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श्रीnaarer भाषाका [ ४५ :
भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने अशुभोपयोगका फल 1. दिखलाया है। इस जीवके वैरी कषाय हैं। कषायक उदयसे ही आत्माका उपयोग कलुषित या मैला रहता है। शुद्धोपयोग कषायः रहित परिणाम है इसीसे वह मोक्षका कारण है । अशुद्धोपयोग कषाय सहित आत्माका भाव है इससे बंधका कारण है। इस अशुद्धोपयोग के शुभोपयोग और अशुभोपयोग ऐसे दो भेद हैं। जिस जीवके अनंतानुबन्धी चार और मिथ्यात्व आदि तीन दर्शन मोहनी की ऐसी सात कर्मकी प्रकृतियोंका उपशम हो जाता है । अथवा क्षयोपशम या क्षय हो जाता है उस सम्यग्दृष्टो जीवके कषाय अंतरंग में मन्द हो जाती है। तएव ऐसा ही जीव मंढ कपायपूर्वक जप, तप, सयम, व्रत, उपवास, दान, परोपकार,स्वाध्याय, पूजा, आदि व्यवहार धर्ममें प्रेम करता हुआ शुभोपयोगका धारी होता है । परन्तु सि जीवके सम्यग्दर्शनरूपी रत्नकी प्राप्ति नहीं हुई है वह अनंतानुबन्धी कषाय और मिथ्यात्व से वासित आत्मा अशुभ उपयोगका घारी होता है क्योंकि उसके भीतर देखे, सुने, छानुभए इन्द्रिय भोगोंकी कामना जाग्रत रहती है । जिस इच्छाकी पूर्ति के लिये मद्य,.. मांस, मधु खाता है, हिंसा, असभ्य, चोरी, कुशील, परिग्रहमें लगा रहता
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है । अपने स्वार्थके लिये परका बुरा करनेका उद्यम करता है । इसलिये वह अशुभोपयोगका घारी जीव अपने पाप भावसे नरक निगोद तिथेच गतिका कर्म बांधकर नरकमें जाता है तब छेदन भेदन मारण तारण 'आदि महा दुःखको सागरों पर्यंत भोगता है, 'यदि निगोद जाता है तब दीर्घकाल वहीं विलाकर फिर विर्यक