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श्रीप्रवचनसार भाषादीका। [२९१ जत्थानिका-आगे पुण्यकर्म दुःखके कारण हैं इसी ही पूर्वक भावको विशेष करके समर्थन करते हैं। ते पुण उदिण्णतण्हा, दुहिता ताहाहिं विलयसो
खाणि । इच्छंति अणुहति य आमरणं युक्खसंतता ॥९॥
ते पुनरुदीर्णतृष्णाः दाखितात्तृष्णाभिषियसौख्यानि । इच्छन्त्यनुभवन्ति च आमरणं दुःखसंतताः ॥ ७९ ॥
लामामार्थ-ये पुण्यशर्म भोगी फिर भी तृप्णाको बढ़ाए हुए चाहकी दाहोंसे घबड़ाए हुए इंद्रिय विषयके सुखोंको मरणपर्यंत दुःखसे जलते हुए चाहते रहते और भोगते रहते हैं।
अन्यप सहित पिशेपार्थ-(पुण) तथा फिर (३) वै सर्व संसारी नीव ( उदिण्णतण्हा ) स्वाभाविक शुद्ध आत्मामें तृप्तिको न पाकर तृष्णाको उठाए हुए (तण्हाहिं दुहिदा) स्वसंवेदनसे उत्पन्न नो पारमार्थिक सुख उसके अभावसे बनेक प्रकारकी तपणासे दुःखी होते हुए व ( आमरणं दुक्खसंवत्ता) मरणपर्यंत दुःखोंसे रातापित रहते हुए ( विषयसोक्खानि) विषयोंसे रहित परमात्माके सुखचे विलक्षण विषयके सुखोंको (इच्छंति) चाहते रहते हैं (अणुवंति य) और भोगते रहते हैं। यहां यह अर्थ है जिसे तृष्णाकी तीव्रतासे प्रेरित होकर नोक जंतु खराब रुधिरकी इच्छा करती है तथा उसको पीती है इस तरह करती हुई मरण पर्यंत दुःती रहती है अर्थात खराब रुधिर पीते-पीते उसका मरण हो जाता है परन्तु तृष्णा नहीं मिटती है . से अपने