SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९२ ] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । शुद्ध आत्मा अनुभवको न पानेवाले जीव भी जैसे मृग तृपातुर होकर वारवार भांडलीमें जल जान जाता है, परन्तु तृपा न बुझाकर दुःखी ही रहता है। इसी तरह विषयों को चाहते तथा अनुभव करते हुए मरणपर्यंत दुःखी रहते हैं । इससे यह सिद्ध हुआ कि तृष्णारूपी रोगको पैदा करनेके कारणसे पुण्यकर्म वास्तवमें दुःखके ही कारण हैं । भावार्थ - इस गाथा में फिर भी आचार्यने पहली यातको समर्थन किया है। संसार में मिथ्यादृष्टी जीवोंके तृष्णाको उत्पन्न करनेवाला तीव्र लोभका सदा ही उदय रहता है। जहां निमित्त वाहरी पदार्थोंका नहीं होता है वहां वह तीव्र लोभका उदय' बाहरी कार्यों द्वारा प्रगट नहीं होता है, परन्तु जहाँ निमित्त होता है व निमित्त मिलता जाता है वहां वह लोभ तृष्णा के नामसे प्रगट होता है । पुण्यकर्मके उदयसे जब बाहरी पदार्थ इंद्रियोंके विषयभोग योग्य प्राप्त हो जाते हैं तब वह लोभी जीव उनमें अतिशय तन्मय हो जाता है और उन सामग्रियोंकी स्थितिको चाहते हुए भी और अधिक विषयभोगोंकी चाह करलेता हैं, उस चाहके अनुसार पदा के सम्भन्ध मिलानेके लिये अनेक प्रकार के यत्न करता है जिसके : लिये अनेक कष्टोंको सहता है । जब कदाचित् पुण्यके उदयसे इच्छित पदार्थ मिल जाते हैं तब उनको भोगकर क्षणिक सुख. 'मानलेता है परंतु फिरभी अधिक तृष्णा बढ़ा लेता है। उस बढ़ी हुई तृष्णा के अनुसार फिर भी नवीन सामग्रीका सम्बन्ध मिलानेका प्रयास करता है। यदि इच्छित पदार्थ नहीं मिलते हैं तो महा
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy