथित्वात्मानमात्मैव जायतेऽअग्निर्यथा तरुः ॥
भावार्थ यह है कि आत्मा अपनी ही उपासना करके परमात्मा होजाता है। जैसे वृक्ष आप ही अपनेको मथनकरके अग्निरूप होजाता है । इस दृष्टांत में भी वृक्षके परस्पर गढ़ने में पवनका संचार निमित्तकारण है । यदि वृक्षकी शाखाएं पवन विना थिर रहें तो उनसे अग्निरूप परिणाम नहीं पदा होसका है ।
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
आमाकी शुद्ध परिणति होने में भी निमित्तकी आवश्यक्ता है उसकी तरफ लक्ष्य देकर आचार्य शुद्धोपयोग के लिये कौन२ निमित्तकी आवश्यक्ता है उसको कहते हुए शुद्धोपयोगी मानवका स्वरूप बताते हैं । सबसे पहला विशेषण यह दिया है कि उसको fatalite रहस्यका अच्छीतरह ज्ञान होना चाहिये। जिनशासनमें कथन निश्चय और व्यवहार नयके द्वारा इस लिये किया गया है कि जिससे अज्ञानी जोवको अपनी वर्तमान अवस्थाके होनेका कारण तथा उस अवस्थाके दूर होनेका उपाय विदित हो और यह भी खबर पड़े कि निश्चय नयसे वास्तवमें जीव और . अजीवा क्या २ स्वरूप है तथा शुद्ध मात्मा किसको कहते हैं । जिनशासन में छः द्रव्य, पंचास्तिकाय, सात तत्व, नौ पदाथका ज्ञान अच्छी तरह होनेकी जरूरत है जिससे कोई संशय शेष न रहे। जबतक यथार्थ स्वरूपका ज्ञान न होगा तबतक भेद विज्ञान नहीं होता है । भेदज्ञान विना स्वात्मानुभव व शुद्धोपयोग नहीं होता। इसलिये शास्त्र के रहस्यका ज्ञान प्रबल निमि
कारण है । दूसरा विशेषण यह बताया है कि उसे शुद्धात्मा आदि पदार्थों का ज्ञाता और श्रद्धावान होकर चारित्रवान भी होना चाहिये इसलिये कहा है कि वह संयमी हो और तपस्वी हो जिससे यह स्पष्टरूपसे प्रगट है कि वह महाव्रती साधु होना चाहिये क्योंकि पूर्ण इंद्रिय संयम तथा प्राण संयम इस ही अवस्थामें होता है । गृहस्थकी श्रावक अवस्थामें आरंभ परिग्रहका थोड़ा या बहुत सन्ध रहनेसे संयम एकदेश ही पळसक्ता हैं पूर्ण नहीं पलता है । संयमीके साथ २ तपस्वी भी हो । उप
1
[ ५५
AMAR
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६ ]
श्रीसार भापाठीका ।
वास, वेला, तेला, रसस्वाग, बटण्टी बाखरी, कठिन स्थानोंमें ध्यान करना व्यादि गुण विशष्ट हो तब ही शुद्धोपयोगके जगनेकी शक्ति होती है । जिसका मन ऐसा नशमें हो कि कठिन कठिन उपसर्ग पड़ने पर भी चलायमान न हो, शरीरका ममत्व जिसका बिलकुल हट गया होगा उसीके अपने स्वरूपमें दृढ़ता होना संभव हैं। नग्न स्वरूप रहना भी बड़ी भारी निस्पृहताका काम है । इसी लिये साधुको सर्व वस्त्रादि परिग्रह त्याग बालकके समान कषायभाव रहित रहना चाहिये। साधु चारित्रको पालनेवाला ही शुद्धम्पयोका अधिकारी होता है। तीसरा विशेषण वीतराग है। इस विशेषमें अंतरंग भावकी शुद्धताका विचार है। जिसका अंतरंग आत्माकी ओर प्रेमालु तथा जगत न शरीर व भोगोंमें उदासीन हो वही शुद्ध आत्म भावको वासक्ता है । निरंतर जात्म रखना विपास ही शुद्धोपयोगका अधिकारी हो सका है। चौथा विशेषण वह दिया है कि जिसकी इतनी कषायी मंदता हो गई है कि जिसके सांसारीक सुखके होते हुए हर्ष होता नहीं व दुःख व क्लेशके होने में दुःखभाव व आर्तसाव नहीं प्रगट होता है । जिनकी पूना की ा अथवा जिनकी निन्दा की जाय व खड़गका प्रहार किया
aौ भी हृपं व विपाद नहीं हो । जो तलवारकी चोटको भी फूलोंका हार मानते हों, जिन्होंने शरीरको अपने आत्मासे विक कुल मित्र अनुभव किया है वे ही भगतके परिणमनमें समताभाव
करता
हैं । इन विशेषों पर सहित साधु जत्र ध्यानका अभ्यास तब विकल्प भाव में रमते हुए निर्विकल्प भाव में आजाता जब तक उसमें जमा रहता है तब तक इस साधुके शुद्धोपयोग
myw
1
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमपचनसार भोपाटीका! [५७. कहा जाता है । इसीलिये आमममें शुद्धोपयोग सातवें अधमत गुणस्थानसे कहा गया है । सातवें गुणस्थानसे नीचे भी चौथे गुणस्थान आदि धारकों के भी कुछ अंश शुद्धोपयोग होजाता है परन्तु वहां शुभोपयोग अधिक होता है इसीसे शुद्धोपयोग न कह कर शुभोपयोग कहा है। .
यहां आचार्यकी यही सूचना है कि निर्वाणके अनुपम मुखका कारण शुद्धोपयोग है । इसलिये परम सुखी होनेवाले मात्माको अशुभोपयोग व शुभोपयोगमें न रंगकर मात्र शुद्धोपयोगकी माप्तिका उद्यम करना चाहिये । यदि संयम धारनेकी शक्ति हो तो मुनिपदमें आकर विशेष उद्यम करना योग्य है-मुमिपदके 'बाहरी भाचरणको निमित्तकारण मात्र मानकर अंतरंग स्वरूपाचरणमा ही लाभ करना योग्य है। बाहरी भाचरणके विकल्पमें ही अपने समयको न खोदेना चाहिये । नो मुनिका संयम नहीं 'पालसते वे एक देश संयमको पालने हुए भी शुद्धोपयोभकी भावना करते हैं तथा अनुभव दशामें इस स्वात्मानुभव रूप शुद्धोपयोगका स्वरूप वेदकर सुखी रहते हैं। भाव यह है कि जिस तरह हो शुद्धोपयोग व उसके घरो महा पुरुषों को ही उपादेय मानना चाहिये। ____ इस तरह शुद्धोपयोगका फल भो अनंत सुख है उसके पाने योग्य शुद्धोपयोगमें परिणमन करनेवाले पुरुषका कथन करते हुए यांचवे स्थल में दो गाथाएं पूर्ण हुई।
त्यानिका-इस प्रक्चनसारकी व्याख्या में मध्यम रुचि धारी शिष्यको समझाने के लिये मुख्य तथा गौण रूमसे
।
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
"
५८ ]
श्रीप्रवचनसार भापाटीका ।
अंतरंग तत्त्व आत्मा और बाह्य तत्त्व अन्य पदार्थ इनको वर्णन करने के लिये पहले ही एकसौ एक गाथामें ज्ञानाधिकारको कहेंगे। इसके पीछे एकसौ तेरा गाथाओं में दर्शनका अधिकार कहेंगे । उसके पीछे सत्तानवें गाथाओं में चारित्रका अधिकार कहेंगे । इस तरह समुदायसे वीनसौ ग्यारह सूत्रोंसे ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप तीन महा अधिकार हैं । अथवा टीकाके अभिप्रायसे सम्यग्ज्ञान, 'ज्ञेय और चारित्र अधिकार चूलिका सहित गधिकार तीन हैं ।
इन तीन अधिकारों में पहले ही ज्ञान नामके महाअधिकार में बहत्तर गाथा पर्यंत शुद्धोपयोग नामके अधिकारको कहेंगे । इन ७२ गाथाओंके मध्य में "एस सुरासुर" इस गाथाको मादि लेकर पाठ क्रमसे चौदह गाथा पर्यंत पीठिकारूप कथन है जिसका व्याख्यान कर चुके हैं। इसके पीछे ७ सात गाथाओं तक सामान्यसे सर्वज्ञकी सिद्धि करेंगे। इसके पीछे तेतीस गाथाओंमें ज्ञानका वर्णन है । फिर अठारह गाथा तक सुखका वर्णन है । इस तरह अंतर अधिकारोंसे शुद्धोपयोगका अधिकार है। आगे पचीस गाथा तक ज्ञान कंलिका चतुष्टयको प्रतिपादन करते हुए दूसरा अधिकार है । इसके पीछे चार स्वतंत्र गाथाएं हैं इस तरह एकसौ एक गाथाओं के द्वारा प्रथम महा अधिकार में समुदाय पातनिका जाननी चाहिये ।
यहां पहली पातनिका अभिप्रायले पहले ही पांच गाथाओं तक पांच परमेष्टीको नमस्कार आदिका वर्णन है, इसके पीछे सात गाथाओं तक ज्ञानकंठिका चतुष्टयकी पीठिकाका व्याख्यान है इनमें भी पांच स्थल हैं। जिसमें आदिमें नमस्कारकी मुख्यतासे गाथाएं
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [५९ पांच हैं फिर चारित्रकी सुचनाकी मुख्यतासे "संपज्जइ णिव्वाणं " इत्यादि गाथाएं तीन हैं, फिर शुभ, अशुभ शुद्ध उपयोगकी सूचनाकी मुख्यतासे "जीवो परिणमदि" इत्यादि गाथाएं दो हैं फिर उनके. फल कथनकी मुख्यतासे " धम्मेण परिणदप्पा " इत्यादि सूत्र दो हैं। फिर शुद्धोपयोगको ध्यानेवाले पुरुषके उत्साह बढ़ाने के लिये तथा शुद्धोपयोगका फल दिखाने के लिये पहली गाथा है । फिर, शुद्धोपयोगी पुरुषका लक्षण कहते हुए दूसरी गाथा है इस तरह . " अइसइमादसमुत्थं " को आदि लेकर दो गाथाएं है। इस तरह पीठिका नामके पहले अंतराधिकारमें पांच स्थलके द्वारा चौदह गाथाओंसे समुदाय पातनिका कही है, जिसका व्याख्यान हो चुका।
इस तरह १४ गाथाओं के द्वारा पांच स्थलोंसे पीठिका नामका प्रथम अन्तराधिकार समाप्त हुआ।
मागे सामान्यसे सर्वज्ञकी सिद्धि व ज्ञानका विचार तथा संक्षेपसे शुद्धोपयोगका फल कहते हुए गाथाएं सात हैं। इनमें चार स्थल हैं । पहले स्थलमें सर्वज्ञका स्वरूप कहते हुए पहली गाथा है, स्वयंभूका स्वरूप कहते हुए दूमरी इस तरह "उवओग विसुद्धोग को आदि लेकर दो गाथाएं हैं। फिर उस ही सर्वज्ञ भगवानके भीतर उत्पाद व्यय ध्रौव्यपन स्थापित करनेके लिये प्रथम गाथा है। फिर भी इस ही बातको दृढ़ करने के लिये दूसरी गाथा है। इस तरह "भंग विहीणो” को आदि लेकर दो गाथाएं हैं। आगे सर्वज्ञके शृद्धान करनेसे अनन्त सुख होता है । इसके दिखा. नेके लिये “ त सवत्थ वरिटुं" इत्यादि सूत्र एक. है। आगे
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
Amrav
६०] श्रीप्रवचनसार भापाटीका । । अतीन्द्रिय ज्ञान तथा सुखके परिणमनके बाथनकी मुख्यतासे प्रथम गाथा है और केवलज्ञानीको भोजनका निराकरणको मुख्यतासे दूसरी गाथा है, इस तरह " पक्खीण घाइ कम्मो " को आदि लेकर दो गाथाए हैं । इस तरह दूसरे अन्तर अधिकारमें चार स्थलसे समुदाय पातनिका पूर्ण ।
मागे अब यह कहते हैं कि शुद्धोपयोगके लाभ होने के पीछे केवलज्ञान होता है । अथवा दुरी पातनिका यह है कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव संबोधन करते हैं कि, हे शिवकुमार महारान ! कोई भी निकट भव्य जीव जिसकी रुचि संक्षेपमें जाननेकी है पीठिकाके उनाख्यानको ही सुनकर आत्माका कार्य करने लगता है। दूसरा कोई नीव जिसकी रुचि विस्तारसे जानने की है इस बातको विचार करके कि शुद्धोपयोगके द्वारा सर्वज्ञपना होता है और तब अन्तज्ञान अनंतसुख आदि प्रगट होते हैं फिर अपने आत्माका उचार करता है इसीलिये अब विस्तारसे व्याख्यान करते हैंउवओगविसुद्धो जो, विगदाचरणंतरायमोहरभो भूदो सयमेवादा, जादि पर णेशमूदाणं ॥१९॥
उपयोगविशुद्धो यो विगतावरण तरायमोहराः । । भूतः स्वयमेवात्मा याति परं शेयभूतानाम् ॥ १५ ॥
सामान्यार्थ-जो शुद्धोपयोगके द्वारा निर्मल हो जाता . है. वह आगा ज्ञानावरम, दर्शनावरण, अतराय तथा मोह कर्मकी रजके चले मानेपर स्वयं ही सर्व क्षेत्र पदार्थोके संतको प्राप्त हो. जाता है अर्थात् सर्वज्ञ होजाता है
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवचनसार थापाटीका ।
...६
अन्वयसहित विशेषार्थ - (जो उपभोगविसुद्धो ) मो उपयोग करके विशुद्ध है अर्थात् जो शुद्धोपयोग परिणामोंमें रहता हुआ शुद्ध भाववारी होजाता है सो (आदा) आत्मा (सयमेव ) स्वयं ही अपने आप ही अपने पुरुषार्थसे ( विगदावरणांत राय मोह रओ भूदो ) आवरण, अंतराय और मोहकी रजसे छूटकर अर्थात ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अंतराय तथा मोहनीय इन चार घातिया कर्मो के बंधनों से बिल्कुल अलग होकर (णेय मुदाण ) ज्ञेय पदार्थों ( परं) अतको (जादि) प्राप्त होता है अर्थात सर्व पदार्थों का ज्ञाता होजाता है । इसका विस्तार यह है कि जो कोई मोहरहित शुद्ध आत्मा के अनुभव लक्षणमई शुद्धोपयोगसे अथवा आगम भाप के द्वारा तय दिनकेवीवार नामके पहले शुक्लध्यानसे पहले सर्वमोहको नाश करके फिर पीछे रागादि विकल्पोंकी उपाधि शून्य स्वसंवेदन लक्षणमई एकत्ववितर्क अवीचार नाम दूसरे शुरू ध्यानके द्वारा क्षण कषाय गुणस्थान में अंतर्मुहूर्त ठहरकर उसी गुणस्थान के अंत समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय इन तीन घातिया कर्माको एक साथ नाश करता है वह तीन जगत तीन कालकी समस्त वस्तुओंके भीतर रहे हुए अनन्त स्वभावको एक साथ प्रकाशनेवाले केवलज्ञानको प्राप्त कर लेता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि शुद्धोपयोग से सर्वज्ञ होजाता है ।
भावार्थ - यहां आचार्य ने यह बताया है कि शुद्धोपयोगसे अथवा साम्यभावसे ही यह मात्मा स्वयं बिना किसी दूसरेकी सहायता के क्षपक श्रेणी चढ़ जाता है। सातवें अप्रमत्त गुणस्थान में ही प्रमत्त भाव नहीं रहता है । बुद्धि पूर्वक कपायका झलकना
wwwviti
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
.६२ ]
श्रीप्रवचनसार भापाटीका ।
बंद होजाता है । बुद्धिमें स्वात्म रस स्वाद ही अनुभव आता है । इस स्वात्मानुभव रूपी उत्कृष्ट धर्मध्यानके द्वारा कषायका बल घटता जाता है । ज्यों ज्यों कषायका उदय निर्मल होता जाता है त्यो २ अनन्त गुणी विशुद्धता बढ़ती जाती है । नांपर समय २ अनन्त गुणी विशुद्धता होती है वहींते मधोकरणलव्धिका प्रारम्भ होता है यह दशा सातवें में ही अंतमुहूर्त्त तक रहती है । तव ऐसे परिणामोंकी विशुद्धता बढ़ती है कि जो विशुद्धता अधोकरण से भिन्न जातिकी है। यह भी समय २ अनन्त गुणो -बढ़ती जाती है। इसकी उन्नति कालको अपूर्वकरण नामका आठवां गुणस्थान कहते हैं । फिर और भी विलक्षण विशुद्धता अनतगुणी बढ़ती जाती है क्योंकि कपायका चल यहां बहुत ही तुच्छ होता है । यह दशा अंतमुहूर्त रहती है । इस वर्तनको अनिवृत्तिकरणलब्धि कहते हैं। इस तरह विशुद्धता की चढ़ती से सर्व मोहनीय कर्म नष्ट होजाता है केवल सुक्ष्म लोमका उदय रह जाता है। आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान से एथवत्ववितर्क दीचार नामका प्रथम शुध्याद शुरू होजाता है । यही ध्यान सुक्ष्मलोम नाम के दसवें गुणस्थान में भी रहता है। यद्यपि इस ध्यान में शब्द, पदार्थ, तथा योगका पलटना है तथापि यह सब पलटन ध्याताकी बुद्धिके अगोचर होता है। ध्याताका उपयोग तो आत्मस्थ दी रहना है। वह आत्मीक रसमें मग्न रहता है। इसी स्वरूपमन्नता के कारण आत्मा दस गुणस्थानके अतमुहूर्त कालमें ही सूक्ष्म लोभको भो नाशकर समोसे छूटकर निर्मोह वीतरागी होजाता है - तब इर. को श्रीशमोह गुणस्थानवर्ती कहते हैं। अब यहां मोहके चले
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीभवचनसार भाषाटीका। [६३ जानेसे ऐसी निश्चलता व वीतरागता होगई है कि यह आत्मा , बिलकुल ध्यानमें तन्मयी है यहां पलटना बंद हो रहा है। इसीसे यहां एकत्त्व वितर्क अवीचार नामका दुसरा शुक्लव्यान होता है। यहाँके परम निर्मक उपयोगके द्वारा यह आत्मा अंतर्मुइतमें ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, तथा अन्तराय इन तीन घातिया कर्मोके वलको क्षीण करता हुआ अंत समयमें इनका सवथा नाश: कर अर्थात् अपने आत्मासे इनको बिलकुछ छुड़ाकर शुद्ध परहेज परमात्मा होनाता है। आत्माके स्वाभाविक ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य क्षायिकसम्यक्त व वीतरागता आदि गुण प्रगट होजाते हैं। अब इसको पूर्ण निमकुलता हो जाती है। क्योंकि सर्व दुःख व आकुलता के कारण मिट जाते हैं। परिणामोंमें माकुलता के कारण ज्ञानदर्शनकी कमी, आत्मालकी हीनता तथा रागढेष कषायोंका बल है। यहांपर अनंत ज्ञानदर्शनवीर्य व वीतराग भाव प्रगट हो जाते हैं इससे आकुलताके सब कारण मिट जाते हैं। मरहंत परमात्मा सक्यो जानते हुए भी अपने मात्मीक स्वादमें मगन रहते हैं । यह अरहंत पद महान पद है । जो इस पदमें जाता है वह जीवन मुक्त परमात्मा हो जाता है उसके अलौकिक लक्षण प्रगट हो जाते हैं, उसके मति श्रुत अवधि मनपर्यय ये ज्ञान नहीं रहने में ज्ञान सब केवलज्ञानमें, समानाते हैं ऐमा अद्भुत सर्वज्ञपद निसके सर्व इन्द्र गणेन्द्र विद्याधर रामा आदि पूना करते हैं, मात्र शुद्धोपयोग द्वारा आत्मामें प्रगट होमाता है ऐसा जान विकल हान धर्मध्यान चित ठान मात्मानंद रसमें तनमई हो शुद्धोपयोगका विकास भोगना चाहिये । यहाँ इतना
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४] श्रीप्रवचनसार अपायका! 'और जानना कि आचार्य ने मूल गाथामें कर्म रमको वर्णन किया है इससे यह सिद्ध किया है कि कर्म पुदल द्रव्यसे रची हुई कार्माण वर्गणाएं हैं जो वास्तवमें मूल द्रव्य है कोई कल्मित नहीं है। कर्म बंकी बात मन लोग भी करते हैं परन्तु मनैन मंथोंमें स्पष्ट रीतिसे कर्म बर्गणाओं के बंध, फल व तिरने मादिका वर्णन नहीं है। जैन ग्रंथों में वैज्ञानिक रीतिगे मोशे पुलमई बतलाकर उनके कायको व उनके क्षयको वशाया है । दुसरा अभिमान यह भी सूचित किया है कि आत्मामे पूर्ण ज्ञानकी शक्ति स्वयं विद्यमान है कुछ नई पैदा नहीं होती है। कम रजके कारण शक्तिकी प्रगटता नहीं होती है । शक्तिको प्रगट होना आवश्पना ही कर्म युद्धका बासर है। इसलिये शुद्धोश्योगके श्लसे कम पुद्गल जामासे भिन्न हो जाते हैं तब आत्माशी शशिष्य प्रगट होनाती हैं ।
, उत्थानिका-मागे कहते हैं कि सुद्धोपयोगसे उत्पन्न जो शुद्ध आत्मा लाम है उसके होने भिन्न कारकली. भावश्यक्ता नहीं है । किन्तु अपने मात्मा ही के आधीन है। तह सो बसहायो, लन्धर सपलोगपदिमाहिदो। भूदो सयलेवादा, हवधि समुसि णिहिटो॥ १६॥
तथा त लब्धत्वभावः सर्वशः सर्वलोकपतिमहितः । भूतः स्वयमेवात्मा भवति स्वयम्भूरिति निर्दिष्टः ॥ १६ ॥
सामान्यार्थ-तथा वह आत्मा स्वयमेव ही विना किसी परकी सहायतासे अपने स्वभावको प्राप्त हुआ सर्वज्ञ तीन लोका पति तथा इन्द्रादिसे पूजनीय होनाता है इसी लिये उसको स्वयंभू कहा गया है।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीभवचनसार भापाटीका । ..६६ ' अन्वय सहित विशेषार्थ-(तह) तथा ( सो आदा वह मात्मा ( सयमेव ) म्वयं ही (लद्धसहावः भूः ) स्वभावका लाभ करता हुआ अर्थात निश्चय-रत्नत्रय क्षणमई शुद्धोपयोगके प्रसादसे जैसे शात्मा सर्वका ज्ञाता हो जाता है वैसा यह शुद्ध आत्माके स्वभावका लाभ फरता हुआ (सव्यण्डू) सर्वज्ञ व (सव्व-" लोयपदमहिदो ) सर्व लोकका पति तथा पूजनीय ( हवदि) हो जाता है इस लिये वह (मयंभुत्ति) स्वयंभू इस नामसे (णिहिट्ठो कहा गया है। भाव यह है कि निश्चयसे कत्ती का आदि छः कारक आत्मामें ही हैं। अभिन्न कारककी अपेक्षा यह आत्मा चिदानन्दमई एक चैतन्य स्वभावके द्वारा स्वतंत्रता रखनेसे स्वयं ही अपने भावका कर्ता है तथा नित्य धानन्दमई एक म्वभावसे स्वयं अपने स्वभावको प्राप्त होता है इसलिये यह आत्मा स्वयं ही कर्म है । शुन्द चैतन्य स्वभावसे यह मात्मा आप ही साधकतम है अर्थात् अपने भावसे ही आपका स्वरूप झलकाता है इसलिये यह आत्मा आप दी करण है । विकार रहित परमानन्दमई एक परिणति रूप लक्षणको रखनेवाली शुद्धात्मभाव रूप क्रिया के द्वारा अपने पापको अपना स्वभाव समर्पण करने के कारण यह आत्मा आप ही संप्रदान स्वरूप है । तैसे ही पूर्वमें रहनेवाले मति श्रुत मादि ज्ञानके विकल्पोंके नाश होनेपर भी अखडित एक चैतन्यके प्रकाशके द्वारा अपने अविनाशी स्वभावसे ही यह मात्मा अपका, प्रकाश करता है इलिये यह आत्मा आप ही अपादान है। तथा यह आत्मा निश्चय शुद्ध पैतन्य मादि गुण स्वभावका स्वयं ही आधार होनेसे आप ही अधिकरण होता है। इस तरह अभेद
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६]
श्रीमदचनसार भावाटीका ।
षट् कारकसे स्वयं हा परिणमन करता हुआ यह आत्मा परमात्म स्वभाव तथा केवल ज्ञानकी उत्पत्ति में भिन्नकारककी अपेक्षा नहीं रखता है इसलिये आप ही स्वयंभू कहलाता है ।
भावार्थ - इस गाथा में आचार्यंने यह दिखलाया है कि अर्हत परमात्माको स्वयंभू क्यों कहते हैं। यही शुद्धोपयोगमें परिगमता हुआ आत्मा आपहीसे अपने भावको अपने लिये आपसे आपमें ही समर्पण करता है । षट् कारकों का विकल्प कार्योंमें हुआ करता है । इस विकल्पके दो भेद हैं-अभिन्न षटकारक और भिन्न षट्कारक | भिन्नकारकका दृष्टान्त यह है कि जैसे किसानने rपने भंडारसे चीजोंको लेकर अपने खेतमें धन प्राप्तिके लिये अपने हाथोंसे बोया । यहां किसान कर्ता है, बीज कर्म है, हाथ करण हैं, धन संपदान है, भंडार अपादान है, खेत अधिकरण है । इस तरह यहां छहों कारक भित्र २ हैं । आत्माकी शुद्ध अवस्थाकी प्राप्ति के लिये अभिन्न कारककी आवश्यक्ता है । निश्चय नयंसे हरएक वस्तुके परिणमन में जो परिणाम पैदा होता है उसमें ही अभिन्न कारक सिद्ध होते हैं। जैसे सुवर्णकी डलीसे एक कुंडल बना | यहां कुंडल रूप परिणामका उपादान कारण सुवर्ण है । भिन्न छः कारक इस तरह कहे नासक्ते हैं कि सुवर्ण कर्ताने कुंडल कर्मको अपने ही सुवर्णपने के द्वारा ( करण कारक ) अपने ही कुन्डलभाव रूप शोभाके लिये ( संप्रदान अपने ही सुवर्ण धातुसे (अपादान) अपने ही सुवर्णपने में (अधिकरण ) पैदा किया | यह अभिन्न षट्कारकका दृष्टांत है। ईसी सरह 'जात्म ध्यान करनेवाला सम्पूर्ण पर द्रव्योंसे अपना विकल्प
:
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार. भाषाटीका। . [६७ हटा लेता है, केवल अपने ही आत्माके सन्मुख उपयुक्त होनेकी
चेष्टा करता है । स्वानुभव रूप एकाग्रताके पूर्व आत्माकी भावनाके समयमें यह विचारवान प्राणी अपने ही आपमें षटकारकका विकल्प इस तरह करता है कि मैं अपनी परिणतिका भाप ही कर्ता हूं, मेरी परिणति जो उत्पन्न हुई है सो ही मेरा कर्म है। अपने ही उपादान कारणसे अपनी परिणति हुई है इससे मैं आप ही अपना करण हूं। मैंने अपनी परिणतिको उत्पन्न करके अपने आपको ही दी है इससे मैं भापही सम्प्रदान रूप हं। अपनी परिणतिको मैंने कहीं औरसे नहीं लिया है किंतु अपने आत्मासे ही लिया है इस लिये मैं भाप ही अपादान रूप हूं। अपनी परिणतिको मैं अपने आपमें ही धारण करता हूं इसलिये मैं स्वयं अधिकरण रूप हूं। इस तरह अभेद षट्कारकका विकल्प करता हुमा ज्ञानी जीव अपने भात्माके स्वरूपकी भावना करता है । इस भावनाको करते करते ना आप भापमें स्थिर हो जाता है तब अभेद षट् कारकका विकल्प भी मिट जाता है । इस निर्विकल्प रूप शुद्ध भावके प्रतापसे यह आत्मा आप ही चार घातिया कोसे अलग हो परहंत परमात्मा हो जाता है इसलिये अरहंत महाराजको. स्वयंभू कहना ठीक है।
इस कथनसे भाचार्यने यह भाव भी झलझाया है कि यदि तुम स्वाधीन, सुखी तथा शुद्ध होना चाहते हो तो अपने आप पुरुषार्थ करो। कोई दूसरा तुमको शुद्ध बना नहीं सक्ता है। मुक्तिका देनेवाला कोई नहीं है । तथा मोक्ष.या शुद्ध भवस्था मांगनेसे नहीं मिलती है, न भक्ति पूनन करनेसे प्राप्त होती है।
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८] श्रीमवचनसार भाषाटीका। वह तो आपका ही निज स्वभाव है, उसकी प्रगटता अपने ही पुरुषार्थ से होती है। जितने भी सिद्ध हुए हैं, होते हैं व होंगे वे सर्व ही स्वयंभू हैं। ___ इस कथनसे यह भी वात झलकती है कि यह मात्मा अपने कार्यका बाप ही अधिकारी है । यह किसी एक ईश्वर परमात्माके शासनमें नहीं है । वैज्ञानिक रीतिसे यह अपने परिणामों का आप ही कर्ता और भोक्ता है। से भोजन करनेवाला स्वयं भोनन करता है और स्वयं ही उसका फल भोगता है व स्वयं ही भोजनशा त्याग करे तो त्यागी होजाता है, वैसे यह आत्मा स्वयं अपने छशुद्ध भावोंमें परिणमन करता है और उनका स्वयं फळ भोगता है। यदि आप ही अशुद्ध परिणति छोड़े और शुद्ध भावों में परिमन करे तो यह शुद्ध भावको भोगता है तथा शुद्धोपयोगके अनुभवसे स्वयं शुद्ध होनाता है।
इस प्रकार सर्वज्ञकी मुख्यतासे प्रथम गाथा और स्वयंभूकी मुख्यतासे दूसरी गाथा इस तरह पहले स्थल में दो गाथाए पूर्ण हुई।
उत्थानिका-आगे उपदेश करते हैं कि अरहंत भगवानके द्रव्यार्थिक नयकी मुख्यतासे नित्यपना होनेपर भी पर्यायार्थिक नयसे अनित्यपना है। भंगविहीणो य भयो, संभवपरिवजिदो विणासोहि विजदि तस्लेव पुणो, ठिदिसंभवणाससमवायो॥
भङ्गविहीनश्च भवः संभवपरिवर्जितो विनाशो हि । विद्यते तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः ॥१७
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
.श्रीमवचनसार भाषाटीका। [६९ " सामान्यार्थ-उन सिद्ध शुद्ध परमात्माके नाश रहित स्वरूपकी प्रगटता है तथा जो विभाव भावोंका व अशुद्धताका नाश हो गया है वह फिर उत्पाद रहित है ऐसा नित्य स्वभाव होने पर भी उस परमात्माके उत्पाद व्यय प्रौव्यकी एकता पाई. जाती है। ____ अन्वय सहित विशेषार्थ-( य भंगविहीणः ) तथा 'विनाश रहित ( भवः) उत्पाद अर्थात् श्री सिद्ध भगवानके लीना मरना आदिमें समताभाव है लक्षण जिसका ऐसे परम उपेक्षा रूप शुद्धोपयोगके द्वारा जो केवलज्ञानादि शुद्ध गुणोंका प्रकाश हुआ है वह विनाश रहित है तथा उनके (सम्भव परिवजिदः) उत्पत्ति रहित (विणासः) विनाश है पर्यात विकार रहित आत्मतत्त्वसे विलक्षण रागादि परिणामों के अभाव होनेसे फिर उत्पत्ति नहीं हो सक्ती है इस तरह मिथ्यात्व व रागादि द्वारा भ्रमणरूप संसारकी पर्यायका जिसके नाश हो गया है। (हि) निश्चय करके ऐसा नित्यपना सिद्ध भगवानके प्रगट हो जाता है जिससे यह बात जानी जाती है.कि द्रव्याथिक नयसे सिद्ध भगवान अपने स्वरूपसे कभी छूटते नहीं हैं। ऐसा है (पुणः) तौमी (तस्सेव) उन ही सिद्ध भगवानके (ठिदिसम्भवणाससमवायः) प्रौव्य उत्पाद व्ययका समुदाय (विदि ) विद्यमान रहता है । अर्थात् शुद्ध व्यंजन पर्यायकी अपेक्षा पर्यायार्थिक नयसे सिद्ध पर्यायका जब उत्पाद हुमा है तब संसार पर्यायका नाश हुभा है तथा केवलज्ञान आदि गुणोंका आधारभूत द्रव्यपना होनेसे ध्रौव्यपना है । इससे यह सिद्ध हुआ कि यद्यपि सिद्ध भगवानके द्रव्यार्थिक
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
.] श्रीप्रवचनसारं भाषाटीका। नमसे नित्यपना है वो भी पर्यायार्थिक नयसे उत्पाद व्यय प्रौव्य तीनों हैं।
भावार्थ-प्राचार्यने इस गाथामें यह सिद्ध किया है कि शुद्धोपयोगके फलसे जो शुद्ध अवस्था होजाती है वह यद्यपि सदा बनी रहती है तथापि द्रव्य लक्षणसे गिर नहीं जाती है। द्रव्यका लक्षण सत् है, सत् है सो उत्पाद व्यय प्रौव्यरूप है तथा द्रव्य गुण पर्यायवान है। यह लक्षण हरएक द्रव्यमें हरसमय पाया जाना चाहिये अन्यथा द्रव्यका अभाव ही होनायगा। म. शुद्ध जीवमें तो हम देखते हैं कि कोई जीव मनुष्य पर्यायके त्यागसे देव पर्यायरूप होजाता है, पर आत्मापनेसे ध्रौव्य है अर्थात् मात्मा दोनों पर्यायोंमें वही है अथवा एक मनुष्य बालंव. यके नाशसे युवावयका उत्पाद करता है परन्तु मनुष्य उपेक्षा वही है, ध्रौव्य है । इसी तरह पुद्गल मी झलकता है । लकड़ीकी पर्यायसे जब चौकीकी पर्याय बनती है तब लकड़ीका व्यय, चौकीका उत्पाद तथा जितने पुद्गलके परमाणु लकड़ीमें हैं उनका धौम्पपना है। यदि यह वात न माने तो किसी भी वस्तुसे कोई काम नहीं हो सक्का । वस्तुका वस्तुत्व ही इस विलक्षणमई सत लक्षणसे रहता है। यदि मट्टी, पानी, वायु, अग्नि कूटस्थ जैसेके तैसे बने रहते बो इनसे वृक्ष, मकान, वर्तन, खिलौने, कपड़े भादि कोई भी नहीं बन सके । जिस समय मिट्टीका घड़ा बनता है उसी समय घड़की अवस्थाका उत्पाद है घड़की, बननेवाली पूर्व अवस्थाका व्यय है तथा जितने परमाणु घड़ेकी पूर्व पर्यायमें ये उतने ही परमाणु घड़ेकी वर्तमान पर्यायमें है। यदि कुछ झड़ गए होंगे तो
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
m
hemama
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। कुछ मिल भी गए होंगे । यही धौव्यपना है। यह लोक कोई विशेष वस्तु नहीं है किन्तु सत्ता रूप सर्व द्रव्योंके समुदायको लोक कहते हैं । मितने द्रव्य लोकमें हैं वे सदासे हैं सदा रहेंगे क्योंकि वे सब ही द्रव्य द्रव्य और अपने सहभावी गुणोंकी अपेक्षा अविनाशी नित्य हैं परन्तु अवस्थाएं समय १ होती हैं वे अनित्य हैं क्योंकि पिछली अवस्था बिगड़कर अगली भवस्था होती है। इसी लिये द्रव्यका लक्षण उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप है। द्रव्य का दूसरा लक्षण गुंग पर्यायवान कहा है सो भी द्रव्यमें सदा पाया जाता है । एक द्रव्य अनंत गुणोंका समुदाय है । ये गुण उस समुदायी द्रव्यमें सदा साथ साथ रहते हैं इस लिये गुणोंकी ही नित्यता या प्रौव्यता रहती है । गुणके विकारको पर्याय कहते हैं। हरएक गुण परिणमनशील है-इसलिये हरएक समयमें पुरानी पर्यायका व्यय और नवीन पर्यायका उत्पाद होता है परन्तु पर्यायोसे रहित गुण होते नहीं इसलिये द्रव्य गुण पर्यायवान होता है यह लक्षण भी द्रव्पका हर समय द्रव्यमें मिलना चाहिये। यहां एक बात और माननी योग्य है कि एक द्रव्यमें बन्धन प्राप्त दसरे द्रव्यके निमित्तसे को पर्याय होती हैं वे अशुद्ध या विभाव पर्याय कहलाती हैं और मो द्रव्यमें विभावकारक द्रव्यका निमित्त न होनेपर पर्यायें होती हैं उनको स्वभाव या सदृश पर्याय कहते हैं । जब जीव पुद्गल कर्मके बन्धनसे ग्रसित है तब इसके विभाव पर्याय होती है। परन्तु जब जीव शुद्ध हो जाता है तब केवल स्वभाव पर्यायें ही होती हैं। इस गाथामें आचार्यने पहले तो यह बताया है कि जब यह मात्मा शुद्ध हो जाता है तन.
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
3
22]
श्रीमवचनसार भापाटीका |
~~
सदा शुद्ध बना रहता है, फिर कभी अशुद्ध नहीं होता
है। इसी लिये यह कहा कि जब यह आत्मा शुद्धो
.पयोग के प्रसाद से शुद्ध होता है. अथवा जब उसके शुद्धताका उत्पाद होजाता है तब वह विनाश रहित उत्पाद होता है और जो अशुद्धताका नाश होगया है सो फिर उत्पाद रहित नाश हुआ है । इस तरह सिद्ध भगवान नित्य अविनाशी हैं तथापि उनमें उत्पाद व्यय धौव्य रूप लक्षण घटता है। इसको वृत्तिकारने इस तरह बताया है कि जिस समय सिद्ध पर्यायका उत्पाद हुआ टंसी समय संसार पर्यायका नाश हुआ और जीव द्रव्य सदा ही श्रौव्य रूप है | इस तरह सिद्ध पर्यायके जन्म समय में उत्पाद व्यय धन्य तीनों सिद्ध होते हैं । इसके सिवाय सिद्ध व्यवस्थाके रहते
'
हुए भी उत्पाद व्यय धव्य पना सिद्धों के बाधा रहित है । क्योंकि अल्पज्ञानियोंको विभाव पर्यायका ही अनुभव है स्वभाव पर्यायका अनुभव नहीं है इसलिये शुद्ध जीवादि द्रव्योंमें जो स्वभाव पर्यायें होती हैं उनका वोष कठिन मालूम होता है । आगममें अगुरु घुगुणं विकारको अर्थात् षट् गुणी हानि वृद्धिरूप परिणम नको स्वभाव पर्याय वतलाया है | इसका भाव यह समझमें आता है कि अगुरुलघु गुणमें जो द्रव्यमें सर्वाग व्यापक है समुद्रजलकी कल्लोलवत्तरंगे उठती हैं जिससे कहीं वृद्धि व कहीं हानि, होती है परन्तु, अगुरुऋघु बना रहता है। जैसे समुद्र में तरगे उठने पर भी समुद्रका जल ज्योंका त्यों बना रहता है केवल कहीं उठा कहीं बैठा हो जाता है इसी तरह अगुरुलघु गुणके अंशोंमें वृद्धि हानि होती है क्योंकि हरएक गुण द्रव्यमें सर्वांग व्यापक है इस
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
• श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। ५३ "लिये भगुरुलघु गुणफे परिणमनसे सर्वे, ही गुणोंमें परिणमन हो ,
जाता है । इस तरह शुद्ध द्रव्यमें स्वभाव पर्यायें . समझमें भाती हैं। इस स्वभाव पर्यायका विशेष कथन झहीं देखने में नहीं आया। आलाप पद्धतिमें अगुरुलघु गुणके विकारको स्वभाव पर्याय म्हा है और समुद्र में जल कल्लोतका दृष्टांत दिया है इसीको हमने . ऊपर स्पष्ट किया है । यदि इसमें कुछ त्रुटि हो व विशेष हो तो विद्वज़न प्रगट करेंगे व निर्णय करके शुद्ध करेंगे।
द्रव्यमें पर्यायोंका होना जब द्रव्यका स्वभाव है तब शुद्ध या अशुद्ध दोनों ही अवस्थाओंमें पर्यायें रहनी ही चाहिये। यदि शुद्ध अवस्थामें परिणमन न माने तब अशुद्ध अवस्थामें भी नहीं मान सके हैं । पर जब कि अशुद्ध अवस्था में परिणमन होता है तब शुद्ध अवस्थामै भी होना चाहिये, इसी अनुमानसे सिद्धोंमें भी सदा पर्यायोंका उत्पाद व्यय मानना चाहिये । परिणमन स्वभाव होने ही से सिद्धोंका ज्ञान समय समय, परम शुद्ध स्वात्मानन्दका भोग करता है । शुद्ध सिद्ध भगवानमें कोई कर्म बंध नहीं रहा है इसीसे वहां विभाव परिणाम नहीं होते, केवल शुद्ध परिणाम ही होते हैं। परिणाम समय २ अन्य अन्य हैं इसीसे उत्पाद व्यय ध्रौव्यपना तथा गुण पर्यायवानपना सिद्धोंके सिद्ध है । इस कथनसे आचार्यने यह भी बनाया है कि मुक्त अवस्थामें मात्माकी सत्ता से संसार अवस्थामें रहती है वैसे बनी रहती है। सिद्ध जीव सदा ही अपने स्वभावमें व सत्त.में रहते हैं न किसीमें मिलते हैं न सत्ताको खो बैठते हैं। . उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जैसे सुवर्ण आदि मूर्तीक
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
.४] श्रीमवचनसार भाषाटीकय . पदार्थों में उत्पाद व्यय प्रौव्य देखे जाते हैं वैसे ही अमृतीक सिन्ड स्वरूपमें भी जानना चाहिये क्योंकि सिद्ध भगवान भी पदार्थ हैं। उप्पादो य विणासो, विनदि सव्वस्स अत्यजादस्स। पजाएण दु केण वि अत्यो खलु होदि सम्भुदो॥१॥
उत्पादन विनाशो विद्यते सर्वस्याथजातस्य । पर्यायेण तु केनाप्यर्थः खलु मति सद्भूतः ॥ १८ ॥
सामान्यार्थ-किसी भी पर्यायकी अपेक्षा सर्व ही पदाथोमें उत्पाद तथा विनाश होते हैं तौमी पदार्थ निश्वयसे सत्तारूप रहता है। ____ अन्वय सहित विशेषार्थ-(केण दु पज्जाएण) किसी भी पर्यायसे भर्थात किसी भी विवक्षित अर्थ या अनन पर्यायसे अथवा स्वभाव या विमाव रूपसे (सव्वस्त मत्वनादरस) सर्व पदार्थ समूहके ( उप्पादो य विणासो ) उत्पाद और विनाश (विचदि ) होता है । ( अत्यो ) पदार्थ ( खलु ) निश्चय करके (सन्मदो होदि ) सत्तारूप, सत्तासे भिन्न है। प्रयोजन यह है कि सुवर्ण, गोरस, मिट्टी, पुरुष आदि मूर्ती पदार्थोमें जैसे उत्पाद व्यय ध्रौव्य हैं ऐसा लोकमें प्रसिद्ध है वैसे अमूर्तीक मुक्त जीवमें हैं। यद्यपि मुक्त होते हुए शुद्ध आत्माकी रुचि. उसीका ज्ञान तथा उसीका निश्चलतासे अनुभव इस रत्नत्रय मई लक्षणको रखनेवाले संसारके अंतमे होनेवाले कारण समयसार रूप भाव पर्यायका नाश होता है तैसे ही केवलज्ञानादिकी प्रगटता रूप कार्य समयसार रूप भाव पर्यायका उत्पाद होता है तो भी दोनों ही पर्यायोंमें परिणमन करनेवाले आत्म द्रव्यका प्रौव्यपना
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीभवचनसार भाषाटीका। [७५ रहता है क्योंकि आत्मा भी एक पदार्थ है । अथवा ज्ञेय पदार्थ जो ज्ञानमें झलकते हैं वे क्षण क्षणमें उत्पाद व्यय प्रौव्य रूप परिणमन करते हैं वैसे ही ज्ञान भी उनको जाननेकी अपेक्षा तीन भंगसे परिणमन करता है । अथवा षट् स्थान पतित अगुरुलघु गुणमें वृद्धि व हानिकी अपेक्षा तीन भंग जानने चाहिये ऐसा सुत्रका तात्पर्य है।
भावार्थ-यहां आचार्य ने पहली गाथाके इस भावको स्वयं स्पष्टकर दिया है कि सिद्ध भगवानमें अविनाशी पना होते हुए भी उत्पाद और विनाश किस तरह सिद्ध होते हैं । इसका बहुत" सीधा उत्तर श्री भाचार्य महाराजने दिया है कि हरएक वातु भो जो जगत में है उस हरएक पदार्थमें से उस द्रव्यकी सत्ता सदा बनी रहती है वैसे उसमें अवस्थाका उत्पाद और विनाश भी देखा जाता है वैसे ही सिद्ध भगवानमें भी जानना चाहिये। वस्तु कभी अपरिणामी तथा कूटस्थ नित्य नहीं हो सक्ती है। हरएक. द्रव्य परिणामी है क्योंकि द्रव्यत्व नामका सामान्य गुण सर्व द्रव्योंमें व्यापक है। द्रव्यत्व वह गुण है जिसके निमित्तसे द्रव्य कमी कूटस्थ न रहकर परिणमन किया करे । इस परिणमन स्वभावके ही कारण प्रत्यक्ष भगतमें अपने इंद्रियगोचर पदार्थोंमें कार्य दिखलाई पड़ते हैं। सुवर्ण परिणमनशील है इसीसे उसके कुंडल, कडे, मुद्रिका मादि बन सके हैं तथा मुद्रिकाको तोड़ व गलाकर पीटकर वाली वाले वन सके हैं । मिट्टीके वर्तन व मकान, गौके दुषसे खोवा, खोवेसे लड्डू, बी, पेड़े आदि बन सक्ते हैं। यदि. बदलनेकी शक्ति पुद्गलमें न होती तो मिट्टी, पानी, वायु, अग्नि
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६ श्रीमवचनमार भाषाटीका । द्वारा कोई फल फूल बनस्पति नहीं हो सक्ती और न बनास्पति जलानेकी लकड़ी, द्वारके कपाट, चौको, कुरसी, पलंग आदि बन सक्के । यह नगत परिणमनशील पदार्थसमूहके कारण ही नाना 'विचित्र दृश्योंको दिखला रहा है। मूलमें देखें तो इस लोकमें केवल छः द्रव्य हैं । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल । इनमें चार तो सदा उदासीन रूपसे निष्क्रिय रहते हैं कुछ भी हलन चलन करके काम नहीं करते और न प्रेरणा करते हैं। किन्तु जीव और पुद्गक क्रियावान हैं। दो ही द्रव्य इस सप्तारमें चलते फिरते हैं तथा परस्पर संयोगसे मनेक संयुक्त अवस्थाओंको भी दिखाते हैं । इनकी क्रियाएं व इसके कार्य प्रगट हैं। इनहीसे यह भारी तीनलोक बनता बिगड़ता रहता है। संसारी नीव पुद्गलोंको लेकर उनकी अनेक प्रकार रचना बनने में कारण होते हैं। तथा पुदल संहारी जीवोंके निमित्तसे अथवा अन्य पुदलों के निमिपसे अनेक प्रकार अवस्थामोंको पैदा करते हैं । संसारी आत्मा
ओंके द्रव्य कोका बंध स्वयं हो कार्माण वर्गणाओं के कर्म रूर परिणमनसे होता है यद्यपि इस परिणमनमें समारी मात्माके योग
और उपयोग कारण हैं। जगतमें कुछ काम आत्माके योग उपयोगकी प्रेरणासे होते हैं जैसे मकान, आभूषण, वर्तन, पुस्तक, वस्त्र मादिका बनाना । कुछ काम ऐसे हैं जिनको पुद्गल पासर निमित्त बन किया करते हैं जैसे पानीका माफ बनना, माफमा मेषरूप होना, मेघोंका गजरना, विनलीका रमकना, नदीमें बाढ़ आना, गावोंका वह जाना, मिट्टीका नमना, पर्वतों का टूटना, नर्फका गलना मादि। यदि परिणमनशक्ति द्रव्यमें न हो तो कोई काम नहीं होसके। जब
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीचनमा
परिणमनशक्ति काम करती मालूम
प्रत्यक्ष दिखने योग्य कायोंमें पड़ती है तब अति सूक्ष्म शुद्ध द्रव्योंमें परिणमनशक्ति न रहे तथा वे परिणमन न करें यह बात असंभव है । इसीसे मिद्धोंमें भी पर्यायका उत्पाद और विनाश मानना होगा । वृत्तिकारने तीन तरह उत्पाद व्यय बताया है। एक तो अगुरुलघु गुणक द्वारा, दूसरा परकी अपेक्षा से जैसे ज्ञानमें जैसे ज्ञेय परिणमन करके इल-कते हैं वैसे ज्ञानमें परिणमन होता है, तीसरे विद्ध अवस्थाका उत्पाद पूर्व पर्यायका व्यय और आत्म द्रव्यका धौव्यपना । इनमें स्वाश्चित स्वभाव पर्यायोंका होना गुरुलघु गुणके द्वारा कहना वास्तविक स्व अपेक्षारूप है और ऐसा परिणमन शुद्ध आत्म द्रव्यमें सदा रहता है। यहां गाथा पर्यायकी अपेक्षासे ही उत्पाद तथा व्यय. Eat at a storer कहने में उत्पाद व्यय अलग रह जाते हैं इससे किसा प्रत्यभिज्ञान के गोचर स्वभाव रूप पर्यायके द्वारा ही व्यपना है । द्रव्यार्थिक नयसे इन तीन रूप सत्ताको रखने वाला द्रव्य है । यदि पर्यायोंका पलटना सिद्धों में न मानें तो समय समय अनंत सुखका उपभोग सिन्होंके नहीं हो सकेगा। इस तरह सिद्ध जीव द्रव्यार्थिक नयसे नित्यपना होनेपर भी पर्यायकी अपेक्षा उत्पाद, व्यय और प्रौव्ययने को कहते हुए दूसरे स्थळमें दो गाथाएं पूर्ण हुई ।
भाषाका । [
6.6
'उत्थानिका- आगे कहते हैं कि जो पूर्व में कहे हुए सर्वज्ञको मानते हैं वे ही सम्यग्दृष्टी होते हैं और वे ही परम्परा मोक्षको प्राप्त करते हैं: --
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwwm
७८] श्रीप्रवचनसार भापाटीका। mmmimom तं सव्वयवरि, इई अमरासुरप्पहाणेहिं । ये सद्दहति जीपा, तेसिं दुक्खाणि खायति ॥१॥
तं सर्वार्थवरिष्टं इष्टं अमरासुरप्रधान ....
ये श्रद्दधति जीवाः तेषां दुःखानि दीयन्ते ।। समान्यार्थ-जो जीव देवकि इन्द्रोंसे पूज्यनीक ऐसे सब पदार्थो श्रेष्ठ परमात्माका शृडान रखते हैं उनके दुःख नाश, हो जाते हैं।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(ये जीवाः) जो भव्यजीव (अमरासुरप्पहाणेहिं ) स्वर्गवासी देव तथा भवनत्रिकके इन्द्रोंसे (8) माननीय (तं सन्वट्ठवरित्य) उस सर्व पदार्थोंमें श्रेष्ठ परमारमाको (सद्दहति श्रद्धान करते हैं (तेसिं) उनके ( दुक्खाणि). सब दुःख (खीयंति) नाशको प्राप्त हो जाते हैं।
भावार्थ-इस गाथाकी टीका श्री अमृतचन्द्र पाचार्यने नहीं की है परन्तु श्री जयसेनाचार्यने की है। इस गाथाका भाव यह
-शुद्धोपयोगमई साम्यभावका आश्रय करके जिन भव्यनीवोंने सर्वज्ञ पद या सिद्ध पद प्राप्त किया है वे ही हमारे उपासकोंके लिये पूज्यनीय उदाहरण रूप भादर्श हैं। मिस पूर्ण वीतरागता, पूर्ण ज्ञान, पूर्ण वीर्य तथा पूर्ण सुखका लाभ हरएक आत्मा चाहता है उसका लाभ जिसने कर लिया है वह आत्मा तथा जिस उपायसे ऐसा लाभ दिया है वह मार्ग दोनों ही धर्मेच्छु जीवके लिये भादर्श रूप हैं-शुद्धोपयोग मार्ग है और शुद्ध मात्मस्वरूप. उस मार्गका फल है इन दोनोंका यथार्थ श्रृद्धान और ज्ञान होना
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीपवचनसार मापाटीका ।
ही शुद्धोपयोग और उसके फनरूप सर्वज्ञ पदकी प्राप्तिका उपाय है। इसी लिये सुखके इच्छुक पुरुषको उचित है कि मरदंत सिद्ध:परमात्मा के स्वरूपका श्रृद्धान अच्छी तरह रक्खे और उनक पूजा भक्ति फरे, उनका ध्यान करे तथा उनके समान होनेकी भावना करे । प्रमत्त गुणस्थानोंमें पूज्य पूजक ध्येय ध्याताका विकरूप नहीं मिटता है इसलिये छठे गुणस्थानतक भक्तिका प्रवाह चलता है । यद्यपि सच्चे श्रद्धान सहित यह भक्ति शुभोपयोग है तथापि शुद्धोपयोग के लिये कारण है। क्योंकि सर्वज्ञ भगवानकी व उनकी भक्तिकी श्रृद्धा में विपरीताभिनिवेश का अभाव है अर्थात सर्वज्ञ व उनकी भक्तिकी श्रृद्धा इसी भावपर आलम्बन रखती है कि शुद्धोपयोग प्राप्त करना चाहिये । शुद्धोपयोग ही उपादेष है। क्योंकि यही वर्तमान में भी अतीन्द्रिय आनन्दका कारक है तथा भविष्य भी सिद्ध स्वभावको प्रगट करनेवाला है। इसलिये हरएक धर्मधारीको रागी द्वेषी मोही सर्व आप्तों या देवोंको त्यागकर एक मात्र सर्वज्ञ बोतगग हितोपदेशी अरहंत में तथा परम निरंजन शुद्ध परमात्मा सिद्ध भगवान में ही श्रद्धा रखकर हरएक मंगलीक कार्य में इनका पूजन भजन करना चाहिये ।
#
इस तरद निर्दोष परमात्मा के श्रद्धानसे मोक्ष होती है ऐसा कहते हुए तीसरे स्थळमें गाथा पूर्ण हुई ।
उत्थानका - मागे शिपने न किया कि इस आत्माके विकार रहित स्वसंवेदन लक्षणरूप शुद्धोपयोगके प्रभावसे सर्वज्ञपना प्राप्त होनेपर इन्द्रियोंके द्वारा उपयोग तथा भोगके बिना
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
Co
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
किस तरह ज्ञान और आनन्द दोसते हैं इसका उत्तर आचार्य देते हैं-
पक्खीणघादिकम्मो, अनंतवरवीरिओ अधिकतेजो जादो अदिदिओ सो, णाणं सोक्खं च परिणमदि॥ २० प्रक्षीणघातिकमी अनन्तवरवीर्योऽधिकतेजाः ।
जातोतोन्द्रियः स ज्ञानं सौख्यं च परिणमते ॥ २० ॥
सामान्यार्थ - यह आत्मा घातिया कर्मोंको नाशकर अनंत वीर्यकाघारी होता हुआ व अतिशय ज्ञान और दर्शनफे तेनको, रखता हुआ अती द्रय होकर ज्ञान और सुखरूप परिणमन करता है।
अन्य सहित विशेषार्थ - (सः) वह सर्वज्ञ आत्मा जिसका लक्षण पहले कहा है ( पक्खोणघादिकम्मः) घातिया कर्मोको क्षयकर अर्थात् अनंतज्ञान अनतदर्शन अनंतसुख अनंत इन चतुष्ट्यरूप परमात्मा द्रव्यकी भावनाफे लक्षणको रखनेवाले शुद्धोपयोग बलसे ज्ञानावरणादि घातिया कर्मोंको नाशकर (अनंतचावीर्यः) अंत रहित और उत्कृष्ट वीयत्रो रखता हुआ ( अधिकतेजः ) व अतिशय तेजको धारता हुआ अर्थात् केवलज्ञान केवल - दर्शनको प्राप्त हुआ (अणिदियः) अतीन्द्रिय अर्थात इंद्रियोंके विषयोंके व्यापारसे रहित (जादो) होगया (च) तथा ऐसा होकर ( णाणं) केवलज्ञानको (सोक्खं) और अनंत सुखको (परिणमदि) परिणमन करता है । इस व्याख्यानसे यह कहा गया कि आत्मा
यद्यपि निश्वयसे अनंतज्ञान और अनंत सुखके स्वभावको रखनेवाला है तो भी व्यवहारसे संसारकी अवस्था में पड़ा हुआ जबतक
·
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीuturere भाषीका |
[ ८१
इसका केवलज्ञान और अनंत सुख स्वभाव कर्मोंसे ढका हुआ है तनतक पांच इंद्रियोंके आधारसे कुछेक भल्पज्ञान व कुछेक भग सुखमें परिणमन करता है। फिर जब कभी विकल्प रहित स्वसंवेदन या निश्चल आत्मानुभव के बलसे कर्मों का अभाव होता है तब क्षयो-' पशमज्ञानके अभाव होनेपर इन्द्रियोंके व्यापार नहीं होते हैं तब अपने ही अतीन्द्रिय ज्ञान और सुखेको अनुभव करता है क्योंकि स्वभाव प्रगट होने परकी अपेक्षा नहीं है ऐसा अभिप्राय है ।
भावार्थ - इस गाथा का भाव यह है कि सर्वज्ञपना और अनंत निर्विकार निराकुल सुखपना इस आत्माका निज स्वभाव है । संसारी आत्माके कर्मोंका बंधन अनादिकालसे हो रहा है. 1
इससे स्वाभाविक ज्ञान और सुख प्रगट नहीं है । जितना ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम है उतना ही ज्ञान प्रगट है । सर्व संसारी जीवों में जबतक केवलज्ञान न हो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तो प्रगट रहते ही हैं, परन्तु ये ज्ञान परोक्ष हैं - इन्द्रिय और मनकी सहायता विना नहीं होते हैं। जितना मतिज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम होता है उतना मतिज्ञान व जितना श्रुतज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम होता है उतना श्रुतज्ञान प्रगट रहता है ।' आत्माका साक्षात् प्रत्यक्ष केवलज्ञान होनेपर होता है वह केवलज्ञान सम्पूर्ण ज्ञानावरणीय के हट जानेसे ही प्रगट होता है तब पराधीन परके आश्नयसे जानने की जरूरत नहीं रहती है। मानाका ज्ञान स्वभाव है तत्र आत्मा लोक अलोक सर्वको उनके अनत द्रव्य और उनके अनंत गुण और अनंत पर्याय सहित एक ही समय में विना क्रमके जान लेता है | और यह ज्ञान कभी मिटता नहीं है
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
ANNAM
८२-7. श्रीप्रक्चनसार भापाटीका । . अनंतकालता रहता है। क्योंकि यह ज्ञान आत्माका स्वभाव है। इसी तरह मनंत अतीन्द्रिय निर्मल मुख भी · मात्माका स्वभाव है । इसको चारों ही घातिया कोने रोक रखा है । इन कमौके उदयके कारण प्रत्यक्ष निर्मल सुखका अनुभव नहीं होता है। इन चार कौमसे सर्वसे प्रवल मोहनीय कर्म है । इसमें भी मिथ्यात्य प्रकृति और अनंतानुबंधी कवाय सबसे प्रक्ल हैं। जनतक इनका उपशम या क्षय नहीं होता है तबतक सुख गुणका विपरीत परिणमन होता है अर्थात् इंद्रिय द्वारा सुख होता है ऐसा समझता है, पराधीन हल्पित सुखने सुख मानता है और निरंतर ज्यों ? इस इंद्रिय जनित सूखका भोग पाता है यो २ अधिक २. तृष्णाकी वृद्धि करता है उस तृष्णास मातुर होकर जैसे मृग धनमें भ्रमसे घासको पानी समय पीनेको बौड़ता है और अपनी प्यास बुझानेकी अपेक्षा अधिक बढ़ा लेना है
से अज्ञानी मोही नीव भ्रमसे इन्द्रिय सुखको मुख भानकर बार बार इन्द्रियके पदार्श के भोगप्रवर्तता है और अधिक २' इन्द्रिय चाहकी दाहमें जलकर दुःखी होता है। परन्तु निप्स किसी मात्माको दर्शनमोह और अनन्तानुबन्धी कषायका उपशम, क्षयोपशम या क्षय होकर सम्यक्त पैदा हो जाता है उसी आत्माको सम्यक्तके होते हो मात्माका अनुभव अर्थात् स्वाद माता है तत्र ही सच्चे सुखका परोक्ष अनुभव होता है, यद्यपि यह अनुभव प्रत्यक्ष केवलज्ञानकी प्रगटवा न होनेसे परोक्ष है तथापि इन्द्रिय और मनका व्यापार बन्द होनेसे तथा आत्माकी सन्मुखता आत्माकी तरफ रहने से स्वसंवेदन प्रत्यक्ष कहलाता है। सम्यक्त
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भापाटीकर। . [४३. होते ही सच्चे मुखका स्वाद थाने लगता है। फिर नितना जितना ज्ञान बढ़ता जाता है तथा कषाय मंद होता जाता है उतना उतना अधिक निर्मल और अधिक काळतक सच्चे मुखका स्वाद
आता है। केवलज्ञान होनेपर पूर्ण शुद्ध प्रत्यक्ष और अनंत सच्चे सुखका लाभ हो जाता है क्योंकि यह स्वाभाविक अतीन्द्रिय सुख. है, जो कर्मोके भावरणसे ढका था अब भावरण मिट गया इससे पूर्णपने प्रगट हो गया। अंतरायके अमावसे अनंत बल मात्मामें पैदा हो जाता है इसी कारण अनंतज्ञान व अनंत सुख सदाकाक अपनी पूर्ण शक्तिको लिये हुए विराजमान रहते हैं । इस तरह माचार्यने शिष्यकी शंका निवारण करते हुए बता दिया कि नित इन्द्रियमनित ज्ञान व सुखसे संसारी रागी जीव अपनेको ज्ञानी
और सुखी मान रहे हैं वह ज्ञान व सुख न वास्तविक निर्मळ स्पष्ट ज्ञान है न सच्चा सुख है। सच्चा स्वाभाविक स्पष्ट ज्ञान और सुख तो आईत और सिद्ध परमात्माको हो होता है जिप्तको उत्पत्तिका कारण शुद्धोपयोग या साम्यभाव है जिसके आश्रय करनेकी सूचना आचार्यने पहले ही की थी इसलिये सर्व रागडेप मोहसे उपयोग हटाकर शुद्धोपयोगकी ही भावना करनी चाहिये कि मेरा स्वभाव निश्चयसे अनन्तज्ञानादि चतुष्टय रूप है ऐसा तात्पर्य है।
___ • उत्थानिका-आगे कहते हैं कि अतींद्रियपना होनेसे ही केवलज्ञानीके शरीरके माधारसे उत्पन्न होनेवाला भोमनादिका मुख तथा क्षुधा आदिका दुःख नहीं होता है।
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
४]. श्रीमवचनसार भाषाटीका । सोक्खं वापुण दुक्खं, केवलणाणिस्स णथि देहगदें। जम्हा अदिदियतं, जादे तम्हा दुतं णेयं ।। २० ॥
सौख्यं वा पुनर्दुःख केवलशानिनो नास्ति देहगतम्। यस्मादतीन्द्रियत्वं जातं तस्मात्तु तज्झेयम् ॥ २०॥
सामान्यार्थ-केवलज्ञानीके शरीर सम्बन्धी सुख तथा दुःख नहीं होते हैं क्योंकि उनके अतीन्द्रियपना प्रगट होगया है इसलिये उनके तो अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रिय सुख ही जानने चाहिये। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(पुण) तथा (केवल. गाणिस्स ) केवलज्ञानीके (देहगर्द) देहसे होनेवाला अर्थात् शरीरके माघारमें रहनेवाली जिह्वा इन्द्रिय आदिके द्वारा पैदा होनेवाला (सोक्ख ) सुख (वा दुक्खं) और दुःख अर्थात् मसाता वेदनीय पादिक उदयसे पैदा होनेवाला क्षुषा आदिका दुःख (णत्थि) नहीं होता है । ( जम्हा) क्योंकि (अदिदियत्तं ) अतीन्द्रियपना अर्थात् मोहनीय आदि घातिया कौके मभाव होनेपर पांचों इंद्रि योंके विषय सुखके लिये व्यापारका अभावपना ऐसा अतीन्द्रियपना (जादं ) प्रगट होगया है (तम्हा) इसलिये ( तंदु) वह अर्थात अतीन्द्रियपना होनेके कारणसे अतीन्द्रिय ज्ञान और अतीन्द्रिय सुख तो (णेयं ) मानना चाहिये । भाव यह है कि जैसे लोहेके पिंडकी संगतिको न पाकर अग्नि हथौड़की चोट नहीं सहती है तसे यह आत्मा भी लोहपिंडके समान इन्द्रिय ग्रामोंका अभाव होनेसे अर्थात् इद्रियजनित ज्ञानके बन्द होनेसे सांसारिक सुख, तथा दुःखको अनुभव नहीं करता है।
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
ANN
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [८५ यहां किसीने कहा कि केवलज्ञानीके भोजन है क्योंकि भौदारिक शरीरकी सत्ता है तथा असाता वेदनीय कर्मके उदयका सदभाव है, जैसे हमलोगोंके भोजन होता है इसका खंडन करते हैं कि श्री फेवली भगवानके औदारिक शरीर नहीं है किन्तु परम औदारिक है जैसा कहा है
शुद्धस्फटिकसंकाशं तेजो मूर्तिमयं वपुः । जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातु विवर्जितम् ॥
अर्थात् दोष रहित केवलज्ञानीके शुद्ध स्फटिक मणिके समान परमतेजस्वी तथा सात धातुसे रहित शरीर होता है। और जो यह कहा है कि असाता वेदनीयके उदयके सद्भावसे केवलीके भूख लगती है और वे भोजन करते हैं सो भी ठीक नहीं है श्योंकि जैसे धान्य जौ आदिका बीन जल सहकारी कारण सहित होनेपर ही अंकुर आदि कार्यको उत्पन्न करता है तैसे ही असाता वेदनीय कर्म मोहनीय कर्मरूप सहकारी कारणके साथ ही क्षुधा आदि कार्यको उत्पन्न करता है क्योंकि कहा है “ मोहत्सवलेण घाददे जीवं" कि वेदनीय कर्म मोहके चलको पाकर जीवको घात करता है। यदि मोहनीय कर्मक अभाव होने पर भी असाता वेदनीय कर्म क्षुधा आदि परिषहको उत्पन्न करदे तो बध रोग आदि परीषह भी उत्पन्न हो जावे सो ऐसा होता नहीं है क्योंकि कहा है " भुक्त्युपसर्गामावात " कि केवलीके भोजन व उपसर्ग नहीं होते । और भी दोष यह आता है कि यदि केवलीको क्षुधाकी बाधा है तब क्षुधाके कारण शक्ति
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६.] श्रीप्रवचनसार भापाटीका । क्षीण होनेसे अनन्तवीय्यं नहीं बनेगा वैसे ही क्षुधा करके जो दुःखी होगा उसके अनन्त सुख भी नहीं हो सकेगा तथा रसना इन्द्रिय द्वारा ज्ञानमें परिणमन करते हुए मतिज्ञानीके केवलज्ञानका होना भी सम्भव न होगा । अथवा और भी हेतु है । भासाता 'वेदनीयके उदयकी अपेक्षा केवलीके माता वेदनीयका उदय अनन्त गुणा है । इस कारणसे जैसे शक्करके ढेरमें नीमका कण अपना. असर नहीं दिखलाता है वैसे अनन्तगुण साता वेदनीयके उदयमें असातावेदनीयका असर नहीं प्रगट होता । तैसे ही और भी बाधक हेतु हैं। जैसे प्रमत्तसंयमी आदि साधुओंके वेदका उदय रहते हुए भी मन्द मोहके उदयसे अखंड ब्रह्मचारियोंके स्त्री परीषहकी बाधा नहीं होती है तथा नव अवेयक भादिके अहमिन्द्रोंके वेदका उदय होते हुए भी मन्द मोहके उदयसे स्त्री सेवन सम्बन्धी बाधा नहीं होती है वैसे ही श्री केवली भरहंतके असाता वेदनीयका उदय होते हुए भी सम्पूर्ण मोहका अभाव होनेसे क्षुषाकी वाधा नहीं होसकी है । यदि ऐसा आप कहें कि मिथ्याष्टिसे लेकर सयोग केवली पर्यन्त तेरह गुणस्थानवी जीव आहारक होते हैं ऐसा माहारक मार्गणाके सम्बन्धमें मागममें कहा हुआ है इस कारणसे केवलियोंके माहार है ऐसा मानना चाहिये सो यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि इस गाथाके अनुसार अाहर का प्रकारका होता है। - ".. ममकम्महारो कृपलाहारा य लेप्पमाहारो।
ओजमणो वि.य करतो आहारो छब्बिडो गेयो ॥१०॥
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । [20
भाव यह है कि आहार छः प्रकारका होता है जैसे नो कर्मा आहार, कमका आहार, ग्रासरूप कबलाहार, लेपका आहार, ओज आहार, तथा मानसिक आहार । आहार उनं परं - माणुओं के ग्रहणको कहते हैं जिनसे शरीरकी स्थिति रहे आहारक वर्गणाका शरीरमें प्रवेश सो नोकपका आहार है । जिन परमाणुओंके समूहसे देवोंका, नारकियोंका, मनुष्य या तिर्थचोंका वैक्रियिक, औदारिक शरीर और मुनियोंके आहारक शरीर बनता है उसको आहारक वर्गणा कहते हैं । कार्माण वर्गणाके ग्रहणको कम्मे आहार कहते हैं । इन्हीं वर्गणाओंसे कर्मो का सूक्ष्म शरीर बनता है । अन्नपानी आदि पदार्थोंको मुखद्वारा चबाकर व मुंह चलाकर खाना पीना सो कवळाहार है । यह साधारण मनुष्योंके व द्वेन्द्रियसे ले पचेन्द्रिय तक्के . पशुओंके होता है । स्पर्शसे शरीर पुष्टिकारक पदार्थोंको ग्रहण करना सो लेप आहार है । यह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति कायधारी एकेन्द्रिय जीवोंके होता है। अंडोंको माता खेती है उससे जो गर्मी पहुंचाकर अंड़ोंको बड़ा करती है सो ओज आहार है । भवनवासी, व्यंतर, नोतिषी तथा कल्पवासी इन चार प्रकारके देवोंमें मानसिक आहार होता है । इनके चेक्रियिक सूक्ष्म शरीर होता है जिसमें हाड़ मांस रुषिर नहीं होता है इसलिये इनके कवलाहार नहीं है यह मांस व अन्न नहीं खाते हैं। देवोंके जब कभी भूखकी बाधा होती हैं उनके कंठमेंसे ही अमृतमई रस झड़नाता है उसीसे ही उनकी भूखी बाधा मिट जाती है । नारकियोंके कर्मो का भोगना यही आहार है तथा वे नरककी पृथ्वी
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
naamanna
८८] श्रीभवचनसार भाषाटीका । की मिट्टी खाने हैं परन्तु उसमे कम्की मुख मिटती नहीं है। इन छ: प्रकार के माहारों से केवी अरहंत भगवान के मात्र नोकर्मका बाहार है हमी ही अपेक्षा केवली अरइंतों के माहारकपना जानना चाहिये, कवलाहाकी अपेमासे , नहीं । सुक्ष्म इंद्रियों के अगोचर, रसबाले सुगधित अन्य मनुष्यों के लिये मसंभव, कवलाहारके विना भी कुछ कम एक कोह पूर्व तक शरीरकी स्थितिके कारण, सात धातुओंमे रहित परामौतारिक शरीर रूप नोकमके आहारके योग्य आहारक वर्गणनों गद्गल लाभान्ताय सर्मके पूर्ण क्षय होनानेसे वेवली महारानके घर योग शक्तिके आकर्षणसे प्रति समय समय भाते हैं। यही चलीके आहार है यह वात नवकेवललब्धिके व्याख्यान अने.. पर कही गई है इस लिये यह जाना जाता है कि वेव महतोके नोकम्मके आहा. रकी अपेक्षासे ही माहारपना है यदि आप कहो कि माहारपना अनाहारकपना नोकर्मके Bane, अपेक्षा कहना तथा कवलाहारकी अपेक्षा न कहना यह माहौ र पना है, यदि सिद्धांतमें है तो कैसे माल्बम पड़े तो इसका -माधान यह है कि श्री उमास्वामी महाराज तत्वार्थसुदूरे अ० में यह वाक्य है " एकं दौत्रीन्दानाहरकः" ३०॥
इस सुत्रका भावरूप अर्थ जाता है। एक शरीरको छोड़कर दूसरे भवमें नानेके कालमे प्रि गतिके भीतर स्थूल शरीरका अभाव होते हुए नर्व, यूझ शरार धारण करनेके लिये तीन शरीर और छ: पर्णप्ति योग्य पद्गल , पिंडकी ग्रहण होना नोकर्म माहार नाता है ! ऐसा नोकर्म
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
mmAANDHNA
'श्रीमवचनसार भाषाका! [८९ माहार विग्रह गतिके भीतर काँका ग्रहण या कार्माण वर्गणाका माहार होते हुए भी एक, दो या तीन समय तक नहीं होता है। इसलिये ऐमा माना जाता है कि भागममें नोकर्म माहा• रकी अपेक्षासे माहारक अनाहारकपना कहा है। यदि कहोगे कि कवलाहारकी अपेक्षासे है लोग्रामरूप भोजनके कालको छोड़कर सदा ही अनाहारकपना ही रहेगा तब तीन समय मनाहारक हैं • ऐसा नियम न रहेगा । यदि कहोगे कि वर्तमानके मनुष्योंकी तरह केवलियोंके कवलाहार है क्योकि केवली भी मनुष्य हैं सो कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानोंगे तो वर्तमानके मनुष्योंकी तरह पूर्वकालके पुरुपोंके सर्वज्ञपना न रहेगा तथा राम रावण आदिको विशेष सामर्थ्य थी सो बात नहीं रहेगी सो यह बात नहीं बन सक्ती । और भी समझना चाहिये कि मल्पज्ञानी छमस्थ प्रमत्तसंयतनामा छठे गुणस्थानघारी साधु भी जिनके सात धातु रहित परम औदारिक शरीर नहीं है इस वचनसे कि " छटोति पढम मण्णा" प्रथम महारकी संज्ञा अर्थात् भोजन करनेकी चाह छठे गुणस्थान तक ही है यद्यपि वे आाहारको लेते हैं तथापि ज्ञान और संयम तथा ध्यानकी सिद्धि के अर्थ लेते हैं देहके मोहके लिये नहीं लेते हैं । कहा भी है
कायस्थि व्यर्थमाहारः कायो ज्ञानार्थमिप्यते, जानं कर्मविनाशाय तन्मायो परमं सुखं ॥१॥ ण चलाउ साहणटुंण सरीरस्स य चपट तेजहूँ । णाणटं संजमदं झाण8 चेव भुंगति ॥ २ ॥
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
swww
AAAAMmmMwA
.१०] : श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
'भाव यह है कि मुनियोंके माहार शरीरकी स्थिति के लिये होता है, शरीरको ज्ञानके लिये रखते हैं, आत्मज्ञान कर्म नाशके लिये सेवन करते हैं क्योंकि कौक नाशसे परम सुख होता है। मुनि शरीरके बल, भाउ, चेष्ठा तथा तेजके लिये भोनन नहीं करते हैं किन्तु ज्ञान, संयम तथा ध्यानके लिये करते हैं। - उन भगवान केवलीके तो ज्ञान, संयम तथा ध्यान आदि गुण स्वभावसे ही पाए जाते हैं आहारके वलसे नहीं। उनको संयमादिके लिये माहारकी आवश्यका तो है नहीं क्योंकि कर्मोके आवरणके न होनेसे संपमादि गुण तो प्रगट हो रहे हैं फिर यदि कहो कि देहके ममत्वसे आहार करते हैं तो वे फेवली छद्मस्थ मुनियोंसे भी हीन होजायगे।
- यदि कहोगे कि उनके अतिशयकी विशेषतासे प्रगटरूपसे भोजनको भुक्ति नहीं है गुप्त है तो परमौदारिक शरीर होनेसे मुक्ति ही नहीं है ऐसा अतिशय क्यों नहीं होता है। क्योंकि गुप्त भोजनमें मायाचारका स्थान होता है, दीनता की वृत्ति माती है तथा दूसरे भी पिंड शुद्धिमें कहे हुए बहुतसे दोष होते हैं जिनको दूसरे ग्रंथसे व तर्कशास्त्रसे जानना चाहिये। अध्यात्म होनेसे यहां अधिक नहीं कहा ४
यहां यह भावार्थ है कि ऐसा ही वस्तुका स्वरूप जानना चाहिये । इसमें हर नहीं करना चाहिये । खोटा आग्रह या हल करनेसे गोगटेन्ली उत्पत्ति होती है जिससे निर्विकार चिदानंदमई
स्वभावरूप परमात्माकी भावनाका घात होता है।
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका। [९१ भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने बताया है कि मरहतकि मतिज्ञानादि चार ज्ञानका अभाव होनेसे तथा केवलज्ञानका प्रकाश होनेसे उपयोगकी प्राप्ति निन आत्मामई है। उपयोग पांच इंद्रिय तथा मनके द्वारा परिणमन नहीं करता है। परोक्षज्ञानका अभाव होगया है । प्रत्यक्ष ज्ञान प्रगट होगया है । इसलिये छमस्थ मत्प ज्ञानियों के जो इंद्रियों के द्वारा पदार्थ ग्रहण होता था व मनमें सकल्प विकल्प होते थे सो सब मिट गए हैं । इसलिये इंद्रियोंके द्वारा पदार्थ भोग नहीं है न इंद्रियोंकी बाधा है न उनके विषयकी चाहका दुःख है न इंद्रियोंके द्वारा सुख है । क्योंकि देहके ममत्वसे सर्वथा रहित होनेसे अरहंतोंकी सन्मुखता ही उस ओर नहीं है इसलिये शरीर सम्बन्धी दुःख या सुख केवली के अनुभवमें नहीं आता है । केवली मन्द सुगन्ध पवन व समवशरणादि लक्ष्मी
आदि किसी भी पदार्थका भोग नहीं करते इसलिये इन पदार्थोक द्वारा केवलज्ञानीको कोई सुख नहीं है न शरीरकी दशाकी अपेक्षासे कभी कोई दुःस्व होसक्ता है, न उनको भूख प्यासकी बाधा होती, न रोगकी माकुलता होती, न कोई थकन होती, न
खेद होता-देह सम्बन्धी सुख दुःखका वेदन केवीके नहीं है इसलिये कभी क्षुषाके भावका विकार नहीं पैदा होता है न मैं निर्बल हूं यह भाव होता है । उनका भाव सदा सन्तोषी परमानंद मई स्वात्माभिमुखी होता है। केवली भगवानका शरीर दार्घकालतक विना नासरूप भोजन किये भी पुष्ट रहता है क्योंकि उनके लेप आहारकी तरह नोकर्म आहार है जिससे पौष्टिक वर्गणाएं शरीरमें मिलती रहती हैं । केवलीका शरीर कभी निर्बल नहीं
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
९२ ]
श्रीnaarera भापाटीका |
• तरह
होता वहां लामांतरायका सर्वथा क्षय हैं तथा सातावेदनीयका परम उदय है ! श्वेताम्बर आम्नायमें जो केवलीके क्षुधाकी बाधा बताकर भोजन करना बताया है उसका वृत्तिकारने बहुत अच्छी समाधान कर दिया है । केवलज्ञानीके अतीन्द्रिय स्वाभाविक ज्ञान तथा अतीन्द्रिय स्वाभाविक व्यानन्द रहता है, - कर्मोदयकी प्रधानता मिटकर स्वाधीनता प्राप्त हो जाती है, - तात्पर्य यह है कि परमज्ञान स्वरूप तथा परमानंदमई केवलोकी • अवस्थाको उपादेय मानकर उसकी प्राप्तिके लिये शुद्धोपयोगकी -भावना करनी योग्य है ।
इस तरह अनन्तज्ञान और सुखकी स्थापना करते हुए प्रथम -गाथा तथा केवलीके भोजनका निराकरण करते हुए दूसरी गाथा इस तरह दो गाथाएं पूर्ण हुईं ।
इति सात गाथाओंके द्वारा चार स्थलोंसे सामान्यसे सर्वज्ञ 'सिद्धि नामका दूसरा अंतर अधिकार समाप्त हुआ !
उत्थानिक सूची सहित आगे ज्ञान प्रपंच नामके - अंतर अधिकारमें ३३ तेतीस गाथाएं हैं उनमें आठ स्थल हैं 'जिनमें आदिमें केवलज्ञान सर्व प्रत्यक्ष होता है ऐसा कहते हुए 'परिणमदो खलु' इत्यादि गाथाएं दो हैं फिर आत्मा और ज्ञानके निश्चयसे असंख्यात प्रदेश होनेपर भी व्यवहारसे सवव्यापी बना है इत्यादि कथनी मुख्यतासे "आदा णाणपमाणं" इत्यादि गाथाएं पांच हैं। उसके पीछे ज्ञान और ज्ञेय पदार्थोंका एक - दूसरे में गमन के निषेधकी मुख्यतासे "णाणी णाणसहावो” इत्यादि -गाथाएं पांच हैं | आगे निश्चय और व्यवहार केवली के प्रतिपादन आदि
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार पापाटीका। [९३. मुख्यता करके " जोहि सुदेण" इत्यादि सूत्र चार हैं। मागे वर्तमानकालके ज्ञानमें तीनकालकी पर्यायोंके जानपनेको कहने आदिकी मुख्यतासे "तकालिगेव सव्वे" इत्यादि सुत्र पांच हैं। आगे केवलज्ञान बन्धका कारण नहीं है न रागादि विकल्प रहित छमस्थका ज्ञान बन्धका कारण है किन्तु रागादिक बन्धके कारण हैं इत्यादि निरूपणकी मुख्यतासे " परिगमदिणेय " इत्यादि सूत्र पांच हैं । भागे केवलज्ञान सर्वज्ञान है इसीको सर्वज्ञपना करके कहते हैं इत्यादि व्याख्यानकी मुख्यतासे "तकालियमिवरं " इत्यादि गाथाएं पांच हैं । आगे ज्ञान प्रपंचको संकोचा करनेकी मुख्यतासे पहली गाथा है तथा नमस्कारको कहते हुए दूसरी है। इस तरह "ण वि परिणमदि" इत्यादि गाथाएं दो हैं। इस तरह ज्ञान प्रपंच नामके तीसरे अन्तर अधिकारमें तेतीसा गाथाओंसे माठ स्थलोंसे समुदाय पातनिका पूर्ण हुई। ____ आगे कहते हैं कि केवळज्ञानी मतीन्द्रिय ज्ञानमें परिणमन करते हैं इस कारणसे उनको सर्व पदार्थ प्रत्यक्ष होते हैंपरिणमदो खलु णाणं, पञ्चक्खा सव्वळपजाया। सोणेव ते विजाणदि ओग्गहपुव्वाहि किरियाहिं॥२१ परिणममानस्य खलु ज्ञान प्रत्यक्षाः सर्वद्रव्यपर्यायाः । स नैव तान् विजानात्यवग्रहपूर्वाभिः क्रियाभिः ।। २२ ॥
सामान्यार्थ-वास्तवमें केवलज्ञानमें परिणमन करनेवाले केवली भगवानके सर्व द्रव्य और उनकी सर्व पर्यायें प्रत्यक्ष प्रगट हो जाती हैं। वह केवली उन द्रव्यपर्यायोंको अवग्रहपूर्वक
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४] श्रीप्रवचनसार भापाटीका । क्रियाओंके द्वारा क्रमसे नहीं जानते हैं किन्तु एक साथ एक समयमें सबको जान लेते हैं। ___ अन्वय सहित विशेषा:-(खलु) वास्तवमें (गाणे) अनन्त पदार्थों को जानने में समर्थ केवलज्ञानको (परिणमदो) परिगमन करते हुए केवळी अरहंत भगवानके (सम्वदनपजाया) सर्व द्रव्य और उनकी तीनकालवर्ती सर्व पर्याय (पच्चरखा) प्रत्यक्ष हो माती हैं। (सः) वह केवली भगवान (ते) उन सर्व द्रव्य पर्यायोंको ( ओमाहपुजाई किरिया) अवग्रह पूर्वक क्रियाओंके द्वारा (णेव विभाणदि) नहीं जानते हैं किन्तु युगपत जानते हैं ऐसा अर्थ है। इसका विस्तार यह है कि आदि और अन्त रहित, बिना किसी उपादान कारणके सत्ता रखनेवाले तथा चैतन्य और आनन्दमई स्वभावके धारी अपने शुद्ध आत्माको उपादेय अर्थात् गृहण योग्य समझकर केवलज्ञानकी उत्पत्तिका वनभूत जिसको आगमकी भाषासे शुक्लब्यान कहते हैं ऐसे रागादि विकझोंके जालसे रहित स्वसंवेदनज्ञानके द्वारा जब यह आत्मा परिणमन करता है तब स्वसंवेदन ज्ञानके फल स्वरूप केवलज्ञानमई ज्ञानाकारमें परिणमन करनेवाले केवली भगवानके उसी ही क्षणमें जा केवलज्ञान पैदा होता है तब क्रम क्रमसे जाननेवाले मतिज्ञा'नादि क्षयोपशमिक ज्ञानके अभावसे विना कमके एक माथ सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, माव सहित सर्व द्रव्य, गुण और पर्याय प्रत्यक्ष प्रतिभासमान होनाते हैं ऐसा अभिप्राय है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने केवलज्ञानकी महिमा बताई हैं। अभिपाय यह है कि महनज्ञान आत्माका स्वभाव है।
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
mmandoanumanimuanwarimaandamananwwww
श्रीमचनसार भाषाटीका। [९५ . मात्मा गुणी हे ज्ञान गुण है। इनका तादात्म्य सम्बन्ध है जो कभी मिट नहीं सका । ज्ञान उसे कहते हैं जो सर्व ज्ञेयोंको जान सके। नितने द्रव्य हैं उन सबमें प्रमेयत्वनामा साधारण गुण व्यापक है । मिस गुणके निमित्तसे पदार्थ किसी न किसीके ज्ञानका विषय हो वह प्रमेयत्व गुण है। मात्माका निरावरण शुद्ध ज्ञान तब ही पूर्ण और शुद्ध कहा मासक्ता है जब यह सर्व जाननेयोग्य विषयको जान सके । इसी लिये केवली सर्वज्ञ भगवान के सर्व पदार्थ, गुण, पर्याय एक साथ झलकते रहते हैं । जब तक ज्ञान गुणमें ज्ञानावरणीय कर्मका बावरण थोड़ा या बहुत रहता है तबतक ज्ञान सब पदाथोको एक साथ नहीं जान सका है। थोड़े थोड़े पदार्थीको नानकर फिर उनको छोड़ दूसरोंको जानता है ऐसा क्रमवर्ती क्षयोपशमिक ज्ञान है । मतिज्ञानमें अवग्रह, ईहा, भवाय और धारणा ये चार ज्ञानको श्रेणियां क्रमसे होती हैं तब कहीं इंद्रिय या मनमें प्राप्त पदार्थका कुछ बोध होता है ऐसा ज्ञान केवली भगवानके नहीं है । क्ष विज्ञानके होते ही क्षयोपशमिक ज्ञान चारों नष्ट होनाते हैं। वास्तवमें ज्ञान एक ही है। मावरण कम अधिकको अपेक्षासे ज्ञानके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अदविज्ञान तथा मनःपर्ययज्ञान ऐसे चार भेद हैं। जब आवरणका परदा मिलकुक हट गया तब ज्ञानके भेद भी मिट गए-जैसा स्वभाव मात्माका था चेपा ज्ञान स्वभाव प्रगट होगया। चार ज्ञानोंकी अपेक्षासे इस स्वाभाविक ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं । गितसमय क्षीणमोह गुणस्थानमें विटकर संतर्मुह तक आत्मानुभव किया जाता है उसी समय भात्मानुभवरूप
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
९६] श्रीप्रवचनसार भाषार्टीका। द्वितीय शुक्लध्यानके बलसे जैसे मेघपटल हटकर सूर्य प्रगट हो नाता है वैसे सर्व ज्ञानावरण हटकर ज्ञान सूर्य प्रगट होनाता है। तब ही सर्व चर मचरमई लोक हायपर रखे हुए आमलेके समान प्रकाशमान होनाता है । यही ज्ञान अनन्तकाल तक बना रहता है, क्योंकि कर्म भावरणका कारण मोह है सो केवली भगवानके बिलकुल नष्ट होगया है। केवली भगवान सर्वको सदा जानते रहते हैं इसी लिये क्रमवर्ती जाननेवालोंके जैसे आगेके जानने के लिये कामना होती है सो कामना फेवलीके नहीं होती है। जैसे छद्मस्थोंमें किसी बात के नाननेकी चाह होती है और वह चाह जब तक मिट नहीं जाती तबतक बड़ी आकुलता रहती है। - क्रमज्ञान होने हीसे केवली भगवान के किसी ज्ञेयके जाननेकी चिंता या आकुलता नहीं होती है । केवलज्ञानकी महिमा. वचन अगोचर है । ऐसा-निराकुलताका कारण केवलज्ञान मिनके पैदा होजाता है वे धन्य हैं-चे ही परमात्मा है। उन्होंने ही भवसागरसे पार पा लिया है। उनहीने भ्रम और विकल्पके मेघोंको दर भगा दिया है । वे ही आवागमनके चक्रसे बाहर होजाते हैं। ऐसा केवलज्ञान जिस शुद्धोपयोगकी भावनासे प्राप्त होता है उस ही शुद्धोपयोगकी निरंतर भावना करनी चाहिये ।
आगेकी उत्थानिका-आगे कहते हैं कि केवलज्ञानीको सर्व प्रत्यक्ष होता है यह बात अन्वयरूपसे पूर्व सुत्रमें कही गई। अब केवलज्ञानीको कोई बात भी परोक्ष नहीं है इसी पातको व्यतिरेकसे दृढ़ करते हैं
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीप्रवचनसार भाषाटीका। [९७ पत्थि परोक्खं किंचिवि, समंत सव्वक्खगुण
समिंडरसा अक्खातीदस्स सदा, सयमेव हि णाणजादस्स ॥२२
नास्ति परोक्षं किञ्चिदपि समन्ततः सर्वाक्षगुणसमृद्धस्य । अक्षातीतस्य सदा स्वयमेव हि शानजातस्य ॥ २२ ॥
सामान्यार्थ-सर्व मात्माके प्रदेशोंमें सर्व इन्द्रियोंके गुणसे परिपूर्ण और अतीन्द्रिय तथा स्वयमेव ही केवलज्ञानको प्राप्त होनेवाले भगवान के सदा ही कोई भी विषय परोक्ष नहीं है।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(समंत) समस्तपने अर्थात् सर्व आत्माके प्रदेशोंके द्वारा ( सव्वक्सगुणासमिद्धम्स ) सर्व इन्द्रियों के गुणोंसे परिपूर्ण अर्थात स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण शक्के जाननरूप जो इन्द्रियों के विषय उन सर्वक जाननेवी शक्ति सर्व आमाके प्रदेशों में जिसके प्राप्त होगई है ऐसे तथा (अक्खातीवस्ती अतीन्द्रिय स्वरूप अर्थात इंद्रियों के व्यापारसे रहित अथवा ज्ञान करके व्याप्त है आत्मा जिसका ऐसे निर्भल ज्ञानले परिपूर्ण और (सयमेव हि) स्वयमेव ही (गाणनादस्त) केवलज्ञानमे परिणमन करनेवाले अहंत भगवानके (किंचिवि) कुछ भी (परोक्ख) परोक्ष (णस्यि ) नहीं है। भाव यह है कि परमात्मा अतीन्द्रिय स्वभाव हैं। परमात्माके स्वभावसे विपरीत क्रम क्रमसे ज्ञान प्रवृत्ति करनेवाली इंद्रियह उनके द्वारा माननेसे जो उल्लंघन कर गए हैं अर्थात जिस परमात्गाके इन्द्रियों के द्वारा पराधीन ज्ञान नहीं है ऐसे परमात्मा तीन जगत और तीन कालवनी समस्त
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
nwarya
९८] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । पदार्थोको एक साथ प्रत्यक्ष जाननेको समर्थ, अविनाशी तथा अखंडपनेसे प्रकाश करनेवाले केवलज्ञानमें परिणमन करते हैं मतएव उनके लिये कोई भी पदार्थ परोक्ष नहीं है। '
भावार्थ-इस गाथामें भाचार्यने यह बताया है कि केवलज्ञानीकी अतीव भारी सामर्थ्य है। इन्द्रिय ज्ञानमें बहुत तुच्छ शक्ति होती है। जो इंद्रिय स्पर्शका विषय मानती है वह अन्य विषयोंको नहीं जान सक्ती, जो रसको मानती है वह गंधको नहीं जान सक्ती । इस तरह एक एक इंद्रिय एक एक विषयको जानती है। परंतु केवलज्ञानीको मात्मा सर्व ज्ञानावरणीय कर्मके नाश होनेसे ऐसी शक्ति पैदा होनाती है कि मात्माके असंख्यात प्रदेशों से हरएक प्रदेशमें सर्व ही इद्रियोंसे नो ज्ञान अलग २ क्रमसे होता है वह सर्व ज्ञान होसक्ता है अर्थात हरएक आत्माका प्रदेश सर्व ही विषयोंको एक साथ जाननेको समर्थ है। यहां तक कि तीनलोक तीन कालकी सर्व पर्यायोंको और अलोकाशको एक मात्माका प्रदेश जान सक्ता है। ऐमा निर्मल ज्ञान शुद्ध आत्मामें सर्व प्रदेशोंमें व्याप्त होता है। इस ज्ञानके लिये इन्द्रियोंकी सहायता विलकुल नहीं रही है। यह इन पराधीन नहीं है किन्तु स्वाधीन है । ऐसा केवलज्ञान एक सयुको स्वयं ही शुद्धोपयोगमें तन्मय होनेसे प्राप्त होता है । कोई कटल ज्ञानकी शक्तिको देता नहीं है न यह आत्मा किसी अन्य पदा. थंसे इस ज्ञानकी शक्तिको प्राप्त करता है । यह केवरज्ञान इस भात्माका ही स्वभाव है। यह इस मात्मामें ही था, आवरणके दुर होनेसे अपने ही द्वारा प्रकाशित होनाता है । ऐसे देवक.
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
[ ९९
ज्ञान में सर्व ही ज्ञेय सदाकाल प्रत्यक्ष रहते हैं, कोई भी कहीं भी. कभी भी कोई पदार्थ या गुण या पर्याय ऐसी नहीं हैं जो केवलज्ञानीके ज्ञानसे परे हो या परोक्ष हो, इसोको सर्वज्ञता कहते हैं ।. केवलज्ञानमें सबसे अधिक अविभाग परिच्छेद होते हैं, उत्कृष्ट अनंतानंतका भेद यहीं प्राप्त होता है । इस लिये षट्द्रव्यमयी उपस्थित समुदाय के सिवाय यदि अनन्तानन्त ऐसे समुदाय हों तौ भी केवलज्ञान में जाने जा सक्ते हैं। ऐसी अपूर्व शक्ति इस आत्माको शुद्धोपयोग द्वारा प्राप्त होती है ऐसा जानकर आत्मार्थी नीवको उचित है कि रागद्वेष मोहका त्याग करके एक मनसे साम्यभाव या शुद्धोपयोगका मनन करे, यही तात्यये है ।
इस तरह केवलज्ञानियोंको सर्व प्रत्यक्ष होता है ऐसा कहते हुए प्रथम स्थलमें दो गाथाए पूर्ण हुईं ॥ २२ ॥
उत्थानिका- आगे कहते हैं कि आत्मा ज्ञान प्रमाण तथा ज्ञान व्यवहार से सर्वगत है
आदा णाणपमाणं, णाणं णेयप्यमाणमुद्दिहं । यं लोगालोग, तम्हा णाणं तु सव्वगयं ॥ २३ ॥
आत्मा ज्ञानप्रमाणं ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्ठं ।
ज्ञेयं लोकालोकं तस्माज्ज्ञानं तु सवगतम् ॥ २३ ॥
सामान्यार्थ - आत्मा ज्ञानगुणके बराबर हैं, तथा ज्ञान ज्ञेय पदार्थों के बराबर कहा गया है और ज्ञेय लोक और भलोक हैं इसलिये ज्ञान सर्वगत या सर्वव्यापक है ।
अन्वय सहिन विशेषार्थ - ( जादा णाणपमाणं )
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
Amm
१४] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । आमा ज्ञान प्रमाण है अर्थात ज्ञानके साथ आत्मा हीन या अधिक नहीं है इसलिये ज्ञान जितना है उतना मात्मा है। कहा है "समगुणपर्यायं द्रव्यं भवति " अर्थात् द्रव्य अपने गुण और पर्यायों मन होता है । इस वचनसे वर्तमान मनुष्यभवमें यह मात्मा वर्तमान मनुष्य पर्यायके समान प्रमाणवाला है तैसे ही मनुष्य पर्यायके प्रदेशोंमे रहनेवाला ज्ञान गुण है । जैसे यह आत्मा इस मनुष्य पर्याय ज्ञान गुणके बरावर प्रत्यक्षमें दिखलाई पड़ता है
से निश्चयसे सदाही भव्याबाघ और अविनाशी सुख मादि अनन्त शुणोंका आधारभूत जो यह केवलज्ञान गुण तिस प्रमाण यह मात्मा है। (गाणं णेयप्पमाण) ज्ञान ज्ञेय प्रमाण (उद्दिट्टो कहा गया है। जैसे इंधनमें स्थित आग ईंधन के बराबर है ऐसे ही ज्ञान ज्ञेयके बराबर है। ( मेयं लोयालोय ) ज्ञेय लोक और मलोक हैं। शुद्धबुद्ध एक स्वभावमई सर्व तरहसे स्पादेवभूत गृहण करने योग्य परमात्म द्रव्यको मादि लेकर छः द्रव्यमई यह लोक है। लोकके बाहरी भागमें जो शुद्ध माकाश है सो अलोक है। ये दोनों लोकालोक अपने अपने अनन्त पर्वावोंमें परिणमन करते हुए अनित्य हैं तो भी द्रव्यार्थिक नयसे नित्य हैं। ज्ञान लोड अलोनको जानता है। (सम्हा) इस कारणसे (गाणं तु सब्बगय) ज्ञान भी सर्वगत है। अर्थात् क्योंकि निश्चय स्नत्रयमई शुद्धोपयोगकी भावनाके क्लसे पैदा होनेवाला जो केवलज्ञान है वह पत्थरमें टांझीसे उकेरे हुएके न्यायसे पूर्वमें कहे गये सर्व ज्ञेयको जानता है इसलिये व्यवहार निबसे ज्ञान सर्वगत कहा गया है। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि मात्मा ज्ञान प्रमाण है और ज्ञान सर्वगत है।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमaarसार भाषाटीका ।
[ 20
wwwwww w
varin
भावार्थ - यहां आचार्य ने बताया है कि गुण और गुणी एक क्षेत्रावगाही होते हैं तथा हरएक गुण अपने आधारभूत द्रव्यमें व्यापक होता है । जितने प्रदेश द्रव्यके होते हैं उतने ही प्रदेश गुण होते हैं । ऐसा होनेपर भी गुण स्वतंत्रता से अपना अपना कार्य करता है। यहां आत्मा द्रव्य है, और उसका मुख्य गुण ज्ञान है | ज्ञान मात्मा के प्रमाण है खात्मा ज्ञानके प्रमाण है । आत्मा असंख्यात प्रदेशी है इसलिये उसका ज्ञान गुण भी असंख्यात प्रदेशी है । दोनोंका तादात्म्य सम्बन्ध है, जो कभी अलग नहीं था न अलग हो सकता है । यद्यपि, ज्ञान गुणकी सत्ता आत्मा में ही है तथापि ज्ञान गुण अपने पूर्ण कार्यको करता है अर्थात् सर्व जानने योग्य पदार्थोंको जानता है, कोई ज्ञेय उससे बाहर नहीं रह जाता इससे विषयकी अपेक्षा ज्ञान ज्ञेयोंके बराबर है । ज्ञेयका विस्तार देखा जाय तो सर्व लोक और अलोक है । जितने द्रव्य गुण व तीनकालवर्ती पर्याय हैं वे सब जाननेके विषय हैं और ज्ञान उन सबको जानता है इस कारण ज्ञानको सर्वगत या सर्दव्यापक कह सकते हैं ।
यहां पर आंखका दृष्टांत है । जैसे आंखकी पुतली अपने 1 स्थान पर रहती हुई भी बिना स्पर्श किये बहुत दूर से भी पदार्थोंको जान लेती हैं, ऐसे ही ज्ञान आत्माके पदेशोंमें ही रहता है तथापि विषयकी अपेक्षा सर्व लोकालोको जानता है | यहां पर 1 कोई २ ज्ञानको सर्वथा व्याकाश प्रमाण व्यापक मान लेते हैं उनका निषेध किया कि ज्ञान द्रव्यको छोड़कर चला नहीं जाता । वह sterolest जानता है तथापि आत्मामें ही रहता है । कोई २.
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
Sawanamamimamiww
१०२] श्रीप्रवचनसार भाषाका । . . - आत्माको भी सर्वव्यापक मानते हैं उनके लिये यह कहा गया
कि जब ज्ञान विषयकी अपेक्षा सर्वव्यापक है तब ज्ञानका धनी आत्मा भी विषयकी अपेक्षा सर्वव्यापक है । परन्तु प्रदेशोंकी अपेक्षा मात्मा असंख्यात प्रदेशोंसे कमती बढ़ती नहीं होता-उसी प्रमाण उसका ज्ञान गुण रहता है । यद्यपि आत्मा निश्चयसे असंख्यात प्रदेशी है तथापि किसी भी शरीरमें रहा हुआ संकोचरूप शरीरके प्रमाण रहता है। मोक्ष अवस्थामें भी अतिम शरीरसे किंचित कम आकार रखता हुमा सदा स्थिर रहता है। इस तरहका पुरुषाकार होनेपर भी वह आत्मा ज्ञान गुणकी अपेक्षा सर्वको जानता है । आत्माका यह स्वभाव जैनाचार्योंने ऐसा बताया है नो स्वरूप अनुभव किये मानेपर ठोक जंचता है क्योंकि हम बाप सर्व अलग २ आत्मा हैं, यदि भिन्न २ न होते तो एकका ज्ञान, सुख व दुःख दुसरेको हो जाता, जब एक सुखी होते सर्व मुखी होते, जव एक दुःखी होते सर्व दुःखी होते, सो यह बात प्रत्यक्षसे विरोधरूप है । हरएक अलग १ मरता जीता व सुख दुःख उठाता है । भात्मा भिन्न होनेपर भी शरीर प्रमाण किस तरह है इसका समाधान यह है, कि यदि मात्मा शरीर प्रमाण न होकर लोक प्रमाण होता तो जैसे शरीर सम्बन्धी सुख दुःखका भोग होता है वैसे शरीरसे बाहरके पदार्थोसे भी सुख दुःखका अनुभव होता-सो ऐसा होता नहीं है। अपने शरीरके भीतर ही जो कुछ दुःख सुखका कारण होता है उसहीको आत्मा अनुभव करता है इससे शरीरसे अधिक फैला हुमा आत्मा नहीं है । यदि शरीरमें सर्व ठिकाने
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [१०३ व्यापक मात्माको न माने, केवल एक बिन्दुमात्र माने तो जहां वह बिंदुमात्र होगा वहींका सुख दुःख मालूम पड़ेगा-सर्व शरीरके सर्व ठिकानोंका नहीं यह बात भी प्रत्यक्षसे विरुद्ध है। यदि शरीरमें एक ही साथ पगमें मस्तकों व पेटमें सुई भोकी जावे तो वह एक साथ तीनों दुःखोंको वेदन करेगा-अथवा मुंखसे स्वाद लेते, आंखसे देखते व विषयभोग करते सर्वांग वेदन होता है, कारण यही है कि आत्मा अखंड रूपसे सर्व शरीरमें व्यापक है । शरीरके किसी एक स्थानपर सुख भासनेसे सर्व अंग प्रफुडित हो जाता है। शरीरमें मात्मा संकुचित अवस्थामें है उसके असं. ख्यात प्रदेश कम व बढ़ नहीं होते। यद्यपि आत्मा और उसके ज्ञानादि अनंत गुणोंका निवास आत्माके असंख्यात प्रदेश ही हैं तथापि उसके गुण अपने २ कार्यमें स्वतंत्रतासे काम करते हैं, उन्हीं में ज्ञान गुण सर्व ज्ञेयोंको जानता है-और जब ज्ञेय लोकालोक हैं तब ज्ञान विषयकी अपेक्षा व्यवहारसे लोकालोक प्रमाण है ऐसा यहां तात्पर्य है । ऐसी अपूर्व ज्ञानकी शक्तिको पहचानकर हमारा यह कर्तव्य होना चाहिये कि इस केवलज्ञानकी प्रगटताके लिये हम शुद्धोपयोगका अनुभव करें तथा उसीकी भावना करें ॥२३
उत्थानिका-अब जो आत्माको ज्ञानके बराबर नहीं मानते हैं, ज्ञानसे कमती बढ़ती मानते हैं उनको दूषण देते हुए कहते हैंणाणप्पमाणमादाण हबाद जस्लेह तस्स सो आदा! हीणो वा अधियो वा,णाणादो हवदिधुवमेव ॥२४॥
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४ ]
श्रीप्रवचनसार भापाटीका ।
हीणो जदि सो आदा, तण्णाणरूपेदणं ण जाणादि । अधिगोवा णाणादो, णाणेण दिणा कहं णादि ॥१६॥
ज्ञानप्रमाणनात्मा, न भवति यस्येह तत्व आत्मा | हीनो वा अधिको वा, ज्ञानाद् भवति अवमेव ॥ २४ ॥ हो, यदि स आत्मा, तत् ज्ञानमचेतनं न जानाति ! अघिको या ज्ञानान्, ज्ञानेन विना रूथं जानाति ॥ २५ ॥ सामान्यार्थ - इस जगत में जिसका यह मत है कि ज्ञान प्रमाण आत्मा नहीं है उसके मत में निश्चयसे यह आत्मा ज्ञानसे नया ज्ञान से अधिक हो जायगा । यदि वह आत्मा ज्ञानसे छोटा हो तब ज्ञान अचेतन होकर कुछ न जान सकेगा और जो आत्मा ज्ञानसे अधिक होगा वह ज्ञानके बिना कैसे जान सकेगा ?
अन्वय सहित विशेषार्थ - (इइ) इस जगत में (जस) जिस वादीके मत्तमें ( आदा ) आत्मा (गाणपमाणं) ज्ञान प्रमाण (ण हवदि) नहीं होता है ( तहस ) उसके मत में (सो आदा) वह आत्मा (णाणदो) ज्ञान गुणसे (होणो वा) या तो हीन अर्थात छोटा (अधिगो वा ) या अधिक अर्थात् बड़ा (हवदि) हो जाता है (ध्रुवम् एव) यह निश्चय ही है ।
(जदि) यदि (सो आदा) वह आत्मा होणो ) हीन या छोटा होता है तब (तं णाणं) सो ज्ञान ( अवेदणं ) चेतन रहित होता हुआ ( ण जाणादि ) नहीं जानता है अर्थात् यदि वह आत्मा ज्ञानसे कम या छोटा माना नाम तब जैसे व्यग्निके बिना उष्णं गुण ठंडा हो जायगा और अपने जलाने के कामको न कर सकेगा
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
marwanamwwwanmom
Mumwwwwwwwwwwwww
श्रीप्रवचनसार भापाटीका। [१०५ जैसे आत्माके विना जितना ज्ञानगुण बचेगा वह ज्ञानगुण माना माश्रयभूत चैतन्यमई द्रव्यके विना निस आत्मद्रव्यके साथ ज्ञानगुणका समवाय सम्बन्ध है, अचेतन या गडरूप होकर कुछ भी नहीं जान सकेगा (वा णाणादो) अथवा ज्ञानसे ( अधिगो) अधिक या बडा आत्माको माने तब (गाणेण विणा) ज्ञानके विना (कह) कैसे (णादि) जान सक्ता है अर्थात् यदि यह माने कि ज्ञान गुणसे आत्मा बड़ा है तब जितना आत्मा ज्ञानसे बड़ा है उतना आत्मा जैसे रणगुणके विना अग्नि ठंडी होकर अपने जलानेके कामको नहीं कर सकी है तेसे ज्ञानगुणके अभावमें अचेतन होता हुआ किस तरह कुछ जान सकेगा अर्थात कुछ भी न जान सकेगा। यहां यह भाव है कि जो कोई आत्माको अंगूठेकी गांठके घराबर या श्यामाक तंदुकके बराबर या वडके बीमके बरावर आदि रूपसे मानते हैं उनका निपेध किया गया तथा जो कोई सात समुद्घातके बिना आत्माको शरीरममाणसे अधिक मानते हैं उनका भी निराकरण किया गया।
भावार्थ-इन दो गाथाओंमें आत्माको और उसके ज्ञान गुणको सम प्रमाण सिद्ध किया गया है। द्रव्य और गुणका प्रदेशोंकी अपेक्षा एक क्षेत्रावगाह समवाय या तादात्म्य सम्बन्ध होता है। जहां २ द्रव्य वहां २ उसके गुण, जहां २ गुण वहां २ उसके द्रव्य । वास्तवमें द्रव्य गुणोंके एक समुदायको कहते हैं जिसमें इरएक गुण एक दुसरेमें व्यापक होता है। प्रदेशत्वनामा गुण जितने प्रदेश जिस द्रव्यके रखता है अर्थात् जो द्रव्य जितने आकाशको व्यापकर रहता है उतने ही में सर्व गुण व्यापक रहते
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । हैं। प्रदेशत्त्वगुणको अपेक्षा द्रव्यका नितना प्रमाण है उतने ही प्रमाणमें अन्य सर्वगुण उस द्रव्यमें रहते हैं, क्योंकि कहा है कि 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' उमा० त० सु० कि गुण द्रव्यके आश्नय रहते हैं तथा गुणोंके गुण नहीं होते इसलिये द्रव्य और गुणोंका तादात्म्य है, द्रव्यसे गुण न छोटे होते हैं न बड़े, उसी तरह द्रव्य भी गुणोंसे न छोटा होता है न बड़ा । ऐसी व्यवस्था है। यहां आत्मा द्रव्य और उसके ज्ञान गुणको लेकर तर्क उठाया गया है कि यदि आत्मज्ञान गुणसे छोटा माना जायगा तो निवना ज्ञान गुण आरमासे बड़ा होगा उतना ज्ञानगुण अपने आधार द्रव्यके विना रह नहीं सका, कदाचित् रहेगा तो अचेतन द्रव्यके भाधार रहकर चैतन द्रव्यके माधारके विना नरूप होकर कुछ भी जाननेके कामका न करसकेगा। जैसे जड़ नहीं जानता है तैसे वह ज्ञान जड़ होता हुमा कुछ न जानेगा, सो यह बात हो नहीं सक्ती क्योंकि जो नान नहीं सक्ता है उसको ज्ञान कह ही नहीं सक्ते । जैसे यदि कहें कि अग्निसे उसका उष्ण गुण अधिक है अग्नि उससे छोटी है तब जितना उष्णगुण अग्नि विना माना जायगा वह अग्निके आधार विना एक तो रह ही नहीं सका, यदि रहे तो उसको ठंडा होकर रहना होगा अर्थात अग्निके विना उष्ण गुण जलानेकी क्रियाको न कर सकेगा सो यह वात असंभव है क्योंहि तब त ने उसे ही उष्णगुण कहसके सो अग्निके आधार हुआ (ण जाणादि नहीं होसक्ता क्योंकि उष्णगुणका आधार ज्ञानसे कम या छोटा मगुणको जानना चाहिये । ज्ञान गुण गुण ठंडा हो जायगा धर शन्य व जड होजायगा सो यह
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका |
[ १०७.
बात असंभव है । दूसरा पक्ष यदि यह मानाजाय कि आत्मा ज्ञानगुणसे बड़ा है ज्ञानगुण छोटा है तब भी नहीं बन सक्ता है क्योंकि जितना आत्मा ज्ञानगुणसे बड़ा माना जायगा उतना आत्मा ज्ञानगुण रहित अज्ञानमय अचेतन होजायगा और अपने जाननेके कामको न करसकनेके कारण जड़ पुद्गलमय होता हुभा अपने नामको कभी नहीं रखसक्ता है कि मैं आत्मा हूं। जैसे यदि अग्निको उष्ण मुखसे बड़ा माना नाय तो जितनी अग्नि उष्णता रहित होगी वह ढंढी होगी तत्र जलानेके कामको न कर सकेगी तब वह अपने नामको ही खो बैठेगी सो यह बात असंभव है वैसे आत्मा ज्ञानगुणके विना जड़ अवस्था में आत्मा के नामसे जीवित रह सके यह बात भी असंभव है। इससे यह सिद्ध हुआ कि न आत्मा ज्ञानगुणसे छोटा है न बड़ा है, जितना बड़ा आत्मा है उतना बडा ज्ञान है, जितना ज्ञान है उतना आत्मा है । प्रदेशकी अपेक्षा आत्मा असंख्यात प्रदेशी है उतना ही बड़ा उसका गुण ज्ञान है। शरीर में रहता हुआ आत्मा शरीर प्रमाण है अथवा मोक्ष व्यवस्था में अंतिम शरीरसे कुछ कम भकारवाला है उतना ही बड़ा उसका ज्ञानगुण हैं । जब समुद्घात करता है अर्थात् शरीरमें रहते हुए भी फैलकर शरीर के बाहर आत्माके प्रदेश जाते हैं जो अन्य छ समुद्घातों में थोड़ी २ दूर जाते हैं परंतु केवल समुद्रघात में लोकव्यापी होजाते हैं और फिर शरीर प्रमाण हो जाते हैं तब भी जैसा आत्मा फैलता सकुड़ता है वैसे ही उसके ज्ञानादि गुण रहते हैं | चंद्रमा जैसे अपनी प्रभा सहित ही छोटा या बड़ा होता है वैसे आत्मा अपने ज्ञानादि गुण सहित छोटा या
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८ ]
श्रीreater भापाटीका ।
बड़ा होता है । प्रयोजन यह है कि मात्मा ज्ञानगुणके प्रमाण है ज्ञानगुण आत्मा प्रमाण है। आत्माका और ज्ञानगुणका तादात्म्य सम्बन्ध है । जो कोई आत्माको सर्व व्यापक या बहुत छोटा मानते हैं उसका निराकरण पहले ही किया जा चुका है । यहां उसीका पुष्टिकरण है कि जब हम अपने शरीर में सर्व स्थानों पर ज्ञानका काम कर सक्ते हैं तब हमारा आत्मा शरीर प्रमाण सिद्ध हो गया | जैसे प्रदेशोंकी अपेक्षा ज्ञानगुण और आत्माकी समानता है वैसे विषयकी अपेक्षा भी समानता कह सक्ते हैं, जैसे ज्ञान गुण लोकालोकको जानता हुआ लोकालोक प्रमाण सर्वव्यापक कहलाता है वैसे ही आत्माको भी लोकालोक ज्ञायक या सर्वज्ञ कह सक्ते हैं। यहां यही दिखलाया है कि द्रव्य और गुणकी श्रमाणकी अपेक्षा समानता है। यहां यह भी खुलासा समझ लेना कि जो लोग आत्माको प्रदेशोंकी अपेक्षा सर्वव्यापक मानते हैं उनका निराकरण करके यह कहा गया कि सर्वके जाननेको अपेक्षा सो सर्वव्यापक कह सक्ते हैं, परन्तु प्रदेशों की अपेक्षा नहीं कह
I
सक्के | यहां वह तात्पर्य है कि जिस केवलज्ञानके बराबर आत्मा है वह केवलज्ञान ही सर्वको जानता हुआ आकुलतारहित होता है जिसकी प्राप्ति शुद्धोपयोगकी भावनाये होती है अतएव सर्व तरइसे रुचिवान होकर इस शुद्धोपयोगमई साम्यभावकी भावना कर्तव्य है ।
.
उनका भागे कहते हैं कि जैसे ज्ञानको पहले सर्वव्यापक कहा गया है तैसे ही सर्वव्यापक ज्ञानकी अपेक्षासे भगवान् अरहंत आत्मा भी सर्वगत हैं।
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
w
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [१०९ सव्वगदोजिणवसहो,सनेवि य तरगया जगदि अट्ठा। णाणमयादो य जिणो, विसयादो तस्स ते भाणदा॥
सर्वगतो जिनवृषभः सर्वेपि च तद्गता जगत्याः । ज्ञानमयत्वाय जिनो विषयत्वात्तस्य ते भणिताः ॥ २६ ॥
सामान्यार्थ-ज्ञानमयी होने के कारणसे श्री मिनेन्द्र अहेत भगवान सर्वगत या सर्व व्यापक हैं तथा उस भगवानके ज्ञानके विषयपनाको प्राप्त होनेसे जातमें सर्वे ही जो पदार्थ हैं सो उस भगवानमें गत हैं या प्राप्त हैं ऐसे कहे गए हैं।
अन्वय सहित विशेषार्थ-( णाणमयादो य ) तथा ज्ञानमयी होने के कारणरो (जिणवसहो ) जिन जो गणधादिक उनमें वृषभ अर्थात् प्रधान (निणो) जिन अर्थात् कर्मोको जीतनेवाले अरहंत या सिद्ध भगवान (सव्वगदो ) सर्वगत या सर्व व्यापक हैं । ( तरस ) उस भगवानके ज्ञानके (विसपादो) विषयपनाको प्राप्त होने के कारणसे अर्थात् ज्ञेयपनेको रखनेके कारणसे (सनेवि य जगति ते अठ्ठा) सर्व ही जगतमें जो पदार्थ हैं सो (तगया) उस भगवानमें प्राप्त या व्याप्त (भगिदा कहे गए हैं । जैसे दर्पण में पदार्थका विम्ब पड़ता है तसे व्यवहार नयसे पदार्थ भगवानके ज्ञान में प्राप्त हैं। भाव यह है कि जो अनन्तज्ञान है तथा मनाकुलपने के लक्षणको रखनेवाला अनन्त सुख है उनका आधारभूत जो है सोही आत्मा है इस प्रकारके आत्माका जो प्रमाण है वही आत्माके ज्ञानका प्रमाण है और वह ज्ञान आत्माका अपना स्वरूप है। ऐसा अपना निज स्वभाव देह के भीतर प्राप्त आत्माको
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
११० ]
श्रीप्रवचनसार भापाटीका ।
नहीं छोड़ता हुआ भी लोक अलोकको जानता है । इम कारण से व्यवहार नयसे भगवानको सर्वगत कहा जाता है ! और क्योंकि जैसे नीले पीत आदि बाहरी पदार्थ दर्पण में झलकते हैं ऐसे ही बाह्य पदार्थ ज्ञानाकारसे ज्ञान में प्रतिविम्बित होते हैं इसलिये व्यव हारसे पदार्थों द्वारा कार्यरूप हुए पदार्थोंके ज्ञान आकार भी पदार्थ - कहे जाते हैं । इसलिये वे पदार्थ ज्ञानमें तिष्ठते हैं ऐसा कहने में दोष नहीं है । यह अभिप्राय है ।
भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने यह बताया है कि आत्मा सर्वगत या सर्वव्यापक किस अपेक्षा से कहा नासक्ता है । जिसतरह दूसरे कोई मानते हैं कि आत्मा अपनी सत्तासे प्रदेशकी अपेक्षा सर्वव्यापक है उपतरह तो सर्वव्यापक नहीं होक्ता । प्रदेशोंकी अपेक्षा तो समुद्घातके सिवाय शरीर के - आकार के प्रमाण आत्माका आकार रहता है और उस आत्माके आकार ही आत्मा के भीतर सर्व प्रदेशोंमें व्यापक ज्ञान आदि गुण पाए जाते हैं । परन्तु जैसे पहले ज्ञानको सर्वलोक अलोकके जाननेकी अपेक्षा व्यवहार से सर्वव्यापक कहा है वैसे ही यहां व्यव- हार से आत्माको सर्वव्यापक कहा है । यद्यपि हरएक आत्मामें सर्वज्ञपनेकी शक्ति है तथापि यहां व्यक्ति भपेक्षा केवलज्ञानी भर- और सिद्ध परमात्माको ही लक्ष्यमें लेकर उनको सर्वगत या सर्वव्यापक इसलिये कहा गया है कि उनका आत्मा ज्ञानसे तन्मय है। जब ज्ञान सर्वगत है तब ज्ञानी आत्माको भी सर्वव्यापक कह सक्ते हैं। "जैसे आत्माको सवगत कहते हैं वैसे यह भी कहते हैं कि सर्वज्ञेय पदार्थ मानों भगवान की आत्मामें समागए या प्रवेश होगए।
·
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwwwwww
श्रीमवचनसार भापाटीका। [१५ क्योंकि केवलीके ज्ञानमें सर्व ज्ञेयोंके साकार ज्ञानाकार होगए हैं। यद्यपि ज्ञेय पदार्थ भिन्न २ हैं तथापि उनके ज्ञानाकागेंका ज्ञानमें झलकनां मानों पदार्थोंका झलकना है। ज्ञानमें जैसे प्राप्त हैं वैसे आत्मामें प्राप्त हैं दोनों कहना विपयकी अपेक्षा समान है । जैसे दर्पणमें मोर दीखता है इसमें मोर कुछ दर्पणमें पैसा नहीं, मोर अलग है, दर्पण अलग है, तथापि मोरके आकार दर्पणको प्रभा परिणमी है, इससे व्यवहारले यह कह सक्ते हैं कि दपण या दर्पणकी प्रभा मोरमें व्याप्त है अथवा मोर दर्पणकी प्रभामें या दर्पणमें व्याप्त है। इसी तरह केवलज्ञानी भगवान अरहंत या सिद्ध तथा उनका स्वाभाविक शुद्ध ज्ञान अपने ही प्रदेशोंकी सत्तामें रहते हैं। नवे पदार्थोके पास जाते और न पदार्थ उनके पास माते तथापि झलकनेकी अपेक्षा यह कह सक्ते हैं कि अरहंत या सिद्ध भगवान या उनका ज्ञान सर्वगत या सर्व व्यापक है अथवा सर्व लोकालोक ज्ञेय रूपसे भगवान रहंत या सिद्धमें या उनके शुद्ध ज्ञानमें व्याप्त है। यहां भाचार्य ने उसी केवलज्ञानकी विशेष महिमा बताई है कि वह सर्वगत होकरके भी पूर्ण निराकुल रहता है। आत्मामें रागद्वेषका सदभाव न होनेसे ज्ञान या ज्ञानी आत्मा स्वभावसे सर्वको जानते हुए भी निर्विकार रहते हैं-ऐसा अनुपम केवलज्ञान नित शुद्धोपयोग या साम्यभावके अनुभवसे प्राप्त होता है उसहीकी भावना करनी चाहिये, यह तात्पर्य है।
उत्यानिका-आगे कहते हैं कि ज्ञान मात्माका स्वभाव है तथापि मात्मा ज्ञान स्वभाव भो है तथा सुम्ब आदि स्वभाव रूप भी है-केवल एक ज्ञानगुणा ही धारी नहीं है
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
११२] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । णाणं अप्पत्ति मदं,वहदि गाणं विणा ण अप्पाणं। तम्हाणाणं अप्पा, अप्पा णाणं व अण्णं वा ॥२८॥
ज्ञानमात्मेति मत वर्तते ज्ञान विना नात्मानम् । .. तस्मात् ज्ञानमारमा आत्मा ज्ञानं वा अन्यद्वा ॥ २८ ॥ .
सामान्यार्थ-ज्ञान आत्मा है ऐसा माना गया है क्योंकि ज्ञान आत्माके विना कहीं नहीं रहता है इसलिये ज्ञान आत्मारूप है परन्तु आत्मा ज्ञानरूप भी है तथा अन्यरूप भी है।
अन्वय सहित विशेषार्थ:-(गाणं ज्ञानगुण (अप्पत्ति) मात्मा रूप है ऐसा (मदं) माना गया है कारण कि (गाण) ज्ञान गुण (अप्पाणं) आत्मा द्रव्यके (विणा) विना अन्य किसी घट पट आदि द्रव्यमें (ण वदि) नहीं रहता है ( तम्हा) इसलिये यह जाना जाता है कि किसी अपेक्षाले अर्थात् गुण गुणीकी अभेद दृष्टि से ( णाणं) ज्ञानगुण , मप्पा ) आत्मारूप ही है। किन्तु (अप्पा) आत्मा (गाणं च) ज्ञानगुण रूप भी है, जब ज्ञान स्वभावकी अपेक्षा विचारा जाता है ( अण्णं वा) तथा अन्य गुणरूप भी है जब उसके अंदर पाए जानेवाले सुख वीर्य आदि स्वभावोंकी अपेक्षा विचारा जाता है। यह नियम नहीं है कि मात्र ज्ञानरूप ही आत्मा है। यदि एकान्तसे ज्ञान ही आत्मा है ऐसा कहा जाय तब ज्ञानगुण मात्र ही आत्मा प्राप्त हो गया फिर सुख,आदि स्वभावोंका अवकाश नहीं रहा !. तथा सुख, वीर्य आदि स्वभावोंके समुदायका अभाव होनेसे आत्माका प्रभाव हो जायगा। जब आधारभूत आत्मा अभाव हो गया तव उसका आधेयंभूत
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीचनसार भापाटीका ।
[ ११३...
ज्ञानगुणका भी अभाव हो गया इस तरह एकान्त मतमें ज्ञान और आत्मा दोनोंका ही अभाव हो जायगा । इसलिये किसी . अपेक्षा से ज्ञान स्वरूप आत्मा है सर्वधा ज्ञान ही नहीं है। यहां यह effee है कि आत्मा व्यापक हैं और ज्ञान व्याप्य है इस लिपे ज्ञान स्वरूप आत्मा हो सक्ता है । तथा आत्मा ज्ञानस्वरूप भी है और अन्य भावरूप भी है। तैसा ही कहा है "व्यापकं तदनिष्ठ व्याप्यं तन्निष्ठमेव च " व्यापकमें व्याप्य एक और दूसरे अनेक रह के हैं जबकि व्याप्य व्यापकमें ही रहता है ।
भावार्थ - इन गाथा में आचार्यने इस बातको स्पष्ट किया हे कि यात्गा केवल ज्ञानमात्र ही नहीं है किंतु अनंत धर्म स्वरूप है । कोई कोई आत्माको ज्ञान मात्र ही मानते हैं-ऐसा मान आत्मा द्रव्य, ज्ञानगुण ऐसा कहने की कोई जरूरत न रहेगी फिल तो मन एक ज्ञानको ही मानना पड़ेगा । तत्र ज्ञानगुण बिना किसी कारके कैसे ठहर सकेगा क्योंकि कोई गुण द्रव्यके दिना पाया नहीं जा सका, द्रव्यता अभाव होनेसे ज्ञानगुणका भी अभाव हो जायगा शासे आचार्यने कहा है कि शाम तो अब
रूप है कि ज्ञानका चौर आत्माका एक लक्षणात्मक सम्बन्ध है | आत्मा लक्ष्य है ज्ञान उसका लक्षण है। ज्ञानलक्षण में मतिव्याप्ति, जन्मात नारम्भव दोष नहीं हैं क्योंकि ज्ञान सर्व णात्माओं को छोड़कर अन्य पुगुल यादि पांव द्रव्योंमें नहीं पाया जाता तथा ज्ञानवर्जित कोई आत्मा नहीं है इसलिये ज्ञान स्वभाव रूप तो आत्मा अवश्य है परन्तु यात्मा द्रव्य है इससे वह जनंवगुण व पर्यायोंका आधारभूत समुदाय है । आत्मामें सामान्य व
و
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
HAMAAnam
११४] श्रीमवचनसार भाषाटीका। विशेष अनेक गुण या स्वभाव पाए जाते हैं-हरएक गुण या स्वभाव आत्मामें व्यापक है । तब जैसे एक आम्रके फलको वर्णके ध्यापनेकी अपेक्षा हरा, रसके व्यापनेकी अपेक्षा मीठा, गंधक व्यापने की अपेक्षा भुगंधित, स्पर्शके व्यापनेकी अपेक्षा नर्म कह सक्ते हैं वैसे ही आत्माको अस्तित्त्व गुणकी अपेक्षा पतरूप द्रव्यत्वगुणकी अपेक्षा द्रव्यरूप, प्रदेशव गुणकी अपेक्षा प्रदेश रूप आकारवान, नित्यत्व स्वभावकी अपेक्षा नित्य. अनित्यन्त स्वभावकी अपेः अनित्य सम्यक्त गुणली अपेक्षा सम्पतो. चात्रि गुणकी अपेक्षा चारित्रमान, वीर्य गुणकी अपेक्षा वयदान सुख गुणकी अपेक्षा परम सुखो इत्यादि रूप कह सकते हैं-आत्मा अनंत धर्मात्मक हैं तब ही उसको द्रव्यकी संज्ञा ई-गुणोंके समुदायको ही द्रव्य महले हैं। जो अनेक गुणोंका अखंड विंड होता है उसे ही द्रव्य कहते हैं उसमें जब मिस गुणकी मुख्यताले कई तब उसको उसी गुण रूप कह सके हैं ऐसा कहने परभी अन्य गुणोंकी सत्ताका उससे अभाव नहीं होजाता । जैसे एक पुरुषमें पितापन पुत्रकी अपेक्षा, पुत्रफ्ना पिताकी अपेक्षा, भाननापना मामाकी अपेक्षा, भतीजापना चाचाकी अपेक्षा, भाईएना भाईकी अपेक्षा इस तरह अनेक सम्बन्ध एक ही समयमें पाए जाते हैं परंतु जब पिता कहेंगे तब अन्य सम्बन्ध गौण हो जाने तथापि उसमें से सम्बन्ध चले नहीं गए-यह हमारी शक्तिका अभाव है कि हम एक ही काल अनेक सम्बन्धोंको कह नहीं सक्ते इसी तरह भात्मा अनंत धर्मात्मक है। जब जिस धर्मकी मुख्यतासे कहा जाय तब उस पर्मरूप आत्माको कह सके हैं। अन्य गुणोंकी अपेक्षा ज्ञान गुण
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
AM
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । [११५ प्रधान है क्योंकि इमहीके द्वारा अन्य गुणोंका व स्वभाळफा बोष होता है इसलिये ज्ञानरूप मात्माको यत्रतत्र कहा है, परन्तु ऐसा कहनेका मतलब यह न निकालना कि मत्मा मात्र ज्ञानरूप हो है किंतु यही समझना कि ज्ञानरूप कहने में ज्ञान की मुख्यता ली गई है। ऐसा वस्तुका स्वरूप है-जो इसको मनझता है वही परहंत और सिद्ध भगवानको तथा अपने तथा पर भात्माको पहचान सका है।
यह जानते हुए कि केवलज्ञानकी व्यक्तता' ५मानगई अनंत सुखी यह आत्मा हो जाता है हमको जिम तर बनकलज्ञानके कारणभूत शुद्धोपयोग या साम्यमाया ई मनन ना चाहिये।
इस तरह आत्मा और ज्ञानकी एकता तथा ज्ञानके व्यवहारसे सर्वव्यापझपना है इत्यादि कथन करते हुए दूसरे स्थलमें पांच गाथाएं पूर्ण हुई।
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि ज्ञान ज्ञेयोंके समीप नहीं नाता है ऐसा निश्चय हैपाणी णाणसहावो, अत्था णेयापगा हि गाणिस्ता रूवाणिव चक्खूणं, जेवण्णोण्णेसु वहति ॥२८॥
शानी शानस्वभावोऽर्धा शेयानका हि शानिनः । रूपाणीव चक्षुपोः नेतान्योन्येषु वर्तन्ते ॥ २९ ॥
सामान्यार्थ-निश्चय करके ज्ञानी आत्मा ज्ञान स्वभाववाला है तथा ज्ञानीके ज्ञेयस्वरूप पदार्थ चक्षुओंके भीतर रूपी पदार्थोकी तरह परस्पर एक दूसरेमें प्रवेश नहीं करते हैं।
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
११६ ]
श्रीमवचनसार भाषाटीका |
अन्वय सहित विशेषार्थ - (हि) निश्चय से (नाणी) केवलज्ञानी भगवान आत्मा (णाणसहावः ) केवलज्ञान स्वभावरूप है तथा (गाणिस्स) उस ज्ञानी जीवके भीतर (अत्था) तीन नगरके तीन काoad पदार्थ ज्ञेयस्वरूप पदार्थ (चाखुणां) आंखोंके भीतर (रुवाणि च ) रूपी पदार्थोंकी तरह ( अण्णोष्णेपु ) परस्पर एक दूसरेके भीटर (णेव वट्टेति) नहीं रहते हैं । जैसे भांखों के साथ रूपी मूर्तिक द्रव्योंका परस्पर सम्बन्ध नहीं है अर्थात् आंख शरीमैं अपने स्थानपर है और रूपी पदार्थ अपने आकारका समर्पण
खोंमें करदेते हैं तथा आंखें उनके आकारोंको जानने में समर्थ होती हैं तैसे ही तीन लोक के भीतर रहने वाले पदार्थ तीन कालकी पर्यायोंमें परिणमन करते हुए ज्ञानके साथ परस्पर प्रदेशोंका सम्बन्ध न रखते हुए भी ज्ञानीके ज्ञानमें अपने आकार के देनेमें समर्थ होते हैं तथा अखंडरूपडे एक स्वभाव झलकनेवाला केवलज्ञान उन व्याकारोंको ग्रहण करने में समर्थ होता है ऐसा भाव है।
भावार्थ - इस गाथा में आचार्यने बताया है कि सर्वव्यापक या सर्वगत जो पहले आत्माको या उसके ज्ञानको कहा है उसका अभिप्राय यह न लेना चाहिये कि अपने २ प्रदेशोंकी अपेक्षा एक द्रव्प दूसरोंमें प्रवेश करजाते हैं । किन्तु ऐसा भाव लेना चाहिये कि ज्ञानीफा ज्ञान तो आत्मा के प्रदेशोंमें रहता है। तब आत्मा जैसा आकार रखता है, उस ही आकार के प्रमाण आत्माका ज्ञान रहता है ? केवलज्ञानी भरतका आत्मा अपने शरीर मात्र आकार रखता है तथा सिद्ध भगवानका आत्मा अंतिम शरीरके 'किंचित उन अपना आकार रखता है । इसी आकारमें ज्ञान भी रहता
1
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [११७ है, क्योंकि ज्ञान गुण है, मात्मा द्रव्य है । द्रव्य और गुणमें सहश प्रदेशी तादात्म्य सम्बन्ध है। ऐसा निश्चयसे ज्ञान और मात्माका सम्बन्ध है । तो भी ज्ञान अपने कार्यके करनेमें स्वाधीन है। ज्ञानका काम सर्व तीन कालकी सर्व लोकालोकवर्ती पदार्थोंकी सर्व पर्यायोंको एक साथ जानना है । इस ज्ञानपनेके कामको करता हुआ यह आत्मा तथा उसका ज्ञान अपने नियत स्थानको छोड़शर नहीं जाते हैं । और न ज्ञेयरूपसे ज्ञानमें झलकनेवाले पदार्थ अपने २ स्थानको त्यागकर ज्ञानमें या आत्मामें माजाते हैं। कोई भी अपने २ क्षेत्रको छोड़ता नहीं तथापि जैसे आंखें अपने मुखमें नियत स्थान पर रहती हुई भी और सामनेके रूपी पदार्थोंमें न नाती हुई मी रूपी पदार्थोका प्रवेश आंखोंमें न होते हुए भी सामनेके रूपी पदार्थो को देख लेती हैं ऐसा परस्पर शेयज्ञायक सम्बन्ध है कि पदार्थोके आकारोंमें मांखोंके भीतर झलकनेकी और आंखोंके भीतर उगके आकारों को ग्रहण करनेकी सामर्थ्य है वैसे ही मात्माका ज्ञान अग्ने नियत आत्मांके प्रदेशोंमें रहना है तथा सर्व ज्ञेयरूप पदार्थ अपने २ क्षेत्रमें रहते हैं कोई एक दूसरेमें आते जाते नहीं तथा इनका ऐसा कोई अपूर्व ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध है जिससे सर्वशेष पदार्थ तो अपने २ आकारोंको केवलज्ञानमें झलकानेको समर्थ हैं और केवलज्ञान उनके सर्व साकारों को जानने में समर्थ है । दर्पणका भी हष्टांत ले सक्त हैं-एक दर्पणमें एक समाके विचित्र वस्त्रालंकृत हमारों मनुष्य दिखलाई पड़ रहे हैं। दर्पण अपने स्थान भीतपर स्थित है। सभाके लोग सभाके कमरेमें अपने अपने आसनपर विराजमान
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
... ११८] श्रीप्रवचनसार भाषावका ।
हैं न दर्पण उनके पास जाता न वे सभाके लोग दर्पणमें प्रवेश करते तथापि परस्पर ऐसी शक्ति रखते हैं कि पदार्थ अपने आकार दर्पणको अर्पण करते हैं और दर्पण उनको ग्रहण करता है ऐसा ही ज्ञानका और ज्ञेयका सम्बन्ध जानना चाहिये ।
इस बात के स्पष्ट करनेसे आचार्यने आत्माकी सत्ताकी भिन्नता बताकर उसकी केवलज्ञानकी शक्तिकी महिमा प्रतिपादन की है और यह बतलाया है कि जैसे आंख अग्निको देखकर जलती नहीं, समुद्रको देखकर इनती नहीं, दुःखीको देखकर दुःखी व सुखीको देखकर सुखी होती नहीं ऐसी ही केवलज्ञानकी महिमा है-सर्व शुभ अशुभ पदार्थ और उनकी मनेक दुःखित व सुखित अवस्थाको जानते हुए भी केवलज्ञानमें कोई विकार रागद्वेष मोहका नहीं होता है । वह सदा ही निराकुल रहता है । ऐसे केवलज्ञा नके प्रभुत्त्वको जानकर हमारा कर्तव्य है कि उस शक्तिकी प्रगटबाके लिये हम शुद्धोपयोगकी भावना करें यही तात्पर्य है।
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि ज्ञानी मात्मा ज्ञेय पदाथोमें निश्चय नयसे प्रवेश नहीं करता हुआ भी व्यवहारसे प्रवेश किये हुए है ऐसा झलकता है ऐसी आत्माके ज्ञानकी विचित्र शक्ति है। ण पविट्ठो णाविट्ठोणाणी येसु रूवमिव चक्खू । जाणदि पस्सदिणियदंअक्खातीदो जगमसेसं ॥२९॥
न प्रविष्टो नाविष्टो शानी क्षेयेषु रूपमिव चक्षुः । जानाति पश्यति नियतमक्षातीतो जगदशेषम् ॥२९॥
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीभवचनसार भाषाीका। [११९ सामान्यार्थ-ज्ञानी आत्मा ज्ञेय पदार्थोमें निश्चयसे नहीं पैठा है किन्तु व्यवहारसे पैठा नहीं है ऐसा नहीं है, किन्तु पैठा है जैसे चक्षु रूपी पदार्थोंमें निश्चयसे पैठी नहीं है किन्तु उनको देखती है इससे व्यवहारसे पैठी ही हुई है। ऐमा ज्ञानी जीव इन्द्रियोंसे रहित होता हुआ अपने अतीन्द्रिय ज्ञानसे ज्योंका त्यों यथार्थरूपसे सम्पूर्ण जगतको जानता देखता है। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-( अक्खातीदः ) इंद्रियोंसे रहित अतीन्द्रिय (णाणी) ज्ञानी आत्मा ( चक्खु) मांख (रूवम् इन ) जैसे रूपके भीतर वैसे (णेयेसु ) ज्ञेय पदार्थोंमें (ण पविट्ठः) निश्चयसे प्रवेश न करता हुआ अथवा (ण अविट्ठः) व्यवहारसे अप्रविष्ठ न होता हुभा अर्थात प्रवेश करता हुआ (णियदं ) निश्चितरूपसे व संशय रहितपनेसे ( असेसं ) सम्पूर्ण. (जगम् ) जगतको ( पस्सदि) देखता है ( जाणदि ) जानता है।
जैसे लोचन रूपी द्रव्योंको यद्यपि निश्चयसे स्पर्श नहीं करता है तथापि व्यवहारसे स्पर्श कर रहा है ऐसा लोकमें झलकता है। तैसे यह आत्मा मिथ्यात्व रागद्वेष मादि आस्रव भावोंके और
आत्माके सम्बन्धमें जो केवलज्ञान होनेके पूर्व विशेष भेदज्ञान होता है उससे उत्पन्न जो केवलज्ञान और केवल दर्शनके द्वारा तीन नगत
और तीनकालवर्ती पदार्थों को निश्चयसे स्पर्श न करता हुआ भी व्यवहारसे स्पर्श करता है तथा स्पर्श करता हुआ ही ज्ञानसे जानता है और दर्शनसे देखता है । वह आत्मा अतीन्द्रिय सुखके स्वादमें परिणमन करता हुआ इन्द्रियों के विषयोंसे अतीत होगया है । इसलिये जाना जाता है कि निश्चयसे भात्मा पदार्थोंमें प्रवेश
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२० ]
श्रीमच्चनसार भापाटीका |
न करता हुआ ही व्यवहारसे ज्ञेष पदार्थोंमें प्रवेश हुआ ही घटता है । भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने और भी स्पष्ट कर दिया है कि आत्मा और इसका केवलज्ञान अपूर्व शक्तिको रखनेवाले हैं । ज्ञान गुण ज्ञानी गुणीसे अलग कहीं नहीं रह सक्ता है। इसलिये ज्ञान गुणके द्वारा आत्मा सर्व जगतको देखता जानता है। ऐसा वस्तुका स्वभाव है कि ज्ञान यांपैथाप तीन जगतके पदाredit का अवस्थाओंको एक ही समय में जाननेको समर्थ है | जैसे दर्पण इस बातकी आकांक्षा नहीं करता है कि मैं पदाथको झलफाऊं परन्तु दर्पण की चमकका ऐसा ही कोई स्वभाव है जिसमें उसके विषयमें आ सकनेवाले सर्व पदार्थ आपआप उसमें झलकते हैं - वैसे निर्मल फेवलज्ञानमें सर्व ज्ञेष स्वयं ही करते हैं । जैसे दर्पण अपने स्थानपर रहता और पदार्थ अपने स्थानपर रहते दौ भी दर्पण में प्रवेश हो गए या दर्पण उनमें प्रवेश होगया ऐसा झलकता है वैसे आत्मा और उसका केवलज्ञान अपने स्थान पर रहते और ज्ञेय पदार्थ अपने स्थानपर रहते कोई किसीमें प्रवेश नहीं करता तो भी ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध से नम सर्व ज्ञेय ज्ञान में झलकते हैं तत्र ऐसा मालूम होता है कि मानों आत्माके ज्ञानमें सर्व विश्व समा गया या यह आत्मा सर्व विश्व में व्यापक होगया । निश्वयसे ज्ञाता ज्ञेयों में प्रवेश नहीं करता ही असली बात है । तौमी व्यवहारसे ऐसा कहने में खाता है कि आत्मा ज्ञेयोंमें प्रवेश कर गया । गाथामें आँखका दृष्टांत है। वहां भी ऐसा ही भाव लगा लेना चाहिये । आंख शरीर से कहीं न जाकर सामने के पदार्थों को देखती है । असल बात यही है - इसी बातको व्यवहारमें हम इस तरह कहते
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
[ १२१
हैं कि मानों भांख पदार्थों में घुस गई व पदार्थ भांखमें घुस गये। ज्ञानकी ऐसी अपूर्व महिमा जानकर हम लोगोंका कर्तव्य है कि उस ज्ञान शक्तिको प्रफुल्लित करनेका उपाय करें । उपाय निजात्मानुभव या शुद्धोपयोग है । इसलिये हमको निरंतर भेद विज्ञानके द्वारा शुद्ध आत्मा अनुभवकी भावना करनी चाहिये और क्षणिक संकल्प विकल्पोंसे पराङ्मुख रहना चाहिये जिससे जगत - मात्रको एक समय में देखने जाननेको समर्थ जो देवलज्ञान और केवल दर्शन सो प्रगट हो जावें ।
उत्थानिका- आगे ऊपर कही हुई बातको दृष्टान्तके द्वारा दृढ़ करते हैं
रदणमिह इंदणीलं, दुडज्झसियं जहा सभासाए । अभिभूय तंपि दुई, वहृदि तह णाणमत्थेषु ॥३०॥
रत्न महेन्द्रनीलं दुग्धाध्युषितं यथा स्वभावा । अभिभूय तदपि दुग्धं वर्तते तथा ज्ञानमर्थेषु ॥३०॥
सामान्याथ - इस लोक में जैसे इन्द्रनीलमणि अर्थात् प्रधान नीलमणि दृषमें डुबाया हुआ अपनी प्रमासे उस दूधको भी तिरस्कार करके वर्तता है तैसे ही ज्ञान पदार्थोंमें वर्तन करता है ।
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( इह ) इस जगतमें (जहा) जैसे (इंदणीलं रणम् ) इन्द्रनील नामका रत्न ( दुइज्झसियं ) -दूधमें डुबाया हुआ ( सभासाए ) अपनी चमकते ( तंपि दुद्धं ) उस दूधको भी ( अभिभूय ) तिरस्कार करके ( वढदि ) वर्तता है ( तह) तैसे (गाणम् ) ज्ञान ( अत्थेसु)
पदार्थों में
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwwwwwwwwwwwwwwwwww
१२२] श्रीप्रवचनसार भापार्टीका । वर्तता है । भाव यह है कि जैसे इन्द्रनील नामका प्रधानरत्न कर्ता होकर अपनी नीलप्रभारूपी कारणसे दुधको नीला करके वर्तन करता है तैसे निश्चय रत्नत्रय स्वरूप परम सामायिक नामा संयमके द्वारा जो उत्पन्न हुआ केवलज्ञान सो आपा परको जाननेको शक्ति रखने के कारण सर्व अज्ञानके अंधेरेको तिरस्कार करके एक समयमें ही सर्व पदार्थोंमें ज्ञानाकारसे वर्तता है-यहां यह मतलब है कि कारणभूत पदार्थोके कार्य नो ज्ञानाकार ज्ञानमें झलकते हैं उनको उपचारसे पदार्थ कहते हैं। उन पदार्थोंमें ज्ञान वर्तन करता है ऐसा. कहते हुए भी व्यवहारसे दोष नहीं है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने ज्ञानकी महिमाको और भी दृढ़ किया है। और इन्द्रनीलमणिका दृष्टांत देकर यह बताया है कि जैसे प्रधान नीलरत्नको यदि सफेद दूधमें डाल दिया जाय तो वह नीलरत्न अपने आकार रूप दूधके भीवर पड़ा हुषा तथा दूधके आकार निश्चयसे न होता हुआ भी अपनी प्रभासे सर्व दुधमें व्याप्त होजाता है अर्थात् दूधका सफेद रंग छिप जाता है और उस दुधका नीला रंग होजाता है तब व्यवहारसे ऐसा कहते हैं कि नीलरत्नने सारे दूधको घेर लिया अथवा दूध नीलरत्नमें समा गया तैसे ही आत्माका पूर्ण केवलज्ञान निश्चयसे आत्माके आकार रहता हुमा आत्माको छोड़कर कहीं न जाता हुआ तथा न अन्य ज्ञेय पदार्थोको अपने निश्चयसे प्रवेश कराता हुआ अपनी अपूर्व ज्ञानकी सामर्थ्य से सर्व ज्ञेय पदार्थोको एक समयमें एक साथ जान लेता है।
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भापाटीका ।
और परको
ज्ञानका ऐसा महात्म्य है कि आपको भी जानता है भी जानता है । आप पर दोनों ज्ञेय हैं तथा ज्ञायक आप है ।
सर्व जगतमें प्रवेश
तत्र व्यवहारसे ऐसा कहे कि आत्माका ज्ञान कर गया व सर्व जगतके पदार्थ ज्ञानमें प्रवेश दोष नहीं है ।
कर गए वो कुछ
[ १२३
wwwww
ज्ञान सर्वज्ञेय पदार्थों का प्रतिबिम्ब पड़ता है जो ज्ञानाकार पदार्थों का ज्ञान में होता है उनके निमित्त कारण बाहरी पदार्थ हैं। इसलिये उपचारसे उन ज्ञानाकारोंको पदार्थ कहते हैं । ज्ञान अपने ज्ञानाकारोंको जानता है इसीको कहते हैं कि ज्ञान पदार्थोंको जानता है । ज्ञानमें ज्ञानाकारों का भेद करके कहना ही व्यवहार है । निश्चयसे ज्ञान आप अपने स्वभावमें ज्ञायकरूपसे विराजमान है- ज्ञेय ज्ञायकका व्यवहार करना भी व्यवहारनयसे है । यहां यह तात्पर्य है कि ऐसा केवलज्ञान इस संसारी आत्माको निश्चय रत्नत्रयमई परम सामायिक संयमरूप स्वात्मानुभवमईं शुद्धोपयोग द्वारा प्राप्त होता है इसलिये हरतरहका पुरुषार्थ करके इस साम्यभावरूप शुद्धोपयोगका अभ्यास करना योग्य है । यही परम सामायिकरूप शांतभाव है इस ही भावके द्वारा यह आत्मा यहां भी आनंद भोगता है और शुद्धि पाता हुआ सर्वज्ञ हो अनन्त सुखी हो जाता है।
उत्थानका - भागे पूर्व सूत्रसे यह बात कही गई कि व्यवहारसे ज्ञान पदार्थों में वर्तन करता है अब यह उपदेश करते हैं कि पदार्थ ज्ञानमें वर्तते हैं ।
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
WARAM
१२४] ' श्रीमवचनसार भाषार्टीका । जदितेण सन्ति अत्या,णाणे गाणंण होदि सबग। सध्यगयं वाणाणं, कहं ण णाणडिया अत्या ॥३१॥
यदि ते न सन्त्यार्या शने, ज्ञान न भवति सर्वगतम् । सर्वगतं वा शानं कथं न शानस्थिता अर्थाः ॥३॥
सामान्यार्थ-यदि वे पदार्थ केवलज्ञानमें न हो तो ज्ञान सर्वगत न होवे और जब ज्ञान सर्वगत है तो किस तरह पदार्थ ज्ञानमें स्थित न होंगे ? अवश्य होंगे।
अन्दय सहित विशेषार्थ-(अदि) यदि (ते अट्ठा) ने पदार्थ ( णाण ) केवलज्ञान (ण संति) नहीं हों अर्थात् जैसे दर्पणमें प्रतिबिन्ध झतता है इस तरह पदाधं अपने ज्ञानाकारको समपर्ण करने के द्वारा ज्ञान। न झलझने हों तो (गाणं) केवलज्ञान । (सम्बगयं ) सर्वगत ( ण होइ ) नहीं होवे । (वा) अथवा यदि व्यवहारसे (णार्ण) केवलज्ञान (सव्वगयं) सर्वगत आपकी सम्मतिमें है तो व्यवहार नवसे (महा) पदार्थ अर्थात अपने ज्ञेयाभारको ज्ञानमें समर्पण करनेवाले पदार्थ (कई गो किस तरह नहीं ( णाद्वया) केवलज्ञानमें स्थित हैं किन्तु ज्ञानमें अवश्य तिष्ठने हैं ऐसा मानना होगा। यहां यह अभिप्राय है क्योंकि व्यवहार नयले ही जब ज्ञेयोंके ज्ञानाकारको ग्रहण करनेके द्वारा सर्वगत व्हा जाता है इसीलिये ही तव ज्ञेयोंके ज्ञानाशार समर्पण द्वारसे पदार्थ भी व्यवहारसे ज्ञान प्राप्त हैं ऐसा कह सके हैं। पदार्थोके आजारको अब ज्ञान ग्रहण करता है तब पदार्थ अपना आकार ज्ञानको देते हैं यह कहना होगा।
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीभवचनसार भाषाटीका। [१२५ भावार्थ-इस गांथामें आचार्यने ज्ञानके सर्वव्यापकपनेको और भी साफ किया है और केवलज्ञानकी महिमा दर्शाई है। 'ज्ञान यद्यपि आत्माका गुण है और उन ही प्रदेशोंमें निश्चयसे ठहरता है जिनमें मात्मा व्यापक है व जो आत्माके निज प्रदेश हैं तथापि ज्ञानमें ऐसी स्वच्छता है कि धर्म जैसे दर्पणकी स्वच्छतामें दर्पणके विषयमृत पदार्थ दर्पणमें साफ साफ झलकते हैं इसीसे दर्पणको आदर्श व पदार्थोंका झलझानेवाला कहते हैं वैसे सम्पूर्ण जगतके पदार्थ अपने तीन कालवी पर्यायोंके साथमें ज्ञानमें एक साथ प्रतिविम्बत होते हैं इसीसे ज्ञानको सर्वंगत या सर्वव्यापी कहते हैं। जिसतरह जानको सर्वगत कहते हैं उसी तरह यह भी कहसक्ते हैं कि सर्वपदार्थ भी ज्ञानमें सलफते हैं अर्थात सर्पपदार्थ ज्ञानमें समागए । निश्चय नयसे न ज्ञान आत्माके प्रदेशोंको छोड़कर ज्ञेय पदार्थोके पास जाता है और न ज्ञेय पदार्थ अपने २ प्रदेशों को छोड़कर ज्ञानमें आते हैं कोई किसी में जाता माता नहीं तथापि व्यवहार नयसे जब ज्ञानज्ञेयका ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध है तब यह कहना कुछ दोषयुक्त नहीं है कि अब सर्व ज्ञेयोंके आकार ज्ञानमें प्रतिबिम्बित होते हैं तप जैसे ज्ञानज्ञेयोंमें फैलने के कारण सर्वगत या सर्वव्यापक हैं वैसे पदार्थ भी ज्ञान प्राप्त, गत या व्याप्त हैं। दोनोंशा निमित नमित्तिक सम्बन्ध है । ज्ञान और ज्ञेय दोनोंकी सत्ता होनेपर यह स्वतः सिद्ध है कि ज्ञान उनके आकारोंको ग्रहण करता है और ज्ञेय अपने आकारोंको ज्ञानको देते हैं। तथा पदार्थ ज्ञानमें तिष्ठते हैं ऐसा कहना किसी भी तरह अनुचित नहीं है। यहां यह भी दिखलानेका मतलब है कि
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२६] श्रीप्रवचनसार भापाटीका । जगत, एक ही द्रव्य नहीं है किन्तु जगत अनंत द्रव्योंचा समुदाय है जिनमें अनन्त ही आत्मा है और अनन्न ही अनात्मा हैं ज्ञानकी शक्ति आत्मामें ही है ज्ञानका म्वभाव दापकके समान स्वपर प्रकाशक है । ज्ञान अपनेको भी जानता है और परको भी जानता है । यदि स्वपरको न जाने तो ज्ञ नका ज्ञ नपना ही नहीं रहे। इसलिये निर्मल ज्ञान मापने आधारभूत मात्माके तथा अपने ही साथ रहनेवाले अन्य अनन्त गुणोंको व उनकी अनन्त पचोंको तथा अन्य आत्माओंको और उनके गुण पर्थयोंको तथा मतगण पर्याय सहित अनंत जनात्मानको एक साथ जानता है अर्थात उनके सर्व आकार, या विशेष ज्ञानमें पृथक् २ झलकते हैं तब ऐसा कहना कुछ भी अनुचित नहीं है कि ज्ञान ज्ञेयों में फैल गया, चला गया या व्याप गया तथा ज्ञेय ज्ञानमें फैल गये, चले गये या व्याप गये । जुद्री र सत्ताको रखते हुए द परस्पर ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्धसे केवलज्ञानमें सर्व पर्याय तिष्ठते हैं ऐसा कहनेका व्यवहार है । तात्पर्य यह है कि केवल ज्ञानकी ऐसी अपूर्व शक्ति है कि आप अन्य पदार्थ रूप न होता हुआ भी सर्वको जैसाका तैसा मानता है उनके शुभ अशुभ हीन उच्च परिणमनमें रागद्वेष नहीं करता है । दर्पणके समान योतरागो रहता है तथा कोई वात ज्ञानसे वाहरकी नहीं रह जाती है इसीसे जैसे रागद्वेय जनित माकुलता नहीं है वेसे अज्ञान ननित आकुबता नहीं है। इसी कारणसे केवलज्ञान उपादेय है-ग्रहण करने अथवा प्रगट करने योग्य है अतएव सर्व प्रपंच छोड़ शांत चित्त हो केवलज्ञान के कारणभूत स्वसंवेदनमयी शुद्धोपयोगकी भावना.
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
१२७ ]
निरंतर करनी योग्य है । यही भावना मुमुक्षु मात्मार्थी जीवके यहां भी आनन्द प्रदान करती है और भविष्य में भी अनंत सुखकी प्रकटताकी कारण है ।
उत्पादिका - भागे यह समझाते हैं कि यद्यपि व्यवहार से ज्ञानीका ज्ञेय पदार्थों के साथ ग्राह्य ग्राहक अर्थात् ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध है तथापि यसे स्पर्श आदिका सम्बन्ध नहीं है इस लिये ज्ञानका ज्ञेय पदार्थोके साथ भिज्ञपना ही है । गेहदिदि, ण परं परिणमादे
केवली भगवं ।
पेच्छदि मंगोलो, जाणदि सव्वं
णिरवसेसं ॥ ३२ ॥
गृणाति नेव न मुञ्चति न परं परिणमति केवली भगवान् । पश्य समन्तनः स जानाति सर्व निरोपं ॥ ३२ ॥
सामान्यार्थ - केवली भगवान पर द्रव्यको न तो ग्रहण करते हैं, और न छोड़ते हैं और न पर द्रव्यरूप आप परिणमन करते हैं किन्तु वह बिना किसी ज्ञेयको शेष रक्खे सर्व ज्ञेयों को सर्व तरहसे देखने जानते हैं ।
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( केवली भगवं ) केवली भगवान सर्वज्ञ (परं) पर द्रव्यरूप शेष पदार्थको (णेव गिण्हदि ) न तो ग्रहण करते हैं; ( ण मुंचति ) न छोड़ते हैं (ज परिणमदि ) न उसरूप परिणमन करते हैं। इससे जाना जाता है कि उनकी परद्रव्यसे भिन्नता ही है । तब क्या वे परद्रव्यको
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८] श्रीमवचनसार भाषाटीका । नहीं जानते हैं ? उसके लिये कहते हैं कि यद्यपि भिन्न हैं तथापि व्यवहार नयसे (सो) वह भगवान (गिरवसेसं सव्व) विना अव. शेषके सर्वको ( समंतः ) सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंके साथ ( पेच्छदि ) देखते हैं तथा (नाणदि ) जानते हैं। अथवा इसीका दूसरा व्याख्यान यह है कि केवली भगवान भीतर तो काम क्रोधादि भावोंको और बाहरमें पांचों इंद्रियों के विषयरूप पदार्थीको ग्रहण नहीं करते हैं न अपने मात्माके अनन्त ज्ञानादि चतुष्टयको छोड़ते हैं। यही कारण है जो केवलज्ञानी आत्मा केवलज्ञानकी उत्पत्तिके कालमें ही एक साथ सर्वको देखते जानते हुए अन्य विकल्परूप नहीं परिणमन करते हैं। ऐसे वीतरागी होते हुए क्या करते हैं ? अपने स्वभावरूप केवलज्ञानकी ज्योतिरसे निर्मल स्फटिक मणिके समान निश्चल चैतन्य प्रकाशरूप होकर अपने आत्माको अपने आत्माके द्वारा अपने आत्मामें जानते हैंअनुभव करते हैं । इसी कारपसे ही परद्रव्यों के साथ एकता नहीं है भिन्नता ही है ऐसा अभिप्राय जानना चाहिये।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने मात्माकी तथा उसके ज्ञानकी महिमाको और भी साफ कर दिया है तथा यह समझा दिया है कि कहीं कोई आत्माके ज्ञानको सर्व व्यापक और शेयोंका ज्ञानमें प्रवेश सुन कर यह न समझ बैठे कि ज्ञान आत्मासे बाहर आनात्मामें चला गया या ज्ञेय पदार्थ अपने क्षेत्रको त्याग आत्मामें प्रवेश कर गये । केवली भगवान परम वीतरागी निन स्वभावमें रमणकर्ता स्वोन्मुखी तथा निजानन्दरस भोगी हैं। वे भगवान अपने आत्मीक स्वभावमें तिष्ठिते हुए अपने अनन्त ज्ञान दर्शन
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
M
ARA
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। . [१२९ सुख वीर्य बादि शुद्ध गुगोंके भीतर विलास करते हुए अपने गुणों को कभी त्यागते नहीं-कमी भी गुणहीन होते नहीं और न काम क्रोधादि विकारो भायोंको ग्रहण करते हैं, न पर वस्तुको पकड़ते हैं, न अपने स्वाभाविक परिणमनको छोड़कर किसी पर द्रव्यकी अवस्थारून परिणमन करते हैं वे प्रभु तो अपने आत्माके द्वारा अपने आत्मामें अपने आत्मा हीको अनुभव करते हैं। उसीके ज्ञानामृतका स्वाद लेते हैं क्योंकि कहा भी है:उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत्तथाचमादेयमशेषतस्तत् । यदात्मनः संहशत पूर्णस्य सन्धारणमात्मनी ॥४३॥
(समपसारकलश अमृत०) भावार्थ-जब आत्मा अपनी पूर्ण शक्तिको समेटकर अपने . आपमें लवलीन होनाता है तब मानो आत्माने जो कुछ त्यागने योग्य था उसको त्याग दिया और को कुछ ग्रहण करने योग्य था उसको ग्रहण कर लिया । वास्तवमें केवलज्ञानी आत्मा अपने स्वरूपमें उसी तरह निश्चल हैं जैसे निर्मल स्फटिश मणि अपने स्वभाव निश्चल है। केवलज्ञानी भगवानले कोई इच्छा या विकल्प नहीं पैदा होता है कि हम किसी वस्तुको ग्रहण करें या छोड़ें या किसी रूप परिणमत्त फरें या हम किलो वस्तुको देखें, जानें । जैसे दीपककी शिखा पवन संचार रहित दशामें निश्च टरूपसे बिना किसी विकारके प्रकाशमान रहती है यह नहीं विकल्स करती है कि मैं किसीको प्रकाश करू, न अपने क्षेत्रको छोड़कर कहीं जाती है तथापि अपने स्वभावसे ही घट पट आदि पदार्थोझो व शुभ अशुभ रूपोंको जैसे वे हैं तैसे विना अपनेमें कोई विकार
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
RAMAnima
१३..] श्रीभवचनसार भापाटीका । पैदा किये प्रकाश करती है, तैसे केवलदर्शन और केवलज्ञान ज्योति परम निश्चलतासे आत्मामें झलकती रहती हैं। उनमें कोई रागद्वेष मोह सम्बन्धी विकार या कोई चाहना या कोई संकल्प विकल्प नहीं उत्पन्न होता है क्योंकि विकारके कारण मोहनीय कर्मका सर्वथा क्षय होगया है वह ज्ञानदर्शन ज्योति अपने आत्माके प्रदेशोंको छोड़कर कहीं जाती नहीं न परद्रव्यको पकड़ती है न उन रूप आप होती है । इस तरह परद्रव्यों से अपनी सत्ताको मिन्न रखती है । वास्तवमें हरएक द्रव्य अपने गुणों के साथ एक रूप है परन्तु अन्य द्रव्य तथा उसके गुणों के साथ एक रूप नहीं है, भिन्न है । एकका द्रव्य, क्षेत्र, काल भाय एक उसीमें है परका द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव उसका उस हीमें है । यदि एकका चतुष्टय दूसरेमें चला जाय तो भिन्न २ द्रव्यको सत्ताका ही लोप होजाय, सो इस जगतमें कभी होता नहीं। हरएक दव्य अनादि अनंत है और अपनी सत्ताको भी त्यागता नहीं, न परसत्ताको ग्रहण करता है, न परसत्ता रूप आप परिणमन करता है। यही वस्तुका स्वभाव वस्तुमें एक ही काल अस्तित्व और नास्तित्व स्वभावको सिद्ध करता है, वस्तु अपने द्रव्य क्षेत्र,काल भावसे अन्ति स्वभाव है तथा परके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे नास्तिस्वरूप है अर्थात् वातुमें अपना वस्तुपना तो है परन्तु परका वस्तुपना नहीं है। इस तरह मात्मा पदार्थ और उसके ज्ञानादि गुण अपने ही प्रदेशों में सदा निश्चल रहते हैं। निश्चय केवलज्ञानी भगवान भाप स्वभाव हीका भोग करते हैं, आप सुख गुणका स्वाद लेते हैं, उनको पर द्रव्यों के देखने जाननेकी कोई अभिलाषा नहीं होती है तथापि
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाका | [ १३१
उनके दर्शन ज्ञानकी ऐसी अपूर्व शक्ति है कि सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थ ret अनंत पर्यायोंके साथ उस ज्ञानदर्शनमें प्रतिबिंबित होते हैं । इसीसे व्यवहार में ऐसा कहते हैं कि केवलज्ञानी सर्वको पूर्णपने देखते जानते हैं ।
श्री समयसागरजी में भी आचार्यने ऐसा ही स्वरूप बताया है:
ण विपरिणम ण गिण्हइ उपज्नई ण प द्रव्जपज्जाए । गाणी जाणतो चिह्न पुग्गालक्रम्मं अणयनिहं ||
अर्थात् ज्ञानी आत्मा अनेक प्रकार पुद्गल कर्मको जानता हुआ भी पुद्गल कर्मरूप न परिणमत्ता है न उसे ग्रहण करता है और न उस yeast अवस्थारूप आप उपजता है |
ज्ञानी आत्मा सर्व ज्ञेयोंको जानते हैं तथापि अपने आत्मीक स्वभावमें रहते हैं ऐसी आत्माकी अपूर्व शक्ति मानकर दमको उचित है कि शुद्ध केवलज्ञानकी प्राप्तिके लिये शुद्ध पयोगकी भावना करें | यही भावना परम हितकारिणी तथा सुख प्रदान करनेवाली है । इसतरह ज्ञान ज्ञेयरूपसे नहीं परिणमन करता है, इत्यादि व्याख्यान करते हुए तीसरे स्थल में पांच गाथाए पूर्ण हुई।
Search - मागे कहते हैं कि जैसे मव भावरण ि सर्वको प्रगट करनेवाले लक्षणको धारनेवाले फेवलज्ञानसे आत्माका ज्ञान होता है वैसे आवरण सहित एक देश प्रगट करनेवाले लक्षणको धरनेवाले तथा केवलज्ञानकी उत्पत्तिका बीन रूप स्वसंवेदन ज्ञानमई भाव श्रुतज्ञान से भी आत्माका ज्ञान होता है व्यर्थात् जैसे केवलज्ञानसे आत्माका जानपना होता है वैसा श्रुतज्ञानसे
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
marinas
२३२] श्रीमवचनसार भाषाटीका । भी माल्माका ज्ञान होता है आत्मज्ञानके लिये दोनों ज्ञान बराबर हैं। अथवा दूमरी पातनिका यह है कि जैसे केवलज्ञान प्रमाण रूप है जैसे ही केवलज्ञान द्वारा दिखलाए हुए पदार्थों को प्रकाश करनेवाला श्रुतज्ञान भी परोक्ष प्रमाण है । इस तरह दो पातनिका ओंको मनमें रख आगेका सुत्र कहते हैंजो हिरेण विजाणदि, अप्पाणं जाणगं सहाण। तं सुयकेवलिमिलिणो, भणंति लोगप्पदीवयरा ॥३३
यो हि श्रुतेन विजानात्यात्मानं ज्ञाय स्वभावेन । तुं श्रुतकेवलिनभूपयो भणति लोकप्रदीपकराः ॥३३॥
सामान्यार्थ-जो कोई निश्चयसे श्रुतज्ञानके द्वारा स्वभाबसे ज्ञायक आत्माको अच्छी तरह जानता है उसको लोकके प्रकाश करनेवाले ऋषिगण श्रुवकेवली कहते हैं। ... अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो) जो कोई पुरुष (हि) निश्पसे (सुदेण ) निर्भिधार स्वसंवेदनरूप भाव श्रुत परिणामके द्वारा ( सहावेण ) समस्त विभावोंसे रहित स्वभावसे ही (नाणगं) ज्ञायन अर्थात केवलज्ञानरूर (अप्पाण) निम आत्माको ( विना णदि ) विशेष करके जानता है अर्थात् विषयों के सुखसे विलक्षण अपने शुद्धात्माकी भावनासे पैदा होनेवाले परमानन्दमई एक लक्ष
को रखनेवाले सुख रसके मास्वादसे अनुभव करता है। (लोगप्पदीवयरा ) लोडके प्रकाश करनेवाले (इसिणो ) ऋषि (तं ) उस महायोगीन्द्रको ( सुयकेवलिं) श्रुतकेवली (भणति) कहते हैं । इसका विस्तार यह है कि एक समयमें परिणमन ,करनेवाले सर्व चैतन्यशाली 'केवलज्ञानके द्वारा' आदि अंत रहितं.
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीnaurसा मापाका |
[ ११३
अन्य किसी कारण विना. दूसरे द्रव्यों में न पाइये ऐसे असाधारण अपनेआपसे अपने में अनुभव आने योग्य परम चैतन्यरूप सामान्य लक्षणको रखनेवाले तथा परद्रव्यसे रहितानेके द्वारा केवल ऐसे आत्माका आत्मामें स्वानुभव करनेसे जैसे भगवानकेवली होते हैं वैसे यह गणवर आदि निश्चय रत्नत्रयके आराधक पुरुष भी पूर्व में कहे हुए चैतन्य लक्षणधारी आत्माका भाव श्रुतज्ञानके द्वारा अनुभव करने से श्रुतकेवली होते हैं । प्रयोजन यह है कि जैसे कोई भी देवदत्त नामका पुरुष सूर्यके उदय होनेसे दिवसमें देखता. है और रात्रिको दीपक द्वारा कुछ भी देखता है वैसे सूर्यके उदयके समान केवलज्ञानके द्वारा दिवसके समान मोक्ष अवस्थाके होते हुए भगवान केवली मात्माको देखने हैं और संसारी विवेकी जीव रात्रि के समान संसार अवस्थामें प्रदीपके समान रागादि विकल्पोंसे रहित परम समाधिके द्वारा अपने आत्माको देखते हैं । अभिप्राय यह है कि आत्मा परोक्ष है। उसका ध्यान कैसे किया जाय ऐसा सन्देह करके परमात्माको भावनाको छोड़ न देना चाहिये ।
भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने बताया है कि यद्यपि केवलज्ञान आत्माका स्वाभाविक ज्ञान है और सर्व स्वपर ज्ञेयों को एक काल जाननेवाला है इसलिये मात्माको प्रत्यक्षपने नाननेवाला है तथापि उस केवलज्ञानकी उत्पत्तिका कारण जो शुद्धोपयोग या साम्यभाव है उस उपयोगनें जो निज आत्मानुभव भावश्रुतज्ञानमई होता है वह भी निम आत्मा को जाननेवाला है । आत्माका ज्ञान जैसा केवलज्ञानको है वैसा स्वसंवेदनमई श्रुतज्ञानको है । अंतर केवल इतना ही है कि केवलज्ञान प्रत्यक्ष है, निराव
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३४] श्रीप्रवचनसार भापाटीका। रपारूप है और क्षायिक है जब कि श्रुतज्ञान परोक्ष है, मनकी सहायतासे प्रवर्तता है, एक देश निरावरण अर्थात क्षयोपशम रूप है। केवलज्ञान सूर्यके समान है, श्रुतज्ञान दीपकके समान है। सूर्य खाधीनतासे प्रकाशमान है। दीपक तैलकी सहायतासे प्रकाश होता है । यद्यपि एक स्वाधीन दुसरा पराधीन है तथापि जैसे सूर्य घट पट आदि पदार्थोंको घट पट मादि रूप दर्शाता है वैसे दीपक घटपट आदि पदार्थोकी घटपट आदि रूप दर्शाता है अंतर इतना ही है कि सूर्यके प्रकाशमें पदार्थ पूर्ण स्पष्ट तथा दीपकके प्रकाशमें अपूर्ण अस्पष्ट दीखता है। श्रुतज्ञान द्वादशांग रूप जिनवाणीसे मात्मा और अनात्माके भेद प्रभेदोंको इतनी अच्छी तरह जान लेता है कि आत्मा विलकुल अनात्मासे भिन्न झलकता है । द्रव्य श्रुतज्ञानके द्वारा आत्माका स्वरूप लक्ष्यमें लेकर वार वार विचार किया जाता है और यह भावना की जाती है कि जैसा आमाका स्वभाव है वैसा ही मेरा स्वभाव है। ऐसी मावनाके हद संस्कारके बलसे ज्ञानोपयोग स्वयं इस माम स्वभावके श्रद्धा भावमें स्थिति प्राप्त करता है । जव स्थिति होती है तब स्वानुमत्र जागृत होता है। उस समय जो आत्माका दर्शन व उसके सुखका बेदन होता है वह अपनी जातिमें केवलज्ञानीके स्वानुभवके समान है। इसलिये श्रुतज्ञानीके खानुभवको भाव श्रुतज्ञान तथा केवलज्ञानीके स्वानुभवको भाव केवलज्ञान कहते हैं। यह भाव केवलज्ञान अब सर्वथा निरावण और प्रत्यक्ष है तब यह
भाव श्रुतज्ञान क्षयोपशम रूप स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है। भावनाके दृढ़ १. अभ्यासके बलसे आत्माकी ज्ञानज्योति स्फुरायमान होजाती है।
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
श्री समाधिशतक में श्री पूज्यपादस्वामीने कहा है:सोहमित्यात्त संस्कारस्तस्मिन् भावनया पुनः । तत्रैव दृढसंस्काराल्लभते खात्मनि स्थितिम् ॥ २८॥ भावार्थ - वह शुद्ध मात्मा मैं हूं ऐसा संस्कार होने से तथा उसीकी भावनासे व उसीमें दृढ़ संस्कार होनेसे आत्मा अपने मात्मामें ठहर जाता है ।
श्री समयसार कलश में श्री अमृतचन्द्र आचार्य कहते हैं:यदि कथमपि धारावाहिना बोधनेन, ध्रुवमुपलभमानः शुद्धमात्मानमास्ते । तदयमुदयदात्माराममात्मानमात्मा पर परिणतिरोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति ॥ ३-६ || भावार्थ - यह है कि जिस तरहसे हो उस तरह लगातार आत्मा ज्ञानकी भावनासे शुद्ध आत्माको निश्चयसे प्राप्त करता हुआ तिष्ठता है तब यह आत्मा अपने आत्माके उपवन में रमते हुए प्रकाशमान आत्माको परमें परिणतिके रुक जानेसे शुद्ध रूपसे ही प्राप्त कर लेता है।
भाव श्रुतज्ञान ही केवलज्ञानका कारण है। दोनोमें आत्माका समान ज्ञान होता है । जैसे केवली विकल्परहित स्वभावसे ज्ञाता दृष्टा आत्माको देखते जानते हैं वैसे श्रुतज्ञानी विकल्प रहित स्वभावसे ज्ञाता दृष्टा आत्मा को जानते हैं। यद्यपि श्रुतकेवली गणधर आदि ऋषि द्वादशांगके पारगामी होते हैं तथा वे ही स्वसंवेदन ज्ञानी श्रुतकेवली कहलाते हैं और ऐसा ही अभिप्राय टीकाकारने भी व्यक्त किया है तथापि स्वसंवेदन ज्ञानद्वारा आत्माका
[ ११५
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६] श्रीमवचनसार भापाटीका । अनुभव करनेकी अपेक्षा द्वादशांगके पूर्ण ज्ञान विना भल्पज्ञानी चतुर्थ, पंचम, व छठा गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टी, या श्रापक या मुनि भी श्रुतकेवली उपचारसे कहे जासक्त हैं क्योंकि वे भी उस ही तरह मात्माको अनुभव करते हैं जिस तरह द्वादशांगके ज्ञाता श्रुतकेचली। ____ यहां आचार्यने भावश्नुवज्ञानको जो स्वानुभव करनेवाला है महिमायुक्त दर्शाया है क्योंकि इस हीके प्रतापसे कात्माका .स्वाद आता है तथा आत्माका ध्यान होता है जिसके द्वारा कर्म बंधन कटते हैं और आत्मा अपने स्वाभाविक केवलज्ञानको प्राप्त धरलेता है । तात्पर्य यह है कि हमको प्रमाद छोड़कर शास्त्रज्ञानके द्वारा निज आत्माको पहचानकर व उसमें शृशान हड़ जमाकर आत्माका मनन सतत् करना चाहिये जिससे साम्यभाव प्रगटे और वीतराग विज्ञानताको शक्ति आत्माफी शक्तिको व्यक्त करती चली जावे ॥२॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि शब्दरूर द्रव्यश्रुत व्यवहार नयसे ज्ञान है निश्चय करके अर्थ जाननरूप भावश्रुत ही ज्ञान है । अथवा आत्माकी भावनामें लवलीन पुल निश्चय श्रुत केवली हैं ऐमा पूर्व सूवमें कहा है, अब व्यवहार श्रुतकेचलीको कहते हैं अथवा ज्ञानके साथ जो श्रुतकी उपाधि है उसे दूर करते हैंसुत्तं जिणोवदिटुं, पोग्गलव्यप्पोहिं वयणेहिं । तजाणणाहिणाणं सुत्तस्सय जाणणा भणिया ॥३४
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीभवचनसार थापाटीका। [१३५ सूत्र जिनोपदिष्ट पुद्गलद्रव्यात्मकर्यचनैः ।
तज्ज्ञप्तिहि ज्ञानं सूत्रस्य च शतिर्मणिता ॥ ३४ ॥ सामान्यार्थ-द्रव्यश्चतरूप पुद्कद्रव्यमई वचनोंसे मिनंद भगवानके द्वारा उपदेश किया गया है । उस द्रव्यश्श्रुतका मो ज्ञान है वही निश्चयकर भावश्रुतज्ञान है । और द्रव्यश्रुतको श्रुतज्ञान व्यवहारसे कहा गया है। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(सुत) द्रव्यश्चत (पोग्गल दनप्परोहिं वयणेहि ) पूगल द्रव्यमई दिव्यध्वनिके वचनोंसे (निणोवदिट्ट) मिन भगवानके द्वारा उपदेश किया गया है। (हि) निश्चय करके (तजाणणा) उस द्रव्यश्रुतके आधारसे जो जानपना है (णाणं) सो अर्थज्ञानरूप भावश्रुत ज्ञान है। (य) और (सुत्तस्स) उस द्रव्यश्चतको भी (जाणणा) मानपना या ज्ञान संज्ञा (भणिया) व्यवहार नयसे कही गई है। भाव यह है कि जैसे निश्चयसे यह जीव शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव रूप है पीछे व्यवहार नयसे जीव नर नारक मादि रूप भी कहा जाता है। वैसे निश्चयसे ज्ञान सर्व वस्तुओंको प्रकाश करनेवाला अखंड एक प्रतिमास रूप कहा जाता है सो ही ज्ञान फिर व्यवहार नयसे मेघोंके पटलोंसे आच्छादित सुर्यकी अवस्थाविशेषकी तरह कर्म पटलसे आच्छादित अखंड एक ज्ञानरूप होकर मतिज्ञान श्रुतज्ञान मादि नामवाला हो जाता है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने बताया है कि वास्तवमें ज्ञान ही सार गुण है जो कि इस आत्माका स्वभाव है तथा वह एक अखंड सर्व ज्ञेयोंको प्रकाश करनेवाला है। निश्च
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । - यसे उस ज्ञानमें भेद नहीं है । जैसे सूर्यका प्रकाश एकरूप है वैसे भात्माके ज्ञानका प्रकाश एकरूप है। परन्तु जैसे सूर्यके प्रकाशके रोकनेवाले बादल कम व अधिक होनेसे प्रकाश अनेक रूप कम व अधिक प्रगट होता है बसे ज्ञानावरणीय क्रमका आवरण ज्ञानको रोकता है। वह कर्म जितना क्षयोपशमरूप होता है उतना ही ज्ञान प्रगट होता है। कर्मके क्षयोपशम नानारूप हैं इसीसे वह प्रगट ज्ञान भी नानारूप है। स्यूजपने उस जानकी कम व अधिक प्रगटताके कारण ज्ञानके पांच भेद कहे, गए हैंमति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल । इनमें मति और श्रुत दो ज्ञान परोक्ष हैं-इन्द्रिय और मनके व बाह्य पदार्थोके आलम्बनसे: प्रगट होते हैं । शास्त्रज्ञान रूप जो भावभुतज्ञान है वह भी द्रव्य श्रुतरूप द्वादशांग वाणीके आधारसे प्रगट होता है। द्वादशांग वाणी पुद्गलमई वचनरूप है तथा उसका माधार केवलज्ञानीकी दिव्यध्वनि है वह भी पुद्गलमई अनक्षरात्मक वाणी है। इस कारणसे निश्चयसे यह द्रव्यश्चत श्रुतज्ञान नहीं है किन्तु द्रव्यश्नुतके द्वारा जो जानने व अनुभवनेमें जाता है ऐसा भावश्रुत सो ही श्रुतज्ञान है और वह आत्माका ही स्वभाव है-अथवा आत्माके स्वभावका ही एक देश झलझाव है। इस कारण उसको एक ज्ञान ही कहना योग्य है । इस ज्ञानके श्रुतज्ञानकी उपाधि निमित्तवश है। वास्तवमें ज्ञान के श्रुतज्ञान आदिकी उपाधि नहीं है। यही कारण है मिससे द्रव्यश्चुतको उपचारसे या व्यवहारसे श्रुतज्ञान कहा है। तथा जो इन्पश्चतरूप द्वादशांग वाणीको जानता है उसको व्यवहारसे श्रुतकेवली और जो भाववैवरूप आत्माको जानता तथा
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषांटीका ।
[ १९३९
अनुभवता है उसको निश्वयसे श्रुतकेवली कहा है । आचार्य महाराजने समयसारनीमें भी यही बात कही है
जो हि सुदेण भिगच्छदि अप्पाणमिणतु केवलं सुद्धं । तं सुदकेवलिमिसिणो भणति लोकप्पदीवयरा ॥ जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवली तमाहु जिणा । सुदणाणमाद सच्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा ||
भाव यह है कि जो श्रुतज्ञानके द्वारा अपने इस आत्माको असहाय और शुद्ध अनुभव करता है उसको जिनेन्द्रोंने श्रुतकेवली कहा है यह निश्चय नयसे है तथा जो सर्व श्रुतज्ञानको जानता है उसको जिनेन्द्रोंने व्यवहार नयसे श्रुतकेवली कहा है । क्योंकिसर्व श्रुतज्ञान आत्मा ही है इस लिये आत्मा ही आत्माका ज्ञाता ही श्रुतकेबली है।
आत्मा निश्वयसे शुद्धबुद्ध एक स्वभाव है उसीको कर्मकी उपाधिकी अपेक्षा व्यवहार नयसे नर, नारक, देव, तिर्थच कहते हैं वैसे ही ज्ञान एक है उसको व्यवहारसे आवरणकी उपाधिके वशसे अनेक ज्ञान कहते हैं । प्रयोजन कहने का यह है कि आत्माका जानपना ही भावश्रुत है और वह केवलज्ञानके समान आत्माको जाननेवाला है इसलिये सर्व विकल्प छोड़कर निश्चित हो एक नि आत्माको जानकर उसीका ही अनुभव करना योग्य है । इसीसे ही साम्यभाव रूप शुद्धोपयोग प्रगट होगा जो साक्षात् केवलज्ञानका कारण है ॥ ३४ ॥
उत्थानका- आगे कहते हैं कि आत्मा अपने से भिन्न
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४० - श्रीमवचनसार भापाटीका । किसी ज्ञानके द्वारा ज्ञानी नहीं होता है अर्थात् ज्ञान और मात्माका सर्वथा भेद नहीं है किसी अपेक्षा भेद है । वास्तवमें ज्ञान और आत्मा अभिन्न हैं। जो जाणदि सोणाणं,ण हवदिणाणेण जाणगो आदा। 'णाणं परिणमदि संयं अहाणाणडिया सव्ये ॥३५॥
यो जानाति त ज्ञानं न भवति शानेन जायक आत्मा। ..." ज्ञानं परिणमते स्वयमा ज्ञानस्थिताः सर्वे ॥ ३६ ॥
सामान्यार्थ-जो जानता है सो ज्ञान है । आत्मा मिन्न ज्ञानके द्वारा ज्ञायक नहीं है । आत्माका ज्ञान आप ही परिणमन करता है और सब ज्ञेय पदार्थ ज्ञानमें स्थित हैं।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो जाणदि ) जो कोई जानता है (सो णाण) सो ज्ञान गुण है अथवा ज्ञानी यात्मा है। जैसे संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदिके कारण अग्नि और उसके उष्ण गुणका भेद होनेपर भी अभेद नयसे जलाने की क्रियाको करनेको समर्थ उष्ण गुणके द्वारा परिणमतीहुई अग्नि भी उण कही जाती है । वैसे संज्ञा लक्षणादिके द्वारा ज्ञान और आत्माका भेद होनेपर भी पदार्थ और क्रियाको जाननेको समर्थ ज्ञान गुणके द्वारा परिणमन करता हुआ पात्मा भी ज्ञान या ज्ञानरूप कहा जाता है ऐसा ही कहागया है। "जानातीति ज्ञानमात्मा' कि जो जानता है सो ज्ञान है और सो ही आत्मा है । (बादा) आत्मा ( णाणेण ) मिन्न ज्ञानके कारणसे ( जाणगो ) जाननेवाला ज्ञाता (ण हवृदि) नहीं होता है। किसीका ऐसा मत है कि जैसे मिन्न
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
JANAAKANNAJAN
RAMA
. श्रीमवचनसार भाषाटीका। [१४१. दतीलेसे देवदत्त घातका काटनेवाला होता है वैसे मिन्न ज्ञानसे आत्मा ज्ञाता होवे कोई दोष नहीं है। उसके लिये कहते हैं कि ऐसा नहीं हो सका है। घास छेदने की क्रिया के सम्बन्धमें दलीला बाहरी उपकरण है सो भिन्न हो सका है परन्तु भीतरी उपकरण देवदत्तकी छेदन किया सम्बन्धी शक्ति विशेष है सो देवदत्तसे बभिन्न ही है भिन्न नहीं है। वैसे ही ज्ञानकी क्रियामें उपाध्याय, प्रकाश पुस्तक आदि बाहरी उपकरण भिन्न है तो हों इसमें कोई दोष नहीं है परन्तु ज्ञान शक्ति भिन्न नहीं है वह आत्माले अभिन्न है। यदि ऐसा मानोगे कि भिन्न ज्ञानसे आत्मा ज्ञानी होनाता है तब दूसरेके ज्ञानसे अर्थात् भिन्न ज्ञानसे सर्व ही कुंभ, खंभा आदि जड़ पदार्थ भी ज्ञानी होजायगे सो ऐसा होता नहीं। (णाणं) ज्ञान ( सयं) आप ही ( परिणमदि ) परिणमन करता है अर्थात, जब भिन्न ज्ञानसे आत्मा ज्ञानी नहीं होता है तब से घटकी उत्पत्तिमें मिट्टीका पिंड स्वयं उपादान कारणसे परिणमन करता है वैसे पदार्थोंके जानने में ज्ञान स्वयं उपादान कारणले परिणमन करता है तथा (सने अट्ठा ) व्यवहारनयसे सर्व ही ज्ञेय पदार्थ (णाणढ़िया ) ज्ञानमें स्थित हैं अर्थात् जैसे दर्पणमें प्रतिबिम्ब पड़ता है तैसे ज्ञानाकारसे ज्ञानमें झलकते हैं ऐसा अभिप्राय है।
भावार्थ-यहां आचार्यने ज्ञान और भात्माकी एकताको दिखाया है तथा बताया है कि गुण और गुणी प्रदेशोंकी अपेक्षासे एक हैं। मात्मा गुणी है ज्ञान उसका गुण है इसलिये दोनोंका क्षेत्र एक है । गुण और गुणीमें संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजनकी अपेक्षा भेद है परंतु प्रदेशोंकी अपेक्षा अभेद है। जैसे अग्नि
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२ ]
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
द्रव्य है उष्णता उसका गुण है। इन दोनोंमें कथंचित् भेद व कथंचित अभेद है । निकी संज्ञा जुदी है उष्णताकी जुड़ी है यह संज्ञा व नामभेद हैं। अग्निकी संख्या अनेक प्रकार होसक्ती है जैसे तिनकेकी अग्नि, लकडोकी अग्नि, कोयले की अग्नि परंतु उष्णताकी संख्या एक है, अग्निका लक्षण दाहक बाचक प्रकाशक कहते हैं जबकि उष्णताका लक्षण मात्र दाह उत्पन्न करना है, अग्निका प्रयोजन अनेक प्रकारका होसक्ता है जब कि उष्णताका प्रयोजन गर्मी पहुंचाना व शीत निवारण मन्त्र है इस तह भेद है तो भी अग्नि और उष्णताका एक क्षेत्रावगाह सम्बध है। जहां अग्नि है वहां उष्णता जरूर है इसी तरह आत्मा और ज्ञानका कथंचित भेद व कथंचित अभेदरूप सम्बन्ध है । आत्मा और ज्ञानकी संज्ञा भिन्न २ है । आत्मा की संख्या अनेक है ज्ञान गुण एक है | आत्माका लक्षण उपयोगवान है। ज्ञान वह है जो मात्र जाने, आत्माका प्रयोजन स्वाधीन होकर विजानन्द भोग करना है जब कि ज्ञानका प्रयोजन अहित त्याग व हितका
है इस तरह ज्ञान और आत्मामें भेद है तथापि प्रदेशों की अपेक्षा अभेद है ।
यह आत्मा ज्ञानी अपने ज्ञान स्वभाव को अपेक्षांसे है । ऐसा नहीं कि ज्ञान कोई भिन्न वस्तु है उसके संयोग से आत्माको ज्ञानी कहते हैं । जैसे लकड़ोके संयोगसे लकड़ीवाला, व दतीलेके सयोगसे घास काटनेवाला ऐसा संयोग सम्बन्ध जो आत्मा और ज्ञानका मानते हैं उसके मत में ज्ञानके संयोग बिना आत्मा जड़ पुद्गलवत होनायगा तब जैसे ज्ञानके संयोग से जड़ पुद्गलवत् कोई
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [१४३ आत्मा पदार्थ ज्ञानी होजायगा वैसे घट पट आदि प्रत्यक्ष पुदल भी ज्ञानके संयोगसे ज्ञानी होजावेंगे, सो ऐसा जगतमें होता नहीं, यदि ऐसा हो तो जड़से चेतन होजाया करें और जब ज्ञानके संयोगसे जड़ चेतन होगा तब चेतन भी ज्ञान के वियोगसे जड़ होनावेगा, यह बड़ा भारी दोष होगा। इससे यह बात निश्चित है कि आत्मा और ज्ञानका तादात्म्य सम्बन्ध है जो कभी भी छूटनेवाला नहीं है । ज्ञानी आत्मा अपनी ही उगदान शक्तिसे अपने ज्ञानरूप परिणमन करता है। और उसी ज्ञान परिणतिसे अपनी निर्मलता के कारण सर्व ज्ञेय पदार्थोको जान लेता है और वे पदार्थ भी अपनी शक्तिसे ही ज्ञानमें झलकते हैं जिसको हम व्यवहार नयसे कहते हैं कि सर्व पदार्थ ज्ञ नमें समागये।
इस तरह आत्माको ज्ञान स्वभाव मानकर हमें निर्मल केवलज्ञानमई स्वभावकी प्रगटताके लिये शुद्धोपयोगकी सदा भावना करनी चाहिये यही तात्पर्य है ॥३५॥
उत्थानिका-आगे बताते हैं कि आत्मा ज्ञानरूप है तथा अन्य सर्व ज्ञेय हैं अर्थात् ज्ञान और ज्ञेयका भेद प्रगट करते हैंतम्हा जाणं जीवो, पं दव्वं सिधा समक्खादं । दव्वंति पुणो आदा, परं च परिणामसंवद्धं ॥३६॥
तस्मात् ज्ञानं जोयो, शेयं द्रव्यं त्रिधा समाख्यातम् । द्रव्यमति पुनरागमा, परश्च परिणामसंवरः ॥ ३६ ॥ सामान्पार्थ-इसलिये जीव ज्ञान स्वरूप है और और
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४४ ]
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका !
जानने योग्य ज्ञेय द्रव्य तीन प्रकार कहा गया है। वह ज्ञेयभूत द्रव्य किसी अपेक्षा परिणपनशील होता हुआ आत्मा और अनात्मा है !
अन्वय सहिन विशेषार्थ - क्योंकि आत्मा ही अपने उपादान रूपसे ज्ञानरूप परिणमन करता है तैसे ही पदार्थों को जानता है ऐस पूर्व सूत्र में कहा गया है (तम्हा) इसलिये (जीवः) आत्मा ही ( णाणं ) ज्ञान है । ( पेयं दव्वं ) उस ज्ञानस्वरूप आत्माका ज्ञेय द्रव्य ( विहा) तीन प्रकार अर्थात् भूत, भविष्य, वर्तमान पर्याय में परिणमन रूपसे या द्रव्य गुण पर्याय रूपसे या उत्पाद व्यय श्रौम्यरूपसे ऐसे तीन प्रकार (सनश्खादें ) कहा गया है । (पुणः ) तथा ( परिणामसंहः) किसी अपेक्षा परिणमनशीळ ( आदा च परं ) आत्मा और पर द्रव्य ( बव्यंति ) द्रव्य हैं तथा क्योंकि ज्ञान दीपक के समान अपने को भी जानता है और परको भी जानता है इसलिये आत्मा भी ज्ञेय है ।
यहां पर नैयायिक मत अनुसार चलनेवाला कोई कहता है कि ज्ञान दूसरे ज्ञानसे जाना जाता है क्योंकि वह प्रमेय है जैसे घट आदि अर्थात् ज्ञान स्वयं आपको नहीं जानता है । इसका समाधान करते हैं कि ऐसा कहना दीपकके साथ व्यभिचार रूप है । क्योंकि प्रदीप सपने आप प्रमेव या जानने योग्य ज्ञेय है उसके प्रकाशके लिये अन्य दीपककी आवश्यक्ता नहीं है । वैसे ही ज्ञान भी अपने आप ही अपने आत्माको प्रकाश करता है। उसके लिये अन्य ज्ञानके होनेकी जरूरत नहीं है । ज्ञान स्वयं स्वपर प्रकाशक है । यदि ज्ञान दूसरे ज्ञानसे प्रकाशता है तब वह
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
'श्रीमचनसार भाषाटीका। [१४५ ज्ञान फिर दूमरे ज्ञानसे प्रकार्यता है ऐसा माना नायगा तो अनंत माकाश फैलनेवाली व जिप्तका दूर करना अतिकतिन ऐसी अनवस्था प्राप्त हो भायगी सो होना सम्मत नहीं है । इसलिये ज्ञान विपर प्रकाशक है ऐसा सुत्रका अर्थ है।
भावार्थ-पहां भाचार्य ज्ञान और ज्ञेयका भेद करते हुए बताते हैं और इस बातका निराकरण करते हैं जो और ज्ञेयको सर्वथा एक मानते हैं । आत्मा द्रव्य है उसका ९ गुण ज्ञान है । उस ज्ञागसे ही आत्मा अपनेको भी जानता है और परको भी जानता है । ज्ञानकी अपेक्षा ज्ञेय और ज्ञेयकी अपेक्षा ज्ञान कहलाता है। यदि मात्र आत्मा ही आत्मा एक पदार्थ हो तो अन्य जेय न होनेसे आत्माका ज्ञान किसको जाने । इसलिये ज्ञानसे ज्ञेय भिन्न है । यद्यपि ज्ञानमें आप अपनेको भी जानने की शक्ति है इसलिये नात्माका ज्ञान ज्ञेय भी है परन्तु इतना ही नहीं है-जगतमें अनंत अन्य आत्माएं हैं, पुद्गल हैं, धर्मास्तिकाय, अध. मान्तिकाय, आकाश और काल द्रव्य हैं ये सब एक शुद्ध बगवमें रमण करनेवाले आत्माके लिये ज्ञेय हैं। इस कथनका म: । है कि हरएक आत्मा स्वभावसे ज्ञाता है परन्तु जानने योग्य ज्ञेय हरएक आत्माके लिये सर्व लोक मात्रके द्रव्य हैं जिप्तमें आप भी स्वयं शामिल है । ये सर्व ज्ञेय पदार्थ तीन प्रकारसे कहे जासके है वह वीन प्रकारसे कथन नीचे प्रकार हो सका है--
(१) द्रव्योंकी भूत, भविष्य, वर्तमान पर्यायकी अपेक्षा । (२) उत्पाद, व्यय, श्रीव्यकी अपेक्षा । (३) द्रव्य, गुण, पर्यायकी अपेक्षा ।
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
- १४६ ]
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका 1
हरएक द्रव्य इन तीन प्रकारसे तीन स्वभाव रूप है । इन सब छः प्रकारके ज्ञेय पदार्थोंको द्रव्य इसी कारणसे कहते हैं कि ये सब द्रव्य परिणमनशील हैं जो प्रवण करे- परिणमन करे उसे द्रव्य कहते हैं, ऐसा द्रव्यपना लोकके सन पदार्थोंमें विद्यमान है । आत्मा स्वयं ज्ञान स्वभाव रूप है वह अपनी ज्ञान शक्ति से ही सर्व ज्ञेयोंको जानता है। उस ज्ञानके परिणमनके लिये अन्य किसी ज्ञानकी जरूरत नहीं है । जैसे दीपक स्वभावले . स्वपर प्रकाशक है ऐसे ही आत्माका ज्ञान स्वपर प्रकाशक है । dost at प्रकार यदि नहीं माने तो द्रव्य अपनी सत्ताको नहीं रख सक्ता है। जब द्रव्य अपने नामसे ही द्रवणशील है त उसमें समय २ अवस्थाएं होनी ही चाहिये, यदि द्रव्य सतरूप नित्य न हो तो उसका परिणमन मदा चल नहीं रुक्ता । इस अपेक्षाले द्रव्य अपने पर्यायोंके कारण तीन प्रकारका होजाता है । भूतकालकी पर्यायें, भविष्यकालकी पर्यायें तथा वर्तमानकान की पर्याय | जब पर्याय समय २ अन्य अन्य होती है तब स्वतः सिद्ध है कि हरएक समयमें प्राचीन पर्यायका व्यय होता है और नवीन पर्यायका उत्पाद होता है जत्र कि पर्यायोंका आधारभूत द्रव्य धौव्यरूप है । इस तरह द्रव्य उत्पाद, व्यय, धौव्यरूप है । द्रव्य गुण पर्यायोंका समुदाय है-समुदायकी अपेक्षा एक द्रव्य, वह द्रव्य अनंतगुणों का समुदाय है इससे गुणरूप, और हरएक गुणमें समय २ पर्याय हुआ करती है इससे पर्यायरूप इस तरह द्रव्य, द्रव्य गुणपर्यायरूप है । सम्पूर्ण छः द्रव्य इस तीन प्रकारके स्वभावको रखनेवाले हैं । इन सर्व द्रव्योंको आत्माका ज्ञान नान
.
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [१७ लेता है। नौ भी पर ज्ञेयोंसे आत्मा सदा भिन्न रहता है-आपके केवलज्ञानकी अपूर्व शक्तिको जानकर हरएक धर्मार्थीका कर्तव्य है कि जिस साम्यमाव या शुद्धोपयोगसे निज स्वरूपका विकाश होता है उस शुद्धोपयोगकी सदा भावना करे। ___ इस तरह निश्चय श्रुतकेवली, व्यवहार श्रुतक्षेवली के कथनकी मुख्यतासे आत्माके ज्ञान स्वभावके सिवाय भिन्न ज्ञानको निराकरण करते हुए तथा ज्ञान और ज्ञेयका स्वरूप कथन करते हुए चौथे स्थलमें चार गाथाएं पूर्ण हुई।
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि छात्माके वर्तमान ज्ञानमें अतीत और अनागत पर्यायें वर्तमानके समान दिखती हैं:तकालिगेय सव्वे, सदसम्भूदा हि पजया तासि । वते ते गाणे, विसेसदो व्यजादाणं ॥ ३७॥
तात्कालिका इव सर्वे सदसद्भूता हि पर्यायास्तासाम् । क्तन्ते ते शाने विशेषतो द्रव्यजातीनाम् ॥ ३७॥
सामान्यार्थ-उन नीवादि द्रव्य नालियोंकी सर्व ही विद्यमान और अविद्यमान पर्याय निश्चयसे उस ज्ञानमें विशेषतासे वर्तमान कालकी पर्यायों की तरह वर्तती हैं। ____ अन्वय, सहित विशेषार्थ-( तासिं दव्वनादीण) उन प्रसिद्ध शुद्ध जीव द्रव्योंकी व अन्य व्योंकी (ते) वे पूर्वोक्त (सव्वे) सर्व (सदसमृदा) सद्भुत और बाद्गृत अर्थात् वर्तमान
और आगामी तथा भविष्य कालकी (पज्जया) पर्याय (हि) निथ. यसे या स्पष्ट रूपसे ( णाणे ) केवलज्ञानमें (विसेसदो विशेष करके अर्थात अपने २ प्रदेश, काल, आकार आदि भेदोंके साथ
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
3
श्रीश्वचनसार 'भाषाटीका ।
संकर व्यतिकर दोषके विना (तक्कालिगेव) वर्तमान पर्यायोंक समाने ( ब ) वर्तती हैं, अर्थात् प्रतिभासती हैं या स्कुरायमान
P
"
होती हैं | भाव यह है कि जैसे छद्मस्य अल्पज्ञानी मविश्रुतज्ञानी पुरुषके भी अंतरंग मनसे विचारते हुए पदार्थोकी भूत और भविष्य पर्यायें प्रगट होती हैं अथवा जैसे चित्रमई भी बाहुबलि भरत आादिक भूतकाल के रूप' तथा श्रेणिक तीर्थंकर आदि भात्री कालके रूप वर्तमानके समान प्रत्यक्ष रूपसे दिखाई पड़ते तैसे चित्र भीतके समान केवलज्ञान में भूत और भावी अवस्थाएं भी एक साथ प्रत्यक्ष रूपसे दिखाई पड़ती हैं इसमें कोई विरोध नहीं है । तथा जैसे यह केवली भगवान 1 परद्रव्योंकी पर्यायौंको उनके ज्ञानाकार मात्र से जानते हैं, तन्मय होकर नहीं जानते हैं, परन्तु निश्चय करके केवलज्ञान आदि गुणका आधारभूत अपनी ही मि पर्यायको ही स्वसंवेदन या स्वानुभव रूपसे तन्मयी हो जानते हैं, वैसे निकट भव्य जीवको भी उचित है कि अन्य द्रव्यों का ज्ञान रखते हुए भी अपने शुद्ध आत्म द्रव्यकी सम्यक् शृद्धान, ज्ञान तथा चारित्र रूप निश्चय रत्नत्रय मई अवस्थाको ही सर्व तरहसे तन्मय होकर जाने तथा अनुभव करे यह तात्पर्य है ।
..
',
भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने फिर केवलज्ञानको अपूर्व महिमाको प्रगट किया है- द्रव्योंकी पर्यायें सदाकाल हुआ करती हैं । वर्तमान समय सम्बन्धी पर्यायोंको सद्भूतं तथा भूत और : भावी पर्यायोंको सद्भत कहते हैं । केवलज्ञानमें तीन काल संबंधी सर्व छः द्रव्योंकी सर्व पर्यायें एक साथ अलग २ अपने
w
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwwanmaanikam
श्रीमवचनसार,भाषाटीका। [१४९ सर्व भेदोंके साथ, झलक जाती हैं, तथा वे ऐसी झलकती हैं। मानों वे वर्तमानमें ही मौजूद हैं, इस पर दृष्टांत है कि जैसे कोई चित्रकार अपने मनमें भूतकालमें होगए चौवीस तीर्थकर व बाहुबलि, भरत व' रामचंद्र लक्ष्मण आदिकोंके अनेक जीवनके दृश्य अपने मनमें वर्तमानके समान विचारकर भीतपर उनके चित्र बना देता है इस ही तरह भावी कालमें होनेवाले श्री पद्मनाभ आदि वीर्थकरों व चक्रवर्ती मादिकोंको मनमें विचारकर उनके जीवन के भी दृश्योंको चित्रपर स्पष्ट लिख देता है अथवा जैसे चित्रपटको वर्तमानमें देखनेवाला उन भूत व भावी चित्रोंको चर्तमानके समान प्रत्यक्ष देखता है अथवा जैसे अल्पज्ञानीके विचारमें किसी द्रव्यका विचार करते हुए उसकी भूत और भावी कुछ अवस्थाएं अलक जाती हैं-दृष्टांत-सुवर्णको देखकर उसकी खानमें रहनेवाली भूत अवस्था तथा कंकण कुडल बननेकी भावी भवस्था मालूम हो जाती है, यदि ऐसा ज्ञान न हो तो सुवर्णका निश्चय होकर उससे आभूषण नहीं बन सके, वैद्य रोगीकी भूत और भावी अवस्थाको विचारकर ही औषधि देता है.एक पाचिका स्त्रो अन्नकी भूत मलीन अवस्था तथा भावी भात दाल रोटीकी अवस्थाको मनमें सोचकर ही रसोई तय्यार करती है इत्यादि अनेक दृष्टांत हैं तैसे केवलज्ञानी अपने दिव्यज्ञानमें प्रत्यक्ष रूपसे सर्व द्रव्योंकी सर्व पर्यायोंको वर्तमानके समान स्पष्ट जानते हैं। यद्यपि केवलज्ञानी सर्वको जानते हैं तथापि उन पर ज्ञेयोंकी तरफ सन्मुख नहीं हैं वह मात्र अपने शुद्ध मात्म स्वभावमें ही सन्मुख हैं और उसीके आनंदका स्वाद तन्मयी होकर ले रहे हैं अर्थात्
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६.1 श्रीमवचनसार भाषाटीका । निश्चयसे वे अपने भापका ही वेदन कर रहे हैं अर्थात पूर्ण ज्ञान चेतना रूप वर्तन कर रहे हैं। इसी तरह मोक्षार्थी व साम्यभावके अभ्यासीको भी उचित है कि यद्यपि वह अपने श्रुतज्ञानके वलसे अनेक द्रव्योंकी भूत और भावी पर्यायोंको वर्तमानवत् जानता है तो भी एकाय होकर निश्चय, रत्नत्रयमई अपने शुद्ध भात्माके शुद्ध भावको तन्मयी होकर जाने तथा उसीका ही मानन्दमई स्वाद लेवे । यही स्वानुभव पूर्ण स्वानुभवका तथा पूर्ण त्रिकालवी ज्ञानका वीन है। वर्तमान और भविष्यमै मात्माको मुखी निराकुल रखनेवाला यही निजानंदके अनुभवका अभ्यास है । इसका ही प्रयत्न करना चाहिये यह तात्पर्य है।
यहांपर यह भी भाव समझना कि जैसे केवली भगवान प्रत्यक्ष सर्व लोक मलोकको देखते जानते हुए भी परम उदासीन तथा आत्मस्थ रहते तैसे श्रुतज्ञानी महात्मा भी श्रुतके मालम्वनसे सर्व ज्ञेयोंको पद्व्योंका समुदाय रूप नानकर उन सबसे उदासीन होकर भात्मस्थ रहते हैं । श्रुतज्ञानीने यद्यपि भनेक विशेष नहीं जाने हैं तथापि सर्व ज्ञानकी कुंजी पा ली है इससे परम संतुष्ट है-वीतरागी है।
उत्थानिका-आगे आचार्य दिखलाते हैं कि पूर्व गाथामें जो अपमृत शब्द कहा है वह संज्ञा भूत और भविष्यकी पर्यायोको दी गई हैजे णेव हि संजाया, जे खलु णटा भवीयपनाया। ते होंति असम्भूया, पजाया णाणपञ्चक्खा ॥३८॥
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
Siwww
भीमवचनसार भाषांटीका। [१५१ ये नैव हि संजाता ये खलु नष्टा भूत्वा पर्याया। ते भवंति असद्भूताः पर्यायाः शानप्रत्यक्षाः ॥३८॥
सामान्यार्थ-जो पर्यायें अभी नहीं उत्पन्न हुई हैं तथा जो प्रगटपने पर्याय हो होकर नष्ट होगई हैं वे पर्याय असमृत होती हैं तथापि वे केवलज्ञानमें प्रत्यक्ष वर्तमानके समान झलकती हैं। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-( ने पज्जाया ) जो पर्यायें (णेन हि संजाया ) निश्चयसे अभी नहीं पैदा हुई हैं (जे खलु भवीय गट्ठा) तथा जो निश्चयसे हो होकर विनाश हो गई हैं (त) वे भूत और भावी पर्यायें (असम्भूया) असद्भूत या अविद्यमान (पन्जाया) पर्याय (होति) हैं, (गाण पञ्चक्खा) परन्तु वे सर्व पर्यायें यद्यपि इस समयमें विद्यमान न होनेसे असदभूत हैं तथापि वर्तमान में केवलज्ञानका विषय होनेसे व्यवहारसे भूतार्थ अर्थात् सत्यार्थ या सद्भूत कही जाती हैं क्योंकि वे सब ज्ञानमें प्रत्यक्ष हो रही हैं । जैसे यह भगवान केवलज्ञानी निश्चय नयसे परमानंद एक लक्षणमई सुख स्वभाव रूप मोक्ष अवस्था या पर्यायको ही तन्मय होकर जानते हैं परन्तु परद्रव्यको व्यवहार नयसे, तैसें आत्माकी भावना करने वाले पुरुषको उचित है कि वह रागादि विकल्पोंकी उपाधिसे रहित स्वसंवेदन पर्यायको ही सर्व तरहसे , नाने और अनुभव करे तथा बाहरी द्रव्य और पर्यायोंको गौण रूपसे उदासीन रूपसे जाने ।
भावार्थ-यह गाथा पूर्व गाथाके कथनको स्पष्ट करती है कि जिन मृत और भावी पयर्यायोंको हम वर्तमान कालमें प्रगटता न होनेकी अपेक्षा अविद्यमान या असत कहते हैं वे ही पर्यायें
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५.] श्रीमवचनसार भाषाट्रीका।
mmmmmmmmmmmmmm.. केवलज्ञानमें 2, प्रत्यक्ष. वर्तमानके, समान,झलक रही हैं। इसलिये उनको इस ज्ञानका विषय होनेसे विद्यमान या सत् कहते हैं। द्रव्य अपनी भूत भावी वर्तमान पर्यायोंका समुदाय है-द्रव्य सत् है तो वे सब पर्याये भी सतरूप है। हरएक द्रव्य अपनी संभवनीय अनंत पर्यायोंको पीये बैठा है, प्रत्यक्ष ज्ञानीको उसकी मनंत पर्यायें इसी तरह झलक रही हैं. जैसे. 'अलज्ञानीको वर्तमान में किसी पदार्थकी भूत और . भावी बहुतसी. पर्यायें. झलक जाती हैं। एक गाढेका थान. हाथमें लेते हुए ही उसकी मूतं और मावी . पर्यायें झलक जाती हैं कि यह गाड़ा, लागोंसे बना है, तागे रुईसे बने हैं, रुई वृक्षसे पैदा होती है, 'वृक्ष लईके बोनसे होता है, ये तो भूतः पर्याये हैं तथा इस गाढेकी निरमई, घोती, टोपी बनाएंगे, तब इसको टुकड़े टुकड़ें करेंगे, सीएंगे, घोएंगे, रक्खेंगे, पहनेंगे आदिः गादेकी कम के अधिक अपने जानके क्षयोपशमके अनुसार भूत भावी अवस्थाएं एक बुद्धिरानको वर्तमानकें समान मालम हो जाती हैं, यहां विचार पूर्वक शसकती हैं वहां केवलज्ञानमें स्वयं : स्वभावसे झलकती है.। हरएक कथन अपेक्षा रूप है। त्रिकालगोचर पर्याय सब, सत हैं । विवक्षित समयकी, पर्याय विद्यमान, या सत् तथा उस समयसे पूर्व या उत्तर . समयकी प्रोयें अविद्यमान या असत कही जाती हैं। केवलज्ञानी जैसे मुख्यतासे निन शुद्धात्माके स्वादमें मग्न हैं वैसे ही एक आ. त्मानुभवके अभ्यासीको , स्वरूपमें, तन्मय होना चाहिये तथा अपने आत्माके सिवाय परद्रव्योंको गौणतासे जानना चाहिये, अर्थात उनको जानते हुए भी उनमें विकल्प न करना चाहिये
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीनवचनसार भाषाटीका । [१५३ भाव मागम निक्षेप रूप निम आत्माको, द्रव्य आगम निक्षेप रूप परको मानना चाहिये । शुद्ध निश्चय नयका विषयमूत यह शुद्ध आत्मा परम वीतराग है मतएव इसकी ओर सन्मुखता होनी आत्माको वीतराग और शांत करके सुखी बनानेवाली है तथा पूर्व कर्मोकी निर्भरा करनेवाली तथा अनेक कर्मोंकी संवर करनेवाली है ऐसा जानकर जिस तरह बने निन शुद्ध भावका ही मनन करना चाहिये जिससे अनुपम केवलज्ञान प्रगटे और आत्मा परमानंदी होनावे ॥२८॥
उत्थानिका-आगे इसी बातको दृढ़ करते हैं कि असद मूत पर्याय ज्ञानमें प्रत्यक्ष हैं:जदि पञ्चक्खमजादं, पजायं पलयिदं च णाणस्स। ण हचदि वा तं जाणं, दिव्वंत्तिहिके परुविति ॥३९
यदि प्रत्यञ्चोऽजातः पर्यायः प्रलयितश्च ज्ञानस्य । न भवति वा तत् ज्ञानं दिनमिति हि के प्ररूपयन्ति ॥३९॥
सामान्यार्थ-यदि भावी और भूत पर्याय केवलज्ञानके प्रत्यक्ष न हो तो उस ज्ञानको दिव्य कौन कहें ? अर्थात कोई भी न कहे। __ अन्वय सहित विशेषार्थ-(नदि) यदि ( अनाद) अनुत्पन्न जो अभी पैदा नहीं हुई है ऐसी भावी (च पलयिद) तथा जो चली गई ऐसी भूत ( पन्जायं) पर्याय (गाणस्स) केवलज्ञानके (पच्चख) प्रत्यक्ष (ण हवदि) न हो (वा) तो (तं गाणं) उस ज्ञानको दिव्यंत्ति) दिव्य अर्थात् अलौकिक अतिशय रूप (हि) निश्चयसे (के) कौन (परूपिति) कहें ? अर्थात कोई भी न कहें । भाव यह
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४ ]
श्रीमवचनसार भाषाटीका 1.
है कि यदि वर्तमान पर्यायकी तरह भूत और भावी पर्यायको केवलज्ञान कमरूप इन्द्रियज्ञानके विधानसे रहित हो साक्षात् प्रत्यक्ष न करे तो वह ज्ञान दिव्य न होवे | वस्तु स्वरूपकी अपेक्षा विचार करें तो वह शुद्ध ज्ञान ही न होवे । जैसे यह केवली भगवान परद्रव्य व उसकी पर्यायोंको यद्यपि ज्ञानमात्रपसे जानते हैं तथापि निश्चय करके सहन ही आनंदमई एक स्वभावके धारी अपने शुद्ध आत्मा में तन्मई पनेसे ज्ञान क्रिया करते हैं तैसे निर्मल विवेकी मनुष्य भी यद्यपि व्यवहार से परद्रव्य व उसके गुण पर्यायका ज्ञान करते हैं तथापि निश्चयसे विकार रहित स्वसंवेदन पर्याय में अपना विषय रखनेसे उसी पर्यायका ही ज्ञान या अनुभव करते हैं यह सुत्रका तात्पर्य है ।
भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने पिछली बातको और भी दृढ़ कर दिया है। यदि ज्ञान गुणका स्वरूप देखें तो यही समझना होगा कि जो सर्व जानने योग्यको एक समयमें जाननेको समर्थ है वही ज्ञान है । ज्ञेय ज्ञानका विषय विषयी सम्बन्ध है । 1 ज्ञेय विषय हैं ज्ञान उनको जाननेवाला है। जिस पदार्थका जितना काम होना चाहिये उतना काम यदि करे तब तो उसे शुद्ध पदार्थ और यदि उतना काम न करके कम करे तो उसे अशुद्ध पदार्थ कहते हैं । एक आदर्श में सामनेके दस गज तकके पदार्थ प्रकाशने की शक्ति है । यदि वह दर्पण निर्मल होगा तो अपने पदार्थ प्रकाशके कार्यको पूर्णपने करेगा। हां यदि वह मलीन होगा तो उस दर्पण में प्रगट पदार्थोका दर्शाव साफ नहीं होगा । यही हाल ज्ञानका है। यदि वह शुद्ध ज्ञान होगा तो उसका स्वभाव ही ऐसा होना
4
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीभवचनसार भाषार्टीका। [१५६ चाहिये कि जिसमें भूत भावी सर्व द्रव्योंकी पर्यायें वर्तमान में विना क्रमके एक साथ जानने में आवे यही ज्ञानका महात्म्य है । हां यदि ज्ञान अशुद्ध होगा तो उसके जाननेमें अवश्य कमी रहेगी । इसीसे मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्ययज्ञानका विषय बहुत कम है। केवलज्ञानमें कोई ज्ञानावरण नहीं रहा तब वह सर्व ज्ञेयोंको न नान सके यह बात कभी नहीं हो सकी। इसलिये वहां वर्तमान पर्यायोंके समान द्रव्योंकी भूत भावी पर्यायें भी प्रत्यक्ष हो रही हैं-केवलज्ञानकी अपूर्व शक्ति है। एक द्रव्यमें अनंत गुण हैं-हरएक गुणकी एकएक समयवर्ती एकएक पर्याय होती है । एक र गुणकी भूत भावी पर्यायें अनंतानंत हैं। तथा एक एक पर्यायमें शक्तिके अंश अनंत होते हैं। इन सर्वको विशेष रूप पृथक् पृथक् एक कालमें जान लेना फेवलज्ञानका कार्य है। यह महिमा निर्मलज्ञान ही में जानना चाहिये, क्षायिक ज्ञान ही ऐसा शक्तिशाली है। क्षयोपशमिक ज्ञानमें बहुत ही कम जाननेकी शक्ति है । केवलज्ञान सूर्य सम प्रकाशक है । ज्ञानकी पूर्ण महिमा इसी ज्ञानमें झलकती है। केवलज्ञानी अरहंत भगवान यद्यपि सर्वज्ञ हैं तथापि उनके उपयोगकी सन्मुखता निज शुद्धा. स्माकी ओर है । अपने शुद्ध आत्माके मुख समुद्रमें मग्न हो परमानन्दमें छक रहे हैं । इसी तरह भेद विज्ञानीका कर्तव्य है कि निश्चय तथा व्यवहार नयसे सम्पूर्ण पदार्थोंके यथार्थ स्वरूपको जानते हुए भी अपनी तन्मयता अपने शुद्ध आत्म स्वभावमें रखकर निजानन्दका अनुभव करके सुखी होवे ॥३९॥
उत्थानिका-आगे यह विचार करते हैं कि इद्रियों के
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
wimminosinemmmmmmmmmmmmmmmisammamimamirmimammmmmmmmmmmmision
१५६] श्रीप्रवचनसार भाषादीका । द्वारा जो ज्ञान होता है वह भूत और भावी पर्यायोंको तथा सूक्ष्म दूरवर्ती आदि पदार्थोको नहीं जानता है... अत्थं अक्खणिवदिदं, ईहापुव्वेहि जे.विजाणति । तेर्सि परोक्खंभूदं, णादुमसकति पणत्तं ॥४॥ , अर्थमक्षनिपतितमीहापूः ,ये विजानन्ति ! . . . . . .
तेषां परोक्षभूत ज्ञातुमशक्यमिति प्राप्तम् ॥४०॥..: . सामान्यार्थ-जो जीव इद्रियों के द्वारा ग्रहण योग्य पदाथोंको ईहा पूर्वक जानते हैं उनको जो उनके इंद्रिय ज्ञानसे परोक्षमृत वस्तु है सो जाननेके लिये अशक्य है ऐसा कहा गया है।
· अन्वय सहित विशेषार्थ-(जे.) नो कोई छद्मस्थ (भक्खणिवदिदं.) इन्द्रियगोचर (अट्ठ) पदार्थको (ईहापुनेहि) ईहापूर्वक (चिनाणति ) जानते हैं. (तेसि ) उनका .(परोक्समृदं) परोक्ष भूतज्ञान ( णादु) जाननेके लिये अर्थात . सुक्ष्म आदि पदार्थों को जानने के लिये (असक्कति) मशक्य है.ऐसा (पण्णत्त) कहा गया है। ज्ञानियोंके द्वारा अथवा उनके ज्ञानसे जो परोक्षभूत द्रव्य है.वह उनके द्वारा जाना नहीं जासका प्रयोजन यह है कि नैयायिकोंके मतमें चक्षु धादि इन्द्रिय घट पट आदि पदार्थोके पास जाकर फिर पदार्थको जानती हैं अथवा संक्षेपसे इन्द्रिय और पदार्थका सम्बन्ध सन्निकर्ष है वह ही प्रमाण है.। ऐसा सनिकर्ष ज्ञान भाकाश आदि अमूर्तीक पदार्थोमें, दूरवर्ती मेरु आदि पदार्थों में कालसे दूर राम रावणादिमें . स्वभावसे दूर भूत प्रेत मादिकोंमें तथा अति सूक्ष्म ,परके मनके वर्तनमें व पुद्गल परमाणु आदिकोंमें नहीं प्रवर्तन करसता । क्योंकि इन्द्रियोंका विषय स्थूल है तथा
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
'श्रीमवचनसार भाषाका |
[ १५७
मूर्तीक पदार्थ है । इस कारण से इन्द्रिय ज्ञानके द्वारा " सर्वज्ञ नहीं होक्ता । इसी लिये ही अतीन्द्रिय ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण जो रागद्वेषादि विकल्प रहित स्वसंवेदन ज्ञान है उसको छोड़कर पंचेन्द्रियोंके सुखके कारण इन्द्रिय ज्ञानमें तथा नाना मनोरथके विकल्प नाक स्वरूप मन सम्बन्धी ज्ञानमें जो प्रीति करते हैं वे सर्वज्ञ पदको नहीं पाते हैं ऐसा सूत्रका अभिप्राय है ।
भावार्थ - इस गाथा में आचायने केवलज्ञानको श्रेष्ठ तथा उससे नीचे चारों ही क्षयोपशम ज्ञानको हीन बताया है। प्रथम मुख्यतासे मतिज्ञानको लिया है। टीकाकार ने नैयायिक मतके अनुसार ज्ञानका स्वरूप बताकर उस इंद्रियज्ञ नको बिलकुल असमर्थ बताया है । अर्थात् न वह ज्ञान वर्तमान में ही दूरवर्ती पदाaat या सूक्ष्म पदार्थो को जान सक्ता है और न वह इन्द्रियज्ञान उस केवलज्ञानका कारण ही है जो सर्व ज्ञेयोंको जाननेके लिये समर्थ है। जैनमत के अनुसार मतिज्ञान इन्द्रिय और मनसे होता है । सो मतिज्ञान किसी भी पदार्थको प्रथम समय में सामान्य दर्शनरूप ग्रहण करता है फिर उसके कुछ विशेषको जानता है तब अवग्रह होता है फिर और अधिक जानता तब ईहा होती फिर उसका निश्चयकर पाता तब अवाय होता फिर दृढ़ निश्चय करता तब धारणा होती । यह मतिज्ञान क्रम क्रमसे वर्तन करता तथा प्रत्येक इन्द्रिय अपने२ विषयको अलगर ग्रहण करती। चार इंद्रियें तो पदार्थसे स्पर्शकर तथा चक्षु व मन पदार्थसे दूर रहकर जानते हैं । मतिज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमके अनुसार बहुत ही थोड़े पदार्थोंका व उनकी कुछ स्थूल पर्यायोंका ज्ञान होता है।
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwwmWW
anwwwWALAM
१५८] श्रीभवचनसार भाषाटीका। यह मतिज्ञान क्षेत्र व कालसे दूर व सुक्ष्म परमाणु, आदिको नहीं जान सक्ता है। जो श्रुतमान सैनी जीवमें मन द्वारा काम करता है सो भी अपना उत्कष्ट क्षयोपशम इतना ही रखता है कि श्री आचारांगादि द्वादश अंगों को जानसके। यह ज्ञान भी बहुत थोड़ा है तथा क्रमसे प्रवर्तन करता है। 'जितना केवलज्ञानी जानते हैं उसका अनन्तवा भाग दिव्यध्वनिसे प्रगट होता। जितना दिव्यध्वनिसे प्रगट होता उतना गणवरोंकी धारणामें नहीं रहता इससे दिव्यध्वनि द्वारा प्रगट ज्ञानका कुछ अश धारणा रहता है सो द्वादशांगड़ी रचनारूप है। श्रुतज्ञान' इससे अधिक जान नहीं सक्ता । अवधिज्ञान यद्यपि इन्द्रिय और मनद्वारा नहीं होता वहां आत्मा ही प्रत्यक्ष रूपसे जानता है तथापि इस ज्ञानका काथ्ये उपयोग जोड़नेसे होता है जिसमें मनके विकल्पका सहारा होजाता है तथा यह ज्ञान मात्र मूर्तीक पदार्थाको द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी मर्यादारूप जानता है । अनन्त द्रव्यों: को, अनन्त क्षेत्रको, अनन्त कालको व अनन्त भावोंको नहीं जानसक्ता । मनःपर्यायज्ञान भी यद्यपि प्रत्यक्ष है तथापि मन द्वारा विचारनेपर काम करता है इससे मनके विकल्पकी सहायता है तथा यह ढाई द्वीप क्षेत्रमें रहनेवाले सैनी जीवों के मन में तिष्ठते हुए मूर्तीक पदार्थको जानता है । यद्यपि यह अवधिज्ञानके विषयसे सूक्ष्म विषयको जानता है तथापि बहुत कम जानता, व बहुत कम क्षेत्रकी जानता है। ये चारों ही ज्ञान किसी अपेक्षासे इन्द्रिय और अनिद्रिय अर्थात् कुछ इन्द्रिय रूप मनकी सहायतासे होते हैं इसलिये इनको इन्द्रिय ज्ञानमें गर्मित' करसके हैं। आचार्यका
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
aronwww
Armwarwww
श्रीप्रवचनसार मापाटीका। [१५९ अभिप्राय यही झलकता है कि जो छनस्थ क्षयोपशम ज्ञानी हैं वे अपने अपने विषयको तो जानसक्ते हैं परंतु बहुतसे ज्ञेय उनके ज्ञानके बाहर रहनाते हैं । जिनको सिवाय क्षायिक फेवलज्ञानके और कोई जान नहीं सका है । तात्पर्य यह है कि केवलज्ञान ही उपादेय है, ये चार ज्ञान हेय हैं । तथापि इनमें से जो आत्म रवसंवेदनरूप भावश्चतज्ञान है जिसमें पास्माकी आत्मामें स्वसमयरूप प्रवृत्ति होती है वह इन्द्रिय और ननके विकल्पोंसे रहित निजास्वादरूप आनंदमई ज्ञान है सो उपादेय है क्योंकि यही भेद विज्ञानमूलक मागज्ञान फेवलज्ञानको उत्पत्तिका बीम है। इसलिये स्वतंत्रताके चाहनेवाले ज्ञानीको इन्द्रिय और मनके विकरूपात्मक ज्ञानमें जो इन्द्रियोंके क्षाणिक मुखळे साधन हैं, रति छोड़कर अतीन्द्रिय ज्ञान और थानन्दले फारणरूप स्वसंवेदन शानमें तन्मयता करनी चाहिये।
उत्पालिका-यागे कहते हैं कि भतीन्द्रिय रूप केवलज्ञान ही भूत भविष्यको व सूक्ष्म आदि पदार्थीको जानता है। अपदसं सपदेसं, मुत्तमहत्तं ८ पाजयमजादं । पलधं गदं च जाणदितणाणमाददिय भणियं ॥४१॥
अप्रदेश सरदेश मूर्तममून व पपमवातम् । प्रलयं गतं च जानाति तज्ज्ञानरसन्द्रिय भणितम् ॥४॥
सामान्धार्थ-जो ज्ञान प्रदेशहित कालाणु व सप्रदेशी पांच अस्विकायको, मूर्तको, अमूर्तको तथा भावी और भूत पर्यायोंको जानता है वह ज्ञान अतींद्रिय कहा गया है।
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
miniminishmeone
१६] 'श्रीप्रवचनसार भोपाटीको ।
Hinidiminanimirm ::अन्वय सहित विशेषार्थ-जो ज्ञान (अपदेसी बहु प्रदेश रहित कालाणु व परमाणु भांदिको (सपदेसें) बहु प्रदेशी शुद्ध नीवको मादि ले पांच' अस्तिकायोंके स्वरूपको (मुत्त) मूर्तीक युद्गल द्रव्यको ( ममुत्तं ) और अमूर्तीक शुद्ध नीव आदि पांच द्रव्योंको (अजाद ) अभी नहीं उत्पन्न हुई होनेवाली (चपलयं गये और छूट जानेवाली भूतकालकी ( पज्जयं) द्रव्योंकी पर्यायोंको इस सब ज्ञेयको (जाणदि) जानता है (तं गाणं) वह ज्ञान (मदिदियं ) अतीन्द्रिय ( भणिय ) कहा गया है । इसी हीसे सर्वज्ञ होता है । इस कारणसे ही पूर्व गाथामें कहे हुए इंद्रियज्ञान तथा मानस ज्ञानको छोकर जो कोई विकल्प रहित समाधिमई स्वसंवेदन ज्ञानमें सर्व विभाव परिणामों को त्याग करके प्रीनि व लयता करने हैं वे ही परम आनन्द है एक. लक्षण जिसका ऐसे मुख स्वभावमई मवेज्ञपनको प्राप्त करते हैं यह अभिप्राय है।
. भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने. केवलज्ञानकी और भी विशेषता झलकाई है कि जो ज्ञान , इन्द्रिय और मनकी सहाय विना केवल आत्माकी स्वभावरूप शुद्ध अवस्थामें प्रगट होता है उसीमें यह. शक्ति है जो वह वहु प्रदेश रहित संख्यात कालाणुओंको तथा छुटे हुए परमाणुओंको प्रत्यक्ष मान सकें तथा बहुप्रदेशी सर्व मात्माओंको, पुद्गल स्कंधोंको, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा अनंत आकाशको प्रत्यक्ष देख सके । वही सर्व मूर्तीक अमूर्तीक द्रव्यको मलंगर जानता है. तथा हरएक द्रव्यंकी जो अनंत पर्यायें हो गई हैं व होंगी उन संबको भी अच्छी तरह मिनर जानता है. अर्थात कोई जानने योग्य बात शेष नहीं रहे
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
namummmmmimirmire
श्रीमवचनसार भापाटीका। [१६५ जाती जो केवलज्ञानमें न झलके । इसीको सर्वज्ञता कहते हैं-व इसीके स्वामी आत्माको सर्वज्ञ कहते हैं। इस कथनसे आचार्यने केवलज्ञानको ही उपादेय कहा है और मति आदि चारों ज्ञानोंको त्यागने योग्य कहा है क्योंकि ये चारों ही अपूर्ण तथा क्रमसे जानते हैं-मलिश्नुत परोक्ष होकर मृतक अमूर्तीक द्रव्योंकी कुछ स्यूल पर्यायोंका जनते हैं-अवधि तथा मनःपर्यय एक देश प्रत्यक्ष होकर अमूर्तीकको नहीं मानते हुए केवल मूर्तीक द्रव्योंकी कुछ पर्यायोंको क्रममे जानते हैं परन्तु केबलज्ञान एक साल सब कुछ जानता है क्नोंकि यह ज्ञान क्षायिक है, आवरण रहित है. जबकि अन्य ज्ञान क्षयोपसमरून सावरण हैं ऐसा केवलज्ञान प्राप्त करने योग्य है। जो निज हितार्थी मव्य जीव हैं उनको चाहिये कि इन्द्रिप और मनके सर्व विकल्पोंको त्यागकर आत्माभिमुसी हो अपने में ही अपने आत्माका स्वसंवेदन प्राप्त करके स्थानुभाव करें और इसी निन आत्माके स्वादमें सदा लवलीन रहें । इसी ही आत्मज्ञान के प्रभारसे परमानन्धमई सर्वज्ञपद प्राप्त होता है। जैसी भावना होती है वप्ती फलनों है । स्वस्वरूपकी भावना ही स्वस्वरूपकी प्रगटताकी मुख्य साधिका है, आत्मज्ञानके हो अभ्याससे अज्ञान मिटता है। श्री पूज्यपाद स्वामीने श्रीसमाधिशतकमें कहा है।
तब्रूयाचत्परान्पृच्छेचदिच्छेचत्परो भवेत् । येनाविघामयं रूपं त्यक्त्वा विचामयं ब्रमत् ।।
भाव यह है कि आत्माकी ही कथनी रे, दूसरोंको पूछे जसीकी ही इच्छा करे, उसी.'
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
M
१६२ ]. श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । इसीके छाम्यससे अज्ञानमई अवस्था मिटकर ज्ञानमई . अवस्थाको प्राप्त करे। .. ... श्री नागसेन मुनिने श्री तत्त्वानुशासन में कहा है
परिणमते येनात्मा भावेन स तेन तन्मयो भवति । अर्हद्धयानाविष्टों भावार्हः स्यात्स्वयं तस्मात् ॥ २९ ॥ येन भावेन यद्रूपं ध्यायत्यात्मानमात्मवित् । " ... तेन तन्मयतां याति सोपाधिः स्फटिको यथा ॥ १९१ ।।
भाव यह है कि यह आत्मा जिस भावसे परिणमन करता है उसीके साथ तन्मई होजाता है । जब श्री अहंत भगवानके घ्यानमें ठहरता है तब उस ध्यानसे वह स्वयंभावमें अहतरूप होजाता है । आत्मज्ञानी निस भावसे निसरूप मात्माको ध्याता है वह उमी भावके साथ तन्मई हो जाता है जैसे फटिक पाषाणमें जैसी डाककी उपाधि लगे वह उस ही रंगरूप परिणमन कर जाती है । ऐसा जानकर जिस तरह बने स्वस्वरूपकी आराधना करके ज्ञानको विशुद्ध करना चाहिये। ।
इस प्रकार अतीत व अनागत पर्यायें वर्तमान ज्ञानमें प्रत्यक्ष नहीं होती हैं ऐसे बौद्धोंके मतको निराकरण करते हुए तीन गाथाएं कहीं, उसके पीछे इंद्रियज्ञानसे सर्वज्ञ नहीं होता है किंतु अतीन्द्रिय ज्ञानसे होता है ऐसा कहकर नैयायिक मतके अनुसार चलनेवाले शिष्यको समझानेके लिये गाथा दो, ऐसे ‘समुदायसे पांचवें स्थलमें पांच गाथाएं पूर्ण हुई ॥ ४१॥ ....
उत्थानिका-मागे पांच गाथाओं तक यह व्याख्यान करते हैं कि राग, द्वेष, मोह, बंधके कारण हैं, ज्ञान बंधका कारण
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
wmanna
श्रीमवचनसार भाषार्टीका। [१६३ नहीं है। प्रथम ही यह कहते हैं, कि जिसके ज्ञेय अर्थात् मानने योग्य पदार्थमें कर्मवंधका कारण रूप इष्ट तथा अनिष्ट विकल्प रूपसे परिणमन है अर्थात् जो पदार्थीको इष्ट तथा अनिष्ट रूपसे नानता है उनके क्षायिक अर्थात् केवलज्ञान नहीं होता है । परिणमदि यमढ, णादा जदि व खाइगं तस्म। गाणंति तं जिणंदा, खवयंत कम्ममेवुत्ता ॥ ४२ ॥
परिणमति शेयमर्थ ज्ञाता यदि नैव शायिक तस्य । ज्ञानमिति तं जिनेन्द्राः क्षपर्यंत कम्वोक्तवन्तः ॥ ४२ ॥
सामान्यार्थ-यदि जाननेवाला ज्ञेय पदार्थरूप परिणमन करता है तो उसके क्षायिकज्ञान नहीं होसक्ता है इसलिये जिनेन्द्रोंने उस जीवको कर्मक्षा अनुभव करनेवाला ही कहा है। . अन्वय सहित विशेषार्थ:-(नदि ) यदि ( णादा) ज्ञाता आत्मा ( णेयं अटुं) जानने योग्य पदार्थरूप (परिणमति) परिणमन करता है अर्थात् यह नील है, यह पीत है इत्यादि विकल्प उठाता है तो (तस्स) उस ज्ञानी आत्माके ( खाइगं णाणति णेब ) क्षायिकज्ञान नहीं ही है अथवा स्वाभाविक ज्ञान ही नहीं है । क्यों नहीं है इसका कारण कहते हैं कि (निर्णिदा) जिनेन्द्रोंने (ते) उस सविकल्प जाननेवालेको (कम्मं खवयंत एव) कर्मका अनुभव करनेवाला ही (उत्ता) कहा है। अर्थ यह है कि वह आत्मा विकार रहित स्वागाविक मानंदमई एक सुख स्वभावके अनुभवसे शून्य होता हुआ उदयमें पाए हुए अपने फर्मको ही अनुभव कर रहा है । ज्ञानको अनुभव नहीं कर रहा है । अथवा दुसरा व्याख्यान यह है कि यदि ज्ञाता प्रत्येक पदार्थरूप परिणमन
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४] श्रीमवचनसार भाषाटीका। करके पीछे पदार्थको जानता है तब पदार्थ अनंत हैं इससे सर्व पदार्थका ज्ञान नहीं हो सका । अथवा तीसरा व्याख्यान यह है कि जब छद्मस्थ अवस्थामें यह बाहरके ज्ञेय पदार्थोका चितवन करता है तब रागद्वेषादि रहित स्वसंवेदन ज्ञान इसके नहीं है। स्वसंवेदन ज्ञानके अभावमें क्षायिकज्ञान भी नहीं पैदा होता है ऐसा अभिप्राय है।
भावार्थ-यहां आचार्य कर्मबंधके कारणीभूत भावकी तरफ लक्ष्य दिला रहे हैं-वास्तवमें निर्विकार निर्विकल्प आत्मानुभवरूप वीतराग स्वरूपाचरण . चारित्ररूप शुद्धोपयोग आत्माके ज्ञानका ज्ञानरूप परिणमन है-इस भावके सिवाय जब कोई अल्पज्ञानी . किसी भी ज्ञेय पदार्थको विकल्प रूपसे जानता है और यह सोचता है कि यह पट है यह घट है यह नील है. यह पीत है . यह पुरुष है या, यह स्त्री है, यह सज्जन है या यह दुर्जन है. यह धर्मात्मा है या अवर्मी है, यह ज्ञानी है या यह अज्ञानी है तब विशेष रागढपका प्रयोजन न रहते हुए भी हेय या उपादेय बुद्धिंके विकल्पळे लाथ कुछ न कुछ रागद्वेष होय ही जाता है। यह भाव स्वानुभव दशासे शून्य है इसलिये यह भाव कोके उदवको भोगनेरूप है अर्थात उस भावमें अवश्य मोहका कुछ न कुछ उदय है जिसको वह भाववान अनुभव कर रहा है। ऐसी दशामें मोह भोकाले क्षायिक निर्मल केवलज्ञान उस समय भी नहीं है तथा आगामी भी केवलज्ञानका कारण वह सविकल्प सराग, . भाव नहीं है। केवलज्ञानका कारण तो भेद विज्ञान है मूल जिसका ऐसा निश्चल स्यात्मानुभव ही है.। . . . . . . ....
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
'श्रीप्रवचनसारं भाषाटीका । [ १६५
'यदि कोई यह माने कि ज्ञान प्रत्येक पदार्थरूप परिणमन करके' अर्थात् उधर अपना विकल्प लेजाकर जानता है तब वह ज्ञान एकके पीछे दूसरे फिर तीसरे फिर चौथे इसतरह क्रमवर्ती जाने से वह सर्व पदार्थों का एक काल ज्ञाता सर्वज्ञ नहीं हो सक्ता ।
जिनेन्द्र अर्थात् तीर्थकरादिक प्रत्यक्ष ज्ञानियोंने यही बताया है कि पर पदार्थ भोगनेवालेके रागादि विकल्प हैं जहां कर्मोंका उदय है । इसलिये परमें सन्मुख हुआ आत्मा न वर्तमान में निम स्वरूपका अनुभव करता है न आगामी उस स्वानुभवके फलरूप केवलज्ञानको प्राप्त करेगा, परन्तु जो कर्मोदयका भोग छोड़ निन शुद्ध स्वभावमें अपनेसे ही तन्मय हो जायगा वही वर्तमान में निजानन्दका अनुभव करेगा तथा उसीके ही ज्ञानावरणीयका क्षय होकर निर्मल केवलज्ञान उत्पन्न होगा अर्थात् जहां वीतरागता है वहीं कमौकी निर्जरा है तथा जहां सरागता है वहीं कमका बंध है । अर्थात् रागादि ही बंधका कारण है ॥ ४२ ॥
↓
1
उत्थानका- आगे निश्चय करते हैं कि अनन्त पदार्थोंको जानते हुए भी ज्ञान बन्धका कारण नहीं है । और न रागादि रहित कर्मोंका उदय ही बंधका बंघ कारण है । अर्थात् नवीन का बंध न ज्ञानसे होता है न पिछले कम उदयसे होता है किन्तु राग द्वेष मोहसे बन्ध होता है ।
उदयगदा कम्मंसा, जिनवरवसदेहिं नियदिणा
भणिया । ते हि मुहिदो रतो, दुझे वा बंधमणुहवदि ॥ ४३ ॥
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका |
उदयगताः कर्माशा जिनवरवृपभैः नियत्या भणिताः । तेषु हि मूढो रक्तो, दुष्टो वा बंधमनुभवति ॥ ४३ ॥ सामान्यार्थ - जिनवर वृषभोंने उदय में आए हुए कर्मो के
1
१६६ ]
अंशोंको स्वभावसे परिणमते हुए कमोंमें जो मोही रागी वा द्वेपी
कहा है। उन उदयमें प्राप्त होता है वह बंघको अनुभव
करता है ।
अन्य सहित विशेषार्थ :- (उदयंगदा ) उदय में प्राप्त ( कम्मंसा ) कर्माश अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि मूल तथा उत्तर प्रकृतिके भेद रूप क ( जिणवरवसहेहिं) जितेंद्र वीतरोगं भंगवानके द्वारा (णियदिणा) नियतपने रूप' अर्थात स्वभावसें काम करनेवाले (भणिया) कहे गए हैं। अर्थात् जो कर्म उदयमें माते हैं वे अपने शुभ अशुभ फलको देकर चले जाते हैं वे नए बंधको नहीं करते यदि आत्मामें रागादि परिणाम न हों तो फिर किस तरह जीव को प्राप्त होता है । इसका समाधान करते हैं कि(तेसु) उन उदयमें आए हुए कर्मों में (हि) निश्वयंसे ( सुहिदो ) मोहित होता हुआ (स्तो) रागी होता हुआ ( वा दुट्टो ) अथवा द्वेषी होता हुआ ( बंधम् ) बंधको, ('अणुहवदि) अनुभव करता है । जब कमका उदय होता है तब जो जीव मोह राग द्वेषसे विलक्षण निज़ शुद्ध आत्मतत्वकी भावनासे रहित होतां हुमा विशेष करके मोही, रागी वा द्वेषी होता है सो केवलज्ञान आदि अनंत गुणोंकी प्रगटता जहां होजाती है ऐसे मोक्षसे विलक्षण प्रकृति; स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप चार प्रकार वन्धको भोगता है अर्थात् उसके नए कर्मा बन्ध जाते हैं। इससे यह ठहरा किं
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाका। [१६७. न ज्ञान बन्धका कारण है न कमौका उदय बंधका कारण है किन्तु रागादि भाव ही बंधके कारण हैं।
. भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने आत्माकी अशुद्धि होने अर्थात् कार्माण वर्गणारूप पुद्गलोंसे बंध होनेके कारणोंको प्रगट किया है। प्रथम ही यह बतलाया है कि पदार्थीका ज्ञान बंधका कारण नहीं है । ज्ञानको काम दीपकके प्रकाशकी तरह मात्र , जानना है। उसका काम मोहादि करना नहीं है इससे ज्ञान कम हो या अधिक, ज्ञान बंधका मूल कारण नहीं है। और न को उदय वंधका कारण है । कर्मोके उदयसे सामग्री अच्छी या बुरी जो प्राप्त होती है उप्तमें यदि कोई रागद्वेष मोह नहीं करता है तो वह सामग्री आत्माके बंध नहीं कर सक्ती । और यदि फर्मोंके असरसे शरीर व वंचनकी कोई क्रिया होजाय और मात्माका उपयोग उस क्रिया रागद्वेष न करे तो उस क्रियासे मी नया बंध नहीं होगा । वंधका कारण राग, द्वेष, मोह है। जैसे शरीर द्वारा किसी अखाड़ेमें व्यायाम करते हुए यदि शरीर सुखा है, तैलादिसे चिकना व भीगा नहीं है तो अखाड़ेकी मिट्टी शरीरमें प्रवेश नहीं करेगी अर्थात् शरीरमें न बंधेगी किन्तु यदि तैलादिकी चिकनई होगी तो अवश्य वहांकी मिट्टी शरीरमें चिपटनायगी। इसीतरह मन वचन कायकी क्रिया करते व नानपनेकां काम करते हुए व बाहरी सामग्रीके होते हुए यदि परिणाममें राग द्वेष मोह नहीं है तो आत्माके नए कमौका बंध न पड़ेगा और यदि राग द्वेष मोह होगा नौ अवश्य बंध होगा। ऐसा ही श्री अमृतचंद आचार्यने समयसारं कलशमें कहा है-..
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
womaaranamarammarnamainamar
१६८] .श्रीभवचनसार भापाटीका ।
नं कर्मबहुलं जगन्नचलनात्मकं कर्मचाननेककरणानि चान चिदचिद्या कृत् ॥ . यदक्यमुपयोगः समुपयाति रागादिभिः । स एव फिल केवलं भवति बन्धहेतुणाम् ॥२-८11
भाव यह है कि कार्माणवर्गणाओंसे भरा हुआ जगत बंघका कारण नहीं है। न हलनचलन रूप मन, वचन, कायके योग बंधके कारण हैं। न अनेक शरीर इंद्रिय व वाहरो पदार्थ बंधक कारण हैं । न चेतन, अचेतना बव वंधना कारण है। जो उपयोगकी भूमिना रागादिसे एकताको प्राप्त हो जाती है वही राग, द्वेष, मोह, भावकी कालिमा नीवोंके लिये नात्र बंधको कारण है। ___ श्री पूज्यपाद स्वामी इष्टोपदेशमें कहते हैं:' मुच्यते जीवः सयमो निर्ममः क्रमात् । । तस्मात्सप्रयत्नेन निर्ममा विचितरेत ॥ २६ ॥
भाव यह है कि जो जीव ममता सहित है वह बंधता है। नो जीव ममता रहित है वह बंधसे छूटता है । इसलिये सर्व प्रयत्न करके निर्भमत्य भावका विचार करो। . . .
श्रीगुणभद्राचार्य श्री आत्मानुशासनमें व्हते हैं रागद्वेषकृताभ्यां जन्तोधः प्रकृत्यत्तिभ्याम् । तत्वज्ञानकृताभ्यां ताभ्यामेवेक्ष्यते मोक्षः ।। १८० ।।
भाव यह है कि इसमीक्के, रागद्वेषसे करी हुई प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति तो बंध होता है। परन्तु तत्वज्ञान पूर्वक की हुई प्रवृत्ति और निवृत्तिरे कमौसे मुक्ति होती है।
रागद्वेष अथवा कपाय चार प्रकार होते हैं.'
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
·
- श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
अनन्तानुबंधी जो मिथ्यात्वके सहकारी हों
तथा स्वरूपाचरण चारित्रको, रोके । :
अप्रत्याख्यानावरणीय जो श्रावकके एक देश
त्यागको न होने दे ।
[ १६९
और सम्यक्त
2
प्रत्याख्यानावरणीय - जो मुनिके सर्वेदेश त्यागको
न होने दे ।
खंज्वलन - यथाख्यातचारित्रको न होने दें ।
मिथ्यात्वको मोह कहते हैं । जो मिथ्यादृष्टी अज्ञानी बहि
፡
"
1
रात्मा है वह हरएक कर्मके उदयमें अच्छी तरह राग व द्वेष करता है तथा रागद्वेष सहित ही पदार्थोंको जानता है। जानकर भी रागद्वेष करता है । यह मोही जीव शरीर व शरीरके इन्द्रिय जति सुखको ही उपादेय मानता है तथा उसकी उत्पत्तिके कारणों में राग और उसके विरोधके कारणों में द्वेष करता है । इस लिये विशेष कर्मोका बन्ध यह मिथ्यादृष्टी ही करता है । अनंत संसार में भ्रमणका कारण यह मिथ्याभाव है। जिसके अनंतानुबंधी कषाय के साथ दर्शन मोह चला जाता है वह सम्यग्दृष्टी व सम्यज्ञानी हो जाता है । तब मात्र वारह प्रकारकी कषायका उदय रहता है। सम्यग्दृष्टी के अंतरंगमें परम वैराग्य भाव रहता है, वह अतीन्द्रिय आनन्दको ही उपादेय मानता है- आत्मस्वरूपमें वर्तन करनेकी ही रुचि रखता है। तो भी जैसा जैसा कषायका उदय होता है वैसा वैसा अधिक या कम रागद्वेष होता है । सम्यक्ती इस परिणतिको भी मिटाना चाहता है, परंतु आत्मशकिकी व ज्ञानशक्तिकी प्रबलता विना रागद्वेषको बिलकुल दूर नहीं
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७०] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । करसता । इसलिये जितना नितना रागद्वेष होता है उतना उतना कोका बंध होता है। प्रमत्तसंयत नामके छठे गुणस्थानतक . बुद्धि पूर्वकं रागद्वेष होते हैं पश्चात ध्याता मुनिके अनुगपमें न . आने योग्य रागद्वेष दसवें सुक्ष्म लोभ गुणस्थान तक होते हैं, इसीसे वहीं तक जघन्य मध्यमादि स्थितिको लिये हुए कर्मोका बंध होता है। उसके आगे बंध नहीं होता है। यहीं तक सांपरायिक आश्रव है । मागे जहांतक योगोंका चलन है वहां तक ईर्यापथ मानवं होता है जो एक समयकी स्थिति धारक साता वेदनीय कर्मोको लाता है । ११, १२, तेरवे गुणस्थानों में बंध नाममात्रसा है। रागद्वेष मोहके अभावसे बंध नहीं है, ऐसा जानकर रागद्वेष मोहके दूर करनेका पुरुषार्थ करना चाहिये जिससे यह आत्मा अबन्ध अवस्थाको प्राप्त हो जावे। ' ___उत्थानिका-आगे कहते हैं कि केवली अरहंत भगवानों के तेरहवें सयोग गुणस्थानमें रागद्वेष आदि विभावोंका अभाव है इस लिये धर्मोपदेश विहार आदि भी वंधका कारण नहीं होता है। ठाणणिसेन्जविहारा, धम्मुवदेसोय णियदयो तेसिं। अरहताणं काले, मायाचारोग्य इच्छीणं ।। ४४ ॥
स्थाननिषद्याविहारा धर्मोपदेशश्च नियतयस्तेषाम् । .. अर्हतां काले मायाचार इव चीणाम् ॥ ४४ ॥
सामान्यार्थ-उन अहंत भगवानों के अहंत अवस्थामें उठना, बैठना, विहार तथा धर्मोपदेश स्त्रियों के मायाचारकी तरह स्वभावसे होते हैं।
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमंवचनसार भाषाटीका । [ १७१
(
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( तेर्सि अरहंताणं) उन कैव. लज्ञान के धारी निर्दोष जीवन्मुक्त सशरीर अरहंत परमात्माओंके (काले ) अर्हत अवस्था में ( ठाणणिसेज्जविहारा ) ऊपर उठना अर्थात् खड़े होना, बैठना, विहार करना ( य धम्मुवदेसः ) और धर्मोपदेश. इतने व्यापार ( नियदयः ) स्वभावसे होते हैं । इन कार्यों करने केवली भगवानकी इच्छा नहीं प्रेरक होती है मात्र पुदुक कर्मका उदय प्रेरक होता है | ( इच्छीणं ) स्त्रियोंके भीतर( . मायाचारोव्य.) जैसे स्वभावसे कर्मके उदयके असर से मायाचार होता है । भाव यह है कि जैसे स्त्रियोंके स्त्रीवेदके उदयके कारणसे प्रयत्नके बिना भी मायाचार रहता है तैसे भगवान अर्हतोंके शुद्ध आत्मतत्वके विरोधी मोहके उदयसे होनेवाली इच्छापूर्वक उद्योग विना भी समवशरण में विहार आदिक होते हैं अथवा जैसे मेघों का एक स्थान से दूसरे स्थानपर जाना, ठहरना, गर्जना जलका वर्षणा आदि स्वभावसे होता है वैसे जानना । इससे यह सिद्ध हुआ कि मोह रागद्वेषके अभाव होते हुए विशेष क्रियाएं. भी बन्धकी कारण नहीं होती हैं ।.
भावार्थ- गाथा पहली गाथामें आचार्यने बताया था कि कर्म बन्धके कारण रागद्वेष मोह हैं। न तो ज्ञान है, न पिछले कर्मोंका उदय है । इसी बातको दृष्टान्त रूपसे इस गाथा में सिद्ध किया है। केवलीभगवान पूर्ण ज्ञानी हैं तथा राग द्वेष मोहसे सर्वथा शून्य हैं परन्तु उनके चार अघातिया कर्मोंकी बहुतसी प्रकृतियोंका उदय मौजूद है जिससे कर्मोंके असर से बहुतसी क्रियाएं, केवली भगवानके वचन और काय योगोंसे होती हैं तो.
.
".
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
AMmmmMRA
१७२ ]. श्रीप्रवचनसार भामाटीको । भी केवलीभगवानके, कोका बंध नहीं होता, धयोंकि न तो उनके उन कार्योंके करनेकी इच्छा ही है और न वे कार्य केवली अगवानमें मोह उत्पन्न करनेके कारण होसके हैं । केवली महारान जब विहार करते हैं तब खड़े होकर विना डग भरे .आकाशमें 'चलते हैं । जब समवशरण रचता है नत्र कमलाकार सिंहासनपर
अंतरीक्ष बैठते हैं । चलना, खड़े होना तथा बैठना ये तो शरीरकी 'क्रियाएं हैं तथा अपनी परम शांत अमृतमई दिव्यवाणीके द्वारा मेघकी गर्जनाके समान निरक्षरी ध्वनि प्रगट करके धर्मका उपदेश देना यह वचनकी क्रिया है। ऐसे काय और वचन योगके. प्रगट व्यापार हैं । इसके सिवाय शरीरमें नोकर्म वर्गणाका ग्रहण, पुरातन वर्गणाका क्षरना, काय योगका वर्तना, शरीरके अवयवोका पुष्टि पाना आदि अनेक शरीर सम्बन्धी कार्य कर्मोंके उदयसे होते हैं । इन कार्योंमें केवली महाराजके रागयुक्त, उपयोगकी कुछ प्रेरणा या चेष्ठा नहीं है इसीसे केवली महारानकी क्रियाएं बिलकुल बंधकी करनेवाली नहीं है। यहांपर गाथामें विना 'इच्छाके कर्मजन्य क्रियाने लिये स्त्रीके मायांचारमई स्वभावका दृष्टांत दिया है, जिसका भाव यह है कि स्त्री पर्यायमें स्त्री वेदका उदय 'अधिकांशमें तीव्र होता है जिससे भोगकी इच्छा सदा भीतरमें जलती रहती है उसीके साथ मायां कषायका भी तीव्र उदय होता है जिससे अन्य कार्योको करते हुए स्त्रियों में अपने हावभाव विलास व अपनी शोभा दिखलानेकी चेष्टा रहती है कि पुरुष
हमपर प्रेमालु हो-ऐसा मायाचारका स्वभावसा स्त्रियोंका होता है , जिसका मतलब यह है कि अभ्यास और संस्कार व तीन कर्मोके
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
ma
r waryana
श्रीमवंचनसार भाषाटीका। [१७३ . • उदयसे मायाचारका भाव बुद्धिपूर्वक करते हुए भी स्त्रियोंमें मावाचार रूप भाव और वर्तन हो जाता है। यह बात अधिकतर स्त्रियों में पाई जाती है इसीसे आचार्यने बताया है कि जैसे स्त्रियों के मायाचार कर्माके उदयके कारणसे स्वभावसे होता है वैसे स्वभावसे ही केवली के फर्मोके उदयके द्वारा विहारादिक होते हैं । वृत्तिकारने मेघोंका दृष्टांत दिया है कि जैसे मेघ स्वभावसे ही लोगोंके पाप पुण्यफे उदयसे चलते, ठहरते, गर्जते तथा वर्षते हैं वैसे केवली भगवानका विहार व धर्मोपदेश स्वभावसे होता है तथा इसमें भव्यजीवोंके पापपुण्यका उदयका भी निमित्त पड़ जाता है । जहाँके लोगोंके पापका उदय तीव्र होता है वहां केवली महाराजका न विहार होता है न धर्मोपदेश, किन्तु जहांके जीवोंका तीव्र पुण्यका उदय होता है वहां ही केवली महाराजज्ञा विहार तथा. धर्मोपदेश होता है । विना इच्छाके पुद्गलकी प्रेरणासे बहुतसी क्रियाएं हमारे शरीर व वचनमें भी होनाती हैं । जैसे श्वासका लेना, चारों तरफकी हवा व परमाणुओंका शरीरमें प्रवेश, भोजन पानका शरीरमें गलन, पचन, रुधिर मांसादि निर्मापन, रोगोंकी उत्पत्ति, आंखोंका फड़कना, छींक माना, जमाई आना, शरीरका बढ़ना, बालोंका उगना भूख प्यासका लगना, इंद्रियोंका पुष्ट होना, मागमें चलते चलते पूर्व अभ्याससे विना चाहे हुए मार्गकी तरफ चले जाना, स्वप्न व निद्रामें चौंक उठना, बड़बड़ाना, बोलना, अभ्यासके बलसे अन्य विचार करते हुए मुखसे अभ्यस्त पाठोंश निकलनाना मादि। इनको भादि लेकर हजारों वचन व कायके व्यापार हमारी अबुद्धि
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४.] - श्रीमवचनसार :भाषाटीकाः। पूर्वक विना इच्छाके होते हैं । हम इनमें से बहुतसे व्यापारीके होनेकी व न होनेकी पहलेसे भावना रखते हैं तथा उनके होनेपर किन्हींमें राग व किन्हींमें द्वेष, करते हैं इससे हम कर्मबंधको प्राप्त होते हैं । जैसे हम सदा निरोगतासे राग करते तथा सरोगतासे द्वेप करते हैं, पौष्टिक इन्द्रियोंकी चाह रखते हैं, निर्बलतासे हेप करते हैं । जब हमारी इस चाहके अनुसार काम होता है तो
और अधिक रागी होजाते हैं। यदि नहीं होता है तव और अधिक द्वेषयुक्त होजाते हैं । इस कारणसे यद्यपि हमारे भीतर भी बहुतंसी क्रियायें उस समय विशेष इच्छाके विना मात्र कर्मोके उदयसे हो जाती हैं तथापि हम उनके होते हुए रागद्वेष मोह ' कर लेते हैं। इससे हम अल्पज्ञानी अपनी कषायोंके अनुसार कर्मबंध करते हैं। केवली भगवानके भीतर मोहनीय कर्मका सर्वथा अभाव है इस कारण उनमें न किसी क्रिया के लिये पहले ही बांछा होती है न उन क्रियाकि होनेपर रागद्वेष मोह होता है इस कारण जिनेन्द्र भगवान कर्मबंध नहीं करते हैं।
जैसे जिनेन्द्र भगवान कर्मबन्ध नहीं करते हैं वैसे उनके भक्त जिन जो सम्यग्दष्टी गृहस्थ या मुनि हैं वे भी संसारका कारणीभूत कर्मबंध नहीं करते हैं-जितना कपायका उदय होता है उसके अनुसार अल्पकर्मबंध करते हैं जो मोक्ष मार्गमें बाधक नहीं होता है । सम्यग्दृष्टी तथा मिथ्यादृष्टी प्रगट व्यवहारमें व्यापार, कृषि, शिल्प, खान, पान, भोगादि समान रूपसे करते हुए दिखाई पड़ते हैं तथापि मिथ्यादृष्टी उनमें आशक्त है :इससे ससारका कारण कर्म बांधता है। किंतु सम्यग्दृष्टी उनमें भाशक नहीं है
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका । [ १७५
3
किंतु भीतरसे नहीं चाहता है मात्र आवश्यक्ता व् कर्मके तीव्र उदय के अनुसार लाचारीसे क्रियायें करता है इसी कारण वह ज्ञानी संसार के कारण कर्मोंको नहीं, बांधता है- बहुत अल्प कर्म बांधता है जिसको आचार्योंने प्रशंसारूप वचनोंके द्वारा अबंध कह दिया है। प्रयोजन यह है कि बंध कषायोंके अनुकूल होता है। एक हीं कार्यके होते हुए जिसके कषाय तीव्र वह अधिक व जिसके कषाय मंद वह कम पाप बांधता है। एक स्वामीने किसी सेवकको किसी पशुके बघकी आज्ञा दी । स्वामी वध न करता हुआ भी रागकी तीव्रता से अधिक पापबंध करता है जब कि सेवक यदि मनमें
*
बघसे हेय बुद्धि रखता है और स्वामीकी आज्ञा पालनेके हेतु ध करता है तो स्वामीकी अपेक्षा कम पाप बंध करता है । रागद्वेषके अनुसार ही पाप पुण्यका बंध होता है ।
श्री आत्मानुशासन में श्रीगुणभद्रस्वामी कहते हैंद्वेषानुरागबुद्धिर्गुणदोषकृता करोति खलु पापम् । तद्विपरीता पुण्यं तदुभयरहिता तयोर्मोक्षम् ॥ १८१ ॥ भावार्थ - रत्नत्रयादि गुणोंमें द्वेष व मिथ्यात्वादि दोषोंमें की बुद्धि निश्चयसे पापबंध करती हैं। तथा इससे विपरीत गुणोंमें राग व दोपोंसे द्वेषकी बुद्धि पुण्य बंध करती है तथा गुणदोषों में रागद्वेषरहित वीतराग बुद्धि पाप पुण्यसे नीवको मुक्त करती है ।
•
तात्प यह है कि रागद्वेष मोहको ही बंघका कारण जानकर इनहीके दूर करनेके प्रयोजनसे शुद्धोपयोगमयः स्वसंवेदन ज्ञान रूप स्वानुभवका निरन्तर अभ्यास करना योग्य है ।
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७६] श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
उत्थानिका-आगे पहले जो कह चुके हैं कि रागादि रहित कर्मोंका उदय तथा विहार आदि क्रिया बंधका कारण नहीं होते हैं उसी ही अर्थको और भी दूसरे प्रकारसे दृढ़ करते हैं। अथवा यह बताते हैं कि अरहंतोंके पुण्यकर्मका उदय बन्धका कारण नहीं है। पुण्णफला अरहता, तेसिं किरिया पुणो हि ।
ओदायगा। मोहाहीहिं विरहिदा, तम्हा सा खाइगत्तिमदा ४५॥
पुण्यफला अर्हन्तस्तेषां किया पुनर्हि औदायिकी। . .
मोहाहिमिः विरहिता तस्मात् सा क्षायिकीति मता ॥४५॥ : सामान्यार्थ-तीर्थकर स्वरूप अरहंत पुण्यके फलसे होते हैं तथा निश्चयसे उनकी क्रिया भी औदयिकी है अर्थात् मौके उदयसे होनी है मोह आदि भावोंसे शून्य होने के कारण वह क्रिया क्षायिकी कही गई है। __ अन्वय सहित विशेषार्थः-(अरहता) तीर्थकरस्वरूप अरहंतभगवान पुण्णफला ) पुण्यके फलस्वरूप हैं-अर्थात् पंच महा कल्याणको पूभाको उत्पन्न करनेवाला तथा तीन लोकको जीतनेवाला जो तीर्थकर नाम पुण्यकर्म उसके फलस्वरूप अईत बीर्थकर, होते हैं । (पुणः) तथा (तेर्सि) उन अरहंतोंकी (किरिया ) क्रिया अर्थात् दिव्य ध्वनिरूप वचनका व्यापार तथा विहार आदि शरीरका व्यापाररूप क्रिया (हि) प्रगटरूपसे (ओदयिगा) औदयिक है। अर्थात् क्रिया रहित नो शुद्ध आत्मतत्व उससे, विप-' रीत जो कर्म उसके उदयसे हुई है । (सा) वह क्रिया (मोहा
।
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
. श्रीप्रवचनसार भाषाटीको। [१७७ दीहिं ) मोहादिकोंसे अर्थात् मोह रहित शुद्ध आत्मतत्वके रोकने वाले तथा ममकार अहंकारके पैदा करनेको 'समर्थ 'मोह आदिसे (विरहिदा) रहित है ( तम्हा) इसलिये ( खाइगत्ति ) क्षायिक है अर्थात विचार रहित शुद्ध आत्मतत्वके भीतर कोई विकारको न करती हुई क्षायिक ऐसी ( मदा) मानी गई है। '. ___यहांपर शिष्यने प्रश्न किया कि जब आप कहते हैं कि कमौके उदयसे क्रिया होकर भी क्षायिक है अर्थात् क्षयरूप है नवीन बन्ध नहीं करती तब क्या जो आगमकं वचन है कि " औदयिकाः भावाः बन्धकारणम् " अर्थात औदायिक भाव बधके कारण हैं, वृथा हो जायगा ? इस शंकाका समाधान आचार्य करते हैं कि
औदयिक भाव बन्धके कारण होते हैं यह बात ठीक है परन्तु वे बन्धके कारण तब ही होते हैं जब वे मोह भावके उदय सहित होते हैं। कदाचित् किसी जीवके द्रव्य मोह कर्मका उश्य हो तथापि जो वह शुद्ध आत्माकी भावनाके बलसे भाव मोहरूएन परिणगन करे तो बन्ध नहीं होने और यहां अहंतोंके तो द्रव्य मोहका सर्वथ अभाव ही है । यदि ऐसा माना जाय कि कर्मोके उदय मात्रले बन्ध होजाता है तब तो संसारी नीवोंके सदा ही कमौके उदयसे सदा ही बन्ध रहेगा कभी भी मोक्ष न होगी। सो ऐसा कमी नहीं होसक्ता इसलिये मोहके उदयरूप भावके विना किया बंध नहीं करती किन्तु जिस कर्मके उदयसे जो क्रिया होती है वह कर्म झड़ जाता है । इसलिये उस क्रियाको क्षायिकी कह सक्ते हैं ऐसा अमिपाय है। । .....
भावार्थ-इस गाथामें भी आचार्य महाराजने इसी बातका .,
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७८
- श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
दृष्टांत दिया है कि कर्मोदय मात्र नवीन बंध नहीं करसक्ता ! कमौके उदय होनेपर जो जीव उस उदयकी अवस्थामै राम द्वेष मोह करता है वही जीव बंधता है। तीर्थकर भगवानका दृष्टांत
·
!
है कि तीर्थकर महाराजके समवशरणकी रचना होनी, आठ प्रतिहाये होने, इन्द्रादिकों द्वारा पूजा होनी, विहार होना, ध्वनि प्रगट होनी आदि जो जो कार्य दिखलाई पढ़ते हैं, उनमें कर्मोका उदय कारण है। मुख्यतासे तीर्थंकर नाम कम्र्मका उदय है तथा गौणतासे उसके साथ साता वेदनीय आदिका उदय है, परंतु तीर्थकर महाराजकी आत्मा इतनी शुद्ध तथा विकार रहित है कि उसमें कोई प्रकारकी इच्छा व रागद्वेष कभी पैदा नहीं होता । वह भगवान अपने आत्माके स्वरूपमें मग्न हैं । आत्मीक रसका पानकर रहे हैं। उनके ज्ञानमें सर्व क्रियाएं उदासीन रूपसे झलक रही हैं उनका उनमें किंचित भी राग नहीं है क्योंकि गगका कारण मोहनीय कर्म है सो प्रभुके बिलकुल नहीं है । प्रभुकी अपेक्षा समवशरण रहो चाहे वन हो. वाद सभा जुड़ी या मत जुड़ी, देवगण चमरादिसे भक्ति करो दा मत करो, इन्द्र व चक्रवर्ती आदि आठ द्रव्योंसे पूजा व स्तुति करो वा मत करो, विहार हो वा मत हो सर्व समान हैं । कर्मोके उदयसे I क्रियाएं होती है सो हों । वे क्रियाएं आत्माके परिणाम में विकार नहीं करती हैं मात्र कर्म अपना रस देकर अर्थात् अपना कार्य करके चले जाते हैं । झड़ जाते हैं । क्षय होनाते हैं । इस अपेक्षासे यह औदयिक क्रिया क्षायिक क्रिया कहलाती है ।
.
अभिप्राय यह है कि आठ कर्मोमेंसे मोहनीय कर्म ही प्रबल
"
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीभवचनसार भाषाटीका । ।१७६ हैं यही अपने उदयसे निर्बल आत्मामें विकार पैदा कर सकता है। जब इसका उदय नहीं है वहां अन्य कर्मका.. उदय ; हो वा मत हो, आत्माका न कुछ बिगाड़ है 'न सुधार है। ऐसा जानकर कि मोह रागद्वेष ही बन्धके कारण हैं हम छद्मन्थ संसारी. जीवोंका यह कर्तव्य है कि हम इनको दूर करने के लिये निरन्तर शुद्ध आत्माकी भावना रखें तथा:साम्यभावमें वर्तन करें तथा जब जब पाप या पुण्यकर्म अपना अपना फल दिखलावें तत्र तब. हम उन फर्मोके फलमें रागद्वेष न करें-समताभावसे ज्ञाता दृष्टा रहते हुए भोगलें, इसका फक यह होगा कि हमारे नवीन कर्म, बन्ध नहीं होगा-अथवा यदि होगा तो बहुत अल्प होगा तथा : हमारे भावों में पापके उदयसे माकुलता और पुण्यके उदयसे उद्धवता नहीं होगी । जो पापके उदयों में दुःखी ऐसा भाव तथा. पुण्यके उदयमें में सुखी ऐसा · अहंकारमई भाव करता है वही विकारी होता है और तीव्र बन्धको प्राप्त करता है। सतएव हमको साम्यभावका अभ्यास करना चाहिये ॥ ४५ ॥ ... ___उत्थानिका आगे भैसे मरहतोंके शुभ व अशुभ परिणामके विकार नहीं होते हैं तैसे. ही एकान्तसे संसारी जीवोंके भी नहीं होते ऐसे सांख्यमतके अनुसार चलनेवाले शिप्यने अपना पूर्वपक्ष किया उसको दुषण देते हुए समाधान करते हैं-अथवा केवली भगवानोंकी तरह सर्व ही संसारी जीवोंके स्वभावके घातकाः अभाव है इस बातका निषेध करते हैंजदि सो सुहो व असुहो, ण हवदि आंदा संयं .
सहावेण ।'
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०. श्रीभवचनसार भाषाटीकाः।. संसारो विश विनदि, सवोस जीवकायाणं ॥४६! • यदि स. शुभो वा अशुभो न भवति आत्मा स्वयं स्वभावेन । । . संसारोपि न विद्यते सर्वेषां जीवकायानाम् ॥४६॥. .. , सामान्यार्थ-यदि यह आत्मा अपने स्वभावले स्वयं शुभ या अशुभ न होवै तो सर्व जीवोंको संसार ही न होवे । :
" अन्वय सहित विशेषार्थ-(नदि ) यदि" (सः मादा ) वह आत्मा ( सहावेण ) स्वभावसे ( सय ) आप ही ('सुहः) शुभ परिणामरूप ( व अमुहः) अथवा अशुभ परिणाम रूप ('ण हवदि) न होवै । अर्थात जैखे शुद्ध निश्चय नय करके आत्मा शुभ या अशुभ भावोंसे नहीं परिणमन करता है तैसे ही अशुद्ध नयसे भी स्वयं "अपने 'ही उपादान कारणसे' अर्थात् स्वभावसे अथवा अशुद्ध निश्चयसे भी यदि शुभ या अशुभ भावरूप नहीं परिणमन करता है । ऐसा यदि मानाजावे तो क्या दूषणे आएगा उसके लिये कहते हैं कि (सव्वेसि जीवकायाण ) सर्व ही जीवं समूहोंको (संसारोवि ण विजदि.) संसार अवस्था ही नहीं रहेगी । अर्थात् संसार रहित शुद्ध मात्मस्वरूपसे प्रतिपक्षी जो संसार सो व्यवहारनयसे भी नहीं रहेगा।
भाव यह है कि आत्मा परिणमनशील है। वह कर्मोकी उपाधिके निमित्तसे स्फटिझमणिकी तरह उपाधिको ग्रहण करता है इस कारण संसारका अभाव नहीं है। अब कोई शंकाकार कहता है कि सांख्योंके यहां संसारको अभाव होना दूषा, नहीं है किन्तु भूषण' ही है। उसका समाधान करते हैं कि ऐसा नहीं
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका। [.१८१ है। क्योंकि संसारके अभावको ही मोक्ष कहते हैं सो मोक्ष संसारी 'जीवोंके भीतर नहीं दिखलाई पड़ती है इसलिये प्रत्यक्षमें विरोध
भाता है। ऐसा भाव है।: ...:.:. . · . "भावार्थ-इस गाथामें प्राचार्य संसारी जीवोंकी और लक्ष्य देते हुए कहते हैं कि केवली भगवानके सिवाय अन्य संसारीनीव शुद्ध केवलज्ञानी नहीं हैं। यहां पर जहांसे · अप्रमत्त अवस्था प्रारम्भ होकर यह जीव क्षपक श्रेणी हारा क्षीण मोह गुंणेस्थान तक आता है उस अवस्थाके जीवोंको भी छोड़ दिया है क्योंकि वे अंतर्मुहूर्त में ही केवली होंगे। तथा उपशम श्रेणीवालों को भी छोड़ दिया है क्योंकि वहां 'बुद्धिपूर्वक जीवोंमें 'शुद्धोपयोग रहता है। प्रमत्त गुणस्थान तक " कषायका- उदयं प्रगट रहता है। इसलिये शुभ या अशुभरूप परिणमन वहांतक संभव है। क्योंकि अधिकांश जीव समूह मिथ्यादृष्टी हैं। इसलिये उनहीकी ओर विशेष कक्ष्य देकर आचार्य कथन करते हैं कि यदि सांख्यके समान संसार अवस्थामें जीवोंको सर्वथा शुद्ध और निर्लेप, मान लोगे तो सर्व संसारी जीव. पूर्ण शुद्ध संदा' रहेंगे सो यह बात प्रत्यक्षमें देखने में नहीं आती है। संसारी जीव कोई अति मल्प कोई अल्प कोई उससे अधिक ज्ञानी व शांत दीखते हैं। मुक्त जीवके समान त्रिकालज्ञ त्रिलोकज्ञ वीतराग तथा आनन्दमई नहीं दिख रहे हैं. तब सर्व व्यवहार में भी जीवोंको शुद्ध और अपरिणामी कैसे माना जासका है ! ? यदि सब शुद्ध माने जावे तब मुक्तिका उपदेश देना ही व्यर्थ हो जायगा। तथा जम संसारी जीव परिणमनशील न होगा वो दुःखी.या मुखी कमी नहीं हो
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२] श्रीमवचनसार भाषाटीका। . धक्का । जड़वत् एक रूप पड़ा रहेगा, सो यह बात द्रव्य के स्वभा. बसे भी विरोधरूप है । आत्मा संसार अवस्थाम, जब उस मास्माको पर्याय या भवस्थाकी अपेक्षा देखा जाये तब वह अशुद्ध कर्म बद्धं, अज्ञानी, अशांत आदि नाना अवस्थारूप, दीखेगा, हां जब मात्र स्वभावकी अपेक्षासे देखें तो केवल शुद्ध रूप दीखेगा। शुद्ध निश्चयनय नैनसिद्धान्तमें द्रव्यके त्रिकाल अबाधित शुद्ध स्वभावकी ओर लक्ष्य दिलाती है। इसका यह अभिप्राय नहीं है कि हरएक संसार पर्याय ही शुद्ध रूप है । जब नीवकी संसार अवस्थाको देखा जाता है तब उस दृष्टिको अशुद्ध 'या व्यवहार दृष्टि या नय कहते हैं। उस दृष्टि से देखते हुए यही दिखता है कि यह जीव अपने शुद्ध स्वभावमें नहीं है । यद्यपि यह स्फटिकमणिके समान स्वभावसे शुद्ध है . तथापि कर्मबंधके कारणसे इसका परिणमन स्फटिकमें लाल,काले,पीले डॉकके सम्बन्धकी तरह नाना रंगका विचित्र झलकता है । जब यह अशुभ या तीव्र कषायके उदयरूपं परिणमन करता है. तब यह अशुभ. परिणामवाला और जब शुभ यो मंद कषायके उदयरूप परिणमन करता है तब शुंभ परिणामवाला स्वयं स्वभावसे अर्थात् अपनी उपादान 'शक्तिसे होजाता है । जैसे फटिकका, निर्मल पाषाण काल डाकसे लाल रंगरूप या काले डाकसे काले रंगरूप परिणमन करता, है वैसे यह परिणमनशील आत्मा तीव्र कषायके निमित्तसे अंशुमरूप तथा मंद कषायके निमित्तसे शुभरूप परिणमन, करमाता है। उस समय जैसे 'फटिकका निर्मल , स्वभाव ; तिरोहितः या. ढक जाता है वैसे, आत्माका शुद्ध स्वभाव तिरोहित होनाता है।
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [१८३, पर्याय हरएक द्रव्यमें एक समय, एकरूप रहसती हैं। शुद्ध
और अशुद्ध दो पर्यायें एक समयमें नहीं रह सक्ती हैं। संसार अवस्थामें मुख्यतासे नीवों में अधिकांश अशुद्ध परिणमन तथा मुक्तावस्था में सर्व जीवोंके शुद्ध परिणमन रहता है। यह जीव आप ही अपने परिणामों में कभी शुभ या अशुभ परिणामवाला होजाता है । इसीसे इसके रागद्वेष मोह भाव होते हैं। जिन भावोंके निमित्तसे यह जीव कोका बंध करता है और फिर माप ही उनके फलको मोक्का है, फिर आप ही शुद्ध परिणमन के अभ्याससे शुद्ध होनाता है । सांख्यकी तरह अपरिणामी माननेसे संसार तथा मोक्ष अवस्था कोई नहीं बन सक्ती है । परिणामी माननेसे ही जीव संसारी रहता तथा संसार अवस्थाको त्यागकर मुक्त होजाता है। .. __ श्री अमृतचंद्र आचार्यने श्रीपुरुषार्थसिन्धुपाय ग्रन्थमें कहा है। .. परिणममाणो नित्यं बानविवरनादिसंवत्या । ' परिणामानां स्वेषां स भवति कर्चा च भोक्ता च ॥१॥
सर्वविवत्तोंत्तीर्ण यदा स चैतन्यमचलमामोति । "भवति तदा कृतकृत्यः सम्यक्पुरुषार्थसिद्धिमापन्न ॥ ११ - भाव यह है कि अनादि परिपाटीसे ज्ञानावरणीय आदि कर्मोके निमित्तंसे नित्य ही परिणमन करता हुआ यह नीव अपने ही शुभ अशुभ परिणामोंका' कर्ता तथा भोक्ता हो जाता है। जब यह मात्मा सर्वे आवरणोंसे उतरे हुए शुद्ध निश्चल चैतन्य भावको
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
RAMMAA
M
१८४] श्रमिवचनसार भापाटीका । प्राप्त करता है तब यह भले प्रकार अपने पुरुषार्थकी सिद्धिको प्राप्त होता हुआ इतकृत्य कतार्थ तया सुखी हो जाता है।
इस तरह संसारी छद्मयोंके स्वभावका घात हो रहा है ऐसा जानकर शुभोपयोग तथा अशुभोपयोगको त्यागकर शुद्धोप. योग अथवा साम्यभावमें परिणमन करना योग्य है जिससे कि आत्मा केवळज्ञानीकी तरह शुद्ध निर्विकार तथा अनन्ध हो जावे यह नाम है। ____ इस तरह यह बताया कि राग द्वेष मोह बन्धके कारण हैं, ज्ञान बंधका कारण नहीं है इत्यादि कथन करते हुए छठे स्थलमें पांच गाथाएं पूर्ण हुई ।। ४६ ॥
उत्थानिका-आगे कहेंगे कि केवलज्ञान ही सर्वज्ञका स्वरूप है । फिर कहेंगे कि सर्वको जानते हुए एकका ज्ञान होता है तथा एकको मानते हुए सर्वका ज्ञान होता है इस तरह पांच गाथाओं तक व्याख्यान करते हैं। उनमें से प्रथम ही यह निरूपण करते हैं। क्योंकि यहां ज्ञान प्रपंचके व्याख्यानकी मुख्यता है इसलिये उसहीको आगे लेकर फिर कहते हैं कि केवलज्ञान सर्वज्ञ
जं तालियनिदर, जाणाद जुगवं रूतदोसब्बं । अत्थ विचित्तविसम, तणाणं खाइयं भणिय ॥४॥
यत्तारकालिकभितरं जानाति युगपत्समन्ततः सर्वम् । अर्थ विचित्रविषमं तत् शानं क्षायिक भणितम् ॥४७॥ सामान्यार्थ-जो सर्वागसे वर्तमानकालकी व उससे भिन्न
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाका । [१८५
ใน
- मृत भविष्यकालकी पर्याय सहित सर्व ही विचित्र और अनेक नातिके पदार्थको एक ही समय में जानता है वह ज्ञान क्षायिक कहा गया है।
'अन्वय सहित विशेषार्थ - (नं) जो ज्ञान (समतदः) सर्व प्रकार से अथवा सर्वे. व्यात्माके प्रदेशोंसे ( विचित्तविसमं ) नांना भेदरूप अनेक जातिके मूर्त अमूर्त चेतन अचेतन आदि (सव्वं अत्थं) सर्वं पदार्थोको (तक्कालियम् ) वर्तमानकाल संबंधी तथा (इतर) भूत भविष्य का सम्बन्धी पर्यायों सहित (जुगवं ) एक
""
.
1
समय में व एक साथ ( जाणदि ) जानता है । ( तं गाणं ) उस ज्ञानको (खाइयं) क्षायिक ं (भणियं) कहा है । अभेद नयसे वही सर्वज्ञका स्वरूप है इसलिये वही ग्रहण करने योग्य अनन्त, सुख आदि अनन्त गुणका आधारभूत सर्व तरहसे प्राप्त करने योग्य है इस रूपसे भावना करनी चाहिये । यह तात्पर्य है ।
2
1.
भावार्थ - इस गाथा में आचार्य ने केवलज्ञानकी महिमाको प्रगट किया हैं और यह बतलाया है कि ज्ञानका पूर्ण और स्वाभाबिक कार्य इसी अवस्थामें झलकता है । जब सर्व ज्ञानावरणीय कर्मका क्षय हो जाता हैं तब ही केवलज्ञान प्रगट होता है। फिर यह हो नहीं सकता कि इस ज्ञान से बाहर कोई भी ज्ञेय रह जांबे । इसीको स्पष्ट करने के लिये कहा हैं कि जगत में पदार्थ समूह अनंत हैं और वे सब एक जातिके व एक प्रकारके नहीं हैं किंतु भिन्नर जाति व भिन्न१ प्रकारके हैं । विसम शब्दसे यह द्योतित किया है. कि. जगतमात्र चेतन स्वरूप ही नहीं है, न मात्र, अचेतन स्वरूप है, किंतु चेतन अचेतन स्वरूप है । जितने जीव हैं वे चेतन
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८६] श्रीप्रवचनसार भापार्टीका । हैं नितने पुद्गल आदि पांच द्रव्य हैं वे अचेतन हैं। तथा न केवल मूर्तीक ही हैं न मात्र अमूर्तीक ही हैं किंतु पुद्गल सब मूर्तीक हैं, शेष पांच द्रव्य अमूर्तीक हैं। विचित्र शब्दसे यह बताया है कि जीव जगतमें एक रूप नहीं हैं कोई मुक्त हैं कोई संसारी हैं, संसारियोंमें भी चतुर्गति रूपसे मिन्नता है । एक गतिमें भी अनेक विचित्र रचना जीवोंके शरीरादिककी उनके भिन्न २ कर्मोके उदयसे हो रही हैं। केवलज्ञानमें यह शक्ति है कि सर्व समाति विजातीय द्रव्योंको उनके विचित्र भेदों सहित जानता है । उस ज्ञानमें निगोदसेले सिक पर्यंत सर्व जीवोंका स्वरूप अलग २ उनके आकारादि भिन्न १ दिख रहे हैं वैसे ही पुद्गल द्रव्यकी विचित्रता भी झलक रही है। परमाणु और स्कंध रूपसे दो भेद होनेपर भी सचिक्कणता व रक्षताके मशोंकी भिन्नताके कारण परमाणु अनंत प्रकार के हैं। दो परमागुओंके स्कंधको मादि लेकर तीनके, चारके, इसी र संख्यातके असंख्यातके व अनंत परमाणुओंके नाना प्रकार के स्कंध बन जाते हैं जिनमें विचित्र काम करनेकी शक्ति होती है। उन सर्व स्कंधोंको व परमाणुओंको केवलज्ञान भिन्न २ जानता है। इसी तरह असंख्यात कालाणु, एक अखंड धर्मास्तिकाय एक अखंड अधर्मास्तिकाय तथा एक अखंड आकामास्तिकाय ये सब द्रव्य जिनमें सदा स्वाभाविक परिणमन ही होता है उस निर्मलज्ञानमें अलग २ दिख रहे हैं। प्रयोजन यह है कि यह विचित्र नाना प्रकार व जातिका जगत 'अर्थात् जगतके सर्व पदार्थ ज्ञानमें प्रगट हैं । कालापेक्षा भी वह ज्ञान हरएक द्रव्यकी सर्वभूत, भवि
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
, श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [१८७ प्यत, वर्तमान पर्यायोंको वर्तमानके समान जानता है । तथा इस ज्ञानमें, शक्ति इतमी अपूर्व है कि यह ज्ञान मति ज्ञानादि क्षयोपशमिक ज्ञानोंकी तरह क्रम क्रमसे नहीं जानता है किन्तु एक साथ एक समयमें सर्व पदार्थों की सर्व पर्यायोंको अलग अलगः जानता है। केवलज्ञानका आकार आत्माके प्रदेशों के समान है । आत्मामें असंख्यात प्रदेश हैं.। केवलज्ञान सर्वत्र व्यापक है । हरएक प्रदेशमें केवलज्ञान समान शक्तिको. रखता है। जैसे अखंड भात्मा किंवलज्ञानमई सर्वज्ञेयोंको. नानता, है वैसे एक एक केवल ज्ञानसे सना हुआ आत्मपदेश भी सवज्ञेयोंको जानता है । इस केवलज्ञानकी शक्तिका महात्म्य वास्तवमें हम अल्पज्ञानियोंके ध्यान में नहीं आसक्ता है । इसका महात्म्य उनहीके गोचर है जो स्वयं केवल. ज्ञानी हैं । हमको यही अनुमान करना चाहिये कि ज्ञानमें हीनता
आवरणसे होती है जब सर्व कर्मोंका आवरण क्षय होगया तब ज्ञानके विकाशके लिये कोई रुकावट नहीं रही । तव ज्ञान पूर्ण अतीन्द्रिय, प्रत्यक्ष, स्वाभाविक होगया। फिर भी उसके 'ज्ञानसे कुछ ज्ञेय शेष रहनाय यह असंभव है। इस ज्ञानमें तो ऐसी शक्ति है कि इस जगतके समान अनंते जगत भी यदि हो तो इस ज्ञानमें झलक सके हैं। ऐसा अद्भुत केवलज्ञान जहां प्रगट है वहीं सर्वज्ञपना है तथा वहीं पूर्ण निराकुलता और पूर्ण वीतरागता है क्योंकि विना मोहनीयका नाश भये ज्ञानका आवरण मिटता नहीं । इसलिये जब सर्व जान लिया तब · किसीके जाननेकी इच्छा हो. नहीं सकी। तथा इन्द्रियाधीन ज्ञान, जैसे नहीं रहा वैसे इन्द्रियाधीन विषय सुखका भी यहां अभाव है।
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८८] श्रीमवचनसार भाषाटीका। यहां आत्मामें स्वाभाविक अतीन्द्रिय अनन्त सुख' प्रगट होगयो है। केवलज्ञान और अनंत सुखका अविनाभाव सम्बन्ध है। संसारी नीव जिस सुखको न पाकर सदा वनमें जलके लिये भटकते हुए मृगकी तरह तृषातुर रहते हैं वह स्वाभाविक मुख इस अवस्थामें ही पूर्णपने प्राप्त होजाता है। इसीतरह अनंत वीर्य आदि और भी आत्माके अनंत गुण व्यक्त होनाते हैं। ऐसे निर्मल ज्ञानके प्राप्त करनेका उत्साह रखकर भव्य जीवको उचित है कि इसकी प्रगटताका हेतु जो शुद्धोपयोग या साम्यमाव या स्वात्मा-नुभव है उसीकी भावना करे तथा उसीके द्वारा सर्व संकल्प विकल्प त्याग निश्चिन्त हो निज आत्माके रसका स्वाद ले तृप्त हो । यही अभिप्राय है ।। ४७ ॥
उत्थानिका-आगे आचार्य विचारते हैं कि भो ज्ञान सर्वको नहीं जानता है वह ज्ञान एक पदार्थको भी नहीं जान सका है। जो ण विजाणदि जुगवं, अत्थे तेकालिके
. . तिहुक्णत्थे। णाईं तस्स ण सक, सपज्जयं दध्यमे या ॥ १८॥
यो न विज्ञानाति युगपदर्शान अकालिकान् निभुवनस्पान् । ज्ञातुं तस्य न शक्यं सपर्ययं द्रव्यमेकं वा ॥ ४ ॥
सामान्यार्थ-जो कोई एक समयमें तीनलोककी त्रिका-लवतीपर्यायोंमें परिणत हुए पदार्थोंको नहीं जानता है-उसका ज्ञान समस्त पर्याय सहित एक व्यके भी जाननेको समर्थ नहीं है।
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार: भाषाटीका: ।
१८९
अन्वय सहित विशेषार्थ - (जो ) जो कोई आत्मा (ani) एक समय में (तकालिके) तीन कालकी पर्यायों में परिणमन करनेवाले ( तिहुवणत्ये) तीन लोक में रहनेवाले (अत्थे पदार्थोंको( ण विजानदि ) नहीं जानता है । (तस्ल ) उस आत्माका ज्ञान (सपज्जयं) अनन्त पर्याय सहित ( एकं दव्वम्) एक द्रव्यको (वा). भी (जादु) जाननेके लिये ( ण सक्क) नहीं समर्थ होता है ।..
भाव यह है कि आकाशद्रव्य : एक है, धर्मद्रव्य एक है,
है और लोकाकाशके प्रदेशोंके प्रमाण असं उससे अनन्त गुणे नीव द्रव्य हैं, उससे,
नीच द्रव्यमें
नोकर्म वर्ग-
r
"
तथा अधर्म द्रव्य एक ख्यात काल द्रव्य हैं, भी अनन्त गुणे पुद्गल द्रव्य हैं, क्योंकि एक एक अनंत कर्म, वर्गणाओंका सम्बन्ध है वैसे ही अनंत णाओंका सम्बन्ध है । वैसे ही इन सर्व द्रव्योंमें प्रत्येक द्रव्यकी अनन्त पर्याय होती हैं । यह सर्व ज्ञेय - जानने योग्य है. और इनमें एक कोई भी विशेष नीव द्रव्य, ज्ञाता - जाननेवाला है ! ऐसा ही वस्तुका स्वभाव है । यहां जैसे अग्नि सर्व जलाने योग्य surat जलाती हुई · सर्व जलाने योग्य कारणके होते हुए सर्ब ईघनके आकारकी पर्याय में परिणमन करते हुए. सर्व मई एक अनि स्वरुप होजाती है अर्थात् वह अग्नि उष्णतामै परिणत तृण व पत्त मादिके आकार अपने स्वभावको परिणमाती है । वैसे यह आत्मा सर्व ज्ञेयोंको जानता हुआ सर्व ज्ञेयोंके कारण के होते हुए सर्वज्ञेयाकारकी पर्यायमें परिणमन करते हुए सर्व मई एक अखंडज्ञान रूप अपने ही आत्माको परिणमता है अर्थात सर्वको जानता है । और जैसे वही अनि पूर्वमें कहे हुए ईएनको नहीं जलाती हुई
r
..
1
.
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९० ]
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
उस ईनके आकार नहीं परिणमन होती है वैसे ही आत्मा भी पूर्व में कहे हुए सर्वज्ञेयोंको न जानता हुआ पूर्व में कहे हुए लक्षणरूप सर्वको जानकर एक अखंडज्ञानाकाररूप अपने ही आत्माको नहीं परिणमाता है अर्थात सर्वका ज्ञाता नहीं होता है। दुमरा भी एक उदाहरण देते हैं | जैसे कोई अन्धा पुरुष सूर्य्यसे प्रकाशने योग्य पदार्थोंको नहीं देखता हुआ सूर्य्यको भी नहीं देखता, दीपकसे प्रकाशने योग्य पदार्थो को न देखता हुआ दीपकको भी नहीं देखता, दर्पण में झलकती हुई परछाई न देखते हुए दर्पणको भी नहीं देखता, अपनी ही दृष्टिसे प्रकाशने योग्य पदार्थों को न देखता हुआ हाथ पग आदि अंगरूप अपने ही देहके आकारको अर्थात् अपनेको अपनी दृष्टिसे नहीं देखता है । वैसे यह प्रकरण में प्राप्त कोई आत्मा भी केवलज्ञान से प्रकाशने योग्य पदार्थोंको नहीं जानता हुआ सफल अखंड एक केवलज्ञान रूप अपने आत्माको भी नहीं जानता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि जो सर्वको नहीं जानता है वह आत्माको भी नहीं जानता है ।
1
भावार्थ - यहां आचार्यने केवलज्ञानकी महिमाको बताते हुए गाथा में यह बात झलकाई है कि जो कोई तीन लोकके सर्व पदार्थोको एक समय में नहीं जानता है वह एक द्रव्यको भी पूर्णप नहीं जानसक्ता । वृत्तिकारने यह भाव बताया है कि अपना आत्मा ज्ञानस्वभाव होनेसे ज्ञायक है। जब वह ज्ञान शुद्ध होगा - तो सर्व द्रव्य पर्याय मई ज्ञेयरूप यह जगत उस ज्ञानमें' प्रतिबिजित होगा अर्थात् उनका ज्ञानाकार परिणमन होगा । इसलिये जो सर्वको जान सकेगा वह अपने आत्माको भी यथार्थ जानसकेगा
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।। ६१९१ और जो सर्वको माननेको समर्थ नहीं है उसका ज्ञान पशुड़ है. तब वह एक अपने आत्माको भी स्पष्ट पूर्णपने नहीं जान सकेगा। यहां दृष्टांत दिये हैं सो सब इसी बातको स्पष्ट करते हैं । जो अग्नि सर्व इंघनको जलावेगी वह अग्नि सब इंधनरूप परिणमेगी। तब जो दायको जानोगे तो दहकको भी जानोगे । यदि दाह्यः
धनको नहीं देख सक्ते तो अग्निको भी नहीं देख सके जो सर्व ईघनमें व्यापक है। जो सुर्य व.दीपक, व दर्पणद्वारा काष्टिद्वारा प्रतिविम्बित पदार्थोको जान सकेगा वह क्या सूर्य, दीपक दर्पण व दृष्टिवाले पुरुषको न जान सकेगा ? अवश्य जान सकेगा। इसी तरह जो सर्वको जानेगा वह सर्वके जाननेवाले आत्माको भी जान सकेगा। जो सर्वको न जानेगा वह निज ज्ञायक आत्माको भी नहीं जान सकेगा। इस भावके सिवाय गाथासे यह भाव भी प्रगट होता है कि जो सर्व ज्ञेयोंको एक कालमें नहीं नान सकेगा वह एक द्रव्यको भी उसकी अनंत पर्यायोंके साथ नहीं जान पकेगा। एक कालमें सर्व क्षेत्रमें पै.ले दुपदार्थाको मानना क्षेत्र अपेक्षा विस्तारको मानना है । तथा एक क्षेत्रमें स्थित किसी पदार्थको उसकी भूत भविष्यत् पर्यायोंको जानना काल अपेक्षा विस्तारको जानना है । क्षेत्र अपेक्षा लोकाकाश मात्र असंख्यात प्रदेशरूप है यद्यपि अलोकालाश अनंत है तथा काल अपेक्षा एक द्रव्य अनंतानंत .. समयोंमें होनेवाली. पर्यायोंकी. अपेक्षा अनंतानंतरूप है। जो लोकाकाशके क्षेत्र विस्तारको एक समयमें जाननेको समर्थ नहीं है वह उसके अनंतगुणे. काल 'विस्तारको कैसे जान सकेगा ! अर्थात् नहीं जान सकेगा । किसी
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९२ ]
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
भी क्षयोपशम ज्ञानमें दोनोंके विस्तारको स्पष्टपने सर्व उपस्थित पदार्थ सहित जाननेकी शक्ति नहीं है। चारों ही ज्ञान बहुतकम पदार्थो को जानते हैं । यह तो क्षायिकज्ञान जो अतीन्द्रिय और स्वाभाविक है उसीमें शक्ति है जो सर्व क्षेत्रकी व सर्वकालकी सर्व द्रव्योंकी सर्व पर्यायोंको जान सके । अतएव यह सिद्ध है कि जो सर्व तीनकाल व तीन लोक पर्याय सहित द्रव्योंको नहीं जान सक्का वह एक द्रव्यको भी उनकी अनंत पर्याय सहित नहीं जान सक्ता । मात्र केवलज्ञान ही जानसक्ता है। जैसे वह सर्वको जानता है वसे वह एकको जानता है ।
ऐसी महिमा केवलज्ञानकी जानकर कि उसके प्रगट हुए विना न हम पूर्णपने अपने आत्माको जानसक्के न हम एक किसी अन्य द्रव्यको जानसक्ते | हमको उचित है कि इस निर्मल केवलज्ञानके लिये हम शुद्धोपयोग या साम्यभावका अभ्यास करें ।
उत्थानका- आगे यह निश्चय करते हैं कि जो एकको नहीं जानता है वह सर्वको भी नहीं जानता है । दव्यं अनंतपजयमेकमणाणि दव्वजादाणि । ण विजाणदि जदि जुगवं कध सो सव्वाणि जाणादि ॥ ४९ ॥
द्रव्यमनंतपर्यायमेकमनन्तानि द्रव्यजातानि ।
न विजानाति यदि युगपत् कथं स सर्वाणि जानाति ॥ ४९ ॥ सामान्यार्थ - जो आत्मा अनन्त पर्यायरूप एक द्रव्यको नहीं जानता है वह आत्मा किस तरह सर्व अनंत द्रव्योंको एक समय में जान सक्ता है ?
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
marwaimarwanamakwane
श्रीमवचनसार भापारीका। [१९३ अन्वय सहित विशेषार्थ-(नदि) यदि कोई आमा (एक अणंतपजयं दव्वं) एक अनन्तपर्यायोंके रखनेवाले द्रव्यको (ण विमाणदि) निश्चयसे नहीं जानता है (सो) वह आत्मा (कथं) किस तरह (सम्शणि गणताणि दव्यगादाणि) सर्व अनन्त द्रव्यसमूहको (जुग) एक समयमें (नाणादि) जान सक्ता है ? अर्थात् किसी तरह भी नहीं नान सक्ला । विशेष यह है कि मात्माका लक्षण ज्ञान स्वरूर है । सो अखंडरूपसे प्रकाश करनेवाला सर्व जीवों में साधारण महामान्य रूप है । वह महासामान्य ज्ञान अपने ज्ञानमयो अन्त विशेषोंमें व्यापक हैं । वे ज्ञान विशेष अपने विपरूप ज्ञप पदार्थ ने अनन्त द्रव्य और पर्याय है उनको जान नेवाले ग्रहण करनेवाले हैं। जो कोई अपने आत्माको अखडररूपसे प्रकाश घरते हुए महा सामान्य स्वभावरूप प्रत्यक्ष नहीं जानता है बद पुरुम पकाशमान महामामायके द्वारा जो बनत ज्ञानके विशेष व्याप्त हैं, उनके विषयरून मो मनन्त द्रा और पर्याय हैं उगम कसे मानसा है ? अर्थात् किसी भी तरह नहीं जान सका है। इससे यह सिद्ध हुआ कि नो भाने आत्माको नहीं नानता है वह नशो नहीं जानता है। ऐसा ही कहा हैएको भायः सर्व भाव स्वभावः सर्व भावा एक भाव भावः एने भावस्तरवता येन बुद्धः स भावास्तवतस्तेन बुद्धाः ॥
भाव यह है कि एक भाव सर्व भावोंका स्वभाव है और सर्व मान एक मायके स्वभाव हैं | जितने निश्चयसे-यथार्थ रूपसे . एक भावको नाना उसने यथार्थ पसे सर्व भावोंको जाना है।
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
and
१९४] श्रीमवचनसार भाषाटीका । यहां ज्ञाता और ज्ञेय सम्बन्ध लेना चाहिये जिसने ज्ञाताको नाना उसने सर्थ ज्ञेयोंको जाना ही। यहांपर शिप्यने प्रश्न किया कि आपने यहां यह व्याख्यान किया सिमात्माको जानते हुए सर्वका जानपना होता है और इसके पहले सुत्रमें कहा था कि सबके जाननेले मात्माका ज्ञान होता है। यदि ऐसा है तो जब छमस्थोंको सर्वका ज्ञान नहीं है तब उनको आत्मामा ज्ञान में होगा यदि उनको मात्मा का ज्ञान न होगा तो उनके आत्माकी भावना करो दोगी ! यदि मात्माकी भावना न होगी तो :नको चाज्ञानको उत्पत्ति नहीं होगी। ऐमा होनेसे कोई केवलज्ञानी नदी होगा। इस मंशाका समाधान करते हैं कि परोक्ष प्रमाणरूम श्रुत ज्ञानसे सर्व पदार्थ माने जाते हैं। यह कैसे, सो कहने हैं। छमास्थों को भी लोक और अलोकका ज्ञन व्याप्तिज्ञान रूपसे है । वह विज्ञान परोक्षरूपसे केवलनानके विषयको ग्राण करनेवाला है इलिये वि.स) अपेक्षासे आत्मा ही कहा जाता है। अथवा दृ मा संक्षेप लाम वा त्या तुमसे आत्माको मन । और फिर उसकी भावना करते हैं । इसी रागद्वेषादि विकल्पोंसे रहित स्वसंवेदनज्ञानकी भवनाके द्वारा फेवरज्ञान का होनाता है । इसमें कोई दोष नहीं है।
मा -इस गाथामें भी भाचार्यने केवलज्ञानकी महिमाको और आत्माके ज्ञान स्वभावशे प्रगट किया है। ज्ञान म माझा स्वभाव है । जो सबको जाने उसे ही ज्ञान कहते हैं। अर्थात महा सामान्यज्ञान सर्व ज्ञेयोंको जाननेवाला है। भिन्न २ पदार्थोके ज्ञानको विशेष ज्ञान कहते हैं । ये विशेष ज्ञान सामा
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
'श्रीमवचनसार भाषाटीका |
१९६
।
1
न्यमें व्याप्य हैं. अर्थात् गर्भित हैं । जो कोई अपने आत्माके स्वभावको पूर्णपने प्रत्यक्ष स्पष्ट जानता है वह नियमसे उस ज्ञान स्वभाव द्वारा प्रगट सर्व पदार्थोंको जानता है । यह ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध दुर्निवार है और जो कोई अपने 1 errearrant प्रत्यक्ष नहीं जानता है वह सर्वको माँ नहीं जानसक्ता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि आत्मज्ञानी सर्वका जाननेवाला होता है । यहां यह भी समझना चाहिये कि निर्मल ज्ञानमें दर्पण में प्रतिविभवकी तरह सर्व पदार्थोंके आकार स्वयं झककते हैं वह ज्ञान ज्ञेयाकारता होजाता है । इसलिये जो दर्पणको देखता है वह उसमें झलकते हुए सर्व पदार्थों को देखता ही है । जो दर्पणको नहीं देखता है । वह झलकनेवाले पदार्थोको भी नहीं देख सक्ता है | इसी तरह जो निर्मल शुद्ध आत्माको देखता है वह उसमें झलकते हुए सर्व ज्ञेवरूप अनंत द्रव्यों को भी देखता है । इसमें कोई शंका नहीं है। ऐसा ज्ञाताके भीतर ज्ञानज्ञेष सम्मन्य है । ज्ञानसे जो प्रगटे व शेप | शेपली मराटावे वह . ज्ञान । ज्ञान आत्माका स्वभाव है । इसलिये आत्मा को जाननेवाला सर्वज्ञ होता ही है । अथवा जो कोई पुरुष एक द्रव्यको उसकी अनंत पयोंके साथ जाननेको असमर्थ है वह सर्व द्रव्यों को एक समय कैसे जानसक्ता है ? कभी भी नहीं जानसक्ता है । जिस ferent शुद्धता होगtant अपने को भी, दुसरेको भी, एकको भी अनेक भी, सर्वज्ञेष मात्रको एक समय में जानसक्ता है। स्वपरका प्रत्यक्ष ज्ञान केवलज्ञानी हीको होता है । जो अल्पज्ञानी हैं के श्रुतज्ञानके द्वारा परोक्षरूप से सर्वज्ञेोंको जानते हैं परंतु उनको स
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९६] श्रीप्रवचनसार भापार्टीका। पदार्थ तथा उनकी सर्व अवस्थाएं एक समयमें स्पष्ट २ नहीं मालूम पड़ सक्ती हैं वे ही श्रुतज्ञानी आत्माको भी अपने स्वानुभवसे जान लेते हैं । यद्यपि केवलज्ञानीके समान पूर्ण नहीं जानते उनको कुछ मुख्य गुणोंके द्वारा आत्माका स्वभाव मनात्मद्रव्योंसे जुदा भासता है । इसी लक्षणरूप व्याप्तिसे वे लक्ष्यरूप आत्माको समझ लेते हैं और इसी ज्ञानके द्वारा निज आत्माके स्वरूपकी । भावना करते हैं तथा स्वरूपमें अशक्ति पाकर निजानंदका स्वाद लेते हुए वीतरागतामें शोभायमान होते हैं। और इसी शुद्ध, भावनाके प्रतापले वे केवलज्ञानको प्रगट करलेते हैं। ऐसा जान निज स्वरूपका मनन करना ही कार्यकारी है ॥ १९ ॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जो ज्ञान क्रमसे पदाथोंके जाननेमें प्रवृत्ति करता है उस ज्ञानसे कोई सर्वज्ञ नहीं होसका है अर्थात् क्रमसे जाननेवालेको सर्वज्ञ नहीं कह सके । उपजदिदिणाणं, कमलो अत्थे पड्डुच्च णाणिस्स। तं व हयदि णिचं, ण खाहगं व सधगदं ॥१०॥
उत्पद्यते यदि शान क्रमशोऽर्थान् प्रतीत्य शानिनः। तन्नैव भवति नित्यं न क्षायिकं नैव सर्वगतम् ॥ ५० ॥ सामान्यार्थ-यदि ज्ञानी आत्माका ज्ञान पदार्थोको आश्रय करके क्रमसे पैदा होता है तो वह ज्ञान न तो नित्य है, न क्षायिक है, और न सर्वगत है। ___ अन्य सहित विशेषार्थ-(जदि) यदि (गाणिस्स) ज्ञानी आत्माका ( गाणं ) ज्ञान (अत्थे ) मानने योग्य पदार्थों को
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
AAAAAAAAAAAAAA
श्रीप्रवचनसार भापाटीका। ।२९७ (पडुच्च ) आश्रय करके (कमसो) क्रमसे (उप्पजदि) पैदा होता है। तो (तं) वह ज्ञान (णिञ्च ) अविनाशी (णेव) नहीं (हवदि ) होता है अर्थात् नित पदार्थके निमित्तसे ज्ञान उत्पन्न हुआ है उस पदार्थके नाश होने पर उस पदार्थका ज्ञान भी नाश होता है इसलिये वह ज्ञान सदा नहीं रहता है इससे नित्य नहीं है । (ण खाइगं ) न क्षायिक है क्योंकि वह परोक्ष ज्ञान ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमके आधीन है (णेव सव्वगदं)
और न वह सर्वगत है, क्योंकि जब वह पराधीन होनेसे नित्य नहीं है, क्षयोपशमके आधीन होनेसे क्षायिक नहीं है इसी लिये ही वह ज्ञान एक समयमें सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंको जाननेके लिये मसमर्थ है इसी लिये सर्वगत नहीं है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जो ज्ञान क्रमसे पदार्थोंका आश्रय लेकर पैदा होता है उस ज्ञानके रखनेसे सर्वज्ञ नहीं होता है।
भावार्थ-यहां आचार्य केवलज्ञानको ही जीवका स्वाभाविक ज्ञान कहने के लिये और उसके सिवाय जितने ज्ञान हैं उनको वैभाविक ज्ञान कहनेके लिये यह दिखलाते हैं कि जो ज्ञान पदाथोंका आश्रय लेकर क्रम क्रमसे होता है वह ज्ञान स्वाभाविक नहीं है । न वह नित्य है, न क्षायिक है और न सर्वगत है। ‘मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्यय ज्ञान ये चारों ही किसी भी पदार्थको क्रमसे जानते हैं-जब एकको जानते हैं तब दूसरेको नहीं जान सके । जैसे मतिज्ञान जर वर्णको जानता है तब रसको विषय नहीं कर सकता और न मनसे कुछ ग्रहण कर सकता है। पांच इंद्रिय और मन द्वारा मतिज्ञान एक साथ नहीं जान सकता
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९८ ]
श्रीमवचनसार भाषाटीका |
पदार्थों का ज्ञान
किन्तु एक काल एक ही इन्द्रियसे जान सकता है। उसमें भी थोड़े विषयको जान सकता है उस इन्द्रिय द्वारा ग्रहण योग्य सर्व विषयको नहीं जानता है। आंखोंसे पहले थोड़े से पदार्थ, फिर अन्य फिर अन्य इस तरह क्रमसे दी अवग्रह ईहा आदिके क्रमसे होता है । धारणा होजाने पर भी यदि पुनः पदार्थका स्मरण न किया जाय तो वह बात भुला दी जाती है । तथा जो पदार्थ नष्ट होजाते हैं उनका ज्ञान कालान्तर में नहीं रहता है । इसी तरह श्रुतज्ञान जो अनक्षरात्मक है वह मतिज्ञान द्वारा ग्रहीत पदार्थके आश्रयसे अनुभव रूप होता है और जो अक्षरात्मक है वह शास्त्र व वाणी सुनकर या पढ़कर होता है । शास्त्रज्ञान क्रमसे ग्रहण किया हुआ क्रमसे ही ध्यानमें बैठता है । तथा कालान्तर में बहुतप्ता भुला दिया जाता है । अवधिज्ञान भी किसी पदार्थकी ओर लक्ष्य दिये जाने पर उसके सम्बन्धमें आगे व पीछेके भवका ज्ञान कमसे द्रव्य क्षेत्रादिकी मर्यादा पूर्वक करता है। सो भी सदा एकसा नहीं बना रहता है । विषयकी अपेक्षा बदलता रहता है व विस्मरण होजाता है । यही हाल मन:पर्ययका है, जो दूसरेके मनमें स्थित पदा
को क्रमसे जानता है । इस तरह ये चारों ही ज्ञान क्रमसे जाननेवाले हैं और सदा एकता नहीं जानते । विषयकी अपेक्षा ज्ञान 1 नष्ट होजाता है और फिर पैदा होता है । इसलिये ये केवलज्ञानकी तरह नित्य नहीं हैं, जब कि केवलज्ञान नित्य है । वह ज्ञान विना किती क्रमके सर्व द्रव्योंकी सर्व पर्यायोंको सदाकाल एकसा जानता रहता है । चारों ज्ञानोंमें क्रमपना व अनित्यपना व
1
4
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
Avvv
. . . . . श्रीप्रवचनसार भाषाटीका।.. १९९ मल्प विषयपना होनेका कारण यही है कि वे ज्ञानावरणीय कर्मक क्षयोपशमसे होते हैं, जब कि केवलज्ञान सर्व ज्ञानावरणीयके क्षयसे. होता है। इसलिये यही ज्ञान क्षायिक है । जब चारों ज्ञानोंका विषय अल्प है तब वे सर्वगत नहीं होसक्ते, यह केवलज्ञान ही है जो सर्व पदार्थोंको एक काल जानता है इससे सर्वगत या सर्व व्यापी है।
केवलज्ञानके इस महात्म्यको जानकर हमको उसकी प्राप्तिके लिये शुद्धोपयोगरूप साम्यभावका अभ्यास करना चाहिये । तथा यह निश्चय रखना चाहिये कि इन्द्रियाधीन ज्ञानवाला कभी सर्वज्ञ नहीं होमक्ता । जिसके अतीन्द्रिय स्वाभाविक प्रत्यक्ष ज्ञान होगा वही सर्वज्ञ है ॥ ५० ॥
उत्थानिका-आगे फिर यह प्रगट करते हैं कि जो एक समयमें सर्वको जानसका है उस ही ज्ञानसे ही सर्वज्ञ होसका है। तेकालणिचविसमं सकलं सव्वत्थ संभवं चित्तं । जुगवं जाणदि जोण्हं अहो हि णाणस्स माहप्पं ५१ - काल्यनित्यविपमं सकलं सर्वत्र संभवं चित्रम् ।
युगपजानाति जनमहो हि ज्ञानस्य माहात्म्यम् ॥५१॥
सामान्यार्थ-जनका ज्ञान जो केवलज्ञान है जो एक समयमें तीन कालके असम पदार्थीको सदाकाल सवको सर्व लोकमें. होनेवाले नाना प्रकारके पदार्थोको जानता है । अहो निश्चयसे ज्ञानवा महात्म्य अपूर्व है।
अन्वय सहित विशेषार्थ-( जोण्डं ) जैनका ज्ञान
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwmana
२००] श्रीभवचनसार भाषाटीका । अर्थात् मिन शासनमें जिस प्रत्यक्ष ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं यह ज्ञान ( जुगवं ) एक समगमें ( सम्वत्य संभव ) सर्व लोकालोकमें स्थित (चित्त ) तथा नाना नाति भेदमे विचित्र (सयलं) सम्पूर्ण ( तेकालणिञ्चविप्सम ) तीनकाल सम्बन्धी पदार्थों को सदाकाल विसमरूप अर्थात् जैसे उनमें भेद है उन भेदोंके साथ अथवा तेकाल णिच्चविस्थं ऐमा भो पाठ है जिसका भाव है तीनकाल सर्व द्रव्य अपेक्षा नित्य पदार्थो को (जाणदि) जानता है। (अहो हि माणस्त माह) अहो देखो निश्चयसे ज्ञान का माहात्म्य आश्चर्यकारी है । भाव विशेष यह है कि एक समयमें सर्वको ग्रहण करनेवाले ज्ञान ही सर्वज्ञ होता है ऐसा मानकर क्या करना चाहिये सो कहते हैं। ज्योतिप, मंत्र, वाद, रस सिद्धि आदिके जो खंडज्ञान हैं तथा जो नूह जीवोंके चित्तमें चमत्कार करनेके कारण हैं और जो परमात्माकी भावनाके नाश करनेवाले हैं उन सर्व ज्ञानोंमें आग्रह या हठ त्याग करके तीन जगत व तीनकालकी सर्व वस्तुओं को एक समयमें प्रकाश करनेवाले, अविनाशी तथा अखंड और एक रूपसे उघोतरूप तथा सर्वज्ञत्व शब्दसे ऋइने योग्य जो केवलज्ञान है, उसकी ही स्पत्तिका कारण जो सर्व रागद्वेषादि विकास जालोंसे रहित स्वाभाविक शुद्वात्माका अभेद ज्ञान अर्थात् स्वानुभक रूप ज्ञान है उसमें भावना करनी योग्य है । यह तात्पर्य है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने और भी केवलज्ञानके गुणानुवाद गाकर अपनी अकाट्य श्रृद्धा केवलज्ञानमें प्रगद करी है। और यह समझाया है कि लोकालोकमें विचित्र पदार्थ है तथा
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीभवचनसार भाषाटीका। २०१ उनकी तीन काल सम्बन्धी अवस्थाएं एक दुसरेसे भिन्न हुआ करती हैं उन सबको एक कालमें जैसा का तैसा जो जान सक्का है उसको ही केवलज्ञान कहते हैं । तथा यह केवलज्ञान वह ज्ञान है जिसको जैन शासनमें प्रत्यक्ष, शुद्ध, स्वाभाविक तथा अतीन्द्रिय ज्ञान कहते हैं । जिसके प्रगट होनेके लिये व काम करनेके लिये किसी अन्यकी सहायताको आवश्यक्ता नहीं है । न वह इन्द्रियोंके आश्रय है और न वह पदार्थोके आलम्बनसे होता है, किन्तु हरएक आत्मामें शक्ति रूपसे विद्यमान है । जिसके ज्ञानावरणका पूर्ण क्षय हो जाता है उसीके ही यह प्रकाशमान हो जाता है । जब प्रकाशित हो जाता है फिर कभी मिटता नहीं या कम होता नहीं। इसी ज्ञानके धारीको सर्वज्ञ कहते हैं। परमात्माकी बड़ाई इसी निर्भल ज्ञानसे है। इसी हीके कारणसे किसी वस्तु के जाननेकी चिंता नहीं होती है । इसीसे यही ज्ञान सदा निराकुश है। इसीसे पूर्ण आनन्दके मोगमें सहायी है। ऐसे केवलज्ञानकी प्रगटता जैनसिद्धांत में प्रतिपादित स्याहाद नयके द्वारा आत्मा
और अनात्माको समझकर भेदज्ञान प्राप्त करके और फिर लौकिक चमत्कारोंकी इच्छा या ख्याति, लाभ, पूजा आदिकी चाह छोड़कर अपने शुद्धात्मामें एकाग्रता या स्वानुभव प्राप्त करनेसे होती है। इसलिये स्वहित बांछकको उचित है कि सर्व रागादि विकल्प जालोंको त्याग कर एक चित्त हो अपने मात्माका स्वाद लेकर । परमानंदी होता हुआ तृप्ति पावे।
इस प्रकार केवलज्ञान ही सर्वज्ञपना है ऐसा कहते हुए गाथा एक, फिर सर्व पदार्थों को जो नहीं जानता है वह एकको भी नहीं
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०२] श्रीमवचनसार भाषाटीका । जानता है ऐसा कहते हुए दूसरी, फिर नो एकको नहीं जानता - है वह सबको नहीं जानता है ऐसा कहते हुए तीसरी, फिर क्रमसे होनेवाले ज्ञानसे सर्वज्ञ नहीं होता है ऐसा कहते हुए चौथी, तथा एक समयमें सर्वको जाननेसे सर्वज्ञ होता है ऐसा कहते हुए पांचमी इस तरह सातवें स्थलमें पांच गाथाएं पूर्ण हुई।
उत्यानिका-आगे पहले को यह कहाथा कि पदार्थोका ज्ञान होते हुए भी राग द्वेष मोहका अभाव होनेसे केवल ज्ञानियोंको बंध नहीं होता है उसी ही अर्थको दूसरी तरहसे दृढ़ करते हुए ज्ञान प्रपंचके अधिकारको संकोच करते हैं। ण वि परिणमदि ण गेण्हदि, उप्पनदि णेव
तेसु अत्थे। जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पाणतो ॥५२
नापि परिणमति न गृह्णाति उलघवे नैव वेष्वर्येषु । जानन्नपि वानात्मा अबन्धकस्तेन प्रजतः ॥ ५२॥
सामान्यार्थ-केवलज्ञानीकी आत्मा उन सर्व पदार्थोको जानता हुआ भी उन पदार्थोंके स्वरूप न तो परिणमता है, न उनको गृहण करता है और न उन रूप पैदा होता है इसी लिये वह अबंधक कहा गया है।
अन्वय सहित विशेषार्थ-( आदा ) भात्मा अर्थात मुक्त स्वरूप केवलज्ञानी या सिद्ध भगवानकी आत्मा (ते जाणणण्णवि) उन ज्ञेय पदार्थो को अपने आत्मासे भिन्न रूप जानते हुए भी ( तेसु अत्थेसु) उन ज्ञेय पदार्थोके स्वरूपमें (ण वि परिणमदि) न तो परिणमन करता है अर्थात् जैसे अपने आत्म प्रदे
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाका ।
[ २०३
शोंके द्वारा समतारससे पूर्णभाव के साथ परिणमन कर रहा है वैसा ज्ञेय पदार्थोके स्वरूप नहीं परिणमन करता है अर्थात् आप अन्य पदार्थरूप नहीं हो जाता है । ( ण गेहदि ) और ' न उनको ग्रहण करता है अर्थात् जैसे वह आत्मा अनंत ज्ञान आदि अनंत चतुष्टय रूप अपने आत्माके स्वभावको आत्मा के स्वभाव रूपसे ग्रहण करता है वैसे वह ज्ञेय पदार्थो स्वभावको ग्रहण नहीं करता है । (णे उप्पज्जदि) और न वह उन रूप पैदा होता है अर्थात् जैसे वह विकार रहित परमानंदमई एक सुखरूप अपनी ही सिद्ध पर्याय करके उत्पन्न होता है वैसा वह शुद्ध आत्मा ज्ञेय पदार्थों के स्वभावमें पैदा नहीं होता है | ( तेण) इस कारण से (अबंधगो) कर्मोंका बंध नहीं करने • वाला (पण्णत्तो) कहा गया है । भाव यह है कि रागद्वेष रहित ज्ञान का कारण नहीं होता है, ऐसा जानकर शुद्ध आत्माकी प्राप्ति रूप है लक्षण जिसका ऐसी जो मोक्ष उससे उल्टी जो नरक नादिके दुःखोंकी कारण कर्म बंधकी अवस्था, जिस बंध अवस्थाके कारण इंद्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाले एक देश ज्ञान उन सर्वको त्यागकर सर्व प्रकार निर्मल केवलज्ञान जो कर्मका बंघका कारण नहीं है उसका बीजभूत जो विकार रहित स्वसंवेदन ज्ञान या स्वानुभव उसीमें ही भावना करनी योग्य है ऐसा अभिप्राय है ।
?
भावार्थ - इस गाथा में आचार्य ने बताया है कि केवलज्ञान' या शुद्ध ज्ञान या वीतराग ज्ञान बंधका कारण नहीं है । वास्तव में. ज्ञान कभी भी वैधका कारण नहीं होता है चाहे वह मति श्रुत'
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०५ ] . श्रमिवचनसार भाषाटीका ।
ज्ञान हो या अवधि, मन:पर्ययज्ञान हो या केवलज्ञान हो । ज्ञानके साथ जितना मोहनीय कर्मके उदयसे राग, द्वेष, या मोहका अधिक या कम अंश कलुषपन या विकार रहता है वही कार्माण वर्गणारूपी पुलों कर्मधरूप परिणमा वनेको निमित्त कारण - रूप है | शरीरपर माई हुई रम शरीरपर चिकनई होने से ही. जमती है वैसे ही कर्मरज आत्मामें मोहकी चिकनई होनेपर ही बंधको प्राप्त होती है ।
वास्तव में केवलज्ञानको रोकने में प्रबल कारण मोह ही है। यही उपयोगकी चंचलता रखता है। इसी के उद्वेगके कारण आत्मामें स्थिरतारूप चारित्र नहीं होता है जिस चारित्रके हुए विना ज्ञानावरणीयका क्षय नहीं होता है। जिसके क्षयके विना केवलज्ञानका प्रकाश नहीं पैदा होता है । आत्माका तथा अन्य किसी भी द्रव्यका स्वभाव पर द्रव्यरूप परिणमनेका नहीं है । हरएक द्रव्य अपने ही गुणोंमें परिणमन करता है - अपनी ही उत्तर अवस्थाको ग्रहण करता है और अपनी ही उत्तर पर्यायको उत्पन्न करता है। सुवर्णसे सुवर्णके कुंडल बनते हैं, लोहेसे लोहेके सांकल व कुंडे बनते हैं। सुवर्णसे लोहेकी और लोहेसे सुवर्णकी वस्तुएं नहीं बन सकती हैं । जब एक सुवकी डली से एक सुद्रिका बनी तत्र सुवर्ण स्वयं मुद्रिका रूप परिणमा है, सुवर्णने स्वयं मुद्रिकाकी पर्यायोंको ग्रहण किया है तथा सुवर्ण स्वयं मुद्रिकाकी अवस्थामें पैदा हुआ है । यह दृष्टांत है | यही बात दृष्टांत में लगाना चाहिये । स्वभावसे आत्मा दीपक के समान स्वपरका देखने जाननेवाला है । वह सदा देखता नानता रहता है अर्थात् वह सदा इस ज्ञेतिक्रियाको करता रहता
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
[ २०५
है - रागद्वेष मोह करना उसका स्वभाव नहीं है । शुद्ध केवलज्ञानमैं मोहनीयकर्मके उदयका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है इसीसे वह निर्विकार है और बंघ रहित कहा गया है। जहां इंद्रिय तथा मनद्वारा अल्पज्ञान होता है वहां जितना अंश मोहका उदय होता है उतनी ही ज्ञानमें मलीनता होजाती है, मलीनता होनेका भाव यही लेना चाहिये कि आत्मा में एक चारित्र नामका गुण है उसका विभाव रूप परिणमन होता है। जब मोहका उदय नहीं होता है। तत्र चारित्र गुणका स्वभाव परिणमन होता है । इस परिणमनकी जातिको दिखलाना बिलकुल दुष्कर कार्य है। पुदुलमें कोई ऐसा दृष्टांत नहीं मिल सक्ता तौ भी आचार्योंने जहां तहां यही दृष्टांत दिया है कि जैसे काले नीले, हरे, लाल डांकके निमित्तसे स्फटिक मणिकी स्वच्छता में काला, नीला, हरा व लाल रंग रूप परिणमन होजाता है वैसे मोह कर्मके उदयसे यात्माका उपयोग या चारित्र गुण क्रोधादि भाव परिणत होजाता है । ऐसे परिणमन होते हुए भी जैसे स्फटिक किसी वर्ण रूप होते हुए भी वह वर्णपना स्फटिकमें जाल कृष्ण आदि डांकके निमित्तसे झलक रहा है स्फटिका स्वभाव नहीं हैं, ऐसे ही क्रोध आदि भावपना क्रोधादिक कषायके निमित्तसे उपयोग में झलक रहा है क्रोधादि आत्माका स्वभाव नहीं है । परके निमित्तसे होनेवाले भाव निमि - तके दूर होनेपर नहीं होते हैं। नक्तक मोहके उदयका निमित्त है aasa भी है। जहां निमित्त नहीं रहा वहां कर्मका
बंध भी नहीं होता है इसीसे शुद्ध केवलज्ञानीको बंघ रहित कहा गया है । तात्पर्य यह है कि हम अल्पज्ञानियोंको भी सम्यकू
1
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६] श्रीप्रवचनसार भापाटीका। दृष्टिके प्रतापसे जगतको उनके स्वरूप तथा परिवर्तन रूप देखते रहना चाहिये तथा फर्मोके उदयसे जो दुःख 'सुखरूप अवस्था अपनी हो अथया दूसरोंकी हो उनको भी ज्ञाता दृष्टारूप ही देख नान लेना चाहिये उनमें अपनी समताका नाश न करना चाहिये । जो सम्यग्ज्ञानी तत्त्वविचारके अभ्याससे कर्मोके उदयमें विष कविचय धर्मध्यान करते हैं, उनके पूर्वके उदयमें आए कर्म अधिक परिमाणमें झड़ जाते हैं और नवीन कर्म बहुत ही अल्प बंध होते हैं जिसको सम्यग्दृष्टिषोंकी महिमाके कथनमें भबंध ही कहा है । समभाव सदा गुणकारी है। हमें शुद्धोपयोगरूप साम्यभावका सदा ही अनुभव करना चाहिये । यही बंधकी निरा, संवर तथा मोक्षका साधक और केवलज्ञानका उत्पादक है । वास्तवमें ज्ञान ज्ञानरूप ही परिणमता है, अपनी ज्ञान परिणमतिको ही ग्रहण करता है तथा जनभावलय ही पैदा होता है । यह मोहका महात्म्य है जिससे हम अज्ञानी जानते हुए भी किसीसे रागकर उसको ग्रहण १२ किले वेषकर उससे घृणा करते व उसे त्याग करने हैं। ज्ञानमें न ग्रहण है न त्याग है । मोह प्रपंचके त्यागका उपाय आत्मानुभव है यही कर्तव्य है। इस तरह रागद्वेष मोह रदित होनेसे फेवलज्ञानियोंके बंध नहीं होता है ऐसा कथन करते हुए ज्ञान प्रपची समाप्तिकी मुख्यता करके एक सूत्र द्वारा माठवां स्थल पूर्ण हुआ ।। ५२ ॥
उत्थानिका-मागे ज्ञान प्रपंचके व्याख्यानके पंछे ज्ञानके आधार सर्वज्ञ भगवानको नमस्कार करने हैं ।
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीभवचनसार भाषाटीका। [२०७ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm तस्स णमाइं लोगो, देवासुरमणुअरायसंबंधो।। भत्तो करेदि णिचं, अवजुत्तो तं तहावि अहं ॥२॥
तस्य नमस्यां लोकः देवासुग्मणुष्यराजसम्बन्धः। . : भक्तः करोति नित्यं उपयुक्तः तं तथा हि अहं ॥५२॥
सामान्यार्थ-जैसे देव, अनुर, मनुष्योंके राजाओंसे सम्बंधित यह भक्त जगत उधगवंत होकर सस सर्वज्ञ भगवानको नित्य नमस्कार करता है तैसे ही मैं उनको नमस्कार करता हूं।
___ अन्श्य सहित विशेषार्थ-जैसे ( देवासुरमणुअ. राय सम्बंधो ) यवासी, मवत्रिक तथा मनुष्यों के इन्द्रोंकर सहित (भत्तो) भक्तवंत (उबजुत्तो) तथा उद्यमवंत ( लोगो ) यह लोक ( तस्स णमाई ) उस सर्वज्ञको नमस्कार । णिचं ) सदा (रेदि ) करता है ( तहावि से ही ( अहं) मैं ग्रन्थकर्ता श्रीकुदकुंदाचार्य (२) उस सजको नमस्कार करता हूं। भाव यह है कि मेरे देवेन्द्र व चक्र ती गादिक अनन्त और लक्षण मुख
आदि गुणोंके स्थान सर्वज्ञके स्वरूपको नमस्कार करते हैं जैसे में भी उस पदका अभिलापो होकर परम भक्तिले नमस्कार करता हूं। ____भावार्थ:-हम अल्पानी बंध करनेवाले जीवोंके लिये वही आत्मा मादशे हो सकता है नो सर्वज्ञ हो और वीतरागताके कारण अबंधक हो उनको अन्त तथा सिद्ध कहते हैं। उनहीमें भक्ति व उनकी पूजा व उनहींको नमस्कार । जगतमें भी बड़े २ पुरुष हैं जैसे इन्द्र चक्रवर्ती गादि वे बड़े भावसे व अनेक प्रकार उद्यम करके करते रहते हैं उनकी साक्ष तू पूजा करनेको विदेह
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०८ श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। क्षेत्रोंमें स्थित उनके समवशरणमें जाते हैं। तथा अनेक अकृत्रिम तथा कृत्रिम चैत्यालयोंमें उनके मनोज्ञ वीतरागमय बिम्बोंकी भक्ति करते हैं क्योंकि आदर्श स्वभावमें विनय तथा प्रेम भक्त पुरुषके भावको दोष रहित तथा गुण विकाशी निर्मल करनेवाला है इसीसे श्रीआचार्य कुंदकुंद भगवान कहते हैं कि मैं भी ऐसे ही सर्वज्ञ भगवानकी वारम्वार भक्ति करके तथा उद्यम करके नमस्कार करता ई-क्योंकि जैसे गणधरादि मुनि, देवेंद्र तथा सम्यक्ती चक्रवर्ती आदि उस भादर्श रूप सर्वज्ञपदके अभिलाषी हैं वसे मैं भी उस पदका अभिलाषी हूं। इसीसे ऐसे ही आदर्श रूपको नमन व उसमा स्मरण करता हूं। ऐसा ही हम सर्व परमसुख चाहनेवालों. को करना योग्य है। यहां आचार्यने यह भी समझा दिया है कि मोक्षार्थीको ऐसे ही देवको देव मानकर पूजना तथा वन्दना चाहिये। रागद्वेष सहित तथा अल्पज्ञानीको कमी भी देव मानकर पूजना न चाहिये।
इस तरह आठ स्थलों के द्वारा वचीस गाथाओंसे और उसके पीछे एक नमस्कार गाथा ऐसे तेतीस गाथाओंसे ज्ञानप्रपंच नामका तीसरा अंतर अधिकार पूर्ण हुमा । भागे सुखप्रपंच नामके अधिकारमें अठारह गाथाएं हैं जिसमें पांच स्थल हैं उनमें से प्रथम स्थलमें " अत्थि ममुत्तं ॥ इत्यादि अधिकार गाथा सूत्र एक है उसके पीछे अतीन्द्रिय ज्ञानकी मुख्यतासे 'ज पेच्छदो इत्यादि सुत्र एक है। फिर इंद्रियनित ज्ञानकी मुख्यतासे 'जीवों स्वयं अभुत्तो, इत्यादि गाथाएं चार हैं फिर अभेद नयसे केवलज्ञान ही सुख है ऐसा कहते हुए गाथाएं ४ हैं। फिर इंद्रिय सुखको कथन करते
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रमिवचनसार भाषाटीका ।
[ २०९
fi
हुए गाथाएं आठ हैं। इनमें भी पहले इंद्रिय सुखको दुःख रूप स्थापित करने के लिये 'मणुभासुरा' इत्यादि गाथाएं दो हैं । फिर मुक्त आत्माके देह न होनेपर भी सुख है इसबात को बताने के लिये देह सुखका कारण नहीं है इसे जनाते हुए पया इट्टे विसये" इत्यादि सूत्र दो हैं । फिर इन्द्रियोंके विषय भी सुखके कारण नहीं है ऐसा कहते हुए 'तिमिरहरा' इत्यादि गाथाएं दो हैं फिर सर्वज्ञको नमस्कार करते हुए 'तेजो दिट्ठि' इत्यादि सूत्र दो हैं ? इस तरह पांच अंतर अधिकार में समुदाय पातनिका है ॥२॥ उत्थानका - भागे अतीन्द्रिय सुख जो उपादेव रूप है उसका स्वरूप कहते हुए अतीन्द्रिय ज्ञान तथा अतीन्द्रिय सुख उपादेय हैं और इन्द्रियनित ज्ञान और कहते हुए पहले अधिकार स्थलकी गाथासे चार स्थलका सूत्र कहते हैं ।
सुख हेय हैं इस तरह
अस्थि अमुतं सुतं अदिदियं इंदियं च अत्थेषु गाणं च तथा सोक्खं, जं तैलु परं च तं शेयं ॥१३॥
अत्यमूर्त मूर्तमतीन्द्रियमेन्द्रियं चार्थेषु ।
'शांन च तथा सौख्यं यत्तेषु परं च तत् ज्ञेयम् ॥५३॥
3
सामान्यार्थ - पदार्थो के सम्बन्ध में जो अमूर्तिक ज्ञान हैं वह अतीन्द्रिय है तथा जो सूर्वी ज्ञान है वह इंद्रिय जनित है ऐसा ही सुख है । इनमें से जो अतींद्रियज्ञान और सुख है वही जानने योग्य है । :
अन्वंय सहित विशेषार्थ - ( अत्थेसु) ज्ञेय पदार्थों के सम्बन्ध में (गाणं ) ज्ञान ( अमुत्तं ) जो अमूर्तीक है सो (अर्दि
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१०] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । दियं । प्रतींद्रिय है (च) तथा (मुत्त) जो मूर्तीक है सो इंद्रिय), इंदिर अन्य ( अस्थि ) है ( वधा च सोक्ख ) तैसे ही मर्यात् ज्ञानही तरह अमूर्तीक सुख अतिन्द्रिय है नथा मूर्तीक सुख इंद्रिय जन्य मनुज परं) इन ज्ञान और सुखों में जो उत्कृष्ट अतींद्रिय हैं (:-* णेयं उनको ही उपादेय हैं ऐसा मानना चाहिये। इसका विस्तार गह हैं कि अमुर्तीक, क्षायिक, अतींद्रिय, चिदानन्दलक्षण स्वरूप शुद्धात्माकी शक्तियोंसे उत्पन्न होनेवाला अंजीद्रिय ज्ञान और सुख आत्माके ही आधीन होनेसे अविनाशी है इससे उपादेय है तथा पूर्वमें कहे हुए अमुर्त शुद्ध आत्माको शक्तिसे विल क्षण को क्षयोपशमिक इन्द्रियोंकी शक्तियोंसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान पर सुख हैं वे पराधीन होनेसे विनाशवान हैं इस लिये हेय हैं ऐका लम्पर्य है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने इस प्रकरणका प्रारम्भ करते हुए बताया है कि सचा अविनाशी तथा स्वाधीन सुल अर्हत है जो माना ही स्वभाव है और आन्नामें आप ही अपनी सन्मुखतासे अनुभवमें आता है। यही सुख अमूर्ती है क्योंकि अमूर्तीक आत्माला यह स्वभाव है। शुद्ध आत्मामें इस सुखका निरंतर विकाश रहता है । मिस ताह केवल लज्ञान अतीन्द्रिय तथा अमूर्तीक होनेसे भामाका स्वभाव आत्माके माधीन है ऐसे ही अतीन्द्रिय सुखको जानना चाहिये । से केवलज्ञानकी महिमा पहले कह चुके हैं वैसे अम अतीन्द्रिय आत्मसुखकी महिमाको जानना चाहिये क्योंकि ये ज्ञान और सुख दोनों निज आत्माकी सम्पत्ति है । इन पर अपना ही स्वत्य है ।
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwwmanaanana
: श्रीभवचनसार भाषाटीका । . [ २११. इनकी प्रगटता के लिये किसी भी पर मूर्तीक' पुद्गलकी सहायताकी आवश्यक्ता नहीं है इसीसे ये दोनों अमूर्तीक और इंद्रियोंकी आधीनतासे रहित हैं। इनके विपरीत जो ज्ञान क्षयोपशमिक है । वह इन्द्रियों तथा मनके मालम्बनसे पैदा होता है सो मूर्तीक है क्योंकि अशुद्ध है-कर्मसहित भात्मामें होता है। कर्म रहित आत्मामें यह इन्द्रियजन्य ज्ञान नहीं होता है-यह अमूर्तीक आत्माका स्वभाव नहीं है। कर्मसहित संसारी मूर्तीकमा झलकने वाला आत्मा ही इन्द्रियजन्य ज्ञानको रखता है-तैसे ही मो इंद्रिय जनित सुख है वह भी मूर्ती है। क्योंकि वह प्रख मोह भावका भोगमात्र है जो मोहभाव मूर्तीक मोहनीय कर्भके उत्यमे हुआ है इसलिये मूर्तीक है तथा अमूर्तीक शुद्ध आत्माका स्वभाव नहीं है। क्योंकि यह इंद्रियजनित ज्ञान और सुख दोनों इंद्रेयोंके बलके माधीन, बाहरी पदार्थोंके मिकनेके आधीन तथा पुण्य कर्मके उदयके आधीन हैं इसलिये पराधीन हैं विनाशवान हैं इसी लिये त्यागने योग्य हैं । ये इंद्रियान्य ज्ञान और सुख ..रके बनाने वाले हैं । जबकि अतींद्रिय ज्ञान और सुख मोक्ष स्वरूप हैं, अविनाशी हैं तथा परमशांति पैदा करनेवाले हैं-ऐसा मानकर अतींद्रिय सुखकी ही भावना करनी योग्य है। इस प्रकार अधिः कारकी गाथासे पहला स्थल गया ॥९॥ ' . उस्थानिका-आगे उसी पूर्वमें कहे हुए अतींद्रिय ज्ञानका विशेष वर्णन करते हैं- '. जं पेच्छदो अमुत्तं, मुत्तेष्ठ अदिदियं च पच्छण्णं । सकलं सगं च इंदरं, ते गाणं हवादि पचखं ॥१४॥
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२] श्रीभवचनसार भाषाटीका ।
यत्प्रेक्ष्यमाणस्यामूर्त मूतेष्वतीन्द्रियं च प्रच्छन्नम् । सकलं स्वकं च इतरत् तद् ज्ञानं भवति प्रत्यक्षम् ॥५४॥
सामान्यार्थ-देखनेवाले पुरुषका जो ज्ञान अभूतिक द्रव्यको, मूर्तीक पदार्थोंमें इन्द्रियोंके अगोचर सुक्ष्म पदार्थको तथा गुप्त पदार्थको सम्पूर्ण निज और पर ज्ञेयोंको जो जानता है वह ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान है। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ- पेच्छदो) अच्छी तरह देखनेवाले केवलज्ञानी पुरुषका (जे) जो अतीन्द्रिय केवलज्ञान है सो ( अमुत्तं ) अमूर्तीकको अर्थात् अतीन्द्रिय तथा राग रहित सदा आनन्दमई सुखस्वभावके धारी परमात्मद्रव्यको आदि लेकर सर्व अमूर्तीक द्रव्य समूहको, ( मुत्तेषु ) मूर्तीक पुद्गल द्रव्योंमें (अदिदियं ) अतीन्द्रिय इन्द्रियोंके अगोचर परमाणु भादिकोंको (च पच्छण्णं ) तथा गुप्तको अर्थात् द्रव्यापेक्षा कालाणु आदि अप्रगट तथा दूरवर्ती द्रव्योंको, क्षेत्र अपेक्षा गुप्त अलोकाकाशके प्रदेशादिकोंको, काल अपेक्षा प्रच्छन्न विज्ञार रहित परमानन्दमई एक सुखके मास्वादनकी परिणतिरूप परमात्माके वर्तमान समय सम्बन्धी परिणामोंको आदि लेकर सर्व द्रव्योंकी वर्तमान समयकी पर्यायोंको, तथा भावकी अपेक्षा उसही परमात्माकी सिद्धरूप शुद्ध व्यंजन पर्याय तथा अन्य द्रव्योंकी जो यथासंभव व्यंजन पर्याय उनमें अंतर्भूत अर्थात् मग्न जो प्रति समयमें वर्तन करनेवाली छः प्रकार वृद्धि हानि स्वरूप अर्थ पर्याय इन सब प्रच्छन्न द्रव्यक्षेत्रकाल
भावोंको, और (सगं च इदर) जो कुछ भी यथासंभव अपना द्रव्य. . सम्बन्धी तथा परद्रव्य सम्बन्धी या दोनों सम्बन्धी है (सयलं).
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
mananewwwwwwww
wwwww
wwwAN
श्रीभवचनसार भाषाटीका। [२१३. उन सर्व ज्ञेय पदार्थोंको जानता है (गाणं) वह ज्ञान (पचाख) प्रत्यक्ष ( हवदि ) होता है। यहां शिप्यने प्रश्न किया, कि ज्ञान प्रपंचका अधिकार तो पहले ही होचुका । अब इस सुख प्रपंचके अधिकारमें तो सुखका ही कथन करना योग्य है । इसका समा.. . धान यह है कि जो अतीन्द्रियज्ञान पहले कहा गया है वह ही अभेद नयसे सुख है इसकी सूचनाके लिये अथवा ज्ञानकी मुख्यतासे सुख है क्योंकि इस ज्ञानमें हेय उपादेयकी चिंता नहीं है इसके बतानेके लिये कहा है । इसतरह अतीन्द्रिय ज्ञान ही ग्रहण करने योग्य है ऐसा कहते हुए एक गाथा द्वारा दूमरा स्थल पूर्ण हुमा ।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने अनन्त अतीन्द्रिय सुखक लिये मुख्यतासे कारण रूप तथा एक समयमें तिष्ठनेवाले प्रत्यक्ष केवलज्ञानका वर्णन इसी लिये किया है कि उस स्वाधीन ज्ञानके होते हुए किसी मानने योग्य पदार्थके जाननेकी चिंता नहीं होती है। न वहां किसीको ग्रहण या त्यागका विकल्प होता है । जहाँ चिंता तथा विकल्प है वहां निराकुलता नहीं होती है । जहाँ निश्चित व निर्विकल्प अवस्था रहती है वहां कोई प्रकार माकुलता नहीं होती है । अतीन्द्रिय आनन्दकं भोगनेमें इस निराकुलताकी आवश्यक्ता है । यह केवलज्ञान अपने आत्माके तथा पर आत्माओंके तथा अन्य सर्व द्रव्योंके तीन कालवी द्रव्य क्षेत्र काल भावोंको जानता है । जो ज्ञान पांच इन्द्रिय तथा मनके द्वारा होना असंभव है वह सर्व ज्ञान केवलज्ञानीको प्रत्यक्ष होता है वह मूर्त और अमूर्त सर्व द्रव्योंको जानता है तथा इन्द्रियोंके
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१४ श्रीप्रवचनसार भापाटीको। . मगोचर पुद्गलके परमाणु तथा उनके अविभाग प्रतिच्छेद आदिको तथा द्रव्यादि चतुष्टयमें तो अति गुप्त पदार्थीको भी प्रत्यक्ष जानता है । द्रव्यमें तो कालाणु आदि गुप्त हैं, क्षेत्रमें अलोकाकाशके प्रदेश, कालमें अतीत, भविष्य व वर्तमान समयकी पर्याय भावमें अविभाग प्रतिच्छेद रूपी षट् प्रकार हानिवृद्धि रूप सूक्ष्म परिणमन प्रच्छन्न हैं। केवलज्ञानीको ये सब ज्ञेय पदार्थ हाथ में खखे हुए स्फटिककी तरह साफ २ दिखते हैं और विना किसी क्रमसे एक काल दिखते हैं जैसा स्वामी समंतभद्रने अपने स्वयम्भू स्तोत्रमें कहा है:वहिरंतरप्युभयथा च करणमविघातिनाथकृत् । नाय युगपदखिलं च सदा, त्वमिदं तलामलकावद्विवेदिय ।।१२८
__भाव यह है कि हे नेमिनाथ भगवान ! आप एक ही समयमें सम्पूर्ण इस जगतको सदा ही इस तरह जानते रहते हो जिप्स तरह हाथकी हथेली पर रक्खा हुआ स्फटिक स्पष्ट २ भीतर वाहर से जाना जाता है-यह महिमा आपके ज्ञानकी इसीलिये है कि आपका ज्ञान मतीन्द्रिय है, उसके लिये इंद्रिय तथा मन दोनों अलग २ या मिल करके भी कुछ कार्यकारी नहीं हैं और नवे होकरके भी ज्ञानमें कुछ विघ्न करते हैं। केवलज्ञानीका उपयोग इन्द्रिय तथा मन द्वारा काम नहीं करता है । आत्मस्थ ही रहता है । ऐसे अतीन्द्रिय ज्ञानी परमात्माको ही निराकुल
आनंद संभव है। ऐसा जान इस शुद्ध स्वाभाविक ज्ञानको उपादेय "रूप मानके इसकी प्राप्तिके कारण शुद्धोपयोगरूप साम्यभावका इमको निरंतर अभ्यास करना चाहिये। यही तात्पर्य है ॥१४॥
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
... श्रीप्रवचनसार भाषाटीका [२१५:, . उत्थानिका-आगे त्यागने योग्य इंद्रिय सुखका कारण .. होनेसे तथा अल्प विषयके जाननेकी शक्ति होनेसे इंद्रियज्ञान . त्यागने योग्य है ऐसा उपदेश करते हैंजीवो सयं अमुत्तो, मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा मुत्तं ।
ओगिणिहत्ता जोग्गं, जाणदि वा तण्ण जाणादि ॥ . जीवः त्वयममूर्ती मूर्तिमतस्तेन मुर्तेन भूतम् ।
अवगृह्य योग्यं जानाति वा तन्न जानाति ॥५५॥
सामान्यार्थ-यह जीव स्वयं स्वभावसे अमूर्तिक है परंतु कर्मबंधके कारण मूर्तीकसा होता हुभा मूर्तीक शरीरमें प्राप्त होकर उसमें मूर्तीक इद्रियोंके द्वारा मूर्तीक द्रव्यको अपने योग्य अवग्रह आदिके द्वारा क्रमसे ग्रहण करके जानता है अथवा मूर्तीकको भी वहुतसा नहीं जानता है। __अन्वय सहित विशेषार्थ-(जीवो सयं अमुत्तो) जीव स्वयं अमूर्तीक है अर्थात शक्तिरूपसे व शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे अमूर्तीक अतीन्द्रिय ज्ञान और सुखमई स्वभावको रखता है तथा अनादिकालसे कर्म बंधके कारणसे व्यवहारमें (मुत्तिगदो) मूर्तीक शरीरमें प्राप्त है व मूर्तिमान शरीरों द्वारा मूर्तीक. . सा होकर परिणमन करता है (तेण मुत्तिणा) उस मूर्त शरीरके द्वारा अर्थात् उस मूर्तीक शरीरके आधारमें उत्पन्न जो मूर्तीक द्रव्येद्रिय और भावेंद्रिय उनके आधारसे (जोगं मुत्तं) योग्य गूर्जीक वस्तुको अर्थात स्पर्शादि इंद्रियोंसे ग्रहण योग्य मूर्तीक पदार्थको (ओगिण्डित्ता) अवग्रह आदिसे क्रमक्रमसे
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१६ ] श्रीप्रवचनसार,भाषाटीका । ग्रहण करके (आणदि) जानता है अर्थात अपने आवरणके क्षयोपसमके योग्य कुछ भी स्थूल पदार्थको जानता है (वा तण्ण जाणादि ) तथा उस मूर्तीक पदार्थको नहीं भो जानता है, विशेष क्षयोपशम न होनेसे सुक्ष्म या दूरवर्ती, व झालसे प्रच्छन्न व भूत भावी कालके बहुतसे मूर्तीक पदार्थों को नहीं जानता है। यहां यह भावार्थ है । इन्द्रियज्ञान यद्यपि व्यवहारसे प्रत्यक्ष कहा. माता है तथापि निश्चयसे केवलज्ञानकी अपेक्षासे परोक्ष ही है। परोक्ष होनेसे जितने अंश वह सुक्ष्म पदार्थको नहीं जानता है उतने अंश नाननेकी इच्छा होते हुए न जान सकनेसे चित्तको, खेदका कारण होता है-खेद ही दुःख है इसलिये दुःखोंको पैदा करनेसे इन्दियज्ञान त्यागने योग्य है।
भावार्थ-यहां इस गाथामें आचार्य ने इन्द्रिय तथा मनके सम्बन्धसे होनेवाले सर्वही क्षयोपशमरूप ज्ञानको त्यागने योग्य बताया है क्योंकि यह क्षयोपशम ज्ञान असमर्थ है तथा दुःख व आकुलताका कारण है। आत्माका स्वभाव अमूर्जीक है तथा स्वाभाविक व अतीन्द्रिय ज्ञान और सुखका भंडार है । जिससे मात्मा सर्वज्ञ व पूर्णानन्दी सदा रहता है। ऐसा स्वभाव होनेपर भी मानादि कालसे इस स्वभाव पर कर्मोका आवरण पड़ा हुमा है। जिससे आत्माका एक एक प्रदेश अनंत कर्म वर्गणाओंसे आच्छादित है इस कारण मूर्तिमानसा हो रहा है। और उन्हीं कोके उदयके कारण यह मूर्तीक शरीरको धारण करता है और उसमें अपने २ नाम कर्मके उदयके अनुसार कम व अधिक इंद्रिय तथा नो इन्द्रियोंको बनाता है और उनके द्वारा ज्ञानावरणीय
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषार्टीका। [२१७ . कर्मके क्षयोपशमके अनुसार क्रम पूर्वक कुछ स्थूल मूर्तीक द्रव्योंको जानता है । बहुतसे मूर्तीक द्रव्य जो सुक्ष्म व दूरवर्ती हैं उनका ज्ञान नहीं होता है अथवा किसी भी मूर्तीक द्रव्यको किसी समय नहीं जान सका है। जैसे निद्रा व मूर्छित अवस्थामें तथा चक्षु प्रकाशकी सहायता विना नहीं जान सक्ती । अन्य चार इन्द्रियें बिना पदार्थोको स्पर्श किये नहीं जान सक्ती । मन बहुत थोड़े पदार्थीको सोच सक्ता है। क्योंकि इस ज्ञानमें बहुत थोड़ा विषय मालूम होता है इस कारण विशेष जाननेकी आकुलता रहती है. तथा एक दफे जान करके भी कालान्तरमें भूल जाता है। और जान करके भी उनमें राग द्वेष कर लेता है । जाने हुए पदार्थसे मिलना व उसको भोगना चाहता है-उनके वियोगसे कष्ट पाता है । पदार्थका नाश होनाने पर और भी दुःखी होजाता है। इसलिये यह इन्द्रियज्ञान अल्प होकर भी माकुलताका ही कारण है-जहांतक पूर्ण ज्ञान न हो वहां तक पूर्ण निराकुलता नहीं हो सक्ती है। बड़े देवगण पांचों इंद्रियोंके द्वारा एक साथ जाननेकी इच्छा रखते हुए भी क्रमसे एक २ इंद्रियके द्वारा जाननेसे आकुलित रहते हैं। प्रयोजन यह है कि इंद्रियज्ञानके आश्रयसे जो इंद्रियसुख होता है वह भी छूट जाता है ।
और अधिक तृष्णाको बढ़ाकर खेद पैदा करता है। ____ यद्यपि मति और श्रुततान मूर्त व अमूर्त पदार्थीको आगमादिके आश्रयसे जानते हैं परन्तु उनके बहुत ही कम विषयको व बहुत ही कम पर्यायोंको जानते हैं। अवधि तथा मनःपर्ययज्ञान भी क्षयोपशम ज्ञान हैं, अमूर्तीक शुद्ध ज्ञान नहीं हैं । ये दोनों
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। भी मूर्तीक पदार्थोके ही कुछ भागको मर्यादा लिये हुए जानते हैं अधिक न जान सकनेकी असमर्थता इनमें भी रहती है । इत्यादि. कारणोंसे उपादेय रूप तो एक निज स्वाभाविक केवलज्ञान ही है । इसी लिये इस स्वभावकी प्रगटताका भाव चित्तमें रखकर निरन्तर स्वानुभवका मनन करना चाहिये ।। ५५॥
उत्थानिका-आगे यह निश्चय करते हैं कि चक्षु आदि इन्द्रियोंसे होनेवाला ज्ञान अपने १ रूप रस गंध आदि विषयोंको भी एक साथ नहीं जानसक्ता है इस कारणसे त्यागने योग्य है । फासो रसो य गंधो, दण्णो सहोय पुग्गला होति । अक्खाणं ते अक्खा, जुगवं ते णेव गेण्हति ॥५॥ स्पर्शी रसश्च गंधो वर्णः शब्दश्च पुद्गला भवन्ति । अक्षाणां तान्यक्षाणि युगपत्चान्नैव गृहन्ति ॥५६॥
सामान्यार्थ-पांच इन्द्रियों के स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शम ये पांचों ही विषय पुद्गल द्रव्य हैं । ये इंद्रिये इनको भी एक समयमें एक साथ नहीं ग्रहण करसती हैं। . . ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-( अक्खाणं) स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पांच इन्द्रियोंके (फासो रसो य गंधो वण्णो सहो य ) स्पर्श. रस, गंध, वर्ण और शब्द ये पांचों ही विषय ( पुग्गला होति) पुद्गलमई हैं या पुद्गल द्रव्य हैं या मूर्तीक हैं ( ते अक्खा ) वे इंद्रिये ( ते णेव ) उन अपने विषयोंको भी ( जुगवं ) एक समयमें एकसाथः (ण गेण्हति) नहीं ग्रहण करसती हैं-नहीं मानसती हैं। अभिप्राय यह है कि जैसे सब
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
___ श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [२१९ तरहसे ग्रहण करने योग्य अनंत सुखका उपादान कारण जो केवलज्ञान है सो ही एक समयमें सब वस्तुओं को जानता हुआ जीवके लिये सुखका कारण होता है तैसे यह इन्द्रिय ज्ञान अपने विषयोंको . भी एक समयमें जान न सकनेके कारणसे सुखका करण नहीं है।
भावार्थ-यहांपर आचार्यने इन्द्रियनित ज्ञानकी निवलताको प्रगट किया है और दिखलाया है कि इस कर्मबंध सहित संसारी आत्माकी ज्ञानशक्तिके ऊपर ऐसा आवरण पड़ा हुआ है जिसके कारणसे इसको क्षयोपशम इतना कम है कि पांचों इन्द्रियोंके एक शरीरमें रहते हुए भी यह क्षयोपशमिक ज्ञान अपने उपयोगसे एक समयमें एक ही इंद्रियके द्वारा काम कर सकता है। जब स्पर्शसे छूकर जानता है तब स्वादने आदिका काम नहीं कर सक्ता, जब स्वाद लेता है तब अन्य स्पर्शादि नहीं कर सक्ता है। उपयोगकी चंचलता और पलटन इतनी जल्दी होती है कि. हमको पता नहीं चलता है कि इनका काम भिन्न ९ समयमें होता है। हमको कभी कभी यह भ्रम होनाता है कि हमारी कई इंद्रियें एक साथ काम कर रही हैं । जैसे काककी दो आंखें होनेपर भी पुतली एक है वह इतनी जल्दी पलटती है कि हमको उसकी दो पुतलियों का भ्रम हो जाता है। उपयोग पांच इन्द्रिय और नो इन्द्रिय मन इन छः सहायकोंके द्वारा एक साथ काम नहीं कर सक्ता, जब मनसे विचारता है तब इंद्रियोंसे ग्रहण बन्द हो जाता है । यद्यपि यह भिन्नर समय में अपने विषयको ग्रहण करती है तथापि यह सामनेके कुछ स्थूल विषयको जान सक्तो हैं न यह सुक्ष्मको जान सक्तीं और न दूरवर्ती पदार्थोंको जान सकी
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२०] श्रीमवचनसार भाषाटीका। हैं । इन इंद्रियोंका विषय बहुत ही अल्प है जब कि केवलज्ञानका विषय एक साथ सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थोंको भिन्नर हरप्रकारसे जान लेनेका है । इन इंद्रियोंसे जाना हुआ विषय बहुत कालतक धार'णाम रहता नहीं, भुला दिया जाता है। जबकि केवलज्ञान सदा काल सर्व ज्ञेयोंको जानता रहता है। इंद्रियों के द्वारा प्राप्त ज्ञान अपूर्ण, क्रमवर्ती तथा विस्मरणरूप होनेसे न जानी हुई बातको जाननेकी आकुलताका कारण है। जिसको अल्प ज्ञान होता है वह अधिक जानना चाहता है । अधिक ज्ञान न मिलनेके कारण जबतक वह न हो तबतक वह व्यक्ति चिंता व दुःख किया करता है। जबकि केवलज्ञान सम्पूर्ण व अक्रम ज्ञान होनेसे पूर्णपने निराकुल है। इन्द्रियजनित ज्ञानमें मोहका उदय होनेसे किसी वस्तुसे राग व किसीसे द्वेष हो जाता है। अतींद्रिय केवलज्ञान सर्वथा निर्मोह है इससे रागद्वेष नहीं होता-केवलज्ञानी समताभावमें भीगा रहता है । इन्द्रियजनित ज्ञानके साथ रागद्वेष होनेसे कर्मका बन्ध होता है । जबकि केवलज्ञानमें वीतरागता होनेसे बंध भी नहीं होता | इस तरह इन्द्रियजनित ज्ञानको निर्बल, तुच्छ व पराधीन जानकर छोड़ना चाहिये और केवलज्ञानको 'ग्रहण योग्य मानके उसकी प्रगटताके लिये आत्मानुभवरूप आत्मज्ञानको सदा ही भावना चाहिये ॥५६॥ - उत्थानिका-आगे कहते हैं कि इंद्रिय ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हैपरवं ते अक्खा,णेव सहावात्ति अप्पणो मणिदा उपलड़ते हि कहं पञ्चक्खं अपणो होदि ॥१९॥
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
परद्रव्यं तान्यक्षाणि नैव स्वभाव इत्यात्मनो भणितानि । उपलब्धं तः कथं प्रत्यक्षमात्मनो भवति ॥५७॥
[ २२१
सामान्याथ-वे पांचों इंद्रियें पर द्रव्य हैं क्योंकि वे मात्मा स्वभावरूप नहीं कही गई हैं इसलिये उन इंद्रियोंके द्वारा जानी हुई वस्तु किसतरह आत्माको प्रत्यक्ष होसक्ती है ? अर्थात नहीं हो सक्ती ।
अन्वय सहित विशेषार्थ - (ते अक्खा ) वे प्रसिद्ध पांचों इंद्रिये (अप्पणो ) आत्माकी अर्थात् विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभाव धारी आत्माकी (सहावो णेव भणिदा) स्वभाव रूप निश्चयसे नहीं कही गई है क्योंकि उनकी उत्पत्ति भिन्न पदार्थ से हुईं है (त्तिपर द०) इसलिये वे परद्रव्य अर्थात् पुद्गल द्रव्यमई हैं ( तेहि उवडं) उन इंद्रियों के द्वारा जाना हुआ उनहीका विषय योग्य पदार्थ सो (अपणो पञ्चकखं कहूं होदि) आत्माके प्रत्यक्ष किस तरह हो सक्ता है ? अर्थात् किसी भी तरह नहीं हो सक्ता है। जैसे पांचों इंद्रिय आत्मा के स्वरूप नहीं है ऐसे ही नाना मनोरथोंके करने में यह बात कहने योग्य है, मैं कहनेवाला हूं इस तरह
नाना विकल्पोंके नालको बनानेवाला जो मन है वह भी इंद्रिय
.
ज्ञानकी तरह निश्चयसे परोक्ष ही है ऐसा जानकर क्या करना चाहिये सो कहते हैं - सर्व पदार्थोंको एक साथ अखंड रूपसे प्रकाश करनेवाले परम ज्योति स्वरूप केवलज्ञान के कारणरूप तथा अपने शुद्ध आत्म स्वरूपकी भावनासे उत्पन्न परम आनन्द एक लक्षणको रखनेवाले सुखके वेदन के आकार में परिणमन करनेवाले और रागद्वेषादि विकल्लोंकी उपाधिसे रहित स्वसंवेदन ज्ञानमें भावना'
"
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२२] श्रीमवचनसार भाषाटीका । करनी चाहिये यह अभिप्राय है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्थने इंद्रियजनित ज्ञानकी असमर्थताको और भी स्पष्ट किया है कि इंद्रियननिज ज्ञान आत्माझा स्वाभाविक ज्ञान नहीं है अर्थात् जो जो पदार्थ इंद्रियोंके तथा मनके द्वारा जाने जाते हैं वे सब परोक्ष हैं अर्थात् मात्माके साक्षात् स्वाभाविक ज्ञान के विषय उस इंद्रिय ज्ञानके समय न होनेसे वे पदार्थ आत्माको प्रत्यक्ष रूपसे झलके ऐसा नहीं कहा . जासत्ता। जिन पदार्थीको आत्मा दुसरेके आलम्बन विना अपने स्वभावसे जाने वे ही पदार्थ मात्माके प्रत्यक्ष हैं ऐसा कहा जासक्ता है इसीलिये आत्माके स्वाभाविक केवलज्ञानको वास्तविक प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। और जो ज्ञान इंद्रियों और मनके द्वारा होता है . उसको परोक्ष ज्ञान कहते हैं। यहां हेतु बताया है कि ये इन्द्रिय आत्माका स्वभाव नहीं है क्योंकि शुद्ध आत्मामें जो अपने स्वाभाविक अवस्थामें हैं इंद्रियोंका बिलकुल भी अस्तित्व नहीं हैं न द्रव्य इन्द्रय हैं न भाव इन्द्रिये हैं हपलिये इनकी उत्पत्तिा कारण मात्मासे भिन पुद्गल द्रव्य है। पुद्गल वर्गणासे इन्द्रियों के व मनके आकार शरीरमें बनते हैं तथा जो आत्माले प्रदेश इन्द्रियोंके, आकार परिणमते हैं वे भी शुद्ध नहीं हैं, कमौके आवरणसे मलीन हो रहे हैं तथा मरिज्ञानावरणीय क्रमके क्षयोपशमसे जो . भाव इंद्रिय ज्ञान प्रगट है उसमें भी केवलज्ञानावरणीवका उदय है इसलिये वह ज्ञान शुद्ध स्वभाव. नहीं है किन्तु अशुद्ध विभाव रूप है। इसलिये वह भी निश्चयसे पौलिक है। पराधीन इंद्रिय ज्ञानसे नाना हुआ विषय भी बहुत स्थूल व बहुत अल्प होता है तथा .
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीकां। [२२३ क्रमवर्ती होता है। ऐसा आत्माको स्वाभाविक ज्ञान नहीं है इसलिये इन्द्रिय और मनसे पैदा होनेवाले ज्ञानको अपने निज आत्माका शुद्ध स्वभाव न मानकर उस ज्ञानको त्यागने योग्य जानकर और प्रत्यक्ष शुद्ध स्वाभाविक केवलज्ञानको उपादेय रूप मानकर उसकी प्रगटता के लिये स्वसंवेदन ज्ञान रूप स्वात्मानुभव अर्थात् शुंदोपयोगमई साम्यभावका अभ्यास करना चाहिये । शुद्ध निश्चय नयके द्वारा भेदज्ञान पूर्वक अपने शुद्ध स्वभावको पुद्गलादि द्रव्योंसे भिन्न जानकर उसी से शृद्धा रूप रुचि ठानकर उसीके स्वाद लेनेमें उपयोग रूप परिणतिको रमाना चाहिये यह स्वानुभव
आत्माके कर्ममलको झाटनेवाला है तथा मात्मानंदको प्रगटानेवाला है और यही केवलज्ञानी होने का मार्ग है ॥५७॥
. उत्थानिका-भागे फिर भी अन्य प्रकारसे प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञानका लक्षण कहते हैं
परदो विषणाण, तं तु परोवत्ति मणिदमत्येसु। जादवले जाद, हवादाहिनीरेण पचक्ख ॥१८॥
यत्परतो विज्ञान तनु परोसनिति भणितमर्थेषु । यदि फेवलेन ज्ञाः भवति हि जीवेन प्रत्यक्षम् ॥५८॥ '
सामान्यार्थ-जो ज्ञान परकी सहायतासे ज्ञेय पदार्थों होता है उसको, परोक्ष कहा गया है । परन्तु जो मात्र केवल मीवके द्वारा ही ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष है। . .
' अन्वय सहित विज्ञपार्थ-(अत्येतु), ज्ञेय पदार्थो (परदो ) दूसरे के निमित्त या सहायतासे ( विषणाणां), जो
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२४] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । . ज्ञान होता है (तंतु परोक्खत्ति मणिदं ) उस ज्ञानको तो परोक्ष है ऐसा कहते हैं तथा ( यदि केवलेण जीवेण णादं हि हवर्दि) जो केवल विना किसी सहायताके जीवके द्वारा निश्चयसे जाना जाता है, सो (पञ्चख) प्रत्यक्ष ज्ञान है। इसका विस्तार यह है कि इंद्रिय तथा मन सम्बन्धी जो ज्ञान है वह परके उपदेश, प्रकाश आदि बाहरी कारणों के निमित्तसे तथा ज्ञानावरणीय कमके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए अर्थको जाननेकी शक्तिरूप उपलब्धि
और अर्थको जाननेरूप संस्कारमई अंतरंग निमित्तसे पैदा होता है वह पराधीन होनेसे परोक्ष है ऐसा कहा जाता है । पतु जो ज्ञान पूर्वमें कहे हुए सर्व परद्रव्योंकी अपेक्षा न करके केवल शुद्धबुद्ध एक स्वभावधारी परमात्माके द्वारा उत्पन्न होता है वह अक्ष कहिये आत्मा उसीके द्वारा पैदा होता है इस कारण प्रत्यक्ष है ऐसा सुत्रका अभिप्राय है।
भावार्थ-इस गाथामें भी भगवान कंपकंदाचार्यने इंद्विय ज्ञानकी निर्वलता दिखाई है और यह बताया है कि इंद्रयज्ञान परोक्ष है इसलिये पराधीन है जब कि केवलज्ञान विलकुल प्रत्यक्ष है और स्वाधीन है आत्माका खभाव है। केवलज्ञानके प्रकाश जब अन्य किसी अंतरंग व बहिरंग निमित्त कारणकी ज. रूरत नहीं है व इंद्रियज्ञानमें बहुतसे अंतरंग बहिरंग कारणोंकी भावश्यक्ता है । भतरंग कारणोंमें प्रथम तो ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम इतना अाहिये कि जितनी इन्द्रियोंकी रचना शरीरमें बनी हुई है उन इंद्रियों के द्वारा जानने का काम किया जासके ! दूसरे जिस इंद्रिय या मनसे मानना है उस ओर आत्माके उपयोगकी
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
... श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। २२६ amminimiminin परिणति जानी चाहिये । यदि उपयोग मूर्छित है या किसी एक वस्तुमें लवलीन है तो दूसरी इंद्रियों द्वारा मानने का काम नहीं करसक्ता । एक मनुष्य किसी वस्तुको देखनेमें उपयुक्त होता हुआ कर्ण इंद्रिय द्वारा मुननेका काम उस समयतक नहीं करसक्ता जबतक उपयोग चक्षु इंद्रियसे हटकर कर्ण इंद्रियकी तरफ न आवे । तीसरे बहुतसे विषयोंके जानने में पूर्वका स्मरण या संस्कार भी पावश्यक होता है । यदि कभी देखी, सुनी व अनुभव की हुई वस्तु न हो तो हम इंद्रियोंसे ग्रहण करते हुए भी उसका नाम तथा गुण नहीं समझ सकेंगे। इसी तरह बातसे बहिरङ्ग कारण चाहिये जसे इंद्रियोंका अस्वस्थ व निद्रित व मूर्छित न होना, पदार्थों का सम्बन्ध, प्रकाशका होना आदि इत्यादि अनेक कारणोंका समूह मिलने पर ही इंद्रियजनित ज्ञान होता है । इसी तरह शास्त्रज्ञान भी पराधीन है। श्रुतज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम तथा उपयोगका सन्मुख होना अंतरंग कारण, और शास्त्र, स्थान, प्रकाश, अध्यापक आदि बहिरंग कारण चाहिये । यद्यपि अवधि मनःपर्यय ज्ञान साक्षात् इंद्रिय तथा मन द्वारा नहीं होते हैं. तथापि ये भी स्वाभाविक ज्ञान नहीं हैं। इनमें भी कुछ पराधोनताएं हैं। जिनका मितना अवधि ज्ञानावरणीय तथा मनःपर्यय ज्ञानावरणीयका क्षयोपशम होता है उतना ज्ञान तम होता है जब उपयोग किसी विशेष पदार्थकी तरफ इन दोनों ज्ञानोंकी शक्तिसे . सन्मुख होता है। ____सब तरह स्वाधीन आत्माका स्वाभाविक एक ज्ञान केवल ज्ञान है । इसलिये यही उपादेय है, और इसी ज्ञानकी प्राप्तिके ..
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२६ ]
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
लिये हमको शुद्धोपयोगरूप साम्यभावका निरंतर अभ्यास करना चाहिये यही इस मुमुक्षु आत्माको परमानंदका देनेवाला है ।
''
इसतरह त्यागने योग्य इन्द्रियजनित ज्ञानके कथन की मुख्यता करके चार गाथाओंसे तीसरा स्थल पूर्ण हुआ ||१८|
उत्थानिका - मागे कहते हैं कि अभेद नयसे पांच विशेपण महि केवलज्ञान ही सुखरूप है ।
जादं सयं समन्तं णाणमणतत्यवित्थिदं विमलं । रहिदं तु उग्गहादिहि सुहत्ति एयंतियं भणिदं ५९ जातं स्वयं समस्तं ज्ञानमनन्तार्थविस्तृतं विमले ।
रहितं तु अवग्रहादिभिः सुखमिति ऐकांतिकं भणितम् ॥५९॥ सामान्यार्थ - यह ज्ञान जो स्वयं ही पैदा हुआ है, पूर्ण है, अनन्त पदार्थों में फैला है, निर्मल है तथा अवग्रह आदिके क्रमसे रहित हैं नियमसे सुख रूप है ऐमा कहा गया है ।
अन्य साहिन विशेषार्थ - (गाणं ) यह केवलज्ञान' ( सयं मार्द ) स्वयमेव ही उत्पन्न हुआ है, (समतं ) परिपूर्ण है, ( अनंतस्थ वित्थिदं ) अनन्त पदार्थों में व्यापक है, (विम) संजय यदि मलोंसे रहित है, (उम्माहादिहि तु रहिदं ) अवग्रह, fer अवाय, धारणा आदिके क्रमसे रहित है । इस तरह पांच विशेषणोंसे गर्भित जो केवलज्ञान है वही ( एयंतियं ) नियम करके (सुहत्ति भणिदं) सुख है ऐसा कहा गया है ।'
भाव यह है कि यह केवलज्ञान पर पदार्थोंकी सहायता की अपेक्षा न करके चिदानन्दमई एक स्वभावरूप अपने ही डा
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
[ २२७
त्मा एक उपादान कारण से उत्पन्न हुआ है इस लिये स्वयं पैदा हुआ है, सर्व शुद्ध आत्मा प्रदेशोंमें प्रगटा है इसलिये सम्पूर्ण है, अथवा सर्व ज्ञानके अविभाग परिच्छेद अर्थात् शक्तिके अंश उनसे परिपूर्ण है, सर्व आवरणके क्षय होने से पैदा होकर सर्व ज्ञेय पदार्थोंको जानता है इससे अनंत पदार्थ व्यापक है, संशय, विमोह विभ्रमसे रहित होकर व सुक्ष्म आदि पदार्थोंके नाननेमें अत्यन्त विशद होनेसे निर्मल है । तथा कमरूर इन्द्रियजनित ज्ञानके खेदके अभाव से अवग्रहादि रहित अक्रम है ऐसा यह पांच विशेषण सहित क्षायिकज्ञान अनाकुरुता लक्षणको रखनेवाले परमानन्दमई एक रूप पारमार्थिक सुखसे संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन मादिकी अपेक्षासे भेदरूप होने पर भी निश्चयनयसे अभिन्न होनेसे पारमार्थिक या सचा स्वाभाविक सुख कहा जाता है यह अभिप्राय है ।
भावार्थ - इस गाथा में आचार्य ने बताया है कि नहीं निर्मक शुद्ध प्रत्यक्षज्ञान प्रगट हो जाता है वहीं नित्य विना किसी अन्तरके अपने ही शुद्ध आत्माका साक्षात् अवलोकन होता है । वैसा दर्शन तथा ज्ञान इस आत्माका उस समय तक अपने आपको नहीं होता है जब तक केवल दर्शनावरणीय तथा केवल ज्ञानावरणीयका उदय रहता है । केवलज्ञान होनेके पहले परोक्ष भाव श्रुतज्ञान रूप खसंवेदन ज्ञान होता है इस कारण केवलज्ञानीके जैसा साक्षात् अनुभव नहीं होता है। जब केवलज्ञानके प्रगट होनेसे आत्माका साक्षात्कार हो जाता है तब यह आत्मा अपने सर्व गुण विकास करता है-उन गुणोंमें सुखगुण प्रधान है
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८ ]
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
ज्ञानके, साथ साथ ही अतींद्रिय स्वाभाविक शुद्धे सुखका अनुभव होता है। इस कारण यहां अभेद नयसे ज्ञानको ही सुख कहा है। जहां ज्ञान के कारण खेद व चिंता व किंचित भी अशुद्धता होती है वहां निराकुलता नहीं पैदा होती है । केवलज्ञान ऐसा उच्चतम व उत्कृष्ट ज्ञान है कि इसके प्रकाशमें आकुलताका अंश भी नहीं हो सक्ता है, क्योंकि एक तो यह पराधीन नहीं है अपने से ही प्रगट हुआ है। दूसरे यह पूर्ण है क्योंकि सर्व ज्ञानावरणका क्षय हो गया है। तीसरे यह सर्व ज्ञेयोंको एक समय में जाननेवाला है, अब कोई भी जानने योग्य पर्याय ज्ञानसे बाहर नहीं रहजाती है । चौथे यह शुद्ध है- स्पष्टपने झल्कनेवाला है । पांचवे यह क्रम क्रमसे न जानकर सर्वको एक समय में एक साथ जानता है । ज्ञान सूर्य्यके प्रकाशमें कोई भी अंश अज्ञानका नहीं रहसक्ता है । इस कारण मात्र ज्ञान ही स्वयं निराकुल है, खेद रहित हैं, बाधा रहित है, और यहां तो ज्ञानगुणसे भिन्न एक सुख गुण और भी कलोल कर रहा है । इसलिये अभेद नय ज्ञानको सुख कहा है क्योंकि जिन आत्मप्रदेशों में ज्ञान है वहीं, सुख गुण है । आत्मा अखंड एक है। वही भेदनयसे ज्ञानमय, सुखमय, वीर्य्यमय, चारित्रमय आदि अनेक रूप है । प्रयोजन यह है कि शुद्ध अतीन्द्रिय सुखका लाभ केवलज्ञानके होनेपर नियमसे होता है ऐसा जानकर इस ज्ञानकी प्रगटता के लिये शुद्ध आत्माका अनुभव परोक्ष ज्ञानके द्वारा भी सदा करने योग्य है. " क्योंकि यही स्वानुभवरूपी अग्नि ही कर्मोंके आवरणको दग्व करती है ॥५९॥
I
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
[ २२९
उत्थानका - मागे कोई शंका करता है कि जब केवल - ज्ञानमें अनन्त पदार्थों का ज्ञान होता है तब उस ज्ञानके होने में अवश्य खेद या श्रम करना पड़ता होगा । इसलिये वह निराकुळे नहीं है । इस शंकाका समाधान करते हैं
जं केवलति णाणं, तं सोक्खं परिणमं च सो चेव । खेदो तस्स ण भणिदो, जम्हा घादी खयं जादा ॥ ६०॥
यत्केवलमिति ज्ञानं तत्सौख्यं परिणमश्च स चैव ।
खेदस्तस्य न भणितो यस्मात् घातीनि क्षयं जातानि ॥ ६० ॥
सामान्यार्थ - नो यह केवलज्ञान है वही सुख है तथा वही आत्माका स्वाभाविक परिणाम है, क्योंकि घातिया कर्म नष्ट होगए हैं इसलिये उस केवलज्ञानके अंदर खेद नहीं कहा गया है।
अन्वय सहित विशेषार्थ - (नं केवलत्ति णाणं) जो यह केवलज्ञान है ( तं सोक्खं) वही सुख है (सो चैव परिणमं च ) तथा वही केवलज्ञान सम्बन्धी परिणाम आत्माका स्वाभाविक परि
मन है । (जम्हा) क्योंकि ( घादी खयं जादा ) मोहनीय आदि घातिया कर्म नष्ट होगए (तस्स खेदो ण भणिदो) इस लिये उस अनंत पदार्थोंको जाननेवाले केवलज्ञानके भीतर दुःखका कारण खेद नहीं कहा गया है । इसका विस्तार यह है कि जहां ज्ञानावरण दर्शनाचरणके उदयसे एक साथ पदार्थोंके जाननेकी शक्ति नहीं होती हैं किंतु क्रमक्रमसे पदार्थ जाननेमें आते है वहीं खेद होता है । दोनों दर्शन ज्ञान आवरणके अभाव होनेपर एक साथ सर्व पदाथको जानते हुए केवलज्ञानमें कोई खेद नहीं है किंतु सुख ही
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३०] श्रीमवचनसार भाषाटीका । है। तैसे ही उन केवली भगवान के भीतर तीन जगत् और तीन. कालवर्ती सर्व पदार्थोको एक समयमें जाननेको समर्थ अखंड एकरूप प्रत्यक्ष ज्ञानमय स्वरूपसे परिणमन करते हुए केवलज्ञान ही परिणाम रहता है। कोई केवलज्ञानसे भिन्न परिणाम नहीं होता है जिससे कि खेद होगा। अथवा परिणामके सम्बन्धमें दूसरा व्याख्यान करते हैं-एक समयमें अनंत पदार्थोके ज्ञानके. परिणाममें भी वीर्यातरायके पूर्ण क्षय होनेसे अनन्तवीर्यके सदभाबसे खेदका कोई कारण नहीं है। वैसे ही शुद्ध आत्ममदेशोंमें समतारसके भावसे परिणमन करनेवाली तथा सहन शुद्ध आनन्दमई एक लक्षणको रखनेवाली, सुखरसके मास्वादमें रमनेवाली
आत्मासे अभिन्न निराकुलताके होते हुए खेद नहीं होता है। ज्ञान और सुखमें संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदिका भेद होनेपर भी निश्चयसे अभेदरूपसे परिणमन करता हुमा केवलज्ञान ही सुख कहा जाता है । इससे यह ठहरा कि केवलज्ञानसे भिन्न सुख नहीं है इस कारणसे ही केवलज्ञानमें खेदका होना संभव नहीं है।
भावार्थ:-इस गाथामें भाचार्यने अतीन्द्रिय सुखके साथ भविनाभावी केवलज्ञानको सर्व तरहसे निराकुल या खेद रहित बताया है । और यह सिद्ध किया है कि केवलज्ञानकी अवस्थामें खेद किसी भी तरह नहीं हो सकता है । खेदके कारण चार ही हो सके हैं। नव किसीको देखनेकी बहुत इच्छा है और सबको एक साथ देख न सके क्रम क्रमसे थोड़ा देखे तब खेद होता है सो यहां दर्शनावरणीय कर्मका नाश होगया इसलिये मात्माके स्वाभाविक दर्शन गुणके विकाशमें कोई बाधक कारण नहीं रहा
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भापाटीका। [२३१ जिससे माकुळता या खेद हो। दूसरे जन किसीको जाननेकी बहुत इच्छा है और सबको एक साथ जान न सके क्रमक्रमसे थोड़ा २ नाने तब खेद होता है सो यहां ज्ञानावरणीय कर्मका सर्वथा क्षय हो गया इसलिये आत्माके स्वाभाविक ज्ञान गुणके विकाशमें बाधक कोई कारण नहीं रहा निससे भाकुलता या खेद हो । तीसरे जब किसी में बहुत कार्य करनेको चाह हो परन्तु वीर्यकी कमीसे कर न सके तब खेद होता है । सो यहां अंतराय कर्मका सर्वथा नाश हो गया इससे आत्माके स्वाभाविक अनंतवीर्यके विकाशमें कोई : कोई नापक कारण नहीं रहा निससे खेद हो। चौथे जब किसीको पुनः पुनः इच्छाएं नाना प्रकारकी हों तथा किसीमें राग व किसीमें द्वेष हो तब आकुलता या खेद होसक्ता है सो यहां सर्व मोहनीय कर्मका नाश होगया है इससे कोई प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्ता, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेदरूप कलुषित भाव नहीं होता है, न कोई इच्छा पैदा होती है । इसतरह चार घातिया कर्मोंका उदय मात्मामें खेद पैदा करसता है सो केवलज्ञानी भगवानके चारों धातिया क्षय होगए इसलिये उनको कोई तरहका खेद नहीं होसक्ता, वे पूर्ण निराकुल हैं। केवलज्ञान भी कोई अन्य स्वभाव नहीं है मात्माका स्वाभाविक परिणमन है इससे वह सुखरूप ही है। इसतरह यह सिद्ध करदिया गया कि केवलज्ञानीको अनंत पवायोको जानते हुए भी कोई खेद या श्रम नहीं होता है। ऐसी महिमा केवलज्ञानकी जानकर उसीकी प्राप्तिका यत्न करनेके लिये साम्यभावका लम्बन करना चाहिये ॥ ६ ॥
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३२] श्रीप्रवचनसार भाषा का । . उत्थानिका-आगे फ़िर भी केवलज्ञानको सुखरूपपना अन्य प्रकारसे कहते हुए इसी बातको पुष्ट करते हैं- . णाणं अत्यंतगर्द, लोगालोगेतु वित्थडा विही। गट्ठमाणि सवं, इं पुण जंतु तं लहं ॥ ११ ॥
ज्ञानमर्थातगतं लोकालोकेषु विस्तृता दृष्टिः ।। नष्टमनिष्टं सर्वमिष्टं पुनर्यत्तु तल्लब्धम् ॥ ६१ ॥ .
सामान्धार्थ-केवलज्ञान सर्व पदार्थोके पारको प्राप्त हो गया तथा केवलदर्शन लोक और अलोकमें फैल गया। जो अनिष्ट था वह सब नाश हो गया तथा जो सर्व इष्ट था सो सब प्राप्त हो गया।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(गाणं) केवलज्ञान (अत्थंतगर्द) सर्वज्ञेयोंके अंतको प्राप्त हो गया अर्थात् केवलज्ञानने सब जान लिया ( विट्ठी ) केवलदर्शन ( लोगालोगेसु वित्थडा ) लोक
और अलोकमें फैल गया ( सव्वं प्रणिé ) सर्व अनिष्ट ' अर्थात् अज्ञान और दुःख (णटुं) नष्ट हो गया (पुण) तथा (जतु इह तं तु लई) जो कुछ दृष्ट है अर्थात् पूर्ण ज्ञान तथा सुख है सो सत्र प्राप्त हो गया। इसका विस्तार यह है कि आत्माके स्वभाव घातका अभाव सो सुख है। आत्माका स्वभाव केवलज्ञान और केवलदर्शन है । इनके घातक फेवलज्ञानावरण तथा केवलदर्शनावरण हैं सो इन दोनों आवरणों का अभाव केवलज्ञानियोंके होता है, इसलिये स्वभावके, घातके अभावसे होनेवाला सुखं होता है । क्योंकि परमानन्दमई एक लक्षणरूप सुखके उल्टे आकुलताके पैदा करने
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
MAIN
owwwwwimmisa
श्रीभवचनसार भापाटीका। [२३३ वाले सर्व अनिष्ट अर्थात् दुःख और ज्ञान नष्ट होगए तथा पूर्वमें कहे हुए लक्षणको रखनेवाले सुखके साथ अविनामूत अवश्य होनेवाले तीन लोकके भेदर रहनेवाले सर्व पदार्थीको एक समय में प्रकाशने वाला इष्ट ज्ञान प्राप्त होगया इसलिये यह माना जाता है कि केवलियोंके ज्ञान ही सुख है ऐसा अभिप्राय है।
भावार्थ-इस गाथामें भाचार्य केवलज्ञानके सुख स्वरूपपना किस अपेक्षा है इको स्पष्ट करते हैं और यह बात दिखलाते हैं कि संसारमें दुःराक मारण अज्ञान और कषायजनित आकुलता है । सो ये दोनों ही बात केवलज्ञानीके नहीं होती हैं। भावरणों के नाश होनेसे केवलज्ञान और केवलदर्शन पूर्णपने प्रगट होजाते हैं जिनके द्वारा सर्व लोक और मलोक प्रत्यक्ष देखा तथा जाना जाता है । इसलिये कोई तरहका अज्ञान नहीं रहता है-तथा मज्ञानके सिवाय और नो कुछ अनिष्ट था सो भी केवलज्ञानीके नहीं रहा है। रागद्वेषादि कपाय परिणामोंमें विकार पैदा करके आकुलित करते हैं तथा निर्मलता होनेसे खेद होता है सो मोहनीय कर्म और अंतराय कर्मों के सर्वथा अभाव होनानेसे न कोई प्रकारका रागद्वेष न निर्वलता ननित खेदभाव ही रहनाता है। भात्माके स्वभावके घातक सब विकार हट गए तथा स्वभावको प्रफुल्लित करनेवाले अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यादि गुण प्रगट होगए । अर्थात् अनिष्ट राव चला गया तथा इष्ट सब प्राप्त होगया । केवलज्ञानके प्रगट होते ही आत्माका यथार्थ स्वभाव जो आत्माको परम हितकारी है सो प्रगट होमाता है। केवलज्ञान के साथ ही पूर्ण निराकुलता रहती है। इस लिये केवलज्ञानको सुखस्वरूप कहा
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
ANNAVNATH
२३४] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। गया है । यद्यपि सुख नामका गुण आत्माका विशेष गुण है और वह ज्ञानसे भिन्न है तथापि यहां शुद्धज्ञान और मीद्रिय निर्मल सुखके बोध या अनुभवका अविनाभाव सम्बन्ध है इसलिये ज्ञानको ही अभेद नयसे सुख कहा है। प्रयोजन यह है कि विना केवल. ज्ञानकी प्रगटताके अतींद्रिय अनन्त सुख नहीं प्रगट हो सका है। इस लिये जिस तरह बने इस स्वाभाविक केवलज्ञानकी प्रगटताके लिये हमको खानुभवका अभ्यास करना चाहिये ॥ ६ ॥ - उत्थानिका-आगे कहते हैं कि पारमार्थिक सच्चा अतीन्द्रिय आनन्द केवलज्ञानियोंके ही होता है। जो कोई संसारियोंकि भी ऐसा सुख मानते हैं वे अभव्य हैं। ण हि सद्दहति सोक्वं, सुहेसु परमंति
विगयादीण। सुणिऊण ते अभव्या भव्वा वातं पडिच्छति ॥३२ न हि श्रद्दधति सौख्यं सुखेसु परममिति विगतपातिनाम् । अत्वा ते अमन्या भन्या वा तत्पतीच्छति ॥ ६२ ॥
सामान्यार्थ-धाविया कोसे रहित केवलियोंके जो कोई सब सुखोंमें श्रेष्ठ अतीन्द्रिय सुख होता है ऐसा सुनकरके भी नहीं श्रद्धान करते हैं वे अभव्य हैं। किन्तु भव्य जीव इस बातको मानते हैं। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(विगदघादीण ) घासिया कर्मोसे रहित केवली भगवानोंके ( सुहेसु परमंति ) सुखोंके बीचमें उत्कृष्ट जो (सोक्ख ) विकारः रहित परम आल्हादमई एक सुख है उसको (सुणिऊण) 'नादं सयं समत्तं ' इत्यादि
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाका । [ २३५
पहले कहीं हुई तीन गाथाओंके कथन प्रमाण सुनकर के भी - जानकर के भी ( ण हि सद्दति ) निश्वयसे नहीं श्रद्धान करते हैं नहीं मानते हैं (ते अभव्या) वे अभव्य जीव हैं अथवा वे सर्वथा अभव्य नहीं हैं किंतु दूरभव्य हैं। जिनको वर्तमानकाल में सम्यक्त रूप भव्यत्व शक्तिकी व्यक्तिका अभाव है। (वा) तथा ( भव्वा ) जो भव्य जीव हैं अर्थात जो सम्यकदर्शन रूप भवत्व शक्तिकी प्रगटतामें परिणमन कर रहे हैं । भावार्थजिनके भव्य शक्तिकी व्यक्ति होनेसे सम्यकूदर्शन प्रगट हो गया है वे (तं पडिच्छेति) उस अनंत सुखको वर्तमान में श्रद्धान करते हैं तथा मानते हैं और जिनके सम्यक्तरूप भव्यत्त्व शक्तिकी प्रगताकी परिणति भविष्यकालमें होगी ऐसे दूरभव्य वे मागे श्रद्धान करेंगे। यहां यह भाव है कि जैसे किसी चोरको कोतवाल मारनेके लिये लेजाता है तब चोर मरणको लाचारीसे भोग लेता है तैसे यद्यपि सम्यम्टष्टियोंको इंद्रियसुख इष्ट नहीं है तथापि कोतवालके समान चारित्र मोहनीयके उदयसे मोहित होता हुआ सराग सम्यग्दी जीव वीतरागरूप निज आत्मासे उत्पन्न सच्चे सुखको नहीं भोगता हुआ उस इंद्रियसुखको अपनी निन्दा गर्हा आदि करता हुआ त्यागबुद्धिसे भोगता है। तथा जो वीतराग सम्यग्टष्टी शुद्धोपयोगी हैं, उनको विकार रहित शुद्ध आत्माके सुखसे हटना ही उसी तरह दुःखरूप झलकता है जिस तरह मउलियोंको भुमिपर आना तथा प्राणीको अग्निमें घुसना दुःखरूप भासता है। ऐसा ही कहा हैसमसुखगीलितमनसां च्यवनमपि द्वेषमेति किमु कामाः । स्थलमा दहति झपाणां किमङ्ग पुनरंङ्गमङ्गाराः ॥
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसारं भापाटीका ।
भाव यह है - समतामई सुखको भोगने वाले पुरुषों को समता से गिरना ही जब बुरा लगता है तब भोगों में पड़ना कैसे दुःख रूप न भासेगा ! नव मछलियोंको जमीन ही दाह पैदा करती है व अग्नि अंगारे हे आत्मन् ! दाह क्यों न करेंगे । १ !
"
भावार्थ - इस गाथानें आचार्यने यह बात दिखलाई है कि - सच्चा अतीन्द्रिय आत्मीक आनन्द अवश्य चार घातिया रहित - केवलज्ञानियोंके प्रगट होजाता है इसमें कोई सन्देह न करना चाहिये क्योंकि सुख आत्माका स्वभाव है। ज्ञानावरणीयादि चारों -ही कर्म उस शुद्ध अनंत सुखके बाधक थे, उनका जय नारा होगया तब उस आत्मीक आनन्दकी प्रगटतामें कौन रोकनेवाला होता है ? कोई भी नहीं । केवलज्ञानी अरहंत तथा सिद्धोंके ऐसा ही आत्मीक आनन्द है इस बातका श्रद्धान अभव्योंको कभी नहीं पैदा हो सक्ता है। क्योंकि जिनके कर्मो के अनादि बंधनके, कारण ऐसी कोई मंमिट मकीनता होगई हैं जिससे वे कभी भी शुद्ध भावको पाकर सिद्ध नहीं होंगे उनके सम्यग्दर्शन ही होना अशक्य है | बिना मिध्यात्वकी काळिमा हटे हुए उस शुद्ध -सुखकी जातिका श्रद्धान कोई नहीं कर सक्ता है । भव्योंमें भी जिनके संसार निकट है उनहीके सम्यक्तभाव प्रगट होता हैं । सम्यक्त भावके होते ही भव्य जीवके स्वात्मानुभव अर्थात् अपने आत्माका स्वाद आने लगता है। इस स्वादमें ही उसी सच्चे सुखका स्वाद आता है जो आत्माका स्वभाव है । इस चौथे अविरत सम्यग्टण्टी के भीतर भी उसी जातिके सुखका स्वाद माता है जो सुख अरहंत तथा सिद्धोंके प्रगट है, यद्यपि नीचे गुणस्था
1
२३६
1
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीको। [२६७ नवाले जीवके भनुभवमें उतना निर्मल आनन्द नहीं प्रगट होता जितना श्री अरहंत व सिद्ध परमात्माको होता है क्योंकि पाविया काँका प्रभाव नहीं भया है। तो भी जो कुछ अनुभवमें होता है वह भावश्चत ज्ञानके द्वारा आत्मीक सुखका ही स्वाद है। इसी कारण सम्यग्दृष्टी जीवोंको पक्का निश्चय होजाता है कि जैसा आत्मीक सुख हमारे अनुभवमें आ रहा है इसी जातिका अनन्त अविनाशी और शुद्ध सुख घातिया कर्मोंसे शून्य अरहत तथा सिद्धोंके होता है। यह आत्मीक सुख सब सुखोंसे श्रेष्ठ इसी कारणसे है कि यह निज स्वभावसे पैदा हुआ है। इसमें किसी तरहकी पराधीनता नहीं है। इस सुखके भोगसे आत्मा पुष्ट होता है तथा अपूर्व शांतिका लाभ होता है और पूर्वबद्ध कर्मोकी निर्जरा होती है नवीन कर्मों का संवर होता है। इस सुखका अनुभव मोक्ष या स्वाधीनताका बीन है। इसी कारण यह सुख सबसे बढ़कर है। इस सुखके मुकाबले में विषयभोग तथा कषायोंके द्वारा उत्पन्न हुभा नो इन्द्रियसुख तथा मानसिक सुख सो बहुत ही निर्बल, पराधीन तथा अशांतिका कारक, तृष्णावर्द्धक और कर्मबंधका चीन है । इन्द्रियजनित सुख इंद्रियोंकी पुष्टता तथा इष्ट बाहरी पदार्थोके संयोगके आधीन है, मात्मनलको घटाता है, आकुलता व तृष्णाको बढ़ा देता है तथा तीन रागभाव होनेसे पापकर्मका बन्ध करता है । इंद्रियभोगोंके सिवाय जो मुख मनकी कषायननित तृप्तिसे होता है वह भी इसी तरहका है जैसे किसी पर क्रोधके कारण द्वेष था यह सुना कि उसका अनिष्ट हो गया या स्वयं उसका अनिष्ट किया या
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३८] श्रीमवचनसार भाषाटीका । करा दिया तब जो मनमें खुशी होती है वह मानसिक कषायननित सुख है । इसी तरह मान कषायवश किसीका अपमान करके कराके व हुमा सुनके मायाकषायके वश किसीको स्वयं ठगके, व उसको प्रपंच में फंसाके व वह ठगा गया ऐसा सुनके तथा लोभ कवायवश उसे कुछ प्राप्त करके, किसीको प्राप्त कराके व किसीको कुछ धनादि मिला ऐसा सुनके जो कुछ मनमें खुशी होती है वह मानसिक कषायजनित सुख है-यह इन्द्रिय व मनसे उत्पन्न
सर्व सुख त्यागने योग्य हैं-एक मतींद्रिय आनन्द ही ग्रहण 'करने योग्य है-वह भी नीचे गुणस्थानके अनुभवके योग्य नहीं किन्तु वह नो घातिया कोके नाशसे परमात्माके उदय होनाता है-यही सुख सबसे उत्तम है। ऐसा सुख न गृहस्थ सम्बग्हष्टियोंके है न परिग्रह त्यागी साधुओंके है । यद्यपि जाति समान है परन्तु उज्वलता व स्पष्टता तथा बलमें अंतर है। ज्यों २ कषायं घटता है उज्वलता बढ़ती है, ज्यों २ अज्ञान घटता है स्पष्टता बढ़ती है, ज्यों २ अंतराय क्षय होता है, चल बढ़ता है। बस जब शुद्धता, स्पष्टता तथा पुष्टताके घातक सब आवरण चले गए तब यह अतीन्द्रिय सुख अपने पूर्ण स्वभावमें प्रगट होजाता है। और फिर अनन्त कालके लिये ऐसा ही चला नायगा इसमें एक समयमात्रके लिये भी अन्तर नहीं पड़ेगा। जिनके अंतर्मुहूर्त पर्यंत ध्यान होता है और फिर ध्यान बदलता है उनके तो इस सुखके भास्वादमें अंतर पड़नाता है परंतु केवलज्ञानियोंके सदा ही परम निर्मल शुद्धोपयोग है जिसका आधार पूर्ण निर्मल अनंत और अपूर्व महात्म्ययुक्त केवलज्ञान है
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [२३९' इसलिये यही सुख सबसे बढ़कर है, ऐसा जान समता ठान व रागद्वेष हानकर निश्चित हो निन स्वरूपके विकाशका अर्थात् केवलज्ञानके उदयका नित्य पुरुषार्थ करना चाहिये। और वह पुरुषार्थ स्वात्मानुभवके द्वारा निजानन्दका लाभ । जेसा साध्य वैसा तैसा साधन होता है तब ही साध्यकी सिद्धि अनिवार्य होती है। वृत्तिकारने जो इस बातको स्पष्ट किया है कि जब गृहस्थ सम्यग्दृष्टीको सच्चे सुखका लाभ होने लगता है फिर वह इन्द्रियों के भोगोंके व मानसिक कषायजनित सुखोंमें क्यों वर्तन करता है उसका भाव यही समझना चाहिये कि सम्यग्दृष्टीके अच्छी तरहसे विषयभोगजनित व कषायजनित सुखसे उदासीनता होगई है। वह श्रद्धान अपेक्षा तो अच्छी तरह होगई है परन्तु चारित्रकी अपेक्षा नितना चारित्र मोहका उदय है उतनी ही उस उदासीनतामें कमी है इसलिये कायका जब तीव्र उदय जाता है तब वेवश हो कषायके अनुकूल विषय भोग कर लेता है फिर कपायके घटने पर अपना निन्दा गर्दा करता है। उसकी दशा उस चोरके समान दंड सहनेको होती है जो दंड सहना न चाहता हुआ भी कोतवाल द्वारा बल पूर्वक पकड़ा जाकर दंडित किया जाता है अथवा उस रोगीके समान होती ह जो कड़वी औषधि खाना नहीं चाहता है परन्तु वैद्यकी भाज्ञासे लाचारीसे खा पी लेता है अथवा उस मनुष्य के समान होती है जो मादक वस्तुसे सर्वथा त्यापकी रुचि कर चुका है परन्तु पूर्व मम्याप्तके वश जन स्मृति आती है तब कुछ पीलेता है उसका फल बुरा भोगता है-पछताता है-अपनी निन्दा गर्दा करता है ।
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
mummeemmmmmmmm
mmmmmmmmmmmmmmmmmmminene
'२४०] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। भी पूर्व, अभ्याससे फिर पीलेता है । इस तरह होते होते भी एक दिन अवश्य भायगा कि अब उसकी भीतरी रुचि व ग्लानि उसके चित्तको दृढ़ कर देगी कि मदिरा नहीं पीना चाहे प्राण चले 'जावें । बस, उसी ही दिनसे वह मादक वस्तु ग्रहण न करेगा।
इसीतरह आत्मीक सुखकी रुचि तथा विषयसुखकी अरुचि तथा ग्लानि एक दिन इस भव्य जीवको बिलकुल विरक कर देगी फिर यह कषायखे मोहित न होता हुआ रुचिपूर्वक आत्मीक मानन्दका ही भोग करेगा । वीतराग सम्बग्डप्टी जीवकी ऐसी अवस्था हो नाती है कि वह शुद्ध सुखके स्वादके निरंतर खोजी रहते हैं । उनको उस समताकी भूमिसे हटकर कषायकी भूमिमें माना ऐसा ही दाहजनक है कि जैसे मछलियों का पानीको छोड़कर भूमिपर माना। तथा विषयभोगमें फंसना उतना ही कष्टमद है जितना कष्ट उस मछलीको होता है जब उसको जीता हुआ अग्निमें पड़ना होता है । तात्पर्य यह है कि सम सुखको ही उपादेय जानना चाहिये। इस तरह अभेद नयसे केवलज्ञान ही सुख कहा जाता है इस कथनकी मुख्यतासे चार गाथाओंसे चौथा स्थल पूर्ण हुआ। ॥ ६२ ॥
उत्थानिका-आगे संसारी जीवोंके जो इन्द्रियजनित ज्ञानके द्वारा साधा जानेवाला इन्द्रिय सुख होता है उसका विचार करते हैं। मणुआऽनुरामरिंदा,अहिद्दआ इंदिएहिं सहजहि । असहंता ते दुक्ख, रमति विसएस्तु रम्मेलुः ॥६॥
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
[ २४१.
मनुजासुरामरेन्द्राः अभिद्रुता इंद्रियैः सहजे: । असहमानास्तदुःखं, रमन्ते विषयेसु रम्येसु ॥ ६५ ॥ सामान्यार्थ - मनुष्य व चार प्रकार के देव तथा उनके इन्द्र उनके शरीर के साथ उत्पन्न हुई इन्द्रियोंकी चाहसे अथवा स्वभाव से पैदा हुई इंद्रियी दाहसे पीड़ित होते हुए उस पीढ़ाको सहनेको मसमर्थ होते हुए रमणीक इंद्रियोंके विषयभोगोमें रमने लगते हैं ।
अन्वय सहित विशेषार्थ :- (मणुभासुरामरिंदा ) मनुप्य, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी तथा कल्पवासी देव और मनुष्यों के इन्द्र चक्रवर्ती राजा तथा चार प्रकारके देवोंके सर्व इन्द्र ( सहजेहिं ) अपने ९ शरीरोंमें उत्पन्न हुई अथवा स्वभावसे पैदा हुई (इंदिएहिं ) इंद्रियोंकी चाहके द्वारा (अहिंदु) पीड़ित या दुःखित होकर (तं दुक्खं अहंता ) उस दुःखकी तीव्र धाराको न सहन करते हुए स्म्मे विसएस) सुन्दर मातृन होनेवाले इंद्रि यो विषयो में (मंति) रमण करते हैं। इसका विस्तार यह है कि जो मनुष्यादिक जीव अमूत्ते अतींद्रिय ज्ञान तथा सुखके आस्वादको नहीं अनुभव करते हुए मूर्तीक इंद्रियजनित ज्ञान तथा सुखके निमित्त पांचों इंद्रियोंके भोगों में प्रीति करते हैं उनमें जैसे गर्म लोहेका गोला चारों तरफसे पानीको खींच लेता है उसी तरह पुनः २ विषयोंमें तीव्र तृष्णा पैदा होती है । उस तृष्णाको न सह सकते हुए वे विषयभोगोंका स्वाद लेते हैं । इसलिये ऐसा जाना जाता है कि पांचों इन्द्रियोंकी तृष्णा रोगके समान है । तथा उप्तका उपाय बिषयभोग करना यह औषधिके समान है,
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४२] श्रीप्रवचनसार भोपाटीका । परन्तु यह यथार्थ औषधि नहीं है यह मिथ्या औषधि है क्योंकि ज्यों २ ऐसी दवाकी जायगी विषयचाहकी दाइ बढ़ती जायगी जैसा एक कविने कहा है "मर्ज बढ़ता गया ज्या २ दवा की इसलिये संसारी जीवोंको वास्तविक सच्चे सुखश लाम नहीं होता है। ,
भावार्थ-मागे इस गाथामें श्राचार्य इंद्रियजनित मुखका स्वरूप कहते हुए यह बताते हैं कि यह सुख मात्र क्षणिक रोगका उपाय है जो रोगको खोता नहीं किन्तु उस रोगको ढ़ा देता है। बड़े बड़े चक्रवर्ती राना तथा इन्द्र जिनके पास पांचो इंद्रियोंके मनोवांछिन मोग होते हैं वे उन भोगोंके भोगने में इसी लिये चारवार का जाने हैं कि उनको इन्द्रियों के द्वारा को बाहरी पदाचौका ज्ञान हो है उनमें वे रागद्वेव कर लेते हैं। अर्थात उनमें गे पदार्थ इष्ट मारते हैं उनके भोगनेकी चाहरूपी दाह पैदां होती है। उप बाइसे जो पीड़ा होती है उसको सह नहीं सके
और धबद्धाकर इंद्रियों के भोगोंमें रमने लगते हैं । यद्यपि विषयों में रमना उस रोगकी शांतिका उपाय नहीं है तथापि अज्ञानसे जिस उपायसे इस रोगको मेटनेकी क्रिया यह संसारी प्राणी भरता रहा है उसी उपायको यह भी पूर्व अभ्याससे करने लग जाते हैं। बड़े २ पुरुष भी जिनको मति, श्रुत, अवधि तीरज्ञान हैं वो सम्यग्दृष्टी भी हैं वे भी इंद्रियोंकी · चाहकी पीड़ासे आकुलित होकर यह जानते हुए भी कि इन विषयभोगोंमे पीड़ा शांत न, होगी, चारित्र मोहले तीव्र उदयसे तथा पूर्व अभ्यासके संस्कारसे पुनः पुनः पांचों इंद्रियोंके भोगोंमें लीन ' होनाते हैं। तथ पि
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका। [२४३ तृप्ति न पाते हुए व अपने ज्ञानके द्वारा पदार्थके स्वरूपको विचारते हुए विषयभोगोंसे त्यागबुद्धि करते हैं। फिर भी विषयोंमें रम जाते हैं । पिर ज्ञानबलसे विचारकर त्याग बुद्धि करते हैं । इस तरह वारवार होते रहने से जव भेदज्ञानके द्वारा चारित्रमोहका बल घट जाता है तब वैराग्यवान हो भोग त्याग योग धारण करके आत्मरसफा पान करते हैं । बड़े बड़े पुरुपको भी मनोज्ञ सामग्री की पप्ति होते हुए भी इन विषयभोगोंसे कभी तृप्ति नहीं होती है, तो फिर जो अल्प पुण्यवान हैं जिनको इष्ट सामनोका मिलना दुर्लभ है उनकी पोडाका नाश किस तरह होना संभव है ? कभी नहीं होता । जो मिथ्यादृष्टी पड़े मनुष्य तथा देव हैं के तो सम्यग्ज्ञानके विना सच्चे सुखको न समझते हुए इद्रिसहारा ज्ञान तथा सुखको ही ग्रहण करने योग्य मानते हैं और इसी बुद्धिसे रात दिन विषयोंकी चाहकी दाहसे जलते रहते है। पुण्य के उदयसे इच्छित पदार्थ मिलनेपर उनमें लवलीन होजाते हैं । यदि इच्छित पदार्थ नहीं मिलते हैं तो उनके उद्यम करने में निरंतर माकुलित रहते हैं । जो अप पुण्यवान व पापी मनुष्य या हीन देव हैं वे स्वयं इच्छित पदाथों को न पाते हुए उनके यथाशक्ति उद्यम करने में तथा द्वारे पुण्यवानोंको देखकर ईर्षा करने में लगे रहते हैं जिससे महा मानसिक वेदना उठाते हैं । पापी मनुप्य यदि कभी कोई इष्ट पदार्थका समागम भी पालेते हैं तो उनको उस पदाथसे शीघ्र ही विवोग होनाता है व संयोग रहनेपर भी वे उनके भोग उपभोग करने में अशक्य होजाते हैं । इस कारण दुखी रहते हैं । यहां गाथा, नारकी और तिर्यचोंका नम इस
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४] श्रीमवचनसार भाषाटीका। लिये नहीं लिया कि उनको तो सदा ही इष्ट पदार्थोका वियोग रहता है यद्यपि तिर्यच कुछ इच्छित विषय भी पाते हैं, परन्तु वे बहुत कम ऐसे नियंच हैं । अधिक तिर्यंच जीव तो क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, भय, मारण, पीडन, वैर, द्वेष 'तथा तीव्र विषय लोलुपता आदि दुःखोंसे संतापित रहते हैं। नारकीजीवोंको इष्ट पदार्थ मिलते ही नहीं-वे विचारे घोर भूख प्यास शीत उष्णकी वेदनासे दुःखित रहते हैं । मनुप्योंकी अपेक्षा कुछ अधिक रमणीक विषय प्राप्त करनेवाले असुर अर्थात् भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देव होते हैं उनसे अधिक मनोज्ञ विषय पानेवाले कल्पवासी देव होते हैं । ऐसेर प्राणी भी जय इंद्रियोंकी तृष्णासे पीड़ित रहते हुए दुःख नहीं सहसकनेसे विषयोंमें रमण करते हैं तब क्षुद्र प्राणियोंकी तो बात ही क्या है ? प्रयोजन आचार्यके कहनेका यही है कि मोहकर्मके प्रेरे हुए ये संसारी प्राणी विषयचाहकी दाहमें मूर्छित होते हुए पुनः पुनः मृगकी तरह भांडलीमें जल जान दौड़ दौड़कर कष्ट उठाते हैं परन्तु अपनी विषयवासनाके कण्टको शांत नहीं कर सके हैं। यह सब अज्ञान और मोहका महात्म्य है। ऐसा जान केवलज्ञानकी प्राप्तिका उपाय करना योग्य है जिससे यह अनादि रोगकी नड़ कट जावे और आत्मा सदाके लिये सुखी हो जावे। यहां वृत्तिकारने जो गर्म लोहेका दृष्टांत दिया है-उसका मतलब यह है कि जैसे गर्म लोहा चारोंवरफसे पानीको खींच लेता है वैसे चाहकी दाहसे त्रासित हुआ मनुष्य विषयभोगोंको खींचता है ॥ ६ ॥
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका। [२४५ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जब तक इंद्रियों के द्वारा यह प्राणी विषयों के व्यापार करता रहता है तब तक इनको दुःख ही है। जेसिं विसयेसु रदी, तेसिं दुक्खं वियाण सम्भावं। जदितं णहि सम्भावं, वावारोणस्थि विसयत्य।१६॥
यां विषयेषु रतिस्तेषां दुःखं विजानीहि स्वाभावम् । यदि तन हि स्वमावो ध्यापारो नास्ति विषयार्थम् ॥६६॥
सामान्यार्थ-जिन जीवोंकी विषयों में प्रीति है उनको स्वाभाविक दुःख जानो । यदि वह इंद्रियनन्य दुःख स्वभावसे न होवे तो विषयोंके सेवनके लिये व्यापार न होवे ।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(जेसिं विप्तयेसुरदी) जिन जीवोंकी विषयरहित अतींद्रिय परमात्म स्वरूपसे विपरीत इंद्रियों के विषयोंमें प्रीति होती है ( तेसिं समावं दुक्ख वियाण ) उनको स्वाभाविक दुःख जानो अर्थात उन बहिर्मुख मिथ्यादृष्टी नीवोंको अपने शुद्ध आत्मद्रव्यके अनुभवसे उत्पन्न उपाधि रहित निश्चय सुखसे विपरीत स्वभावसे ही दुःख होता है ऐसा जानो (जदि । समावं ण हि) यदि वह दुःख स्वभावसे निश्चयकर न होवे तो (विसयत्थं वावारो णत्थि) विषयों के लिये व्यापार न होवे । जैसे रोगसे पीड़ित होनेवालोंके ही लिये औषधिका सेवन होता है बैसे ही इंद्रियों के विषयोंके सेवने के लिये ही व्यापार दिखाई देता है । इसीसे ही यह माना जाता है कि दुःख है ऐसा अभिप्राय है ।
भावार्थ-इस गाथाने आचार्यने यह दिखलाया है कि
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४६] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । जिन नीवोंकी रुचि इंद्रियोंके विषयभोगोंमें होती है उनको मोह कर्मजनित अंतरंगमें पीड़ा होती है। यदि पीड़ा न होवे तो उसके दूर करनेका उपाय न किया नावे । वास्तवमें यही बात है कि जब जब जिस इंद्रियकी चाहकी दाह उपनती है उस समय यह प्राणी घबडाता है और उस दाहकी पीडाको न सह सकनेके कारण इंद्रियों के पदार्थोके भोगमें दौड़ता है। एक पलंगा अपने नेत्र इंद्रिय सम्बन्धी दाहकी शांतिके लिये ही झाकर अग्निकी लौमें पड़ जल जाता है। जैसे रोगी मनुष्य घबड़ाकर रोगकी पीड़ा न सह सकनेके कारण जो औषधि समझमें बाती है उस औषधिका सेवन कर लेता है-वर्तमानकी पीड़ा मिट नावे यही अधिक चाहना रहती है। पायके वश व अनादि संस्कारके वश यह प्राणी उस पीडाको मेटने के लिये विषयमोग करता है जिससे यद्यपि वर्तमानमें पीडाको मेट देता है परन्तु भागामी पीड़ाको
और बढ़ा देता है। विषयसेवन करना विषय चाहरूपी रोगके मेटनेकी सच्ची औषधि नहीं है तत्काल कुछ शांति होती है परन्तु रोग बढ जाता है। यही कारण है कि जो कोई भी प्राणी सैकड़ों हजारों वर्षों तक लगातार इंद्रियोंके भोगोंको भोगा करता है परन्तु किसी भी इन्द्रियकी चाहको शान्त नहीं कर सका । इसीसे यह इस रोगकी शांतिका उपाय नहीं है। शांतिका उपाय उस रोगकी जड़को मिटा देना है अर्थात उस कषायका दमन करना व नाश करना है जिसके उदयसे विषयकी वेदना पैदा होती है । जिसका नाश सम्यक्ती होकर अंतरंगमें अपने आत्माका दृढ़ श्रद्धान प्राप्तकर उस मात्माके स्वभावका भेद ज्ञान पूर्वक मनन करनेके उपायसे
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भापाटीका। [२४७ ही धीरे धीरे होता है । विषयभोगसे कभी भी यह रोग मिटता नहीं । स्वामी संमतभद्राचार्य ने स्वयंभूस्तोत्रमें बहुत ही यथार्थ वर्णन किया है जैसे:शतहदोन्मेपचलं हि सौख्यं तृष्णा मयाप्यायनमानहेतुः । तृष्णाभिवृद्धिश्च तपत्यजसं, तापस्तदायासयतीत्यवादी॥१३
भावार्थ-इंद्रियोंका सुख विनलीके चमत्कारके समान अथिर है । शीघ्र ही होकर नष्ट होजाता है तथा इस सुखसे तृष्णारूपी रोग मिटनेकी अपेक्षा और अधिक बढ़ जाता है । मात्र इतना ही बुरा अधिक होता है लाभ कुछ नहीं । तृष्णाकी वृद्धि निरंतर प्राणीको संवापित या दाहयुक्त करती रहती है। वह चाहका दाहरूपी ताप जगतके प्राणियोंको फ्लेशित करता है। वे प्राणी उस पीड़ाके सहनेको असमर्थ होकर नानाप्रकार उद्यम करके धनका संग्रह करते हैं फिर धन लाकर इष्ट विषयोंकी सामनी लानेकी चेष्टा करते हैं और भोगते हैं फिर भी शांति नहीं पाते हैं, तृष्णाको बढ़ा लेते हैं । इस कारण इंद्रियसुखका भोग अधिक माकुलताका कारण है। तब इस रोगकी शांतिका उपाय अपने आत्मामें तिष्ठता है अर्थात् मात्मानुभव करता है ऐसा ही स्वामीने उसी स्तोत्रमें कहा है:खास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष पुसा, स्वार्थो न भोगः परिभंगुरात्मा। तृषानुपनानच तापशांतिरितीदमाख्यभगवान सुपाः ।३२॥
भावार्ष-श्री सुपार्श्वनाथ भगवानने अच्छीतरह बता दिया है कि जीवोंका प्रयोजन क्षणभंगुर भोगोंसे सिद्ध नहीं होगा
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४८ ]
श्रीप्रवचनसार भापाटीका ।
1
किन्तु अविनाशी रूपसे अपने आत्मामें तिष्टनेसे होगा । क्योंकि भोगोंसे तृष्णाकी वृद्धि हो जाती है, ताप मिटता नहीं है । प्रयोजन यह है कि इन्द्रियसुख उल्टा दुःखरूप ही है। खान खुजानेले खानका रोग बढ़ता ही है। वैसे ही इन्द्रियोंके भोगोंसे चाहनाका रोग बढ़ता ही है - इसका उपाय आत्मानुभव है । आत्मानंदके द्वारा जो शांतरस व्यापता है वही रस चाहकी दाहको मेट देता है । और धीरेर ऐसा मेट देता है कि फिर कभी चाकी दाहका रोग पैदा नहीं होता है ऐसा जान साम्यभावरूप शुद्धोपयोगका ही मनन करना योग्य है ।
इस प्रकार निश्चय से इन्द्रभनित सुख दुःखरूप ही है ऐसा स्थापन करते हुए दो गाथाएं पूर्ण हुई ॥ ६१ ॥
उत्थानका - मागे यह प्रगट करते हैं कि मुक्त आत्मामोंके शरीर न होते हुए भी सुख रहता है इस कारण शरीर सुखका कारण नहीं है ।
पच्या इडे विलये फासेहिं समस्लिदे सहावेण । परिणममाणो अप्पा यमेव सुहं ण हवदि देहो ॥ ६७
प्राप्येष्ठान् विषयान् सः समाश्रितान् स्वभावेन ।
परिणममान आत्मा स्वयमेव सुखं न भवति देहः ॥ ६७ ॥ सामान्यार्थ - - यह आत्मा स्पर्श आदि इंद्रियों के आश्रय से, ग्रहण करने योग्य मनोज्ञ विषयभोगोंको पाकर या ग्रहणकर अपने अशुद्ध स्वभावसे परिणमन करता हुआ स्वयं ही सुखरूप हो नाता है । शरीर सुखरूप नहीं है ।,
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भापाटीका । [ २४९
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( अप्पा ) यह संसारी आत्मा ( फासेहिं ) स्पर्शन मादि इंद्रियोंसे रहित शुद्धात्मतत्व से विलक्षण स्पर्शन आदि इन्द्रियोंके द्वारा ( समस्सिदे ) भले प्रकार ग्रहण करने योग्य ( इठ्ठे विसये ) अपनेको इण्ट ऐसे विषयभोगोंको ( पय्या) पाकर के या ग्रहण करके ( सहावेण परिणाममाणो ) अनन्त सुखका उपादान कारण जो शुद्ध आत्माका स्वभाव उससे विरुद्ध अशुद्ध सुखका उगदान कारण जो अशुद्ध आत्मस्वभाव उससे परिणमन करता हुआ ( मथमेव ) स्वयं ही (सुई) इन्द्रिय सुखरूप हो जाता है या परिणमन कर जाता है, तथा ( देहो ण हवदि) शरीर अचेतन होनेसे सुखरूप नहीं होता है। यहां यह अर्थ है कि कम आवरणसे मैले संसारी जीवोंके जो इन्द्रियसुख होता है वहां भी जीव ही उपादान कारण है शरीर उपादान कारण नहीं है । जो देह रहित व कर्मबंध रहित मुक्त जीव हैं 1 उनको जो अनन्त अतीन्द्रियसुख है वहां तो विशेष करके आत्मा ही कारण है ।
भावार्थ-यहां माचार्य कहते हैं कि शरीर व उसके आश्रित जो जड़रूप द्रव्यइन्द्रिय तथा बाहरी पदार्थ हैं इन किसी में भी सुख नहीं है । इन्द्रियसुख भी संसारी आत्माके अशुद्ध भावसे ही अनुभव में आता है। यह संसारी जीव पहले तो इन्द्रियसुख भोगनेकी तृष्णा करता है फिर उस चाहकी दाहको न सह सकने के कारण जिनकी तरफ यह कल्पना उठती है कि अमुक पदार्थको ग्रहण करनेसे सुख भासेगा उस इष्ट पदार्थको इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण करनेकी या भोगनेकी चेष्ठा करता है-यदि
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५० ] ' श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । वे भोगनेमें नहीं आए तो आकुलता हीमें फंसा रहता है। यदि कदाचित वे अहणमें आगए तो अपने रागभावके कारण यह बुद्धि करलेता है कि मैं सुखी भया-इस कारण इन्द्रियों के द्वारा भी जो सुख होता है वह आत्मामें ही होता है। इस सुखको यदि निश्चय सुख गुणका विपरीत परिणमन कहें तौभी कोई दोष नहीं है । जैसे मिथ्यादृष्टीके सम्यक्त भावका मिथ्यातरूप परिगमन होता है इसलिये शृद्धान तो होता है परन्तु विपरीत पदा. थोंमें होता है। तब. ही उसको मिथ्या या झूठा श्रुखान कहते हैं। इसी तरह स्वात्मानुभवसे शून्य रागभावमें परिणमन करते हुए जीवके जो परके द्वारा सुख अनुमवमें माता है वह मुख गुणका विपरीत परिणमन है। अर्थात् अशुद्ध रागी आत्मामें अशुद्ध राग रूप मलीन सुखका स्वाद भाता है। इस अशुद्ध, सुखके स्वाद आने कारण रागरूप कषायका उदय है । वास्तवमें मोही जीव जिस समय किसी पदार्थका इंद्रिय द्वारा भोग करता है उस समय वह रागरूप परिणमन कर जाता है अर्थात वह रागभावका भोग करता है। वह रागभाव चारित्रगुणका विपरीत परिणमन है-उसीके साथ साथ सुख गुणका भी विपरीत स्वाद आता है । वास्तवमें स्वाद उसी समय आता है जब उपयोग कुछ काल विनाम पाता है इंद्रियोंके द्वारा भोग करने में उपयोग अवश्य कुछ कालके लिये किसी मनोज्ञ विषयके आश्रित रामभावमें ठहर जाता है तब आत्माको मुख गुणकी अशुद्धताका स्वाद माता है। यदि उपयोग राग संयुक्त रहता हुआ मति चंचल होता है ठहरता नहीं तो उस चंचल आत्माके भीतर रागभाव होते हुए भी अशुद्ध
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
[ २५१
सुखका भान नहीं होता है। जैसे सम्यग्दृष्टी ज्ञानी आत्माके स्वामानुभवके द्वारा सच्चे अतीन्द्रिय सुखके भोगनेकी योग्यता हो नाती है । यदि उसका उपयोग निज आत्माके भाव में परसे मोह रागद्वेष त्याग ठहर जाता है तब ही स्वात्मानुभव होता हुआ निजानन्दका स्वाद आता हैं | बिना उपयोगके कुछ काल विश्नाम पाए निम सुखका स्वाद भी नहीं आसक्ता है । इसलिये यहां आचा
यह सिद्ध किया है कि सुख अपने आत्मामें ही है । आत्मामें यदि सुख गुण न होता तो संसारी आत्माको भी जो इंद्रिय सुख व काल्पनिक सुख कहा जाता है सो भी प्राप्त नहीं होता । क्योंकि इंद्रियोंके द्वारा होनेवाला सुख मशुद्ध है, पराधीन है, मोह व रागको बढ़ानेवाला है, अतृप्तिकारी है तथा कर्मबंधका बीज है इसलिये उपादेय नहीं है । परन्तु शुद्ध आत्माके स्वाधीन शुद्ध सुख है जो वीतरागमयी है, बंधकारक नहीं है व तृप्तिदायक है इसलिये उपादेय है । ऐसा जानकर क्षणिक व अशुद्ध तथा पराधीन सुखकी लालसा छोड़कर निभाधीन अनंत अतींद्रिय सुखको भोगनेके लिये आत्मा को मुक्त करना चाहिये और इसी कर्मसे छुटकारा पाने के उपाय में हमको साम्यभावका आलम्बन करके निन सुखका स्वाद पानेका पुरुषार्थ करना चाहिये यही निजानंद पूर्ण आनन्दकी प्रगटताका बीज है । इस कथनसे आचार्यने यह भी बता दिया है कि सुख अपने भावोंमें ही होता है शरीरादि कोई बाहरी पदार्थ सुखदाई नहीं हैं इसलिये हमें अपनी इस मिथ्याबुद्धिको भी त्याग देना चाहिये कि यह शरीर, पुत्र, मित्र, स्त्री, घन, भोजन तथा वस्त्र सुखदाई हैं। हमारी ही कल्पनासे
"
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
૨
श्रीमवचनसार भापाटीका ।
ये सुखदाई तथा दुःखदाईं भासते हैं । यही स्त्री जब हमारी इच्छानुसार वर्तती है तब इष्ट व सुखदाई भासती है, जब इच्छा विरुद्ध वर्तन करती है तत्र अनिष्ट या दुखदाई भारती, है । आज्ञाकारी पुत्र इष्ट व दुर्गुणी पुत्र दुखदायी भासता है इत्यादि । ऐसा जानकर इन्द्रिय सुखका भी उपादान कारण हमारा ही अशुद्ध आत्मा है, पर पदार्थ निमित्त मात्र हैं ऐसा जानना, क्योंकि सुख आत्माका गुण है इसीसे शरीर रहित सिद्धोंके अनंत मतींद्रिय मानन्द सदा विद्यमान रहता है ॥ ६७ ॥
उस्थानिका - अब आगे यहां कोई शंका करता है कि -मनुष्यका शरीर जिसके नहीं है किन्तु देवका दिव्य शरीर जिसको प्राप्त है वह शरीर तो उसके लिये अवश्य सुखका कारण होगा । आचार्य इस शंकाको हटाते हुए समाधान करते हैं:एते हि देहो, सुहं ण देहिस्स कुणइ सग्गे वा । वियवसेण तु सोक्खं, दुक्खं वा हवदि
सयमादा ||६| एकान्तेन हि देहः सुखं न देहिनः करोति स्वर्गे वा । विषययज्ञेन तु सौख्यं दुःखं वा भवति स्वयमात्मा ॥ ६८ ॥ सामान्यार्थ - भव तरह से यह निश्चय है कि संसारी प्राणीको यह शरीर स्वर्ग में भी सुख नहीं करता है। यह आत्मा आप ही इन्द्रियोंके विषयोंके आधीन होकर सुख या दुःखरूप होजाता है ।
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( एगंतेण हि ) सब तरइसे निश्चयकर यह प्रगट हैं कि ( देहिस्स ) शरीरधारी संसारी
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [२५३ 'प्राणीको (देहो ) यह शरीर ( सग्गे वा) स्वर्गमें भी ( सुह ण कुणई ) सुख नहीं करता है । मनुष्योंकी मनुष्य देह तो सुखका कारण नहीं है यह बात दूर ही विष्ठे । स्वर्गमें भी को देवोंका मनोज्ञ वैक्रयिक देह है वह भी विषयवासनाके उपाय विना सुख नहीं करता है । ( आदा ) यह आत्मा ( सयं) अपने आप ही (विसयवसेण) विषयोंके वशसे अर्थात निश्चयसे विषयोंसे रहित अमूर्त स्वाभाविक सदा मानन्दमई एक स्वभावरूप होनेपर मी व्यवहारसे अनादि कर्मके वंधके वशसे विषयोंके भोगोंके माधीन होनेसे ( सोक्खं वा दुक्ख हवदि ) सुख व दुःखरूप परिणमन करके सुख या दुःखरूप होजाता है | शरीर सुख या दुःखरूप नहीं होता है यह अभिप्राय है।
भावार्थ-इस गाथामें भी भाचार्यने शरीरको जड़रूप होनेसे शरीर सुख या दुःखरूप होता है इस बातका निषेध किया है तथा वतलाया है कि देवोंके यद्यपि धातु उपधातु रहित नानारूपोंको बदलनेवाला वैक्रियिक परम क्रांतिमय नित्य मुखप्यास निद्राको बाधा रहित शरीर होता है तथापि देवोंके सुख या दुःख उनकी अनादि कालसे चली आई हुई विषयवासनाके आधीनप. नेसे ही होता है । इंद्रियोंके विषयभोगनेसे सुख होगा इस वातनासे कषायके उदयसे भोगकी तृष्णाको शमन करनेके लिये असमर्थ होकर मनोज्ञ देवी आदिकोंमें वे देव रमण करते हैं । उनके नृत्य गानादि सुनते हैं जिससे क्षणभरके लिये आकुलता मेटनेसे सुख कल्पना कर लेते हैं । यदि किसी देवीका मरण होजाता है तो उस देवीको न पाकर उसके द्वारा भोग न कर सकने के कारण
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
MAnmom
२५४] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। वे देव दुःखी होकर दुःखका अनुभव करते हैं । शरीर तो दोनों अवस्थाओंमें एकसा रहता है तथापि यह मात्मा अपनी ही कपायकी परिणति में परिणमनकर सुखी या दुःखी होजाता है। शरीर तो एक निमित्त कारण है-समर्थ कारण नहीं है । वलवान कारण कषायकी तीव्रता है । सांसारिक सुख या दुःखके होने में रागद्वेषकी तीव्रता कारण है । जब राग अति तीव्र होता है तब सांसारिक सुख और जब द्वेष अति तीव्र होता है तब सांसारिक दुःख मनुभवमें आता है। जब किसी इष्ट विषयके मिलने में असफलता होती है तब उस वियोगसे द्वेषभाव होता है कि यह वियोग इटें निससे परिणाम बहुत ही संक्लेशरूप होनाते हैं उसी समय अरति शोक, नो कषायका लीव उदय होता आता है बस यह प्राणी दुःखका अनुभव करता है कभी किसी अनिष्ट पदार्थसे द्वेषभाव होता है तब उसका संयोग न हो यह भाव होता है तब ही भय तथा जुगुप्सा नोकषायका तीव्र उदय होता है इसी समय यह कषायवान जीव दुःखका अनुभव करता है।
वीतराग केवली भगवान के कोई कषाय नहीं है इसीसे परमौदारिक शरीर होते हुए भी न कोई सांसारिक सुख है न दुःख है। यह कषायोंके उदयका कारण है जो चारित्र और सुख गुणको विपरीत परिणमा देता है । जब संगकी तीव्रता होती है तब सुख गुणका विपरीत परिणमन इंद्रिय सुखरूप और जन द्वेषकी तीव्रता होती है तब उस गुणका दुःखरूप परिणमन होता है। कषायोंमें माया, लोभ, हास्य, रति, तीनों वेद राग तथा क्रोध, मांग, 'अरति, शोक, भय, जुगुप्सा द्वेष कहलाते हैं ! ये कंपायरूप राग
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका। [२५५ या द्वेष प्रगट रूपसे एक समयमें एक झलकते हैं परन्तु एक दुसरेके कारण होकर शीघ्र बदला बदली कर लेते हैं। किसी स्त्रीकी तृष्णासे राग हुआ, उसके वियोग होनेपर दूसरे समयमें द्वेष हो जाता है फिर यदि उसका संयोग हुआ तब फिर राग होजाता है। परिणामों में संल्केशता द्वेपसे होती है तथा परिणामों में उन्मत्तता आशक्ति रागसे होती है । बाहरी पदार्थ मात्र निमित्तकारण हैं। कभी इप्ट बाहरी कारण होते हुए भी परिणामने अन्य किसी विचारके कारण द्वेष रहता है जिससे इष्ट शरीरादि सुखभाव नहीं दे सक्ते हैं। प्रयोजन यह है, कि यही अशुद्ध भारमा कषाय द्वारा सुखी तथा दुःखी होजाता है शरीर सुख या दुःखरूप नहीं होता है, ऐसा नागकर सांसारिक सुखफी पापजनित विकार मानकर तथा निनाधीन निर्विकार मात्मीक सुखका उपाय ठीक २ करना फग समझकर उस सुखके लिये निज शुखात्मामें उपयोग रखकर साम्यभावका मनन करना चाहिये।
इस तरह मुक्त जीवों के देह न होते हुए भी सुख रहता है इस बातको समझानेके लिये संसारी प्राणियोंको भी देह सुखका नहीं है ऐसा पहने हुए दो गाथाएं पूर्ण हुई ॥ ६८ ॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि यह मात्मा स्वयं सुम्ब स्वभावको रखनेवाला है इसलिये जैसे निश्चय करके देह सुखका कारण नहीं है वैसे इंद्रियों के पदार्थ भी सुखके कारण नहीं हैं। तिमिरहरा जइ दिशी, जणस्त दीवेण णस्थि कादक तध सोरखं स्यमादा. विसया तित्य कुछ ६९
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५६]. श्रीभवचनसार भाषाटीका।
लिमिरहरा यदि दृष्टिननस्य दीपेन नास्ति कर्तव्यम् । । तथा सौख्य स्वयमात्मा विषयाः किं तत्र कुन्ति ।।६९ ॥
सामान्यार्थ-जिस पुरुषकी दृष्टि यदि अंधकारको दूर करनेवाली है अर्थात् अंधेरैमें देख सक्ती है उसको दीपकसे कुछ करना नहीं है वैसे ही यदि आत्मा स्वयं सुखरूप है तो वहां इन्द्रियों के विषय क्या कर सकते हैं।
__ अन्वय सहित विशेषार्थ:-(जह ) जो (जणस्स दिट्टी) किसी मनुष्यकी दृष्टि रात्रिको ( तिमिरहरा ) अंधकारको हरनेवाली है अर्थात अंधेरैमें देख सक्ती है तो ( दीवेण कादव्वं णत्थि ) दीपसे कर्तव्य कुछ नहीं है । अर्थात् दीपकोंका उसके लिये कोई प्रयोजन नहीं है । ( तह ) तैसे (आदा सयम् सौक्ख) जो निश्चय करके पंचेद्रियों के विषयोंसे रहित, अमूर्तीक, अपने सर्व प्रदेशोंमें आल्हादरूप सहन थानन्द एक लक्षणमई सुख स्वभाववाला आत्मा स्वयं है ( तत्थ विसया कि कुचंति ) तो वहां मुक्ति अवस्थामें हो या संसार अवस्थामें हो इन्द्रियोंके विषयरूप पदार्थ क्या कर सक्ते हैं ? कुछ भी नहीं कर सके। यह भाव है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्य ने साफ २ प्रगट कर दिया है कि सुख आत्माका स्वभाव है । इसलिये जैसे बाहरी शरीर सुखरूप नहीं है वैसे इन्द्रियों के विषयभोगके पदार्थ भी सुखरूप नहीं हैं। वास्तवमें इस संसारी प्राणीने मोहके कारण ऐसा मान रक्खा है कि धन, स्त्री, पुत्र, मित्र आदि पदार्थ सुखदाई हैं। वास्तवमें बाहरी पदार्थ जैसेके तैसे अपने स्वभावमें हैं। हमारी कल्पनासे अर्थात् कषायके उदयननित विकारसे कभी कोई पदार्थ
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
AnnuNNNN
श्रीमवधनसार भापाटीका। [२६७ सुखदाई व कभी कोई पदार्थ दुःखदाई भासते हैं। जब स्त्री माज्ञामें चलती है तब सुखदाई और जब माज्ञासे विरुद्ध चलती है तब दुःखदाई भासती है । रागीको धन सुखरूप तथा वैरागीको दुःखरूप पगट होता है । निश्चयसे कोई पदार्थ सुख या दुःखरूप नहीं है न कोई दूसरेको सुखी या दुःखी करसक्ता है। यह प्राणी अपनी कल्पनासे कभी किसीके द्वारा सुखरूप तथा कभी दुःखरूप होनाता है। जैसा पहले गाथाओंमें कहा है कि सुख मात्माका निज स्वभाव है वैसे यहां कहा है कि मुखरूप स्वयं आत्मा ही है। जैसे ज्ञान स्वभाव आत्माका है वैसे सुख भी स्वभाव आत्माका है, संसार भवस्था में उसी सुख गुणका विभावरूप परिणमन होता है । चारित्रमोहके उदय वश
आत्मीक मुखका अनुभव नहीं होता है। परन्तु जब बलपूर्वक . मोहके उदयको दूरकर कोई यात्मज्ञानी महात्मा अपने आत्मामें निज उपयोगकी चिता करता है तो उसको उस सच्चे म्वाधीन सुखका स्वाद माता है । केवलज्ञानीके मोहका अभाव है इसलिये वे निरंतर सच्चे मानन्दका विलास करते हैं । प्रयोजन फहनेका यह है कि जन सुख निन भात्मा है तब निज मात्मामा ही स्वाद स्वाधीनतासे लेना चाहिये । मुखके लिये न शरीरकी न धनादिकी न भोमन पान दस्त्रादिकी आवश्पका है। आत्मीक सुख तो तब ही अनुभवमें आता है जब सर्व परपदाोंसे मोह हर" ठहरा जाता है। यहां आचार्यने दांत दिया है कि जो कोई चोर, सिंह, विलाव, सर्प आदि र स्वयं देख सक्ते हैं उनके लिये दीपककी जरूरत नहीं है । देख
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
vewwww
maw
२५८] श्रीमक्चनसार भाषाटीका:। नेका स्वभाव दृष्टिमें ही है। यह संसार अधेरी रात्रिके समान है। अज्ञानी मोही बहिरात्मा जीवोंकी दृष्टि मात्मीक सुखको अनुभव करने के लिये असमर्थ है । इसलिये बाहरी पदार्थीका ' निमित्त मिलाकर वे जीव सांसारिक तथा काल्पनिक.सुखको सुख मानकर रंजायमान होते हैं। वहां भी उनके ही मुख गुणका उनको मनुभव हुआ है परन्तु वह विमावरूप भया है। इस बातको मोही. जीव नहीं विचारते हैं। मैसे कोई मूर्ख रात्रिको दीपकसे देखता हुमा यह माने कि दीपा दिखाता है। मेरी आंख 'देखती है दीपक मात्र सहायक है ऐसा न समझे तैसे अज्ञानी मोही जीव यह समझता है कि पर पदार्थ सुख या दुःख देते हैं। मेरेमें स्वयं सुख है और वह एरपदार्थके निमित्तसे मुझे भासा है इस बातका ज्ञान अकान मज्ञानियों को नहीं होता है। यहां प्राचार्यने मवेत किया है कि सात्मा स्वयं भानन्दरूप है। इसलिये 'शरीर व . विषयोंको सुखदाई दुःखटाई मानना केवल मोहका मह त्म्य है। ऐमा मानकर ज्ञानोका काव्य है कि साम्यमानमें ठहरनेका अभ्यास करे जिससे निज सुखमा स्वयं अनुभव हो-ऐसा तात्पर्य है ॥१९॥ ___ उत्थानिका-आगे आत्मा सुख स्वभाववाला भी है ज्ञान स्वभाववाला भी है इसी बात को ही दृष्टांत द्वारा दृढ़ करते हैंसपनेच अधादियो, जो उण्होय देखदा भनि। सिछोविनया गाण, सुहं च लोगे तथा देवो Insol
म्वयमेव यादवलेकः उष्ण देवता नभसि ।। सिद्धी तथा ज्ञानं सारे तथा देवः ॥ ४० ॥
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
AM
wimmiumm
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [२६९. सामान्यार्थ-जैसे भाकाशमें सूर्य स्वयं ही तेन रूप, उप्णरूप तथा देवता पदमें स्थित ज्योतिषी देव है तैसे इसलोकमें सिद्ध भगवान भी ज्ञान स्वभाव, सुख स्वभाव तथा भगवान हैं।
अन्वय सहित विशेषार्थ:-(नभसि) आकाशमें (सयमेव जधादिच्चो) जैसे दूसरे कारणकी अपेक्षा न करके स्वयं ही सूर्य (तेलो) अपने और दुसरेको प्रकाश करनेवाला तेनरूप है (उण्हो य) तथा स्वयं उष्णता देनेवाला है (देवदा य) तथा देवता है अर्थात् ज्योतिषीदेव है अथवा. अज्ञानी मनुष्योंके लिये पूज्य देव है (तघा) तैसे ही (लोगे ) इस लोकमें (सिद्धो वि गाणं सुहं च तवा देवो) सिद्ध भगवान भी दुसरे कारणकी अपेक्षा न करके स्वयं ही स्वभावसे स्व पर प्रकाशक केवलज्ञानस्वरूप हैं तथा परम तृप्तिरूप निराकुलता लक्षणमई सुख रूप हैं वैसे ही अपने शुद्ध पात्माके सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा चारित्ररूप अभेद रत्नत्रयमई निर्विकल्प समाधिसे पैदा होनेवाले सुंदर आनन्यमें भीगे हुए सुखरूपी अमृतके प्यासे गणधर देव आदि पाम योगियों, इन्द्रादि देवों व अन्य निकट भव्योंकि मनमें निरन्तर भले प्रकार आराधने योग्य तैसे ही अनंतज्ञान आदि गुणों के स्तवमसे स्तुति योग्य जो दिव्य आत्मस्वरूप उस स्वभावमई होनेसे देवता हैं। इससे जाना जाता है कि मुक्त प्राप्त आत्माओंको विषयोंकी सामग्रीसे भी कुछ प्रयोजन नहीं है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने पूर्वकथित गाथामोकासार खींचकर बता दिया है कि शुद्ध भात्माका स्वभाव केषरज्ञानमय है और भी द्रय आनंदमय है न उसके पास कोई मज्ञान है'
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६०] अभिवचनसार भाषाटीका । कोई रागद्वेषकी कालिमा है और इसीसे काल्पनिक पराधीन ज्ञान तथा सुख नहीं है। जबतक कर्मबन्धनकी अशुद्धता मात्मामें रहती है तबतक यह आत्मा अपने स्वाभाविक गुणोंका बिकाश नहीं कर सका है। बंधनके मिटते ही शुद्ध स्वभाव प्रगट हो जाता है। यद्यपि शुद्ध आत्मामें अनन्तगुणोंका प्रकाश हो जाता है तथापि यहां उन ही गुणोंको मुख्य करके बताया है जिनको हम जानकर आत्माकी सत्ताको अनात्मासे भिन्न पहचान सक्ते हैं। इसी लिये यहां ज्ञान और सुख दो मुख्य गुणोंकी महिमा बता दी है-ज्ञानसे सर्वको जानते तथा मापको जानते और सुखसे स्वाधीन निजानन्दका भोग करते हुए परमाल्हाद रूप रहते हैं।
और इसी कारण शुद्ध पात्मा गणधर, इंद्रादिक तथा अन्य ज्ञानी सम्यग्दृष्टी भव्योंके द्वारा आराधने योग्य व स्तवनके योग्य परम देवता है। यहां दृष्टांत सुय्यका दिया है। सूर्यमें एक ही काल तेज और उप्णता प्रगट है अर्थात् सूर्य सब पदार्थोको व अपनेको प्रकाश करता है और उष्णता प्रदान करता है और इसीलिये अज्ञानी लौकिक जनोंके द्वारा देवता करके आदर पाता है। वास्तवमें सन्मान गुणोंका हुमा करता है । इस गाथासे यह भी प्राचार्यने प्रगट किया है कि ऐसा ही शुद्ध खात्मा हमारे द्वारा परमदेव मानने योग्य है । तथा हमें अपने आत्माका स्वभाव ऐसा ही जानना, मानना तथा अनुभवना चाहिये-इसी स्वभावके ध्यानसे स्वसंवेदन ज्ञान तथा निनात्मीक सुख झलकता है जो केवलज्ञान और अनन्तसुखका कारण है। वास्तवमें शरीर तथा इंद्रियों के विषय मुखके कारण नहीं हैं। इस तरह स्वभावसे ही आत्मा मुख
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
MAMNNAMAnmol
wwe
भीमक्चनसार भाषाटीका। [२६१ स्वभाव है अतएव इंद्रियोंकि विषय भी मुक्तात्माओं के सुखके कारण नहीं होते हैं ऐसा कहते हुए दो गाथाएं पूर्ण हुई ॥७०॥
उत्थानिका-मागे श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव पूर्वमें कहे हुए लक्षणके धारी अनंतसुखके आधारभूत सर्वज्ञ भगवानको वस्तु स्वरूपसे स्तवनकी अपेक्षा नमस्कार करते हैं:तेजो दिडी गाणं इड्ढी सोक्खं तहेव ईसरियं । तिवणपहाणदइयं, माहप्पं जस्स सो अरिहो॥७१
तेजः दृष्टिः ज्ञानं ऋद्धिः सुखं तथव ऐश्वर्य । त्रिभुवनप्रधानदेवं माहात्म्य यस्य सोऽहन् ॥ ७१ ॥
सामान्यार्थ-भामंडल, केवळदर्शन, फेवलज्ञान, समवनरणकी विभूति, अतींद्रिय सुख, ईश्वरपना, तीन लोकमें प्रधान देवप्ना इत्यादि महात्स्य जिसका है उसे महन्त कहते हैं ।
अन्वय सहित विशेषार्थ-( तेनो) प्रभाका मंडळ (दिही) तीन नगत व तीन कालकी समस्तु वस्तुओंकी सामान्य सत्ताको एक काल ग्रहण करनेवाला केवलदर्शन ( णाणं ) तथा उनकी विशेष सत्ताको ग्रहण करनेवाला फेवलज्ञान, (इडी) समवशरणकी सर्व विभूति (सोक्ख) बाधा रहित अनंत सुख, (ईसरियं) व जिनके पदकी इच्छासे इन्द्रादिक भी जिनकी सेवा करते हैं ऐसा ईश्वरपना ( तहेव तिहुवणपहाणदइयं ) वैसे ही तीन भवनके ईशोरके भी वामपना या इष्टपना ऐसा देवपना इत्यादि (जस्स माहप्पं) निसका महात्म्य है (सो अरिहो) वही अरहंत देव है । इस प्रकार वस्तुका स्वरूप कहते हुए नमस्कार किया।
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६९] श्रीमवचनसार भापाटीका ।
भावार्थ-यहां आचार्यने शुद्ध मास्माके भो केवलज्ञान और अतींद्रिय अनन्तसुख स्वभावको धरनेवाले हैं दो भेद किये हैं अर्थात् मरहंत और सिद्ध) और उनके स्वरूपका खुलासा करते हुए उनको नमस्कार किया है । क्योंकि वस्तु के स्वरूप मात्रको कहना भी नमस्कार हो जाता है। परमौदारिक शरीर सहित आत्माको अरहंत कहते हैं जिनका शरीर कोटि सूर्यसम दीयमान रहता हुआ अपनी दीप्तिसे चारों तरफ मामंडक बना लेता है, निस शरीरको भोजनपानकी आवश्यका नहीं होती है, चारों तरफसे शरीरको पुष्टिकारक नोकर्म वर्गणाओं का नित्य ग्रहण होता है। इस मरहंत भगवानके ज्ञानावरणीय मादिचार धातिया कर्माका भभाव हो गया है। इसलिये केवळदर्शन, फेवलज्ञान, अनन्तबज्ञ तथा अतींद्रिय मानन्द, परम वीतरागता भादि स्वभाव प्रगट हो गए हैं। तथा पुण्यकर्मका इतना तीव्र उदव हैं जिससे समवशरणकी रचना हो जाती है जिसमें १२ समाओं के द्वारा देव, मनुष्य, तियच सब भगवानकी भनक्षरी दिव्यध्वनि सुनकर अपनीर मामामें धर्मका स्वरूप समझ जाते हैं। बड़ेर गणधर मुनि चक्रवर्ती राजा, तथा इंद्रादिक देव मिस अरहंत भगवानक्री भली विधिसे आराधना करते हैं इस भावसे कि वे भी भरहंत पदके योग्य हो नावें ऐसा ईश्वरपना जिन्होंने प्राप्त कर लिया है तथा तीन लोकके ईस इन्द्र महमिंद्र भी जिनको अंतरंगसे प्यार करते हैं ऐसे परम देवपनेको धारण करनेवाले हैं, इत्यादि अद्भुत महात्म्यके धारी श्री अरहंत भगवान कहे जाते हैं। इन अरहंतोंका शरीर परम सौम्य वीतरागमय झलकता है
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवचनसार भाषांटीका ।
[ २६३
जिसके दर्शन मात्र से शांतिं छानाती है । प्रयोजन कहनेका यह है कि जनतक हम निर्विकल्प समाधिमें आरूढ़ नहीं हैं तबतक हमको ऐसे श्री महंत भगवानका पूजन, भजन, आराधन, मनन करते रहना चाहिये । परमपुरुषकी सेवा हमारे भावको उच्च बनानेवाली है । यद्यपि अरहंत भगवान वीतराग होनेसे भक्ति करनेवालेसे प्रसन्न नहीं होते और न कुछ देते हैं परन्तु उनकी भक्ति से हमारे भाव शुभ होते हैं जिससे हम स्वयं पुण्य कमौको बांध लेते हैं और यदि हम अपने भावोंमें उनका निरादर करते व उनकी वचन से निन्दा करते हैं तो हम अपने ही अशुभ भावसे पाप कर्मोtat air लेते हैं वे वीतराग हैं-समदर्शी हैं। न प्रसन्न होते न अपसन्न होते हैं । तथापि उनका दर्शन, पूजन, स्तवन हमारा उपकार करता है - जैसा श्री समंतभद्रस्वामीने अपने स्वयंभू स्तोत्र में कहा है ।
न पूजार्थत्वा वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्तवैरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातु चिचं दुरिताभनेभ्यः ॥५७॥
भावार्थ - हे भगवान! आप चीतराग हैं। आपको हमारी पूजा या भक्तिसे कुछ प्रयोजन नहीं है । अर्थात् आप हमारी पूजा से प्रसन्न नहीं होते, वैसे ही आप वैर भावसे रहित हैं इससे हमारी निन्दा से आप विकारवान नहीं होते हैं ऐसे आप उदासीन हैं तथापि आपके पवित्र गुणोंका स्मरण हमारे चित्तको पापके मैलोंसे पवित्र करता है अर्थात् मापके शुद्ध गुणको जब हमारा मन स्मरण करता है तब हमारा पाप नष्ट होजाता है और मन
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४ ]
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
वैराग्यवान होकर पवित्र होजाता है ऐसा नान, श्री अरहंत भगarrat ही यादर्श मानके उनकी भक्ति करनी योग्य है तथा भक्ति करते करते उनके समान अपने आत्माको देखकर आपमें आप तिष्ठकर स्वानुभवका आनन्द लेना योग्य दे जो समताको विस्तारकर मोक्षरूप अखंड अविनाशी राज्यकी तरफ ले जानेवाला है ॥ ७१ ॥
उत्थानका- आगे सिद्ध भगवानके गुणोंका स्तवनरूप नमस्कार करते हैं ।
तं गुणदो अधिगदरं, अविच्छिदं मयुषदेवपदिभाव अपुणभावणिषडं, पणमामि पुणो पुणो सिद्धं ॥ ७२
तं गुणतः अधिकतरं अविच्छिदमनुनदेवपतिभावं । अपुनर्भावनिबद्धं प्रणमामि पुनः पुनः सिद्धं ॥ ७२ ॥
सामान्यार्थ - गुणों से परिपूर्ण, अविनाशी, मनुष्य व देवोंके स्वामी, मोक्षस्वरूप सिद्ध भगवानको मैं वारवार प्रणाम करता हूं ।
अन्वय सहित विशेषार्थ - (सं) उस (सिंह) सिद्ध भगवानको जो (गुणो अधिगतरं) अव्यावाद, अनन्त सुख आदि गुणों करके अतिशय पूर्ण हैं, (मविच्छदं मणुवदेवपदिभावं ) मनुष्य व देवोंके स्वागीपने से उल्लंघन कर गए हैं अर्थात् जैसे पहले अरहंत अवस्थामै मनुष्य व देव व इन्द्रादिक समवशरण में आकर नमस्कार करते थे इससे प्रभुपना होता था अव यहां उस भावको लांघ गए हैं अर्थात् सिद्ध अवस्था में न समवशरण है न
f
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [२६५ देवादि आते व प्रत्यक्ष नमस्कार करते हैं । (नोट-यहां टीकाकारने अविच्छिदं तथा मणुवदेवपरिभावं इन दोनों पदोंको एकमें मान कर अर्थ ऐसा किया है। यदि हम इन दोनों पदोंको अलगर मानले तो यह अर्थ होगा कि वह सिद्ध भगवान अविनाशी हैं। उनकी अवस्थाका कभी समाव नहीं होगा तथा वे मनुष्य व देवकि स्वामीपनको प्राप्त है अर्थात् उनसे महान इस संसारमें कोई प्राणी नहीं है। सब नहींका ध्यान करते हैं। यहां तक कि तीर्थकर भी सिद्धोंका टी ध्यान छमावस्थामें करते हैं) (अपुणन्मावणिवद) तथा मुक्कावस्थामें निश्चल अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भर, भावरूप पंच परावर्तनरूप संसारसे विलक्षण शुवुद्ध एक स्वभावमई निन आत्माकी प्राप्ति है लक्षण भिसका पेसी मोक्षके माधीन हैं अर्थात् स्वाधीन व मुक्त हैं (पुणो पुणो पणमामि) वारवार नमस्कार करता हूं।
भावार्थ:-यहां आचार्यने निकल परमात्मा श्री सिद्धभगवानको जमस्कार किया है । सिद्धोंके शरीर कोई प्रकारके नहीं होते हैं जब कि अरहंतोंके औदारिक तैजस और कार्माण ऐसे तीन शरीर होते हैं । सिद्धोंमें पूर्ण आत्मीकगुण या स्वभाव झलक रहे हैं क्योंकि कोई भी आवरण व कर्मरूपी अंजन सिद्ध भगपानके नहीं है। ये सर्व ही अल्पज्ञानियों के द्वारा भजनीय व पूज्य हैं इसीसे त्रिलोकके स्वामी हैं, उनके स्वभावका कभी वियोग न होगा तथा वे मोक्षके अतींद्रिय आनन्दके नित्य भोगनेवाले हैं। भाचार्यने पूर्व गाथाओंमें जिस केवलज्ञानकी तथा अनन्तमुखको महिमा बताई है उसके जैसे श्री मरहंत भगवान स्वामी हैं वैसे
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
mamiwww
२६६ . श्रीभवचनसार भाषाटीकाः। श्री. सिद्धपरमेष्टी भी हैं-ये दोनों ही परमात्मा सर्विकल्स अवस्था व शुद्धोपयोगकी भावनाके समय ध्यान करने योग्य हैंइनहीके द्वारा यहा भात्मा अपने निम स्वभावमें निश्वरता प्राप्त करता है । जगतके प्राणियों को किसी देवकी आवश्यक्ता पड़ती ' है जिसकी वे भक्ति करें उनके लिये आचार्यने बता दिया है कि जैसे हमने यहां श्री भरत मौर सिद्ध, परमात्माको नमस्कार किया है वैसे सर्व उपासक श्रावक श्राविका मी इनहीकी भक्ति करो-इनड़ीके द्वारा मोक्षका मार्ग प्रगट होगा.' आत्माको परम सुखकी प्राप्ति होगी। ___ इस प्रकार नमस्कारको मुख्यतासे दो गाथाएं पूर्ण हुई। इस तरह भाठ गाथाओंसे पांचवा स्थलः मानना चाहिये। इस तरह मठारइ, गाथाओंसे व पांच स्थलसे सुख प्रपंच नामका मन्तर अधिकार पूर्ण हुवा । इस तरह पूर्व में कहे प्रमाण "एस सुरासुर इत्यादि चौदह गाथाओंसे . पीटिकाको वर्णन किया। फिर सात गाथाओंसे सामान्यपने सर्वज्ञकी सिद्धि की,फिर तेतीस गायामोंसे ज्ञान प्रपंच फिर अठारह गाथाओंसें सुख प्रपंच इस तरह समुदा-. यसे,वहत्तर गाथाओं के द्वारा तथा चार,मन्तर अधिकारोंसे शुद्धो पयोग नामका अधिकार पूर्ण किया ॥ ७२ ॥
उत्थानिका-इसके आगे पचीस गाथा पर्यंत ज्ञानकंठिका चतुष्टय नामका अधिकार प्रारम्भ किया जाता है। इन २९. गाथाओंके मध्यमें पहले शुभ व अशुभ- उपयोगमूढ़ताको हवा. नेके लिये " देवदनदि गुरुःइत्यादि दश गाथाओं तक पहली ज्ञानकंठिकाका कथन है। फिर परमात्माके स्वरूपके ज्ञानमें मुह.
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
wowww
श्रीमवचनसार भाषाटीका। [२६७ ताको दूर करने के लिये "चत्ता पावारम्मंग इत्यादि सात गाथाओं तक दूसरी ज्ञानकंठिका है। फिर द्रव्यगुण पर्यायके ज्ञानके सम्बन्धमैं मूढताको हटाने के लिये "दब्दादीएसु" इत्यादि छ: गाथाओं तक तीसरी ज्ञानकंठिका है । फिर स्व और पर तत्वके ज्ञानके सम्बन्धमें मृढ़ताको हटाने के लिये 'णाणपर्ग" इत्यादि दो गाथाओंसे चौथी ज्ञानकंठिका है। इस तरह इस चार अधिकारकी समुदायपातनिका है।
भव यहां पहली ज्ञानकंठिकामें स्वतंत्र व्याख्यानके द्वारा चार गाथाएं हैं। फिर पुण्य जीवके भीतर विषयभोगकी तृष्णाको पैदा कर देता है. ऐसा कहते हुए गाथाएं चार हैं। फिर संकोच करते हुए गाथा दो हैं इस तरह तीन स्थलतक ऋमसे, व्याख्यान करते हैं । यद्यपि पहले छः गाथाओंके द्वारा इंद्रियोंके सुखका स्वरूपा कहा है तथापि फिर भी उसीको विस्तारके माथ कहते हुए उस इंद्रिय सुखके सापक शुभोपयोगको कहते हैं। अथवा दूसरी पातनिका है कि पीठिकामें मिस शुभोपयोगका स्वरूप सचित किया है उसीका. यहाँ इंद्रियसुखके विशेष कथनमें इंद्रिय सुखका साधकरूप विशेष मारल्यान करते हैं:देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणमिम वा सुसालेतु । उववामादिसु रत्तो, सुहोवओगप्पगो अप्पा ॥७॥
देवतायतिगुरुपूजासु चव दाने वा सुशीलेषु । उपवासादिपुरतः शुभोपयोगात्मक आत्मा ।। ७३ ॥ सामान्यार्थ-जो श्री जिनेन्द्रदेव, साधु और गुरुक्की
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६८ ]
arrainer भाषाटीका ।
पूजामें तथा दानमें वा सुन्दर चारित्रमें वा उपवासादिकोंमें लवलीन है वह शुभोपयोगमई आत्मा है ।
अन्वय सहित विशेषार्थ - मो (देवदनदिगुरुपुंनासु) देवता, यति, गुरुकी पूजा में ( चैव दाणम्मि ) तथा दानमें (वा सुसीले ) और सुशीलरूप चारित्रोंमें ( उववासादिसु ) तथा उपवास आदिकोंमें ( रत्तो ) आसक्त हैं वह ( सुहोओगप्पगो अप्पा ) शुभोपयोग धारी मात्मा कहा जाता है। विशेष यह है कि जो सर्व दोष रहित परमात्मा है वह देवता है, जो इन्द्रियोंपर विनय प्राप्त करके शुद्ध आत्मा के स्वरूपके साधन में उद्यमवानं है वह यति है, जो स्वयं निश्चय और व्यवहार रत्नत्रयका आराधन - करनेवाला है और ऐसी माराधना के चाहनेवाले भव्योंको जिन -दीक्षाका देनेवाला है वह गुरु है । इन देवता, यत्ति और गुरुओकी तथा उनकी मूर्ति आदिकोंकी यथासंभव अर्थात् जहां जैसी संभव हो वैसी द्रव्य और भाव पूजा करना, आहार, अभय, औषधि और विद्यादान ऐसा चार प्रकार दान करना, आचारादि ग्रंथों में कहे प्रमाण शीलव्रतोंको पालना, तथा जिनगुणसंपत्तिको आदि -लेकर अनेक विधि विशेषसे उपवास आदि करना - इतने शुभ कार्यों में लीनता करता हुआ तथा द्वेषरूप भाव व विषयोंके - अनुराग रूप भाव यदि अशुभ उपयोगसे विरक्त होता हुआ नीव शुभोपयोगी होता है ऐसा सूत्रका अर्थ है ।
भावार्थ - यहां आचार्य शुद्धोपयोगमें प्रीतिरूप शुमोपयोगका स्वरूप बताया है अथवा अरत सिद्ध परमात्माके मुख्य -ज्ञान और आनन्द स्वभावका वर्णन करके उन परमात्माके आरा
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
anwr
WWW
w
wwwwwwwwwww
श्रीभवचनसार भाषाटीका। [२६९ धनकी सुचना की है अथवा मुख्यतासे उपासकका कर्तव्य बताया है। शुभोपयोगमें कषायोंकी मंदता होती है। वह मंद कषाय इन व्यबहार धोके पालनसे होती है जिनको गाथा सुचित किया है अर्थात् सच्चे देवताकी श्रद्धापूर्वक भक्ति और पुना करना व्यवहार धर्म है। जिसमें क्षुधादि अठारह दोष नहीं है तथा जो सर्वज्ञ सर्वदर्शी और अतींद्रिय अनन्त सुखके धारी हैं ऐसे अरहंत भगवान तथा सर्व कर्म रहित श्री सिद्ध भगवान ये ही सच्चे पूनने योग्य देवता हैं। इनके गुणों में प्रीति बढ़ाते हुए मनसे, बचनसे तथा कायसे. पूजा करना शुभोपयोगरूप है। प्रतिबिम्शेके द्वारा भी वैसी ही भक्ति हो सकी है जैसी साक्षात् समवशरणमें स्थित भरहंत भगवानकी । तथा द्रव्य पूजाके निमित्तसे भाव पूजा होती है । पूज्यके गुणोंमें उपयोगका भी जाना भाव पूना है। जल चंदनादि अष्ट द्रव्यों को चढ़ाते हुए गुणानुवाद करना अथवा कहीं कहीं श्रावक भवस्थामें व मुनि अवस्थामें केवल मुखसे पाठ द्वारा गुणोंका कथन करना व नमन करना द्रव्य, पूना है । गृहस्थोंके मुख्यतासे माठ द्रव्योंके द्वारा व कमसे कम एक द्रव्यके द्वारा पूजा होती है व गौणतासे आठ द्रव्योंके बिना स्तुति मात्र व नमस्कार मानसे भी द्रव्य पूजा होती है। मुनियों के सामनीका ग्रहण नहीं है । वे सर्व त्यागी हैं। इस लिये मुनि महाराज स्तुति व वन्दना करके द्रव्य पूजा करते हैं। जैसे नमस्कारके दो भेद हैं-द्रव्य नमस्कार व भाव नमस्कार वैसे पुनाके दो भेद हैं-द्रव्य पूजा व भाव पूजा। जिसको नमस्कार किया जाय उसके गुणोंमें लवलीनता भाव नमस्कार है वैसे जिनको
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७० ]
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
1
पूजा जावे उसके गुणोंमें लीनता भाव पूजा है । वचनसे नमः शब्द कहना व अंगोंका झुकाना द्रव्य नमस्कार है वैसे पूज्य
पुरुषके गुणानुवाद गाना, नमन करना, अष्टद्रव्यकी भेट चढाना द्रव्य पूजा है । द्रव्य पूजा निमित्त है भाव पूजा 'साक्षात् पूंना है । यदि भाव पूजा न हो तो द्रव्य पूजा कार्यकारी नहीं होगी । -इसलिये अरहंत व सिद्धकी भक्ति भावकी निर्मलता के लिये ही करनी चाहिये | श्री समंत भद्राचार्यने स्वयंभू स्तोत्र में भक्ति करते हुए यही भाव झलकाया है जैसे
स विश्वचक्षुषोऽर्चितः सतां समग्रविद्यात्मवपुर्निरंजनः । पुनातु चेतो ममं नाभिनन्दनो जिनो जिल्लवादिशासनंः॥ ५ ॥
भावार्थ - वह जगतको देखने वाले, साधुओंसे पूज्यनीक पूर्ण ज्ञानमई देहके धारी, निरंजन व अल्पज्ञानी अन्य वादियों के मतको जीतनेवाले श्री नाभिराजाके पुत्र श्री वृषभ जिनेन्द्र मेरे चित्तको पवित्र करो । भावोंकी निर्मळता होनेसे जो शुभ राग होता है वह तो महान पुण्य कर्मको बांधता है व जितने अंश वीतराग भाव होता है वह पूर्व बंधे हुए कर्मोकी निर्जरा करता है- यहां देवताका आराधन अरहंत व सिद्धका आराधन ही समझना चाहिये। जिनको बड़े २ इन्द्र, घरणेन्द्र, चक्रवर्ती, साधु, गणधर आदि मस्तक
माते हैं वे ही एक जैन गृहस्थके द्वारा भी पूमने योग्य देव हैं। इनको छोड़कर अन्य रागद्वेय सहित कर्मबन्ध में बन्धे जन्म मरण करनेवाले स्वर्गवासी व पातालबासी व मध्यलोकवासी देवगतिमें तिष्ठे हुए किसी भी जीवको देवता मानकर पूजना व आराधना नहीं चाहिये। जो इन्द्रियोंके विषयोंकी चाहनाको छोड़कर शुद्ध त्माके
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
mawni
श्रीमवचनसार भाषाटीका। [२७१ स्वभावको प्रगट करनेके लिये रत्नत्रयमई धर्मका यत्न सर्व परिग्रह छोड़ व तेरा प्रकार चारित्र धारणकर करते हैं वे यति या साधु हैं। इनकी पूजा करनी शुमोपयोग है। साधुओंकी भक्ति आठ द्रव्योंसे पूजा, स्तुति, नमस्कारसे भी होती तथा भक्तिपूर्वक शुद्ध माहार,
औषधि व शास्त्र दानसे भी होती है । जो साधु स्वयं रत्नत्रयको साधते हुए दूसरोंको साधुधर्म साधन कराते अथवा उनको शास्त्रकी शिक्षा देते ऐसे आचार्य और उपाध्याय गुरु हैं। इनकी पूनामें भाशक्त होना शुभोपयोग है इस तरह " देवदादिगुरुपूजा" इल एक पदसे भाचार्यने अरहंत, सिड, भाचार्य, उपाध्याय
और साधु इन पांचों परमेष्टियोंकी भक्तिको सूचित किया है। दानमें भक्ति पूर्वक उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्रोंको पात्रदान तथा दया पूर्वक दुःखितों व अज्ञानियों को माहार, औषधि, विद्या सथा अमयदान करना वाया है। जैसे पूमा कानेसे कषाय मंद होती है वैसे दान देनेसे पाय मंद होती है। बीसरे सुशोलोंमें महाव्रतरूप तथा अणुव्रतरूप मुनि व श्रावकका व्यवहार चारित्र बताया है। मुनियाँको पाँच महात, पांच समिति तथा तीन गुप्तिमें और श्रावकोंको बारहवारूप चारित्रमें लवलीन होना चाहिये-यह सब शुभोपयोग है। उपवासारिमें बारह प्रकार तप समझने चाहिये-इन तपोंमें मुनिको पूर्ण रूपसे तथा श्रावकोंको एक देशमें भाशक्त होना चाहिये। इनमें मुख्य तप ध्यान है, ध्यान करने में प्रीति, उपशाम करने में मनुगग, सत्याग करने में रति इत्यादि १२ तो प्रेम करना शुभोपयोग है।
इस शुभोपयोगमें परिणमन करनेवाला मात्मा स्वयं शुभो.
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७२] श्रीमवचनसार भाषाटीका । पगी हो जाता है। इस गाथा भाचार्यने व्यवहार चारित्रका वर्णन कर दिया है। शुभोपयोग; वर्तन करनेसे उपयोग मशु. भोपयोग बचा रहता है. तथा यह शुभोपयोग शुद्धोपयोगमें चढ़ने के लिये मध्यकी सीढ़ी है। इसलिये शुद्धोपयोगकी भावना करते हुए शुभोपयोगमे वर्तन करना चाहिये । वास्तवमें शुभोपयोग सम्यग्दृष्टीके ही होता है मैसा पहले कहा भाचुका है, परन्तु गौणतासे अर्थात् मोक्षमार्ग, परिणमन रूपसे नहीं किन्तु पुण्यबंधकी अपेक्षासे मिथ्यादृष्टीके भी होता है इसी शुभोपयोगसे मिथ्यात्वी द्रव्यलिंगी मुनि नौ ग्रेवेयकतक व अन्य भेपोमुनि बारहवें स्वर्गतक जासका है। तात्पर्य यह है कि शुद्धोपयोगको ही उपादेय मानके उसीकी भावनाकी प्राप्तिके लिये मरहंत भक्ति आदि शुभोपयोगके मार्गमें वर्तना चाहिये ॥७॥ . .
उत्थानिका-भागे बताते हैं कि पूर्व गांथामें कथित शुभोपयोगके द्वारा नो पुण्यकर्म बन्ध जाता है उसके उदयसे इंद्रियसुख प्राप्त होता है-यह पराधीनता इंद्रिय खमें हैजुत्तो सुहेण आदा, तिरियो व माणुसोया देवो वा। भूदो तापदि कालं, लहदि सुहं इंदियं विविहं ॥४॥
युक्तः शुभेन आत्मा तिर्यग्वा मानुषो वा देवो था । भूतस्तावत्कालं लभते सुखमैन्द्रियं विविधम् ।। ७४ ॥
सामान्यार्थ-शुभोपयोगसे युक्त मात्मा मनुष्य, या देव या तिथंच होकर उतने, कालतक नाना प्रकार इंद्रियभोग सम्बंधी मुखको भोगता है।
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका। : [२७३. mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ___ अन्वय सहित विशेषार्थ:-(सुहेणजुत्तो आदा) नेसे निश्चय रत्नत्रयमई शुद्धोपयोगसे युक्त मात्मा मुक्त होकर अनन्त कालतक अतींद्रियमुखको प्राप्त करता है वैसे ही पूर्वसूत्रमें कहे हुए.शुभोपतोगमें परिणमन करता हुआ यह आत्मा तिरियो धा माणुमो यो या भूरो) तिथंच या मनुष्य या देव होकर (तावदि काल भनी अपनी आयुपर्यंत (यिविहं इंदियं जहादि) नाना प्रभा पन्द्रोंसे उत्पन्न सुखको पाता है।
भालार्थ-शुभोपयोग भी अपराध है क्योंकि परमें सन्मुखता तूप इसीसे बन्धरूप है। जितना शुम भाव होता है उतना ही विशेष रसबाला साता वेदनीय, शुभनाम, उच्च गोत्र तथा शुभ आयुजा बन्ध हो जाता है। सम्यक्ती मीयोंकि सम्यककी भूमिकामे जो शुभ भाव होता है वह तो अतिशयकारी पुण्यका बंध' करता है-ऐसा सम्यक्ती जीव सिवाय कल्पवासी देवकी आयुशे अयदा देव पर्याय में यदि है तो सिवाय उत्तम मनुष्य पान और किसी आयुका बन्ध नहीं करता है । मिथ्या. दृष्टी जीव असो योग्य शुभोपयोगसे तियच, मनुष्य अथवा देव आयु तथा पन गतियों भोग योग्य पुण्य कर्म बांध लेते हैं। चार आयुमें नरक नायु अशुभ है क्योंकि वह आयु नारकियोंको सदा फ्लेशरूप भासती है जब कि तिथंच, मनुष्य या देवोंको अपनी२ मायु पदा क्लेशरूप नहीं भारती है। इन तीनोंको इन्द्रिय योग योग्य कुछ पदार्थ मिल जाते हैं जिसमें ये प्राणी रति करते हुए अपनी आयुको सुखदाई मानलेते हैं। शुभोपयोगमें नितनो कपाय अंश होता है वही पुण्य क्रमको बांध
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
aaM
२७४] श्रीपवचनसार भापाटीका। देता है। जो पुण्यकर्म इष्ट पुद्गलोंको व इष्ट पुद्गल सहित ' जीवोंको आकर्षण भरलेता है । उनहींमें भाशक होकर यह संसारी प्राणी इंद्रियसुखका भोग कर लेता है । यह इन्द्रिय मुख पराधीन' है-पुण्य कर्मके आधीन है, इसलिये त्यागने योग्य है। अतीद्रिय सुख स्वाधीन है, इसलिये ग्रहण करने योग्य है । ऐसा जानकर शुद्धोपयोगकी भावना नित्य करनी योग्य है ।। ७४
उत्यानिशा-मागे आचार्य दिखाते हैं कि पूर्वगाथामें जिस इंद्रिय सुखको बतलाया है वह सुख निश्चयनपसे सुख नहीं है, दुःखरूप ही है। सोक्ख सहासिद्ध, पथि सुराणंपि लिखनुवदेसे । ते देहवेणा रमति विसयेस्सु रम्नेस्तु ॥ ७ ॥
सौख्यं स्वभावद्धिं नास्ति सुराणामपि सिद्धमुपदेशे। ते देहवेदनार्ता रमन्ते विषयेषु रम्येषु ॥ ७५ ॥
सामान्यार्थ-देवोंके भी आत्मस्वभावसे प्राप्त होनेवाला सुख नहीं व ऐसा परमागममें सिद्ध है। वे देव शरीकी वेदनांसे पाड़ित होकर रमणीक विषयोंमें रमन कर लेते हैं। .. ___अन्वय सहित विशेषार्थ:-मनुष्यादिकोंक मुखकी तो वात ही क्या है ( सुराणपि ) देवों व इन्द्रोंक भी ( हावसिद्ध सोक्खं ) स्वभावसे सिद्ध सुख अर्थात रागद्वेपादिकी उपा-' घिसे रहित चिदानन्दमई एक स्वभावरूप उपादानधारणसे उत्पन्न होनेवाला जो स्वाभाविक अतींद्रिय सुख है सो.( णत्थि) ही होता है ( उबदेसे सिद्धा) पद परमागम. देशमें उप
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
अभिवचनसार भाषादीका २७५ देश किया गया है। ऐसे अतींद्रिय सुखको न पाकर (ते देहवेदणट्टा ) वे देवादिक शरीरकी वेदनासे पीड़ित होते हुए (रम्मेसु. विप्तयेसु रमति ) रमणीक दिखनेवाले इंद्रिय विषयों में रमन करते हैं। इसका विस्तार यह है कि-संसारका मुख इस तरहफा है कि जैसे कोई पुरुष किसी वनमें हो-हाथी उसके पीछे दौड़े, वह घबड़ाकर ऐसे अंधकूपमें गिर पड़े निसके नीचे महा मनगर मुख फाड़े बैंठा हो व चार कोनोम चार सांप मुख फैलाए बैठे हों । और वह पुरुष उस कूपमें लगे हुए वृक्षकी शाखाको पकड़कर कटक नावे निस शाखाकी जड़को सफेद और काले चूहे काट रहे हों तथा उस वृक्षमें मधु मक्खियोंका छत्ता लगा हो जिसकी मक्खियां उसके शरीरमें चिपट रहीं हों, हाथी
ऊपरसे मार रहा हो. ऐसी विपत्तिमें पड़ाहुआ यदि वह मधुके छत्तेसे गिरती हुई मधुवूदके स्वादको लेता हुआ अपनेको सुखी माने तो जाकी मूर्खता है क्योंकि वह शीघ्र ही पमें पड़कर मरणको प्रातः करेगा यह दृष्टांत है । इसका दाष्ट्रांत यह है कि यह संसाररूपी महा बन है जिसमें मिथ्यादर्शन भादि कुमार्गमें पड़ा हुआ कोई जीव मरणरूपी हाथीके भयसे त्रासित होता हुआ किसी. शरीर. रूपी महा अंध कूपमें पड़े, मिस शरीररूपी कूपमें नीचे सातमा नरकरूपी अजगर हो व क्रोध मान माया लोभरूप चार सपं उस शरीररूपी कूएंके चार कोनों में बैठे हों ऐसे शरीररूपी कूपमें वह जीव भायु कर्मरूपी वृक्षकी शाखामें लटक भने निस. शाखाकी नड़को शुक्ल कृष्णपक्षरूपी चूठे निरंतर काट रहे हों व उसके शरीरमें मधुमक्खियोंके समान अनेक रोग कग रहे हो तथा मरण
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७६ ] श्रीमवचनसार भाषाटीका। रूपी हाथी सिरपर खड़ा हो और वह मधुकी बूंदके समान इंद्रिय विषयके सुखका भोगता हुभा अपनेको सुखी माने तो उसकी अज्ञानता है । विषयसुख दुःखका घर है । ऐसा सांसारिक सुख त्यागने योग्य हैं जब कि मोक्षका सुख आपत्ति रहित स्वाधीन तथा अविनाशी है इसलिये ग्रहण करने योग्य है, यह तात्पर्य है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने यह बतादिया है कि सच्चा सुख आत्माका निज स्वभाव है निस सुखके लिये किसी परपदार्थकी वांछा नहीं होती है । न वहां कोई आकुलता, चिंता व तृषाकी दाह होती है। वह सुख निन आत्माके अनुभवसे प्राप्त होता है । इसके सामने यदि इंद्रियजनित सुखको देखा नावे तो वह दुःखरूप ही प्रतीत होगा । जिनके मिथ्यात्व और कषायका दमन होगया है ऐसे वीतराग सम्यग्दृष्टी- जीव इसी मानन्दका निरंतर अनुभव करते हैं उनको कभी भी इंद्रिय विषय.. भोगकी चाहकी दाह सताती नहीं है। किन्तु जो मिथ्यादृष्टी मज्ञानी बहिरात्मा हैं चाहे वे देवगतिमें भी क्यों न हो तथा जिनको स्वात्मानुभवके लाभके विना उस अतीन्द्रिय आनन्दका स्वाद नहीं विदित है वे विचारे निरंतर इन इंद्रियों के विषयभोगकी ज्वालासे जला करते हैं और अनेक आपत्तियोंको सहकर भी क्षणिक विषयसुखको भोगना चाहते हैं। वे बराबर तृषावान होकर बड़े उद्यमसे विषयभोगकी सामग्रीको पाकर उसे भोगते हैं परन्तु तृषाको - बुझानेकी अपेक्षा, उल्टी बढ़ा लेते हैं। जिससे उनकी चाहकी आकुलता कभी मिटती नहीं वे असंख्यात वर्षांकी आयु रखते हुए भी दुःखी ही बने रहते हैं-उनकी मात्माको
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीभवचनसार भाषाटका। [२७७ सुख शांति का लाभ होका नहीं । टीकाकारने भो दृष्टांत दिया है कि मूर्ख पाणी एक मधुकी बूंदके लोभसे आगे आनेवाली मापत्तिको मूल जाता है सो बिलकुल सच है-मरण निकट है। परलोकमें क्या होगा इस सत्र विचारको अपने लिये भूलकर भाप रातदिन विषयभोगमें पड़ा रहता है। उसकी दशा उस अज्ञानीकी तरह होती है जिसका वर्णन स्वामी पूज्यपादभीने इष्टोपदेशमै किया है:
विपत्तिमात्मनो मूढः परेषामिव नेक्षते । दह्यमानमृगाकीर्णवनांतरतरुस्थवत् ॥ १४ ॥
भाव यह है कि मुर्ख अज्ञानी जैसे दूसरों के लिये आपत्तियोंका आना देखता है वैसा अपने लिये नहीं देखता है । जैसे जलते हुए वनके भीतर वृक्षके ऊपर बैठा हुमा कोई मनुष्य मृगोंका भागना व जलना देखता हुआ भी आप निश्चित बैठा रहे अपना जलना होनेवाला है इसको न देखे । बहिरात्मा अज्ञानी जीवोंकी यही दशा है । वे विचारे निनानंदको न पाकर इसी विषयसुखमें लुब्धायमान रहते हैं । यहां पर यह शंका होगी कि सराग सम्यग्दृष्टी जीव फिर विषयभोग क्यों करते हैं क्योंकि अविरत सम्यम्हष्टीको भी स्वात्मानुभव हो जाता है वह अतींद्रिय आनन्दका लाम कर लेता है फिर भी गृहस्थ अवस्थामें पांचों इन्द्रियोंके भोगों में क्यों जाते हैं क्यों नहीं सर्व प्रपंचनाल छोड़कर निजानंदका भोग करते हैं ? इस शंकाका समाधान यह है कि अविरत सम्यग्दृष्टियोंके अनन्तानुबन्धी कषाय तथा मिथ्यात्व फर्म उदयमें नहीं हैं इसीसे उनके यथावत् शृद्वान और ज्ञान वो हो गया है
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७८] श्रीभवचनसार भाषाटीका। . परन्तु चारित्र यद्यपि मिथ्या नहीं है तथापि बहुत ही भल्प है। क्योंकि मप्रत्याख्यानावरणादि कषायोंका उदय है । इन कार्योके उदयमें पूर्व संस्कारके वश जानते हुए भी व श्रृद्धान करते हुए भी कि ये इंद्रियसुख भतृप्तिकारी, बन्धकारक, तृप्णांको वृद्धि करनेवाला है वे विचारे इंद्रियमोगोंमें पड़ जाते हैं और भोग लेते हैं । यद्यपि वे अपनी निन्दा गर्दा करते रहते हैं तथापि आत्मबलकी व वीतरागताकी कमीसे इतने पुरुषार्थी नहीं होते तो
अपने श्रद्धान तथा ज्ञानके अनुकूल सदा वर्तन कर सक, परन्तु मिथ्यादृष्टीकी तरह पाकुजव्याकुल व तृषातुर नहीं होते हैं। चाह होनेपर उसकी शमनताके लिये योग्य विषयभोग कर लेते हैं। उनकी दशा उन जीवोंके समान होती है जिनको किसी नशा पीनेकी मादत पड़ गई थी-किसीके उपदेशसे उसके पीनेकी रुचि हट गई है । नौंमी त्याग. नहीं कर सके तब तक उस नशाको लाचारीसे लेते रहते हैं। जिनके अप्रत्याख्यानावरपीय कषाय शमन होगई परन्तु प्रत्याख्यानावरणीय कषाय उदयमें है उनके चाह अधिक घट जाती है परन्तु वे भी सर्वथा. इंद्रिय भोग छोड़ नहीं सक्के । अपनी निन्दा गहीं करते रहते व तत्वविचार व स्वात्ममननके अभ्याससे जब आत्मशक्ति बढ़ जाती तथा प्रत्याख्यानावरणीय कषाय भी दमन होनाती तब वे विषयभोग सर्वथा त्यागकर साधु होकर नितेन्द्रिय रहते हुए ज्ञान ध्यानका . मनन करते हैं। इससे नीचेकी अवस्थाके दो गुणस्थानों में जो विषय सुखका भोग है वह उनके ज्ञान व श्रद्धानका अपराध नहीं है किन्तु उनके कषायके उदयका अपराध है सो. भी त्यागने
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भापाटीका। [२७९ योग्य है। यह बात अच्छी तरह ध्यानमें लेनेकी है कि सुख निराकुलता रूप है यह निज आत्म ध्यानमें ही प्राप्त होसका है। पर पदार्थोंमें रागद्वेष करना सदा ही भाकुलताका भूल है। ये रागद्वेष विषयकी भाशक्तिके वश होनाते हैं इसलिये विषय सुखकी भाशक्ति बिलकुल छोड़ने योग्य है। श्री समंतभद्राचार्यने स्वयंभू स्तोत्रमें यही भाव पर्शाया हैस चानुषन्धोस्य जनस्य तापक
पोभिवृद्धिः मुखतो न च स्थिति। इति प्रभो लोकहितं यतो मतं,
ततो भवानेवगतिः सतां मतः ॥ २०॥ भाव यह है कि यह विषयोंकी भाशक्ति मनुष्यको लेश देनेवाली है तथा कृष्णाकी बराबर वृद्धिको करनेवाली है । तथा विषयसुखको पाकर भी इस प्राणीकी अवस्था मुख व संतोषरूप नहीं रहती है । जबतक एक पदार्थ मिलता नहीं उसके मिकनेकी आकुलता रहती, यदि वह मिल जाता है तो उसकी रक्षाकी आकुलता रहती, यदि वह नष्ट होजाता है तो उसके वियोगकी भाकुलता रहती है । एक विषय मिलनेपर संतोषसे बैठना होता नहीं अन्य अन्य विषयकी तृष्णा बढ़ती चली जाती है । हे प्रमु! अभिनंदन स्वामी ! आपका लोकोपकारी ऐसा मत है इसी लिये मोक्षार्थी ज्ञानी पुरुषों के लिये माप ही शरणके योग्य हैं । ऐसा जान इंद्रिय मुस्खको सुखरूप नहीं किन्तु दुःखरूप समझकर अतींद्रिय सुखके लिये निन भात्माका अनुभव शुद्धोपयोगके द्वारा करना योग्य है ॥ ७॥
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८० ]
areerसार भांपाठीका ।
उत्थानका पूर्व कहे प्रमाण शुभोपयोग से होनेवाले इंद्रिय सुखको विश्वसे दुःखरूप जानकर उस इंद्रियं सुखके साधक शुभurrent भी शुभयोगकी समानता में स्थापित करते हैं । . णरणारयतिरियसुरा, भजति जदि देहसंभवं दुक्खं । for मोहो व अहो, उपभोगो हवदि जीवाण
नरनार्कतिर्यक्सुरा भजंति यदि देवसंभवं दुःखम् । कथं शुभाशुभ उपयोगो भवति जीवानाम् ॥७६॥ सामान्यार्थ मनुष्य, नारकी, पशु और देव जो शरीरसे उत्पन्न हुई पीड़ाको सहन करते हैं तो नीवोंका उपयोग शुभ या अशुभ कैसे होता है अर्थात् निश्चयसे अशुभ ही है ।,
अन्वय सहित विशेषार्थ:- ( नदि) जो (णरणास्यतिरियसुग) मनुष्य, नारकी, पशु और देव स्वाभाविक मर्तीद्रिय अमूर्ती सदा आनन्दमई जो सच्चा सुख उसको नहीं प्राप्त करते हुए ( देह संभवं दुःखं अति) पूर्वमें कहे हुए निश्चय सुखसे विलक्षण पंचेंद्रियमई शरीरसे उत्पन्न हुई पीड़ाको ही निश्च यसे सेवते हैं तो ( जीवाणं सो सुहो वा असुहो उपभोगो किव saft) जीवोंके भीतर वह शुभ या अशुभ उपयोग को शुद्धोपयोगसे भिन्न है व्यवहारसे भिन्न होनेपर भी किस तरह भिन्नताको रखे मक्ता है ? अर्थात् किसी भी तरह भिन्न नहीं है। एकरूप ही है ।
भावार्थ - यहां आचार्यने सांसारिक दुःख तथा सुखको समान बता दिया है। क्योंकि दोनों ही आकुलतारूप व मात्माकी शुद्ध परिणति से विलक्षण तथा बंध रूप हैं । जैसे शरीर में
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रक्वनसार भाषाका । [ २८१
रोगादिकी पीड़ा होनेसे कष्ट होता है वैसे इंद्रियोंकी विषयवाह द्वारा जो शक्ति पैदा होती है और उस आशक्तिके वश किसी पर पदार्थ में यह रंजायमान होता है उस समय क्षणभरके लिये जो अज्ञानसे सावासी मालूम पड़ती है उसीको सुख कहते हैं, सो वह उस क्षणके पीछे तृष्णाको बढ़ानेसे व पुनः विषयभोगकी इच्छाको जगानेसे तथा राग गर्भित परिणाम होनेसे बंधकारक है इस कारण से दुःख ही है । ऋतवमें सांसारिक सुख सुख नहीं है किन्तु घनी विषय चारूप पीड़ाको कुछ कमी होनेसे दुःखकी जो कभी कुछ देके लिये होगईं हैं उसीको व्यवहार में सुख कहते हैं। असल में दुःखकी अधिकताको दुःख व उसकी कमीको सुख कहते हैं । यह कमी अर्थात सुखाभास और अधिक दुःखके लिये कारण है । जैसे कोई मनुष्य नंगे पग ज्येष्ठकी धूपकी आता पमें चला जाता हुआ गर्मी दुःखसे अति दुःखी हो जंगलमें कहीं एक छायादार वृक्ष देखकर वहां घबड़ाकर जाकर विश्राम करता है। जबतक वह ठहरता है तबतक कुछ गरमीके कम होनेसे उसको सुखसा भासता है। वास्तव में उसके दुःखकी कमी हुई है फिर जैसे ही वह चलने लगता है उसको अधिक गरमीकी पीड़ा सताती है । इसी तरह सांसारिक सुखको मात्र कोई दुःखकी कुछ देर के लिये शांति समझनी चाहिये। जहां पहले व पीछे माकुलता हो
चह
जिस कैसे ? वह तो दुःख ही हैं ।
श्री गुणभद्राचार्य श्री मात्मानुशासनमें कहते हैं
स धर्मो यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्र नासुखं । तज्ज्ञानं यत्र नाज्ञानं सा गतिर्यत्र नागतिः ॥ ४६ ॥
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
moM
२८२] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
भावार्थ-धर्म वह है जहां अधर्म नहीं, मुख वह है जहां दुःख नहीं, ज्ञान वह है जहां अज्ञान नहीं, गति वह है जहांसे लौटना नहीं । वास्तवमें सांसारिक सुख दुःख दोनों में भपने ही रागद्वेषका भोग है। रागका भोग सुख है, द्वेषका भोग दुःख है। नब कोई प्राणी किसी भी इन्द्रियके विषयमें आशक हो दप्ती तरफ रागी हो जाता है और अन्य सब विषयोंसे छुट आता है तब ही उसको सुख भासता है। ऐसे विषयभोगके समय रति अथवा तीनों वेदोंमेंसे कोई वेद वा हास्य ऐसे पांच नोकषामिसे कोई तथा लोम या मायाका उदय रहता ही है-इनहीके उदयको राग कहते हैं । इसीका अनुभव सुख कहलाता है। दुःखके समय द्वेषका भोग है । शोक, भय, जुगुप्सा, अरति इनमें से किसीका उदय तथा मान या क्रोधके उदयको.ही द्वेष कहते हैं-इसी द्वेषका अनुभव दुःख है। जब किसी विषयकी चाह पैदा होती है तब राग है परंतु उसी समय इच्छित पदार्थका लाम न होनेसे वियोगसे शोकच हानि व भरतिसी भावोंमें रहती है यही दुःखका अनुभव है। जब वह प्राप्त होजाता है तब रति व कोमका उदय सो सुखका अनुभव है। सुखानुभवके समय सातावेदनीय तथा दुःखानुभवके समय असाता वेदनीयका उदय भी रहता है । वेदनीय बाहरी सामग्रीका निमित्त मिलादेती है। यदि मोहनीयका उदय न हो और यह मात्मा वीतरागी रहे तो रागद्वेषकी प्रगटता न होनेसे इस वीतरागीको साता या असाता कुछ भी अनुभवमें न आएगी इसकारण एक अपेक्षासे रागका अनुभव सुख व द्वेषका. अनुभव दुःख है। वास्तव, कषायका स्वाद सांसारिक सुख व दुःख है इसलिये. यह
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwwwwww
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [२८३ स्वाद मलीन तथा संक्लेशरूप है । सुखमें संक्लेश कम जब कि दुःखमें संक्लेश अधिक है । ये सुख तथा दुःख क्षण क्षणमें बदल जाते हैं व एक दुसरेके कारण होनाते हैं। एक स्त्री इस क्षण अनुकूल वर्तनसे सुखरूप वही अन्य क्षण प्रतिकूल वर्तनसे दुःख रूप भासती है। अर्थात् उपयोग जब रागका अनुभव करता है तब सुख, मब द्वेषका अनुभव करता है तब दुःख भासता है। जब दोनोंमें कषायका ही भोग है तब यह सुख तथा दुःख एक रूप ही हुए-आत्माके स्वाभाविक वीतराग मतीदिय आनन्दसे दोनों ही विपरीत हैं । जब ये सुख व दुःख समान हैं तब जिस पुण्यके उदयसे सुख व नित पापके उदयसे दुःख होता है वे पुण्य पाप भी समान हैं । जब पुण्य व पाप समान हैं तब जिस भावसे पुण्य बंध होता है वह शुभोपयोग तथा जिस मावसे 'पाप बंध होता है वह मशुभोपयोग भी समान हैं-दोनों ही कषाय भावरूप हैं । पूना, दान, परोपकारादिमें रागभावको व अन्याय, अभक्ष्य, मन्यया आचरणसे द्वेषभावको शुभोपयोग, तथा विषयमोग व परके अपकार में रागभावको व धर्माचरणसे द्वेषभावको अशुभ उपयोग कहते हैं । ये शुभ व अशुभ उपयोग रागद्वेषमई हैं। ये दोनों ही आत्माके शुद्ध उपयोगसे भिन्न हैं इसलिये दोनों समान हैं । व्यवहार में मंदकषायको शुभोपयोग व तीन कपायको अशुभो. पयोग कहते हैं, निश्चयसे दोनों ही पायरूप हैं इसलिये त्यागने योग्य हैं। इसी तरह इन उपयोगोंसे नो पुण्यकर्म तथा पापकर्म बध होते हैं वे भी दोनों पुद्गलमई हैं इसलिये आत्मस्वभावसे भिन्न होनेके कारण त्यागने योग्य है। श्री समयप्तार कलशमें
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
'श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
૨૪૪
श्री अमृतचंद्राचार्य ने कहा हैः
हेतु स्वभावानुभवाश्रयाणां सदाप्यभेदा अहि कर्मभेदः । तद्वन्त्रमार्गाश्रितमकमिष्टं स्वयं समस्तं खलु बंध हेतुः ॥३॥
1
wwwas ashwa
•
भावार्थ- पुण्य पापकर्म दोनोंका हेतु आत्माका अशुद्ध भाव है, दोनोंका स्वभाव पुद्गलमईं है । दोनोंका अनुभव राग द्वेषरूप हैं दोनोंका आश्रय एक कलुषित आत्मा "है इससे इनमें भेद नहीं है- दोनों ही बन्ध मार्गका आश्रय किये हुए हैं तथा समस्त यह कर्मबन्धके कारण हैं, इसलिये ये पुण्य पाप समान हैं वैसे ही इनके उदयसे जो रागद्वेषं सहित साता व असाताका अनुभव होता है वह भी कषायरूप अशुद्ध अनुभव है, आत्मीक अनुभवसे विलक्षण हैं इसलिये समान है । आचार्यका अभिप्राय यह है कि शुभोपयोगसे पुण्यबांध जो देव या मनुष्योंको सामग्री प्राप्त होती है उसीके कारण यह प्राणी. - रागी हो उनके रमने को इसलिये जाता है कि विषयोंकी चाह शांत करूंगा परन्तु उनके भोग करनेसे तृष्णाको बढ़ा लेता है । चाहकी दाह बढ़ जाती है - यह दाह ही दुःख है । इसलिये यह इंद्रिय सुख दुःखका कारण होनेसे दुःखरूप है । जब ऐसा है तब शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनों ही त्यागने योग्य हैं । क्योंकि जैसे पापोदयसे दुःखमें आकुलता होती है वैसे पुण्योदयसे सुखके निमित्तसे आकुलता होती है । इसलिये दोनों ही समान हैं- मात्मा शुद्ध भावसे भिन्न हैं ।
- श्री समयसारनी में श्री कुंदकुंद भगवानने कहा है
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
[ २८५
कम्मममुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाण सुहसी ं । कहं तं हादि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ॥ १५२ ॥
भाव यह है कि यद्यपि व्यवहारनय से अशुभोपयोग रूप कर्मको कुशील अर्थात् बुरा और शुभोपयोगरूप कर्मको सुशील अथवा अच्छा कहते हैं, परन्तु निश्चयसे देखो तो जिसको सुर्शीक कहते हैं वह कुशील हैं क्योंकि संसार में ही रखनेवाला है । पुण्यका उदय जबतक रहता है तबतक कर्मकी बेड़ी कटकर आत्मा स्वाधीन व निराकुल सुखी नहीं होता है। ऐसा जान' आत्माधीन चे सुख के लिये एक शुद्धोपयोगकी ही भावना करनी योग्य है । शेष सर्वं कषायका पसारा है जो स्वाधीनताका घातक, माकुलतारूप व बन्धका कारक है तथा संसाररूप है - एक शुद्धोपयोग ही मोक्ष रूप तथा मोक्षका कारण है इसलिये यही ग्रहण करने योग्य है ॥ ७६ ॥
इस तरह स्वतंत्र चार गाथाओंसे प्रथम स्थल पूर्ण हुआ । उत्थानिका- आगे व्यवहारनयसे ये पुण्यकर्म देवेन्द्र चक्रवर्ती आदि पद देते हैं इसलिये उनकी प्रशंसा करते हैं सो इसलिये बताते हैं कि आगे इन्हीं उत्तम फलोंके माघारसे तृष्णाकी उत्पत्तिरूप दुःख दिखाया जायगा ।
कुलि साउहचक्कधरा, सुहोवभोगप्पगेहिं भोगेहिं । देहादीनं विद्धिं, करेंति सुहिदा इवाभिरदा ॥ ७७ ॥ कुलिशायुधचक्रधराः शुभोपयोगात्मकः भोगेः ।
देहादीनां वृद्धि कुर्वेति सुखिता इवाभिरताः ॥ ७७ ॥
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
mamaAAMANAPAN
२८६] श्रीप्रवचनसार भापाटीको।
सामान्यार्थ-मुखियोंके समान रति करते हुए इन्द्र तथा चक्रवर्ती भादिक शुभ उपयोग के फलसे उत्पन्न हुए भोगोंके द्वारा शरीर आदिकी वृद्धि करते हैं।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(कुलिसाउहचक्कघरा) देवे. न्द्र चक्रवर्ती आदिक (सुहिदा इव अभिरदा) मानों मुखी हैं ऐसे आशक्त होते हुए(सुहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं) शुभोपयोगके द्वारा पैदा हुए व प्राप्त हुए भोगोंसे विक्रिया करते हुए ( हादीण) शरीर परिवार आदिकी (विद्धिं करेंति) बढ़ती करते हैं। यहां यह अर्थ हैं कि जो परम अतिशयरूप वृप्तिको देनेवाला विषयोंकी तृष्णाको नाश करनेवाला स्वामाविक सुख है उसको न पाते हुए जीव जैसे नोंई विकारवाले खून में आशक्त हो जाती हैं वैसे आशक्त होकर मुखामासमें सुख मानते हुए देह मादिकी वृद्धि करते हैं। इससे यह जाना जाता है कि उन इन्द्र व चक्रवर्ती आदि बड़े पुण्यवान जीवों के भी स्वाभाविक सुख नहीं है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्य ने बड़े २ इन्द्र व चक्रवर्ती भादि जीवोंकी अवस्था बताई है कि इन जीवोंने पूर्व भवमें शुमो:पयोगके द्वारा बहुत पुण्य वध किया था जिससे ये ऊंचे पदमें माए तथा पुण्यके उदयसे मनोज्ञ इंद्रियों के विषय प्राप्त किये। अब वे अज्ञानसे ऐमा जानकर कि इन विषयोंके भोग सुख होगा उन पदार्थों में आशक्त होकर उनको भोग लेते हैं, परन्तु इससे उनकी विषयचाह शांत नहीं होती, क्षणिक कुछ बाधा कम हो जाती है उसको ये अज्ञानी जीव सुख मान लेते हैं, परन्तु पीछे और अधिक तृष्णामें पड़कर चिंतावान हो जाने हैं।
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीको। [२८७ इस बातपर लक्ष्य नहीं देते। मास्तवमें निसको सुख माना है वह उल्टा दुःखदाई हो जाता है। जैसे जोंक जंतु ,मज्ञानसे मलीन व हानिकारक रुधिरको आशक्त हो पान करती है, वह यह नहीं देखती है कि इससे मेरा नाश होगा व दुःख अधिक बढ़ेगा। ऐसे ही विषयाशक्त जीवोंकी दशा जाननी ।
इन्द्र या चक्रवर्ती आदि देव या खास मनुष्यों में शरीरमें विक्रिया करनेकी शक्ति होती है वे विपयदाहकी दाहमें अधिक इच्छावान होकर एक शरीरके अनेक रूप बना लेते व अपने देवी मादि परिवारकी संख्या विक्रिपाके द्वारा बढ़ा लेते हैं। वे अत्यन्त आशक्त हो जाते हैं तभी तृप्तिको न पाकर दुःखी ही रहते हैं। कहने का मतलब यह है विषयोंका सुख चक्रवर्ती आदिको भी तृप्त नहीं कर सका तो सामान्य मनुष्योंकी तो बात ही क्या है ! असलमें परमहित रूप आत्मीकसुम्व ही है। ऐसा जान इसी सुखके लिये निरंतर स्वानुभवका अम्यासे रखना योग्य है ॥७॥
उत्थाभिका-आगे कहते हैं कि पुण्यकर्म जीवोंमें विपयकी तृष्णाको पैदा कर देते हैं:जदि संति हि पुण्णाणिय परिणामसमुभवाणि
विविद्याणि जणति विमयताह जीवाणं देवदंताणं ॥८॥
यदि संति हि पुण्यानि च परिणामसमुद्भयानि विविधानि । जनयंत्ति विषयतृष्णा जीवानां देवतान्तानाम् || ७८ । सामान्यार्थ-यरि शुभ परिणामोंसे उत्पन्न नाना प्रक
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८८ ]
श्रीमवचनार भाषाटीका ।
रके पुण्यकर्म होते हैं तथापि वे स्वर्णवाले देवताओं तकके जीवोंके यकी तृष्णाको पढ़ा कर देते हैं।
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( नदि हि ) यद्यपि निश्चय करके ( परिणामसमुब्भवाणि) विकार रहित स्वसंवेदन भावसे क्षण शुभ परिणाम द्वारा पैदा होनेवाले (विविहाणि पुष्णाणि सति) अपने अनन्तमेव से नाना तरहके तथा पुण्य व पापसे रहित परमात्मासे विपरीत पुण्य कर्म होते हैं तथापि वे ( देवदताणं भीवाणं) देवता तत्रके नीवोंके भीतर (विसयत) विषयोंकी चाहको (जमयंति) पैदा कर देते हैं । भाव यह है कि ये. पुण्य कर्म. उन देवेन्द्र आदि बहिर्मुखी जीवोंके भीतर विषयकी तृष्णा बढ़ा
1
देते हैं । जिन्होंने देखे सुने, अनुभए भोगोंकी इच्छारूप निदान Test यादि लेकर नाना प्रकारके मनोरथरूप विकल्प जालोंसे रहित जो परमसमाधि उससे टत्पन्न जो सुखामृतरूप तथा सर्व आत्मकि प्रदेशों में परम पाल्हादको पैदा करनेवाली एक आकार स्वरूप परम समदती भावमई और विषयोंकी इच्छारूप अग्निये पैदा होनेवाली जो परमदाह उसको शांत करनेवाली ऐसो अपने स्वरूप में तृप्तिको नहीं प्राप्त किया है । तात्पर्य यह है कि जो ऐसी विषयोंकी तृष्णा न होवे तो गंदे रुधिरमें जोकोंकी आशक्तिकी तरह कौन विषयभोगों में प्रवृत्ति करै ? | और जब वे बहिर्मुखी जीव प्रवृत्ति करते देखे जाते हैं तब अवश्य यह मालूम होता है कि पुण्यकर्म ही तृष्णाको पैदा कर देनेसे दुःखके कारण हैं।
1
आषार्थ यहां आचार्यने पुण्यकर्मको व उसके कारण
A
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भापाटीका:! [२८९. शुभोपयोगको तथा उसके फक इंद्रिय सुखको त्यागन योग्य बताया है, मुख्यतासे संकेत पुण्य कर्मकी तरफ है । पुण्यकर्म शुभोपयोगके द्वारा नानामकार साता वेदनीय, शुमनाम, शुभगोत्र तथा शुभ आयुके रूपमें बंधनाता है जिसके फल मनोहर साता रूप बाहरी सामग्री, मनोहर शरीरका रूप, माननीय कुल तथा अपनेको रुचनेवाली आयु प्राप्त होती है। भोगभूमिके तिथंच तथा मनुष्य पुण्य कर्मसे ही होते हैं । कर्मभूमिमें बहुतसे पशु तथा मनुष्य साताकारी सामग्री प्राप्तकर लेते हैं। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा फल्पवासी देवकि भो पुण्यफलसे बहुत मनोज्ञ देह देवी आदि सामग्री होती है । सर्वसे अधिक साताकी सामग्री देवेन्द्र तथा चक्रवर्ती नारायण प्रति नारायण आदि पदवीधारियोंके होती है। इनमें जो जीव सम्यग्दृप्टी ज्ञानी होते हैं उनके परिणामों में ये सामग्री यद्यपि चारित्रकी अपेक्षा कषायके उदयसे राग पैदा करने में निमित्त होती है तथापि श्रद्धानकी अपेक्षा कुछ विकार नहीं करती है। परन्तु जो मिथ्यादृष्टी बहिरात्मा आत्मज्ञान रहित जीव होते हैं उनके परिणामों में बाहरी सामग्री उसी तरह विषयकी तृष्णाको बढ़ा देती है जिस तरह इधनको पाकर अग्नि अपने स्वरूपको बढ़ा देती है । अन्तरन्ग मोह रागद्वेपकी वृद्धि करनेमें बाहरी पदार्थ निमित्त कारण हैं । यह क्षेत्रादि बाहरी परिग्रह जन सम्यदृष्टियों के भीतर भी रागादि भावोंके लगानेमें निमित्त कारण है तब मिथ्याष्टियोंकी तो बात ही क्या फहनी-बड़े २ क्षायिक सम्यक्ती तीर्थकर भी इस बाहरी परिग्रहके निमित्तसे चीतराग परिणतिको पूर्णपने नहीं कर सके। यही कारण है जिससे वे गृह
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९०] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । वास त्याग परिग्रह भारको पटक निर्जन वनमें जाकर आत्मध्यान करते हैं । अंतरंग रागादि व मुर्छारूप परिग्रह भाबके लिये बाहरी क्षेत्रादि निमित्त कारणरूप नौकर्म हैं इसीसे उपचारसे क्षेत्रादिश्नो भी परिग्रहके नामसे कहाभाता है । अज्ञानी नीव पुण्यके उदयते चक्री होकर भी घोर उन्मत्त होकर घोर पाप बांध लेते हैं।
और सातवें नई तक चले जाते हैं। इसलिये मुख्यतासे ये पुण्य फर्म अज्ञानियों के भीतर विषयोंकी दाहको बहुत ही बसानेमें मबल निमित्त पड़ जाते हैं। जिस कारणले मनोज्ञ सामग्री रहते हुए भी वे अधिक अधिक सामग्रीकी चाहमें पड़कर उसके लिये आकुलित होते हैं यहांतक कि अन्याय प्रवृत्ति भी करलेते हैं । सम्यग्दृष्टी जीव बाहरी सामग्रीसे इतना नहीं भूलते जो वन्तु स्वसको न ध्यान रखें किन्तु वे भी कवायोंके उदयके प्रमाण रागो द्वेपो हो ही जाते हैं-चे मी प्रवृत्ति मार्गमें स्त्री, घन, एथ्यो आदिमें गग करलेते व उनकी वृद्धि व रक्षा अच्छी तरह करते है। इस तरह यह सिद्ध है कि पुण्य अंतरंग काही वाहको जगाने में प्रबल निमित्त सामने रख देते हैं, यदि ऐसा न हो तो कोई भी विषयमोगोंमें रति न करे । इसलिये ये पुण्यकर्म ही बार बढ़ाने के कारण होनाते हैं अतः अहणकरनेयोग्य नहीं है। तब जिप्त शुभ उपयोगसे पुण्यफमेशा बंध होता है वह भी उपादेयं नहीं है। उपादेय एक शुद्धोपयोग है जो कर्मका नाशक है, विपयदाहको शांतिकारक तथा निगानन्दका प्रवर्तक है इसलिये इसकी ही भावना निरन्तर कर्वष्य है, यह भाव है ॥ ७८ ॥
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
Wwwwwwww
श्रीप्रवचनसार भाषादीका। [२९१ जत्थानिका-आगे पुण्यकर्म दुःखके कारण हैं इसी ही पूर्वक भावको विशेष करके समर्थन करते हैं। ते पुण उदिण्णतण्हा, दुहिता ताहाहिं विलयसो
खाणि । इच्छंति अणुहति य आमरणं युक्खसंतता ॥९॥
ते पुनरुदीर्णतृष्णाः दाखितात्तृष्णाभिषियसौख्यानि । इच्छन्त्यनुभवन्ति च आमरणं दुःखसंतताः ॥ ७९ ॥
लामामार्थ-ये पुण्यशर्म भोगी फिर भी तृप्णाको बढ़ाए हुए चाहकी दाहोंसे घबड़ाए हुए इंद्रिय विषयके सुखोंको मरणपर्यंत दुःखसे जलते हुए चाहते रहते और भोगते रहते हैं।
अन्यप सहित पिशेपार्थ-(पुण) तथा फिर (३) वै सर्व संसारी नीव ( उदिण्णतण्हा ) स्वाभाविक शुद्ध आत्मामें तृप्तिको न पाकर तृष्णाको उठाए हुए (तण्हाहिं दुहिदा) स्वसंवेदनसे उत्पन्न नो पारमार्थिक सुख उसके अभावसे बनेक प्रकारकी तपणासे दुःखी होते हुए व ( आमरणं दुक्खसंवत्ता) मरणपर्यंत दुःखोंसे रातापित रहते हुए ( विषयसोक्खानि) विषयोंसे रहित परमात्माके सुखचे विलक्षण विषयके सुखोंको (इच्छंति) चाहते रहते हैं (अणुवंति य) और भोगते रहते हैं। यहां यह अर्थ है जिसे तृष्णाकी तीव्रतासे प्रेरित होकर नोक जंतु खराब रुधिरकी इच्छा करती है तथा उसको पीती है इस तरह करती हुई मरण पर्यंत दुःती रहती है अर्थात खराब रुधिर पीते-पीते उसका मरण हो जाता है परन्तु तृष्णा नहीं मिटती है . से अपने
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९२ ]
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
शुद्ध आत्मा अनुभवको न पानेवाले जीव भी जैसे मृग तृपातुर होकर वारवार भांडलीमें जल जान जाता है, परन्तु तृपा न बुझाकर दुःखी ही रहता है। इसी तरह विषयों को चाहते तथा अनुभव करते हुए मरणपर्यंत दुःखी रहते हैं । इससे यह सिद्ध हुआ कि तृष्णारूपी रोगको पैदा करनेके कारणसे पुण्यकर्म वास्तवमें दुःखके ही कारण हैं ।
भावार्थ - इस गाथा में फिर भी आचार्यने पहली यातको समर्थन किया है। संसार में मिथ्यादृष्टी जीवोंके तृष्णाको उत्पन्न करनेवाला तीव्र लोभका सदा ही उदय रहता है। जहां निमित्त वाहरी पदार्थोंका नहीं होता है वहां वह तीव्र लोभका उदय' बाहरी कार्यों द्वारा प्रगट नहीं होता है, परन्तु जहाँ निमित्त होता है व निमित्त मिलता जाता है वहां वह लोभ तृष्णा के नामसे प्रगट होता है । पुण्यकर्मके उदयसे जब बाहरी पदार्थ इंद्रियोंके विषयभोग योग्य प्राप्त हो जाते हैं तब वह लोभी जीव उनमें अतिशय तन्मय हो जाता है और उन सामग्रियोंकी स्थितिको चाहते हुए भी और अधिक विषयभोगोंकी चाह करलेता हैं, उस चाहके अनुसार पदा
के सम्भन्ध मिलानेके लिये अनेक प्रकार के यत्न करता है जिसके : लिये अनेक कष्टोंको सहता है । जब कदाचित् पुण्यके उदयसे इच्छित पदार्थ मिल जाते हैं तब उनको भोगकर क्षणिक सुख. 'मानलेता है परंतु फिरभी अधिक तृष्णा बढ़ा लेता है। उस बढ़ी हुई तृष्णा के अनुसार फिर भी नवीन सामग्रीका सम्बन्ध मिलानेका प्रयास करता है। यदि इच्छित पदार्थ नहीं मिलते हैं तो महा
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भापाटीका ।
[ २९३
दुःखी होता है, यदि कदाचित् मिलजाते हैं तो उनको भी भोगकर अधिक तृष्णाको बढ़ा लेता है । इस तरह यह संसारी जीव पिछले प्राप्त पदार्थोंकी रक्षा व नवीन विषयोंके संग्रह में रातदिन लगा रहता है। ऐसा ही उद्यम करते करते अपना जीवन एक दिन समाप्त कर देता है परंतु विषयों की दाहको कम नहीं करता हुआ उलटा बढ़ाता हुआ उसकी दाहसे जलता रहता है। यदि इष्ट पदार्थोंका सम्बन्ध छूट जाता है तो उसके वियोग में क्लेशित होता है । चीटियोंके भीतर तृष्णाका दृष्टांत अच्छी तरह दिखता है । वे रात दिन अनाजका बहुत बड़ा समूह एकत्र कर लेती हैं और इसी लोभके प्रकट कार्य में अपना जन्म शेष करदेती हैं। मिथ्यादृष्टी संसारी जीव विषयभोगको ही सुखका कारण, श्रद्धान करते व जानते हुए इस अज्ञान जनित मोहसे रातदिन व्याकुल रहते हुए जैसे एक जन्मकी यात्राको बिताते हैं वैसे अनन्त जन्मोंकी यात्राको समाप्त कर देते हैं । अभिप्राय यह है कि पुण्य कर्मोंक उदयसे भी सुख शांति प्राप्त नहीं होती है किन्तु वे भी संसार के दुःखोंके कारण पढ़ जाते हैं । ऐसा जान पुण्यके उदयको व उसके कारण शुभोदयोगको कभी भो उपादेय नहीं मानना चाहिये । एक आत्मीक आनन्दको ही हितकारी जानकर उसीके लिये नित्य साम्यभावकी भावना करनी योग्य है । टीकाकारने नो नक जंतुका दृष्टांत दिया है वह बहुत 1 उचित है । कारण वे खराब खुनकी इतनी प्यासी होती हैं कि जितना वे इस खुनको पीती हैं उतनी ही अधिक तृष्णाको बढ़ा लेती हैं और फिर २ उसीको पीती चली जाती हैं यहां तक कि खून विकार अपना असर करता है और वे मर जाती हैं । यही
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९४ श्रीभवचनसार भापाटीका । अवस्था संसारी प्राणियोंकी है कि वे विषयकी चाहमें जलते हुए मर जाते हैं । इसलिये पुण्य कर्मको दुःखका कारण जानकर उससे विराग भनना चाहिये ॥ ७९ ॥
उत्थानिका-मागे फिर भी पुण्यसे उत्पन्न जो इंद्रियमुख होता है उसको बहुत प्रकारसे दुःखरूप प्रकाश करते हैंसपरं बाधासहिद विच्छिपण पंधकारणं विसम। . जं इंदिएहिं लई त सोक्खं दुक्खमेव तथा ॥८॥
सपरं बाधासहित विच्छिन्नं बन्धकारणं विपमम् । ', यदिन्द्रियैर्लब्धं तत्सौख्यं दुःखमेव तथा ॥ ८० ॥
सामान्यार्थ-जो इंद्रियों के द्वारा मुख प्राप्त होता है वह पराधीन है, बाघा सहित है, नाश होनेवाला है, कर्मबंधका मौन है, आकुलता रूप है इसलिये यह सुख दुःख रूप ही है। .
अन्वय सहित विशेषार्थ:-(न) नो संसारीक सुख (इंदिएहि लई) पांचों इंद्रियों के द्वारा प्राप्त होता है (तं सोक्त) वह सुख (सपरं) परद्रव्यकी अपेक्षासे होता है इसलिये पराधीन है, जब कि पारमार्थिक सुख परद्रव्यकी अपेक्षान रखने से मात्माके माधीन स्वाधीन है। इद्रियसुख (वाधासहिद) तीव्र क्षुधा तृषा मादि अनेक रोगोंका सहकारी है, जबकि आत्मीकसुख सर्व बाधाओंसे रहित होनेसे अव्यावाध है । इंद्रिय सुख (विच्छिण्णं) साताका विरोधी मो असाता वेदनीयकर्म उसके उदय सहित होनेसे नाशवंत तथा अन्तर सहित होनेवाला है, जब कि अतीन्द्रिय सुखं मसाताके उदयके न होनेसे निरन्तर
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [२९५ सदा विना अन्तर पड़े ब नाशहुए रहनेवाला है। इंद्रिय सुख (बन्धकारण) देखे, सुने, अनुभवकियेहुए भोगोंकी इच्छाको पादि लेकर अनेक खोटे ध्यानके आधीन होनेसे भविप्यमें नरक आदिके दुःखोंको पैदा करनेवाले कर्मबन्धको बांधने. वाला है अर्थात् कर्मबंधका कारण है, जबकि अर्तीद्रिय सुख सर्वे अपध्यानोंसे शून्य होने के कारणसे बंधका कारण नहीं है । तथा (विसमं) यह इंद्रियसुख परम उपशम या शांतभावसे रहित तृप्तिकारी नहीं है अथवा हानि वृद्धिरूप होनेरो एकसा नहीं चलता किन्तु विप्सम है, जब कि अतींद्रिय मुख परम तृप्तिकारी
और हानि वृद्धिसे रहित है, (तघा दुक्खमेव ) इसलिये यह इंद्रिय मुख पांच विशेषण सहित होनेसे दुःखरूप ही है ऐसा अभिप्राय है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने इंद्रियजनित सुखको बिलकुल दुःखरूप ही सिद्ध किया है। वास्तवमें जिसका फल बुरा वह वस्तु वर्तमानमें अच्छी मालूम होनेपर भी कामकी नहीं है। यदि कोई फल खानेमें मीठा हो परन्तु रोग पैदा करनेवाला होव मरण देनेवाला हो तो वह फल अनिष्ट कहलाता है बुद्धिमान लोग ऐसे फलको कभी भी ग्रहण नहीं करते । यही बात इंद्रिय सुखके साथ सिद्ध होती है । इंद्रियोंके भोगसे जो स्पर्शके द्वारा, स्वादके द्वारा, सूंघने के द्वारा, देखने के द्वारा तथा सुननेके द्वारा सुख प्रगट , होता है वह सुख वास्तवमें सुख नहीं है किन्तु सुखसा मात होता है। वह तो असल दुःख ही है क्योंकि उसमें नीचे लिखे पांच दोष हैं। पहला-दोष यह है कि वह पराधीन है क्योंकि जबतक
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९६] श्रमिवचनसार भापाटीका । विषयोंको ग्रहण करनेवाली इंद्रिणं काम करने योग्य ठोक' न हों व जबतक इच्छित पदार्थ भोगनेमें न आवे तपतक इंद्रिय सुख पैदा नहीं होता है । यदि दोनोंमें एककी कमी होगी तो यह सुखाभास भी नहीं मासेगा किन्तु उल्टा दुःखरूप ही झलकेगा। बड़ी भारी पराधीनता इस सांसारिक सुखमें है। इंद्रिय ठीक होने, पर भी व चेतन व अचेतन पदार्थ रहने पर भी यदि पर पदार्थीका परिणमन या वर्तन भोगनेवालेके अनुकूल नहीं होता है तो यह सुख नहीं मिलता है । इप्ससे भी बड़ो भारी पराधीनता है । दूसरा दोष यह है कि यह वाधाओंसे पूर्ण है। जबतक चाहे हुए पदार्थ नहीं मिलते हैं तबतक उनके संयोग मिलाने के लिये बहुत ही कष्ट उठाना पड़ता है। यदि पदार्थ मिल जाते हैं और वे अपनी इच्छाके अनुसार नहीं वर्तन, करते हैं तो इस मोही जीवको बड़ा कष्ट होता है और कदाचित् वे नष्ट हो जाते हैं तो उनके थियो. गसे दुःख होता है इसलिये थे इंद्रियसुख बाधाओंसे पूर्ण हैं । तीसरा दोष यह है कि यह इंद्रियनित सुख नाश होजाता है क्योंकि यह माता वेदनीय कर्मफे आधीन है. जिसका उदय बहुत कालता नहीं रहता है । साताके पीछे असाताका उदय हो जाता है निपसे सांसारिक सुख नष्ट हो जाता है । अथवा अपनी शक्ति नष्ट हो जाती है व पदार्थ नष्ट हो जाता है अथवा इप्स इंद्रिय विषयको भोगते हए उपयोग उता जाता है। चौथा दोष यह है कि यह इंद्रियजनित सुख कर्मबन्धका कारण है , क्योंकि इस सुखके भोग तीव्र रागकी प्रवृत्ति होती है। जहां तीन विषयों का राग है वहां अवश्य अशुभ कर्मको बन्ध होता है।
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाका |
[ २९७.
पांचा दोष यह है कि इस इंद्रियसुखके भोग में समताभाव नहीं रहता है एक विषयको भोगते हुए दूसरे विषयकी कामना हो जाती है अथवा यह सुख एकसा नहीं रहता है - हानि वृद्धिरूप है । इस तरह इन पांचों दोपोंसे पूर्ण यह इंद्रियसुख त्यागने योग्य है । अनन्तकाल इस संसारी प्राणीको पांचों इन्द्रियोंको भोगते हुए बीता है परन्तु एक भी इन्द्री अभीतक तृप्त नहीं हुईं है । जैसे समुद्र कभी नदियोंसे तृप्त नहीं होता है वैसे कोई भी प्राणी विषयभोगों से तृप्त नहीं होता । इसलिये यह सुख वास्तवमें सुखदाई व शांतिकारक नहीं है। जबकि आत्माके स्वभाव के अनुभवसे जो अतींद्रियसुख पैदा होता है वह इन पांचों दोषोंसे रहित तथा उनके विरोधी गुणों से परिपूर्ण है । आत्मीक सुख स्वाधीन है क्योंकि वह अपने ही आत्माके द्वारा अनुभव में आता है उसमें पर वस्तुके ग्रहणकी जरूरत नहीं है किन्तु परवस्तुका त्याग होना ही इस सुखानुभवका कारण है । आत्मिक सुख सर्व वाघामसे रहित अव्यावाघ तथा निराकुल है । इस सुखको भोगते हुए न आत्मा में कोई कष्ट होता है न शरीरमें कोई रोग होता है । उल्टा इसके इस सुखके भोग से मात्मा और शरीर दोनोंमें पुष्टि याती है, आत्माका अन्तरायकर्म हटता है जिससे आत्मबीर्य बढ़ता है । परिणामोंमें शांति शरीर रक्षक जब कि अशांति शरीर नाशक है। यह प्रसिद्ध है कि चिंता चिता समान, क्रोध दावाग्नि समान शरीर के रुधिरादिको जला देते हैं। इससे स्वरूप के अनुभवसे शरीर स्वास्थ्ययुक्त रहता है । आत्मीकसुख कर्मबन्धका कारण न होकर कर्मबन्धके नाशका बीज है, क्योंकि आत्मानुभव में जो वीतरागता
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९४] श्रीभवचनसार भाषाटीका । होती है वही कर्मोंकी सत्ताको मात्मा से हटाती है । अर्तीद्रिय सुख आत्माका स्वभाव है इसलिये अविनाशी हैं । यधपि स्वानुभवी छमस्थ जीवोंके धारावाही आत्मसुख नहीं स्वादमें आतr तथापि वह स्वाधीन होनेसे नाशरहित है। धारावाही स्वाद ना' आनेमें बाधक कषाय है | सुखका स्वरूप नाशरूप नहीं है। तथा मात्मिसुख समता रूप है। जितनी समता होगी उतना ही इस सुखका स्वाद भावेगा। इस सुखके भोगमें भाकुलता. नहीं है न यह अपनी जातिको बदलता है। यह सुख तो परमतृप्ति तथा संतोषको देनेवाला है। ऐसा नान भात्मजन्य सुखको ही मुख जानना चाहिये और इंद्रिय सुखको बिलकुल दुःख रूप ही मानना चाहिये । इससे यह सिद्ध किया गया है कि जिप्त पुण्यके उदयसे इंद्रिय मुख होता है उस पुण्यका कारण जो शुभोपयोग है वह भी हेय है। एक साम्यभावरूप शुद्धोपयोग ही ग्रहण करने योग्य है।
इस तरह जीवके भीतर तृष्णा पैदा करनेका निमित्त होनेसे' यह पुण्यकर्म दुःखके कारण हैं ऐसा कहते हुए दूमरे स्थलमें चार गाथाएं पूर्ण हुई ॥ ८॥
उत्थानिका-आगे निश्चयसे पुण्य पापमें कोई विशेष नहीं है ऐसा कहकर फिर इसी व्याख्यानको संकोचते हैंगहि मण्णदि जो एवं, पत्थि विसेसोत्ति पुण्णपावाणं हिंडदि घोरमवारं, ससारं मोहसंछण्णो ।। ८१ ॥ ..
न हि मन्यते य एवं नास्ति विशेष इति पुण्यपाप्योः। हिण्डति घोरमपार संसारं मोहसंच्छन्नः ॥ ८१ ॥.
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwwwwwwwww
श्रीमवचनसार भाषाटीका। [२९९ सामान्यार्थ-पुण्य और पापकर्ममें भेद नहीं है ऐसा नो निश्चयसे नहीं मानता है वह मोहफर्मसे ढका हुभा भयानक और अपार संसारमें भ्रमण करता है।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(पुण्णपाचाणं णस्थि विसेसोत्ति) पुण्य पापकर्ममें निश्चयसे भेद नहीं है (जो एवं गहि मण्णदि ) जो कोई इस तरह नहीं मानता है (मोहसंछण्णो) वह मोहकर्मसे माच्छादित जीव (घोरं अवारं संसारं हिंडदि) भयानक
और अभव्यकी अपेक्षासे अपार संसारमें भ्रमण करता है। मतलब यह है कि द्रव्य पुण्य और द्रव्य पापमें व्यवहार नयसे भेद है, भाव पुण्य और भाव पापमें तथा पुण्य पापके फल रूप सुख दुःखमें अशुद्ध निश्शयनयसे भेद है। परंतु शुद्ध निश्चयनयसे ये द्रव्य पुण्य पापादिक सब शुद्ध आत्माके स्वभावसे भिन्न हैं इसलिये इन पुण्य पापोंमें कोई भेद नहीं है। इस तरह शुद्ध निश्चयनयसे पुण्य व पापकी एकताको जो कोई नहीं मानता है वह इन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, कामदेव आदिके पदोंके निमित्त निदान बन्धसे पुण्यको चाहता हुमा मोह रहित शुद्ध आत्मतत्त्वसे विपरीत दर्शनमोह तथा चारित्र मोहसे ढका हुआ सोने और लोहेकी दो वेड़ियों के समान पुण्य पाप दोनोंसे बंधा हुआ संसार रहित शुद्धात्मासे विपरीत संसारमें भ्रमण करता है।
भावार्थ-यहां भाचार्यने शुद्ध निश्चयनयको प्रधानकर यह बतादिया है कि पुण्य और पापकर्ममें कोई भेद नहीं है। दोनों दी बंघरूप हैं, पुद्गलमय है, मात्माके स्वभावसे भिन्न हैं। मात्माका स्वभाव निश्चयसे शुद्ध दर्शन ज्ञान स्वरूप परम समता
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
www
३००] श्रीमवचनसार भापाटीका। भावमई है । कषायकी कालिमासे रहित है । शुभोपयोग । यद्यपि व्यवहारमें शुभ कहा जाता है परन्तु वह एक कषायसे रंगा हुआ ही भाव है । पशुभोपयोग जब तीव्र कपायसे रंगा हुमा भाव है तब शुभोपयोग मंद कषायसे रंगा हुमा भाव है। कषाय की अपेक्षा दोनों ही अशुद्धभाव हैं इसलिये दोनों ही एक रूप अशुद्ध हैं। इस ही तरहसे इन शुभ तथा अशुभ भावोंसे बंधा हुआ सातावदेनीयादि द्रव्य पुण्य तथा असाता वेदनीय आदि द्रव्य पाप भो यद्यपि सुवर्ण वेड़ी और लोहेकी वेडीके समान व्यवहार नयसे भिन्न र हैं तथापि पुद्गल कर्मकी अपेक्षा दोनों ही समान हैं। ऐसे ही पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त सांसारिक सुख तथा तथा पाप कर्मके उदयसे प्राप्त सांसारिक दुःख यद्यपि साता अमातारी अपेक्षा भिन्न २ हैं तथापि निश्चयसे आत्माके स्वाभाविक मानन्दसे विपरीत होने के कारण समान हैं । आत्माके शुद्धोपयोगको, उनकी अबंध अवस्थाको तथा अतींद्रिय आनन्दवो जो पहचानकर उपादेय मानते हैं वे ही संसारसे पार होनाते हैं, परन्तु जो ऐमा नहीं मानते हैं वे मिथ्यात्वकर्मसे अज्ञानी रहते हुए शुभोपयोग, पुण्यकर्म तथा सांसारिक सुखोंको उपादेय और अशुभापयोग, पापकर्म तथा दुःखोंको हेय जानते हुए रागद्वेष भावोंमें परिणमन करते हुए इस भयानक संसारवनमें अनन्तकाल तक भटकते रहते हैं। उन नीवोंको पांच इंद्रिपमई सुख ही सुख भासता है, जिसके लिये वे तृषातुर रहते हैं और उस सुखकी प्राप्ति वाहरी पदार्थोके संयोगसे होगी ऐसा जानकर चक्रवर्ती व इन्द्र तकके ऐश्वर्यकी कामना किया करते हैं। इस निदानमावसे
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भापार्टीका। [३०१ वे द्रव्यलिंग धारकर मुनि धर्म भी पालते हैं तथापि प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही ठहरे हुए अनन्त संसारके कारण होते हैं। यहां भाचार्य के कहनेका तात्पर्य यह है कि इन अशुद्ध भावोंसे तथा पुण्य पापकर्मोसे मात्माको साम्यभावकी प्राप्ति नहीं हो सती है । अतएव इन सबसे मोह त्याग निज शुद्धोपयोग याः साम्यभावमें भावना करनी योग्य है जिससे यह आत्मा अपने निज स्वभावका विकास करनेवाला हो जावे ॥ ८१॥
उत्थानिका-इस तरह ज्ञानी जीव शुभ तथा अशुभ उपयोगको समान जानकर शुद्धात्म तत्वका निश्चय करता हुआ संसारके दुःखोंके क्षयके लिये शुद्धोपयोगके साधनको स्वीकार करता है ऐसा कहते हैं:एवं विदिदत्थो जो दव्वेस्ट ण रागमेदि दोसं वा। उपओगाविसुन्धो सो, खवेदि देशुम्भव दुःखं ॥८॥
एवं विदित्वार्थो यो द्रव्येषु न रागमेति द्वेपं वा । उपयोगविशुद्धः स क्षपयति देहोद्भवं दुःख ॥ ८२ ॥
सामान्यार्थ-इस तरह पदार्थोके स्वरूपको जाननेवाला जो कोई पर द्रव्यमें राग या द्वेष नहीं करता है वह शुद्ध उपयोगको रखता हुआ शरीरसे उत्पन्न होनेवाले दुःखका नाश करदेता है।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(एवं विदिदत्यो जो) इस तरह चिदानन्दमई एक स्वभावरूप परमात्म तत्वको उपादेय तथा इसके सिदाय अन्य सर्वको हेय जान करके हेयोपादेयके यथार्थ ज्ञानसे तत्त्व स्वरूपका ज्ञाता होकर जो कोई (दव्येसु ण रागमेदि दोसं वा) अपने शुद्ध आत्मद्रव्यसे अन्य शुभ तथा अशुभ सर्व
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२] श्रामवचनसार भाषाटीका । द्रव्योंमें राग द्वेप नहीं करता है। (सो उपओगविसुद्धो ) वह रागादिसे रहित शुद्धात्माके अनुभवमई लक्षणके घारी शुद्धोपयोगसे विशुद्ध होता हुमा (देहुन्भवं दुःख खवेदि) देहके संयोगसे उत्पन्न दुःखको नाश करता है । अर्थात् यह शरीर गर्मलोहे के पिंड समान' है। उससे उत्पन्न दुःखको जो निराकुलता लक्षणके धारी निश्चय सुखसे विलक्षण है और बड़ी भारी आकुलताको पैदा करनेवाला है, वह ज्ञानी आत्मा लोहपिंडसे रहित अग्निके समान अनेक 'वोटोका स्थान जो शरीर उससे रहित होता हुआ नाश कर देता है यह अभिप्राय है।
भावार्थ-यहां आचार्यने संसारके सर्प दुःखोंके नाशका उपाय एक शुद्ध गात्मीकभाव है ऐमा प्रगट किया है। तथा" बताया है कि जैसे गर्म लोहेकी संगतिमें अग्नि नाना प्रकारले पीटे 'जाने की चोटको सहती है उस ही तरह यह मोही नीव शरीरकी संगतिसे नाना प्रकार के दुःखोंको सहता है। परन्तु जिसने इस देहको व उसके आश्रित पांचों इंद्रियोंको व उन इंद्रिय सम्बंधी पदार्थीको तथा उनसे होनेवाले सुखको आकुलताका कारण, संसारका बोज तथा त्यागने योग्य निश्चय किया है और देह रहित आत्मा तथा उसकी वीतरागता और अतींद्रिय आनन्दको ग्रहण करने 'योग्य जाना है वही पदार्थोंके स्वरूपको यथार्थ जाननेवाला है। ऐसा तत्वज्ञानी जीव निज आत्माके सिवाय सर्व पर द्रव्योंमें राग या द्वेष नहीं करता है किन्तु उनको उनके स्वभावरूप समताभावसे जानता है वह निर्मल शुद्ध भावका धारी होता हुआ शुद्धोपयोगमें लीन रहता है। और इस पारमध्यानको
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
mmmmmmunita
अभिवचनसार भाषाटीका। [३०३ अग्निसे उन सर्व कर्मोको ही भिन्न कर देता है जो संसारके दुःखोंके बीज हैं। तात्पर्य यह है कि संसारकी पराधीनतासे मुक्त होकर स्वाधीन होने के लिये यही उपाय श्रेष्ठ है कि निज शुद्ध मात्मामें ही शृद्धान, ज्ञान तथा चा प्राप्त की जावे । लोहर्षि- . डसे रहित अग्नि जैसे स्वाधीनतासे भलती हुई काष्ठको जला देवी है वैसे आत्माका शुद्ध उपयोग रागद्वेषसे रहित होता हुआ भाठकर्मके काठको जला देता है और निजानंदके समुद्र में मग्न होकर निज स्वाभाविक स्वाधीनताको प्राप्त कर लेता है । अतएक शुभ अशुभसे रागद्वेष छोड़ दोनोंको ही समान जानकर एक शुद्धोपयोगमई साम्यभावमें ही रमणता करनी योग्य है ॥८२||
इस तरह संक्षेप करते हुए तीसरे स्थझमें दो गाथाएं पूर्ण हुई। ऊपर लिखित प्रम ण शुभ तथा अशुभफी मूढ़ताको दूर कर
के लिये दश गाथाओं तक तीन स्थलोंके समुदायसे पहली ज्ञानकंठिका पूर्ण हुई।
अस्थानिका-भागे पूर्व सुत्रमें यह कह चुके हैं कि शुभ तथा पशुभ उश्योगसे रहित शुद्ध उपयोगसे मोदा होती है। पत्र यहां दूसरी ज्ञानकरिकाके व्याख्यानके प्रारंभमें शुद्धोपयोगके अभावमें यह भारमा शुद्ध आत्मीक स्वभावको नहीं प्राप्त करता है ऐसा कहते हुए उसही पहले प्रयोजनको व्यतिरेकपनेसे दृढ़ करते हैंचन्ता पाचारंभ सहिदो या सुहम्मि परियम्मि । ण जहदि कादि मोहादी, ण लहदि सो अप्पगं सुई।।
त्यक्त्वा पापारंमं समुत्यितो वा शुभे चरिने । न जचि यदि मोहादीन्न लभते स आत्मक शुद्धं ॥ ८३ ॥
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०४] - श्रीभवचनसार भापारीका। • सामान्यार्थ-पापके पारंमको छोड़कर वा शुभ चारित्रमें वर्तन करता हुआ यदि कोई मोह मादि भावोंको नहीं छोड़ता है तो वह शुद्ध आत्माको नहीं पाता है। ____ अन्वय सहित विशेषार्थ:-( पावारंमं चत्ता) पहले गृहमें बास करना मादि पापके आरंभको छोड़कर (वा सुम्मि चरियम्मि समुद्विदो ) तथा शुभ चारित्रमें भलेप्रकार आचरण करता हुमा (जदि मोहादी ण जहदि ) यदि कोई मोह, रागद्वेष भावोंगे नहीं त्यागता है (सो अप्पगं सुद्धं ण लहदि) सो शुद्ध आत्माफो नहीं पाता है। इसका विस्तार यह है कि कोई भी मोक्षका अर्थी पुरुष परम उपेक्षा या वैराग्यके लक्षणको रखनेवाले परम सामायिक करनेकी पूर्वमें प्रतिज्ञा करके पीछे विषयों के सुखके साधक को शुभोपयोगकी परिणतिये हैं उनसे परिणमन करके अंतरंगमें मोही होकर यदि निर्विकल्प समाधि लक्षणमई पूर्वमें कहे हुए सामायिक चारित्रका प्रभाव होते हुए मोहरहित शुद्ध मात्मतत्वके विरोधी मोह भादिकोंको नहीं छोड़ता है तो वह जिन या सिद्धके समान अपने आत्मस्वरूपको नहीं पाता है।
भावार्थ-यहाँ आचार्थने यह बताया है कि परम सामायिक भाव ही आत्माकी शुद्धिका कारण है। जो कोई घरसे उदास होकर मुनिकी दीक्षा धारण करले और सब गृह सम्वन्धी पापके व्यापारोंको छोड़दे तथा साधुके पालने योग्य २८ मूलगु. णोंलो भली भांति पालन करे अर्थात् व्यवहार चारित्रमें वर्तन
करने लग जावे परन्तु अपने अंतरंगसे संसार सन्बन्धी मोहको • व विषयोंकी इच्छाको नहीं त्यागे तो वह शुद्ध उपयोगमई
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
www
श्रीभवचनसार भाषाटीका। [३०६ सामायिक भावको नहीं पाता हुआ न शुद्ध भात्माका अनुभव कर सक्का है और न कभी अपनेको शुद्ध कर परमात्मा हो सका है। कारण यही है कि उसके भीतर मोक्ष साधक रत्नत्रयका अभाव है। जो भव्य जीप सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिसे केवल शुद्ध आल्माका व उससे उत्पन्न वीतराग परिणति तथा अतींद्रिय सुखका प्रेमी हो जाता है और संसारके जन्ममरणमय प्रपंचजालसे व विषयभो. गोंसे मोह व रागद्वेष छोड़ देता है तथा इसी लिये इन्द्र, चक्रवर्ती, नारायण आदिके पदोंकी अभिलाषा नहीं रखता है वही जीव अपने शुद्ध आत्मीक सभावके सिवाय अन्य भावोंको व पदार्थों को नहीं चाहता हुआ तथा केपल मात्मीक अनुभवका स्वादी होता हुआ गृहवासको आकुलताका कारण मानकर त्याग देता है तथा मुनिमवस्थाको निश्चय शुद्धात्मामें रमणरूप चारित्रका निमित्त कारण जानकर धारण कर लेता है और व्यवहार चारित्रमें मोही न होता हुआ उसे गालते हुए निर्विकल्प समाधिरूप परम सामायिक भावमें तिष्ठता है । तथा इसी शुद्धभावना निरन्तर अभ्याप रखता है वही गात्मा पूर्ववद्ध कोशी निर्जरा करता हुआ एक दिन मिन केवली भगवान और फिर सिद्ध परमात्मा हो जाता है । परन्तु यदि कोई मुनि होकर भी वीतराग भावको छोड़कर मोही या रागी देषी हो जाता है तो वह आत्मा शुद्धोपयोगको न पाकर केवल शुभोपयोगर्म वर्तन करता हुआ कभी भी शुद्ध
आत्माको नहीं पाता है। :ल्टा वह नीव शुभोपयोगके फलसे पुण्य बांध विषयोंकी सामग्रीमें उलझकर संसारके चक्रमें भ्रमण किया करता है । श्री अमृनचंद्र आचार्यले समयसार कलशोंमें कहा मी है
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
· ३.०६ ].
'श्रीप्रवचनसार भापाटीका |
-- वृत्तं ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं सदा । एकद्रव्यस्वभावत्वान्मोक्ष हेतुस्तदेव तत् ॥ - ॥ ^ HTTE है कि ज्ञानस्वभावसे वर्तन करना ही सदा ज्ञानरूप. रहना है। क्योंकि ज्ञान स्वरूपमें वर्तन करना आत्म द्रव्यका स्वभाव है इसलिये यही मोक्षका कारण है । वास्तव में शुभोपयोग मोक्षका कारण नहीं है । मोक्षका कारण शुद्धोपयोग है । अतएव सर्व विकल्प छोडकर एक शुद्ध आत्माका ही अनुभव करना समानुभवके द्वारा यह जीव शुद्ध स्वभावको प्राप्त चर लेता है ॥ ८३ ॥
उत्थानका - भागे शुद्धोपयोग के अभाव में जिस तरह के for a fire सरूपको यह भी नहीं प्राप्त करता है, उसको कहते हैं
सबसंजयमको सुही सज्मापचरणम फो दो देवो सो यत्॥८
तपयमप्रभिद्धः शुद्धः स्वर्गापवर्गमार्गकरः । अमरासुरेन्द्रस्तिो देवः को लोकशिवरस्थः ॥ ८४ ॥
सामान्यार्थ - वह देव तप सबसे सिन्ह हुआ है, ड, है, म्वर्ग व मोक्षका मार्ग प्रदर्शक है, इन्द्रोंसे पुञ्पनी तथा लोक fuerue विराजित है ।
अन्य सहित विशेषार्थ :- ( मो देवो ) वह देव (तव संगमसिद्धो ) सर्व रागादि परभावोंकी इच्छा के त्यागरू अपने स्वरूप में मान होना ऐसा जो तप तथा बाहरी इंद्रिय
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [३०७ संयम और प्राण संयमके चलते अपने । शुखाल्मामें रिथर होकर समतारसके भावसे परिणमना नो संयम इन दोनोंसे सिद्ध हुआ है, '(सुनो) क्षुधा आदि बारह दोषोंसे रहित शुद्ध वीतराग है, ( सग्यापनगमगकरो ) स्वर्ग तथा केवलज्ञान आदि अनंत चतुष्टय लक्षणरूप मोक्ष इन दोनों के मार्गका उपदेश करनेवाला है, ( अमरालरिंदमहिदो ) उस ही पदके इच्छुक स्वर्गके व भवनात्रकके इन्द्रों द्वारा पूज्यनीक है, तण (लोयसिहरत्थो) लोकके मन शिपरपर विराजित है ऐमा जिन सिद्धका स्वरूप जानना योग्य है।
भावार्थ-यहां आचार्य बताया है कि यह शुद्धोपयोगका ही प्रताप है जिसके बलसें श्री जिा सिह परमात्माका स्वरूप प्राप्त होता है | श्री सिद्ध परमात्मा वारतपमें कोई भिन्न पदार्थ नहीं है । यही संसारी आत्मा अब निश्चयतप व निश्चय संयममें उपयुक्त होकर अभ्यास करता है तब आप ही कोंके जावरणसे रहित हो अपनी शक्तिको प्रगट कर देता है। सर्प पर पदार्थोकी इच्छाओंको त्यागकर निज शुद स्वरूपमें लीन होकर ध्यानकी अग्निको जलाना तप है। तथा सर्व इंद्रियों विषयों को रोककर व मुनिके चारित्र द्वारा पृथ्वीकाविणादि छः पायक प्राणियोंका रक्षक होकर शुद्धात्मामें टंटे रहना तथा साम्यभाव परिणमना रागद्वेष न करना सो संगम है। इन तप संयमों के द्वारा ही रागद्वेषादि भाव मल व ज्ञानाचरणादि द्रव्य यक कट जाता है और यह बात्मा शुद्ध बीतराग निन हो जाता है। तब, मरहंत अवस्थामें (वर्ग व मोक्षका कारण जो रत्नत्रय धर्म है उसे
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०८] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। उपदेश करता है तथा भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा कल्प. वासी देवोंके इन्द्र जिनको किसी सांसारिक भावसे नहीं किन्तु उसी शुद्ध पदकी भावना करके पूजते हैं तथा जब अधातिया कोका भी अभाव हो जाता है तब वह देव शरीर त्याग उई. गमन स्वभावसे ऊपर जाकर लोकाकाशके अंत ठहर जाते हैं तब उनको सिद्ध परमात्मा कहते हैं । सिद्ध अवस्थामें यह परमात्मा निरंतर स्वानुभूतिमें रमण करते रहते हैं। वहां न कोई चिन्ता है,न आकुलता है, न बाधा है । जिन आत्माओंके भीतर संसारकी वासनासे राग है वे शुभोपयोगमें ही रहते हुए संसारके ऊंच नीच पदोंमें भ्रमण किया करते हैं उनको आत्माका शुद्ध अविनाशी सिद्ध पद कभी प्राप्त नहीं होता है। इसलिये तात्पर्य यह है कि इसी शुद्ध पदके लिये शुद्धोपयोगकी भावना करनी चाहिये । श्री समयसार कलशोंमें श्री अमृतचंद्राचार्यनीने कहा है। पदमिद ननु कर्मदुरासदं सहजयोधकला मुलभं किल । तत इदं निजबोधकलावलात्कलयितुं यततां सततं जगत् ॥१॥ ____ भाव यह है कि यह शुद्ध पद शुभ कर्मोके द्वारा प्राप्त नहीं हो सका। यह पद स्वाभाविक ज्ञानकी फला द्वारा ही सहनमें मिलता है इसलिये जगतके जीवोंको आत्मज्ञानकी कलाके बलसे इस पदके लिये सदा यतन करना चाहिये ॥ ८४ ॥
त्यानिका-आगे सूचना करते हैं कि जो कोई इस अंकार निर्दोष परमात्माको मानते हैं, अपनी श्रद्धामें लाते हैं.
ही अविनाशी आत्मीक सुखको पाते हैं
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
marwimmam
श्रीमवचनसार भाषाटीका। [३०९ तं देवदेवदेवं जदिवरवसह गुरुं तिलोयल्स । पणमति जे मणुस्सा, ते सोक्ख अक्खयं ति।। ८५
तं देवदेवदेवं यतिवरवृपभं गुरुं त्रिलोकस्य । प्रणमति ये मनुष्याः ते सौक्य अक्षयं यान्ति ॥ ८५ ॥
सामान्यार्थ-जो मनुष्य उस इंद्रोंके देव महादेवको जो सर्व साधुओंमें श्रेष्ठ है व तीन लोकशा गुरु है प्रणाम करते हैं वे ही अक्षय सुखको पाते हैं। ____ अन्वय सहित विशेषार्थ-(जे मणुस्सा ) जो कोई भव्य मनुष्य आदिक (ते देवदेवदेवं ) उस महादेवको नो देवोंकि देव सौधर्म इन्द्र मादिक भी देव है अर्थात उनके द्वारा आराधनाके योग्य है, (नदिवरवसह) इंद्रियोंके विषयोंको जीतकर अपने शुद्ध आत्मामें यत्न करनेवाले यतियोंमें श्रेष्ठ जो गणधरादिक उनमें भी प्रधान है, तथा (विलोयस्स गुरुं) मनन्तज्ञान भादि महान गुणोंके द्वारा जो तीनलोकका भी गुरु है (पणमंति) द्रव्य और भाव नमस्कारके द्वारा प्रणाम करते हैं तथा पूजते हैं व उसका ध्यान करते हैं (ते) वे उसकी सेवाके फलसे (अक्खयं सोक्ख जति) परम्परा करके भविनाशी अतीन्द्रिय सुखको पाते हैं ऐमा सूत्रका अर्थ है।
भावार्थ-यहां आचार्यने उपासकके लिये यह शिक्षा दी है कि जो जैसा भावे सो वैसा होना । अविनाशी अनंत अर्तीद्रिय सुखका निरंतर लाम आत्माकी शुद्ध अवस्थामें होता है। उस अवस्थाकी प्राप्तिका उपाय यद्यपि साक्षात् शुद्धोपयोगमें तन्मय होकर निर्विकल्प समाधिमें वर्तन करना है तथापि परम्परायसे
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१०] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
mmmmmmmmmmmmmmmmmmm उसका उपाय अरहंत और सिह परमात्मामें श्रद्धा जमाकर उनको नमस्कार करना, पूजन करना, स्तुति करना आदिहे । यहां गाथामें पूज्यनीय परमात्माके तीन विशेषण देकर यह बतलाया है कि वह परमात्मा उत्कृष्ट देव हैं। जिनको भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिपी व कल्पवासी देव नमन करते हैं ऐसे इन्द्र के भी जिनकी सेवा करते हैं इसलिये वे ही सम्चे महादेव हैं। जो मोक्षाफे लिये साधु पद धार यतन करे उराको यति कहते हैं उनमें बड़े श्री गणधर देव हैं। उनसे भी बड़े श्री परमात्मा हैं। इस विशेषणसे यह बतलाया है कि ये परमात्मा केवल इन्द्रोंसे ही आराधने योग्य नहीं हैं किन्तु उनकी भक्ति श्री गणवर मादिः परम . ऋपि भी करते हैं। तीसरे विशेषणसे यह बताया है कि उनमें ही तीन लोकके प्राणियोंकी अपेक्षा गुरुपना है क्योंकि जब तीन लोकके संसारी नीव अल्पज्ञानी व मंद या तीव्र कपाययुक्त हैं तथा जन्ममरण सहित हैं तब वह परमात्मा अनंतनानी, वीतरागी तथा जन्ममरपादि दोष रहित हैं। प्रयोजन यह है कि आत्मार्थी पुरुषको अन्य संसारी रागी द्वेषी देवोंकी आराधना त्यागकर ऐसे ही भरहंत व सिद्ध परमात्माका आराधन करना योग्य है ॥८॥
उत्थानिका-आगे "वत्तापावारम्म " इत्यादिसूत्रसे को कहा जा चुका है कि शुद्धोपयोगके विना मोह मादिका नाश नहीं होता है और मोहादिक नाशके विना शुद्धात्माका लाभ नहीं होता है उप्त ही शुद्धात्माके लाभके लिये अब उपाय बताते हैंजो जाणदि अरहतं, दत्तगुणतपज्जयत्तेहिं । . सो जाणादि अप्पाणं, मोहो खलु जादितस्स ल्य८६
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
यो जानात्यन्तं द्रव्यत्वगुणत्त्वपर्ययत्त्वैः ।
स जानात्यात्मानं मोहः खलु याति तस्य लक्ष्म् ॥ ८६ ॥ सामान्यार्थ - जो श्री अरहंत भगवानको द्रव्यपने, गुणपने व पर्यायपने की अपेक्षा जानता है सो ही आत्माको जानता है । उसी होका मोह निश्चयसे नाशको प्राप्त हो जाता है ।
अन्वय सहित विशेषार्थ - (नो) जो कोई (अरहंतं) अरहंत भगवानको ( दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं ) द्रव्यपने, गुणपने, aur aaurat अपेक्षा ( जाणदि ) जानता है (सो) वह पुरुष (अप्पाणं जाणदि) अर्हत ज्ञानके पीछे अपने आत्मा को जानता है । तिस आत्मज्ञानके प्रतापसे ( तस्स मोहो) उस पुरुषका दर्शन मोह ( खलु लवं जादि ) निश्चयसे क्षय हो जाता है । इसका विस्तार यह है कि अर्हत आत्माके केवलज्ञान आदि विशेषगुण हैं | यस्त्वि आदि सामान्य गुण हैं । परम औशरिफ शरीरफे आकार जो आत्मा प्रदेशोंका होना सो व्यंजन पर्याय है। बगुरु लघुगुण द्वारा छःभकर वृद्धि हानिरूपसे वर्तन करनेवाले अर्थ पर्याय हैं । इस तरह लक्षणधारी गुण और पर्यायों के आधाररूप, अनूर्तीक, असंख्यात प्रदेशी, शुद्ध चैतन्यमई अन्वयरूप अर्थात् नित्यस्वरूप अरहंत द्रव्य है । इस तरह द्रव्य गुण पर्याय स्वरूप अरहंत परमात्माको पहले नान कर फिर निश्रयनवसे उसी द्रव्यगुण पर्यायको आगमका सारभूत जो अध्यात्मभाषा है उसके द्वारा अपने शुद्ध आत्माकी भावनाके सन्मुख होकेर अर्थात् विकल्प सहित स्वसंवेदन ज्ञानमें परिणमन करते हुए तैसे ही आगमकी भाषासे अधःकरण, अपूर्व
[ ३११
1
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१२ ]
श्रीप्रवचनसार भापाटीका ।
करण, अनिवृत्तिकरण नामके परिणामविशेषोंके चलसे जो विशेष भाव दर्शनमोहके क्षय करने में समर्थ हैं अपने आत्मामें जोड़ता है ! 'उसके पीछे जब निर्विकल्प स्वरूपकी प्राप्ति होती है तब जैसे पर्याय रूपसे मोती के दाने, गुणरूपसे सफेदी आदि अभेद नयसे एक हार रूप ही मालूम होते हैं तैसे पूर्वमें कहे हुए द्रव्यगुण पर्याय अभेद नयसे आत्मा ही हैं इस तरह भावना करते करते दर्शनमोहका अंधकार नष्ट होजाता है।
भावार्थ - यहां आचार्यने बतलाया है कि जो कोई चतुर पुरुष अरहंत भगवानकी यात्माको पहचानता है वह अवश्य अपने आमाको जानता है । क्योंकि निश्चयनवसे अरहंतकी आत्मा और अपनी आत्मा समान हैं। उसके जानने की रीति यह है कि पहले यह मनन करे | जैसे अरहंत भगवान में सामान्य व विशेष गुण हैं वैसे ही गुण मेरे मात्मामें हैं जैसे अर्थ पर्याय और व्यंजन पर्याय महंत भगवान में हैं वैसे अर्थ पर्याय और अपने शरीरके आकार आत्माके प्रदेशका बर्तन रूप व्यंजन पर्याय मेरे आत्मामें हैं । जैसे अरहंत अपने गुण पर्शयोंके आाधाररूप असंख्यात प्रदेशी अमूर्ती अविनाशी अखंड द्रव्य हैं वैसे मैं चैतन्यमई अखंड द्रव्य हूं। अपने भावों में इस तरह पुनः
स्वरूपमें थिर
पुनः विचार करते हुए अपने भाव यकायक अपने होजाते हैं । अर्थात् विचारके समय सविकल्प स्वसंवेदन ज्ञान होता है, थिरताके समय निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान होजाता है । इस तरह वारवार अम्यास किये जानेसे परिणामोंकी विशुद्धता बढ़ती है। इस विशुद्धताकी वृद्धिको आगम में कारणरूप परिणा
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीभवचनसार भाषाटीका। [१३ मोंकी प्राप्ति कहते हैं जिनके लाभके विना दर्शन मोहनीय कर्मका कभी क्षय नहीं होता है । इस तरह मात्मज्ञान के प्रतापसे मोहका क्षय होजाता है । मोहके उपशम होनेका भी यही प्रकार है। जब मोहका उपशम होता है तब उपशम सम्यक्त और जब मोहका नाश होता है तब क्षायिक सम्यक्त उत्पन्न होता है । अनुभव दो तरहका है एक भेदरूप दुसरा अभेदरूप । इस हारमें इतने मोती हैं इनकी ऐसी सफेदी है व ऐसी मामा है ऐसा अनुभव भेद रूप है। भव कि एक हार मात्रका विना विकल्पके अनुभव करना अभेदरूप है । तैसे ही आत्माके गुण ऐसे हैं उसमें पर्याय ऐसी हैं इस तरह भेदरूप अनुभव है और गुण पर्यायों का विकल्प न करके एकाकार अभेदरूप आत्मद्रव्यके सन्मुख होकर लय होना अभेदरूप अनुभव है। यहां का कर्म, ध्याता ध्येयका विकल्प 'नहीं रहता है । इसीको स्वानुभव दशा कहते हैं । जब आत्मा मोह कर्मके उदयको बलात्कार छोड़ देता है और अपनेमें ही ठहर नाता है तब आश्रय रहित मोह नष्ट होजाता है । इस तरह मोहके जीतनेका उपाय है । ऐसा ही उपाय श्री अमृतचंद्र भाचायेने समयसार कलशमें कहा है:भूतं भान्तमभूतमेव रभसा निर्भिध धं सुधीर्यधन्तः किलकोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोह हठात् ।
आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्त ध्रुवं, नियं कर्मकलङ्कपङ्कविकलो देवः स्वयं शाश्वतः ॥ १२ ॥
भाव यह है कि बुद्धिमान आत्मा यदि भूत, भविष्य, वर्तमान सर्वका ही बंधको एकदम छेद करके और मोहको बलपूर्वक
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
Mr
३१४] श्रीमवचनसार भापाटीका । हटाके भीतर मम्यास करता है तो उसके अंतरंगमें कर्म कलकसे रहित भविनाशी आत्मानामा देव जिसकी महिमा एक.आत्मानुभले ही मालूम पड़ती है प्रगट बिराजमान रहा हुआ मालूम होता है । तात्पर्य यह है कि शुद्धोपयोग या साम्यभाव छात्मज्ञा. नसे.ही होता है इसलिये आत्मज्ञानका नित्य अभ्यास करना योग्य है ॥ ८ ॥ ___ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि इस जगतमें प्रमादको उत्पन्न करनेवाला चारित्र मोह नामका चोर है ऐसा मानकर आप्त श्री अरहंत भगवानके स्वरूपके ज्ञानसे जो शुदात्मारूपी चितामणिरल प्राप्त हुआ है.उसकी रक्षाके -लिये ज्ञानी नीक जागता रहता है।
. . . . . . जीवो ववगदमोहो, ज्वलको तबमप्पणो सम्भ। . जहदि जदिरागदोले, सो अप्पाणं लहदिसुद्ध८७
जीवो पगतमोर उपलब्धवात्तस्मात्मनः सम्या । जहाति यदि रागद्वेपौ स आत्मानं. लभते शुद्धम् ॥ ८७.॥
सामान्यार्थ-दर्शन मोहसे रहित जीव भले प्रकार :आस्माके तत्वको जानता हुआ यदि रागद्वेषको छोड़ देवे तो वह शुद्ध, मात्माको प्राप्त करे। . . . . . . ; .. अन्वय सहित विशेषार्थ:-(ववगदमोहो जीवो) शुद्धात्म तत्त्वकी रुचिको रोकनेव ले दर्शन मोहको निसने दूरकर दिया है ऐसा सम्यग्दृष्टी आत्मा ( अपणो. तच्च सम्मं उर्वलो) अपने ही शुद्ध आत्माके परमानंदमई .एक स्वभावरूपं तत्त्वको संशय आदिसे रहित भले प्रकार जालता हुमा (जदि रांगदोसे
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
[ ३१५
हदि ) यदि शुद्धात्मा अनुभवरूपी लक्षणको धरनेवाले वीसराग चारित्र के बाघक चारित्र मोहरूपी रागद्वेषोंको छोड़ देता है ( सो सुद्धं मप्पाणं लहदि ) तब वह निश्चय अभेद रत्नत्रयमें परिणमन गरनेवाला आत्मा शुद्ध बुद्ध एक स्वभावरूप आत्माको प्राप्त कर लेता है अर्थात मुक्त होनाता है । पूर्वं ज्ञानकंठिका में "उपभोग विसुद्धो सो खवेदि देहुन्भवं दुक्खं " ऐसा कहा था यहां " जहदि जदि रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं " ऐसा कहा है। दोनों ही एक मोक्षकी बात है इनमें विशेष क्या है । इस प्रश्नके उत्तर में कहते हैं कि यहां तो शुभ या अशुभ उपयोगको निश्वयसे समान जानकर फिर शुभसे रहित सुद्धोपयोगरूप निज आत्मवरूपमें ठहरकर मोक्ष पाता है इस कारणसे शुभ अशुभ सम्बन्धी सुटता हटानेके लिये ज्ञानकंठिताको कहा है। यहां तो द्रव्य, गुण, पर्यायोंके द्वारा आप्त परहंत के स्वरूपको जानकर पोछे वपने गुरु आत्मा के स्वरूप में ठारकर मोक्ष प्राप्त करता है। इस कारण से यहां आप्त और कंठिकाको कहा है इतना ही विशेष है ।
भावार्थ - इस गाथा में आचार्यने स्पष्ट रूपसे चारित्रको आवश्यकाको बता दिया है तथा यही भाव झलकाया है जिसको स्वामी समन्तभद्राचार्यने अपने रत्नकरण्ड श्रावकाचारके इस श्लोक में दिखलाया है । (नोट- यह आचार्य श्री कुन्दकुन्दके पीछेहुए हैं ) ।
कोक- मोदतिथिरापहरणे दर्शनला भादवाप्तसंज्ञानः । रागद्वेपरिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥ ४७ ॥
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१६] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका।
भावार्थ-मिथ्यात्व अधरेके चले जानेसे सम्यग्दर्शनकी 'प्राप्ति होनेपर तथा साथ ही सम्यग्ज्ञानका लाभ हो जानेपर साधु रागद्वेषोंको हटानेके लिये चारित्रको पालते हैं। इस गाथामें श्री कुन्दकुन्द भगवानने दिखा दिया है कि केवल आत्माकी शृद्धा व आत्माके ज्ञानसे ही मोक्ष नहीं होगी। जबतक रागद्वेषको त्यागकर शुद्धात्माके वीतराग स्वभावका अनुभव करके चारित्र मोहनीयको नाश न किया जायगा तबतक शुद्ध मात्माका लामरूप -मोक्ष नहीं हो सका है। मोक्षके चाहनेवाले जीवको पहले तो
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति करनी चाहिये । इसके लिये 'श्री अरहत भगवान के द्रव्य गुण पर्यायोंको जानकर उसी समान
अपने आत्माको निश्चय करके पुनः पुनः परहंत भक्ति और आत्म. -मनन करना चाहिये जिससे दर्शन मोहनीय कर्म और उसके सहकारी
अनंतानुबंधी कषायका उपशम हो जावे. क्योंकि विना इनके दवे 'किसी भी जीवको सम्यग्दर्शनका लाभ नहीं होता है। जब तत्त्व विचारके अभ्याससे सम्यक्त मिल जावे तब सम्यग्चारित्र और सम्यग्ज्ञानकी पूर्णता के लिये प्रमाद त्यागकर पुरुषार्थ करनेकी जरूरत है। क्योंकि संसारके पदार्थ हेय हैं, निज स्वभाव उपादेय है ऐसा जाननेपर भी जबतक संसारके पदार्थोंसे रागद्वेष.न छोड़ा नायगा तबतक वीतराग भावका अनुभव न होगा और विना वीतराग भावका ध्यान हुए चारित्र मोहनीय कर्मका नाश नहीं होगा । जब इस कर्मका नाश होजायगा तब यथाल्यातचारित्र प्राप्त होगा उसीके पीछे अन्य तीन घातिया फर्मोका नाश होगा और केवलज्ञान केवलदर्शन और अनंत वीर्यकी प्राप्ति हो जायगी।
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीभवचनसार भाषाटीका। [३१७ इसी उपायसे शुद्ध परमात्मा हो जायगा। यदि स्वरूपके अभ्यासमें प्रमाद करेगा तो सम्भव है कि उपशम सम्यक्तमे गिरकर मिथ्यादृष्टी हो जावे । परन्तु यदि विषय कषायोंसे सावधान रहेगा और आत्मरसका स्वाद लेता रहेगा तो उपशमसे क्षयोपशम फिर क्षायिक सम्यग्दृष्टी होकर चारित्र पर आरूढ़ होकर शुद्ध
मात्मा प्रत्यक्ष लाभ कर लेगा। तात्पर्य यह है कि अपने हितमें चतुर पुरुषको सदा जागते रहना चाहिये । जो ज्ञान शृद्धा. नके पीछे चारित्रको न पालकर शुद्ध होना चाहते हैं उनके लिये श्री देवसेनाचार्यने तत्वसारमें ऐसा कहा है:-- चलणरहिओ मणुस्सो जह बंछइ मेरुसिहरभाराहि । तह झाणेण विहीणो इच्छइ कम्मक्खयं साहू ॥ १३ ॥
भावार्थ-जैसे कोई मेरु शिषर पर चढ़ना चाहे परन्तु चले नहीं, बैठा रहे तो वह कभी मेरुके शिपर पर नहीं पहुंच सक्ता है। इसी तरह जो कोई आत्मध्यान न करे और कोका क्षय चाहे तो वह साधु कभी भी कर्मोका नाशकर मोक्ष नहीं प्राप्त कर सक्ता है । तात्पर्य यह है कि जबतक सर्वज्ञ वीतराग भवस्थामें न पहुंचे तबतक निरन्तर आत्मस्वरूपका मननफर शुद्धोपयोगकी भावनामें लीन रहना चाहिये ॥ ८७॥
उत्थानिका-आगे आचार्य अपने मनमें यह निश्चय करके वैसा ही कहते हैं कि पहले द्रव्य गुण पर्यायोंके द्वारा आत भरहंतके स्वरूपको जानकर पीछे उसी रूप अपने आत्मामें ठहरकर सर्व ही अहंत हुए और मोक्ष गए हैं
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
• ३१ अप्रिवचनसार भोपाटीका! . सव्वें लिय अरहता, तेण विधाणेण खधिद . . ..
___ . . . . . . . कमला। किचा तधोवदेस, णिवादा ते णमो तसिं ॥४॥ .. सऽपि चाहतस्तेन विधानेन अमितकमांशाः । . कृत्ला तथोपदेशं नित्तास्ते नगरोभ्यः ॥ ८८ ॥
सामान्यार्थ-इसी रीतिसे कर्मोझा नाशकर' सब ही आहत हुए-तब वैसा ही उपदेश देकर वे निर्वाणो प्राप्त हुए इसलिये उनको नमस्कार हो।
' अन्वय सहित विशेषार्थ-(तेण विधाणेण ). इसी विधानसे जैसा पहले कहा है कि पूर्व द्रव्य, गुण, पर्यायों द्वारा अरहंतोंके स्वरूपको जानकर फिर उसी स्वरूप अपने खात्मामें ठहरकर अर्थात् पुनः पुनः आत्मध्यान करफे (खविदकम्मेप्ता) कमौके भेदोंको क्षय करके ( सव्वे वि व भरता) सर्व ही अरहंत हुए (तदोवदेस किचा) फिर तैसा ही उपदेश करफे कि अहो भव्य जीवो ! यही निश्चय रत्नत्रयमई शुद्धात्माकी प्राप्ति रूप लक्ष पो धरनेवाला मोक्षमार्ग है दूसरा नहीं हैं (ते णिव्याया) वे भगवान निवृत्त होगए अर्थात् अक्षय अनंत सुखसे तुप्त सिद्ध हो गए (तेसिं गमो) उनको नमस्कार होहु । श्रीकुन्दकुंदाचार्य देव इस तरह मोक्षमार्गका निश्चय करके अपने शुद्ध आत्माके अनुभव स्वरूप मोक्षमागको और उसके उपदेशक अरहतोको इन दोनोंक स्वरूपकी इच्छा करते हुए "नमोस्तु तेभ्यः" इस पदसे नमस्कार -करते हैं-यह अभिप्राय है।
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवचनसार मापाटीका ।
[ ३१९
wwwwwwwwwwwwww
mw
पार्थ- गामा आचार्यने अपना पक्का निश्चय प्रगट किया है कि कनोको नाशकर शुद्ध मुक्त होनेका यही उपाय है कि पहले अरहंत परमात्मा द्रव्य, गुण पर्यायको रामझकर निश्वय लावे फिर उसी तरह or rपना है ऐसा निश्श्रयकर अपने शुद्ध स्वरूपको अनुभव करे। इसी स्वानुभवके द्वारा कर्मोका नाश हो जाता है, और यह भावनेवाला आत्मा स्वयं अरहंत परमात्मा हो जाता है । वह केवलज्ञान व्यवस्था में उसी ही मोक्षमार्गका उपदेश करता है जिससे अपने आत्माकी शुद्ध की है। मायुर्म शेष होनेपर सर्व शरीरोंसे छूटकर सिद्ध परमात्मा होजाता है । इसी ही रूपसे पूर्वकालमें सर्व आत्माओंने मुक्तिपद पाया है आज भी जो गोक्षमार्ग प्रगट है वह श्री महावीर भगवान अरहंत परमात्माका उपदेश किया हुआ है। उसी उपदेश से आज भीम मोक्ष पा रहे है। ऐसा परम उपकार रामझकर ma को पुनः पुन. नमस्कार किया है । तथा
1
वो हमसे प्रेरणा की है कि वे इसी रत्नत्रयमई ardar faara aid और उस गाडे प्रकाशक भरतों के भीतर परम श्रद्धा रखके उनके द्रव्य गुण पर्यायको विचार कर उनकी भक्ति करें । उन समान अपने नाम द्रव्यको जानकर अपने शुद्ध स्वरूपकी भावना करें | जो जैसी भावना करता है वह उस रूप हो जाता है। जो रहंत परमात्माका सच्चा भक्त है और तत्यज्ञानी है यह अवश्य शुद्ध आत्माका काम कर लेता है । श्री तत्त्वानुशासन में श्री नागसेन मुनिने कहा भी है:
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२०] श्रीमवचनसार भाषाटीका । परिणमते येनामा भावन स तेन तन्मयो भवति । अहंदयानाविष्टो भावाई: स्यात्स्वयं तस्मात् ॥ १९०।। येन भावेन यदपं ध्यायत्यात्मानमात्मवित् । तेन तन्मयतां याति सोपाधिः स्फटिको यथा ॥ १९१ ।। ___भाव यह है कि यह आत्मा जिस भावसे परिणमन करता है उसी भारसे वह तन्मयी हो जाता है। श्री भरहंत भगवानके ध्यान में लगा हुआ स्वयं उस ध्यानके निमित्तसे भावमें अरहंत रूप हो जाता है। आत्मज्ञानी जिस भावके द्वारा निस स्वरूप अपने आत्माको ध्याता है उसी भावसे वह उसी तरह तन्मयता प्राय कर लेता है । जिस तरह स्फटिक पत्थरमें जेसी उपाधि लगती है उसी रूप वह परिणमन कर जाता है।
ऐसा जान अपने ज्ञानोपयोगमें शुद्ध मात्मस्वरूपकी सदा भावना करनी चाहिये-इसी उपायसे शुद्ध आत्मस्वरूपका लाभ होगा ।। ८॥ ___उत्थानिका:-आगे कहते हैं कि जो पुरुष रत्नत्रय
आराधन करनेवाले हैं वे ही दान, पूजा, गुणानुवाद, प्रशंसा तथा नमस्कारके योग्य होते हैं, और को नहीं। दसणसुद्धा पुरिसा, णाण पहाणा समग्गचरियत्या! पूज्जासकाररिहा, क्षणस्त यहि ते णमो तेसिं८८ · दर्शनशुद्धा पुरुषा ज्ञानप्रधाना समग्रचारित्रस्था । पूजासत्कारयोरा दानस्य च हि ते नमस्तेभ्यः ॥ ८८ ॥ सामान्यार्थ-जो पुरुष सम्यग्दर्शनसे शुद्ध हैं, ज्ञानमें
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीपवचनसार भाषांटीका। [३२१ प्रधान हैं। तथा पूर्ण चारित्रके पालनेवाले हैं वे ही निश्चयसे पूजा सत्कारके व दानके योग्य हैं, उनको नमस्कार होहु ।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(दसणसुद्धा) अपने शुद्ध आत्माकी रुचिरूप सम्यग्दर्शनको साधनेवाले तीन मृढ़ता मादि पचीस दोष रहित तत्त्वार्थका श्रद्धानरूप लक्षणक धारी सम्यग्दर्शनसे जो शुद्ध हैं ( णाणपहाणा) उपमा रहित स्वसवेदन ज्ञानके साधक वीतराग सर्वज्ञसे कहे हुए परमागमके अभ्यामरूप लक्षणके धारी ज्ञानमें जो समथ हैं तथा (समग्गचरिमाथा) बिकार रहित निश्चल आत्मानुभूतिके लक्षणरूप निश्चय चारित्रके साधनेवाले आचार आदि शास्त्र में कहे हुए मूलगुण और उत्तरगुणकी क्रियारूप चारित्रसे नो पूर्ण हैं अर्थात पूर्ण चारित्रके पालनेवाले (पुरिसा) जो जीव हैं वे ( पूनासकाररिहा । द्रव्य व भावरून पूना व गुणोंकी प्रगंगारूप स्कारके योग्य हैं, (दाणस यहि) तथा प्रगटपने दान योग्य हैं । (णमो तेसिं) उन पूर्वमें कहे हुए रत्नत्रयके धारियों को नमस्कार हो क्योंकि व ही नमस्कार के योग्य हैं।
भावार्थ:-आचार्य ने इसके पहले की गाथामें सच्चे आप्तको नमस्कार करके यहां सच्चे गुरुको ननस्कार किया है। इस गाथामें बता दिया है कि जो साधु निश्चय और व्यवहार रत्नत्रयके धारी हैं उनहीको भष्ट द्रव्यसे भाव सहित पुनना चाहिये, व उनहीकी प्रशंसा करनी चाहिये । उनहीका पूर्ण णादरं करना चाहिये तथा उनहीको दान देना चहिये व उनहीको नमस्कार करना चाहिये । प्रयोगा यह है कि उच्च मादर्श ही
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२५ ] श्रीमवचनसार भावाटीका ।
हमारा हितकारी होता है । उनहीचा भाव व आचरण हम उपासकों को उन रूप वर्तन करनेकी योग्यता की प्राप्तिके लिये रणा करता है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यभ्चारित्र मोका मार्ग है । निश्चय नयसे शुद्ध आत्माकी रुचि सम्बत है । स्वसंवेदन ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। तथा वृद्ध आत्मामें तन्मयता सम्यग्वारित्र है । इन साधने वाले व्यवहार रत्नत्रय हैं-पच्चीस दोष रहित तत्वार्थ श्रद्धान व्यवहार सम्यग्दर्शन है। सर्वज्ञ वीतराग की परम्परासे लिखित शाफा अभ्यास व्यवहार सम्यग्ज्ञान है । eg गुण और उसके उत्तर गुणको पालना व्यवहार सम्यग्वारित्र हैन व्यवहार रत्नत्रयके धारी निबंध साधु ही मोक्षमागंक साथ चलते हुए को साक्षात मोक्षका मार्ग दिखाने वाले हैं। जैन गृहस्थोंका मुख्य कर्तव्य है कि ऐसे वारनेकी चेष्टा में उत्साही रहे । योग व साम्मा ही उपादेव
साधुओं से करे व साधुपर यहां भी यही है कि है | इसके कारण हो साजन पूज्यनीय होते हैं ।
तत्वज्ञानी गुस्से पर नाम होता है वे ही पूज्यनीय हैं श्री tet तापीति में कहा है:
Eranee read समन्ता-मपि निगदेनपलक्ष्यम् । ari गुरुवचोभिध्यते तेन देवा गुरुरधिगततत्वस्तातः पूजनीयः ॥ ६० ॥ यह है कि ज्ञानदर्शन लक्षणधारी अपना आत्मतत्त्व
सब तरहसे अपनी देहमें प्राप्त है तथापि देहधारी उसको नहीं
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
M
श्रीमवचनसार भाषाटीका। [३२३ - पहचानते हैं तो भी वह आत्मतत्त्व गुरुके वचनोंके द्वारा जाना जाता है इसलिये तत्त्वज्ञानी गुरुदेव निश्चय से पूजने योग्य हैं।
रा तरह माप्त और आत्माके स्वरूपमें मूढता या अज्ञानताको दूर करने के लिये सात गाथाओंसे दूसरी ज्ञानकठिका पूर्ण की ॥ ८९ ॥ ___उत्यानिफा-आगे शुद्ध आत्माके लाभके विरोधी मोहके स्वरूप और भेदोंको कहते हैंदव्यादिएउ मूढो भायो जीवस्ल हपदि मोहोति । खुभदि लेणांछण्णो, पय्या राणे व दोन वा ॥१०॥ द्रव्याटिफोनु मूटो भापो पीयस्य भवति मोह इति । क्षुभ्यति रानारच्छन्नः प्राप राग वा दोष वा ॥ ९ ॥
लामाल्यार्थ-शुद्ध आत्मा बादि द्रव्योंके सम्बन्धमें जो अज्ञानं भाव । वह जीवके मोह है ऐसा कहा जाता है। इस मोहसे ढका हुआ प्राणी राग या वेपो प्राप्त हो कर मालित होता है।
अन्यय सहित विशेषापः-( व्यादिएस) शुद्ध आत्मा आदि मोंने उन द्रव्योके अनन्य ज्ञानादि ब अस्तित्व आदि विशेष और सामान्य गुणोंमें तथा शुद्ध मारमाजी परिणतिरूप सिद्धत्व मादि पर्यावों में मिनका यथासंभव पहले वर्णन होचुका है व जिनका भाग.मी वर्णन किया जायगा इन सर गप गुण पर्यायों में विपरीत पभिप्राय रखके ( मूढो भावो ) सत्यों में संशय उत्पन्न करनेवाला अज्ञानभाव ( जीवरस मोहोत्ति हवदि ) इस संसारी नीरके दर्शन मोइ है ( तेणोच्छण्णो ) इस दर्शन मोहसे माच्छ
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
annaw
२२४] श्रीभवचनसार भाषाटीका। ..दित हुमा यह जीव ( रागं व दोस वा पय्या) विकार रहित
शुदात्मासे विपरीत इण्ट अनिप्ट इंद्रियोंके विषयों में हर्ष विषाद रूप चारित्र मोहनीय नामके रागद्वेष भावको पाकर (खुम्भदि) क्षोभ रहित भात्मतत्वसे विपरीत क्षोभके कारण अपने, स्वरूपसे चलकर उस्या वर्तन करता है । इस कथनसे यह बतलाया गया कि दर्शन मोहका एक और चारित्र मोहके भेद रागद्वेप दो इन तीन भेदरूप मोह है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने संसारके कारण भावको प्रगट किया है । संसारका कारण कर्मबंध है । सो कर्मबंध मोहके द्वारा होता है । मोहके मूल दो भेद हैं । दर्शन गोह और चारित्र मोह । श्रद्धानमें रटे व संशयरूप व वेविचाररूप भावको दर्शन मोह कहते हैं । यह जीव मात्मा और अनात्मा द्रव्योंमें व उनके गुणोंमें व उनको स्वाभाविक तथा वैभाविक पर्यायोंमें जो संशय रूप व अन्यथा व अज्ञानरूप भाव रखता है, रहो दर्शन मोह है। इस मोहके कारण वस्तु कुकी कुछ मालूम होती है । श्री सर्वज्ञ वीतराग अरहंतने जैसा जीव और अजीवका स्वरूप बताया हैं वैसा श्रद्धानर्ने न आना दर्शन मोह है । भगवानने सच्चा सुख मात्माका स्वभाव बताया है इसको न विश्वासकर मोहसे मैला प्राणी इंद्रियों के द्वारा भोगे जानेवाले सुखको सच्चा सुख मान बैठता है। इस ही झूठो माननके कारण अपनी रुचिसे जिन इष्ट. पदार्थोंसे सुख कल्पना करता है उनमें राग और जिनसे दुःख कल्पना करता है, उनमें देष कर लेता है। इस रागद्वेवको चारित्र मोह कहते हैं । रागद्वेष चार तरहका होता है। एक
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
Niu
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [३२५ अनन्तानुवन्धी सम्बन्धी जो बहुत गाढ़ होता है व निसकी वासना अनन्त कालतक चली नासती है व मो मिथ्यात्वको बुलानेवाला व मिथ्यात्वको सहायक है । इस तरहके रागद्वेषमें पड़कर ससारी जीव रातदिन विषयोंके दास बने रहते हैं, उनका प्रत्येक शरीरका सर्व समय इष्ट पदार्थोके सम्बन्ध मिलानेमें, अनिष्ट पदार्थोके सम्बन्ध हटानेमें व इण्ट पदार्थोके वियोग होनेपर दुःख करनेमें व नाना तरहके परको दुःखदाई अशुभ कर्मों के विचार व आचर, णमें बीतता है जिससे ऐसे मोही नीव दर्शनमोहके प्रभावसे रात दिन माकुलतासे पूर्ण रहते हुए कभी भी सुख शांतिके भावको नहीं पाते हैं । संसारके मूल कारण यही रागद्वेष मोह है। .
इनहीसे क्षुभित जीव अनादि कालसे संसारमें जन्म मरण करता है तथा जबतक दर्शन मोहको दूर न करे तबतक बराबर चाहे अनन्तकाल होनावे जन्म मरण करता रहेगा। __ दुमरा भेद रागद्वेषका वह है जो इस जीवको विषयोंमें श्रद्धा व रुचिकी अपेक्षा मूर्छित नहीं करता है किन्तु भर्शन मोहके बल विना रुचि न होते हुए भी विषयोंको चाह पैदा करता है मिससे यह जानते हुए भी कि विषयों में सुख नहीं है ऐसी निर्बलता भावों में रहती है कि इष्ट पदार्थों में राग व अनिष्ट पदार्थों में द्वेष कर लेता है । इसकी वासना छः माससे अधिक नहीं रहती है, दर्शन मोह रहित सम्यदृष्टी जीवमें धर्ममें आन्तिक्य, जीर्वोपर करुणा, कषायोंकी मंदतासे प्रशमभाव, तथा संमारसे वैराग्यरूप संवेग भाव वर्तन करता है निससे यह नीव यथासंभव अन्यायोंसे वचनेका व परको पीडितकर अपने स्वार्थ साधनका बचाव
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
MARA
Mom
३२६.] श्रीमवचनसार भाषाटीका । • रखनेका उद्यम करता है। ऐसे जीवको अविरत सम्यग्दृष्टी कहते हैं। तथा इस रागद्वेषको अप्रत्यख्यानावरणीय रागद्वेष रहते हैं। इस भेदके कारण यह जीव श्रावकके व्रतोंके नियमोंको नहीं धारण कर सकता है। तीसरा भेद रागद्वेषका वह है कि जिसके कारणं संसारसे छूटनेशा भाव कार्य में परिणति होने लगता है और यह सम्यदृष्टी नीव बड़े उत्साहसे श्रावकके ब्रोंको धारता हुमा त्याग करता चला जाता है। विषयोंके भोगमें अति. 'उदासीन होता हुआ क्रमसे घटाता हुआ व परिग्रहको भी कम करता हुआ पहली दर्शन प्रविमासे बढ़ता हुआ ग्यारहवीं उदिष्ट त्याग प्रतिमा तक बढ़ जाता है जहाँपर परिग्रहमें मात्र एक लंगोटी होती है और आचरण मुनि मार्गकी तरफ झुकता हुमा है। इस भेदकों प्रत्याख्यानावरणीय रागद्वेष कहते हैं। इसकी वासना पंद्रह दिनसे अधिक नहीं रहती है इसके बलसे मुनिव्रत नहीं होते हैं | जब यह नहीं रहता है तब मुनिव्रत होता है। चौथा भेद रागद्वेषका वह है जो संयमको घात नहीं करता है किन्तु वीतराग चारित्रके होने में मलीनता करता है। जब यह हट जाता है तब साधु वीतरागी तथा आत्मा मानन्दमें लीन हो जाता है। इस भेदको संज्वलन रागद्वेष कहते हैं। इसकी वासना अंतर्गहूसे. मात्र है। नहीं पहला मेद है यहां अन्य तीनों भी साथ साथ हैं। पहला भेद मिटनेपर तीन, दो मिटनेपर शेष दो, तीनों भेद मिटनेपर. चौथा ही भेद रहता है। चारों ही प्रकारके रागद्वेषोंक दूर हुए विना यह आत्मा पूर्ण अक्षुमित व निराकुल नहीं होता है । तथापि जो र भेद मिटता जाता है उतनी उतनी निराकुलता होती जाती
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाका [ ३२७ है | इस रागद्वेषमें चार कषाय और नौ नोकषाय गर्भित हैं। ,
लोभ, माया कषाय और हास्य, रति, स्त्रोवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद से पांच नोकषाय ऐसे ७ चारित्रमोहके भेदोंको राग तथा क्रोध, मान, कषाय और भरति, शोक, भय, जुगुप्ता ये चार नोकपाय ऐसे ६ चारित्र गोहळे भेदोंको द्वेष कहते हैं । इन्हीं रागद्वेषके चार भेद समझनेसे तेरह प्रभार के भेद मनन्तानुबन्धो, आदि चार भेदरूप फेलने ५२ बावन प्रकारके भाव होसते हैं । यद्यपि सिद्धांतमें कषायरूप चारित्र मोहनीयके २५ पचीस भेद कहे हैं तथापि चार कषायके सोलह भेद जैसे सिद्धांतमें कहे हैं, उनको लेकर और नौ नोकषाय भी इन १६ रूपायोंकी सहायता पाकर काम करते हैं इसलिये इनके भी छतीस भेद होनाते हैं। इस तरह बावन भेद जानने चाहिये। दर्शनमोहके भी तीन भेद हैं-मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व या मिश्र और सम्यग्यकृति मिथ्यात्व | जो सर्वथा श्रद्धान विगाड़े वह मिथ्यात्व है, जो सच्चे झूठे शृद्धानको मिश्र रूप रक्खे वह मित्र है । जो सच्चे शृद्धानमें मक या अतीचार लगाये वह सम्यक्त प्रकालि है। इस तरह मोहके सब पचपन भेद होसक्के हैं।
इस मोहको मात्माका विरोधी, सुख शांतिका नाशक सम. ताफा घातक व संसारचक्रमें भ्रमण करनेवाला जानकर मुमुक्षु जीवको उचित है कि मह निम शात्माके अपने ही शुद्धोपयोग रूप साम्यभावको उपादेय मान उसीके लिये पुरुषार्थ करे । संसारमें दुःखी करनेवाला एक मोह है जैसा श्री योगीन्द्रदेवने अमृताशीतिमें कहा है:
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२८ ] श्रीमसार भाषाका |
www
अज्ञाननामतिभिरनस सेयमृन्तः रान्दर्शिताखिलपदार्थ वपर्ययात्मामंत्री स मोहनृपतेः स्फुरतीह यावतावत्कुतस्तव शिवं तदुपायता या ||१४||
भावार्थ यह है कि मोह राजाका मंत्री जो अज्ञान नामके अन्धकारक फैला जिससे अंतरंग में सम्पूर्ण पदार्थों का उल्टा स्वरूप मालूम पड़ता है, जब तक अंतरंग में प्रगट रहता है त तक हे आत्मान् ! कहां तेरे मोक्ष है और कहां तेरे इस मोक्षका उपाय है | श्री कुलभद्र आचार्यने श्री सारसमुच्चयमें भी इस भांति कहा है :
.
कपायकलुषो जीवो रागरंजितमानसः । चतुर्गतिभवावशेधा भिन्ना नौवि सीदति ॥ ३१ ॥ aurraaगो जीवो कर्म वध्नाति दारुणम् । dara samrata भकोटिनु दारुणम् ॥ ३२ ॥ उपायविश्चित्तं मिथ्यात्वेन च सयुतम् । संमारतां याति विमुक्तं मोक्षवीजताम् ॥ ३३ ॥ भाव यह है कि जो जीव कपायले मैला है व जिसका मन सबसे रंगीला है वह टूटी हुई नौका के समान चार गतिरूप संसेर समुद्रमें कष्ट उठाता है । कषायके आधीन नीव भयानक भेद ता है। जिससे यह करोडों जन्मोंमें भयानक दुखको यह आत्मा पूर्ण अक्षुमित. ध्यात्वसहित है व कपाय विषयोंसे पूर्ण जो २ भेद मिटता जाता हो और जो चित्त इन दिथ्यात्व व विषय
R
शके बोजपनेको प्रांत होता है । ऐसा
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
[ ३२९
जान मोहसे उदास हो निर्मोह शुद्ध आत्मा ही के सन्मुख होना चाहिये । ॥ ९० ॥
उत्थानका- आगे आचार्य यह घोषणा करते हैं कि इन राग द्वेष मोहोंको जो संसारके दुःखोंके कारणरूप कर्मबंधके कारण हैं, निर्मूक करना चाहिये ।
मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्य जीवस्स । जायद विविहो वो तम्हा ते संखवइदव्वा ॥९१॥
मोहेन वा रागेण वा द्वेपेण वा परिणतस्य जीवस्य । जायते विविधो बन्धरतस्माचे संक्षयितव्याः ॥ ९२ ॥
सामान्यार्थ - मोह तथा राग द्वेषसे परिणमन करनेवाले आत्मा नाना प्रकार कर्म बंध होता है इसलिये इनका क्षय करना ये है ।
अन्य सहित विशेषार्थ - (मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणवस जीवस्स) मोह राग द्वेषमें वर्तनेवाले बहिरात्मा farmeष्ट नीव को मोहादि रहित परमात्माके स्वरूपमें परणमन करने से दूर है (विविहो बंधो जायदि) नाना प्रकार कर्मोंका
उत्पन्न होता है अर्थात् शुद्धोपयोग लक्षणको रखनेवाला भाव मोक्ष है। उस भावमोक्षके बलमे जीवके प्रदेशोंसे कर्मोंके प्रदेशोंका बिलकुल अलग हो जाना द्रव्य मोक्ष है। इस प्रकार द्रव्य भाव मोक्षसे विलक्षण तथा सब तरहसे ग्रहण करने योग्य स्वाभाविक सुखसे विपरीत जो नरक आदिका दुःख उसको उदयमें कानेवाला कर्म बंध होता है (तम्हा ते संस्खवहदब्बा) इसलिये जब राग द्वेष
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३०] श्रीप्रवचनसार भापाटीका । मोहमें वर्सनेवाले जीवके इस तरहका कर्म वय होता है तब रागादिसे रहित शुद्ध पात्मध्यानके बळसे इन रागद्वेष मोहोंका भले प्रकार क्षय करना योग्य है यह तात्पर्य है।
भापार्थ-यहां माचार्यने यह प्रेरणा की है कि आत्माके हित चाहनेवाले पुरुषों कर्तव्य है कि वे भात्माको उन काँक वंधनोंसे छुड़ा जिनके कारण वह आत्मा चार गतियोंमें भ्रमण करते हुए भनेक दुःखोंको भोगता है और निराकुल होकर अपनी सुख शांतिचा लाभ सदाके लिये नहीं कर सकता है। क्योंकि नाना प्रकारफे कोका वधन इस अशुद्ध आत्माके उसके अशुद्ध भावोंसे होता है मिन भाको मोह, राग व द्वेष कहते हैं, इस लिये इन भावोंके कारण जो पूर्वबद्ध दर्शन मोहनीय व चारित्र मोदनीय कर्म हैं उनको जड़ मूळसे झात्माले प्रदेशोंसे दूर करके निकाल देना चाहिये जब कारण नहीं रहेगा तब उसका कार्य नहीं रहेगा। यहां इतना समझ लेना चाहिये कि आठों ही प्रकारके कर्माके बंधन कारण ये रागद्वेष मोह हैं । जिन जीवोंने उनका क्षय कर दिया है ऐसे क्षीण मोही साधुके को बंध नहीं होता है, केवल योगोंके कारण ईर्यापथ मानव होता है जो चिनई रहित शरीरपर धूक पड़ने के समान है, निपटता नहीं है। इनके क्षय करने का उपाय सुक्षमतासे जानने के लिये श्री क्षपणासार अन्थका मनन करना चाहिये। मां इतना मात्र कहा जाता है कि पहले दर्शन मोहको और उसके सहकारी अनंतानुबंधी सम्बन्धी रागद्वेषको नाशकर क्षायिक सम्यग्दर्शनका लाभ करना चाहिये फिर श्रावक तथा साधुळे आचरणो पालकर तथा शुद्धो
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीपवचनसार भापाटीका। [३३१ पयोगकी भावना व उसका ध्यान करके सर्व रागद्वेष सम्बन्धी कर्म प्रकतियोंको क्षय कर देना चाहिये । इन रागद्वेष मोहके क्षय करनेका उपाय आत्मासा ज्ञान और वीम्यं है । इसलिये मनसहित विचारयान जीवका कर्तव्य है कि यह गिनवाण का अभ्यास करके मात्मा और अनात्माके भेषवो समझले । आत्माके द्रव्यगुण पर्याय आत्मा और अनात्माके द्रव्य गुण पर्याय अनात्मामें जाने। यद्यपि अपना मात्मा फर्म पुनरूप मनात्मा के साथ दूध पानीकी तरह मिला हुआ है तथापि इस जेरो दूध पानीको अलग २ करनेकी शक्ति रखता है वैसे तत्वज्ञानीको इन शात्मा और अनात्माके कक्षणों को अलग अकग जानकर इनको अलग अलग करनेकी शक्ति अपनेमें पैदा करनी चाहिये । इस ज्ञानको भेद विज्ञान करते हैं। इस भेद विज्ञानके बलसे सपना मात्मवीर्य लगाकर गावको मोदके पंच जालासे हटाकर शुद्ध मात्माके स्वरूपके मननमें लगा देना चाहिंगे। ज्यों २ मामाकी तरफ झुकेगा मोहनीय कम शिथिल पड़ेगा। वारवार अभ्यास करते रहने से एक समय यकायक सम्यग्दर्शनके बाधक फोका उपशम हो जायगा। फिर भी इसी शुद्ध आत्मा मननके अभ्यासको जारी रखनेसे सम्वतके वाधक कोका जडमूलसे क्षय होनायगा वर अविनाशी क्षायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जायगा। फिर भी उसी शुद्ध आत्माका मनन ध्यान या अनुभव करते रहना चाहिये । इनके प्रतापसे गुणस्थानों के क्रमसे चढता हुषा एक दिन क्षपक श्रेणीके मार्गपर मारूढ होकर सर्व मोहनीय कर्मका क्षय कर वीतरागी निग्रंथ साधु हो जायगा । तात्पर्य यह है इन राग द्वष मोहोंके
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३२ ]
श्रीमवचनमार भापाटीका ।
नाशक उपाय for आत्माका यथार्थ श्रद्धान ज्ञान तथा अनुभवरूप चारित्र है । निश्चय रत्नत्रय रूप आत्मा ही आपकी मुक्तिका कारण है, इमलिये मोक्षार्थी पुरुषका कर्तव्य है कि वह आत्म पुरुषार्थ करके इन संसारके कारणीभूत राग द्वेष मोहका नाश करे | जिससे यह आत्मा संसारके दुःखोंसे छूटकर निराकुल मतीन्द्रिय आनन्दका भोगने वाला सदाके लिये हो जाये ।
श्री श्रमितिगति णाचार्यने अपने बृहत् सामायिकपाठमें कहा है:
अभ्यास्ताक्षकषायत्रैरिविजया विध्वस्तलोकक्रिया | बाह्याभ्यंतरसंगमांशविमुखाः कृत्वात्मवश्यं मनः ॥ ये श्रेष्ठं भवभोगने हर्विषयं वैराग्यमध्यासते । ते गच्छति शिवालयं विकलिला लब्ध्वा समाधिं बुधाः॥स्टि भाव यह है कि जिन्होंने इंद्रिय विषय और कपाय रूपी वैरियोंका विजय कर लिया है, लौकिक क्रियाओंको रोक दिया है, तथा अपने मनको अपने आघोन करके बाहरी भीतरी परिग्रहके लेश मात्र से भी अपनेको विमुख कर लिया है और जो संसार शरीर भोग सम्वन्धी श्रेष्ठ वैराग्यको घरनेवाले हैं वे ही बुद्धिमान -समाधिभाव को पाकर तथा शरीर रहित होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं ।
श्री गुणभद्राचार्यने अपने ग्रन्थ आत्मानुशासन में कहा हैयमनियमनितान्तः शान्तवाह्यान्तरात्मा । परिणमितसमाधिः सर्वतत्वानुकम्पी ॥ विहित हितमिताशी क्लेशजालं समूलं । दहति निहतनिद्रो निश्चिताध्यात्मसारः ||२२५||
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [३३३ भावार्थ-जो साधु यम नियममें लीन हैं, अंतरंग बहिरंग शांत हैं, आत्म समाधिमें वर्तनेवाले हैं. सर्व जीवोंपर दयालु हैं, हितकारी मर्यादा रूप आहार करनेवाले हैं, निद्राके जीतनेवाले हैं तथा शुद्ध आत्माके स्वरूपको निश्चय किये हुए हैं वे ही सर्व दुःखोंके समूहको जड़मूलसे जला देते हैं। ____ तात्पर्य यह है कि जिस तरह बने अपने आत्माकी भावना करके राग द्वेष मोहका क्षय कर देना चाहिये ॥११॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि राग द्वेष मोहोंको उनके चिन्होंसे पहचानकर यथासंभव उनहीका विनाश करना चाहिये। अ अजधागहणं करुणाआयो यतिरियमणुएस्तु । विसयेच अप्पसंगी माहस्सेदाणि लिंगाण ॥२२॥
अर्थे अययाग्रहणं करुणाभावश्च तिअनुप्येषु । विषयेषु च प्रसंगो मोहस्यैतानि लिंगानि ॥१२॥
सामान्यार्थ-पदार्थोके सम्बन्धमें यथार्थ नहीं समझना, तिथंच या मनुष्योंमें राग सहित दया भाव और विषयों में विशेष लीनता ये मोहके चिन्ह हैं।
अन्वय सहित विशेपार्थ-(अट्ठे अनधागहण) शुद्ध मात्मा आदि पदार्थोंके स्वरूपमें उनका जैसा स्वभाव है उस स्वभावमें उनको रहते हुए भी विपरीत अमिमायसे औरका और अन्यथा समझना तथा (तिरियमणुएतु) मनुष्य या तीर्यच जीवों में (करुणाभावो य) शुद्धात्माकी प्राप्तिरूप परम उपेक्षा संयमसे विपरीत दयाका परिणाम अथवा व्यवहारसे उनमें दयाका अभाव होना दर्शन मोहके चिन्ह हैं (विसएसु अप्पसंगो) विषय रहित सुखके
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३४ ]
श्रीnearer भाषाका |
स्वादको न पानेवाले बहिरात्मा जीवोंका इष्ट अनिष्ट इंद्रियोंके चिपयों को अधिक संसगे रखना क्योंकि इनको देखकर कि पुरुष प्रीति प्रीतिरूप चारित्र मोहफे राग द्वेष भेदको जानते हैं इसलिये ( मोहस्सेदाणि लिंगाणि ) गोहके ये ही चिन्ह हैं । अर्थात् इन चिन्हों को जानने के पीछे ही विकार रहित अपने शुद्ध आत्माकी भावना द्वारा इन राग द्वेष मोहका घात करना चाहिये ऐसा का अर्थ है ।
भावार्थ - इस गाथामें जाचार्यने राग द्वेष मोहके चिन्ह बताये हैं जगतमें चेतन अचेतन पदार्थ हैं उनका स्वभाव क्या है तथा उनमें एक दूसरेके निमित्तसे क्या अवस्थाएं होती हैं, यदि निमित्त उनके विभावरूप परिणमनका न हो और वे स्वभावरूप परिणयन करें तो वे कैसे परिणगन करते हैं । इत्यादि जनतक पढार्थीका जैसा कुछ स्वरूप है उसको वैपा न श्रद्धान कर औरफा और अद्धार करना यह दर्शन मोह अर्थात मिथ्याबड़ा व चिन्ह है। यह मिथ्यादृष्टी जीव परमात्मा संसारी आत्मा, पुण्य पाप आदिका स्वरूप ठीक ठीक नहीं जानता है। कुछ कुछ कहता है यही मिथ्यात्त्वका चिन्ह है । दूसरा चिन्ह यह है कि वह अपने स्वार्थयश जिन मनुष्योंसे व पशुओंसे अफगा प्रयोजन निकलता हुआ जानता है उनमें अतिशय राग -या ममत्त्य वा दयाभाव करता है तथा दूसरा भाव यह है कि उसके भीतर तिर्यञ्च और मनुष्योंपर दयाभाव नहीं होता है । अपने मतलब के लिये उनको बहुत कष्ट देता है । अन्यायसे 1 वर्तनकर हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रहकी तृष्णाकर
"
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
atreener arresा | [ २३७
wwwwwn
मनुष्य और पशुओं को बहुत सताता है, अपने खानपान व्यवहारने दयाभावसे वर्तन नहीं करता है। दूसरे प्राणी सर्वथा नष्ट होभावे तो भी अपने विपय पाय पुष्ट करता है।
राग द्वेपके चिन्ह यह हैं कि इंद्रियोंके मनोज्ञ पदार्थों में अतिशय प्रीति करना तथा जो पदार्थ अपने को नहीं रुचते हैं उनमें करना | महां थोड़ा भी पर पदार्थ पर राग या द्वेष है यहां चारित्र मोहनीका चिन्ह प्रगट होता है । राग या ईपके वशीभूत हो अपने प्रीतमनोंपर यह प्राणी तरह का उपकार करता है और जिनपर प रखता है उनका हर तरह बिगाड़ करता है। जहां उपकारी पर प्रत्र व अपकारी पर अप्रेम है वहां राग द्वेष है। जहां उपकारी पर राम व अपकारी पर द्वेष नहीं वहीं वीतरागभाव है। इन चिन्होको बतानेका प्रयोजन यही है कि जो जीप सुख शांति प्राप्त करना चाहते हैं उनको रचित है कि वे इन तीनों को छोड़ने उपाय करें और यह उपाय एक साम्यभाव या शुद्धोपयोगका अभ्यास है। इसलिये अपने शुद्ध आत्माची भावनाका अभ्यास करके इस समताभाव के कामसे राग हेप मोडको क्षय करना चाहिये ।
श्री योगीन्द्रदेको अमृताओतिमें मोक्ष कामके लिये नीचे प्रमाण बहुत अच्छा उपदेश दिया है
वाहत्यहिरकार दुःखमारे शरीरे ।
क्षण पत रमन्ते मोडिनोऽस्मिन् चराकाः ॥ इति यदि च युद्धिर्निर्विकल्पापरूपे । भव भवनि भवन्नस्यायि धामधिपस्त्रम् ॥ ६५ ॥
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
NAM
RANAMms
३३६] श्रीप्रवचनसार भापार्टीका ।
भावार्थ-अत्यन्त आत्मासे भिन्न इस अप्सार नाशवंत, तथा दुःखोंके बोझसे भारी शरीरमें नो विचारे मोही जीव हैं के ही रमण करते हैं यह बड़े खेदकी बात है। हे भाई, यदि तेरी बुद्धि आत्माके विकल्प रहित शुद्ध स्वभावमें ठहर जावे तो तू संसारके अन्तको पाकर अविनाशी मोक्ष धामका स्वामी हो जावे ।
तात्पर्य यह है कि मोहके नाशके लिये निम आत्माका मनन ही कार्यकारी है।
और भी वही कहा है:इदागदपतिरम्प नेदमित्यादिभेदाद्विदधति पदमेते रागरोषादयस्ते ॥ तदलयालमेकं लिप्कलं निष्क्रिधरसन् । भज मनसि समाधेः सत्फलं येन नित्यम् ।। ६६ ।।
भाव यह है कि यह चीज अति रमणीक है, यह चीज रमणीक नहीं हैं इत्यादि भेद करके ये राग द्वेषादि अपना पद स्थापन करते हैं इससे कुछ कार्यकी सिद्धि नहीं होती इमलिये सर्व क्रियाकांडोंसे निवृत्त होकर शरीर रहित तथा निर्मल एक मात्माको मनन करो, इसोले तु सगाधिज्ञ अविनाशी सच्चा फल भोगेगा। यहां इतना और जानना चाहिये कि गाथामें जो करुणाभाव शब्द है व जिसका दूसरा अर्थ वृत्तिकारने दयाका अभाव किया है, हमारी सम्मतिमें मूलक का यही माव ठीक मालूम होता है कि जो मिथ्यादृष्टी होता है उसका लक्षण अनुकम्पाका अभाव है । क्योंकि सम्यग्दृष्टीके चार चिन्ह शास्त्रमें कहे हैं अर्थात प्रशम, सम्वेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य । ये ही
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । [३३७.. चार लक्षण पिथ्यादृष्टीमें नहीं होते इसीका संकेत बाचार्य ने गाथा जिया है ऐसा झलकता है। और यह बात बहुत ही ठीक मालूम पड़ती है, क्योंकि मिथ्यादृष्टीके चित्तमें आत्माका श्रद्धान न होनेसे केवल अपने स्वार्थका ही ध्यान होता है । इसलिये उसके चित्त न दयाभाव सच्चा होता है, न दयारूप वर्तन होता है।
वाम्लब सम्यक्तभाव ही कार्यकारी है यही सर्व गुणोंका बीज है ।। २३ ॥
उत्थानिका-आगे यह पहले कह चुके हैं कि द्रव्य, गुण पर्णयका ज्ञान न होनेसे मोह रहता है इसी लिये अब भाचार्य बागमके अभ्यासकी प्रेरणा करते हैं अथवा यह पहले कहा था कि द्रव्यपने, गुणपने व पर्यायपनेके द्वारा परहंत, भगवानका स्वरूप जाननेसे नात्माका ज्ञान होता है। ऐसे आत्मज्ञानके लिये आगमके अम्घासकी अपेक्षा है इस प्रकार दोनों पातनिकाओंको मनमें धरकर भाचार्य मागेका सूत्र कहते हैं- . जिणतत्वादो अहे पच्चक्लादीहिं बुज्झदो नियमा खीयदि मोहोच्यो, तन्हा सत्थं समधि ॥९३ जिनशानादर्थान् प्रत्यक्षादिभिवुध्यमानस्य नियमात् । . क्षीयवे भोहोपचयः तस्मात् शास्त्रं समध्येतव्यम् ॥ ९३ ।।
सामान्यांप-जिन शास्त्रके द्वारा पदार्थोंको प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे जाननेवाले पुरुषके नियमसे मोइका समूह नष्ट हो गाता है इसलिये शास्त्रको अच्छी तरह पढ़ना योग्य है। .
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
oawwwwwwwwwwwwwww
३१८] श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
अन्वय सहित विशेषार्थ-( निणसत्थादो ) जिन शास्त्रकी निकटतासे ( अटे) शुद्ध मात्मा आदि पदार्थीको (पञ्च. क्खादीहिं) प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंके द्वारा (बुज्झदो) जाननेवाले जीवके (णियमा) नियमसे ( मोहोवच्यो ) मिथ्या अभिप्रायके संस्कारको करनेवाला मोहका समूह (खीयदि) क्षय होजता है (ताहा) इसलिये (सत्यं समधिव्वं) शास्त्रको अच्छी तरह पढ़ना चाहिये विशेष यह है कि कोई भव्य जीव वीतराग सर्वज्ञसे कहे हुए शास्त्रसे " एगो मे सत्सदो अप्पा" इत्यादि परमात्माके उपदेशक शुतज्ञानके द्वारा प्रथम ही अपने आत्माके स्वरूपको जागता है, फिर विशेष अभ्यासके बशसे परम समाधिक कालमें रागादि विकल्पोंसे रहित मानस प्रत्यक्षसे उस हो आत्माका अनु. भव करता है । तैसे ही अनुमानसे भी निश्चय करता है । से इस ही देहमें निश्चय नयसे शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव रूप परमात्मा है क्योंकि विकार रहित स्वसंवेदन प्रत्यक्षरो वह हम ही तरह जाना जाता है जिस तरह मुख दुःख आदि । तैसे ही अन्य भी पदार्थ यथासंभव आगमसे व अभ्याससे उत्पन्न प्रत्यक्षसे वा अमानसे जाने जासत है । इसलिये मोक्षके अर्थी पुरुषको भागमका अभ्यास करना चाहिये, यह तात्पर्य है। . भावार्थ-यहां भाचार्थने अनादि मोहके क्षपका परम्परा अत्यन्त आवश्यक उपाय जिनवाणीका अभ्यास बताया है। नीवादि पदार्टीका यथार्थ ज्ञान हुए विना उनका शृद्धान नहीं हो सका, श्रद्धान बिना मनन नहीं होप्तका, मनन विना हह संस्कार नहीं हो सका, दृढ़ संस्कारफे बिना स्वात्माका अनुभव नहीं हो
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
amriwave
श्रीप्रवचनसार भापार्टीका। । ३३९ सक्ता, स्वात्माके अनुभव विना सम्यक्त नहीं हो सका । सम्यक
और स्वात्मानुभव होनेका एक ही काल है। जब यह शक्ति प्रगट हो जाती है तब ही दर्शनमोहनीय उपशम होती है। ____ सर्वज्ञ वीतराग पूर्ण ज्ञानी और पूर्ण वीतरागी होने के कारण अर्हत अर्थात जीवन्मुक्त अवस्थामें शरीर सहित होनेके कारण ही उपदेश दे सके हैं। उनका उपदेश यथार्थ पदार्थोका प्रगट कर. नेवाला होता है,उस ही उपदेशको गणधर आदि महाबुद्धिशाली आचार्य धारणामें रखते हैं और उनके द्वारा अन्य ऋषिगण जानते हैं। उनकी परम्परासे चला आया हुमा वह उपदेश है नो श्री कुन्दकुन्द, उमास्वामी, पूज्यपाद आदि आचार्योंके रचित ग्रन्थों में मौजूद है । इसलिये मिनवाणीमें प्रसिद्ध चारों ही अनुथागोंका कथन हरएक मुमुक्षुको जानना चाहिये। जितना अधिक शास्त्रज्ञान होगा उतना अधिक स्पष्ट ज्ञान होगा। मितना पट ज्ञान होगा उतना ही निर्मल मनन होगा। प्रथमानुयोगमें पूज्य पुरुषोंके जीवनचरित्र उदाहरण रूपसे फर्मोके प्रपंचको व संसार या मोक्षमार्गको दिखलाते हैं । फरणानुयोगमें जीवोंके भावोंके वर्तनकी अवस्थाओंको व फोकी रचनाको व लोकके स्वरूपको इत्यादि तारतम्य कथनको किया गया है। चरणानुयोगमें मुनि तथा श्रावकके चारित्रके भेदोंको वताकर व्यवहारचारित्रपर मारूढ़ किया गया है। द्रव्यानुयोगमें छ: द्रव्योंका स्वरूप बताकर मात्मा द्रव्यके मनन, मनन व ध्यानका उपाय बताकर निश्चय रत्नत्रयके पथको दर्शाया गया है। इन चारों ही प्रकारके सैकड़ों व हजारों ग्रन्थ निनवाणो में हैं-इनका
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
M
३४०] श्रीमवचनसार भाषाटीका। अभ्यास सदा ही उपयोगी है । सम्यक्त होने के पीछे सम्यग्चारित्रकी पूर्णता व सम्यग्ज्ञानकी पूर्णताके लिये भी जिनवाणीका अभ्यास कार्यकारी है। इस पंचमकालमें तो इसका आलम्बन हरएक मुमुक्षुके लिये बहुत ही आवश्यक है क्योंकि यथार्थ उपदेष्टाओंका सम्बन्ध बहुत दुर्लभ है। जिनवाणीके पढ़ते रहनेसे एक मूढ़ मनुष्य भी ज्ञानी हो जाता है। आत्महितके लिये यह अभ्यास परम उपयोगी है। स्वाध्यायके द्वारा मात्मा ज्ञान प्रगट होता है, कषायभाव घटता है, संसारसे ममत्व हटता है, मोक्ष भावसे प्रेम जगता है । इसीके निरंतर अभ्याससे मिथ्यात्वकर्म और अनंतानुबन्धी कषायका उपशम हो जाता है और सम्यग्दर्शन पैदा हो जाता है । श्री अमृतचंद्र आचार्यने श्री समयसार कल. शमें कहा है:
उभयनविरोधध्वंसिनि स्याद पदांके:जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः। सपदि समयसारं ते परमज्योतिरुच्चै--
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ।। भावार्थ-निश्चयनय और व्यवहारनयके विरोधको मेटनेवाली स्याहादसे लक्षित जिनवाणीमें जो रमते हैं वे स्वयं मोहको वमनकर शीघ्र ही परमज्ञानज्योतिमय शुद्धात्माको जो नया नहीं है और न किसी नयकी पक्षसे खंडन किया जा सका है देखते ही हैं।
यह स्वाध्याय श्रावक धर्म और मुनि धर्मके पालनमें भी उपकारी है । मनको अपने आधीन रखने में सहाई है। ..
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
NAAM
श्रीभवचनसार मापाटीका । [३४१ श्री गुणभद्राचार्य अपने आत्मानुशासनमें इस भांति कहते हैंअनेकान्तात्मार्थप्रसवफलभाराति विनते । वचः पीकर्णि विपुलनयशापाशतयुते ॥ समुत्तंगे सम्यक् प्रततमति मूले प्रतिदिनं । श्रुतस्कन्धे धीमान रमयतु मनो मर्कटममुम् ॥ १७ ॥
भावार्थ-बुद्धिमान पुरुष अपने मनरूपी चन्दरको प्रतिदिन शास्त्ररूपी वृक्षके स्कंधमें रमावे, जिप्त वृक्षकी जड़ सम्यक् व गाढ़ बुद्धि है, जो नाना नयरूपी सैकडों शाखाओंसे ऊंचा है, जिसमें वाक्यरूपी पत्ते हैं व नो अनेक धर्मरूप पदार्थोके बड़े २ फोकि भारसे नम्र है।
ऐसा जानकर जब आत्मामें शुद्धोपयोगकी भावना यों ही न होसके तम शास्त्रों के स्वाध्याय के द्वारा भावको निर्मल करते रहना चाहिये । यह शास्त्रका अभ्यास मोक्ष मार्गकी प्राप्तिके लिये एक प्रवल सहकारी कारण है ॥ ९३ ॥ ____उत्थानिका-भागे द्रव्य, गुण पर्यायोंको अर्थसंज्ञा है ऐसा कहते हैं:दव्वाणि गुणा तेसिंपज्जाया अहसण्णया भणिया। तेलु गुणपज्जयाणं अप्पा व्यत्ति उवदेसो ॥१४॥
द्रव्याणि गुणास्तेषां पर्याया अर्थसंशया भणिताः । तेषु गुणपर्यायाणामात्मा द्रव्यमित्युपदेशः ॥ ९४ ॥
सामान्यार्थ-द्रव्य, गुण और उनकी पर्यायोंको अर्थ नामसे कहा गया है । इनमें गुण और पर्यायोंका सर्वस्व द्रव्य है ऐसा उपदेश है।
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४२] श्रीमवचनसार भाषाटीका।
-अन्वयं सहित विशेषार्थ-(दवाणि) द्रव्य, (गुणा ) उनके सहभावी गुण व (तेसिं पज्जाया ) उन द्रव्योंकी पर्यायें ये तीनों ही (अट्ठसण्णया) अर्थके नामसे ( मणिया) कहे गए हैं । अर्थात् तीनोंको ही अर्थ कहते हैं । (तेस ) इन तीन द्रव्य गुण पर्यायोंमेंसे (गुणपज्जयाणं अप्पा) अपने गुण
और पर्यायोंका सम्बन्धी स्वभाव ( दव्वत्ति) द्रव्य है ऐसा उपदेश है । अथवा यह प्रश्न होनेपर कि द्रव्यका क्या स्वभाव है। यही उत्तर होगा कि जो गुण पर्यायोंका आत्मा या आधार है वही द्रव्य है वही गुण पर्यायोंका निभाव है। विस्तार यह है कि जिस कारणसे शुखात्मा मनन्त ज्ञान अनंत सुख आदि गुणोंको
से ही अमूर्तीकपना, अतींद्रियपना, सिद्धपना आदि पर्यायोंको इयति अर्थात् परिणमन करता है व माश्रय करता है इस लिये शुद्धात्मा द्रव्य अर्थ कहा जाता है वैसे ही जिस कारणसे ज्ञानपना गुण और सिद्धपना भादि पर्यायें अपने माघारभुत शुद्धात्मा द्रव्यको इयरति अर्थात परिणमन करती हैं-आश्रय करती हैं, इसलिये वे ज्ञानगुण व सिद्धत्व भादि पर्यायें भी मर्थ कही जाती हैं । ज्ञानपना गुण और सिद्धपना आदि पर्यायोंका जो कुछ सर्वस्व है वही उनका निज भाव स्वभाव है और वह शुद्धात्मा द्रव्य ही स्वभाव है। मथवा यह प्रश्न किया जाय कि शुद्धात्मा द्रव्यका क्या स्वभाव है तो कहना होगा कि पूर्वमें कही हुई गुणं और पर्याये हैं। जिस तरह आत्माको अर्थ संज्ञा जानना उसी तरह अन्य द्रव्योंको व उनके गुण पर्यायोंको अर्थ संज्ञा है ऐसा जानना चाहिये।
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
. श्रीमवचनसार भाषाटीका । [३४३ भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने जिनवाणीके द्वारा जिन पदार्थों को जानना है उनकी व्यवस्थाका कुछ सार बताया है, अर्थ शब्दको द्रव्य, गुण, पर्याय तीनोंमें घटाया है । इयति इति अर्थः अर्थात् गुण पर्यायोंको आश्रय घरे व परिणमन करे वह अर्थ अर्थात द्रव्य है। इसी तरह इयरति इति अर्थाः जो द्रव्यको माश्रय करते हैं ऐसे गुण तथा द्रव्य भाधारमें परिणमन करनेवाकी पर्यायें अर्थ हैं। द्रव्य गुण पर्यायोंका सर्वस्व है या समु. दाय है । यह उपदेश श्री सर्वज्ञ भगवानका है। जैसे मिट्टी अपने चिकनेपने आदि गुणको व घड़े मनोरे प्याले मादि पर्यायको माश्रय करती है इससे मिट्टी अर्थ है, वैसे चिकनापना आदि गुण मिट्टीको आश्रय करते हैं इससे चिकनापना आदि गुण अर्थ हैं। इसी तरह घड़ा, सकोरा, मटकैना आदि पर्यायें मिट्टीको आश्रय करती हैं इसलिये ये घड़े मादि अर्थ हैं । मिट्टी अपने चिकनेपने भादि गुण व घढ़ा आदि पर्यायोंका माधार है या सर्वस्व है इस लिये मिट्टो द्रव्य है । मिट्टीमें जितने सहभाषी हैं वे गुण है और उन गुणोंमें जो समय समय सूक्ष्म या स्थूल परिणमन होता है वे पर्यायें हैं। जितनी पर्यायें मिट्टीके गुणोंमें होनी संभव हैं अर्थात् जितनी पर्यायें मिट्टी गुप्त हैं वे ही क्रमसे कभी कोई कमी कोई प्रगट होती रहती हैं। एक समयमें एक पर्याय रहेगी इसलिये पीयें क्रमवर्ती होती हैं। श्री उमास्वामी महाराजने भी तत्वार्थ सूत्रमें कहा है " गुणपर्ययबद्व्यम्" ॥ ॐ अर्थात् गुण पर्यायोंको आश्रय रखनेवाला द्रव्य है । गात्मा और अनात्मारूप छहों द्रव्योंमें अर्थपना और द्रव्यपना इसी तरह सिद्ध है । आत्माके ज्ञान सुख
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४४] अभिवचनसार भापाटीकर । वीर्य चारित्र सम्यक्तादि विशेष गुण, अस्तित्त्व, वस्तुत्त्व, द्रव्यत्त्व मादि सामान्य गुण सदा साथ रहनेवाले गुण हैं । और मोक्षापेक्षा सिद्धपना आदि पर्याय हैं। सिद्ध भगवानका आत्मा अपने इन शुद्ध गुण पर्यायोंका आत्मा है, सर्वस्व है, आधार है इसलिये शुद्धात्मा द्रव्य है । इस कथनसे आचार्यने यह भी सिद्ध करदिया है कि द्रव्यमें न तो गुण बढ़ते हैं, न अपनी संख्यासे घटने हैं, उनमें प्रगटपना अप्रगटपना नाना निमित्तोंसे हुआ करता है इसीसे समय समय गुणोंकी स्वाभाविक या वैभाविक अवस्था विशेष जानने में आती है इमोको पर्याय कहते हैं। इसलिये वह चेतन प जिसमें जडपना नहीं है कभी भी पलटते पलटते जड अचेतन नहीं हो सका और न अचेतन जड़ द्रव्य पलटते पलटते कभी चेतन बन सक्ते हैं । चेतनकी पर्यायें चेतनरूप, अचेठनकी • अचेतन रूप ही हमा करेंगी। इसलिये अपने को जड़ चेतन नों एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध रखते हुए दूध पानीकी तरह मिल
उन दोनोंको ईसकी तरह अलग अलग जानो। चेतनके स्वाभाविक गुण पर्याय चेतनमे, जड़के स्वाभाविक गुणपर्यायें अचे. वनमें । इस ही ज्ञानको सच्चा पदार्थज्ञान कहते हैं । तथा यही ज्ञान विवेकरूप कहा जाता है। इसी विवेकसे निज मात्मा पथक, झलझता है, इसी झलकनको स्वानुभव व स्वात्मध्यान कहते हैं तथा यही आनंद और वीतरागताको देता है, यही निश्चय रत्नत्रयरूप मोक्ष मार्ग है, यही वंध नाशक है, यही स्वतंत्रताका बीज है इस पदार्थ ज्ञानकी महिमाको श्री अमृतचंद्र भाचार्यने समयसार कलशमें कहा है
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
- श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [३४५ ज्ञानादेव ज्वलनपयसो रोष्ण्य शैत्यव्यवस्था । ज्ञानादेवोल्लसति लवणस्वादभेदव्युदासः ॥ ज्ञानादेव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः । क्रोधादेश्व प्रभवति भिदा भिन्दती कर्तभावम् ॥६॥
भाव.यह है कि पदार्थके यथार्थ ज्ञानसे ही गर्म पानीके भीतर गर्मी अग्निकी है, पानी शीतल होता है, यह बुद्धि होती है। एक नमकीन व्यंजनमें निमकपना लवणका तथा तरकारीका स्वाद अलग है यह ज्ञानपना प्रगट होता है इसी तरह आत्मा
और अनात्माके विवेक ज्ञानसे ही मविनाशी चैतन्य प्रभु मात्मा भिन्न है तथा क्रोधादि विकारकी कलुषताको रखनेवाला सुक्ष्म कार्माण पुद्गल स्कंध अलग है यह तत्वज्ञान होता है, तब यह अज्ञान मिट जाता है कि मैं चेतन क्रोधादिका कर्ता हूं व क्रोधादि मेरे ही स्वाभाविक कार्य हैं । ऐसा भेदज्ञान होनेसे ही निज आत्मा अपने शुद्ध स्वभावमें प्रतीतिगोचर होते हुए अनुभवगोचर होता है। प्रयोजन यह है कि जिनवाणी द्वारा पदार्थोके यथार्थ ज्ञानको प्राप्त करके द्रव्योंके गुण पर्यायोंको पहचानना चाहिये तथा गुण गुणी अलप रहते हैं यह मिथ्या बुद्धि छोड़ देनी चाहिये, तब ही आत्माका हित होगा व निशंक ज्ञान होकर समताभावका उदय होगा। ___उत्थानिका--आगे यह प्रगट करते हैं कि इस दुर्लभ जैनके उपदेशको पाकरके भी जो कोई मोह रागद्वेषों को नाश करते हैं वे ही सर्व दुःखोंका क्षय करके निज स्वभाव प्राप्त करते हैं।
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४६ ]
श्रमिवचनसार भापाटीका ।
जो मोहरागदोसे हिनदि उल जोहमुवदेसं । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेन । ९५|
•
यो मोहरागद्वेषान्निहन्ति उपलभ्य जैनमुपदेशम् ।
स सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोत्यचिरेण कालेन ॥ ९५ ॥ सामान्यार्थ - जो कोई जैन तत्त्वज्ञान के उपदेशको पाकर रागद्वेषोंको नाश करता है वह थोड़े ही कालमें सर्व दुःखों से मुक्ति पाता है ।
अन्वय सहित विशेषार्थ - (नो) जो कोई मंव्य जीव (जो मुदे उवल) जैन के उपदेशको पाकर (मोहरागदोसे हिदि) मोह रागद्वेपको नाश करती है (स) वह (अचिरेण कालेन ) अल्पकाल में ही (सव्वदुक्खमोवखं पावदि) सर्व दुःखोंसे छूट जाता है । विशेष यह है कि जो कोई भव्यजीव एकेंद्रियसे विकलैंद्रिय फिर पंचेंद्रिय फिर मनुष्य होना इत्यादि दुर्लभपनेकी परम्पराको समझकर अत्यन्त कठिनता से प्राप्त होनेवाले जैन तत्वके उपदेशको पाकर मोह राग द्वेषसे विलक्षण अपने शुद्धात्माके निश्वक अनुभवरूप निश्चय सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे अविनाभूत वीतराग चारित्ररूपी तीक्ष्ण खड्गको मोह राग द्वेष शत्रुओंके ऊपर पटकता है वह ही वीर पुरुष परमार्थरूप अनाकुलता लक्षणो रखनेवाले सुखसे विलक्षण सर्व दुःखका क्षय कर देता है यह है।
भावार्थ - आचार्य ने इस गाथामें चारित्र पालने की प्रेरणा की है। तथा वृत्तिकारके भावानुसार यह बात समझनी चाहिये कि मनुष्य जन्मका पाना ही अति कठिन है। निगोद एकेन्द्रीसे
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनवार भाषाटीका । [ ३४७
उन्नति करते हुए पंचेन्द्रिय शरीर में आना बड़ा दुर्लभ है । मनुष्य होकर भी जिनेन्द्र भगवानका सार उपदेश मिलना दुर्लभ है । यदि कोई शास्त्रोंका मनन करेगा और गुरुसे समझेगा तथा अनु-, भवमें लायेगा तो उसे जिन भगवानका उपदेश समझ पड़ेगा । भगवानका उपदेश मात्मा के शत्रुओंके नाशके लिये निश्चय रस्नत्रयरूप स्वात्मानुभव है । इसीके द्वारा रागद्वेष मोहका नाश हो सक्ता है। सिवाय इस खड़गके और किसीमें बल नहीं है जो इन अनादिसे लगे हुए आत्माके वैरियोंका नाश किया जावे। जो कोई इस उपदेशको समझ भी लेवे परन्तु पुरुषार्थ करके स्वात्मानुभव न करे तो वह कभी भी दुःखोंसे छूटकर मुक्त नहीं होता । जैसा यहां आचार्य ने कहा है, वैसा ही श्री समयसार जी में आपने इन रागद्वेष मोहके नाशका उपाय इस गाथासे सूचित किया है-
जो आदभावणमिणं निच्चुवजुत्तो मुणी समाचरदि । सो सव्वदुक्खमक्खं पावदि अचिरेण कालेन ॥ १२ ॥
भावार्थ- जो कोई मुनि नित्य उद्यमवंत होकर निज आत्माकी भावनाको आचरण करता है वह शीघ्र ही सर्व 'दुःखोंसे छूट जाता है ।
·
श्री योगेन्द्रदेवने श्री ममृताशीति में इसी बातकी प्रेरणा की हैसत्साम्यभाव गिरिगहर मध्यमेत्य । पद्मासनादिकमदोषमिदं च वद्ध्वा । आत्मानमात्मनि सखे ! परमात्मरूपं । व ध्याय वोल्स मनु यन सुखं समाधेः ॥ २८ ॥
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४८] श्रीप्रवचनसार भापाटीका ।
भावार्थ-सच्चे समताभाव रूपी पहाड़की गुफाके मध्यमें जाकर और दोष रहित पद्मासन आदि कोई भी आसन बांधकर हे मित्र ! तू अपने आत्मामें अपने परमात्म रूपका ध्यान कर, जिससे अवश्य तू समाधिक आनंदको भोगेगा।
प्राचार्य कुलभद्रजीने सारसमुच्चयमें कहा हैआत्मानं स्नापयनित्यं ज्ञाननीरेण चारुणा । येन निर्मलतां याति जीवो जन्मान्तरेवपि ॥ ३१४ ।।
भाव यह है कि नित्य ही सुंदर आत्मज्ञानरूपी जलसे आत्माको स्नान कराना चाहिये, जिससे यह जीव जन्म जन्म भी निर्भलताको प्राप्त हो जावे। वास्तवमें यह जीव उपयोगको थिरकर भेदज्ञान द्वारा परको अलगकर निजको ग्रहण करता है तब ही बीतराग चारित्रके द्वारा मोहकर्मका नाश करता है। इस तरह द्रव्य, गुण, पर्यायके संवन्धमें मूढताको दूर करने के लिये
ओंसे तीसरी ज्ञानकंठिका पूर्ण हुई ॥ ९५ ॥ उत्थानिका-आगे सुचित करते हैं कि अपने आत्मा और परके भेद विज्ञानसे मोहका क्षय होता है । णाणप्पगलप्पाणं, परं च दव्यत्तणाहि संपर्छ । जाणदि जदि णिच्छयदो, जो सो मोहक्वयं
कुणदि ॥ ९ ॥ ज्ञानात्मकमात्मानं परं च द्रव्यत्त्वेनामिसंबद्धम् । जानाति यदि निश्चयो यः स मोहक्षयं करोति ॥ ९६ ॥ सामान्याथ-जो कोई यदि निश्चय अपने ज्ञान स्व
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
www
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [३४९ रूप आत्माको तथा अन्य चेतन अचेतन पदार्थको अपने अपने द्रव्यपनेसे सम्बंधित जानता है वही मोहका क्षय करता है।
अन्वय सहित विशेषार्थः-(जो ) जो कोई (णिच्छयदो) निश्चय नयके. द्वारा भेदज्ञानको आश्रय करके (जदि) 'यदि (णाणप्पगमप्पाणं परं च दव्वत्तणाहि संबद्धं जाणदि ) अपने .ज्ञान स्वरूप मात्माको अपने ही शुद्ध चैतन्य द्रव्यपनेसे सम्बंधित तथा अन्य चेतन अचेतन पदार्थोंको यथायोग्य अपनेसे पर चेतन' अचेतन द्रव्यपनेसे सम्बंधित जानता है या अनुभव करता है (सो मोहक्खयं कुणदि ) वही मोह रहित परमानन्दमई एक स्वभावरूप शुद्धात्मासे विपरीत मोहका क्षय करता है। . भावार्थ-यहां आचार्यने भेद विज्ञानका प्रकार बताया है। पहले तो अनादिसे सम्बंधित पुद्गल और आत्माको अलगअलग द्रव्य पहचानना चाहिये। आत्माका चेतन द्रव्यपना आत्मामें तथा पुद्गलका अचेतन द्रव्यपनां पुद्गलमें जानना चाहिये फिर अपने स्वाभाविक आत्म पदार्थसे सर्व अन्य आत्माओंको तथा अन्य पांच द्रव्यों को भी मिन्न२ जानना चाहिये इस तरह जब निश्चयनयके द्वारा द्रव्यदृष्टिसे जगतको देखनेका अभ्यास डाले तव इस देखनेवालेकी पर्यायष्टि गौण हो जाती है और द्रव्यदृष्टि मुख्य हो जाती है। तब द्रव्यदृष्टिमें पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल और जीव सब अपने२ स्वभावमें दिखते हैं । अनंत आत्माएं भी सब समान शुद्ध ज्ञानानंदमयी भासती हैं-तब समताकी भावना दृढ़ हो जाती है। रागद्वेष मोह अपने आप चले जाते हैं। मात्र पर्यायष्टिमें रागद्वेष मोह झल--
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५० ]
atraenner भाषाटीका 1
कते हैं जैसे दूधपानी, सोनाचांदी, ताम्वापीतल व वस्त्र ल मिले हुए भी भेदविज्ञान से अलग अलग जाननेमें जाते हैं वैसे ही चेतन और अचेतन मिले हुए होनेपर भी भिन्न २ जानने में खाते हैं । भेदज्ञानके प्रतापसे निन आत्मा द्रव्यको अलग करके अनुभव किया जाता है तव ही मोहका नाश होता है। इस मैद विज्ञानकी महिमा स्वामी अमृतचंद्रजीने समयसारकलशमें इस कांति दी है
सम्पद्यते संवर एप साक्षाच्छुद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलम्भात् । सभेदविज्ञानत एव तस्यादभेदाविज्ञानमतीव भाव्यम् ॥ ६ ॥
मार्थ- शुद्धात्मतत्त्व लाभसे यह संवर होता है सो लाभ भेद विज्ञानके द्वारा ही होता है इसलिये भेद विज्ञानको अच्छी तरह भावना चाहिये ।
श्री नागसेन मुनिने भी तत्त्वानुशासनमें कहा है:
कर्मभ्यः समस्तेभ्यो भावभ्यो भिन्नव । ज्ञ स्वभावगुदासीनं पश्येदात्मानमात्मना ।। १६४ ||
भावार्थ - ध्याता सपने आत्माको अपने आत्मा ही के द्वारा सर्व कर्म ननित भावोंसे भिन्न ज्ञान स्वभाव तथा वीतराग स्वरूप सदा अनुभव करे ॥ ९६ ॥
उत्थानका -आगे पूर्व सुत्रमें जिस स्व परके भेद विज्ञानकी बात कही है वह भेद विज्ञानके जिन भागमके द्वारा सिद्ध होसता है ऐसा कहते हैं:
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwwwwwwwwe
श्रीप्रवचनसार भापाटीका। ३५१ तम्हा जिणमानादो गुणेहिं आदं परं च दव्वेमु। . आभिगच्छदु णि मोहं इच्छदि जदि अप्पणो
अप्पा ॥१७॥ तस्मानिनमार्गाद्गुणरात्मानं परं च द्रव्येषु । अभिगच्छतु निर्मोहमिच्छति यद्यात्मन आत्मा ॥ ९७ ॥
सामान्यार्थ-इसलिये जिन भगवान कथित मार्गके द्वारा द्रव्यों से अपने, आत्मा और पर द्रव्यको उनके गुणों की अपेक्षासे नाने, यदि आत्मा अपनेको मोह रहित करना चाहता है। ___अन्वय साहित विशेषार्थः-( तम्हा ) क्योंकि पहले यह कह चुके हैं कि स्वपरके भेद विज्ञानसे मोइका क्षय होता है इसलिये ( जिणभग्गादो ) जिन आगमसे (दव्वेतु ) शुद्धात्मा आदि छः द्रव्योंके मध्यमेंसे ( गुणैः ) उन उनके गुणों के द्वारा (आदं परं च) आत्मानो और परद्रव्यको (अभिगच्छदु) जाने, (नदि ) यदि ( अप्पा ) आत्मा (अपणो) अपने भीतर (णिम्मोह ) मोह रहित गावको ( इच्छदि ) चाहता है। विशेष यह है कि जो यह मेरा चैतन्य भाव अपनेको और परको प्रकाशमान करनेवाला उसी करके मैं शुद्ध ज्ञानदर्शन भावको अपना आत्मा रूप जानता हूं तथा पर जो पुनल आदि पांच द्रव्य हैं तथा अपने जीवझे सिवाय अन्य सर्व जीव हैं उन सबको पररू. पसे जानता हूं | इस कारणसे जैसे एक घरमे जलते हुए अनेक. दीपकों का प्रकाश यद्यपि मिल रहा है तथापि सबका प्रकाश अलग अलग है । इस ही वह सर्पद्रव्यों के भीतरमें मेरा सहज शुद्ध
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
newmanawraanware
३५२ ] श्रीभवचनसार भाषाटीका। चिदानन्दमई एक स्वभाव अलग है उसका किसी के साथ मोह नहीं है यह अभिप्राय है।
भावार्थ-इस गाथामें भी भाचार्यने शास्त्र पठन और भेद • ज्ञानकी प्रेरणा की है। जो मार्ग या धर्म या उपाय संसारसे उद्धार होनेका श्री जिनेन्द्रोंने बताया है वही मिनवाणी में ऋपियोंफे द्वारा दर्शाया गया है । इसलिये जिन आगमका भले प्रकार अभ्यास करके लोक जिन छः द्रव्योंका समुदाय है उन छहों द्रव्योंको भले प्रकार उनके सामान्य विशेष गुणों के द्वारा जानना चाहिये । उन द्रव्योंके गुण पर्यायोंको अलग अलग समझ लेना चाहिये । यद्यपि अनंत नीव, अनन्त पुदल, असंख्यात कालाणु, एक धर्मास्तिकाय, एक अधर्मास्तिकाय तथा एक माकाशास्तिकाय परस्पर एक क्षेत्र रहते हुए इस तरह मिल रहे हैं जैसे एक घरमें यदि अनेक दीपक जलाए जाय तो उन सबका प्रकाश सब मिल जाता है तथापि जैसे प्रत्येक दीपकका प्रकाश मिन्नर है, क्योंकि यदि एक दीपकको वहांसे उठा ले जावे तो उसीका प्रकाश उसके साथ अलग होकर चला जायगा, इसी तरह हरएक द्रव्य अपनी अपनी सत्ताको भिन्न २ रखता है कोईकी सत्ता कभी भी किसी अन्य द्रव्यकी सत्तासे मिल नहीं सक्ती ऐसा जानकर अपने जीव द्रव्यको सबसे अलग ध्यानमें लेना चाहिये तथा उसका जो कुछ निन स्वभाव है उत्तीपर लक्ष्य देना चाहिये। जीवका निज स्वभाव शुद्ध नलकी तरह निभल ज्ञाता दृष्टा वीतराग और .
आनन्द मई है वही मैं हूं ऐसा अनुभव करना चाहिये । मेरा . -- सम्बन्ध या मोह किसी भी अन्य जीव व सर्व अचेतन द्रव्योंसे .
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीभवचनसार आपाटीका ६६३. नहीं है इसीको . भेवज्ञान कहते हैं । इस भेदज्ञानके द्वारा नंब आत्मानुभवका अभ्यास किया जाता है तब अवश्य मोहकी अंथी टूट जाती है और यह मात्मा परम निर्मोही दीलगगी तथा शुद्ध होनाता है। ना भेद ज्ञान होनाता है तब ही सम्यक्त भाव प्रगट होजाता है और दर्शन मोहनीय उपशम या क्षय हो जाती है फिर पायक उदयनित राग द्वेषका अंत पुनः २ आत्मभावना या साम्रभाव या शुद्धोपयोगके प्रतापसे हो जाता है। तब यह आत्मा पूर्ण वीसरागी हो जाता है।
ऐसी ही भावनाका उपदेश समयसारनी में भी भाचार्य महारामने किया हैअहमिको व्वल सुद्धोय णिममो णाणसणसमग्यो । सम्हि दिदो सचिसो सच्चे एरे खयं णेमि ॥.७८ ।।
भाव यह है कि मैं एक अकेला निश्चयसे शुद्ध हूं , ज्ञानदर्शगसे पूर्ण न किसीसे भी ममत्व नहीं है। इसी अपने स्वभावमें ठहरा हुआ, उसीमें लीन हुआ मैं इन सर्व मोहादिका क्षय करता हूं।
श्री आत्मानुशासनमें श्री गुणभद्राचार्यजीने कहा है:ज्ञानस्वभावः स्यादात्मा स्वभाव चालिरच्युतिः । तस्मादच्युतिमाकाक्षन् भावयेत्र ज्ञानभावनाम् ॥ १७४ ।। रागद्वेपछताभ्यां जन्तोन्धः प्रवृत्यवृत्तिभ्याम् । सत्यज्ञानकृताभ्यां ताभ्यामवेक्ष्यते मोक्षः ॥ १८० ॥ मोहवीजाति पौ पीनान पूलांकुराविव । तस्माज ज्ञानाग्निना शाही देतो निर्दिधिक्षुणा ॥ १८ ॥
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
www
wwwwwmvimmmmmmmnann...00
३५४] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
पदार्थ-आत्मा ज्ञान स्वभाव है, स्वभावकी प्राप्ति मोक्ष है. इसलिये मोक्षका चाहनेवाला ज्ञानभावनाको भावै । रागद्वेषसे हुई प्रवृत्ति य निवृत्तिसे इस जीवके कर्म वय होता है । तत्त्वज्ञानके द्वारा उन राग दोषोंसे मोक्ष होजाती है। जैसे चीनसे अंकुर फूटते हैं ऐसे ही मोइबीनसे रागहेप होते हैं इसलिये जो रागढेपको जलाना चाहे उसे ज्ञानकी अगि जलाकर इन दोनाको नहा देना चाहिये।
इस रह स्व परके ज्ञानमें मूढ़ताको हटाते हुए दो गाथाओंके द्वारा चौथी ज्ञानकंठिका पूर्ण हुई।
इ५ तरह पचीत गाथाओं के द्वारा ज्ञानकंठिकाका चतुष्टय नामका दुस्स अधिकार पूर्ण हुआ ॥ ९७ ॥
उन्ध निका-मागे वह निश्चय करते हैं दोष रहित अरहंत परमात्मा द्वारा पहे हुए पदायों के शृद्धानके बिना कोई श्रमण या साधु नहीं होता है । ऐसे अडरहित साधुमें शुद्धोपयोग लक्षणको धरनेयाला धर्म भी संभव नहीं है। सत्तापद सचिलेले जो हि व सामपणे । सद्दहदि प सो सरणो, तत्तो धम्ला ण
संभयदि ॥ २८ ॥ सत्तासंगखानेतान् सवित्रपान् यो हि नैव भामण्ये । श्रद्दधाति न स श्रमणः ततो धर्मो न संभवति ॥ १८ ॥
सामानार्थ-जो कोई नीव निश्चयसे साधु अवस्थामें सत्ता मावसे एक संबद्धरूप तथा विशेष भावसे भिन्न २ सत्ता सहित इन पदार्थीका शृद्धान नहीं करता है वह भाव साधु नहीं
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
wwwww
__ श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । [३५६:.
minim है-उस द्रव्य साधुसे धर्मका साधन संभव नहीं है.। ......
अन्वय सहित विशेषार्थ-(नो) जो कोई नीव (हि).. निश्चयसे (सामण्णे) द्रव्य रूपसे साधु अवस्थामें विराजमान होकर भी (सत्तासंबढेदे सविसेसे) महासत्ताके संबंधरूप सामान्य अस्तिस्व सहित तथा विशेष सत्ता या अवान्तर सत्ता या अपने स्वरूपकी सत्ता सहित विशेष अस्तित्व सहित इन पूर्वमें कहे हुए. शुद्ध जीव आदि पदार्थों को (ण सहदि) नहीं श्रद्धान करता है (सो सवणो ण) वह अपने शुद्ध आत्माकी रुचि रूप निश्चय सम्यग्दर्शनपूर्वक परम सामायिक संयम लक्षणको रखनेवाले साधुपनेके विना भावंसाधु नहीं है, इस तरह भावप्साधुपनेके अभावसे (तत्तो धम्मो ण संभवदि) उस पूर्वोक्त द्रव्यसाधुसे वीतराग शुद्धा. स्मानुभव लक्षणो धरनेवाला धर्म भी नहीं पालन हो सक्ता है यह सुत्रका अर्थ है।
भावार्थ-यहां आचार्यने भावकी प्रधानतासे व्याख्यान किया है और यह स्पष्ट कर दिया है कि यथायोग्य भावके विना साधुपना मोक्षका मार्ग नहीं है और न उससे मोक्ष ही प्राप्त हो सक्ता है । हरएक मनुष्यको नो धर्मपालन करना चाहे सम्यक्तकी आवश्यक्ता है । सम्यग्दर्शनने विना ज्ञान सम्यग्ज्ञान तथा चारित्र सम्यग्चारित्र नहीं होसका है । इसलिये लोकमें जिन छ द्रव्यों: का कथन श्री जिन आगममें बताया है उनका यथार्थ. श्रद्धान होना चाहिये । जगतमें पदार्थोकी सत्ता सामान्य विशेषरूप है। जैसे हाथी शब्दसे सामान्यपने सब हाथियोंका बोध, होता है परंतु विशेषपने प्रत्येक हाथोकी सत्ता भिन्न २ है। वृक्ष कहनेसे
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५६ ]
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
सर्व वृक्षोंकी सत्ता जानी जाती है, तथापि प्रत्येक वृक्ष अपनी भिन्न २ सत्ता रखता है । इसी तरह द्रव्योंमें जो सामान्य गुण व्यापक हैं जैसे गस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, द्रव्यत्त्व, प्रदेशत्व, अगुरुलघुत्व उन सबकी अपेक्षा द्रव्य एकरूप है तथापि अनेक द्रव्य होनेसे सब द्रव्य अपने भिन्न र अस्तित्वको व वस्तुत्व आदिको भी रखते हैं । इस भेदको जानना चाहिये, जैसे महासत्ता एक है तथा अवान्तर सत्ता अनेक है । महावस्तु एक हैं । विशेष वस्तु अनेक है। इसके सिवाय विशेष गुणोंकी अपेक्षा छ:द्रव्योंके भेदको भिन्न २ जानना चाहिये । सजातीय अनेक द्रव्यों में हरएककी aat fee २ निश्चय करना चाहिये जैसे प्रत्येक जीव स्वभावकी अपेक्षा परस्पर समान हैं परन्तु भिन्न २ सत्ताको सदा ही रखते रहते हैं, चाहे संसार अवस्थामें हों या मुक्तिकी अवस्था में हों । पुद्गलके परमाणु यद्यपि स्कंध होजाते हैं तथापि प्रत्येक परमाणु अपनी अपनी नि २ सत्ता रखता है जो परस्पर एक क्षेत्र में रहते हुए द्रव्यों के सामान्य विशेष स्वभावोंको निश्चय करके अपने आत्माको अपनी बुन्देसे भिन्न पहचान लेता है वही सम्यग्दृष्टी व श्रद्धावान है। वही क्षीर जलकी तरह पुद्गलसे मिश्रित अपने जीवको अलग कर लेता है। इसी श्रद्धावान के सच्चा भेद ज्ञान होता है, और यही जीव साधुपदमें तिष्ठकर अपने आत्माको भिन्न ध्याता हुमा शुद्धोपयोग या साम्यभाव पर आरूढ़ होकर कर्मबंधका क्षय कर सक्ता है । यही धर्मसाधक है क्योंकि निश्चयसे अभेदरत्नत्रय स्वरूप अपना आत्मा ही मोक्ष मार्ग है । व्यवहार धर्म निश्चय धर्मका मात्र
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
[ ३५०
निमित्त कारण है । इसलिये जिस साधुके भावमें निश्चय धर्म नहीं है वह द्रव्य लिंगी है-भावलिंगी नहीं है । भाव लिंगी हुए विना वह परम सामायिक संयम जो वीतराग भावरूप तथा निज मात्मा तल्लीनता रूप है नहीं प्राप्त हो सक्ता है। जहां सामायिक संयम नहीं वहां मुनिपना कथन मात्र है । साधुपदर्भे उसी बातको साधन करना है जिसका अपनेको श्रद्धान है । जो निज आत्माको सबसे मित्र पहचानता है वही भेद भावनाके अभ्यास से निमको परसे छुड़ा सक्ता है । जैसे जो सुवर्णकी कणिकाओं को पहचानता है वही उन कणिकाओं को मिट्टीकी कणिकाओंके मध्यमें से चुन सका है इसलिये भावकी प्रधानता ही कार्यकारी है ऐसा निश्चय रखना चाहिये। ऐसा ही श्री अमृतचंद्र माचायेने समयसार कलश में कहा है:
एको मोक्षपयो य एष नियतो दरइतिवृत्यात्मकस्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति ॥ ' तस्मिन्नेव निरंतर विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन' सोऽवश्यं समयत्यसारमचिरान्नित्योदयं विन्दति ॥ ये त्वेनं परिहृत्य संवृतिपथ प्रस्थापिते नात्मना लिङ्गे द्रव्यमये वहन्ति ममतां तत्वावबोधच्युताः । नित्योद्योतमखण्डमेकमतुला लोकं स्वभावप्रभा प्राग्भारं समयस्य सारममलं नाद्यापि पश्यन्ति ते ॥ ४८ ॥ व्यवहारविमूढः परमार्थ कलयन्ति नो जनाः तुपचोधविमुग्वबुद्धयः कलयन्तीह तुपं न तन्दुलम् ॥४९॥.
भावार्थ-निध्य करके सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप एक यह आत्मा ही मोक्ष मार्ग है जो कोई उसीमें रात्रि दिन ठहरता
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५८] श्रीप्रवचनसार भापाटीका । • है, उसीको ध्याता है, उसीका अनुभव करता है तथा उसी दी
अन्य द्रव्योंको न स्पर्श करता हुआ विहार करता है सो ही सवश्य शीघ्र नित्य उदयरूप शुद्धात्माको प्राप्त कर लेता है। जो कोई व्यवहार मार्गमैं अपनेको स्थापित करके इस निश्चय मार्गको छोड़कर द्रव्यलिंगमें ममता करते हैं और तत्त्वज्ञानसे रहित हो जाते हैं वे अब भी नित्य उद्योतरूप, अखंड, एक, अनुपमज्ञानमई स्वभावसे पूर्ण तथा निर्मल समयसारको नहीं अनुभव करते हैं। जो व्यवहार मार्गमें मूढ़ बुन्हि हैं वे मनुष्य निश्चयको नहीं अभ्यास करते हैं और न परमार्थको पाते हैं, जैसे जो चावलकी भूसीमें चाइलों का ज्ञान रखते हैं वे सदा तुपको ही चादळ जानते हुए तुषका ही लाभ करते हैं, चावलको कभी नहीं पाते हैं।
श्री योगेन्द्राचार्यने योगसारमें यही कहा हैजो अप्पा सुद्ध वि मुणइ असहसरिधिभिष्णु । सो जाणइ सच्छइ सयलु सासयसुक्खहली ॥१४॥ जो ण वि जाणइ अप्प परु ण वि परभाव चरवि ! जो जाणत सच्छइ सयल्लु ण हु सिवमुक्ख लहेवि ॥१५॥ हिंसादिज परिहारकरि जो अप्पाहु ठदेइ ।। जो बीअउ चारित्त मुणि जो पंचमगइ णेइ ॥१०॥
भावार्थ-जो अपने आत्माको मशुचि शरीरसे भिन्न शुद्ध रूप ही अनुभव करता है वही अविनाशी मतींद्रिय सुखमें लीन होता हुआ सर्व शास्त्रोको जानता है। जो आत्मा अनात्माको
नहीं पहचानता है और न परभावको ही त्यागता है वह सर्व • शास्त्रोंको जानता हुआ भी नहीं जानता हुमा मोक्ष सुखको नहीं
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
[ ३५९
'पाता है । जो साधु हिंसादि पांच पाप त्यागकर अपने आत्माको I स्थिर करता है उसी अनुपम चारित्र होता है और वही पंचम गतिको ले जाता है। ऐसा जान शुद्धोपयोगको ही धर्म जान उसी हीकी निरंतर भावना करनी योग्य है ॥ १८ ॥
उत्थानका- आगे आचार्य महाराजने
पहली नमस्कारकी गाथा " उवसंपयामि सम्मं " आदिमें जो प्रतिज्ञा की थी । उसके पीछे " चारित खलु धम्मो " इत्यादि सुत्रसे चारित्रके धर्मना व्यवस्थापित किया था तथा " परिणमदि जेण दव्वं " इत्यादि सूत्र से आत्मा धर्मपना कहा था इत्यादि सो सब शुद्धोपयो प्रसादसे साधने योग्य है । अब यह कहते हैं कि निश्चयरत्नत्रयमें परिणमन करता हुआ आत्मा ही धर्म है । अथवा दूसरी पातनिका यह है कि सम्यक्त विना सुनि नहीं होता है, ऐसे मिथ्यादृष्टो भ्रमणसे धर्म सिद्ध नहीं होता है, तब फिर किस तरह श्रमण होता है ऐसा प्रश्न होनेपर उत्तर देते हुए इस ज्ञानाधिकारको संकोच करते हैं ।
जो हिदमोहदिट्टी आगमकुललो विरागचरियमि । अमुट्ठिदो महपा, धम्मोत्ति विसेलिदो समणो ॥ ९९
यो निहतमोहदृष्टिरागम कुशलो विरागचरिते ।
अभ्युत्थितो महात्मा धर्म इति विशेषितः श्रमणः ॥ ९९ ॥
सामान्यार्थ - जिसने दर्शन मोहको नष्ट कर दिया है, जो आगम ज्ञानमें कुशल है व वीतराग चारित्रमें लीन है तथा महात्मा है वही मुनि धर्म है ऐसा कहा गया है ।
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
NewM
३६० ] श्रीप्रवचनसार भापाटीका ।
अन्वय सहित विशेषार्थ-( जो समणो ) मो साधु (णिइदमोहलिट्ठी) तत्वार्थ श्रद्धानरूप व्यवहार पम्यक्त के द्वारा उत्पन्न निश्वर सम्यग्दर्शनमें परिणमन करने दल मोहको नाश कर चुका है, ( आगमकुमलो ) निर्दोष परमागासे रहे हुए परमागमके अग्बामसे उपाधि रहित स्वसंवेदन ज्ञानक्षी चतुराईसे आगमज्ञान प्रवीण है (विरागचरियम्मि मन्मुट्टिो बन, ममिति, गुप्ति मादि बाहरी चारित्रके साधनके चशसे से शुद्धात्मामें निश्चल परिणमारूप वीतराग चारित्रमें वतने घास परम वीत. · राग चारित्रमें भले प्रकार उद्यमी है तथा ( मप्पा मोक्ष रूप महा पुरुषार्थको साधने के कारण महात्मा है वही (धम्मोत्ति विखेसिदो) जीना. गरना, लाम, अलाम आदिमें समताशी भावनामें परिणमन करनेवाला श्रमण ही अभेद नबसे मोह सोम रहित आत्माका परिणामरूप निश्चय धर्म कहा गया है।
भावार्थ-जो प्रतिज्ञा श्री कुन्दकुन्दाचार्य महामने पहले की थी कि शुद्धोण्योग या साम्यभावका गैं आश्भर करता हूं, उसीका वर्णन पूर्ण करते हुए इस गाथामें बताया है कि व्यवहार रत्नत्रय द्वारा प्राप्त निश्चय रत्नत्रयमें तिएनेवाला शुद्धोपयोग या साम्यभावका धारी साधु है वही सच्चा साधु है तथा वहीं धर्मात्मा है, वही महात्मा है. वहीं मोक्षका पात्र हैं, बड़ी पर- , मात्माका पद अपने में प्रकाश करेगा । इस गाथाको कहकर आचायेने व्यवहार व निश्चय रत्नत्रयकी उपयोगिताको बहुत अच्छी तरह बता दिया है। तथा यह भी प्रेरणा की है कि जो स्वाधीन होकर निज आत्मीक सम्पत्तिका बिना किसी पापाके सदा ही
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । ३६१. Hmmin
भोग करना चाहते हैं उनको प्रथम शास्त्रज्ञानसे तत्वार्थ शृद्धान . . 'प्राप्तकर निश्चय क्षायिक सम्यक्त प्राप्त करना चाहिये, फिर आंग-, • मके अधिक अभ्याससे ज्ञान वैराग्यको बढ़ाते हुए व्यवहार चारि-',
के द्वारा वीतराग चारित्रको लाधन करना चाहिये। यही साक्षात मोक्षमार्ग है । यही रत्नत्रयकी एंकता है तथा यही स्वात्मानुभव है व यही निर्विकल्प ध्यान है । यही परिणाम. कर्मकाण्टके भस्म करनेको अग्निके समान है। ... ! - श्री योगेन्द्रदेवने. अमृताशीतिमें कहा है। हगवगमनवृत्तस्वस्वरूपप्रवि ' ::
व्रजति जलंधिकल्प ब्रह्मगम्भीरभाव । लमपि मुनयमत्वान्मद्वचस्सारमास्मिन् ।', .... :: :भवात भव. भवान्तस्थायिधामाधिपरत्वम् ॥ ६३ ॥ .. यदि चलति कथाञ्चिन्मानसं स्वस्वरुपाद:. :: ..
. भ्रमति बहिरंतस्ते सर्वदोषप्रसंशाः । ... ... ..... सदनवरतमन्तमग्नसंविग्नचिंचों।".. . भव भवास भवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम् ॥ ६४॥
भावार्थ-दर्शन ज्ञान चारित्रमई अपने स्वरूपमें प्रवेश किया हुआ यह 'आत्मा. समुद्र समान ब्रह्मके गंभीर भावमें, चला
नाता है। तु भी मेरे सार 'वचनको अच्छी तरह मानकर 'यदि चले तो तू संसारकी अंतकर मोक्षधामका स्वामी हो जावे.
यदि कहीं अपने निज स्वरूपसे "मन चल जाय तो बाहर ही 'धूमता है, जिससे सर्व दोषोंका प्रसंग आता है । इससे निरंतर अंतरेंगमें मग्नचित्त होता हुआ तू सिद्धधामका "पंति होना ॥९९ ।।
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६२] श्रीमवचनसार भापाटीका।
उत्थानिका-आगे ऐसे निश्रय रत्नत्रयमें परिणमन करनेवाले महा मुनिकी जो कोई भक्ति करता है उसके फलको दिखाते हैंजो तं दिहा तुहो अन्मुहित्ता करेदि सकारं। बंदणणमंसणादिहि तत्तो सो धम्ममादियदि ॥
यो तं दृष्ट्वा तुष्टः अभ्युस्थित्वा करोति सत्कार । वंदननमनादिभिः ततः सो धर्ममादत्ते ॥ १०० ॥
सामान्यार्थ-जो कोई ऐसे साधुको देखकर संतोपी होता हुआ उठकर वंदन नमस्कार मादिके द्वारा सत्कार करता है वह उस साधुके द्वारा धर्मको ग्रहण करता है। __ अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो तं दिट्ठा तुट्ठो) जो कोई भव्योंमें प्रधान वीतराग शुद्धात्माके अनुभवरूप निश्चय धर्ममें परिणमनेवाले पूर्व सूत्रमें कहे हुए मुनीश्वरको देखकर पूर्ण गुणों में अनुरागभावसे संतोषी होता हुआ (अन्मुट्टित्ता) उठकर (वंदणणमंसणादिहिं सक्कार करेदि) "तव सिद्धे णयसिद्ध" इत्यादि वंदना तथा " णमोस्तु " रूप नमस्कार इत्यादि भक्तिविशेषोंके द्वारा सत्कार या प्रशंसा करता है (सो तत्तो धम्ममादियदि) सो भव्य ' उस यतिवरके निमित्तसे पुण्यको प्राप्त करता है।
भावार्थ-द्रव्य और भाव लिंगधारी साधु ही यथार्थमें भक्ति करने के योग्य हैं। उनकी भक्तिमें भीतरसे जो प्रेमरूप मासक्ति होती है वही बाहरी भक्तिको वचन तथा कायके द्वारा प्रगट कराती है । उस शुभ भावके निमित्तसे महान पुण्यका काम
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
[ ३६३
होता है | इसके सिवाय उनका उपदेश व उनकी शांत मुद्रा हमें उसी शुद्धोपयोगरूप धर्मको सिखाती है जिसे ग्रहणकर हम भी मोक्षका साधन कर सकें ॥ १०० ॥
उत्थानका- आगे कहते हैं कि उस पुण्यसे परभवमें क्या फल होता है:
तेण णराव तिरिच्छा, देविं वा माणुसिं गदिं पय्या । विहविसरियेहिं सया संपुष्णमणोरहा
होति ॥ १०१ ॥
तेन नरा वा तिर्यञ्चो देवीं वा मानुषीं गतिं प्राप्य । विभवश्वर्याभ्यां सदा संपूर्णमनोरथा भवति ॥ १०१ ॥
सामान्यार्थ - उस पुण्य से मनुष्य या विर्यच देव या मनुष्यकी गतिको पाकर विभूति व ऐश्वर्य्यसे सदा सफल मनोरथ होते हैं ।
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( तेण ) उस पूर्वमें कहे हुए पुण्य से ( णरा वा तिरिच्छा ) वर्तमानके मनुष्य या तिथेच ( देविं वा माणुसिं गदिं पय्या ) मरकर अन्यभवमें देव या मनुव्यकी गतिको पाकर (विहविस्तरियेहिं सया संपुण्ण मणोरहा होंति ) राजाधिराज संबंधी रूप, सुन्दरता, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री आदिसे पूर्ण विभूति तथा आज्ञारूप ऐश्वर्य्यसे सफळ मनोरथ होते हैं । वही पुण्य यदि भोगोंके निदान विना सम्यक दर्शन पूर्वक होता है तो उस पुण्य से परम्परा मोक्षकी प्राप्ति होती है यह भावार्थ है ।
है !
4
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६४] श्रीमवचनसार भापाटीका ।
भावार्थ-आचार्य ने इस गाथामें उपासकके लिये धर्म सेवनका फल बताया है तथा यह भी प्रगट किया है कि मोक्षका साक्षात् लाभ वही साधु कर सकता है जो निश्चय रत्नत्रयमें लीन होकर शुद्धोपयोगमें स्थिर होता है । वीतराग चारित्रके विना कर्मोका दहन नहीं हो सका है। तब जो गृहस्थ हैं या चौथे पांचवें गुणस्थान धारी हैं उनको क्या फल होगा? इसके लिये कहा है कि वे मनुष्य या पंचेन्द्री सैनी पशु अतिशयकारी पुण्य बांधकर स्वर्ग में जाते हैं, वहांसे भार उच्च मनुप्यके पद पाकर मुनि हो मोक्ष आते हैं, अथवा कोई इसी भावके पीछे मनुष्य हो मुनिव्रत पाल मोक्ष जाते हैं। उपासक या श्रावकका धर्म परम्परा मोक्ष साधक है जब कि साधुका धर्म साक्षात मोक्ष साधक है । इसका अभिप्राय यह नहीं है कि राष ही साधु उसी भवसे मोक्ष पा सक्ते हैं, किन्तु यह है कि यदि मोक्ष होगी तो साधु पदमें परम शुलध्यान द्वारा ही मोक्ष होगी। बातवमें इस शुद्धोपयोगकी भक्ति भी परमार्थकारी पै ॥ १.१॥ ___ इस प्रकार श्री जयसेनाचार्य कृत तात्पर्य वृत्ति टीकामें पूर्वमें कहे प्रमाण " एस सुरासुरमणुसिंदबंदियं " इस गाथाको आदि लेकर ७१ बहत्तर गाथाओंमें शुद्धोपयोगका अधिकार है फिर " देवदादि गुरु पूजासु" इत्यादि पचीस गाथाओंसे ज्ञानकंठिका चतुष्टय नामका दुसरा अधिकार है फिर “सत्तासंबढेदे, इत्यादि सम्यकदर्शनका कथन करते हुए प्रथम गाथा, तथा रत्नत्रयके धारी पुरुषके ही धर्म संभव है ऐसा कहते हुए " जो णिहदमोदविट्ठी " इत्यादि
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [३६५ दूसरी गाथा है इस तरह दो स्वतंत्र गाथाएं हैं । उस निश्चय धर्मधारी तपस्वीकी नो कोई भक्ति करता है उसका फल कहते हुए, "जो तं दिवा" इत्यादि गाथाएं दो हैं, इस तरह दो अधिकारोंसे व प्रथक् चार गाथाओंसे सब एकसौ एक गाथाओंसे यह ज्ञानतत्वप्रतिपादका नामका प्रथम महा अधिकार समाप्त
समाप्तोऽयं ग्रथः
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
AwammmmmmmmwamAAImannr
३६६ ] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। इस पथके ज्ञानतत्व नासके महा अधिकारका
सारांश। आचार्य महाराजने ग्रन्थके आदिमें ही यह प्रतिज्ञा की है कि मैं साम्यभावरूप शुद्धोपयोगका आश्रय लेता हूं. क्योंकि उसीसे निर्वाणका लाभ होता है इसी बातको इस अधिकारमें अच्छी तरह सिद्ध कर दिया है। निश्चय रत्नत्रयकी एकता मोक्षमार्ग है। जहां ऐसा परिणाम है उसीको वीतराग चारित्र या मोह क्षोभ रहित साम्यभाव या शुद्ध उपयोग कहते हैं। यह आत्मा परिणामी है, इसके तीन प्रकारके परिणाम हो सक्ते हैं-शुद्धोपयोग, शुभोपयोग और अशुगोपयोग । शुद्धोपयोग मोक्षप्ताधक है । मंदकपायरूप, अत् भक्ति रूप, दान पूना वैयावृत्त्य परोपकाररूपभाव शुभोपयोग है, जिससे स्वर्गादिकी प्राप्ति होती है । और हिंसा, असत्य, तीव्र विषयानुराग, आर्तपरिणाम, अपकार आदि तीव्र कवाय रूप परिणाम अशुभोपयोग है-यह नर्क या तिवच या कुमानुषके जन्ममें प्राप्त करानेवाला है, अतः यह सर्वया त्यागने योग्य है । तथा शुभोपयोग, शुद्धोपयोगकै लाभके लिये तथा शुद्धोपयोग साक्षात् ग्रहण करने योग्य है । आत्माका निम आनन्द जो निराकुल तथा स्वाधीन है, शुद्धोपयोगके द्वारा ही प्राप्त होता है । इसी शुद्धोपयोगके द्वारा यह आत्मा स्वयं अहंत परमात्मा होजाता है । ऐसे केवलज्ञानीके क्षुधा तृषा आदिकी बाघा नही होती है और न इच्छापूर्वक वचन तथा कायकी क्रियाएं होती हैं, क्योंकि उनके मोहनीय कर्मका सर्वथा क्षय हो
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
www
wwwww
श्रीप्रवचनसार भापाटीका। [३६७ गया है । उनके तथा अन्य जीवोंके पुण्य कर्मके उदयसे विना इच्छाक ही प्रभुको वणी खिरती है व उपदेशार्थ विहार होता है । केवलज्ञानीके अतींद्रिय ज्ञान प्रत्यक्ष दोता है जिसकी महिमा वचन अगोचर है, उस ज्ञानमें सर्व मानने योग्य सर्व द्रव्योंके सर्व गुण पर्याय एक समयमें विना विसी क्रमके झझकते हैं। उनको जाननेके लिये किसी तरहका खेद नहीं करना पड़ता है और न इंद्रियोंकी सहायता ही लेनी पड़ती है, कोई आकुलता ही होतो है-वह केवलज्ञानी पूर्णपने निराकुल रहते हैं-उनका ज्ञान यद्यपि प्रदेशोंकी अपेक्षा आत्माके ही भीतर है परन्तु सर्व जाननेकी अपेक्षा सर्व गत या सर्वव्यापी है । इसी सर्वव्यापी ज्ञानकी अपेक्षासे केवली भगवानको भी सर्वव्यापी कह सके हैं। केवली महाराजके अनंत सुख भी अपूर्व है जिसमें कोई पराधीनता, विसमता व क्षणभंगुरता व अन्तपना नहीं है। वह सुख प्रत्यक्ष आत्माका स्वभाव है, इन्द्रियों के द्वारा सुख यास्तवमें दुख है क्योंकि दुःखोंके कारण कर्माको बांधनेवाला है, पराधीन है, अतृप्तिकारी है, क्षणभंगुर है और नाश सहित है। केवली महारान प्रत्यक्ष ज्ञान व सुखके भंडार हैं । शुद्धोपयोगके फलसे केवली परमात्मा हो फिर शेष फर्म नाशकर सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं। यह शुद्धोपयोग श्रुतज्ञान द्वारा प्राप्त होता है । श्रुतज्ञान शास्त्रों के द्वारा वैसा ही पदार्थोका स्वरूप जानता है जैसा फेवली महाराज मानते हैं अंतर मात्र परोक्ष या प्रत्यक्षका है । तथा परोक्ष श्रुतज्ञान अपूर्ण है अस्पष्ट है जब कि केवलज्ञान पूर्ण और स्पष्ट है तथापि
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
ammmmwww
३६८] अप्रिवचनसार भापाटीका । आत्मा और अनात्माका स्वरूप असे केवलज्ञानी जानते हैं वैसा ही श्रुतज्ञानी जानते हैं। इसी यथार्थ ागम ज्ञानके द्वारा भेद विज्ञान होता है तब अपने मात्माका सर्व मन्य द्रव्योंसे टथक पनेका निश्चय होता है, ऐसा निश्चय कर नव कोई भागममें कुशलता रखता हुआ मोहके कारणोंको त्यागकर निग्रंथ हो अपने उपयोगको शुद्धात्माके सन्मुख करता है तब वह निश्चय रत्नत्रयकी एकता रूप शुद्धोपयोगको पाता है । यह आत्मा कूटस्थ नहीं है किंतु परिणमनशील है। जब यह शुद्ध भावमें न परिणमन करके रागद्वेष मोह रूप परिणमन करती है तब इसके कर्मोशा बंध होता है, जिस बन्धसे यह जीव संसारसागरमें गोता लगाता हुआ चारों गतियों में महादुःखको प्राप्त होता है, इसलिये आचा- . यने शिक्षा दी है कि मोहका नाश करके फिर रागद्वेषका क्षय करना चाहिये। जिसके लिये जिग भागमके अभ्यासको बहुत ही उपयोगी बताया है और वारवार प्रेरणा की है कि जो मोक्षका स्वाधीन सुख प्राप्त करना चाहता है उसको शास्त्र का पठन ब मनन अच्छी तरह करके छः द्रव्यांक सामान्य व विशेष स्वभावों को अलग २ पहचानना चाहिये । और फिर निज मात्माका स्वभाव भिन्न देखकर उसको पृथक् मनन करना व उसका ध्यान करना चाहिये । आत्मध्यान ही रागद्वेष मोहका विलय करने वाला है।
__ स्वामीने यह भी बताया है कि मात्मामें सुख स्वभावसे ही है । नो सुख इंद्रियों के द्वारा मालूम होता है वह भी अपनी - कल्पनासे रागके कारणले भोगनेमें भाता है। शरीर व विषयके
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
[ ३६९
पदार्थ सुख नहीं देते हैं । सांसारिक सुख भोगनेकी एक प्रकारकी तृष्णाकी दाह होती है उसकी शांतिके लिये इन्द्रादिक देव व चक्रवर्ती आदि भी विषयसुख भोगते हैं परन्तु वह तृष्णा बिषयभोग से कभी भी शांत नहीं होती है उलटी बढ़ती जाती है । उनकी शांतिका उपाय नित्र आत्मा के मननसे उत्पन्न समतारूपो अमृतका पान है। आत्मसुख उपादेय है, विषयसुख हेय हैं, ऐसा जो शृद्धानमें लाता है वही सम्पही है । वहा मोहका नाशकर देहके द्वारा होनेवाले सर्वं दुःखोंको मेट देता है । जो अरहंत परमात्माके द्रव्यगुण पर्यायको 1 पहचानता है वहीं अपने आत्माको जानता है । जो निश्चय नबसे अपने आत्माको जानकर भेदज्ञानके द्वारा आपमें ठहर जाता है वही निश्चय रत्नत्रयरूप मोक्षके कारण भावको प्राप्तकर लेता है । ऐसे भावको मम जो माधु अवस्थामें साधुका चारित्र पालता हुमा वीतराग चारित्ररूप होकर निजानन्दका स्वाद पाता है वही यथार्थ भाव मुनि है । जिसके निश्चय चारित्र नहीं है वह द्रव्यलिंगी है तथा मोक्षमार्ग में गमन करनेवाला नहीं है। श्री अरहंत भगवान और भावश्रमण ही वारंवार नमस्कार करने व भक्ति करनेके योग्य हैं । उपासक इनकी यथार्थ सेवा करके पुण्य बांध उत्तम देव या मनुष्य होकर परम्पराय मोक्षके पात्र होजाते हैं ।
इस ग्रन्थ में आचार्य शुद्धोपयोग या साम्यभावकी यत्रतत्र महिमा कहकर रागद्वेष मोह तन आत्मज्ञान व आत्मध्यान करनेकी ओर जीवको लगाकर समताके रमणीक परम शांत समुद्र में स्नान करनेकी प्रेरणा की है । यदी इस ग्रन्थका सार है । 'जो कोई वारवार इस भाषटी को पढ़ेंगे उनको आत्मलाभ होगा ।
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
woman
३७.] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका!
भाषाकारका परिचय ।
दोहा । श्री कुंदकुंद भगवान कृत, प्राकृत ग्रंभ महान । तत्त्वज्ञानसे पूर्ण है, परमानंद निधान ॥ १ ॥ ताकी संस्कृत वृत्ति यह, कर्त्ता श्री जयसेन । परमज्ञान रस दान है, सहनहि बोध सुदेन ॥२॥ ताकी भाषा देख नहि, उपगो ऐसामाव । भाषामें कर दीजिये, प्रगटे ज्ञान स्वगाव ॥ ३ ॥ अग्रवाल शुम वंशमें, गोयल गोत्र मंझार । मंगलसेन ज्ञानी महा, करत धर्म विस्तार ॥ ४ ॥ पुत्र हैं मक्खनलालजी, तिनका मैं हूं पुत्र । 'सीतल नाम प्रख्यात है, सुखसागर भी कुत्र ॥ ५ ॥
जन्म लक्ष्मणापुरीमें, अवध प्रान्त सुखकार । पढ़ विद्या इंग्लिश सहित खुलो हृदय संसार ॥ ॥ विक्रम पैतिस उणविसा, जन्म वैश्य गृहधार । गृह व्यापार हटाय सब, वत्तिस वरष मंझार ॥ ७ ॥ गृहत्यागी श्रावक दशा, सुखसे वीतत सार । निज आतम भनुभव रहे, नित निन हृदय मंझार ॥ ८ ॥ जिन वाणी अम्यासमें, अध्यातम एक रत्न । .ग्नि चीन्हा निज प्रेमसे, क्रिया योगका यत्न ॥ ९॥ ताकी रुची की प्रेरणा, भई अपार महान । मात्म धर्म गृहि धर्म वर, लिखे ग्रंथ गुणखान ॥१०॥
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
Wwwww
.श्रीमवचनसार भाषार्टीका। [३७२ समयसार मागम परम, नियमसार सुखदाय । भाषाटीका रच करो, निन अनुभूति उपाय ॥ ११ ॥
आनन्द अनुभव लेख बहु, और स्वसमरानन्द । लिखे स्व अनुभव कारणे, भोग्यो निज मानन्द ॥ १२ ॥ पूज्यपाद स्वामी रचित, शलकसमाघि सार । इष्ट उपदेश महानकी, टीका रची सम्हार ।। १२ । इत्यादिक कुछ अंथको, पुद्गल शब्द मिलाय । निज मति परखन कारणे, लिखे परम हरपाय ॥ १४ ॥ विक्रम संवत उनमसी, उचितसमें नाय । कलकत्ता नगरी रह्यो, अवसर वर्षा पाय ॥ १५ ॥ व्यापारी नई बहुत हैं, धन कण बुद्धि पूर। आकुलता सागर बनो, उधम मस्पूर ॥ १६ ॥ बृटिश राज्य मा देशमें, द्वादश लख समुदाय । करत सुनिज निज कार्यको, पाप पुण्य फल पाय ॥ १७ ॥ कई सहस नैनी तहां , लक्ष्मी उद्यम लाग । रहत करत कुछ भक्ति मी, निन मतकी घर राग ॥ १८ ॥ श्री जिन मंदिर चार तह, एक चैत्य गृह नान । नित प्रति पूजा होत नई, शास्त्र पठन गुणवान ॥ १९॥ विहार पंडित तहां, श्री जयदेव प्रवीण । शास्त्र पठनमें विज्ञ हैं, निन अनुभवमें लीन ॥ २० ॥ संस्थत विद्या सार घर, झम्मनलाल श्रीकाल। और गजाधरलाल हैं, नयविद् मक्खनलाल ॥ २१ ॥
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७२ ]
श्रीमसार भापाटीका ।
अग्रवाल शुभ वंश, मुख्य सेठ दयाचंद | वृद्धिचन्द वैजनाथजी, रामचंद फूलचंद ॥ २१ ॥ खडेलवाल के वश में, मुख्य सेठ रामलाल |
रामचंद पर चैनसुख, मल गंभीर दयाल || २३ ||
जैसवाल परवार भी, यदि वसत समुदाय । औषधि दाता गुण उदधि, मुन्नालाल सहाय ॥ २४ ॥ आनन्द चार लुप्रेमसे, चर्चा घरम चढ़ाव |
1
चार मास अनुमान तह रहे सुसंगति पाय ॥ २६ ॥ arret विशाल यह आरंभ्यो त ग्रन्थ | निज आता अभ्यासको खोला अनुपम पंथ ॥ ६६ ॥ समय पाय पूरण कियो, एक अध्याय महान । फागुन खुदि चौदश दिना, वार शुक्र अमलान || २७ ॥ रांची जिला विशाल में, है तमाड़ एक प्रांत । प्राचीन श्रावक बनें, धर्म बोध विन शांत ॥ २८ ॥ धर्म सुपथकी प्रेरणा, कारण आयो धाय । जादोcिe एक ग्राममें, ठहरो मन उनगान ॥ २९ ॥ श्री जिन प्रतिमा शाम वह, केशो गृह रुचि पाय | ग्रंथ सुपूरण दहं कियो, परमानंद बढ़ाय ॥ ३० ॥ मरवाना ठाकुर यहां राम सुजीवन सिंह । गुणधारी सज्जननिश, भक्त वृद्ध मनिर्मित ॥ ११ ॥ समता शांति सु आत्म सुखको निमित्त यह ठग ताते नित धर्मीनिसे, पूर्ण रहे यह धाम ॥ ३२ ॥
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमवचनसार भाषाटीका। [३७३' . मंगल श्री परहंत हैं, मंगल सिद्ध महान । मंगल साधु समूह हैं, मंगल जिन वृष जान ॥ १३ ॥ भाव द्रव्यसे नमनकर, भाव धरू यह सार। नर नारी या ग्रन्थको, पढ़ सुन हो दुःख पार ॥ १४ ॥ पहचाने निज तत्त्वको, ज्ञान स्वसुख मंडार । अनुभव करें निजात्मना, ध्यान धरै अविकार ॥ ३५ ॥
इस महान अंथ श्री प्रवचनसारके प्रथम अव्यायकी ज्ञान तत्त्वदीपिका नाम भाषाटीका मिनी फागुन सुदी १४ की रात्रिको सवेरा होते होते ५ बजे रांची प्रांत के तमाड़ पोष्टके जादोडिह ग्राममें पूर्ण की।
शुभं भवतु, कल्याण मवतु, आत्मानुभवो भवतु ।
धर्म रसिकोंका सेवक
ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद। तारीख २ मार्च १९९३ वार शुक्र वीर सं० २४४९
-
॥ इति ।।
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
ब्रशीतलप्रसादजी रचित ग्रन्थ। १ समयसार टीका कुदकुंदाचार्यकृत पृ. २९०) २) १ समाधिशतक टीका (पूज्यपाद कृत) ११) ३ गृहस्थ धन (दूसरी बार छप चुका ट. ३५०) ११) १ सुखसागर भजनावली (२१० भजनोंका संग्रह) 114) ५ स्वसमरानंद (चेतन-कर्म-युद्ध) ) ७ छ: बाला (दौलतरामसत सार्थ ) ८ जिनन्द्र मत दर्पण ५० भाग (जैन धर्मका स्वरूप-) ९ आत्म-धर्म (जैन अनैनको उपयोगी, दूसरीवार) ।) १० नियमसार टीका (कुंदकुंदाचार्यकृत) ११ प्रवचनसार टीका १२ सुलोचनाचरित्र (तैयार हो रहा है) १३ अनुभवानंद ( आत्माके अनुभवका स्वरूप ) ) १४ दीपमालिका विधान (महावीर पूजन सहित) -) १५ सामायिक पाठ अमितगतिकत
___(संस्कृत, हिन्दी छंद, अर्थ, विधि सहित) | १६ इष्टोपदेश टीका (पूज्यपाद कृत पृ० २८०) ११) १७ आत्मानंद सोपन
मिळनेका पतामैनेनर, दिगम्बर जैन पुस्तकालय-सूरत।
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
_